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रविवार, 5 मई 2019

नये समाज की खोज-(प्रवचन-12)

समाज और सत्य-(प्रवचन-बारहवां)

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
जिसको नेतृत्व कहें, वह मुल्क में है ही नहीं। नेतृत्व ही नहीं है, लीडरशिप ही नहीं है। बहुत ही कमजोर किस्म के लोग ऊपर बैठे हुए हैं। न कोई ढंग की दिशा है, न कोई दृष्टि है। नेता होने भर का एक मजा है। बातचीत भी एकदम सामान्य है। नेतृत्व ही नहीं है देश में। यह सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। बुरा नेता भी हो, नेता तो हो! वह भी नहीं है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

अराजकता को हेल्प करे तब तो बड़ा अच्छा है, लेकिन कर नहीं पाती। क्योंकि इस सारे उपद्रव के भीतर से तानाशाही के सिवाय कुछ भी पैदा नहीं होता। अराजकता इससे नहीं पैदा होती। अराजकता जो दिखती है वह फाल्स है। यह जो सब चल रहा है मुल्क में यह पूर्व-आयोजित है। इससे अनार्की पैदा होती नहीं। अनार्की तो तभी पैदा हो सकती है जब बड़ी सुव्यवस्था हो। उससे ही अनार्की पैदा होती है, नहीं तो नहीं पैदा होती। अभी इस वक्त नहीं पैदा हो सकती है।


अच्छा नेता होने के साथ उसकी पर्सनल लाइफ भी अच्छी होनी जरूरी है?

बिलकुल जरूरी नहीं है। ये भी इस मुल्क की नासमझियां हैं! इस मुल्क की ये भी नासमझियां हैं!

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हांऱ्हां, आमतौर से होगा, आमतौर से होगा। जितना स्टुपिड आदमी है, उतना ही जिसको सोसाइटी कैरेक्टर वगैरह कहती है, उसमें फिट बैठ जाएगा--जितना स्टुपिड आदमी होगा!
बुद्धिमान आदमी एकदम फिट नहीं बैठेगा। पच्चीस फर्क उसे दिखाई पड़ेंगे, वह जिंदगी अपने ढंग से जीना चाहेगा। वह कैरेक्टरलेस है, ऐसा नहीं है सवाल! पर जिसको आप कैरेक्टर कहते हैं, उसको वह बहुत मामूली बात शायद मानेगा। कैरेक्टर का होगा वह, लेकिन कैरेक्टर की डेफिनीशन उसकी बिलकुल अलग होगी। जिसको हम कैरेक्टर कहते हैं उसको वह कैरेक्टर नहीं भी कह सकता है। क्योंकि जिसको हम कैरेक्टर कहते हैं वह चार-पांच हजार साल पहले के माइंड का खयाल है। इसलिए मेरा मानना यह है कि हमारी ये अपेक्षाएं गलत हैं। ये अपेक्षाएं हमें नहीं करनी हैं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हां, बिलकुल कहा जा सकता है। जैसे बहुत बुनियादी रूप से व्यक्ति का व्यवहार जितना अमूर्च्छित, जितना जागा हुआ हो, होशपूर्ण हो, अवेयरनेस का हो, उतना उस आदमी को मैं चरित्रवान कहता हूं। क्योंकि मेरा मानना यह है कि एक व्यक्ति जितना होशपूर्वक जीता हो, उतना ही उसके जीवन में दूसरों को दुख देने, पीड़ित करने, परेशान करने के मौके कम से कम होते चले जाते हैं। जैसे कि अगर मैं बहुत होशपूर्वक जीऊं तो क्रोध करना बहुत मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि क्रोध करने के लिए बेहोश होना बिलकुल जरूरी बात है। वह अनिवार्य लक्षण है। नहीं तो मैं क्रोध कर नहीं सकता। क्रोध करूंगा तभी जब बेहोश हो जाऊं, मूर्च्छित हो जाऊं। तो अमूर्च्छित व्यवहार को, कांशस व्यवहार को मैं चरित्र का एक बुनियादी लक्षण मानता हूं। चाहे दुनिया में कहीं भी चरित्र हो, किसी तरह का हो, कोई रूप हो, उसमें यह बात तो होनी ही चाहिए।
दूसरी बात, आमतौर से सारे चरित्र की धारणाएं समय से, काल से, परंपरा से, परिस्थिति से बंधी होती हैं। उन सबमें से कुछ सारभूत खींचा जा सकता है। जैसे जीसस का एक वचन है--कि जो तुम न चाहो कि कोई तुम्हारे साथ करे, वह तुम दूसरे के साथ मत करो। यह एक एसेंशियल क्वालिटी कैरेक्टर की मानी जा सकती है कि मैं आपके साथ वही करने की कम से कम कोशिश तो करूं, जो मैं आपसे मेरी तरफ चाहता हूं। अब इसको किसी समय और काल से बांधने की कोई जरूरत नहीं है। कोई भी काल हो, कोई भी समय हो, कोई भी धारणा हो, यह बात अर्थपूर्ण रहेगी। क्योंकि उस आदमी को हम चरित्रहीन कहेंगे जो आदमी आपसे तो सम्मान चाहता हो और खुद अपमान देता हो; जो आपसे तो प्रेम चाहता हो और खुद घृणा देता हो; जो आपसे तो चाहता हो कि मुझे सुख दो और खुद आपके सुख की जरा भी फिक्र न करे। वह कोई भी हो।
इसका मतलब यह हुआ कि चरित्रवान आदमी हमेशा दूसरे की जगह में अपने को रख कर सोचेगा--हमेशा! वह यह देखेगा कि मैं इस जगह होता, दूसरे की जगह खड़ा होता, तो क्या चाहता। वह मुझे करना है। और अगर उससे अन्यथा मैं करता हूं तो मैं नीचे गिरता हूं, एकदम नीचे गिरता हूं।
तीसरी बात, जिसको कि हम समय-काल सबसे अलग कर लें, मनुष्य की चरित्रहीनता के चाहे कोई भी रूप हों, वे जहां से पैदा होते हैं, उस रूट कॉज़ पर ध्यान होना जरूरी है। जैसे क्रोध है या लोभ है या मोह है, ये जो सारी बातें हैं, ये मेरे भीतर कहां हैं? कैसे उठती हैं? क्यों उठती हैं?
दमन करने को मैं चरित्र नहीं कहता। क्योंकि दमित आदमी खतरनाक सिद्ध होते हैं। वह कभी चरित्रवान दिखेगा, लेकिन कभी भी उसमें से विस्फोट हो सकता है। वह सिर्फ दिखने वाला चरित्र होगा। तो चरित्रवान आदमी का तीसरा लक्षण मैं यह मानूंगा कि वह दिखने वाला चरित्र खड़ा न करे, यानी पाखंडी न हो, हिपोक्रेट न हो। यह तीसरी क्वालिटी गिनें हम।
तो चरित्रवान आदमी पाखंडी नहीं होगा। वह जैसा है वैसा होगा और वैसा जाहिर करना पसंद करेगा। जैसा भी है! अगर मैं लोभी हूं, तो मैं कहूंगा कि मैं लोभी आदमी हूं। अगर आपको लोभ से डर हो, तो आपको मुझसे सावधान रहना चाहिए, मैं लोभी आदमी हूं। अगर मैं चोर हूं तो आपके घर में ठहर कर, मैं चोर आदमी हूं, मैं कोई चीज ले जा सकता हूं, इसमें पीछे कोई झंझट और चिंता की बात नहीं है। तो मैं पाखंड को सबसे बड़ी चरित्रहीनता मानता हूं कि मैं वैसा दिखाने की कोशिश करूं जैसा मैं नहीं हूं, वैसा ढोंग रचूं जैसा मैं नहीं हूं। और दो तरह का व्यक्तित्व हो--बनावटी।
चरित्रवान आदमी इकहरे तरह का व्यक्ति होगा। उसकी पर्सनैलिटी एक होगी। और इसके लिए वह सब दुख, सब परेशानियां झेलने को राजी होगा, इकहरे व्यक्तित्व को लेने की हिम्मत जुटाएगा। तो चाहे कैसा ही काल हो, कोई भी व्यवस्था हो, कोई भी चरित्र की मान्यता हो, वह आदमी जैसा है वैसा अपने को बताना पसंद करेगा कि मैं ऐसा आदमी हूं।
इन बातों का अगर हम ध्यान रखें, तब तो नेतृत्व में ये बातें होनी चाहिए। नेतृत्व में क्या, प्रत्येक व्यक्ति में होनी चाहिए। लेकिन जिसको हम आमतौर से चरित्र कहते हैं वह अत्यंत काल-सापेक्ष होता है। और काल के बीतते से ही वह खतरनाक हो जाता है और पाखंडी बनाता है। एकदम पाखंडी बनाने लगता है। क्योंकि समय तो बीत जाता है, उसकी कोई जगह तो नहीं रह जाती, लेकिन वह हमारी छाती पर चढ़ा रह जाता है। और उसको दिखावा करने की जरूरत हो जाती है।
अब जैसे कि हिंदुस्तान के पूरे नेतृत्व को गलत ले जाने का जो कारण हुआ वह यह हुआ--गांधी जी ने एक तरह की सादगी लोगों के ऊपर थोपी। कोई आदमी सादा हो, यह तो बिलकुल दूसरी बात है। लेकिन सादगी थोप दी जाए तो बड़ी खतरनाक बात है। जिन लोगों ने सादगी का गांधी जी के साथ व्यवहार किया, उनके मन में विशेष होने की, सुख-सुविधा की, वैभव की, प्रतिष्ठा की, यश की बहुत सी दबी हुई कामनाएं इकट्ठी हो गईं। और इधर वह सादगी, सरलता, झोपड़ा, यह सब चलता रहा। और उधर भीतर यह सब इकट्ठा हो गया। जैसे ही सत्ता हाथ में आई, उसका एकदम विस्फोट हो गया। और दबा है जो हमारे भीतर, वह शक्ति आने पर ही उसका विस्फोट होता है, वैसे नहीं होता। वैसे विस्फोट होने में तो घबराहट है, क्योंकि मर जाएंगे आप अगर विस्फोट होगा तो!
तो हिंदुस्तान में गांधी जी ने जिन लोगों को खड़ा किया, उनको एक झूठे व्यक्तित्व को आधार बना कर खड़ा कर दिया। ताकत हाथ में आई कि वह सब व्यक्तित्व तो बह गया, और भीतर का असली आदमी बाहर आ गया। और वह जो असली आदमी है वह बिलकुल उलटा साबित हुआ! वह था ही वैसा।
अब मेरा मानना है कि इससे अच्छा हुआ होता कि हम सीधे-सीधे आदमी को जानते होते कि यह आदमी ऐसा है। और यह स्वाभाविक है, इसमें कुछ खराबी नहीं है। तो नेतृत्व के सामने जो एक पाखंड फैला--कि दिखा कुछ रहे हैं, कर कुछ रहे हैं, हो कुछ रहा है--वह इस मुल्क में नहीं फैलता। सारी दुनिया में हमसे ज्यादा ईमानदारी है इस मामले में। चीजें साफ-सीधी हैं। इधर पांच-छह हजार साल में हमने सब पाखंड खड़ा कर लिया है और इतनी हिपोक्रेसी खड़ी कर ली है--इतना आश्चर्यजनक है! और ऐसा भी नहीं है कि वह आदमी बहुत कांशस है इस बात के लिए जो कर रहा है। बिलकुल अनकांशस कर रहा है। दो हिस्से टूट गए हैं, वह दो तरह के व्यवहार कर रहा है। जब वह मंच पर आता है तो एक तरह का आदमी हो जाता है, जनता में एक तरह का आदमी हो जाता है।
एक तो सजग व्यवहार हो, बहुत जागा हुआ आदमी चाहिए, एक-एक क्षण! दूसरे की जगह अपने को रखने की क्षमता चाहिए। और जैसा है वैसा प्रकट करना चाहिए। अगर ये तीन क्वालिटी हैं किसी आदमी में तो मैं मानता हूं कि वह चरित्रवान आदमी है। चाहे वह चोर ही हो, यह मैं नहीं कहता कि चोरी नहीं  कर सकता। मैं मानता हूं, हालांकि वह हो नहीं सकता, बहुत मुश्किल है इन क्वालिटीज को सम्हाल कर चोरी करना। बहुत मुश्किल मामला है।
इधर मैं, अभी नागार्जुन की बात चलती थी--कल ही नागार्जुन की बात कर रहा था। वह एक राजधानी से गुजरता है। नंगा भिक्षु है और हाथ में एक लकड़ी का पात्र रखता है, बौद्ध भिक्षु जैसा पात्र रखते हैं। उस गांव की जो महारानी है, वह उससे बहुत प्रभावित है। उसे भोजन के लिए बुलाया है। और वह भिक्षा लेने गया है। तो उसने उसके हाथ से वह भिक्षा-पात्र ले लिया और कहा कि यह तो मैं रखूंगी स्मृति में, आपके लिए मैंने दूसरा भिक्षा-पात्र बनवाया है वह आप ले लें। उसने एक सोने का भिक्षा-पात्र बनवाया है, उसमें बहुत बहुमूल्य मणि-माणिक्य लगाए हैं। वह लाखों रुपये की कीमत का है। वह नागार्जुन के हाथ में दे देती है।
उसको खयाल था कि शायद वह इनकार करेगा कि यह सोना है, यह मैं नहीं लूंगा। जैसी हमारी अपेक्षा होती है संन्यासी से। लेकिन नागार्जुन तो सब चीजों को शून्यवत मानता है, इसलिए वह इसमें कोई फर्क नहीं करता कि वह लकड़ी का है, कि यह सोने का है, या कुछ है। वह पात्र लेकर चल देता है। वह रानी हैरान भी होती है। उसने एक दफे भी यह नहीं कहा कि यह तो सोने का है और मैं तो भिक्षु हूं और यह मैं नहीं लूंगा।
रास्ते पर सबकी नजरें पड़ती हैं, क्योंकि सूरज की रोशनी में उसका पात्र चमक रहा है और वह नंगा आदमी सोने का पात्र लिए चला जा रहा है। एक चोर उसके पीछे हो लेता है। कितनी देर यह नंगा आदमी इसको बचाएगा! नागार्जुन भी उसके पैरों की आवाज पीछे आती देख कर जंगल में, समझ जाता है कि मेरे पीछे तो कोई कभी आता नहीं, यह इस पात्र के पीछे ही आता होगा।
वह एक मरघट में ठहरा हुआ है, एक खंडहर में। उसमें न कोई द्वार है, न दरवाजा है। वह अंदर चला गया है। दोपहर का वक्त है, वह सोने को है। वह सोचता है कि नाहक बेचारा बाहर बैठा हुआ है दीवार से छिप कर वह चोर। वह न मालूम कितनी देर बैठा रहेगा। इतनी देर बिठाने के लिए मैं क्यों उसे परेशान करूं! और फिर वह चुरा कर तो ले ही जाएगा, क्योंकि मैं अब सोऊंगा। मैं इस पात्र के लिए तो बैठा नहीं रह सकता, मुझे सोना ही है, तो यह ले ही जाएगा। और चुरा कर ले जाए, यह चोर बनाने का जिम्मा भी मैं क्यों लूं! वह उस पात्र को उठा कर बाहर फेंक देता है खिड़की से।
वह जहां चोर बैठा है, वह पात्र वहां गिरता है। वह चोर तो हैरान होता है। एक तो वैसे ही यह आदमी अदभुत था कि नंगा है और इतना बहुमूल्य पात्र लिए हुए है! फिर उसने पात्र भी फेंक दिया है। तो वह चोर उसको धन्यवाद देने के लिए खिड़की में से सिर निकालता है और कहता है, मैं धन्यवाद देता हूं! मैं धन्यवाद देता हूं, आश्चर्य कि आपने यह पात्र बाहर फेंक दिया! पहले ही शक होता था कि नंगे आदमी के हाथ में इतना कीमती पात्र! फिर वह ऐसे आपने फेंक दिया जैसे किसी मूल्य का न हो। कभी-कभी, मैं चोर हूं, पर कभी-कभी मेरे मन में भी ऐसा होता है कि कब ऐसी हमारी भी हिम्मत हो! चोर तो हूं, लेकिन कभी मन तो ऐसा होता ही है कि कब हमारी भी ऐसी हिम्मत हो! क्या मैं भीतर आकर थोड़ी देर बैठ सकता हूं आपके पास?
वह नागार्जुन कहता है, मैंने पात्र इसीलिए बाहर फेंका। वैसे भी तुम भीतर आते, लेकिन तब मुझसे मिलना न हो पाता। इसलिए पात्र पहले ही फेंक दिया कि तुम भीतर आओ और मिलना भी हो जाए। तुम आ जाओ भीतर! वह चोर आकर बैठ जाता है और कहता है कि मैं कई साधु-संतों के पास जाता हूं। मैं भी शांति चाहता हूं, आनंद चाहता हूं, सत्य चाहता हूं। चोर हुआ तो क्या, ये तो मुझे भी चाहिए। कोई चोर होने ही से तो ये सब मुझे नहीं चाहिए, ऐसा नहीं है। लेकिन वे सब साधु-संत यह कहते हैं कि पहले तू चोरी छोड़। और चोरी छूटती नहीं, चूंकि मैं चोर हूं। तो क्या कोई रास्ता नहीं है कि मैं चोर रहूं और जो मैं चाहता हूं वह भी मिल जाए?
तो नागार्जुन उससे कहता है कि तू फिर साधु-संतों के पास गया ही न होगा। पिछले जमाने के किन्हीं चोरों के पास पहुंच गया होगा! इसलिए वे चोरी पर जोर देते हैं कि चोरी छोड़। साधु को क्या मतलब तेरी चोरी से? तू कुछ भी कर। साधु को साधुता से मतलब, साधु को चोरी से क्या मतलब है? और तू कुछ तो होगा ही। यानी कुछ तो होगा ही तू, क्योंकि वह तेरा जानना है। तू साधु के पास गया ही नहीं।
वह चोर कहता है, मेरी आपसे बात बैठ सकती है। तो मैं चोर रहते हुए कुछ कर सकता हूं।
तो नागार्जुन कहता है कि यह मैं तुझे करने को कहता हूं, यह तू कर।
वह उसको कहता है कि जो भी काम तू कर, पूरे होश से कर। चोरी भी कर तो होश से कर। जानते हुए कर कि यह तू कर रहा है। और एक-एक हाथ भी उठाए, सामान निकाले तिजोरी से किसी की, तो पूरे जागरूक रह कर निकाल। मैं इसके सिवाय और कुछ कहता नहीं। अगर तेरा दिल हो, तो मैं पंद्रह दिन तक यहां रुका हूं, तू फिर आ जाना।
वह चोर तो तीसरे-चौथे दिन वापस आता है और कहता है, मुझे मुश्किल में डाल दिया! बहुत मुश्किल में पड़ गया। क्योंकि कल मैं घुस गया महल में और तिजोरी पर पहुंच गया और तिजोरी खोल ली। जब होशपूर्वक हाथ डालता हूं तो हंसी आती है और हाथ भीतर नहीं जाता, कि यह मैं क्या कर रहा हूं! और जब हाथ भीतर जाता है और सामान निकाल लेता हूं, तब मैं बेहोश होता हूं। मुझे बहुत मुश्किल में डाल दिया! होश में तो चोरी हो ही नहीं सकती।
वह नागार्जुन कहता है, हम कोई चोर नहीं, हम चोरी की बात ही नहीं करते। हमें क्या मतलब? तुम जानो! तुम्हें चोरी करनी हो तो बेहोश रहो। अब यह चोरी की हमसे मत पूछो, क्योंकि हम चोरी के लिए कुछ कहते नहीं। हम तो इतना ही जानते हैं कि तुम होशपूर्वक जो भी करते हो, करो।
और नागार्जुन ने वहां उससे कहा कि जो होशपूर्वक किया जा सके, वही धर्म है; और जिसके लिए बेहोश होना जरूरी हो, वही अधर्म है।
इसलिए अधर्म छोड़ने का सवाल ही नहीं है, सिर्फ होश से जीने की बात है। इसलिए मैं कैरेक्टर का बुनियादी हिस्सा उसको मानता हूं। मैं जो भी करूं!

मगर यह थोड़ा पैराडॉक्सिकल है। बेहोशी में, होश नहीं है, यह कैसे मालूम पड़ा उसको?

वह हमेशा पीछे मालूम पड़ता है, हमेशा पीछे, घटना के बीत जाने के बाद। जैसे तुमने क्रोध किया। जब तुम क्रोध में हो तब तुम्हें कुछ होश नहीं है। लेकिन क्रोध गया, तब तुम लौट कर देखते हो और कहते हो, अरे, यह मैंने क्या कर लिया! यह तो मैं कभी करता ही नहीं अगर मुझे होश होता तो। एक सेकेंड की बात है न! कोई ऐसा थोड़े ही है कि महीनों बीते हैं। एक सेकेंड!

लेकिन जब वह चोरी करने जाता था तो वह कहता है, होश में जब रहता हूं तब हाथ नहीं घुसता...।
हां, हां, वह वहीं बैठ कर तिजोरी में यह प्रयोग कर रहा है। वह जब परिपूर्ण होश से हाथ डालता है तो हाथ रुक जाता है।

वह कांशस हो गया!

हां, कांशस है पूरा।

किस बात का कांशस हो गया वह?

जो भी एक्ट कर रहा है वह, यह जो भी पूरी सिचुएशन है, जो भी हो रहा है, वह पूरे के लिए कांशस है। जो भी है उस वक्त--उसके भीतर, बाहर, चारों तरफ सब--वह पूरा कांशस है। जैसे ही होश खोता है...।

जब इस कृत्य के प्रति वह कांशस है, तब वह डर के प्रति कांशस नहीं हो सकता कि कोई मुझे देख रहा है?

कांशस होना जो है न, कांशस होना जो है, अगर कोई पूरी तरह कांशस है तो सब चीज के प्रति कांशस है, जो भी हो रहा है चारों तरफ। एक चीज के प्रति अगर तुम कांशस हो तो बाकी के प्रति सोए हुए हो। कांशस होने का मतलब सब चीज के प्रति कांशस होना है। लेकिन कांशसनेस के क्षण में फियर कभी पकड़ता नहीं।
और हैरान होगे तुम, न फियर पकड़ सकता है कांशसनेस के क्षण में, न मृत्यु पकड़ सकती है कांशसनेस के क्षण में, न जिसे हम बुरा कहते हैं--क्रोध है, घृणा है, हिंसा है, हत्या है--वह कोई पकड़ सकता है। कांशसनेस के क्षण में तुम इतने अछूते और दूर खड़े हो जाते हो, तुम इतने इनोसेंट और कुंआरे हो जाते हो जिसका कोई हिसाब ही नहीं। कुछ भी नहीं पकड़ता है। और पकड़ा कि तुम कांशसनेस के बाहर गए। वह छिटक गई बात! तुम डूब गए फिर।
जैसे फियर किसी को पकड़ा। एक आदमी वहां से झांक कर देख रहा है, और मैं डर गया। तो डरा क्या? डरा यह कि मेरा चित्त चला गया इस क्षण से बाहर। सोचा कि अब पकड़ा जाऊंगा, अब सजा होती है, अब बदनामी होती है। वह गया मेरा चित्त इस क्षण से बाहर। मैं बेहोश हो गया।
एक मैं तुम्हें दूसरी घटना सुनाऊं इस तरह की।
जापान में एक मास्टर थीफ हुआ है। एक झेन स्टोरी है। एक चोर है जो साधारण चोर नहीं है। वह मास्टर ही कहा जाता है। वह चोरी का कला-गुरु है पूरा का पूरा! और उसकी इतनी प्रसिद्धि है कि जिस घर में वह चोरी कर लेता है, उस घर के लोग दूसरों से कहते हैं कि पता है, हमारे घर मास्टर थीफ ने चोरी की है! क्योंकि साधारण चोरी वह करता ही नहीं।

प्राउड की बात है।
हां, यह कीमत की बात है कि उनके घर में वह आदमी घुस गया। साधारण घरों में तो वह कदम नहीं रखता। तो लोग चर्चा करते हैं कि हम साधारण लोग थोड़े ही हैं, हमारे घर फलां चोर घुस गया था। और वह कभी नहीं पकड़ा गया है।
वह बूढ़ा हो गया है। उसका लड़का जवान है। वह लड़का एक दिन उससे कहता है कि अब आप तो बूढ़े हो गए, कितने दिन के हैं, कहा नहीं जा सकता। यह अपनी कला मुझे सिखा दें।
तो वह चोर उससे कहता है कि कला के साथ यही खराबी है कि उसे सिखाना मुश्किल है। वह चोर कहता है कि कला के साथ यही खराबी है। मैं कोई साधारण चोर थोड़े ही हूं जो तुझे चोरी सिखा दूं! चोरी अगर मेरा व्यवसाय हो तो तुझे सिखा सकता हूं। धंधा सिखाया जा सकता है; और कला नहीं सिखाई जा सकती। चोरी मेरी कला है, वह मेरा आनंद है। वह कोई ऐसा मामला नहीं है कि मैं सिर्फ चीजों को चुरा लाता हूं। वह जो चोरी में जो कुशलता है, बहुत मुश्किल है तुझे सिखाना। लेकिन एक कोशिश करके देखेंगे, अगर तेरे भीतर चोर होने की जन्मजात क्षमता है...सभी कलाकार यह मानते हैं कि जन्मजात क्षमता होनी चाहिए...तो वह चोर तो कलाकार है, वह कह रहा है, अगर जन्मजात चोर है तू तो कुछ निकल सकता है, नहीं तो मैं कुछ नहीं सिखा सकता। खैर, आज चल।
अंधेरी रात है, अमावस है, वह उसको लेकर, बेटे को लेकर गया है। बूढ़ा है, उसकी उम्र कोई सत्तर वर्ष है। बेटा जवान है। जब वह एक महल के पास जाकर दीवार तोड़ रहा है, सेंध बना रहा है, तब बेटा उसका कंप रहा है। और उस बूढ़े के हाथ में न कोई कंपन है, न कोई बात है, वह ऐसे दीवार खोद रहा है जैसे अपने घर की दीवार सुधारता हो।
उसका बेटा कहता है कि आप यह क्या कर रहे हैं! जरा भी घबरा नहीं रहे हैं? कोई आ जाए, कोई पकड़ ले, कोई आवाज हो जाए। उस बूढ़े ने कहा, ये सब बातें हो सकती हैं, अगर मैं घबरा जाऊं। ये सब बातें हो सकती हैं--आवाज भी हो सकती है, कोई आ भी सकता है, पकड़ा भी जा सकता हूं--अगर मैं घबरा जाऊं। ये सब बातें, बेटे, भय में घटित होती हैं। इनकी वजह से भयभीत नहीं होता कोई, भय की वजह से ये सब बातें घट जाती हैं। तू चुपचाप खड़ा रह। लेकिन वह बेटे से कहता है, तू कंप क्यों रहा है? वह कहता है, कंपूं नहीं? मेरे तो हाथ-पैर ढीले हो रहे हैं। मेरी तो समझ में नहीं आ रहा है कि क्या होगा!
उस बूढ़े ने सब दीवार खोद ली है, वह अंदर चला गया है और उसको बेटे को कहता है, भीतर आ जा। वह बेटे को लेकर एक-एक ताला खोलते हुए महल के भीतरी कक्ष में पहुंच गया है। वहां एक बड़ी आलमारी है। उसमें बहुमूल्य कपड़े और सब सामान रखा हुआ है। वह उसे खोलता है और अपने बेटे को कहता है, तू भीतर चला जा और तुझे जो भी अच्छा लगता हो वह निकाल ला। वह भीतर जाता है, उसे तो कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा है, अच्छे-बुरे का कहां सवाल है! उसकी कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि क्या होगा, क्या नहीं होगा। जब वह भीतर गया उस आलमारी के, बाप ने आलमारी बंद कर दी, ताला लगा दिया, चाबी वहीं लटकाई और जोर से चिल्लाया कि चोर! और सारे घर में हुल्लड़ मचा कर बाप तो निकल कर भाग गया। वह बेटा उस आलमारी के भीतर बंद हो गया। और सारे घर के लोग जग गए हैं, लालटेनें निकल आई हैं, मोमबत्तियां जल गई हैं, नौकर खोज रहे हैं, मालिक खोज रहा है।
वह बेटे ने तो कहा कि मार डाला! यह क्या हुआ, यह तो मुश्किल हो गई! मैं तो गया पहले ही दिन, चोरी सीखने का सवाल ही न रहा! अब तो उसकी समझ के ही बाहर है कि अब क्या होगा! और यह बाप ने क्या किया? यह क्या सिखाना हुआ?
वह बेटा भीतर है और एक नौकरानी वहां से मोमबत्ती लिए हुए निकलती है उसके पास से। तो वे जिसको अमरीका में इस वक्त हैपनिंग कहते हैं--उसके लिए अपने पास कोई शब्द नहीं है--वह जो चोर का लड़का अंदर बंद है, जैसे ही वह नौकरानी वहां से पास से निकलती है, कुछ होता है और वह ऐसी आवाज करता है जैसे चूहे कपड़े काट रहे हों, हाथ से लकड़ी पर खरोंच मारता है। वह नौकरानी समझ कर कि शायद चूहा या बिल्ली अंदर रह गई है, चाबी लगा कर दरवाजा खोलती है और हाथ मोमबत्ती के साथ अंदर ले जाती है--यह भी हैपनिंग है--वह फूंक मार कर मोमबत्ती बुझा देता है, धक्का मारता है और भागता है वहां से। उसके पीछे दस-पंद्रह आदमी भागते हैं।
अब वह आखिरी शक्ति से भाग रहा है, जैसा वह कभी नहीं भागा था। उसे पता ही नहीं था कि इतना वह भाग सकता है। वह एक कुएं के पास पहुंचा है--फिर हैपनिंग ही है यह--वह कुएं के पास से एक पत्थर उठा कर जोर से कुएं में पटकता है और एक झाड़ के पीछे खड़ा हो जाता है।
वे पंद्रह आदमी उस कुएं को घेर कर खड़े हो गए हैं। चोर तो कुएं में कूद गया, अपने आप मर जाएगा। अब इतनी रात कौन परेशान हो! सुबह आकर देखेंगे, बच जाता है तो ठीक है, नहीं तो लाश निकालेंगे। वे वापस लौट जाते हैं।
वह लड़का झाड़ के पीछे खड़ा हुआ, घर पहुंचा। बाप कंबल ओढ़ कर आराम से सोया हुआ है। वह उसका कंबल छीनता है और जोर से उसकी गर्दन पकड़ लेता है कि क्या मेरी जान लेना चाहते थे? यह तुमने क्या किया? वह बाप कहता है, जो हुआ, हुआ। तुझमें चोर होने की क्षमता है। अब सो जा, सुबह बात करेंगे। वह कहता है, बात अभी करनी है, मैं इतनी मुसीबत में पड़ गया। वह बाप कहता है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तू आ गया, बस काफी है। बाकी बात बाद में करेंगे। तू आ गया, बस ठीक है, तू चोर हो सकता है। वह बेटा कहता है, मुझे अभी सब बताना है कि क्या-क्या हुआ। बाप कहता है, वह सब विस्तार की बातें जानने का कोई मतलब नहीं है। विस्तार की बातें जानने का कोई मतलब नहीं है। तू बिना सोचे-समझे कुछ कर सकता है। वह चोर होने के लिए यह जरूरी गुण है, वह उससे कहता है। क्योंकि कोई प्लान तो हो नहीं सकता चोरी में। दूसरे के घर में प्लानिंग अपनी नहीं चल सकती। कोई प्लान नहीं है, दरवाजा कहां है, दीवार कहां है, कुछ पक्का पता नहीं है। कहां नौकर सोता है, कहां पहरेदार है, कुछ पक्का पता नहीं है। बंदूक है, तलवार है, क्या है, कुछ पता नहीं है। कब क्या हो जाए, बिल्ली कूद जाए, बर्तन गिर जाए, कुछ पता नहीं है, सब अनप्लांड है। तो सिर्फ होश काफी है। वह कहता है कि सिर्फ होश काफी है कि क्या हो रहा है, उसके साथ हम रिएक्ट कर सकें।
यह जो सारे जीवन की जो सिचुएशन है, वह भी ऐसी ही है, अगर बहुत गौर से हम देखें। वहां कहां क्या हो जाए, क्या पता है! अभी हम यहां बैठे हैं, एक क्षण में क्या होगा, क्या पता है! कुछ भी पता नहीं है। अभी क्या हो जाए, क्या पता! यह मकान गिर जाए, कोई भूकंप आ जाए, क्या हो जाए, क्या पता! अभी कल्याण जी प्रेम से बुला लिए हैं, उनका दिमाग खराब हो जाए, वह सबको निकाल बाहर कर दें, क्या पता है! यह सब हो सकता है न!
तो हम कोई ऐसे जी ही नहीं सकते कि हम पहले से सब बना-बना कर जीएं। और जो बना-बना कर जीएगा, वह आदमी जीता ही नहीं। उसका जीना एक तरह का बारोड और उधार और बासा है। जीने के लिए पूरी अगर बात हो, तो जिंदगी की पूरी स्थिति में हमें सजग होकर जीना चाहिए। और एक-एक स्थिति की चुनौती का सामना करना चाहिए और जो उससे निकल आए।
तो ठीक कैरेक्टर के आदमी को मैं यह मानूंगा कि वह हरेक सिचुएशन में सजग होकर जी रहा है। जो भी समय आए, जो भी जिंदगी मौका लाए, वह जागा हुआ जी रहा है। जो होगा, वह करेगा। न उस करने के लिए कोई पछतावा है पीछे। पछतावा सिर्फ सोए हुए आदमी को होता है, क्योंकि वह यह सोचता है कि इससे अन्यथा भी मैं कर सकता था। जागा हुआ आदमी कहता है, मैं जागा हुआ था, अन्यथा कुछ हो ही नहीं सकता था। जो हुआ है वह हुआ है, बात खत्म हो गई है। जो हो सकता था वह मैंने किया, क्योंकि मैं पूरा जागा था। इससे ज्यादा मैं हूं ही नहीं। इससे ज्यादा कोई उपाय ही नहीं है।
इसलिए जागा हुआ आदमी न पीछे लौट कर देखता है, न पछताता है, न दुखी होता है। न जागा हुआ आदमी आगे के लिए बड़ी योजना बनाता है, हिसाब करता है, सब तय करके चलता है, ऐसा कुछ भी नहीं है। जागा हुआ आदमी जीता है। और तब जीने में जो सघनता आ जाती है उसकी, क्योंकि न वह अतीत में होता है, न भविष्य में होता है। वह यहीं होता है, अभी होता है। तो पूरी की पूरी जो इंटेंसिटी चाहिए जिंदगी की, सघनता, वह उसको उपलब्ध हो जाती है। और उस क्षण में वह जो जानता है--वह जो आप पूछते हैं कि सब सापेक्ष है--उस क्षण में जिसे वह जानता है वह निरपेक्ष है। उस निरपेक्ष पर ही सारे सापेक्षों का आवर्तन, आना-जाना है।
एक बैलगाड़ी चल रही है। सारा चाक घूम रहा है। वह एक कील बीच में बिना घूमे हुए खड़ी है। वह जो कि नहीं घूमती है कील, उसी पर चाक का घूमना है। वह कील भी घूम जाएगी, चाक गिर जाएगा फौरन। वह चाक को घूमते देख कर यह मत सोचना कि चाक में न घूमने वाला कुछ भी नहीं है। मजा यह है कि वह घूमने वाला चाक किसी न घूमने वाली कील पर ही खड़ा है, नहीं तो खड़ा ही न रहेगा।
तो यह जो सापेक्ष का इतना बड़ा घूमता हुआ वृत्त है, यह जो वर्तुल है सापेक्ष का, इसके बीच में एक तत्व बिलकुल निरपेक्ष है, वही हम हैं। उसे कोई साक्षी कहे, आत्मा कहे, ब्रह्म कहे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन एक तत्व, जिसके आंख के सामने से ये सब जाती हैं पर्दे पर सारी तस्वीरें, वह निरपेक्ष है। लेकिन इसे हम सघन क्षण में ही जान सकेंगे, साधारण अनुभव में नहीं जान सकेंगे।

वह जो निरपेक्ष है, वह भी तो सापेक्ष से सापेक्ष हो जाता है न?

नहीं होता है। नहीं होता है इसलिए--कि सापेक्ष का मतलब क्या है?

जो निरपेक्ष से अलग है।

न-न! असल कठिनाई क्या है, निरपेक्ष से अलग नहीं, सापेक्ष का मतलब निरपेक्ष से अलग नहीं। सापेक्ष का मतलब यह है कि जिसके अनुभव के लिए दूसरे की जरूरत है। यह समझ लेना ठीक से। जिसके अनुभव के लिए दूसरे की जरूरत है। जिसका अपना अलग अनुभव नहीं हो सकता, रिलेटिव अनुभव ही हो सकता है कभी।
जैसे समझ लो कि मैं कहता हूं, यह पानी गरम है। तो गरम शब्द कभी भी निरपेक्ष नहीं हो सकता, क्योंकि ठंडे के बिना उसका कोई अस्तित्व नहीं है। और ऐसा भी हो सकता है कि मैं एक हाथ को गरम कर लूं और एक को बरफ पर रख लूं और दोनों हाथों को एक ही पानी में डाल दूं, तो एक हाथ को वही पानी गरम मालूम पड़े, दूसरे हाथ को वही पानी ठंडा मालूम पड़े। यह सापेक्ष हुआ। एक ही पानी है, एक ही बर्तन है और मेरा एक हाथ गरम है और एक ठंडा है, दोनों को मैं डाल दूं, तो मेरे दोनों हाथों को पानी की अनुभूति अलग-अलग हो। एक हाथ कहे कि गरम है, एक कहे कि ठंडा है। और पानी वही है और दोनों एक ही पानी में हैं।
सापेक्ष का मतलब यह है कि जिसका अनुभव तुलनात्मक है--एक। और किसी की अपेक्षा के बिना जो अस्तित्व में नहीं हो सकता। "इन इटसेल्फ' जो नहीं है, हमेशा किसी और की अपेक्षा से है। और अगर कोई ऐसा अनुभव है जो अपने में ही हो सकता है, जिसके लिए कोई अपेक्षा नहीं, किसी की कोई अपेक्षा नहीं, तो निरपेक्ष हो जाएगा।
अब जैसे मेरा कहना है कि वह जो हमारे भीतर बैठा है, वह किसी सघन क्षण में अकेला ही होता है। कोई अनुभव नहीं होता, कोई दूसरा नहीं होता, बस वही होता है। जैसे एक दीये की हम कल्पना करें--एक दीया जल रहा है, दीवार प्रकाशित हो रही है, हम सब पर प्रकाश पड़ रहा है। तो दीया है और हम हैं। हम एक कल्पना करें--क्योंकि वह कल्पना ही हो सकती है अभी, जब तक कि किसी सघन से गुजरना न हो जाए--एक दीया जल रहा है, जिसका प्रकाश किसी पर नहीं पड़ता, सिर्फ दीया ही प्रकाशित हो रहा है। कोई दूसरी चीज नहीं है, सिर्फ दीया ही है और अपने प्रकाश में स्वयं ही प्रकाशित हो रहा है। तब वह स्थिति निरपेक्ष हो गई।
तो ध्यान की गहरी या समाधि की जो गहरी अनुभूति है, वह निरपेक्ष का, एब्सोल्यूट का अनुभव है। वहां कोई रिलेटिव की बात नहीं है। और एक कण भी उसकी अनुभूति का मिल जाए, तो फिर हम सारे सापेक्ष के बीच भी निरपेक्ष हैं।

यह तो अवेयरनेस का सवाल आ गया।

अवेयरनेस का ही सवाल है! अवेयरनेस का ही सवाल है!

यह रोज की हमारी लाइफ के कनफ्यूजन में यह निरपेक्ष अनुभव कर सकते हैं?

हांऱ्हां, बिलकुल ही। इसी में कर सकते हैं। और कहीं तो कर ही नहीं सकते।

यह समाज जो बना हुआ है, वही समाज रहना चाहिए या इसको भी बदलने की जरूरत है?

इसको रोज बदलने की जरूरत है।

तो इसी अनुभव के जरिए बदलेगा यह?

न, न, न। ऐसा भी जरूरी नहीं है। यह अनुभव अगर हो, तब तो यह समाज बहुत ही, रोज बदल जाएगा। इसको कल वाला होने की भी जरूरत नहीं है।
यह तो फिर आप अनार्किज्म की बात कर रहे हैं। यह तो वैसा ही हुआ कि जो बदल सकता है, हर कर्तव्य में वह अलग-अलग हो सकता है।

बिलकुल हो सकता है।

तो यह अनुभव में भी हम सोचते हैं कि यह कुछ भी नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं। और फिर आगे, आगे--इसका कोई अंत नहीं है!

ठीक है न। अंत तो कोई भी नहीं है। अंत होना भी नहीं चाहिए।

तो अनार्किज्म और यह एक ही बात हुई?

असल में कठिनाई क्या है, अनार्किज्म के नाम से जिन लोगों का नाम चलता है दुनिया में, जैसे क्रोपाटकिन या बाकुनिन, इस तरह के जो लोग हैं, उनको अगर बहुत ठीक से समझा जाए तो मैं इनको ठीक-ठीक अर्थों में अनार्किस्ट नहीं मानता हूं। इनकी अनार्की बहुत सीमित है। और वह इतनी है कि स्टेटलेसनेस, राज्य न हो, कोई आर्डर न हो, कोई व्यवस्था न हो और प्रत्येक व्यक्ति मुक्त हो, इतनी इनकी अनार्की है। इस अनार्की पर जो जोर है, वह बाहर की सारी व्यवस्था को तोड़ देने पर है।
मैं जिस अनार्की पर जोर दे रहा हूं, वह भीतर की व्यवस्था विकसित कर लेने पर है। इन दोनों में फर्क है। मेरा फर्क समझ रहे हैं न! इन दोनों में फर्क जो है, वह यह है--इसको हम ऐसा समझ ले सकते हैं, कि एक आदमी कहे कि सब मकान तोड़ दो, खुले आकाश के नीचे रहो। उसका जोर है कि यह मकान तोड़ दो, मकान गिरा दो, दीवारें गिरा दो, खुला आकाश ठीक है। लेकिन यह हो सकता है कि मकान के भीतर रहने वाला आदमी खुले आकाश के नीचे एकदम मर जाए--मर ही जाए! रहना तो मुश्किल ही हो जाए, मरना ही संभव हो। एक छोटे मकान के भीतर रहने वाले आदमी की कंडीशनिंग है। वह खुले आकाश के नीचे रह ही नहीं सकता।
मेरा कहना दूसरा है। मेरा कहना यह है कि मकान गिराना न गिराना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना महत्वपूर्ण इस आदमी के भीतर खुले आकाश के नीचे रहने की क्षमता विकसित करना है। मकान है कि नहीं, यह सवाल नहीं है। मकान में रहता है कि बाहर रहता है, यह भी सवाल नहीं है। लेकिन इस आदमी के भीतर खुले आकाश के नीचे रहने की क्षमता! और यह अगर विकसित हो जाए तो यह मकान के नीचे सोए तो खुले आकाश के नीचे है और खुले आकाश के नीचे सोए तो मकान के नीचे है।
तो क्रोपाटकिन और उनके अनार्किज्म में जो बात है वह एक तरह का रिएक्शन है--व्यवस्था तोड़ दो। और वही रिएक्शन बीटल और बीटनिक और हिप्पीज में चल रहा है।

क्रोपाटकिन के अनार्किज्म में कम्युनिज्म का कुछ तत्व है?

न, क्रोपाटकिन वगैरह को कम्युनिज्म से कोई मतलब नहीं है, बल्कि वे दुश्मन हैं। क्योंकि कम्युनिज्म मूलतः बिना राज्य-सत्ता के आ ही नहीं सकता, उनके खयाल से। क्योंकि कम्युनिज्म लाना पड़ेगा तो राज्य की व्यवस्था चाहिए, तानाशाही चाहिए, तब ला सकोगे। और वे तो मानते नहीं कि कोई व्यवस्था चाहिए। इसलिए वह तो कम्युनिज्म और उनके बीच विरोध था। अनार्किस्ट और कम्युनिस्ट तो दुश्मन रहे आपस में और उनके बीच कोई तालमेल नहीं है। क्योंकि कम्युनिज्म आएगा राज्य से और वे हैं राज्य के दुश्मन। कम्युनिज्म मानता है कि एक दिन ऐसा आएगा कि राज्य विकसित-विकसित होते हुए विलीन हो जाएगा। लेकिन अनार्किस्ट मानते हैं कि राज्य जितना विकसित होगा उतना ही मजबूत हो जाएगा, विलीन कैसे हो जाएगा?
मेरी स्थिति बहुत और है। मेरे लिए यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण नहीं है कि राज्य है या नहीं है, व्यवस्था है या नहीं है। आदमी ऐसा होना चाहिए जो अव्यवस्था में भी व्यवस्थित रह सके। आदमी ऐसा होना चाहिए! और अगर ऐसा आदमी नहीं है, तो आदमी हमेशा तकलीफ और दुख और परेशानी में रहेगा। वह रहेगा ही। क्योंकि मूलतः जिंदगी एक अव्यवस्था है, एक अनार्की है। जिंदगी, लाइफ ऐज सच, इनसिक्योरिटी है। वहां कोई सुरक्षा है ही नहीं। सब सुरक्षा भ्रांत है और मानी हुई है, बिलकुल मानी हुई है। और माने हम इसलिए हैं क्योंकि हमें डर लगता है कि असुरक्षा में तो हम एक सेकेंड जी नहीं सकेंगे। जो हमारा पिता है वह कल भी पिता है, जो पत्नी है वह कल भी पत्नी है, जो बेटा है वह कल भी बेटा है, मकान है वह कल भी मकान है, बैंक बैलेंस है वह कल भी रहेगा--इस सबको मान कर हम जी पाते हैं। और मेरा मानना है कि इसको मानने की वजह से हम जी नहीं पाते, बल्कि इसको मानने में ही मर जाते हैं।
मैं तुम्हें एक कहानी कहूं, मुझे बहुत पसंद है।
कल्याण जी, एक राजा है और वह बहुत डर गया है। उसने बहुत युद्ध देखे और अपने दुश्मनों को मरते देखा और अब उसे ऐसा भय लग गया है कि जब मेरे दुश्मन मर सकते हैं तो किसी युद्ध में मैं भी मर सकता हूं। और जब मैं मार सकता हूं तो मैं मारा भी जा सकता हूं। वह मार-मार कर मारे जाने के भय से पीड़ित हो गया है। उसने बहुत मारा है। लेकिन अब वह डरने लगा है कि जब सब मर सकते हैं तो मैं भी मर सकता हूं। तो अब मैं क्या करूं? क्या उपाय करूं? मरने से तो बचना जरूरी है।
तो उसने एक महल बनाया, जिसमें वह सिर्फ एक दरवाजा रखता है। खिड़कियां भी नहीं हैं उसमें, कोई दरवाजा नहीं है, कोई स्काई लाइट नहीं है, उसमें कोई उपाय नहीं है। दुश्मन उसमें कहीं से घुस नहीं सकता। भारी दीवारें हैं, सात दीवारों के पर्त हैं और उसमें एक दरवाजा है। और एक दरवाजे पर हजारों सैनिकों का पहरा है। हर सैनिक पर दूसरे सैनिक का पहरा है।
पड़ोस का राजा उसका महल देखने आया है, उसका मित्र है। उसने सुना कि उसने इतनी सुरक्षा का महल बना लिया है कि दुश्मन उसमें भीतर कभी प्रवेश नहीं कर सकता। वह उसको देखने आया है। वह देख कर बहुत खुश हुआ है और बाहर आकर कहता है कि वश चला तो मैं भी ऐसा मकान बनाऊंगा। सच में दुश्मन इसमें जा ही नहीं सकता, चोर नहीं जा सकता, डाकू नहीं जा सकता, हत्यारा नहीं जा सकता। तुम बिलकुल सुरक्षित हो।
वह बाहर महल के विदा कर रहा है पड़ोसी राजा को मकान का मालिक, तब वह धन्यवाद दे रहा है कि मैं बहुत खुश हुआ तुम्हारा महल देख कर। सड़क के किनारे एक भिखारी बैठा है बुङ्ढा, वह जोर से हंसने लगा है। उस भवनपति राजा ने पूछा कि तू क्यों हंस रहा है? क्या बात है? कोई भूल रह गई?
वह भिखारी कहता है, भूल रह गई महाराज! मैं यहीं भीख मांगता हूं और यह महल बनते देख रहा हूं वर्षों से और भूल निश्चित रह गई है। और मैं कहना चाहता था, कभी मौका भी नहीं मिला। आज आप सामने पड़ गए हैं तो मैं कह दूं। एक दरवाजा है, यह खतरा है। यह एक दरवाजा है, यह खतरा है। इससे कोई न कोई घुस सकता है। और कोई न घुस सका, तो मौत तो घुस ही जाएगी। आप ऐसा करो, भीतर हो जाओ और यह दरवाजा भी बंद कर लो। आप बिलकुल सुरक्षित हो जाओगे। फिर कोई उपाय नहीं है मौत के घुसने का।
वह राजा कहता है, लेकिन पागल, तब तो मैं मर ही जाऊंगा! फिर मौत को घुसने की कोई जरूरत ही न रही। वह भिखारी कहता है, मर आप अभी भी गए हैं, एक दरवाजे भर पर जिंदा हैं! जहां-जहां दरवाजे बंद हो गए हैं, वहां-वहां मर गए हैं! मर तो आप गए ही हैं। इतने बचे हैं थोड़े से, इसका भी इंतजाम कर लें, तो आप बिलकुल ही सुरक्षित हो जाएंगे।
सिर्फ मरा हुआ आदमी ही पूरी तरह सुरक्षित हो सकता है। जीवन तो असुरक्षा है, उसको तो खतरा है। उसे मान कर और जीने की हिम्मत जुटाने को मैं समझता हूं जीवन की कला। उससे बच कर और भागने की कला कोई जीवन की कला नहीं है।
यह जो असुरक्षा है, खतरा भी है--प्रतिपल है--इसकी स्वीकृति और इसको जीने की क्षमता, यह एक इनर अनार्की। एक आउट अनार्की नहीं, इससे कोई मतलब नहीं है राज्य-वाज्य का। वह चलता है, चलता है; नहीं चलता है, नहीं चलता है। इसका उससे कुछ लेना-देना नहीं है।
और ऐसे आदमी को मैं संन्यासी कहता हूं, जो ऐसी भीतरी अराजकता को मान कर चल पड़ा है, कि ऐसा है। यानी इसे आप चौंका नहीं सकते। उस आदमी को संन्यासी कहता हूं जिसे आप चौंका नहीं सकते। यानी चौंका सकते ही नहीं उसे, क्योंकि वह मान कर चल रहा है कि जिंदगी बहुत चौंकाने वाली है। इसे आप चौंका ही नहीं सकते।
जापान में एक फकीर हुआ। एक युवा फकीर है, क्योटो में एक छोटे गांव में है वह। उसकी बड़ी प्रसिद्धि है। सारा गांव पूजा करता है। सुंदर है। और सच तो यह है कि संन्यासी ही सुंदर हो सकता है ठीक अर्थों में। क्योंकि न कोई तनाव है, न कोई दबाव है, न कुछ लेना है, न कुछ देना है, सिर्फ जीना ही है। तो ऐसी स्थिति में ही सौंदर्य पूरा खिलता है। सारा गांव मोहित है।
लेकिन एक दिन बड़ी गड़बड़ हो गई। गांव में एक लड़की को बच्चा हो गया और उसने कह दिया कि वह उस संन्यासी से हुआ है। सब गड़बड़ हो गया, सारा गांव टूट पड़ा, उसके झोपड़े में आग लगा दी। सुबह का वक्त है, ठंड के दिन हैं, वह अपना धूप ले रहा था बाहर बैठा हुआ। जब उसके झोपड़े पर आग लगा दी तो वह सूरज की तरफ से मुंह हटा कर झोपड़े की तरफ बैठ कर आंच तापने लगा। उसे आप चौंका नहीं सकते। उसे ठंड लग रही थी, उसने कहा चलो यह भी ठीक है, वह आंच तापने लगा।
तो लोगों ने उसे हिलाया और कहा, तुम यह क्या कर रहे हो? यह आंच तापने के लिए नहीं है, तुमको यहां से उखाड़ देने के लिए है।
उसने कहा, जब तक आंच है तब तक तो ताप लेने दो। पर बात क्या है? हो क्या गया मामला?
पीछे से उस लड़की का बाप आ रहा है और वह एक छोटे बच्चे को लिए चला आ रहा है, उसके ऊपर पटक दिया। और कहा, हमसे पूछते हो क्या हो गया है? यह बच्चा तुम्हारा है! वह संन्यासी कहता है, इज़ इट सो? बच्चा मेरा है? और वह बच्चा रोने लगा तो वह बच्चे को चुप करने लगा है। और वे सारे लोग गालियां देकर और पत्थर फेंक कर और वापस लौट गए हैं, बच्चे को वहीं छोड़ गए हैं।
दोपहर भीख मांगने का वक्त है तो उस बच्चे को लेकर वह गांव में भीख मांगने गया। आज उसे कौन भीख देगा! उसके ऊपर रास्ते पर लोग पत्थर फेंक रहे हैं, कचरा फेंक रहे हैं। दो-चार लोग उससे कहते भी हैं, तुझे आज कौन भीख देगा, जा कहां रहा है? वह कहता है, हो सकता है कोई दे दे। कोई पक्का नहीं है। क्योंकि कल यहां सब देते थे, आज कोई नहीं देता है, ऐसा भी हो सकता है। तो वह कहता है, हो सकता है कोई दे दे। कोशिश कर लेनी चाहिए! लेकिन जिस दरवाजे पर भीख मांगता है वही दरवाजा बंद हो जाता है और लोग गालियां देते हैं।
फिर आखिर में वह उस दरवाजे पर पहुंचा, जिस घर की लड़की का यह बच्चा था। वह वहां भी भीख मांगता है। वह कहता है कि मुझे मत दो, लेकिन इस लड़के के लिए तो कुछ करो। क्योंकि अगर कसूर भी होगा तो मेरा होगा, इसका तो नहीं हो सकता। यह तो बेकसूर है। मेरे पीछे यह लड़का क्यों परेशान हुआ जा रहा है!
उस लड़की को तो मुश्किल हो गई जिसका लड़का है। उसने पिता के पैर पकड़ लिए। और उसने कहा, मुझे क्षमा करो, भूल हो गई। मैंने न सोचा था कि बात इतनी बढ़ जाएगी। इस संन्यासी से तो कोई संबंध नहीं है। असली लड़के के बाप को बचाने के लिए मैंने इसका झूठा ही नाम लिया। पिता ने कहा, तू तो पागल है कि नहीं है, लेकिन यह संन्यासी कैसा पागल है! यह मूर्ख तो कह सकता था कि मेरा कोई मामला नहीं है। वह नीचे भागा आया, उस बच्चे को छीनता है। वह संन्यासी कहता है, बात क्या है? वह बाप कहता है कि आपका बच्चा नहीं है। वह कहता है, इज़ इट सो? वह कहता है, मेरा नहीं है?
तो वह सारा गांव इकट्ठा हो गया और कहने लगा कि तुम पागल हो? तुमने कहा क्यों नहीं?
उसने कहा कि किसी न किसी का तो होगा ही। लड़का है तो किसी न किसी का होगा ही। इससे क्या फर्क पड़ता है कि मेरा है कि किसका है! और तुम एक मकान जला ही चुके थे। इनकार करना और दूसरे को जलवाना होता। और एक आदमी गाली खा ही चुका था। और इनकार करना दूसरे को गाली दिलवानी होती। फिर इससे फर्क क्या पड़ता है?
वे सारे लोग कहते हैं कि इतना अपमान तुम्हें हमने दिया, तुम एक दफा तो कह देते!
वह कहता है, मैंने तुम्हारा सम्मान कभी चाहा होता, माना होता, तो चिंता की बात थी। वह कभी मैंने माना नहीं था, चाहा नहीं था। जैसा हो जाता है वैसा उसको सह लेता हूं।
यह इनर अनार्की जो है, यह ही मनुष्य को मुक्त करती है, नहीं तो नहीं करती है।

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