आध्यात्मिक क्रांतिके दो सूत्र-(प्रवचन तेेेहरवां)
मेरे प्रिय आत्मन्!"क्या भारत में आध्यात्मिक क्रांति की आवश्यकता है?' इस संबंध में कुछ कहने के पहले, एक अत्यंत भ्रामक हमारी धारणा रही है, उस धारणा को समझ लेना जरूरी है।
सैकड़ों वर्षों से हम इस बात को मान कर बैठ गए हैं कि हमारा देश आध्यात्मिक है। और इस मान्यता ने हमें आध्यात्मिक होने से रोका है। अगर कोई बीमार आदमी यह समझ ले कि वह स्वस्थ है, तो उसके स्वस्थ होने की सारी संभावना समाप्त हो जाती है। बीमार आदमी को जानना जरूरी है कि वह बीमार है। इस जानने के द्वारा ही वह बीमारी से लड़ भी सकता है, बीमारी को बदल भी सकता है, स्वस्थ भी हो सकता है। लेकिन अभागा है वह बीमार आदमी जिसको यह भ्रम पैदा हो जाए कि मैं स्वस्थ हूं। क्योंकि यह भ्रम ही उसे बीमारी से मुक्त होने की कोई भी चेष्टा नहीं करने देगा।
भारत को यह भ्रम है कि हम आध्यात्मिक हैं। हम सारी बात, इस बात को मान कर ही आगे बढ़ते हैं कि हम आध्यात्मिक हैं। फिर हमें करने को कुछ भी शेष नहीं रह जाता। भारत के जीवन में आई हुई सारी नैतिक पतन की कहानी, भारत के जीवन में आया हुआ सारा चारित्रिक ह्रास, एक ही बुनियाद पर खड़ा हुआ है कि हमने यह मान लिया है कि हम आध्यात्मिक हैं। और हम आध्यात्मिक बिलकुल भी नहीं हैं। अध्यात्म का हमारा दूर से भी कोई नाता नहीं है!
निश्चित ही हमने एक झूठा अध्यात्म खड़ा कर रखा है, जिससे हमारा नाता है। और उसी नाते के कारण हम अपने को यह विश्वास दिलाने में समर्थ हो गए हैं कि हम आध्यात्मिक हैं। हमने एक सूडो स्प्रिचुअलिटी, एक झूठा अध्यात्म खड़ा कर रखा है। झूठा अध्यात्म बड़ी सस्ती बात है। वस्तुतः आध्यात्मिक होना एक क्रांति से गुजर जाना है। वस्तुतः आध्यात्मिक होना एक नये जीवन को उपलब्ध कर लेना है। और झूठा अध्यात्म, अपने को विश्वास दिला लेना है कि हम आध्यात्मिक हैं। और हमने कई तरकीबें खोज ली हैं अपने को विश्वास दिला लेने की। इन तरकीबों के कारण पांच हजार वर्ष से हम एक धोखे में जी रहे हैं। न हम आध्यात्मिक हो पाते हैं और न हम ईमानदारी से भौतिक हो पाते हैं।
भौतिक हम हैं, मैटीरियलिस्टिक हमारा दिमाग है, लेकिन अध्यात्म का हम कपड़ा ओढ़े खड़े हुए हैं। पश्चिम के साथ कम से कम एक बात तो सच है कि वे भौतिकवादी हैं, और ऐसा वे जानते हैं कि वे भौतिकवादी हैं। हमारी स्थिति बेईमानी की है! हम भौतिकवादी हैं, और जानते हैं कि हम अध्यात्मवादी हैं। यह एक बहुत गहरी चालाकी और बहुत गहरा धोखा और पाखंड है।
और जो आदमी इस बात को ठीक से समझता हो कि मैं भौतिकवादी हूं, वह बहुत दिन तक भौतिकवादी नहीं रह सकता है। जैसे जो आदमी समझता हो कि मैं बीमार हूं, वह बहुत दिन तक बीमार नहीं रह सकता! बीमारी की अपनी पीड़ा है, जो कहती है कि स्वस्थ हो जाओ! और भौतिकवाद का अपना दुख है, जो कहता है कि इसके ऊपर उठ जाओ! आने वाले भविष्य में इस बात की संभावना है कि पश्चिम आध्यात्मिक हो जाए, लेकिन हमारे आध्यात्मिक होने की वह संभावना भी बहुत कम मालूम होती है।
इसलिए पहले तो यह समझ लेना जरूरी है कि हम आध्यात्मिक नहीं हैं। व्यक्ति हुए हैं आध्यात्मिक--महावीर हुए हैं, बुद्ध हुए हैं, कृष्ण हुए हैं, राम हुए हैं। लेकिन व्यक्तियों के आधार पर कोई देश आध्यात्मिक नहीं हो जाता। अभी गांधी थे, चालीस करोड़ का मुल्क है, अगर एक आदमी आध्यात्मिक हो जाए तो चालीस करोड़ लोगों को यह भ्रम पैदा कर लेने की जरूरत नहीं है कि वे आध्यात्मिक हो गए हैं। एक संगीतज्ञ मुल्क में पैदा हो जाए तो पूरा मुल्क संगीतज्ञ नहीं हो जाता! और एक आध्यात्मिक आदमी के पैदा होने से भी पूरा मुल्क कैसे आध्यात्मिक हो सकता है! एक राममूर्ति पैदा हो जाए और जिसकी हड्डियां लोहे जैसा काम करें, और जिसकी छाती पर पत्थर तोड़े जा सकें और कार निकाली जा सके, लेकिन इससे हमको यह भ्रम नहीं पैदा होता कि हमारी छाती पर से पत्थर फोड़े जा सकते हैं और न हम यह चिल्ला कर कहते हैं कि हमारा पूरा मुल्क राममूर्ति हो गया।
लेकिन अध्यात्म के संबंध में हमने यही भ्रम पाल लिया है। व्यक्ति हुए हैं आध्यात्मिक, निश्चित हुए हैं। और उसमें भी यह सोचने की जरूरत नहीं कि वे इसी जमीन पर हुए हैं। सारी दुनिया में हुए हैं। लेकिन उन व्यक्तियों के कारण दुनिया के किसी देश ने यह भ्रम नहीं पाला अपने मन में कि हम आध्यात्मिक हो गए। हमारी कौम ने यह भ्रम पाल लिया है।
राम होते हैं, कृष्ण होते हैं, क्राइस्ट होते हैं, बुद्ध-महावीर होते हैं। क्या कभी आपने सोचा कि बुद्ध और महावीर हमारे मुल्क के प्रतिनिधि नहीं थे, रिप्रेजेंटेटिव नहीं थे; अपवाद थे, एक्सेप्शन थे। अगर वे हमारे प्रतिनिधि होते तो शायद पच्चीस सौ वर्ष तक बुद्ध को याद रखने की जरूरत भी नहीं पड़ती। अगर बुद्ध जैसे बहुत से लोग होते तो हम बुद्ध को कभी का भूल गए होते। हम उन्हीं को नहीं भूल पाते जो अत्यंत न्यून हैं, अकेले हैं, दूर हिमालय की चोटियों जैसे दिखाई पड़ते हैं--उन लोगों को हम नहीं भूल पाते। पच्चीस सौ साल हो गए महावीर और बुद्ध को गए हुए, अब भी हम उनकी याद करते हैं। यह इस बात का सबूत है कि पच्चीस सौ सालों में हम उस ऊंचाई के आदमी पैदा नहीं कर सके। अन्यथा महावीर-बुद्ध को हम कभी का भूल गए होते।
क्या यह संभव है कि एक मुल्क में बहुत अच्छे लोग हों, तो वहां एक अच्छे आदमी को हजारों साल तक याद रखना पड़े? याद रखना दूर है, उस अच्छे आदमी को खोजना भी मुश्किल होगा! अंधेरी रात में बिजली चमकती हुई दिखाई पड़ती है, सूरज उगा हो और बिजली चमके तो दिखाई नहीं पड़ती। स्कूल, यह जो स्कूल है, इसकी कक्षाओं में जाकर आप देख लें कि काले तख्ते लगे हुए हैं, उन काले तख्तों पर सफेद लकीर से शिक्षक लिखता है, सफेद दीवारों पर नहीं। क्योंकि सफेद दीवारों पर सफेद खड़िया से लिखे गए अक्षर दिखाई नहीं पड़ेंगे; वे काले तख्ते पर दिखाई पड़ते हैं।
महावीर और बुद्ध दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि हम सब काले तख्ते की तरह हैं। वे चमकदार लकीरों की तरह हमारे ऊपर प्रकट होकर दिखाई पड़ने लगते हैं। अगर हम सब भी सफेद लोग होते, तो महावीर-बुद्ध को खोजना मुश्किल हो जाता कि वे कहां हैं। ये दस-पांच नामों के आधार पर पूरा मुल्क यह जो भ्रम पाल लिया है कि हम आध्यात्मिक हो गए, यह धोखा टूट जाना चाहिए। और यह धोखा टूटे तो मुल्क में एक आध्यात्मिक क्रांति हो सकती है। और उसकी बहुत जरूरत है। क्योंकि जिस मुल्क का कोई आत्मिक जीवन नहीं है, उस मुल्क के पास कोई भी जीवन नहीं है। और जिस मुल्क के पास प्राणों की कोई ऊर्जा नहीं है, कोई पवित्रता नहीं है और प्राणों का कोई प्रेम नहीं है, उस मुल्क के पास सब दीनऱ्हीन हो गया, दरिद्र हो गया, भिखमंगा हो गया, उस मुल्क का सब कुछ नष्ट हो गया!
लेकिन यह टूट नहीं सकेगी बात, जब तक हमें यह दिखाई न पड़ जाए कि व्यक्ति पैदा हुए हैं जो धार्मिक थे, राष्ट्र आज तक पृथ्वी पर कोई धार्मिक नहीं पैदा हुआ है, समाज कोई भी धार्मिक पैदा नहीं हुआ है। व्यक्ति पैदा हुए हैं अपवाद की तरह।
दो हजार साल बाद मेरा नाम लोग भूल जाएंगे और आपका नाम भी लोग भूल जाएंगे, गांधी का नाम याद रह जाएगा। और दो हजार साल बाद लोग सोचेंगे कि कितने अच्छे लोग थे गांधी के जमाने के--गांधी जैसे लोग! कितने प्यारे लोग थे! और उनका सोचना बिलकुल ही गलत होगा, फैलॅसियस होगा, झूठ होगा। क्योंकि गांधी हमारे प्रतिनिधि नहीं थे। गोडसे हमारा प्रतिनिधि हो भी सकता है, गांधी हमारे प्रतिनिधि बिलकुल नहीं हैं। हम गांधी जैसे बिलकुल भी नहीं हैं। गांधी बिलकुल अपवाद हैं। और उन्हीं गांधी के आधार पर दो हजार साल बाद लोग सोचेंगे--कितने अच्छे लोग थे! कैसा अच्छा जमाना था! सतयुग था! झूठ होगी उनकी धारणा। गांधी के आधार पर पूरे जमाने, और पूरी कौम, और पूरे देश के संबंध में निर्णय नहीं लिया जा सकता।
लेकिन हम पिछले अतीत के संबंध में यही करते रहे हैं। हम कहते हैं, राम जहां पैदा हुए! राम का देश! बुद्ध का देश! महावीर का देश! धार्मिक देश है।
राम और बुद्ध और महावीर से कोई देश धार्मिक नहीं होता। देश धार्मिक होगा वृहत्तर मनुष्य के धार्मिक होने से। एक आदमी के धार्मिक होने से देश धार्मिक नहीं होता। बल्कि उस एक आदमी का धार्मिक दिखाई पड़ना इस बात का सबूत है कि बाकी लोग धार्मिक नहीं हैं।
जिस दिन पृथ्वी पर सारे लोग धार्मिक होंगे, उस दिन महात्माओं को कोई जगह नहीं रह जाएगी। महात्मा तभी तक जी सकते हैं, जब तक हीन आत्मा पृथ्वी पर बड़ी संख्या में हैं। नहीं तो महात्माओं को विदा हो जाना पड़ेगा। जिस दिन महा-मनुष्यता का जन्म होगा, उस दिन महापुरुषों के लिए कोई जगह नहीं है। महापुरुष एक तरह का शोषण कर रहे हैं--छोटा आदमी है इसलिए महापुरुष होने की सुविधा है। अगर महापुरुष होना हो तो आप जल्दी हो जाएं। हजार, दो हजार साल बाद महापुरुष होना बहुत मुश्किल है! जिस दिन सचमुच बड़ी मनुष्यता पैदा होगी, उस दिन बड़े मनुष्यों की जगह नहीं रह जाएगी।
यह तो आदमी छोटा है, हीन है, दीन है, पापी है, अंधेरे में खड़ा है, इसलिए एक आदमी एक हाथ में दीया लेकर खड़ा हो जाता है और महापुरुष दिखाई पड़ने लगता है। और हजारों साल तक हमें याद रखना पड़ता है कि एक आदमी था जिसके हाथ में दीया था।
यह दुख की कथा है, यह कोई बहुत आनंद की और गौरव की बात नहीं है। सिर्फ इससे हमने एक भ्रम पैदा कर लिया और हम मान कर बैठ गए कि कौम धार्मिक है, कि आध्यात्मिक हैं हम लोग।
और जब हम आध्यात्मिक हैं तो हमें करने को कुछ भी नहीं बचा, सिवाय इसके कि हम सारे जगत को उपदेश दें। स्वाभाविक, जो आदमी आध्यात्मिक हो गया उसके लिए और क्या बच जाता है! और जब पूरा राष्ट्र ही आध्यात्मिक हो गया हो, पूरी जाति आध्यात्मिक हो गई, पूरा समाज, तो अब हमारे पास काम क्या है? अब हमारे पास एक काम है कि हम सारे जगत के गुरु हो जाएं और सारे जगत को उपदेश दें!
तो भारत हजारों साल से सिर्फ उपदेश देने का काम कर रहा है और इस बात को भूल गया है कि हमारे पास ही वह संपदा नहीं है जिस संपदा की हम बात करते हैं; हमारे पास ही वह सत्य नहीं है जिसका हम शोरगुल मचाते हैं; हमारे पास ही वह अनुभव नहीं है जिस अनुभव के लिए हम इतने जोर से चिल्लाते हैं कि हमारे पास है। हमारी मुट्ठियां खाली हैं और हमारे प्राण खाली हैं। किताबें हैं हमारे पास, इतिहास है हमारे पास महापुरुषों का। लेकिन हम? हम धार्मिक नहीं हैं, हम आध्यात्मिक भी नहीं हैं। बल्कि हालतें उलटी हो गई हैं। चूंकि हमने यह बुनियादी बेईमानी की है अपने साथ कि बिना अपने को आध्यात्मिक हुए हमने आध्यात्मिक समझ लिया है, हम बहुत धोखे में पड़ गए हैं।
धोखा ऐसा है कि हमने हर चीज को झूठ की शक्ल देने का उपाय कर लिया। हर चीज को, हर बात को हमने एक प्रवंचना और डिसेप्शन बना लिया। क्योंकि सीधे हम उसे स्वीकार नहीं कर सकते। हम सीधे उस बात को अंगीकार नहीं कर सकते कि हमारे भीतर है। हम धन भी इकट्ठा करते हैं, लेकिन धन को गाली देते हुए इकट्ठा करते हैं।
एक अमेरिकन यात्री ने भारत से लौट कर अपने संस्मरणों में लिखा है कि मैं दिल्ली उतरा और दिल्ली स्टेशन पर ही एक सिक्ख साधु ने आकर मेरा हाथ पकड़ लिया और मेरा हाथ देखने लगा। मैंने उससे कहा कि क्षमा करिए, मुझे हाथ दिखाना नहीं है, ज्योतिष में मेरा विश्वास नहीं है। लेकिन उसने मेरी एक न सुनी और उसने कहा कि तुम पहले सुनो, तब तुम्हें विश्वास आ जाएगा। और वह कुछ बातें कहने लगा कि भविष्य में ऐसा होगा, वैसा होगा। उस अमेरिकन ने कहा कि क्षमा करिए, मुझे जानना नहीं भविष्य के संबंध में, आप कृपा करके हाथ छोड़ दीजिए। लेकिन उस सिक्ख ने कहा, तो दो रुपये मेरी फीस हो गई जितना मैंने बताया, वह दो रुपये आप मुझे दे दीजिए। उस अमेरिकन ने दो रुपये उसे दे दिए ताकि पिंड छूट जाए भलमनसाहत और शिष्टता के साथ।
लेकिन दो रुपये लेकर वह आदमी हाथ पकड़े ही रहा और कुछ बातें बोलता गया। उस अमेरिकन ने कहा, देखिए, क्षमा करिए! आपकी फीस फिर लग जाएगी, मैं सुनना नहीं चाहता हूं। लेकिन तब तक वह आदमी इतना बोल चुका था कि दो रुपये उसकी फीस फिर हो गई। उस अमेरिकन ने कहा कि लेकिन अब मैं दो रुपये आपको नहीं दूंगा। क्योंकि मैं जब कह रहा हूं कि आप मत बोलिए तो आप क्यों बोले जा रहे हैं? जब मैं नहीं पूछ रहा हूं तो आप क्यों बताए जा रहे हैं? अब मैं फीस नहीं दूंगा।
तो उस अमेरिकन ने लिखा है कि उस सिक्ख ने क्रोध से मेरा हाथ छोड़ दिया और कहा कि तुम पश्चिम के लोग मैटीरियलिस्ट हो। दो रुपये के लिए मरे जा रहे हो!
यह देखते हैं मजा! यह मजा देखते हैं कि वह आदमी कहता है कि तुम मैटीरियलिस्ट हो, दो रुपये के लिए मरे जा रहे हो! और यह आदमी क्या कर रहा है? दो रुपये के लिए जबरदस्ती उसके खीसे से निकालने की चेष्टा कर रहा है। यह स्प्रिचुअलिस्ट है, यह आध्यात्मिक है!
हम अपने आदमी की तलाश करेंगे तो हम हैरान हो जाएंगे। जिन चीजों को हम गाली दे रहे हैं, उन चीजों को हम पोस रहे हैं पूरे समय। लेकिन गालियां भी दे रहे हैं, अपमानजनक शब्द भी बोल रहे हैं, निंदा भी कर रहे हैं, और उन्हीं सब चीजों को हम जी रहे हैं। यह जो एक डिसेप्टिव, एक आत्मवंचक स्थिति हमने पैदा कर ली, यह कैसे पैदा कर ली? धन को हम गाली देते हैं, लेकिन हमसे ज्यादा धन को पकड़ने वाली कोई कौम है आज पृथ्वी पर! और धन को हम गाली देते हैं। बल्कि मजा तो यह है कि अगर हम थोड़ा गौर करें...।
मैं जयपुर में ठहरा हुआ था। एक मित्र आए और मुझसे कहने लगे कि एक बहुत बड़े मुनि नगर में हैं, आप उनसे मिल कर बहुत खुश होंगे। मैंने कहा कि तुम्हें कैसे पता चला कि वे बहुत बड़े मुनि हैं? तुमने, कौन सा मापदंड है तुम्हारे पास? तुम्हारे पास कौन सा तराजू है जिससे तुमने जाना कि वे बहुत बड़े मुनि हैं? उन्होंने कहा, इसमें क्या जानने की बात है, खुद जयपुर महाराज उनके चरण छूते हैं!
तो मैंने उनसे कहा, इसका मतलब हुआ कि जयपुर महाराज तुम्हारे लिए बड़े आदमी हैं, मुनि बड़े नहीं हैं। चूंकि जयपुर महाराज छूते हैं चरण, इसलिए मुनि भी बड़े हो गए। और अगर जयपुर महाराज वहां न जाएंगे तो मुनि छोटे हो जाएंगे। बड़ा कौन है? और जयपुर महाराज बड़े क्यों हैं? क्योंकि सम्राट हैं, संपदाशाली हैं, इसलिए न!
महावीर और बुद्ध के संबंध में शास्त्र लिखे गए हैं। और ऐसा लगता है कि वे शास्त्र लिखने वाले बुद्ध और महावीर को जरा भी नहीं जानते होंगे। क्योंकि उन्होंने शास्त्रों में यह लिखने की कोशिश की है कि महावीर ने इतने घोड़े, इतने हाथी, इतना धन, इतना चांदी, इतना सोना छोड़ा! वे महात्यागी थे! जैसे कि अगर उनके पास ये चीजें न होतीं तो फिर वे महात्यागी नहीं हो सकते थे। यह मापदंड है कि कितने घोड़े छोड़े, कितने हाथी छोड़े, कितना सोना! तो मूल्य किस बात का है, महावीर का या सोने का, घोड़ों का, हाथियों का? फिर अगर बुद्ध को बड़ा त्यागी बताना है उनके शिष्यों को, तो महावीर से ज्यादा घोड़े, ज्यादा हाथी छुड़वाने पड़ेंगे, तब तो बड़े हो सकते हैं अन्यथा नहीं हो सकते!
क्या आपने कभी सोचा: हिंदुस्तान में जैनियों के चौबीस तीर्थंकर हैं, उनमें से एक भी गरीब आदमी का लड़का नहीं है, सब राजाओं के लड़के हैं। बुद्ध राजा के लड़के हैं। राम, कृष्ण राजा के लड़के हैं। हिंदुस्तान में आज तक एक गरीब आदमी को यह हैसियत नहीं मिली कि उसे भगवान माना जा सके। क्यों? क्या गरीब आदमी के घर में भगवान के पैदा होने की कोई संभावना नहीं है? क्या भगवान के वहां भी गरीब और अमीर आदमी का हिसाब रखा जाता है? क्या यह सोचना पड़ता होगा अवतार लेने के पहले कि कहां लेना है? अमीर के घर में, राजपुत्रों के!
नहीं, यह कारण नहीं है। लेकिन सच्चाई यह है कि गरीब के घर से अगर कोई व्यक्ति त्याग करके निकल जाए तो हमारे पास तौलने का कोई उपाय नहीं है कि वह त्यागी है। तौलने का उपाय तो धन है। तो जब राजपुत्र त्यागते हैं तो हमें दिखाई पड़ते हैं; जब गरीब-पुत्र त्यागते हैं तो उनका कोई पता नहीं चलता। गरीब संन्यासी हो तो भिखारी हो जाता है और अमीर संन्यासी हो तो स्वामी हो जाता है। क्योंकि तौलने का हमारे पास उपाय क्या है? मापदंड क्या है हमारे पास? और हम ऐसे लोग हैं जो धन को आदर नहीं करते। हमसे ज्यादा धन को आदर करने वाले लोग खोजना कठिन है!
मैं आपसे कहता हूं, पश्चिम के मुल्कों में--या भारत को छोड़ कर कहीं भी--मोहम्मद राजा के लड़के नहीं थे। लेकिन अरब की कौम ने एक गरीब के लड़के को भगवान के अवतार की हैसियत दी! जीसस क्राइस्ट राजा के लड़के नहीं थे, एक गरीब के लड़के थे, एक बढ़ई के लड़के थे। लेकिन जेरुसलम के लोगों ने ईश्वर के अवतार की हैसियत दी! हिंदुस्तान आज तक एक गरीब लड़के को अवतार की हैसियत नहीं दे सका है। हिंदुस्तान के बाहर गरीबों के लड़कों ने भी भगवान होने की हिम्मत कमाई; लेकिन हिंदुस्तान के बाहर ही यह संभव हुआ है, हिंदुस्तान के भीतर संभव नहीं हो सका है। इसका कुछ कारण होना चाहिए। धन के प्रति हमारा अत्यधिक मोह है। यद्यपि हम गालियां देते हैं। बल्कि यह भी हो सकता है कि हम गालियां भी इसीलिए देते हैं कि हमारा अत्यधिक मोह है। अगर मोह न हो तो शायद धन का हमें खयाल भी भूल जाए, इतनी गालियां देने की जरूरत भी न रहे।
मैंने सुना है कि अगर कहीं चोरी हो जाए, अगर इस इलाके में चोरी हो जाए अभी, और यहां खबर आए कि चोरी हो गई, तो इस भीड़ में जो चोर होंगे वे सबसे पहले चोरी की निंदा शुरू कर देंगे। क्योंकि उन्हें डर पैदा होगा कि कहीं किसी को खयाल न हो जाए कि हमने तो चोरी नहीं की। तो चोर सबसे पहले चिल्लाने लगेगा: चोरी पाप है! पकड़ो चोर कहां है! ताकि भीड़ ठीक से सुन ले कि यह आदमी चोरी के खिलाफ है, कम से कम यह आदमी चोरी नहीं कर सकता।
अगर चोरी हो, तो चोर सबसे पहले चोरी की निंदा करते हैं। अगर बेईमानी हो, तो बेईमान बेईमानी के खिलाफ खड़े हो जाते हैं। अगर भ्रष्टाचार हो, तो भ्रष्टाचारी नेता हो जाते हैं और दिल्ली के मंच से खड़े होकर कहने लगते हैं कि हम भ्रष्टाचार बिलकुल समाप्त कर देंगे।
और हम धोखे में आ जाते हैं। हम समझते हैं कि यह जो आदमी भ्रष्टाचार के खिलाफ है, यह आदमी कैसे भ्रष्टाचार कर सकता है!
लेकिन हमें पता नहीं है। जिन लोगों को मनुष्य का थोड़ा भी अनुभव है, जो मनुष्य की चालबाजियां, मनुष्य की कनिंगनेस, मनुष्य की बेईमानी का जिन्हें थोड़ा भी खयाल है, वे जानते हैं कि भ्रष्टाचारी को बचने का सबसे अच्छा उपाय यह है कि वह भ्रष्टाचार के खिलाफ में बोलने लगे। चोर को बचने का सबसे अच्छा उपाय यह है कि वह चोरी का दुश्मन हो जाए। ये बचने के उपाय हैं।
और हमारा मुल्क धन के खिलाफ बोल रहा है हजारों साल से। मेरी अपनी समझ यह है कि यह हमारा धन के प्रति जो अत्यधिक मोह है, उससे बचने का उपाय है। इस भांति हम जाहिर करते हैं कि नहीं, हमें धन से कुछ लेना-देना नहीं है, इस भांति हम जाहिर करते हैं कि हम धन के दुश्मन हैं। लेकिन धन के प्रति हमारी तीव्र आकांक्षा सब तरफ दिखाई पड़ती है, सब तरफ सब भांति दिखाई पड़ती है।
और इसी भांति हमने जीवन के सारे तलों पर धोखा दे लिया है, सारे तलों पर! हम कहते हैं कि आत्मा अमर है, और युद्ध के मैदान पर जाने की हमारी जरा भी हिम्मत नहीं है। हम कहते हैं आत्मा अमर है, और अंधेरे में जाने से हम डरते हैं। हम कहते हैं आत्मा अमर है, और पहाड़ पर चढ़ने में और समुद्र को लांघने में हमारे प्राण कंपते हैं। जिनकी आत्मा अमर है, जिन्हें यह अनुभव हो चुका, उन्हें मृत्यु का भय मिट जाना चाहिए। क्योंकि जिसको पता चल गया आत्मा अमर है, उसके लिए मृत्यु कहां रही! उसके लिए तो जिंदगी एक खेल हो गई, मौत एक खेल हो गई।
हमारा मुल्क मानता है कि आत्मा अमर है, और मौत से हम सबसे ज्यादा डरते हैं। जो लोग कहते हैं कि आत्मा अमर नहीं है, जो लोग कहते हैं कि मरने के साथ सब मर जाता है, वे लोग भी मृत्यु का साक्षात करने में हमसे ज्यादा सबल और बहादुर हैं। क्या कारण है?
कारण यह है कि आत्मा अमर है, यह हम अपने मरने का जो भय है, उसे छुपाने के लिए इस मंत्र को दोहराते रहते हैं कि आत्मा अमर है, आत्मा अमर है। ताकि हमें विश्वास आ जाए कि आत्मा अमर है, और मरना नहीं है। मौत के भय को भुलाने के लिए हम यह छोटी तरकीबें ईजाद कर लेते हैं।
मेरा मतलब यह नहीं है कि आत्मा अमर नहीं है, वह मैं नहीं कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि हमारी यह तरकीब है।
मैं एक घर में गया था। कोई मर गया था। पास-पड़ोस के लोग इकट्ठे हुए थे और घर के लोगों को समझा रहे थे कि क्यों रोते हैं आप? आत्मा तो अमर है! क्यों रोते हैं? शरीर मिट जाता है, शरीर तो वस्त्र हैं, छूट जाते हैं। आत्मा तो फिर आगे यात्रा पर निकल गई। तो फिर क्यों रो रहे हैं? कोई मरा नहीं है, मृत्यु तो असत्य है।
मैं तो बहुत हैरान हुआ। मैंने सोचा कि इन लोगों को ज्ञान उपलब्ध हो गया, इस पड़ोस में बड़े ज्ञानी हैं! जिनको यह सब पता है कि शरीर वस्त्र की भांति छूट जाता है। लेकिन यह मुझे मालूम नहीं था कि ये थोथे शब्द थे जो इन्होंने किताबों से पढ़ लिए थे। लेकिन मैं कैसे पहचानता ये कि सिर्फ शब्द हैं। आदमी कोई कह रहा है, तो मैंने माना कि ठीक कहते होंगे। मैं बहुत प्रसन्न लौटा। मैं उन पड़ोस के लोगों को नमस्कार करता हुआ लौटा कि इस आस-पास के लोग कितने अदभुत हैं, इनको आत्मा की अमरता का पता है!
लेकिन संयोग की बात, दो महीने बाद, जो सज्जन समझा रहे थे उनके घर कोई मर गया, और मुझे वहां भी जाना पड़ा। मैंने देखा, वे रो रहे हैं, और जिनको वे समझा रहे थे, अब वे उनको समझा रहे हैं कि आत्मा तो अमर है। आप क्यों परेशान हो रहे हैं? आत्मा तो अमर है! यह तो वस्त्रों की भांति छूट जाता है शरीर और आत्मा आगे की यात्रा पर निकल जाती है। कोई मरता ही नहीं है।
तब मुझे बड़ी हैरानी हुई! तब मुझे समझ में आया कि कुछ बातें हैं जो दूसरों को समझाने के लिए हैं, लेकिन उनका हमें खुद कुछ भी पता नहीं है। या हो सकता है कि हम अपने को समझाने की चेष्टा करते हों उन बातों को दोहरा कर, लेकिन उससे जीवन की समस्या का न कोई हल होता है, न जीवन के सत्य का कोई अनुभव होता है।
इसी भांति हमने बहुत से तलों पर अपने को धोखा दे लिया है। और सब तरह का धोखा देकर हम आध्यात्मिक होने का मजा ले रहे हैं, एक तृप्ति कर रहे हैं अहंकार की कि हम आध्यात्मिक हैं। शायद इस आध्यात्मिक होने के गौरव के पीछे एक और कारण है। और वह कारण यह है कि हम जगत में सब तरह से दीनऱ्हीन हो गए हैं। न हमारे पास भौतिक शक्ति है, न हमारे पास वैज्ञानिक उपकरण हैं, न हमारे पास भोजन है, न हमारे पास वस्त्र हैं, हमारे पास कुछ भी नहीं है। जो चीज दिखाई पड़ती है वह हमारे पास कुछ भी नहीं है। तो जो चीज नहीं दिखाई पड़ती है, हम उसी का दावा कर सकते हैं। दिखाई पड़ने वाली चीजों का दावा करना तो मुश्किल है।
हम यह तो नहीं कह सकते कि हम धनी हैं। क्योंकि दुनिया हंसेगी इस पागलपन की बात को सुन कर। क्योंकि अगर हम धनी कहेंगे तो अमेरिका के सामने हाथ जोड़ कर भीख मांगने का उपाय नहीं रह जाएगा। हम यह नहीं कह सकते कि धन-धान्य से परिपूर्ण है हमारी यह भारत माता। यह सुजलाम्-सुफलाम् भूमि जो है यह धन-धान्य से परिपूर्ण है, यह हम नहीं कह सकते। क्योंकि हम जानते हैं कि आज हमारे पेट में जो रोटी है वह हमारे मुल्क की नहीं है, हमारी जमीन की नहीं है। आज हिंदुस्तान में जितना रुपया चल रहा है, उसमें से दो रुपये अमेरिका के हैं हर तीन रुपये में। तीन रुपये चलते हैं तो दो रुपये अमेरिका के हैं। और आने वाले पांच साल के भीतर तीसरा रुपया भी अमेरिका का हो जाएगा। भोजन उधार है, मांगा हुआ है। हम यह नहीं कह सकते आज कि हमारा देश सोने की चिड़िया है। फिर हम क्या दावा करें? फिर हम किस तरह अपने अहंकार की तृप्ति करें? हम क्या कहें?
तो हम कुछ ऐसे दावे कर सकते हैं जो दिखाई भी नहीं पड़ते, जिनको नापनेत्तौलने का भी कोई उपाय नहीं है, जिनकी जांच-परख भी नहीं हो सकती, जिनका खंडन भी नहीं किया जा सकता। और वैसा दावा है कि हम आध्यात्मिक हैं। आध्यात्मिक होने का कोई उपाय नहीं, जांच-पड़ताल नहीं, कोई थर्मामीटर नहीं, कोई मेजरमेंट का रास्ता नहीं कि कैसे हम जानें कि आप आध्यात्मिक हैं? तो हमने एक ऐसी बात की गुहार मचानी शुरू कर दी कि हम आध्यात्मिक हैं।
यह जब तक हम चिल्लाते रहेंगे, तब तक दुनिया का, किसी और का कोई नुकसान नहीं है। क्योंकि अगर एक भिखारी अपने को सम्राट समझता हो, तो सम्राटों को इससे कोई नुकसान नहीं पहुंचता। बल्कि सम्राट सुरक्षित हो जाते हैं, इस भिखारी से डर भी न रहा, यह कभी सम्राट होने की चेष्टा भी नहीं करेगा। इससे किसी और को नुकसान नहीं पहुंचता है हमारे इन झूठे दावों से, नुकसान पहुंच रहा है हमको। देश का जीवन, देश का चरित्र, देश की नीति, देश का व्यक्तित्व, आत्मा रोज नीचे गिरती चली जाती है। और जितनी वह नीचे गिरती चली जाती है, उतने ही जोर से हम चिल्लाने लगते हैं कि हम आध्यात्मिक गुरु हैं जगत के। जगत से किसी ने कभी पूछा ही नहीं कि आपका गुरु कौन है! और हिंदुस्तान में गांव-गांव में जगतगुरु हैं। उनसे कोई पूछे कि जगत से कोई सलाह-मशविरा लिया है कि बिना जगत के पूछे आपने सेल्फ अपॉइनटेड!
एक गांव में मैं गया था, वहां भी एक जगतगुरु थे। मैंने गांव के लोगों को पूछा कि ये जगतगुरु कैसे हैं? इन्होंने जगत से पूछताछ की है? कितने शिष्य हैं इनके जगत में? कितने लोग इन्हें मानते हैं? उन्होंने कहा, जगत का तो हमें पता नहीं, लेकिन हमारे गांव में एक शिष्य जरूर है। और वे मुझसे कहने लगे, अगर आप किसी को न बताएं तो मैं असलियत बता दूं। वह शिष्य भी वैतनिक है, उसको भी वेतन देना पड़ता है। क्योंकि आज-कल गुरु ज्यादा हो गए हैं और शिष्य कम; तो शिष्य कहते हैं, वेतन दो, तो हम तुम्हारे साथ रहेंगे, नहीं तो हम दूसरे गुरु को ढूंढते हैं।
एक जमाना था, शिष्य ज्यादा थे, गुरु कम थे। अब जमाना बिलकुल उलटा है। गुरु ज्यादा हैं और शिष्य बिलकुल कम हैं। तो शिष्यों के लिए होड़ मची रहती है। गुरु शिष्यों की टांग पकड़े रहते हैं कि कहीं वह निकल कर दूसरे के चक्कर में न चला जाए। कहीं हिंदू मुसलमान न हो जाए, कहीं हिंदू ईसाई न हो जाए, कहीं ईसाई जैन न हो जाए, कहीं एक गुरु का शिष्य दूसरे के पास न चला जाए।
तो उन्होंने कहा है कि वह वैतनिक शिष्य है। मैंने कहा, यह भी चमत्कार है! अब तक वैतनिक गुरु सुने थे, वैतनिक शिष्य! और एक ही शिष्य के आधार पर वे जगतगुरु कैसे हो गए?
तो उन गांव के लोगों ने कहा, वे बहुत बुद्धिमान आदमी हैं, वे बिलकुल वैधानिक रीति से जगतगुरु हैं। उन्होंने अपने शिष्य का नाम जगत रख लिया है। उन पर कोई कानूनी जुर्म भी नहीं चला सकता कि तुम जगतगुरु कैसे हो?
हमारा पूरा मुल्क इस तरह की बेवकूफियों में तृप्ति खोज रहा है। हम सारे जगत के गुरु हैं, और हमारे हाथ खाली हैं और हमारे प्राण खाली हैं। न वहां प्रार्थना है, न वहां प्रेम है, न वहां परमात्मा है। हमारे पास कुछ भी नहीं है, और हम चिल्ला रहे हैं कि हम जगतगुरु हैं, आध्यात्मिक हैं; ऐसे हैं, वैसे हैं; यह हैं, वह हैं। ये झूठी बातें हम कब तक करते रहेंगे और कब तक अपने मन को बहलाते रहेंगे?
आध्यात्मिक क्रांति की जरूरत है। और उस क्रांति का पहला चरण यह होगा कि हम अपने इस भ्रम को भस्मीभूत कर दें, इस झूठे भ्रम को गिरा दें कि हम आध्यात्मिक हैं। हम सच्चाई से स्वीकार करें कि हम क्या हैं। क्योंकि हम इस बात को जब ठीक से समझ लेंगे कि हम क्या हैं, तो उस "क्या' को बदला जा सकता है। अगर हम अपनी वास्तविकता को जान लें, तो हम उस वास्तविकता को जानते हुए यात्रा भी कर सकते हैं, जहां हम उस वास्तविकता के ऊपर उठ जाएं। हम क्या हो सकते हैं, उसकी यात्रा के लिए, हम क्या हैं, इसे ठीक से जान लेना अत्यंत जरूरी है।
लेकिन यह झूठा भ्रम हमें यह नहीं जानने देता। आध्यात्मिक क्रांति का पहला कदम, मेरी दृष्टि में, भारत का जो एक मिथ्या दंभ है, एक फाल्स ईगो है, एक झूठा अहंकार है, उसको खंड-खंड कर डालना है। भारत को स्वीकार करना होगा कि फैक्चुअलिटी क्या है? तथ्य क्या है हमारा? हमारी वास्तविकता क्या है? हम खड़े कहां हैं?
हजारों साल से हमने अपने को धोखा दिया, उससे हम नीचे गिरते चले गए। अभी भी समय है कि हम ठीक से स्वीकार करें कि हम कहां खड़े हैं। अगर धन का हमारा मोह है, तो हम कहें कि धन का हमारा मोह है। अगर शरीर का हमें प्रेम है, तो हम कहें कि शरीर का हमें प्रेम है। अगर हमें मकान अच्छे लगते हैं, तो हम कहें कि मकान अच्छे हैं। हमें जो ठीक लगता है, हम कहें, उसे स्वीकार करें।
और फिर उस स्वीकृति के बाद हम सोच-विचार करें कि हमारी यह स्थिति है, यह डायग्नोसिस है, यह निदान है हमारा, अब हमें क्या करना है? अब हम इसमें क्या फर्क कर सकते हैं? अब हम इसके ऊपर कैसे उठ सकते हैं?
लेकिन नहीं, हम इस बात को जानने में बड़ी इनकारी जाहिर करते हैं। हम विरोध करते हैं इस बात का कि हमारे कपड़े उघाड़ कर न देखें जाएं। हमारे कपड़े उघाड़े जाएं और हमारी नग्नता दिखाई जाए, इसके लिए हम बहुत झगड़ा खड़ा करते हैं। मुझसे बहुत लोग नाराज होते हैं। वे कहते हैं, आपको कपड़े उघाड़ने की जरूरत क्या है? हम कपड़ों के बाहर जैसे दिखाई पड़ रहे हैं आप वैसा स्वीकार क्यों नहीं करते?
लेकिन हम कैसे करें! मैं टेलर की दुकान पर कपड़े बनते देखता हूं--जिस आदमी के कंधे नहीं हैं बिलकुल, वह भी रूई भरवा कर कोट में कंधे दिखलाता है। किसी दूसरे का नुकसान नहीं है इस बात से कि तुम्हारे कंधे नहीं हैं। लेकिन रूई के झूठे कंधों से तुम इस हाल में पड़ जाओगे कि व्यायाम किया जा सकता था और कंधे पैदा हो जाते, लेकिन उनको तुम अब कभी पैदा नहीं करोगे, रूई के कंधे काम कर देंगे, रूई के कंधों से तृप्ति हो जाएगी, झूठे कंधे पर्याप्त मान लिए जाएंगे।
आदमी के कपड़ों की ईजाद ने आदमी के स्वास्थ्य को इतना नुकसान पहुंचाया है जिसका हिसाब नहीं, क्योंकि कपड़ों के द्वारा आदमी स्वास्थ्य का धोखा देने में समर्थ हो गया। अगर दुनिया से कपड़े छीन लिए जाएं तो आप इसी शरीर में रहने को राजी नहीं होंगे जो शरीर है। क्योंकि आप इतने दीनऱ्हीन दिखाई पड़ेंगे कपड़े छिन जाने पर कि इस शरीर को बदलने का आपको खयाल पैदा हो जाने वाला है। आप असंतुष्ट हो जाएंगे कि इस हड्डी-हड्डी शरीर को लेकर कहां जाऊं, कैसे खड़ा हो जाऊं चौरस्तों पर! लेकिन कपड़ों ने सुविधा पैदा कर दी है, भीतर अस्थिपंजर है और कपड़ों में ढांक कर हम छिपा लेते हैं और सड़क पर खड़े हो जाते हैं। अगर दुनिया के कपड़े छीन लिए जाएं तो पंद्रह रोज के भीतर सारी दुनिया का स्वास्थ्य अच्छा हो सकता है। क्योंकि कोई आदमी अपने को नंगा देख कर बरदाश्त नहीं करेगा कि ऐसे शरीर को खींचना कैसे उचित है! या कहां जाऊं इस शरीर को लेकर! लेकिन कपड़ों ने व्यवस्था कर दी है। एक धोखा कपड़ों ने खड़ा कर दिया है।
क्यों मैं मनुष्य के, हमारे मुल्क के आध्यात्मिक कपड़ों को छीन लेना चाहता हूं?
क्योंकि हमें असलियत दिखाई पड़े कि हम आध्यात्मिक रूप से कितने नग्न, दीन, दरिद्र और अस्थिपंजर रह गए हैं, तो शायद कुछ किया जा सकता है। निश्चित कुछ किया जा सकता है कि इस मुल्क की आत्मा को जन्म मिल जाए। यह पहली बात आपसे कहना चाहता हूं कि यह भ्रम टूट जाना चाहिए। क्रांति का पहला चरण यह है।
और दूसरा चरण मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि अब तक मनुष्य को आध्यात्मिक बनाने की हमने जो योजना दी है, उस योजना में बुनियादी भूल है। और वह बुनियादी भूल यह है कि अब तक हमने अध्यात्म को एक सामूहिक उपक्रम, एक कलेक्टिव एफर्ट समझा हुआ है। हमने समझा हुआ है कि आध्यात्मिक समाज बनाना है तो एक-एक आदमी को समूह के ढांचे पर ढालना है। यह बात बुनियादी रूप से गलत है, अवैज्ञानिक है। दो आदमी एक जैसे नहीं बनाए जा सकते; न बनाने का कोई उपाय है। जिस दिन पृथ्वी पूरी आध्यात्मिक होगी, उस दिन एक-एक आदमी अपने जैसा होगा।
फ्रांस में एक बादशाह था चार्ल्स पंचम। उसको यह खयाल सवार था कि सारे लोगों को एक नीति, एक आचरण, एक विचार का बनाया जाए। उसने हजारों लोगों को फांसी पर लटकवा दिया, सिर्फ इसलिए कि आदमी अलग-अलग क्यों हैं, एक जैसे होने चाहिए! लेकिन फिर भी वह सफल नहीं हो पाया। बूढ़ा हो गया। तब तक उसने हजारों लोग मार डाले थे, लेकिन न तो सारे लोग एक विचार के बनाए जा सके, न एक चरित्र के बनाए जा सके, न एक मत में एक झंडे के नीचे लाए जा सके। फिर वह थक गया, ऊब गया, और उसने जाकर राज्य छोड़ दिया और एक मोनेस्ट्री में संन्यासी होकर भर्ती हो गया।
लेकिन जिंदगी भर की आदत थी उसको, तो उसने अपने एक कमरे में बारह घड़ियां लगवा लीं और चेष्टा करता था कि बारह घड़ियां एक सा समय दें। बारह बजें तो सब में बारह बज जाएं; एक मिनट-सेकेंड का फर्क न हो। लेकिन दो-चार दिन में ही उसे मुश्किल मालूम हुई, बारह घड़ियां थीं, उनको एक साथ चलाना मुश्किल था। घड़ियों को ही चलाना मुश्किल हो गया, कोई मिनट आगे निकल जाती, कोई मिनट पीछे रह जाती। उसने क्रोध में घड़ियां तोड़ डालीं। लेकिन घड़ियां तोड़ कर उसे खयाल आया कि जब बारह घड़ियां भी एक जैसी नहीं चलाई जा सकतीं, तो मैं सारे देश के लोगों को एक जैसा चलाने की कोशिश कर रहा था, वह पागलपन था। घड़ियां तो मृत हैं, वे भी एक जैसी नहीं चलाई जा सकतीं, तो जीवित मनुष्यों को एक से सांचों में कैसे ढाला जा सकता है!
वह जो चार्ल्स पंचम को जो पागलपन सवार था, वही इस देश के धर्मगुरुओं को हजारों साल से सवार है। हर आदमी को एक जैसा बना देना है! जब कि कोई दो आदमी एक जैसे नहीं हैं। एक जैसे बना देने की चेष्टा असफल होने को आबद्ध है, वह असफल होकर रहेगी, वह असफल हो गई है।
एक-एक आदमी का अनूठापन स्वीकार करना जरूरी है। अगर हमें मनुष्य को आध्यात्मिक बनाना है, तो आध्यात्मिकता युनिफॉरमिटी का नाम नहीं है। आध्यात्मिकता मिलिट्री की परेड नहीं है कि वहां एक जैसी कवायद हो रही है कि सारे लोग एक जैसे खड़े हुए हैं। एक-एक आदमी के पास अपनी आत्मा है, अपना व्यक्तित्व है। उस व्यक्तित्व को अपने ही ढंग से विकसित होने का मार्ग होना चाहिए।
लेकिन अब तक धर्म के नाम पर हमने यही किया है कि व्यक्ति को हमने समाज के ढांचे में ढालने की चेष्टा की है। समाज के ढांचे में ढाला गया व्यक्ति आध्यात्मिक तो हो ही नहीं पाता, पाखंडी हो जाता है, हिपोक्रेट हो जाता है। क्योंकि उसे हम जो बनाने की कोशिश करते हैं वह बन नहीं पाता, फिर वह क्या करे? फिर वह धोखा देना शुरू करता है कि मैं बन गया हूं। भीतर से वह जानता है कि मैं नहीं बना हूं। भीतर से अपराध अनुभव करता है। लेकिन जीने के लिए चेहरे बनाने फिर जरूरी हो जाते हैं। वह कहता है, मैं बन गया हूं। भीतर रहता है अशांत, भीतर रहता है पाप और अपराध से घिरा हुआ, और जाकर मंदिर में पूजा करता है। जब वह पूजा करता है, अगर कोई उसके प्राणों में झांक सके, तो पूजा को छोड़ कर उसके प्राणों में सब कुछ हो सकता है, पूजा उसके प्राणों में बिलकुल नहीं हो सकती।
लेकिन सोशल कनफरमिटी, समाज कहता है, पूजा करना धर्म है, टीका लगाना धर्म है, चोटी बढ़ाना धर्म है। धर्म जैसे कोई मिलिट्री की कवायद है कि आप इस-इस तरह का काम कर लें तो आप धार्मिक हो जाएंगे। धर्म के नाम पर समाज ने एक व्यवस्था बनाई हुई है। उसके अनुकूल आप हो जाएं, आप धार्मिक हो गए। जब कि आध्यात्मिक होने का मतलब ही यह है कि आपकी जो व्यक्तिगत चेतना है उसकी फ्लावरिंग हो, आपका जो व्यक्तिगत चेतना का फूल है वह खिले। और आप जैसा आदमी इस दुनिया में कभी नहीं हुआ। न राम आप जैसे थे, न बुद्ध आप जैसे, न महावीर आप जैसे।
यही तो वजह है कि ढाई हजार साल हो गए महावीर को गए हुए, दूसरा महावीर क्यों पैदा नहीं हो सका? क्या इसका कारण यह है कि लोगों ने महावीर बनने की कोशिश नहीं की? हजारों लोगों ने कोशिश की। लाखों लोगों ने कोशिश की। वे ठीक कपड़े छोड़ कर महावीर के जैसे नग्न खड़े हो गए। आज भी वैसे लोग हैं। लेकिन उनमें से एक भी महावीर की गरिमा, गौरव, आनंद को उपलब्ध नहीं हो सका। क्यों नहीं हो सका?
पहली तो बात यह है कि कोई आदमी दूसरे जैसा नहीं हो सकता है। इसकी कोई संभावना नहीं है। जरूरत भी नहीं है। वह दुनिया बहुत बेहूदी और बहुत बोरडम से भरी होगी। अगर बंबई के पचास लाख लोग रामचंद्र जी हो जाएं और धनुष-बाण लिए हुए घूमने लगें, तो बहुत घबराने वाली हो जाएगी बंबई। या पचास लाख लोग ठीक महावीर जैसे हो जाएं बंबई में, तो भी जीना दूभर हो जाएगा, लोग समुद्र में कूद कर आत्महत्या कर लेंगे। क्योंकि इतना एक जैसा पन घबड़ाने वाला होगा। जीवन में है विभिन्नता, अलग-अलग फूल, अलग-अलग रंग, अलग-अलग सुगंधें, और इसलिए जीवन में एक रस है और एक आनंद है।
नहीं, व्यक्तियों को मिटाने की जरूरत नहीं है। एक-एक व्यक्ति को पूरी स्वतंत्रता देने की जरूरत है कि वह वही हो सके जो होने के लिए पैदा हुआ है। लेकिन अब तक की सारी शिक्षा धर्मों की यह है--अध्यात्म के नाम पर हम यही सिखाते हैं--क्राइस्ट जैसे हो जाओ! गांधी जैसे हो जाओ! महावीर जैसे हो जाओ! लेकिन कोई धर्म यह नहीं कहता कि अपने जैसे हो जाओ। दूसरे जैसे हो जाओ!
दूसरे जैसे होने वाली आध्यात्मिकता झूठी होगी। और उससे जो आदमी पैदा होंगे वे असली आदमी नहीं होंगे, वे कार्बन कापियां होंगे, असली नहीं। और दुनिया को चाहिए असली आदमी, जिंदा आदमी चाहिए जो अपने जैसा हो; जिसके प्राणों में जो छिपा है उसे प्रकट करे, अभिव्यक्त करे। वह जो पैदा होने को हुआ है वही हो जाए।
एक आध्यात्मिक क्रांति का दूसरा चरण मेरी दृष्टि में--अध्यात्म को समूह से मुक्त करना है, क्राउड से मुक्त करना है और एक-एक व्यक्ति को गौरव और गरिमा देनी है। व्यक्ति का मूल्य है। समूह का अध्यात्म में कोई भी मूल्य नहीं है। भीड़ का आध्यात्मिक अर्थों में कोई भी मूल्य नहीं है।
भीड़ का मूल्य है राजनैतिक, पोलिटिकल। भीड़ का मूल्य है राजनेता के लिए, क्योंकि भीड़ की ताकत खड़ी करके वह नेता बनता है। भीड़ की जरूरत है वहां जहां युद्ध हैं, भीड़ की जरूरत है वहां जहां घृणा है, भीड़ की जरूरत है वहां जहां हमें फिजिकल फोर्स की जरूरत है। अध्यात्म में भीड़ की क्या जरूरत है? भीड़-भाड़ का वहां कोई सवाल नहीं, वहां एक-एक आदमी का मूल्य है। और एक-एक आदमी को खोज करनी है अपने प्राणों की, अपने सत्य की, अपने जीवन की, अपने जीवन को अभिव्यक्त करने का मार्ग खोज लेना है।
लेकिन यह नहीं हो सका, क्योंकि हमने राजनैतिक ढांचे पर धर्म को भी खड़ा कर लिया। हिंदुओं की भीड़ है, मुसलमानों की भीड़ अलग है, जैनियों की भीड़ अलग है। ये भीड़ें हैं, इनका अध्यात्म से कोई भी संबंध नहीं। आध्यात्मिक व्यक्ति होता है, भीड़ का कोई सवाल नहीं है। अगर आपको आध्यात्मिक होना है तो भीड़ खोजनी पड़ेगी? नहीं; आपको एकांत खोजना पड़ेगा, भीड़ नहीं। आपको अकेलापन खोजना पड़ेगा। आपको दूसरों से अपने को मुक्त करके अपने भीतर की खोज करनी पड़ेगी।
फिर हिंदुओं की भीड़ की क्या जरूरत है? मुसलमानों की भीड़ की क्या जरूरत है? ईसाइयों की भीड़ की क्या जरूरत है? ये भीड़ें राजनीति के छद्मवेश हैं, ये भीड़ें राजनीति की छिपी हुई शक्लें हैं। इसलिए हिंदू-मुसलमान के नाम पर हिंदुस्तान-पाकिस्तान बंट जाता है। धर्म का नाम है, बदमाशी राजनीति की है। सारी दुनिया में लड़ाइयां चलती हैं, हत्याएं चलती हैं। धर्म का नाम है, मस्जिद की आड़ है, मंदिर की आड़ है--और पीछे? पीछे शैतान तलवारें लिए हुए खड़ा है। और उसके पीछे हमेशा शैतान खड़ा हुआ है। वहां कभी भगवान नहीं है। और जहां-जहां भीड़ इकट्ठी होती है वहां-वहां साधना का कोई सवाल नहीं रह जाता।
लेकिन अब तक हमने इसको आध्यात्मिक होना समझा था कि एक आदमी हिंदू है, तो हम कहते हैं यह धार्मिक है। एक आदमी हिंदू भीड़ में सम्मिलित है तो हम कहते हैं धार्मिक है। भीड़ में सम्मिलित होने के लिए उसे कुछ नियम पालन करने पड़ते हैं। चोटी बढ़ानी पड़ती है, टीका लगाना पड़ता है, जनेऊ पहनना पड़ता है। अगर वह ये काम पूरे कर देता है तो वह आदमी धार्मिक है।
अभी मैं एक पत्रिका पढ़ रहा था। मैं तो हैरान हो गया! बीसवीं सदी में भी इस तरह की बातें कहने वाले लोग हैं। और न तो हमारे पास उनकी चिकित्सा का उपाय है, न अस्पतालों में भेजने की कोई व्यवस्था है। एक पीठी के जगतगुरु शंकराचार्य दिल्ली में ठहरे हुए थे, उनकी ही पत्रिका में वह लेख छपा है इसलिए गलत होने का कोई सवाल नहीं। एक आदमी ने आकर उनसे प्रार्थना की सुबह, दस-पच्चीस उनके भक्त बैठे हुए हैं और एक आदमी ने उनसे प्रार्थना की कि हमारा एक मंडल है, हम कुछ ब्रह्मज्ञान के संबंध में आपका उपदेश रखना चाहते हैं। जगतगुरु ने नीचे से ऊपर तक उसे देखा। वह आदमी टाई पहने हुए है, कोट-पतलून पहने हुए है। और कहा कि टाई, कोट-पतलून पहन कर ब्रह्मज्ञान पा लोगे?
वह आदमी घबड़ा गया होगा। उसने कभी खयाल भी नहीं किया होगा कि ब्रह्मज्ञान का टाई, पतलून और कोट से भी कोई संबंध हो सकता है! वह थोड़ा डरा। उसको डरा हुआ देखा होगा और पच्चीस जो भक्त बैठे थे वे प्रसन्न हुए होंगे, तो शंकराचार्य की हिम्मत बढ़ी होगी। इन गुरुओं की हिम्मत तब तक बढ़ती रहेगी जब तक भीड़ इनके पीछे है। तो उन्होंने उससे कहा, चोटी है?
अब उस आदमी की चोटी कहां! तो उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, देखो, चोटी है नहीं और ब्रह्मज्ञान की खोज करने चले हैं!
और भी इससे गजब की बात उन्होंने पूछी जो अत्यंत अशिष्ट है, लेकिन उन्होंने पूछा। और भक्तों ने छापा है, तो भक्तों ने प्रशंसा में ही छापा होगा। उन्होंने पूछा कि पेशाब खड़े होकर करते हो कि बैठ कर?
यह हमारा धर्म है, यह हमारा अध्यात्म है।
और उस आदमी से, उस बेचारे आदमी को अपमानित किया और कहा कि जाओ, जब तक ये सब बदलोगे नहीं तब तक तुम समझ ही नहीं सकते कि धर्म क्या है!
सोशल कनफरमिटी को, सामाजिक एकरूपता को अब तक हमने धर्म समझा हुआ है। हमारे जैसे कपड़े पहनो, हमारे जैसे उठो-बैठो, तो धार्मिक हो जाओगे।
धार्मिक होने से इसका क्या संबंध? बल्कि सच तो यह है कि हमारे बीच जो सबसे ज्यादा आत्मिक रूप से कमजोर होते हैं, वीकलिंग होते हैं, वे इस सोशल कनफरमिटी में सम्मिलित होते हैं। जो हमारे बीच थोड़े भी शक्तिशाली हैं वे इस मूर्खता में सम्मिलित नहीं होंगे। और उसका दुष्परिणाम यह होगा कि वे समाज के विद्रोह में खड़े हो जाएंगे।
आज जमीन पर जितने लोग सामाजिक जगत का विरोध करते हैं, उन लोगों में बहुत आध्यात्मिक चेतना है। लेकिन उस चेतना का दुरुपयोग हो रहा है। वे प्रतिक्रिया में खड़े हो गए हैं समाज के। उन सारे लोगों को आध्यात्मिक बनाया जा सकता है। मेरी दृष्टि में, आस्तिकों की बजाय नास्तिक में ज्यादा आध्यात्मिक ऊर्जा और खोज होती है। क्योंकि वह ईमानदारी से पूछता है कि मुझे ईश्वर दिखाई नहीं पड़ता तो मैं कैसे मानूं? उसका ईश्वर से ज्यादा गहरा कनसर्न है, उसका ईश्वर से ज्यादा गहरा संबंध है। वह पूछता है कि जो मुझे दिखाई नहीं पड़ता उसे मैं कैसे मानूं?
और एक आस्तिक बिलकुल धोखेबाज है। उसे न ईश्वर दिखाई पड़ता है, न उसे मतलब है। वह कहता है, होगा, जरूर होंगे! एक कभी नारियल चढ़ा देते हैं, इससे ज्यादा झंझट में पड़ना भी नहीं है। हो या न हो, क्या करना है! होंगे ही, जब सब लोग कहते हैं तो ईश्वर जरूर है। यह आदमी आस्तिक दिखाई पड़ता है, क्योंकि समाज की धारणा को स्वीकार करता है, समाज के अनुगत हो जाता है, समाज का गुलाम है। समाज इसका आदर करता है कि यह आदमी बिलकुल ठीक है। जो आदमी कहता है, कहां है ईश्वर? जो आदमी पूछता है, चोटी और ब्रह्म का क्या संबंध? वह आदमी गड़बड़ मालूम पड़ता है! दिखाई पड़ता है कि नास्तिक है, अधार्मिक है।
मैं आपसे कहना चाहता हूं, ऐसी उलटी स्थिति हो गई है इस जगत में कि जो लोग सच में आध्यात्मिक हो सकते थे वे आज विद्रोही दिखाई पड़ते हैं और जिनके जीवन में कोई अध्यात्म नहीं वे धार्मिक दिखाई पड़ते हैं। यह उलटा शीर्षासन उनका चल रहा है।
अगर आने वाले बच्चों को धार्मिक बनाना है और इस देश को कोई आध्यात्मिक क्रांति देनी है, तो मैं आपसे कहता हूं, अध्यात्म हमेशा विद्रोही है, रिबेलियस है। महावीर विद्रोही थे, बुद्ध विद्रोही थे, क्राइस्ट विद्रोही थे, कृष्ण विद्रोही थे। अध्यात्म हमेशा विद्रोही है। क्यों? क्योंकि वह भीड़ से मुक्त होने की चेष्टा करता है। अध्यात्म हमेशा व्यक्तिवादी है, इंडिविजुअलिस्टिक है। क्योंकि वह अपनी आत्मा की घोषणा करता है, वह सारी दुनिया के सामने यह कहना चाहता है कि मैं हूं। और मैं जो होने को पैदा हुआ हूं वही होने की आज्ञा चाहता हूं। और अगर वह आज्ञा नहीं मिलेगी तब भी मैं वही होने की चेष्टा करूंगा। सारी दुनिया के विरोध में भी मैं वही होने की चेष्टा करूंगा।
एक पहाड़ के किनारे पर, एक पहाड़ से मैं गुजर रहा था, एक ऊंची चोटी पर, एक पत्थर की दरार से एक बीज फूट गया होगा, एक शाखा निकली है, एक फूल खिला है। मैंने अपने मित्रों को कहा, देखते हो! एक पहाड़ की दरार पर, आंधियों और तूफानों में भी, एक बीज असर्ट करता है अपने को, एक बीज अभिव्यक्त करता है अपने को। उसने अपनी शाखा भेज दी, फूल खिल गया। पानी की मुश्किल होगी उसे पाने को वहां, मिट्टी कहां से खोदी होगी। पहाड़ की दरार है, आकाश में उठा हुआ है, अकेला है, कहीं दूर तक हरियाली नहीं है। आंधियां आती होंगी, तूफान टकराते होंगे चट्टान से आकर। लेकिन छोटा सा बीज भी हिम्मत रखता है, वह भी अपने को बचाने की चेष्टा करता है, वह लड़ता है। वह तूफानों से भी कहता है: कोई फिकर नहीं, लेकिन मैं बढूंगा; कोई फिकर नहीं, लेकिन मैं फूलूंगा; कोई फिकर नहीं, बीज जब पैदा हो गया है तो फूल बन कर रहेगा। यह घोषणा करता है।
लेकिन आदमी इतना कमजोर है कि वह जिंदगी में घोषणा भी नहीं करता कि मेरे भीतर भी फूल हैं, मैं उन्हें खिलाऊंगा। मेरा व्यक्तित्व है, मैं उसे विकसित करूंगा। मैं लडूंगा सारी दुनिया से। इम्मॉरल सोसाइटी है, अनैतिक समाज है, धार्मिक आदमी अगर किसी को होना है तो उसे समाज के खिलाफ लड़ना ही पड़ेगा। और इसलिए विद्रोही आदमी ही धार्मिक हो सकता है। इम्मॉरल सोसाइटी और मॉरल मैन, इन दोनों के बीच क्या संबंध हो सकता है? समाज है अनैतिक, तो धार्मिक आदमी कैसे समाज के अनुगत हो सकता है? इसका मतलब जो भी समाज के अनुगत है वह अनैतिक होगा! इस अनैतिक समाज के खिलाफ जो खड़ा होगा, विद्रोही, वही धार्मिक हो सकता है। धार्मिक होने के लिए व्यक्ति की चेतना का उदघोषण जरूरी है।
तो दूसरी बात यह कहना चाहता हूं कि सामूहिक धर्म का गया दिन, सामूहिक आध्यात्मिकता विदा हो गई। वह झूठी सिद्ध हुई, वह असफल हो गई। अब एक व्यक्तिगत आध्यात्मिकता, इंडिविजुअल स्प्रिचुअलिटी की घोषणा सारे जगत में कर देनी जरूरी है। और हमारे देश में तो अत्यंत जरूरी है।
भारत को आध्यात्मिक क्रांति की जरूरत है। बहुत सूत्र होंगे इस क्रांति के। लेकिन दो छोटे से सूत्रों पर मैंने आपसे बात की है। एक--कि यह भ्रम हमारा जाए कि हम आध्यात्मिक हैं। दो--समूह के साथ एक होने का नाम आध्यात्मिकता नहीं; आध्यात्मिकता का अर्थ है: आत्मा की अभिव्यक्ति, घोषणा, व्यक्ति की घोषणा।
इन दो सूत्रों पर मैंने ये थोड़ी सी बातें आपसे कहीं, इस आशा में कि आप मेरी बात मान नहीं लेंगे। अभी मेरे मित्र ने जिन्होंने परिचय दिया, उन्होंने कहा कि मैं जो कहूं, उसे विचारें, मानें, व्यवहार करें। नहीं, उतने आगे जाने को मैं नहीं कहूंगा। उनके इरादे ज्यादा एंबीशस हैं, उन्होंने ज्यादा महत्वाकांक्षा की बात कह दी। इतना ही पर्याप्त है कि मैंने जो कहा उसे सोचें। मानने की कोई भी जरूरत नहीं। और करने की तो कोई भूल कर चेष्टा मत करना। क्यों? क्योंकि मेरा कहना ही यह है कि अगर विचार में कोई चीज परिपूर्ण रूप से ठीक मालूम हो जाए, तो आपको करना नहीं पड़ेगा, वह होनी शुरू हो जाएगी। हमें करने की कोशिश तभी करनी पड़ती है जब विचार में हमारे बहुत गहरे तक कोई बात नहीं जाती, तब हमें चेष्टा करनी पड़ती है कि करो इसे। करने की चेष्टा आधे विचार का कारण है, अधूरा विचार है।
मैं नहीं कहता कि मेरी बात करने की कोशिश करना। अब तक के साधु-संत वही कहते रहे हैं कि हम जो कहते हैं उसे करो। मैं कहता हूं कि इस बात को भूल कर भी मत सोचना। मैं जो कहता हूं उसे सोचो, बस उतना ही काफी है। अगर ठीक से सोचा तो दो बातें होंगी: या तो मेरी बातें सब गलत दिखाई पड़ेंगी, तो उनसे छुटकारा हो गया, उनको करने की कोई जरूरत न रही; या आपने ठीक से सोचा और मेरी कोई बात ठीक दिखाई पड़ी, इतनी ठीक दिखाई पड़ी कि वह आपके प्राणों में प्रवेश कर गई, तो आपको उसे करने की फिकर न करनी पड़ेगी। जैसे बीज जमीन में घुस जाए, फिर उसे पौधा बनना नहीं पड़ता, फिर बीज टूट जाता है और अंकुर निकल आता है और पौधा पैदा हो जाता है।
एक बार प्राणों की गहराई में कोई विचार चला जाए, फिर वह बीज बन जाता है। और आप पाएंगे कि अचानक आपने वैसा करना शुरू कर दिया है जो आपका विचार है। विचार के पीछे आचरण छाया की भांति चलता है। विचार कमजोर हो तो आचरण को खींच-खींच कर लाना पड़ता है; विचार ठीक हो, राइट थिंकिंग हो, तो आचरण अपने आप पीछे चला आता है। जैसे बैलगाड़ी चलती है तो पीछे चक्के के निशान बन जाते हैं; आदमी चलता है तो उसकी छाया चलती है। आचरण शैडो से ज्यादा नहीं है, आचरण छाया की भांति है। विचार है असली तत्व!
तो मैंने जो कहा उसको आप विचारने की ही कृपा करना। उतना पर्याप्त है।
लेकिन उतने की भी आशा नहीं है। हम विचार भी नहीं करते हैं। इसलिए आगे की तो बातें सब फिजूल हो जाती हैं। हम सुनते हैं, और या तो सुन कर मान लेते हैं या सुन कर नहीं मान लेते हैं, बस दो काम कर लेते हैं बहुत जल्दी। या तो कह देते हैं कि सब ठीक, बिलकुल ठीक कहा। और चरण पकड़ लेते हैं किसी आदमी का कि गुरुदेव, आपने बिलकुल ठीक कहा है। बस बात खत्म हो गई। गुरुदेव को धन्यवाद दे दिया और बात खत्म हो गई, आप पर कोई जिम्मा न रहा, अभी आपने निबटारा कर दिया। धन्यवाद, मतलब आपने हमें अच्छी बात बताई तो हमने कृतज्ञता ज्ञापन कर दी, बात खत्म हो गई। और या फिर दूसरा निर्णय ले लेते हैं कि यह बात सब गड़बड़ है; आंख बंद करके अपने पुराने गुरुदेव के ही पैर दबाए चले जाना कि वही ठीक है।
ये दोनों ही बातें अविचार का लक्षण हैं। न तो किसी बात को शीघ्रता से स्वीकार कर लेना चाहिए, न अस्वीकार। सुन लेना चाहिए निष्पक्ष मन से। फिर बहुत धीरे, बहुत आहिस्ता से उस पर विचार करना चाहिए। बहुत निष्पक्ष, अनप्रिज्युडिस्ड, अपने सारे पुराने विचारों को एक तरफ रख कर फिर से पुनर्विचार करना चाहिए कि जो कहा गया वह कितने दूर तक सच हो सकता है। और जिस दिन उसमें सत्य दिखाई पड़ेगा, आप पाएंगे कि उस सत्य ने आपके जीवन को बदलना शुरू कर दिया है।
जीसस का एक वचन है। जीसस ने कहा है: सत्य को पा लो! और फिर शेष सब सत्य कर देगा, तुम्हें कुछ नहीं करना पड़ेगा।
सत्य को पा लो; और शेष सब सत्य कर देगा, फिर तुम्हें कुछ भी नहीं करना पड़ेगा। यही मैं भी आपसे कहता हूं। विचार को पा लो, विचार करने की क्षमता को पा लो; और फिर विचार करने की क्षमता सत्य को खोज लेती है। जैसे नदियां सागर को खोज लेती हैं। कोई पता नहीं रास्ते का, गंगा को पता नहीं कि सागर कहां है, निकल पड़ती है गंगोत्री से। लेकिन सागर तक पहुंच जाती है।
जिसके जीवन में विचार की गंगा पैदा हो जाए वह सत्य के सागर तक पहुंच जाता है। और फिर सत्य मिल जाए तो जीवन अपने आप रूपांतरित होता है, बदल जाता है; फिर बदलना नहीं पड़ता, चेष्टा नहीं करनी पड़ती।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके लिए बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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