नये समाज का आधार-- भय नहीं, प्रेम-(प्रवचन-सातवां)
नये समाज की खोज शायद मनुष्य की सबसे पुरानी खोज है। पुरानी भी है और अब तक सफल भी नहीं हो पाई। कोई दस हजार वर्षों का इतिहास एक बहुत ही असफल कहानी का इतिहास है। प्रयास बहुत हुए कि नया समाज पैदा हो, लेकिन हर प्रयास के बाद पुराना समाज फिर नये रूप में स्थापित हो जाता है। नया समाज पैदा नहीं हो पाता है। क्रांतियां हुईं। क्रांति शब्द से पहले बहुत आशा बंधती थी, अब वह शब्द भी बहुत निराशाजनक हो गया है। क्योंकि कोई क्रांति सफल नहीं हो पाई है। चाहे फ्रांस में, चाहे रूस में, चाहे चीन में, क्रांतियां हुईं, रक्तपात हुआ, नये समाज को जन्म देने के लिए प्रसव की पूरी-पूरी पीड़ा सही गई, लेकिन नया समाज पैदा नहीं हुआ। पुराना समाज फिर नये रूप में स्थापित हो गया।सब क्रांतियां असफल हो गई हैं। और इसलिए बहुत पूछना जरूरी है कि वह कौन सी भूल है जिसके कारण नया समाज पैदा नहीं हो पाता है?
बहुत से कारण हैं। एक छोटी सी कहानी से मैं शुरू करना चाहूं।
मैंने सुना है कि किसी एक बड़े देश में, उस देश का सबसे बड़ा धर्मगुरु, देश के सभी चर्चों का भ्रमण करने निकला था। कभी दस-पच्चीस वर्षों में वह भ्रमण के लिए निकलता था। और नियम था कि जिस चर्च में भी वह जाए, जब वह द्वार प्रवेश करे, तो उसके स्वागत में चर्च की घंटियां बजें।
एक गांव के चर्च में वह प्रविष्ट हुआ, लेकिन घंटियां नहीं बजीं। तो गांव के पादरी से उसने पूछा, जो उसके साथ था, कि मेरे स्वागत में घंटियां नहीं बज रहीं, क्या कारण है? तो उस पादरी ने कहा, इसके सौ कारण हैं। लेकिन पहला कारण यह है कि चर्च में घंटियां नहीं हैं।
तो उस बड़े धर्मगुरु ने कहा, पहला कारण ही काफी है, अब बाकी निन्यानबे कारण बताने की कोई जरूरत नहीं।
अब तक नया समाज पैदा नहीं हुआ, इसके भी सौ कारण हैं। लेकिन मैं भी पहला कारण ही बताना चाहूंगा, बाकी निन्यानबे जरूरी नहीं हैं। और पहला कारण यह है कि समाज जैसी कोई चीज ही नहीं है। वह एक झूठा शब्द है। और शब्द भ्रम पैदा करता है। व्यक्ति की तो एक सच्चाई है, समाज का कोई सत्य नहीं है। समाज एक मिथ, एक कहानी, एक कल्पना से ज्यादा नहीं है। असलियत है व्यक्ति की; समाज तो एक झूठी संज्ञा है, जो काम चलाती है। लेकिन हम नये समाज को जन्म देना चाहते हैं।
नये समाज को जन्म नहीं दिया जा सकता, क्योंकि समाज का कोई अस्तित्व ही नहीं है, अस्तित्व है व्यक्ति का। नये समाज को जन्म देने की चेष्टा व्यर्थ हो जाती है, क्योंकि नये समाज को जन्म देने की कोशिश में हम नये व्यक्ति को जन्म देने का ध्यान ही नहीं रखते हैं। नया व्यक्ति जन्मे तो नया समाज जन्म सकता है।
लेकिन समाज शब्द इतना व्यवहृत होता है कि हमें खयाल भी नहीं आता कि समाज जैसी कोई चीज नहीं होगी। समाज जैसी कोई चीज नहीं है, राष्ट्र जैसी कोई चीज नहीं है, मनुष्यता जैसी कोई चीज नहीं है। ये सब शब्द झूठे हैं, एब्सट्रैक्ट हैं। असलियत है आदमी की, व्यक्ति की।
यहां हम इतने लोग इकट्ठे हैं; एक समाज इकट्ठा हो गया है। और मैं दरवाजे पर दो लोगों को खड़ा रख छोडूं और उनसे कहूं कि जब समाज यहां से निकले तो तुम पकड़ लेना। और वे एक-एक व्यक्ति को निकल जाने देंगे, क्योंकि कोई व्यक्ति समाज नहीं है। और जब इस हॉल से सारे लोग चले जाएं और उनसे मैं पूछूं कि समाज निकला हो, पकड़ा हो? तो वे कहें, व्यक्ति निकले थे, समाज निकला नहीं; समाज पीछे होगा। और पीछे यह भवन खाली रह जाए।
व्यक्ति है सच्चाई, और क्रांति सदा हम समाज में चाहते हैं, इससे भ्रांति हो जाती है। शब्द बड़े धोखे देते हैं। समाज शब्द भी बड़ा धोखा देता है।
एक भिक्षु हुआ नागसेन, उसे उस जमाने के सम्राट मिलिंद ने निमंत्रण दिया था। और जब निमंत्रण नागसेन के पास पहुंचा, तो नागसेन ने निमंत्रण लाने वाले वजीरों को कहा, सम्राट से क्षमा मांग लेना। आ जाऊंगा, लेकिन भिक्षु नागसेन जैसा कोई है नहीं!
वे बड़े चकित हुए। उन्होंने सम्राट को आकर कहा कि हमने निमंत्रण आपका दे दिया है और नागसेन ने कहा है--आ जाऊंगा, लेकिन भिक्षु नागसेन जैसा कोई है नहीं!
सम्राट ने कहा, ये संन्यासी, ये फकीर अजीब बातें करते हैं, पहेलियों की बातें करते हैं। अगर भिक्षु नागसेन नहीं है, तो आएगा कौन?
फिर सम्राट का रथ लेने गया। फिर नागसेन उस रथ पर बैठ कर आया भी। दरवाजे पर उतरा। सम्राट ने स्वागत किया और कहा कि मैं भिक्षु नागसेन का स्वागत करता हूं। नागसेन ने कहा, स्वागत स्वीकार है, लेकिन भिक्षु नागसेन जैसा कोई है नहीं! उस सम्राट ने कहा, आप पहेलियां न बूझें। अगर आप नहीं हैं, तो आप आए कैसे हैं? तो उस भिक्षु नागसेन ने कहा, यह रथ खड़ा है, यह रथ है? सम्राट ने कहा, है। उस भिक्षु ने कहा, आया भी। सम्राट ने कहा, आया भी। पर उस भिक्षु ने कहा, लेकिन रथ है नहीं!
उसने घोड़े अलग निकाल दिए और सम्राट से पूछा, ये घोड़े रथ हैं? सम्राट ने कहा, घोड़े कैसे रथ हो सकते हैं! घोड़ों को छुट्टी दे दी गई। उस भिक्षु ने उस रथ के चक्के निकलवा लिए और सम्राट से पूछा, ये चक्के रथ हैं? सम्राट ने कहा, चक्के कैसे रथ हो सकते हैं! चक्के अलग कर दिए गए। और फिर इस तरह रथ का एक-एक टुकड़ा निकाला जाता रहा और सम्राट इनकार करता रहा--यह भी रथ नहीं, यह भी रथ नहीं। और धीरे-धीरे पूरा रथ विदा हो गया, पीछे कुछ भी न बचा। फिर वह भिक्षु हंसने लगा और पूछने लगा, रथ कहां है? क्योंकि जो भी था, मैंने पूछा, वह रथ न था। अब रथ पीछे बचना चाहिए। उस सम्राट ने कहा, रथ तो एक जोड़ है।
समाज भी एक जोड़ है। और जिसको हम व्यक्ति का अहंकार कहते हैं, ईगो कहते हैं, वह भी एक जोड़ है। यह सत्य नहीं है। लेकिन शब्द का निरंतर प्रयोग भ्रम पैदा करता है। और दुनिया में समाज शब्द से जितना भ्रम पैदा हुआ है और किसी बात से पैदा नहीं हुआ।
तो पहली तो बात यह कहना चाहता हूं कि समाज जैसी कोई चीज नहीं है, न पुराना समाज है, न नया समाज है। हां, पुराने व्यक्ति हैं और नये व्यक्ति हो सकते हैं। पुराना व्यक्ति का मन है और नये व्यक्ति के मन का जन्म हो सकता है।
लेकिन वे जो क्रांतिकारी हैं, बहुत जल्दी में होते हैं। और ध्यान रहे, जल्दी में और कुछ भी हो जाए, क्रांति नहीं हो सकती। लेकिन क्रांतिकारी जल्दी में होता है। वह कहता है, एक-एक व्यक्ति को बदलने बैठेंगे तो कब बदलाहट आएगी! इसलिए व्यक्ति की फिकर छोड़ो, हम समाज को बदल लें। समाज जल्दी बदला जा सकेगा, व्यक्ति को बदलेंगे तो कब बदल पाएंगे!
तो समाज को बदलने में क्रांतिकारी लगा रहा है, और समाज है नहीं; इसलिए क्रांतिकारी जितने धोखे में रहा है, उतना इस जमीन पर और कोई आदमी धोखे में नहीं है। समाजवादी जितना धोखे में है, उतना कोई व्यक्ति धोखे में नहीं है। क्योंकि समाज जैसा कोई सत्य ही नहीं है।
यह जो समाज है, यह व्यक्तियों का ही जोड़ है। और अगर व्यक्ति पुराना है तो समाज पुराना होगा। चाहे हम कानून बदल दें, चाहे हम सरकारें बदल दें, चाहे हम व्यवस्था के ढंग बदल दें, मकान के रंग बदल दें, दीवालों पर नया रोगन कर दें, लेकिन अगर व्यक्ति पुराना है तो समाज भी पुराना होगा।
और व्यक्ति पुराना है। न तो रूस में नया व्यक्ति है, न चीन में नया व्यक्ति है, न अमेरिका में नया व्यक्ति है; नया व्यक्ति कहीं भी नहीं है। वह जो रूस में व्यक्ति है, वह उतना ही पुराना है जितना अमेरिका का। इसलिए रूस और अमेरिका की लड़ाई बचकानी है, वह बुनियादी लड़ाई नहीं है। क्योंकि उन दोनों के पास एक जैसे व्यक्ति हैं, उनमें कोई भी फर्क नहीं है।
अभी एक मित्र के घर में एक रूसी मेहमान था और मैं भी मेहमान था। जाने के पहले उस रूसी मेहमान ने, जिस मकान में मैं भी ठहरा था, उस मकान के मालिक को कहा कि मुझे सोने का एक कड़ा अपनी पत्नी के लिए ले जाना है। लेकिन मैं ले जा नहीं सकता, क्योंकि वहां पूछताछ होगी--यह कहां से आया? कैसे आया? तो आप कृपा करके पैसे तो मुझसे ले लें, लेकिन मुझे लिख कर दे दें कि आपने मुझे यह भेंट किया है। तो वे मेरे मित्र पूछने लगे, इस साधारण से कड़े के लिए कौन पूछताछ करेगा? उसने कहा, आपको पता नहीं है, रूस में बहुत पूछताछ होगी। लेकिन मैं अपनी पत्नी के लिए कुछ ले जाना चाहता हूं। और मेरी पत्नी के हाथ में यह कड़ा हो, यह कड़ा मास्को में किसी स्त्री के हाथ में न होगा, तो मेरी पत्नी भी खुश होगी और मैं भी खुश होऊंगा।
इस आदमी में और अमेरिका के आदमी में कोई फर्क है? यह भी अपनी पत्नी को देख कर खुश होगा कि उसने कड़ा पहना हुआ है। अमेरिका में भी कोई खुश होगा अपनी पत्नी को कड़ा पहने देख कर। भारत में भी कोई खुश होगा। और खुश क्यों होगा? क्योंकि पत्नी के हाथ में सोने का कड़ा पति के महत्वपूर्ण होने की खबर देता है। इसलिए पति अगर गरीब कपड़े भी पहने रहे तो चलता है, पत्नी को सजा कर निकालता है। वह उसका, जिसको कहना चाहिए शो केस है; वह उसे सजा कर निकालता है। लेकिन रूस में भी, मेरी पत्नी कड़ा पहने, और किसी की पत्नी न पहने, ऐसा कड़ा मूल्यवान मालूम पड़ता है। वहां भी सोने का कड़ा उतना ही मूल्य रखता है जितना कहीं और रखता होगा। और मेरी पत्नी भी उतना ही मूल्य रखती है जितना कहीं और रखती होगी। मेरा अहंकार भी उतना ही मूल्य रखता है। और आदमी का चोर मन भी वही है, जो कहीं और होगा। वह अपनी सरकार को धोखा देने के लिए तैयारी कर रहा है। वह हिंदुस्तान में ही कोई अपनी सरकार को धोखा देता हो, ऐसा नहीं है, सारी दुनिया में है।
आदमी एक जैसा है। अगर आज रूस में भी क्रोध वैसा है आदमी के पास, चिंता वैसी है, घृणा वैसी है, लोभ वैसा है, भय वैसा है, जैसा कहीं और है। आदमी वही है। ढांचे बदल देते हैं हम, आदमी नहीं बदलता; इसलिए समाज नहीं बदल सकता, क्योंकि समाज का जोड़ व्यक्ति है।
लेकिन यह बात दिखाई नहीं पड़ती। क्रांतिकारी जल्दी में होता है। और इसलिए क्रांतियां असफल हो गईं। क्रांति जैसा बड़ा कार्य बहुत धीरज से करने की जरूरत है। लेकिन जो धैर्यवान हैं वे क्रांति नहीं करते। संत हैं, फकीर हैं, संन्यासी हैं; उनका धीरज अनंत है। वे कहते हैं--होगा, कभी होगा; परमात्मा जब चाहेगा तब हो जाएगा। वे क्रांति नहीं करते, क्योंकि उनका धीरज बहुत लंबा है। और जो क्रांति करते हैं, उनके पास कोई धैर्य नहीं है। इसलिए दुनिया में क्रांति नहीं हो पाई। जो क्रांति कर सकते हैं, वे क्रांति नहीं करते; जो क्रांति नहीं कर सकते हैं, वे क्रांति करते हैं। और इसलिए हर क्रांति और नई मुसीबतें दे जाती है। पुरानी मुसीबतें अपनी जगह, नई क्रांति नई मुसीबतें जोड़ जाती है।
पहली बात समझ लेनी जरूरी है कि व्यक्ति को बिना बदले समाज नहीं बदल सकता है, क्योंकि समाज व्यक्तियों को छोड़ कर कहीं नहीं है। सारे युद्ध युद्ध की भूमियों पर नहीं लड़े जाते, मनुष्य के मन में लड़े जाते हैं। और सारे समाज आकाश और राजधानियों में पैदा नहीं होते, छोटे-छोटे मनुष्यों के हृदय में पैदा होते हैं। सारी व्यवस्थाएं, सारा विकास, सारी क्रांतियां किसी इतिहास की धारा से नहीं, व्यक्ति-चित्त से जन्म पाती हैं। कोई भाग्य नहीं है निर्धारक। न तो पुराने ढंग का भाग्य--जैसा कि हिंदुस्तान के मनीषी सोचते थे कि कोई भाग्य है जो निर्धारण करता है। और न नये ढंग का भाग्य--जैसा कि कम्युनिस्ट, माक्र्स और एंजिल्स सोचते हैं--इतिहास, ऐतिहासिक प्रक्रिया का भाग्य। नहीं, कोई भाग्य निर्धारक नहीं है। निर्धारक है व्यक्ति का मन। और व्यक्ति के मन के साथ अब तक कोई क्रांति नहीं हो सकी। इसलिए चाहे हम कितनी ही आर्थिक व्यवस्था बदलें और चाहे हम कितने ही विधान बदलें और चाहे हम किसी भी ढंग का ढांचे में हेर-फेर कर लें, समाज वही होगा, उसमें कोई बुनियादी अंतर नहीं पड़ने वाले।
अभी उन्नीस सौ साठ के बाद रूस में व्यक्तिगत संपत्ति की मांग फिर से शुरू हो गई। चालीस साल के कठोर दमन के बाद भी वह व्यक्तिगत संपत्ति की मांग नहीं मिट गई है। उन्नीस सौ साठ के बाद वह मांग तीव्र होती चली गई। और अभी चार-पांच वर्ष पहले उन्हें व्यक्तिगत कार रखने का हक लोगों को देना पड़ा है। और यह तो शुरुआत है। फिर मकान भी व्यक्तिगत देना पड़ेगा और बगीचा भी व्यक्तिगत देना पड़ेगा। पचास साल तक निरंतर बंदूक के कुंदे के नीचे दबे रहने के बाद भी, एक करोड़ लोगों की हत्या करने के बाद भी, आदमी की व्यक्तिगत संपत्ति की मांग नहीं छूटती। और ऐसा नहीं है कि बड़े धनपतियों की न छूटती हो। रूस में ऐसे लोग जिनके पास दस मुर्गियां थीं, उन्होंने भी अपनी मुर्गियों को बचाने की कोशिश की कि कहीं वे सामूहिक संपत्ति न हो जाएं।
वह जो व्यक्ति है, उस व्यक्ति को खयाल में लेना जरूरी है। उस व्यक्ति के संबंध में कुछ दोत्तीन बातें आपसे कहना चाहता हूं कि वह नया क्यों नहीं हो पाता। उसके आधार अगर पुराने हैं तो वह नया नहीं हो सकेगा। और यदि हम आधारों को पहचान लें तो नया किया भी जा सकता है। अब तक जो मनुष्य हमने निर्मित किया है उसके बहुत गहरे आधार समझ लेने जरूरी हैं।
पहला आधार तो है--फियर, भय। आज तक की सारी मनुष्य-जाति ने व्यक्ति को खड़ा करने के लिए भय का मकान दिया है। और इसमें कोई फर्क नहीं पड़ा, न माओ ने फर्क किया है, न मनु ने फर्क किया और न मोहम्मद ने फर्क किया और न माक्र्स ने फर्क किया। मनुष्य का भय का आधार अपनी जगह खड़ा है। और अगर स्टैलिन रूस में क्रांति लाते हैं तो आदमी को डरा कर लाते हैं। और अगर माओ क्रांति ला रहे हैं चीन में तो आदमी को डरा कर ला रहे हैं। और अगर दुनिया के धर्मगुरुओं ने क्रांति लानी चाही थी तो आदमी को डरा कर लानी चाही थी। किसी ने नरक का डर दिया था, किसी ने साइबेरिया का डर दिया है, किसी ने यहीं मार डालने का, किसी ने कनसनट्रेशन कैंप का, किसी ने मरने के बाद, लेकिन आज तक आदमी के सभी व्यवस्थापक आदमी को डरा कर बदलना चाहते हैं। इसमें कोई फर्क नहीं हुआ है, यह वैसे का वैसा है। बड़े से बड़ा क्रांतिकारी भी इस मामले में क्रांतिकारी नहीं है। और बड़े आश्चर्य की बात यह है कि जिनको हम कहें कि जो बहुत अहिंसात्मक हैं, वे भी नहीं हैं।
गांधी जी जैसे व्यवस्थापक भी लोगों को डरा कर ही बदलना चाहते हैं। हां, डराने की व्यवस्था बदल जाती है, लेकिन डर नहीं बदलता। अगर मैं आपकी छाती पर छुरी रख दूं और कहूं कि जैसा मैं कहता हूं वैसा मान लें, यह भी डर है। और मैं अपनी छाती पर छुरी रख लूं और आपसे कहूं कि जैसा मैं कहता हूं वैसा मान लें अन्यथा मैं छुरी मार लूंगा, यह भी डर है। इसमें कुछ फर्क नहीं है।
और मेरी अपनी समझ है कि पहले डर में आपकी थोड़ी इज्जत भी करता हूं, दूसरे डर में आपकी इज्जत भी बिलकुल नहीं है। पहले डर से आप बच भी सकते हैं। अगर मैं आपकी छाती पर छुरी रखूं, तो अगर आप थोड़े हिम्मतवर आदमी हैं तो कहेंगे, ठीक है, छुरी मार दें, लेकिन मैं जैसा हूं वैसा ही रहूंगा। लेकिन दूसरे मौके पर जब मैं छुरी अपनी छाती पर रखता हूं और कहता हूं कि आप मानते हैं मेरी बात या नहीं मानते अन्यथा मैं छुरी मार लूंगा, तो आप अगर हिम्मतवर आदमी हैं तो सिर्फ इस वजह से मानने को तैयार हो जाएंगे कि नाहक एक आदमी न मर जाए। आदमी अपने मरने के लिए तो निर्णय भी ले सकता है, लेकिन दूसरे के मरने का निर्णय लेने में कठिनाई होती है।
अंबेदकर के खिलाफ गांधी जी ने अनशन किया, वह छाती पर छुरी रखना है कि हम मर जाएंगे अगर हमारी बात नहीं मानते हो। अंबेदकर झुक गया और गांधी की बात मान ली, अनशन टूट गया। तब अंबेदकर ने कहा कि मेरा हृदय परिवर्तन नहीं हुआ है, मैं तो सिर्फ इसलिए राजी हो गया कि मैं गांधी को मारने के लिए जिम्मेवार नहीं होना चाहता हूं। लेकिन मैं जो कहता था वह ठीक है और गांधी जो कहते थे वह गलत है। और मैं यह अब भी कहूंगा कि वे जो कहते थे, गलत है। लेकिन उन्होंने गलत बात के लिए जान बाजी पर लगा दी और तब मुझे ऐसा लगा कि अपनी सही बात को भी छोड़ कर हट जाना उचित है, गांधी की हत्या करनी उचित नहीं।
इस मामले में बड़ी हैरानी की बात है। इसमें गांधी हिंसक और अंबेदकर अहिंसक सिद्ध होता है।
लेकिन सारी दुनिया के विचारक अब तक आदमी को भयभीत करने की दिशा में ही सोचते रहे। महावीर कहते हैं कि नरक है। बुद्ध, मनु, मोहम्मद, सब नरक की बात करते हैं। वे सोचते हैं कि आदमी को अच्छा बनाना है तो भयभीत करना पड़ेगा। लेकिन उन्हें पता नहीं है कि भय इतनी बड़ी बुराई है कि अगर उसके द्वारा किसी को अच्छा भी बना लिया तो वह अच्छा कैसे हो जाएगा? क्योंकि भयभीत आदमी से बुरा आदमी और क्या हो सकता है?
नरक की हमने योजनाएं की हैं। बड़ी आग की लपटों का इंतजाम किया है वहां। कड़ाहे जलाए हैं, आदमियों को कड़ाहों में डालने की बात की है। अंतहीन दुख और कष्ट का आयोजन किया है। सिर्फ एक खयाल से कि इस भांति हम आदमी को बदल लेंगे।
आदमी नहीं बदला। सब नरक फिजूल गए, आदमी नहीं बदला। स्वर्ग का प्रलोभन दिया है। वह भी भय का ही रूप है। वह उलटा भय है। हमने कहा है कि अच्छा करोगे तो स्वर्ग मिलेगा। वह भी भय का उलटा रूप है। क्योंकि अगर अच्छा न करोगे तो स्वर्ग चूक जाएगा, वह भी भय है। प्रलोभन भय का उलटा रूप है। पद हैं, प्रतिष्ठाएं हैं, इज्जत है, आदर है, वह सब है।
राम जैसा हिम्मतवर आदमी भी जब सीता को छीन कर लौटता है रावण से, तो वह सीता से जो शब्द बोलते हैं वे राम के मुंह में शोभा नहीं देते। राम एकदम छोटे हो जाते हैं। क्योंकि राम सीता से यह कहते हैं कि तू यह मत सोचना कि मैंने तेरे लिए युद्ध किया है, यह तो मैंने कुल की प्रतिष्ठा के लिए युद्ध किया है। तो राम भी कुल की प्रतिष्ठा के लिए बहुत भयभीत मालूम होते हैं। और फिर एक धोबी कह देता है, तो सीता को जंगल में फेंक देते हैं, गर्भवती सीता को! राम भी बड़े भयभीत मालूम होते हैं कि कहीं उनकी मर्यादा, कहीं उनकी इज्जत, उनकी प्रतिष्ठा को चोट न लग जाए। सीता की परीक्षा लेते हैं, अग्नि-परीक्षा लेते हैं। वह भी भय है, वह भी प्रेम नहीं है। अग्नि-परीक्षा के बाद भी बात कुछ नहीं होती हल, फिर भी सीता को फेंका जाता है। और सीता से यह कहने की क्या जरूरत थी कि मैंने तेरे लिए युद्ध नहीं किया, मैंने युद्ध अपनी कुल-मर्यादा, अपनी प्रतिष्ठा के लिए किया है! मेरे वंश की इज्जत का सवाल है! बहुत भयभीत मालूम होते हैं।
यह भय आज तक की पूरी मनुष्य-जाति के नीचे, आधार में रखा हुआ है। हमने एक-एक व्यक्ति को भय पर खड़ा किया हुआ है। बाप बेटे को डरा रहा है, शिक्षक विद्यार्थी को डरा रहा है। फिर कभी-कभी मौके बदल जाते हैं। मौके बदल जाते हैं तो हमें बड़ी परेशानी होती है। बेटा कमजोर है तो बाप डरा रहा है, फिर बाप बूढ़ा होकर कमजोर हो जाता है तो बेटा डराना शुरू कर देता है। शिक्षक डराते रहे विद्यार्थी को अब तक, अब विद्यार्थी डराना शुरू कर रहा है तो शिक्षक परेशान हैं। पुलिस जनता को डराती रही है, अब जनता पुलिस को डराएगी तो हम कहते हैं बड़ी अव्यवस्था फैल रही है। लेकिन भय के आधार! अगर नेता जनता को डराते रहे हैं और जनता अब नेताओं का घेराव करेगी और उन्हें भयभीत करेगी और डराएगी, तो फर्क क्या है? कभी-कभी नदी पर नाव होती है, फिर कभी-कभी नाव पर नदी हो जाती है। लेकिन बात वही है।
हम कब तक मनुष्य को भय पर ही खड़े रखने का इरादा किए हुए हैं? हमारी सारी सरकारें, हमारी सारी व्यवस्थाएं भय का इंतजाम हैं। चौरस्ते पर खड़ा हुआ पुलिसवाला भी एक भय है, बैठी हुई अदालत भी एक भय है, कानून भी एक भय है, मिलिट्री भी एक भय है, पड़ोस का दुश्मन भी एक भय है, दूसरे राष्ट्र भी भय हैं, आकाश में बैठा हुआ परमात्मा भी सुप्रीम कांस्टेबल से ज्यादा नहीं मालूम पड़ता, वह भी एक भय है। उसके नरक हैं, स्वर्ग हैं, वे सारे भय के इंतजाम हैं। और आदमी को हमने इतना डराया है कि जिसका कोई हिसाब नहीं। और हमने सब तरह का शोषण किया है डराने के लिए।
अभी एक युवक मेरे पास आया। एक बहुत बड़े संन्यासी हैं, उनके आश्रम में तीन महीने रह कर लौटा। तो जब वह मेरे पास आया, वह बिलकुल थर-थर कांपती हुई हालत में था--शरीर से तो नहीं, मन से। क्योंकि उन संन्यासी के आश्रम में जो खास बात समझाई जाती है वह यह है कि मनुष्य जीवन बहुत दुर्लभ है। और अगर एक बार चूक गए तो चौरासी कोटि योनियों में भटकना पड़ेगा। कीड़े-मकोड़े होना पड़ेगा, फिर कहीं जन्मों-जन्मों के बाद दुबारा मनुष्य होने का स्थान मिलेगा। इसलिए एक भी दिन चूकने जैसा नहीं है। धर्म कर लो! क्योंकि नहीं तो चूक गए तो फिर भटकाव है।
तो उस युवक ने मुझे आकर कहा, क्या यह सच है कि मनुष्य जन्म बहुत दुर्लभ है, और एक दफा चूक जाने के बाद करोड़ों योनियों में मुझे भटकना पड़ेगा? अगर यह सच है तो फिर मुझे जल्दी से रास्ता बताइए, कहीं ऐसा न हो कि मैं चूक जाऊं और करोड़ों-करोड़ों योनियों में भटकूं! मैं बहुत डर गया हूं, मैं बहुत भयभीत हो गया हूं।
सारे धर्मगुरु डराते रहे हैं। मौत का डर बताया हुआ है, पाप का डर है, जन्मों का डर है, और सारे डर में आदमी को घेर कर खड़ा कर दिया है। ध्यान रहे, जितना व्यक्ति भय से घिर जाएगा, उतने ही उसके जीवन-स्रोत सूख जाते हैं। जितना भयभीत हो जाएगा, उतने ही उसके भीतर जीवन के रस पैदा होने बंद हो जाते हैं। जितना भयभीत हो जाएगा, उतना जीवन में आनंदित होने की क्षमता क्षीण हो जाती है। और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि भय किस प्रकार का है। आप पुलिसवाले से डरते हैं कि ईश्वर से डरते हैं, कोई फर्क नहीं पड़ता; सवाल डरने का है।
साधु-संन्यासी समझाते हैं कि और किसी से मत डरो, लेकिन ईश्वर से जरूर डरो। गॉड-फियरिंग शब्द को बड़ी कीमत देते हैं, ईश्वर-भीरुता को बड़ा मूल्य देते हैं। लेकिन भय सदा एक जैसा है। और सब तरह का भय, मनुष्य के भीतर जो जीवन के फैलने की क्षमता है, उसको सिकोड़ देता है। और जब भीतर जीवन सिकुड़ जाता है तो ऐसे ही हो जाता है जैसे किसी वृक्ष में पत्ते न लगें, फूल न लगें, रस की धाराएं सब सूख जाएं। और जीवन जो कि फैल कर आनंदित हो सकता था, नाच सकता था, वह अपने में ही बंद फ्रस्ट्रेटेड, विषादयुक्त हो जाए, रुग्ण और बीमार हो जाए। भय ने मनुष्य को बीमार किया है।
मैंने सुना है, एक फकीर के पास एक स्त्री अपने छोटे बेटे को लेकर गई थी। चूंकि बेटा बहुत उपद्रवी है, बहुत ऊधम करता है और मां के कोई भी डर काम नहीं करते, तो उसने सोचा कि फकीर के पास ले जाना चाहिए। क्योंकि फकीरों ने सदा बड़े गहरे भय ईजाद किए हैं। उन्होंने ऐसे भय ईजाद किए हैं कि वे हिम्मतवर से हिम्मतवर आदमी को डरा देने में समर्थ हैं। बहादुर से बहादुर आदमी भी धार्मिक भय के सामने कंपित हो जाता है और डर जाता है। तो वह अपने बेटे को लेकर गई उस फकीर के पास। उसने कहा कि यह बेटा मेरी सुनता नहीं, आज्ञा नहीं मानता, उपद्रव करता है। आप इसे थोड़ा डरा दें, ताकि यह ठीक हो जाए।
वह फकीर बहुत अदभुत आदमी था। उसने बड़े जोर से चीख मारी और खड़े होकर अपने तख्त पर चिल्लाया, दोनों हाथ फैला कर उसने आंखें अपनी इतनी फैलाईं कि वह बच्चा तो भय के मारे भाग गया और स्त्री भय के कारण बेहोश हो गई। और जब स्त्री बेहोश हो गई तो भय के कारण फकीर भी भाग गया।
थोड़ी देर बाद बेटा वापस लौटा अपनी मां को देखने। फकीर ने भी दरवाजे से झांका कि क्या स्थिति है। मां होश में आ रही थी, तो वह भी वापस अपने तख्त पर आकर बैठ गया। तो उस मां ने पूछा, आपने तो हद कर दी, मैंने थोड़ा सा भय दिखाने के लिए कहा था! तो उस फकीर ने कहा, भय का कोई मापदंड नहीं है। जब भय दिखाया जाता है, तो कहां रुकें, इसका कोई पता नहीं चलता। और मुझे ही नहीं, मनुष्य-जाति को जब भी भय दिखाया गया, तो कहां रुका जाए, कुछ पता नहीं चला। वह एक्सट्रीम पर पहुंच जाता है, वह अति पर पहुंच जाता है, पहुंच ही जाता है। पता ही नहीं चलता कि कहां रुका जाए। तो उस स्त्री ने कहा, और मैंने इसे डराने को कहा था, मुझे डराने को नहीं कहा था। तो उस फकीर ने कहा, जब भय प्रकट होता है, तो वह एक को डराए और दूसरे को न डराए, ऐसा नहीं हो सकता। तेरा तो सवाल नहीं, मैं खुद ही डर गया।
समाज दस हजार वर्षों से भय की हवा के भीतर जी रहा है। उसमें जिन्हें हम डराना चाहते थे वे डर गए हैं, जो डरवाना चाहते थे वे डर गए हैं, जो डरा रहे थे वे भी डर गए हैं। सारा समाज भयग्रस्त हो गया है। ऐसा नहीं है कि जिनको हमें डराना था वे ही डरे हों, कि चोर डरे हों और मजिस्ट्रेट न डरे हों। ऐसा नहीं है कि जो डरवाना चाहते थे वे न डरे हों, कि जिन्होंने डराया था वे न डरे हों। जब डर प्रकट होता है तो वह नहीं देखता, वह सबको डरा जाता है। वह सारे जीवन को कंपित कर गया है, सारी जड़ें कंप गई हैं।
और ध्यान रहे, जहां भय है, वहां कुछ चीजें पैदा नहीं हो पातीं। जैसे जहां भय है, वहां आनंद पैदा नहीं होता। वे कंट्राडिक्ट्री हैं, वे विरोधी हैं। अगर भय है तो आनंद कभी पैदा नहीं होगा। जहां भय है, वहां प्रेम पैदा नहीं होता। वे विरोधी हैं। जहां भय है, वहां प्रेम की फसल नहीं लगती। जहां भय है, वहां व्यक्ति सिकुड़ जाता है, फैलता नहीं। और जीवन का नियम फैलाव है। सिकुड़ाव मौत का नियम है। इसलिए ध्यान रहे, जहां भय है, वहां सुसाइडल, वहां आत्मघाती इच्छाएं पैदा होती हैं; जीवंत, लाइफ अफरमेटिव, जीवन को स्वीकार करने वाली और जीवन को बड़ा करने वाली और जीवन को सींचने वाली इच्छाएं मर जाती हैं। जहां भय है, वहां जीवन के बीज सिकुड़ जाते हैं और मौत के बीज फैलने लगते हैं।
तो ध्यान रहे, चूंकि हमने भय पर मनुष्य को खड़ा किया, इसलिए हमने सारी मनुष्य-जाति को आत्मघाती बना दिया है। हर आदमी बहुत गहरे में मरने को आतुर है, जीने को आतुर नहीं है। हां, मरने को हमने अच्छे-अच्छे नाम दिए हैं, क्योंकि अच्छे-अच्छे नाम देने में मनुष्य बहुत कुशल है। हमने भय को भी अच्छे-अच्छे नाम दे दिए हैं, क्योंकि जब हम अच्छा नाम दे देते हैं तो बड़ी सुविधा हो जाती है।
जैसे समझ लें, एक अच्छा आदमी, हम कहते हैं, बहुत अच्छा आदमी है। और वह आदमी भी अपने को अच्छा समझता है। और हो सकता है कि उसके अच्छे होने में कुछ और बात न हो, सिर्फ अच्छा होने का नाम हो, बहुत गहरे में भय बैठा हो। सौ में से अट्ठानबे प्रतिशत अच्छे आदमी सिर्फ भयभीत आदमी होते हैं। इसलिए अच्छा आदमी सदा ही नपुंसक होता है आमतौर से, कभी एकाध व्यक्ति को छोड़ कर। और बुरा आदमी सदा ही हिम्मतवर होता है।
उसके कारण हैं। उसके कारण हैं कि बुरे आदमी ने भय स्वीकार नहीं किया, इसलिए हिम्मतवर हो सका; और जब हिम्मतवर हो सका तो पुरानी सारी नीति जो भय पर खड़ी थी, उसे तोड़ने की व्यवस्था उसके भीतर आ गई। अच्छे आदमी को भयभीत करके हमने अच्छा किया। चूंकि वह भयभीत होकर अच्छा हुआ, इसलिए बुराई से तो बच गया, लेकिन अच्छा नहीं हो सका। क्योंकि अच्छा होना एक बहुत विधायक दिशा है। सिर्फ बुराई से रुक जाना एक बात है, अच्छा हो जाना बिलकुल दूसरी बात है।
इसलिए जिनको हम अच्छे आदमी कहते हैं, वे ऐसे आदमी हैं जो बुरे होने की भी हिम्मत नहीं जुटा पाते। और ध्यान रहे, जो बुरा होने की हिम्मत नहीं जुटा पाता, वह अच्छे होने की हिम्मत तो कभी नहीं जुटा पाएगा। क्योंकि जो बुरा होने की ही हिम्मत नहीं जुटा पाता, वह अच्छे होने की हिम्मत कैसे जुटा पा सकता है! अच्छाई तो बड़ी चढ़ाई है, बुरा होना तो बहुत उतार है। जो उतरने तक की हिम्मत नहीं जुटा पाता, वह चढ़ने की हिम्मत कैसे जुटा पाएगा!
तो ध्यान रखें, कभी बुरा आदमी जब अच्छा आदमी होता है तो अच्छा हो जाता है। लेकिन जो बुरा भी नहीं हो पाता, वह अच्छा भी नहीं हो पाता; वह सदा बीच में अटका रह जाता है। उसके पास हिम्मत नहीं है, उसके पास साहस नहीं है, उसके पास करेज नहीं है, उसके पास सिर्फ भय है। इसलिए अच्छा आदमी बुराई नहीं करता, लेकिन जो बुराई करते हैं उनसेर् ईष्या करता हुआ मरता रहता है। इसलिए अच्छे आदमियों को सदा बुरे आदमी की बुराई करते हुए पाइएगा। वह निरंतर बैठ कर निंदा करता रहेगा कि कौन-कौन बुरा कर रहा है, कौन-कौन बेईमान है, समाज पतित हो रहा है, अनैतिक हो रहा है, सब बिगड़ा जा रहा है। वह इसकी बुराई करता रहेगा।
और उसका कारण है कि वह भी बुरा होना चाहता था, जो वह होने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। और जो हिम्मत जुटा लिए हैं उनसे वहर् ईष्या अनुभव कर रहा है और पागल हुआ जा रहा है। वह यह भी कहेगा कि मैं अच्छा आदमी हूं, ईमानदार हूं, लेकिन बड़ा मकान नहीं बना पाता और बुरे आदमी बड़े मकान बना रहे हैं! वह यह चाहता है कि बड़ा मकान भी बन जाए, धन भी आ जाए, पद भी आ जाए और बुरे होने की हिम्मत भी न करनी पड़े। वह भी न करनी पड़े और यह भी आ जाए। वहर् ईष्या से भरा हुआ है।
ध्यान रहे, जहां भय है, वहांर् ईष्या अनिवार्य है। और यह भी ध्यान रहे कि जहां भय है, वहां हिंसा है। भयभीत आदमी कभी अहिंसक नहीं हो सकता। हां, यह हो सकता है कि वह पानी छान कर पीए, रात खाना न खाए, यह हो सकता है। यह भी भय के कारण, अहिंसक होने के कारण नहीं। नरक का भय है, कहीं नरक में न सड़ना पड़े! इसलिए रात वह बिना पानी पीए रात भर गुजार देता है। यह भय के कारण। ये पानी में जो कीटाणु हैं, उनसे उसका कोई संबंध नहीं है। संबंध उसे अपने से है कि कहीं नरक में न पड़ जाना पड़े। वह पुण्य भी करता है, लेकिन भय के कारण--कि स्वर्ग मिल जाए, नरक से बच जाए, दुख से बच जाए, सुख मिल जाए। लेकिन ध्यान रहे, भयभीत आदमी बहुत गहरे में कभी अच्छा नहीं हो पाता। और जो अच्छा नहीं हो पाता, वह अच्छे समाज का आधार नहीं बन सकता है।
तो एक बुनियादी बात आपसे कहना चाहता हूं वह यह कि हमें समाज--अगर नये समाज को जन्म देना हो, तो हमें व्यक्ति के नीचे से भय की सारी व्यवस्था को हटा लेना पड़ेगा। व्यक्ति को अभय बनाना जरूरी है।
इसका यह मतलब नहीं है कि हार्न बजाती हुई बस आ रही हो तो आप सामने खड़े रहें, आप हटें मत। हार्न बजाती हुई बस के सामने जो खड़ा रहता है वह अभय नहीं है, सिर्फ पागल है। इसका यह मतलब नहीं है कि मकान में आग लग गई हो तो आप भागें मत। आग लगे मकान में जो नहीं भागता है वह विक्षिप्त है। मकान में आग लगी हो तो जो भाग कर जाता है वह भयभीत नहीं है, सिर्फ विवेकपूर्ण है। सांप अगर रास्ता काटता हो, तो बुद्धिमान आदमी रास्ते से हट जाता है। इसलिए नहीं कि भयभीत है, बल्कि इसलिए कि जीवन से प्रेम करता है और जीवन को खोने के लिए, व्यर्थ खोने के लिए तैयार नहीं है।
जीवन में स्वाभाविक भय हैं, जो विवेकपूर्ण हैं। और जीवन में अस्वाभाविक भय थोपे हैं, जो विवेकहीन हैं। स्वर्ग है, नरक है, पुनर्जन्म है, पाप है, पुण्य है, उन सबके जो भय का जाल हमने खड़ा किया है, वह जाल बिलकुल झूठा है।
सुकरात मर रहा था। तो उसके साथी रो रहे हैं। लेकिन सुकरात ने कहा कि तुम रोते क्यों हो? उन्होंने कहा, हम इसलिए रोते हैं कि तुम मर जाओगे। हम सब कंप रहे हैं भय से। सुकरात ने कहा, पागलो! मरने के बाद दो ही बातें हो सकती हैं। या तो जैसा कि नास्तिक कहते हैं कि मर ही जाऊंगा, या तो यह सही होगा कि मैं मर ही जाऊंगा। और अगर मैं मर ही जाऊंगा, तब तो दुख की कोई जरूरत नहीं है; क्योंकि जब मर ही जाऊंगा तो फिर दुख झेलने को कोई बचेगा नहीं। या दूसरी बात हो सकती है, जैसा आस्तिक कहते हैं कि सिर्फ शरीर ही मरेगा, मैं नहीं मरूंगा। तब भी भय की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि मैं तो रहूंगा ही; मेरे रहने में कोई अंतर नहीं पड़ने वाला। सुकरात ने कहा, नास्तिक सही हों कि आस्तिक, सुकरात मजे में है। क्योंकि दो ही बातें हो सकती हैं।
सुकरात भयभीत नहीं है, क्योंकि दोनों हालत में कोई भय का कारण नहीं है।
मृत्यु भय का कारण नहीं है। लेकिन हमने भय के कुछ कारण अपने आप ईजाद किए हैं। आदमी को बदलने, अच्छा बनाने, सुधारने के लिए हमने बहुत सी ईजादें की हैं। लेकिन अगर हम उनको भय कहते तो शायद आदमी उनको मानने को राजी न होता, इसलिए हमने नाम बहुत अच्छे रखे हैं। नाम अच्छे रखने की तरकीब मनुष्य-जाति की खतरनाक से खतरनाक आत्मवंचना है। हम सब चीजों के अच्छे नाम रख लेते हैं।
बाप कहता है अपने बेटे से कि मैं तुझे प्रेम करता हूं इसलिए तुझे पढ़ा रहा हूं कि तू इंजीनियर हो जाए, तू डाक्टर हो जाए, तू बड़े पद पर पहुंच जाए; मैं तुझे प्रेम करता हूं। लेकिन अगर बाप बहुत गौर से अपने भीतर झांक कर देखे, तो शायद उसे पता चले, उसने अपने बेटे से कभी प्रेम नहीं किया। वह प्रेम करता है अपने अहंकार को--मेरा बेटा डाक्टर हो, मेरा बेटा इंजीनियर हो, मेरा बेटा इस जगह हो, मेरा बेटा उस जगह हो। जो अहंकार बाप का अतृप्त रह गया है, वह बेटे के कंधे पर बंदूक रख कर उस अहंकार की गोली को चला लेना चाहता है।
लेकिन यह वह नहीं कहेगा। और इस तरह धोखा चलेगा। बेटा भी हैरान होगा कि यह प्रेम कैसा है? बाप भी हैरान होगा कि यह प्रेम कोई आनंद नहीं दे रहा! लेकिन उसने गलत नाम दे रखा है। चीज कुछ और है, नाम उसने कुछ और दे रखा है, नाम उसने कुछ दूसरे दे रखे हैं।
हमने सारी मनुष्य की व्यवस्था में नाम झूठे दे रखे हैं। हमारी हालत ऐसी है, जैसे किसी किराने की दुकान में सब डिब्बों पर नाम बदल दिए गए हों। तो जहां काजू लिखा है वहां काजू न मिले और जहां किशमिश लिखा है वहां किशमिश न मिले। आप सारे डिब्बे खोज डालें, जो जहां लिखा है वह वहां नहीं है, इतना तय है। चीजें सब गड़बड़ हैं। सब हमने अलग-अलग जगह रख दी हैं। हमने गलत चीजों को अच्छे नाम दे दिए हैं। और हम नाम से ही जीते हैं, इसलिए हमें खयाल में नहीं आता कि हम यह क्या नाम दे रहे हैं।
एक मित्र कुछ वर्ष पहले मेरे साथ सुबह घूमने जाते थे। हनुमान की मढ़िया पड़े, कि कोई मंदिर पड़े, कि कोई देवी-देवता पड़े, कि पीपल का झाड़ हो, जो भी मिले वह उसको नमस्कार करते जाते थे। वे अपने को धार्मिक आदमी समझते थे। मैंने उनसे कहा, आपने डिब्बे पर गलत नाम लिख लिया मालूम होता है। धार्मिक आदमी का पीपल के झाड़ को नमस्कार करने से क्या संबंध है? फिर मैंने उनसे कहा कि आप हर पीपल के झाड़ को भी नमस्कार नहीं करते। एक पीपल के झाड़ पर एक आदमी ने एक धागा बांध दिया है, उसको वे नमस्कार करते थे। तो उन्होंने कहा कि नहीं, इस पीपल में देवता का वास होना चाहिए। और अगर देवता का वास भी हो तो--मैंने कहा--आपको नमस्कार का क्या मतलब है? देवता तो कभी आपको नमस्कार नहीं करता। उन्होंने कहा कि नहीं, जहां भी देवता का वास हो, वहां नमस्कार कर लेना चाहिए। देवता नाराज न हो जाए।
अब यह आदमी भयभीत है। मैंने उनको--कुछ दिन मेरे साथ जाते थे--मैं उनको रोज समझाते ही चला गया। मेरी बात उनकी समझ में तो आ गई--समझ में आ गई, लेकिन भय समझ से बहुत गहरा है। समझ में आ जाने से कुछ भी नहीं होता, भय बहुत अनकांशस है। समझ में बात आ गई, अब उनको दोहरे भय हो गए और कुछ न हुआ, एक मेरा भी भय शुरू हो गया। मैं उनके दरवाजे पर सांकल बजाता, तो अपनी पत्नी से कहते कि कह दो कि आज तबीयत खराब है। क्योंकि मेरे साथ जाते तो वह हनुमान जी को नमस्कार करने में मुश्किल पड़ती। तो मैंने उनकी पत्नी को कहा कि यह तो और बुरा हो गया, मैंने इसलिए नहीं समझाया था। उनको कहिए कि वे आ जाएं। क्योंकि उनकी पत्नी ने कहा, वे जाते तो जरूर हैं घूमने, लेकिन आपके साथ जाने में डरने लगे हैं। आप निकल जाते हैं, फिर वे जाते हैं। तो मैंने कहा, यह तो एक देवता की जगह दो देवता हो गए। एक भय दोहरा हो गया। मेरे भय की कोई जरूरत नहीं, आप नमस्कार करिए।
उन्होंने कहा कि एक दिन ऐसा हुआ कि आपके साथ गया और मैंने सोचा कि बात तो ठीक ही है, तो मैंने हनुमान को नमस्कार नहीं किया। उस दिन मेरी दिन भर बड़ी बेचैनी रही। आखिर शाम को मुझे नमस्कार करने जाना ही पड़ा, ताकि कहीं वे नाराज न हो जाएं।
यह आदमी बेचारा अपने को धार्मिक समझ रहा है। और भयभीत लोगों के समूह में यह धार्मिक ही समझा जाएगा। लेकिन यह आदमी धार्मिक है? या इसने भय को धर्म का नाम दे दिया है?
एक आदमी मंदिर में घुटने टेके, हाथ जोड़े खड़ा है। वह अपने को समझ रहा है कि मैं प्रार्थना कर रहा हूं। लेकिन प्रार्थना करने से घुटने टेकने का क्या संबंध है? घुटने टेकने से भय का तो संबंध है, प्रार्थना का कोई संबंध नहीं है। हाथ जोड़ने से प्रार्थना का क्या संबंध है? घुटने टेक कर गिड़गिड़ाने से प्रार्थना का क्या संबंध है? यह बार-बार दोहराने का कि तुम पावन हो, मैं पतित हूं; तुम महान हो, मैं क्षुद्र हूं; यह सब दोहराने से प्रार्थना का क्या संबंध है? भय से संबंध है। लेकिन वह भय को प्रार्थना कह रहा है। हमारी प्रार्थनाएं, सौ में निन्यानबे प्रतिशत भय की प्रार्थनाएं हैं, हमारी पूजाएं भय की पूजाएं हैं, हमारा सम्मान भय का सम्मान है। हमारी पूरी जिंदगी भय से भरी है, लेकिन हम नाम दूसरे चिपकाए हुए हैं। और जब हम नाम दूसरे दे देते हैं तो बड़ी कठिनाई हो जाती है।
और दस हजार सालों में हमने यही किया है कि आदमी को मिसगाइड करने में, आदमी को दिग्भ्रमित करने में, आदमी को कनफ्यूज्ड करने में, आदमी को सेल्फ-नालेज, आत्मज्ञान की तरफ जाने में जो सबसे बड़ी बाधा है वह यह है कि उसके भीतर किसी चीज का कोई ठीक नाम नहीं है, उसके भीतर सब चीजों के गलत नाम हैं।
उसने कभी प्रेम नहीं किया है, लेकिन वह कहता है कि मैं प्रेम करता हूं। उसने कभी प्रार्थना नहीं की है, लेकिन वह कहता है कि मैं प्रार्थना करता हूं। प्रेम के नाम से उसनेर् ईष्या की है, प्रेम कभी नहीं किया। लेकिन वह कहता है, यहर् ईष्या नहीं है, यह मेरा प्रेम है। उसने प्रेम के नाम से अहंकार को पोसा है। लेकिन वह कहता है, यह मेरा प्रेम है, यह मेरा अहंकार नहीं है। उसने धर्म के नाम से कुछ और पाला है, लेकिन नाम धर्म का लगा रखा है। और इसलिए भीतर पहुंचना बहुत मुश्किल हो गया आदमी का कि वह बदला कैसे जाए! इसलिए हर बार क्रांति हो जाती है और आदमी वही का वही रह जाता है, क्योंकि उसके भीतर चीजों का कोई पता-ठिकाना ही नहीं है।
मैंने एक कहानी सुनी है, मुझे प्रीतिकर लगी। और मुझे लगा कि ठीक ही है यह बात, ऐसी भूल हो जाती है। मैंने सुना है, एक संन्यासी एक गांव में बोलने गया। वह जब बोल रहा था, थोड़ी सी स्त्रियां, थोड़े से वृद्ध, थोड़े से बच्चे उसे सुनने आए थे। वृद्ध इसलिए आए थे कि अब उन्हें कोई काम नहीं है। स्त्रियां इसलिए आई थीं कि सिवाय संन्यासी के अतिरिक्त वे और कहीं जाने की आज्ञा नहीं पा सकती हैं। बच्चे स्त्रियों के साथ आ गए थे। वह वहां बोल रहा था।
एक छोटे बच्चे ने अपनी मां से कहा है कि मुझे पेशाब लगी है! तो लोग हंसने लगे। संन्यासी ने बाद में उस स्त्री को बुला कर कहा, अपने बच्चे को समझा दो, इस तरह नहीं बोलना चाहिए। इसे कुछ नाम बदल कर बता दो, कि जब पेशाब लगे तो यह पेशाब न कहे, कुछ और कह दे। कोड लैंग्वेज बना लो। तुम दोनों समझ जाओगे, किसी को पता नहीं चलेगा। उसने कहा, जैसे? तो संन्यासी ने कहा, इससे कह दो कि जब इसे अब ऐसा दुबारा हो तो यह कह दे कि मां, मुझे गाना गाना है।
दो-चार दिन में बच्चे को सिखा दिया, वह बच्चा तैयार हो गया। सब बच्चे इसी भांति तैयार किए जाते हैं। हमारे डिब्बे के नाम बचपन में ही बदल दिए जाते हैं, फिर हमको बुढ़ापे तक पता नहीं चलता कि नाम कैसे बदल गए।
साल बीत गया, वह संन्यासी उस स्त्री के घर मेहमान हुआ। उस स्त्री को कहीं काम से जाना था शादी-विवाह में, वह गई और अपने बच्चे को उसके पास सुला गई। बारह बजे रात उसने कहा, स्वामी जी, मुझे गाना गाना है। उन स्वामी की नींद लग गई थी, दिन भर के थके थे। उन्होंने कहा, तू बिलकुल पागल है, आधी रात कोई गाना गाता है, चुपचाप सो जा! थोड़ी देर चुप रहा, उसने कहा कि नहीं स्वामी जी, बहुत मुश्किल है, गाना गाना ही पड़ेगा। उन स्वामी ने कहा, कैसा पागल लड़का है, सोने देगा कि नहीं सोने देगा! यह कोई गाने का वक्त है, चुपचाप सो जाओ! सुबह गा लेना। उस लड़के ने कहा, सुबह फिर से गाएंगे, अभी तो गाना ही पड़ेगा।
लेकिन स्वामी ने डांटा तो लड़का फिर थोड़ी देर चुप पड़ा रहा। उसने आखिर में कहा कि स्वामी जी, सम्हालना बहुत मुश्किल है। तब स्वामी जी ने कहा कि अजीब मुसीबत यह औरत मेरे पास छोड़ गई आधी रात को। तो स्वामी ने कहा कि फिर नहीं मानता है तो धीरे-धीरे कान में गा दे!
पूरी मनुष्य-जाति के साथ ऐसा हुआ है कि चीजों को हमने कुछ और नाम दे दिए हैं। और धीरे-धीरे सारा मनुष्य अपने को पहचानने में असमर्थ हो गया है। अब वह किसी चीज को कुछ कहता है, किसी को कुछ कहता है, किसी को कुछ कहता है।
अगर भय की बुनियाद को पहचानना हो तो भय को भय ही कहना पड़ेगा। और अगर बेटा बाप से डरता हो तो उसे बाप से कह देना चाहिए कि मुझे आपसे कोई प्रेम नहीं, कोई श्रद्धा नहीं, मैं सिर्फ डरता हूं। और आपके जो पैर छू रहा हूं, यह श्रद्धावश नहीं है, आदरवश नहीं है, सिर्फ भय के कारण छू रहा हूं। और अगर बाप अपने बेटे से डरता हो तो उसे कह देना चाहिए कि यह जो चाकलेट मैं खरीद कर लाया हूं, किसी प्रेम की वजह से नहीं, सिर्फ भय की वजह से खरीद कर लाया हूं। ये जो रुपये तुम्हें दे रहा हूं कि तुम जाओ और सर्कस देख आओ, ये किसी प्रेम की वजह से नहीं दे रहा हूं, सिर्फ भय की वजह से दे रहा हूं। अगर पति पत्नी से डरता हो तो उसे कह देना चाहिए कि मैं सिर्फ डरता हूं, प्रेम मैंने नहीं पहचाना। अगर पत्नी पति से डरती हो तो उसे कह देना चाहिए, हमारे बीच भय के अतिरिक्त कोई रिश्ता नहीं है।
हमें चीजें साफ कर लेनी चाहिए। हमें चीजें बिलकुल स्पष्ट कर लेनी चाहिए, जैसी हैं। और तथ्यों को पकड़ लेना चाहिए। तो हम आदमी को बदल सकते हैं। क्योंकि बड़े मजे की बात यह है कि अगर मुझे यह पहचान पड़ जाए कि मेरे सारे संबंध भय के हैं--मैंने कभी प्रेम नहीं किया, मैंने कभी किसी से मैत्री नहीं बनाई, मैंने कभी प्रार्थना नहीं की, मैं कभी प्रभु के मंदिर में प्रविष्ट नहीं हुआ, मैंने कभी मेरे जीवन में श्रद्धा अनुभव नहीं की, मैंने मेरे जीवन में कभी भी कोई सहानुभूति नहीं पाई, मैं सिर्फ भयभीत हूं, मैं सिर्फ भयभीत हूं--अगर मुझे यह दिखाई पड़ जाए, तो इस दर्शन का बहुत अदभुत परिणाम होगा। और वह परिणाम यह होगा कि मुझे इस स्थिति से छलांग लगानी ही पड़ेगी, इस स्थिति में जीना असंभव हो जाएगा।
अगर मुझे पता चल जाए कि मेरे घर में आग लग गई है, तो मैं पूछने नहीं जाऊंगा किसी से कि मैं बाहर निकलूं या न निकलूं। अगर घर में आग लग गई है तो मैं एक किताब खोल कर यह न पूछूंगा कि मार्ग कहां है। अगर आग लग गई है तो मैं यह न कहूंगा कि ठहरें, थोड़ी देर बाद चलते हैं, थोड़ा विश्राम कर लें, या कल निकलेंगे। आग लग गई है, यह मुझे दिखाई पड़ जाए, तो दूसरा काम--जो मुझे करना नहीं पड़ेगा, अपने से हो जाएगा--वह मेरा बाहर निकलना है। जब घर में आग दिखाई पड़ती है तो कोई बाहर निकलता नहीं, निकलने के लिए कुछ करना नहीं पड़ता, बस पाता है कि निकल गया है। उसके कारण हैं।
लेकिन आग की लपटों को किसी ने नाम दे रखा हो कि गुलमोहर के फूल खिले हैं, तो फिर बहुत मुश्किल हो गई! कि टेसू के फूल खिले हैं सुर्ख, बैठा है अपने घर के भीतर और घर में आग लग रही है और वह कह रहा है कि टेसू के फूल खिले हैं और घर के लोग फूलों की चर्चा कर रहे हैं। तो फिर नहीं निकलेगा। फिर अगर उससे कोई कहेगा भी कि चलो बाहर, तो वह कहेगा कि अभी तो बहुत अच्छे फूल खिले हैं, बाहर क्या जाना है!
लेकिन हमने ऐसा धोखा दिया है। भीतर हमने ऐसा ही किया है। जहां आग की लपट है, वहां हम टेसू के फूल समझ रहे हैं। जहां भय है, वहां प्रेम समझ रहे हैं। जहां घृणा है,र् ईष्या है, प्रतिस्पद्र्धा है, प्रतियोगिता है, वहां हम विकास समझ रहे हैं, प्रगति समझ रहे हैं। और जहां कुछ भी नहीं है, वहां भी हमने कुछ समझ रखा है।
यह सारी की सारी स्थिति मनुष्य को नया नहीं होने देती। इस स्थिति को बनाए रखने में सबसे बड़ा हाथ दो तरह के लोगों का है। एक तो उन लोगों का है जिनका मनुष्य को भयभीत करने में कुछ न्यस्त स्वार्थ है, कुछ वेस्टेड इंट्रेस्ट है। समस्त सत्ताधारियों का लाभ है कि आदमी भयभीत रहे। क्योंकि जिस दिन आदमी निर्भय होगा, दुनिया से सत्ता विदा हो जाएगी। सत्ता जो है, वह भय का काउंटर पार्ट है। अथारिटी जो है, अधिकार जो है, मालकियत जो है, नेतृत्व, गुरुडम--सब तरह की जो सत्ता है, पावर जो है, सब तरह की शक्ति जो है--वह दूसरी तरफ आदमी भयभीत है तभी तक है। अगर दुनिया में निर्भय आदमी पैदा हो, तो समस्त सत्ताएं विदा हो जाएंगी।
एडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि अगर किसी को बड़ा नेता होना हो, तो उसको अपने देश को उतना ही भयभीत करना जरूरी है। जितना मुल्क भयभीत होगा, उतना नेता बड़ा होता जाएगा।
लालबहादुर शास्त्री बहुत अदभुत आदमी नहीं थे। अच्छे आदमी थे, साधारण आदमी थे। लेकिन देश भयभीत था इसलिए लालबहादुर बहुत बड़े नेता हो गए। लालबहादुर जैसा व्यक्ति, देश अगर सामान्य स्थिति में होता, तो कभी भी खो जाता, हमें पता भी न चलता। अच्छे आदमी थे, लेकिन अति सामान्य आदमी थे। लेकिन देश बहुत भयभीत था, डरा हुआ था। उस भय और डर और युद्ध और घबराहट और दुश्मनी और असुरक्षा के बीच लालबहादुर बड़े नेता हो गए। दुनिया के सारे नेता भयपूर्ण स्थितियों में पैदा होते हैं। जिनको हम दुनिया के बड़े आदमी कहते हैं, वे तभी पैदा होते हैं जब समाज बहुत भयभीत होता है।
कृष्ण ने वायदा किया है कि जब समाज में बहुत ग्लानि होगी और धर्म का बहुत पतन होगा, तब मैं आऊंगा। इस वायदे का मुझे पक्का पता नहीं है कि यह कहां तक ठीक हो सकता है। लेकिन एक बात पक्की है कि अगर समाज में बहुत ग्लानि न हो और समाज बहुत भयभीत और दुख में न हो, तो बड़े आदमी के पैदा होने का उपाय नहीं होता है।
समस्त नेतृत्व, समस्त सत्ता और एक आदमी पर दूसरे आदमी का प्रभुत्व, भय के कारण पैदा होता है। इसलिए दुनिया का कोई भी न्यस्त स्वार्थ मनुष्य को निर्भय बनाने में उत्सुक नहीं है। न तो गुरु चाहता है कि विद्यार्थी निर्भय हो जाएं, न सत्ता चाहती है, न राज्य चाहता है कि जनता निर्भय हो जाए, न बाप चाहता है कि बेटा निर्भय हो जाए, न पति चाहता है कि स्त्री निर्भय हो जाए, कोई किसी को निर्भय नहीं देखना चाहता। लेकिन ध्यान रहे, सत्ता तो बच जाती है, लेकिन जीवन खो जाता है। प्रभुत्व तो बच जाता है, लेकिन प्रेम खो जाता है।
अगर बाप चाहता है कि बेटा निर्भय न हो पाए, तो न तो बाप रहेगा, न बेटा रहेगा। दोनों के बीच प्रेम नहीं रहेगा, सिर्फ एक जड़ यंत्र रह जाएगा घर में, जिसमें बाप और बेटा मशीन के कलपुर्जे हो जाएंगे। अगर पति चाहता है कि पत्नी निर्भय न हो जाए...
इसलिए पतियों ने स्त्रियों को कभी आर्थिक रूप से सक्षम नहीं होने दिया। क्योंकि आर्थिक रूप से स्त्रियां सक्षम होंगी तो स्त्री उतनी भयभीत न रह जाएगी जितनी सदा भयभीत रही है। इसलिए पुरुष ने स्त्री को घर के भीतर बंद रखा, क्योंकि वह बाहर जाएगी, जगत से संबंधित होगी, तो उसका भय कम हो जाएगा। क्योंकि जितना ज्ञान बढ़ता है उतना भय कम हो जाता है। इसलिए शूद्रों को शिक्षित नहीं होने दिया। क्योंकि वे शिक्षित होंगे, ज्ञान बढ़ेगा, तो भय कम हो जाएगा। इसलिए दुनिया में हमने दीन को, दरिद्र को सब तरफ से बांध कर रखा है, इंतजाम करके रखा है कि वह निर्भय न हो जाए। क्योंकि वह निर्भय होगा तो बस सत्ता का यंत्र टूटना शुरू हो जाएगा।
लेकिन ध्यान रहे, भय रहे, गुलाम रहेगा, मालिक रहेगा, मनुष्य नहीं रहेंगे। और बड़े मजे की बात यह है कि जब कोई गुलाम गुलाम होता है तो उसकी मनुष्यता तो मर जाती है, लेकिन साथ ही जो मालिक बनता है उसकी मनुष्यता भी मर जाती है। सिर्फ गुलाम की मनुष्यता मरती होती तब भी ठीक था, मालिक जो बनता है उसकी मनुष्यता भी मर जाती है। अगर दबाने से बेटे का व्यक्तित्व मरता होता तो भी ठीक था, कम से कम बाप का बच जाता। लेकिन बेटे को दबाने से दबाने वाले बाप का व्यक्तित्व भी मर जाता है। क्योंकि जो दबाता है या दबाया जाता है, दोनों स्थितियों में भयभीत है। चाहे दबाए तो भयभीत है और चाहे दबे तो भी भयभीत है। दबाना जो है, वह भय की सुरक्षात्मक व्यवस्था है।
मैक्यावेली ने कहा है--आक्रमण की तारीफ में कहा है--कि सुरक्षा का सबसे अच्छा उपाय आक्रमण है। डिफेंस की सबसे अच्छी व्यवस्था अटैक है।
तो बाप अगर बेटे को डरा रहा है, तो डरा हुआ है इसीलिए डरा रहा है। यह व्यवस्था है उसकी। कल बेटा न डराए, इसके पहले वह डरा लेना चाहता है। अगर पति पत्नी को डरा रहा है, तो वह पत्नी से डरा हुआ है। अगर शिक्षक विद्यार्थी को डरा रहा है, तो वह विद्यार्थी से डरा हुआ है। हमने जो सारी व्यवस्था की है, वह भय पर खड़ी है। भय ने मनुष्य की आत्मा को नष्ट कर दिया है।
अगर एक नये समाज को जन्म देना है, तो एक नये मनुष्य को जन्म देना पड़ेगा। नया मनुष्य अभय ही हो सकता है। हटा दो सब स्वर्ग और नरक! हटा दो भय का सारा इंतजाम! और व्यक्ति को, जिस भांति भी वह निर्भय हो सके, निर्भय करो!
डर लगता है लेकिन हमें। क्योंकि हमारा तो हजारों साल का पुराना डर है। हम कहते हैं कि अगर व्यक्ति निर्भय हो गया, तो अराजकता हो जाएगी। जैसे कि अभी अराजकता नहीं है। हमें डर लगता है कि अगर व्यक्ति निर्भय हो गया, तो स्वच्छंद हो जाएगा। जैसे कि अभी स्वच्छंदता नहीं है। डर लगता है कि अगर व्यक्ति ऐसा हो गया, तो ऐसा हो जाएगा। और जिन-जिन चीजों से हम डरते हैं, वे सब हो गई हैं। उनसे डरने का अब कोई भी कारण नहीं है।
और बड़े मजे की बात यह है कि जिन बातों से हम डरते हैं कि ये हो न जाएं, और जिन बातों को उन डर के कारण हम व्यवस्थित करते हैं, उन्हीं बातों के कारण वे बातें हुई चली जाती हैं। जिसे हमने समझा है दवा है, वह दवा नहीं है, बीमारी की मूल जड़ वही है।
स्वच्छंद व्यक्ति कौन होता है? स्वच्छंद वह होता है जिसे परतंत्र बनाने की कोशिश की गई। जिसे परतंत्र बनाने की कभी कोशिश नहीं की गई वह स्वच्छंद कभी भी हो नहीं सकता है। स्वच्छंदता परतंत्रता की प्रतिक्रिया है, रिएक्शन है। स्वतंत्र व्यक्ति कभी भी स्वच्छंद नहीं होता। सिर्फ परतंत्र व्यक्ति स्वच्छंद होता है। असल में जब हम किसी को परतंत्र करते हैं, तब उसमें स्वच्छंद होने की वृत्ति को जन्म देते हैं। जब मैं किसी व्यक्ति को दबाता हूं, तो उस व्यक्ति के भीतर दबाव से बचने और भागने की प्रवृत्ति को जन्म देता हूं। जब मैं किसी व्यक्ति को दबाता हूं, तो मैं उस व्यक्ति के भीतर मुझे दबाने के लिए निमंत्रण भी भेजता हूं, कि कल जब वह शक्तिशाली हो जाए तब मुझे दबा ले। लेकिन अगर मैं दबाता ही नहीं हूं, तो मैं दूसरे के भीतर भी दबाव से बचने या दबाव का प्रतिकार करने की वृत्ति को पैदा नहीं करता हूं।
लेकिन हम या तो दबाए गए हैं या दबे हुए हैं, और दोनों एक ही भाषा में सोचते हैं। और हमारी समझ यह है कि दबाएंगे नहीं तो सब टूट जाएगा। और मजा यह है कि हमने इतने दिन दबाया, और कुछ भी नहीं बचा है। आज कोई तीन हजार वर्ष से सारी दुनिया में कानून की व्यवस्था है, लेकिन चोर रोज बढ़ते चले जाते हैं। चोरों को सजा बढ़ती चली जाती है, चोर बढ़ते चले जाते हैं। हत्यारों को सजा मिलती है, हत्यारे बढ़ते चले जाते हैं। दुनिया में हम एक अपराध कम नहीं कर पाए, नये अपराध जरूर हमने जोड़े हैं। कानून का जाल बड़ा होता जाता है।
और एक विसियस सर्किल है, हमारे तर्क का एक दुष्टचक्र है। वह यह कहता है कि कानून कम है इसलिए चोर बढ़ रहे हैं, कानून और बढ़ाओ! कानून और बढ़ जाता है, चोर और बढ़ जाते हैं। तब हम कहते हैं, कानून फिर भी कम पड़ रहा है, कानून और बढ़ाओ ताकि चोर कम हों। चोर और बढ़ जाते हैं, हम कानून बढ़ाए चले जाते हैं। हमें खयाल ही नहीं है कि जो हम कर रहे हैं, उससे कुछ अपराध बंद नहीं होंगे, जो हम कर रहे हैं उससे आदमी बदला नहीं। कितने कारागृह हमने बना कर रखे हैं! और धीरे-धीरे करीब-करीब सारी दुनिया को भी हम कारागृह बना लेंगे, तब भी कोई फर्क नहीं पड़ता है। क्यों? क्योंकि जो हम कर रहे हैं वह मानसिक रूप से गलत है। दमन प्रतिरोध पैदा करता है।
मैं एक संन्यासियों की...अभी एक सभा थी कुछ वर्ष पहले दिल्ली में। आमतौर से संन्यासी मुझे बुलाने में थोड़ा सोच-विचार करते हैं। लेकिन सभा ऐसी थी कि उन्होंने सोचा कि इस संबंध में तो मेरा मतैक्य हो जाएगा। सभा थी अश्लील पोस्टरों के खिलाफ, कि अश्लील पोस्टर नहीं बनने चाहिए। तो उन्होंने सोचा कि इसमें तो मैं क्या करूंगा! इसमें तो मैं कम से कम साथ ही दूंगा कि अश्लील पोस्टर नहीं बनने चाहिए। उन्होंने मुझे बुला लिया। लेकिन वे कठिनाई में पड़ गए। क्योंकि मेरी समझ यह है कि अश्लील पोस्टर की वजह से कोई अश्लील नहीं होता। अश्लील चित्त की वजह से अश्लील पोस्टर लगाने पड़ते हैं। अश्लील पोस्टर बहुत मुर्दा चीज है।
मैंने उन संन्यासियों से कहा, तुम आत्मवादी हो, तुम मुर्दा अश्लील पोस्टर को आत्मा से ज्यादा कीमती समझते हो? तुम यह कहते हो कि लोग बिगड़ रहे हैं, क्योंकि दीवाल पर नंगी तस्वीर लगी है। तब तो तुम बहुत भौतिकवादी हो। क्योंकि दीवाल की नंगी तस्वीर, लोग जैसे जिंदा लोगों को, आत्मवान लोगों को बिगाड़ देती है। मैंने कहा, आत्मवादी को तो यह कहना चाहिए कि नंगी तस्वीर यह खबर दे रही है कि लोग बिगड़े हुए हैं, उन्हें नंगी तस्वीर की जरूरत है। और अगर नंगी तस्वीर न मिले तो खतरा बढ़ जाएगा, कम नहीं होगा। क्योंकि उनकी आकांक्षा नंगी तस्वीर को देखने की अतृप्त रह जाएगी। हो सकता है, स्त्रियों को सड़कों पर चलना मुश्किल हो जाए। अगर अश्लील पोस्टर बंद कर दिए जाएं, तो सड़कों पर स्त्रियों को नग्न किए जाने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी, कम नहीं होंगी। क्योंकि वह जो नंगा देखने की वृत्ति है, वह दमन पाएगी, प्रतिशोध करेगी, इनकार करेगी और कहेगी कि हमें नंगा देखना है। उसको थोड़ी तृप्ति मिल रही है पोस्टर देखने में। पोस्टर जो है वह स्त्रियों के वस्त्रों की रक्षा है, वह स्त्रियों को सड़क पर वस्त्र सहित चलने दे रहा है, क्योंकि लोगों की तृप्ति वहां हो जाती है।
तो मैंने कहा कि सब संन्यासी मिल कर तुम तो यह मांग करो कि पोस्टर इतने सुंदर बनाओ कि कोई स्त्री इतनी सुंदर ही न हो! कि किसी स्त्री के वस्त्र उघाड़ने की कोई जरूरत पुरुषों को सड़क पर न पड़ जाए! नंगा पोस्टर इतना तृप्त कर दे कि नंगी स्त्री की फिकर ही छूट जाए! लेकिन तुम कह रहे हो कि पोस्टर बंद करो। पोस्टर बंद खतरनाक बात हो जाएगी।
अभी ऐसा हुआ। अभी एक लड़की लंदन से लौटी। उसने मुझे कहा कि वह हिप्पियों का एक नाटक देखने गई। तो स्टेज पर हिप्पी लड़के और लड़कियां नाचते-नाचते नग्न हो गए। वह तो बहुत घबराई कि अब कोई उपद्रव न हो जाए। क्योंकि जब...वह पहली दफा ही गई थी। लेकिन हॉल में सन्नाटा रहा। न तो किसी ने सीटी बजाई, न किसी ने पैसे फेंके। यहां हमारा तो फिल्म में भी पैसा फिंक जाता है और सीटी बज जाती है। तो उसे बहुत हैरानी हुई कि लोग सीटी क्यों नहीं बजा रहे हैं? लोग पैसे क्यों नहीं फेंक रहे हैं? और बड़ी हैरानी हुई, उसने चारों तरफ देखा तो उसने देखा कि जब वे भावविभोर होकर हिप्पी नाचने लगे, और उन्होंने सब कपड़े फेंक दिए, और पूरा का पूरा उनका समूह का समूह नग्न होकर नाचने लगा, तब तो वह इतनी हैरान हुई कि हॉल में कई लड़के और लड़कियों ने कपड़े फेंक दिए और नंगे हो गए। लेकिन उन नंगे लोगों के प्रति भी बगल की कुर्सी वाला आदमी बिलकुल उत्सुक नहीं है। बगल में एक लड़की नग्न होकर बैठ गई है, लेकिन उसके पास जो बैठा हुआ आदमी है वह उसे लौट कर भी नहीं देख रहा है, वह अपना नाटक देख रहा है।
वह लड़की बहुत हैरान है! वह घर आकर, जहां ठहरी थी, उसने पूछा कि कितना आश्चर्यजनक है कि बगल में एक लड़की नग्न हो गई है और पास में बैठा हुआ पुरुष उसकी तरफ देख भी नहीं रहा है!
तो उसके घर के लोगों ने कहा, उससे क्या प्रयोजन है? नग्न होना उसका शौक है। वह नाटक देखने आया है, वह नाटक देख रहा है। उसको उस लड़की से क्या मतलब है?
यह हमें कठिन मालूम पड़ेगा। कठिन इसलिए मालूम पड़ेगा कि हम बहुत दमित, सप्रेस्ड चित्त को लिए बैठे हैं। मेरी समझ है कि हमने जिन-जिन चीजों को दबाया है, वे विस्फोटक होकर प्रकट होती हैं। स्वच्छंदता है, क्योंकि परतंत्रता है। आज्ञा तोड़ी जाती है, क्योंकि आज्ञा मनाने का बहुत आग्रह है। अनादर किया जाता है, क्योंकि आदर की बहुत आकांक्षा है। श्रद्धा मांगी जाती है, अश्रद्धा पैदा होगी।
इस सबको हमें हटा देना पड़े। व्यक्ति को निर्भय करना जरूरी है और सारे भय के मनोवैज्ञानिक तंतु-जाल को तोड़ देना जरूरी है। अगर व्यक्ति निर्भय हो जाए तो क्या होगा? अगर व्यक्ति निर्भय हो जाए तो जैसा मैंने कहा कि भय मृत्योन्मुख है, अभय जीवनोन्मुख है। जैसे ही कोई निर्भय होता है, वह जीना चाहता है। जैसे ही कोई भयभीत होता है, वह मरना चाहता है या मारना चाहता है। जैसे ही कोई निर्भय होता है, वह स्वयं भी जीना चाहता है और दूसरे को भी जीने देना चाहता है।
यह ध्यान रहे, जो खुद मरने से पीड़ित है, वही मारना चाहता है। और जो खुद जीने के लिए आतुर है, वह दूसरे को भी जीवन देना चाहता है।
ये दुनिया में जितने युद्ध हैं, इतनी हिंसा है, इतने युद्ध हैं, इन युद्धों के बहुत गहरे में व्यक्ति की जीवन की धारा सूख गई है, वह मरणोन्मुख हो गया है। जहां भय मिटा, अभय हुआ, वहां प्रेम के स्रोत अपने आप फूट पड़ते हैं। ऐसे ही जैसे कोई झरने के ऊपर पत्थर रखा हो और पत्थर की वजह से झरना दबा रहे, और पत्थर हटे और झरना फूट पड़े। प्रेम कहीं से लाना नहीं पड़ता। सिर्फ भय हट जाए तो व्यक्ति के जीवन में प्रेम की धारा फैलनी शुरू हो जाती है।
लेकिन हमने तो अजीब पागल व्यवस्था की है। वह व्यवस्था यह है कि हम भयभीत करते हैं कि प्रेम करो। हम कहते हैं कि भय होगा तो प्रेम होगा। हम पत्थर रखते हैं और कहते हैं अब झरना बहेगा। और पत्थर को बड़ा करते जाते हैं, झरने के प्राण सूख जाते हैं।
जहां भय है, वहां प्रेम संभव नहीं है। जहां भय हटा, वहां प्रेम अपने आप बहने लगता है। किसी मनुष्य को अहिंसक बनाने की जरूरत नहीं है, भय भर हट जाए व्यक्ति के ऊपर से, तो व्यक्ति अपने आप प्रेमपूर्ण हो जाता है। और ध्यान रहे, जो प्रेम से भर जाता है, वह किसी दिन प्रार्थना को भी उपलब्ध हो जाता है।
पुरानी दुनिया ने बहुत कम लोगों को प्रभु तक पहुंचाया। बात बहुत की है, भगवान तक पहुंचाने की जितनी चर्चा उन्होंने की है, शायद ही कोई कभी करेगा; आगे कभी कोई नहीं करेगा। पुराना समाज निरंतर परमात्मा की ही चर्चा करता रहा। लेकिन ध्यान रहे, अक्सर ऐसा होता है कि अगर अस्पताल में जाइए, तो वहां स्वास्थ्य की बहुत चर्चा होती है।...
प्रेम की धारा जब बहे, तो प्रेम की धारा व्यक्तियों की तरफ बहती है। लेकिन प्रेम इतना बड़ा है कि कोई भी व्यक्ति उसे पूरा झेलने में समर्थ नहीं है। अगर एक बार प्रेम की धारा बहनी शुरू हो जाए, तो कोई भी व्यक्ति उस प्रेम की पूरी धारा को झेलने में समर्थ नहीं है। अगर मैं एक व्यक्ति को प्रेम करना शुरू करूं और मेरा प्रेम बहता चला जाए, तो बहुत जल्दी मैं पाऊंगा कि वह व्यक्ति डूब गया और प्रेम आगे निकल गया।
अमेजान नदी निकलती है जिस जगह से अगर वहां आप खड़े हो जाएं तो कभी कल्पना न कर सकेंगे कि यहां से अमेजान निकल सकती है। अमेजान दुनिया की सबसे बड़ी नदी है। अमेजान नदी के पास दुनिया की सबसे बड़ी जलराशि है। लेकिन जहां से वह निकलती है वहां एक-एक बूंद टपकती है। और दो बूंद के बीच बीस सेकेंड का फासला होता है। एक बूंद गिर जाती है, फिर बीस सेकेंड तक कोई बूंद नहीं गिरती, फिर बीस सेकेंड बाद दूसरी बूंद गिरती है। लेकिन वह एक-एक बूंद गिर-गिर कर अमेजान जैसा विस्तार बन जाता है। फिर जब अमेजान सागर के पास गिरती है तो सागर भी एक दफा सोचता होगा कि नदी गिर रही है या सागर ही गिर रहा है! इतनी बड़ी नदी है।
प्रेम तो बूंद-बूंद शुरू होगा, एक-एक व्यक्ति से शुरू होगा।
लेकिन शुरू ही नहीं हो पाता। और प्रेम जिनके जीवन में नहीं है वे भी प्रार्थना करने पहुंच जाते हैं। जिनका उदगम स्रोत ही नहीं है वे भी डेल्टा बनाने का खयाल करते हैं सागर के पास जाकर। वह नहीं हो पाता। प्रेम तो एक-एक बूंद शुरू होगा, एक-एक व्यक्ति को बहना शुरू होगा। लेकिन प्रेम अनंत है। वह इतना ज्यादा है कि किसी व्यक्ति की उसे झेलने की सामर्थ्य नहीं है। व्यक्ति डूब जाएगा और प्रेम आगे बढ़ जाएगा। जिस दिन प्रेम फैलते-फैलते समस्त पर पहुंच जाता है, उस दिन वह प्रार्थना बन जाता है। घुटने टेके हुए मंदिर में खड़े लोग प्रार्थना नहीं कर रहे हैं। प्रार्थना को तो केवल वे ही लोग उपलब्ध होते हैं, जिनका प्रेम अनंत हो जाता है।
बुद्ध का अंतिम दिन, जिस घर में उन्होंने भोजन लिया, वह एक गरीब लुहार था। उसका नाम था चंद। उस गरीब लुहार ने बुद्ध को कहा था--आज मेरे घर भोजन ले लें। वर्षों से प्रतीक्षा करता हूं, लेकिन डरता हूं कि कैसे निमंत्रण दूं; क्योंकि मेरे घर तो साग-सब्जी भी नहीं है।
बुद्ध उसके घर गए। तो बिहार के जिस हिस्से में वह रहता था, वहां का गरीब आदमी आज भी, पच्चीस सौ साल बाद भी, कोई बहुत फर्क नहीं पड़ गया बिहार में, पच्चीस सौ साल बाद आज भी कुकुरमुत्ता ही खाता है। बरसात में लकड़ियों पर उगी हुई छतरी आपने देखी होगी सफेद, वह कुकुरमुत्ता, वही सुखा लेता है, रख लेता है वर्ष भर का इकट्ठा करके, उसको ही खा लेता है।
उस गरीब चंद के पास तो बुद्ध को खिलाने को भी सब्जी न थी, तो उसने कुकुरमुत्ते, सूखे कुकुरमुत्ते की सब्जी ही बनाई थी। बुद्ध ने उसे खाया, वह जहर जैसी कड़वी थी। लेकिन बुद्ध ने सोचा कि अगर मैं कहूं यह कड़वी है, तो यह बेचारा बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगा; क्योंकि इसके पास और कोई सब्जी नहीं है। तो बुद्ध उसकी सब्जी खाते रहे। यह सोच कर कि अगर मैं दुबारा सब्जी न लूं तो चंद सोचेगा कि मेरा भोजन पसंद नहीं आया। तो उन्होंने रोटी कम खाई, सब्जी ज्यादा खाई। और चंद ने कहा, क्या भगवान को बहुत अच्छी लगी सब्जी? बुद्ध ने कहा, बहुत ही अच्छी लगी चंद। तो वह और बहुत सी सब्जी ले आया। बुद्ध उसकी सारी सब्जी खा गए।
वह फूड पायजन हो गया, जहर हो गया; वे उसी से मरे। उनको जहर हो गया, जब वह पहुंचे वापस तो सारे शरीर पर जहर का प्रभाव हो गया। चिकित्सकों ने कहा कि जो सब्जी आपने खाई है उसमें जहर था, आपने रोका क्यों नहीं? तो बुद्ध ने कहा, मौत तो आने ही वाली थी, लेकिन मौत के लिए प्रेम को रोकता तो हानि ज्यादा होती। मैंने प्रेम को आने दिया, प्रेम को होने दिया; मौत को स्वीकार कर लिया। हानि कुछ ज्यादा होने वाली नहीं, क्योंकि मैं मरने ही वाला हूं--आज नहीं कल, कल नहीं परसों। लेकिन प्रेम की कीमत पर जीवन को नहीं बचा सकता हूं।
फिर बुद्ध की जब सांस टूटने लगी तो उन्होंने कहा कि सुनो भिक्षुओ! क्योंकि भिक्षुओं में खबर फैल गई कि यह चंद तो हत्यारा है। इसने तो बुद्ध के प्राण ले लिए। यह कैसा आदमी है। तो बुद्ध ने मरते वक्त जो आखिरी शब्द कहे, वे बहुत अदभुत हैं। वे उनकी प्रार्थना से निकले हुए शब्द हैं। उन्होंने कहा, भिक्षुओ सुनो! हजारों-करोड़ों वर्षों में बुद्ध जैसा व्यक्ति पैदा होता है। जिसको परम ज्ञान उपलब्ध हो, ऐसा बुद्धत्व को हजारों-करोड़ों वर्षों में कभी एक व्यक्ति उपलब्ध होता है। वह व्यक्ति अगर सौ साल जीए, तो सौ वर्ष में सिर्फ एक बार ऐसे आदमी को सौभाग्य मिलता है जो उसे प्रथम भोजन कराए, वह उसकी मां होती है। और जो उसे अंतिम भोजन कराए, वह भी मां से कम तो नहीं। तो चंद लुहार बहुत सौभाग्यशाली है। करोड़ों वर्षों में यह सौभाग्य दुबारा फिर कभी किसी व्यक्ति को मिलेगा कि बुद्धत्व को प्राप्त व्यक्ति को अंतिम भोजन कराए। जाओ तुम चंद का स्वागत करो और चंद का अभिनंदन करो! और जाओ गांव में डुंडी पीटो और खबर करो कि चंद महाभागी है!
भिक्षु तो बहुत हैरान हुए। आनंद ने पास आकर कहा कि आप यह क्या कह रहे हैं? हम और अभिनंदन करें उस दुष्ट का जिसके भोजन से आपकी मृत्यु हुई!
बुद्ध ने आनंद से कहा, पागल आनंद, जो होना था वह हो गया है। और अगर मैं यह न कहूं और मर जाऊं, हो सकता है लोग चंद की हत्या कर दें। उसका क्या कसूर है? गरीब होना कसूर नहीं। कुकुरमुत्ते की सब्जी खाना कसूर नहीं। बुद्ध को घर पर निमंत्रण देना कसूर नहीं। चंद का क्या कसूर है? कसूर है तो मेरा ही। जाओ खबर कर दो गांव में कि चंद महाभागी है! कि कोई मेरे मरने के बाद चंद को परेशान न करे, कोई हमला न बोल दे, कोई उसे मार न डाले, कोई उसे गालियां न दे, कोई उसे बुरा न कहे।
यह प्रार्थनापूर्ण व्यक्ति है, जो चंद के लिए चिंतित है मरते क्षण में कि कहीं कोई उसको नुकसान न पहुंचा दे।
जीसस मरते वक्त सूली पर कहते हैं, इन सबको प्रभु माफ कर देना जो मुझे सूली दे रहे हैं, क्योंकि इन्हें पता नहीं कि ये क्या कर रहे हैं।
मंसूर को जिस दिन काटा गया और लटकाया गया और जब उसकी जीभ काटी जाने लगी, तो उसने कहा, रुको एक क्षण! मैं प्रार्थना तो कर लूं। उसके पैर काट डाले गए, हाथ काट डाले गए। तो उसने ऊपर आकाश की तरफ मुंह उठा कर कहा कि इन सबको क्षमा कर देना।
तो एक आदमी ने पूछा, यह क्या कह रहे हो?
तो मंसूर ने कहा, मैं इसलिए कह रहा हूं ताकि तुम देख सको कि प्रेम के अतिरिक्त और कोई प्रार्थना नहीं है और प्रार्थना के अतिरिक्त और कोई परमात्मा नहीं है। मैं मरते वक्त...मेरी मृत्यु तुम्हें याद न रह जाए, लेकिन मेरा प्रेम तुम्हारे खयाल में रह जाए, तो शायद किसी दिन तुम भी प्रेम को उपलब्ध हो सको।
प्रार्थना का अर्थ है इतना विस्तीर्ण प्रेम कि वह समस्त सीमाओं को पार कर जाए। जिस दिन वह असीम तक पहुंचने लगता है, उस दिन प्रेम प्रार्थना बन जाती है। और जिस दिन वह सबको डुबा कर अपने को भी डुबा लेता है, जब न करने वाला बचता, न किया जाने वाला बचता, तब जो शेष रह जाता है वह परमात्मा है।
प्रेम के तीन चरण हैं।
प्रेम! जब करने वाला है, प्रेमी है; और जिसको प्रेम किया, प्रेम-पात्र है।
प्रार्थना! जब करने वाला है; लेकिन प्रेम-पात्र फैल गया, एक नहीं रहा, अनेक हो गया।
और परमात्मा! जब कि प्रेमी भी मिट गया और प्रेम-पात्र भी मिट गया, सिर्फ प्रेम ही रह गया।
लेकिन भय के आधार पर खड़ा हुआ मनुष्य धार्मिक नहीं हो सकता। और धार्मिक मनुष्य के पैदा हुए बिना नये समाज का कोई जन्म संभव नहीं है।
तो अंतिम बात! अब तक जो मनुष्य था, वह अधार्मिक था। अब तक जो समाज था, अधार्मिक था। अगर नये समाज को जन्म देना है, नये समाज की खोज करनी है, तो एक रिलीजस, एक धार्मिक व्यक्ति को जन्म देना जरूरी है। और धार्मिक व्यक्ति भय के आधार पर नहीं, अभय के आधार पर ही पैदा होता है। क्योंकि भय अप्रेम है, अभय प्रेम है। और भय घृणा है, हिंसा है,र् ईष्या है। अभय प्रार्थना है, परमात्मा है।
तो मेरे सामने यह सवाल ऐसा नहीं है कि नया समाज हम कैसे खोजें? मेरे सामने सवाल ऐसा है कि नया व्यक्ति हम कैसे खोजें?
और इसलिए किसी दूसरे की फिकर ही मत करना, क्योंकि वह नये व्यक्ति की खोज अपने से ही शुरू हो सकती है। जिनको मैं क्रांतिकारी कहता हूं, उनको नहीं जो दूसरे को बदलने को बहुत आतुर हैं, क्योंकि वे ऐसे लोग भी हो सकते हैं जो खुद बदलने से बचने की कोशिश में लगे हैं और दूसरे को बदलना चाह रहे हैं। क्रांतिकारी मैं उसे कहता हूं जो अपने बदलने को उत्सुक है। और जब कोई अपने को बदलता है और उसका दीया जल जाता है, तो आस-पास के बुझे दीये अपने आप जलने की चेष्टा में संलग्न हो जाते हैं।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे मैं बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें