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बुधवार, 1 मई 2019

नये समाज की खोज-(प्रवचन-06)

शून्य की दिशा-(प्रवचन-छट्ठवां)

आचार्य जी, उस दिन जो बात हुई थी उसमें सबसे बड़ा मूल प्रश्न जो हमारे ध्यान में आया था, जिसके बारे में हमें आपसे कुछ जानना है, वह यह है कि शून्यवाद का असर जो हमें बुद्धिज्म और जैनिज्म में दिखाई देता है, शायद वह शून्य का इंटरप्रिटेशन कितना ही पाजिटिव हो, लेकिन शब्द-प्रयोग से ही लोगों के जनरल खयालातों में इंटरप्रिटेशन हो जाते हैं। हर एक को नई फार्मूला एक पुराने शब्द के लिए नहीं दी जा सकती। लेकिन प्रापर शब्द शायद यूज किया जा सकता है। तो इस संभावना से हमें यह नजर आता है और कई लोगों के माइंड में भी यह फैक्ट आया हुआ है कि शून्य इज़ दि ओनली वर्ड व्हिच कैन डिस्क्राइब योर एप्रोच टु दि ट्रुथ? या और कोई ऐसी चीज है या रास्ता है या शब्द-प्रयोग है कि जिससे सामान्य जनता में यह निगेटिवइज्म के प्रति ले जाने की दृष्टि आप में है, ऐसा प्रतीत न हो। मिसअंडरस्टैंडिंग न हो।

न, न, न, ऐसा क्यों प्रतीत न हो? मुझ में प्रवृत्ति है ही। और ऐसा भी मैं नहीं मानता हूं कि और कोई रास्ता है! शून्य के अतिरिक्त कोई रास्ता भी नहीं है। और निगेटिव माइंड ही सत्य तक पहुंचता है, दूसरा कोई माइंड कभी पहुंचता भी नहीं है। इसे थोड़ा समझ लेना उपयोगी है।

असल में जो भी हम जानते हैं, जो भी सीखा है, जो भी सुना है, जो भी हमारा अनुभव है, वह तो हमारा पाजिटिव माइंड बन जाता है। वह हमारी संपदा है। इस क्षण जो भी आप जान रहे हैं, आज तक जो भी इकट्ठा हो गया है आपके पास, वही तो आपका माइंड है। बचपन से लेकर अभी तक, या अगर लंबा विस्तार करें, तो सारे जन्मों का, जो भी आपके पास इकट्ठा हो गया है ज्ञान, वही तो आपका माइंड है। इस माइंड से ही सत्य को नहीं जाना जा सकता। क्योंकि सत्य अज्ञात है, अननोन है। और जो भी आप जानते हैं, वह सब नोन है। नोन और अननोन के बीच छलांग न लगे, जंप न हो जाए, तो अननोन में आप कभी नहीं पहुंच सकते।
तो अगर सत्य को जानना हो, अस्तित्व को जानना हो--सत्य न कहें, अस्तित्व को जानना हो, जो भी है उसको जानना हो--तो जो भी हम जानते हैं उसको विदा देनी पड़ेगी, उसे हटा देना पड़ेगा। और चित्त के जानने के जो भ्रम पैदा हो गए हैं कि यह मैं जानता हूं, यह मैं जानता हूं, यह मैं जानता हूं, ये चित्त के ऊपर पच्चीस तरह की दीवारें हैं और पर्दे हैं, ये सब तोड़ देने पड़ेंगे। और मुझे उस जगह खड़े हो जाना पड़ेगा, जहां मैं कह सकूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं। और मैं खाली होकर खड़ा हूं, ताकि जो है उसे जान सकूं। अज्ञानी होने की हिम्मत जुटाना ज्ञानी होने के लिए पहली शर्त है। और जिसको हम ज्ञानी कहते हैं, वह चूंकि अज्ञानी होने की हिम्मत बिलकुल नहीं जुटा पाता, बल्कि ज्ञानी होने की ही दौड़ में लगा रहता है, तो वह कभी उस इनोसेंस को नहीं उपलब्ध होता जो अज्ञान को उपलब्ध है--जो उस आदमी को उपलब्ध है जो कह सकता है कि मैं नहीं जानता हूं, जो पूरे हृदय से कह सकता है कि मैं नहीं जानता हूं, कोर-कोर, कण-कण जिसका कह सकता है कि मैं नहीं जानता हूं, आई एम इग्नोरेंट।
ऐसा जो कह सके कोई, तो पाजिटिव माइंड गया, अब रह गई शून्य की दशा, क्योंकि मैं कुछ नहीं जानता हूं। इस क्षण में ही, इस शून्य की अवस्था में ही, इस निगेटिव स्थिति में ही, वह सब हम पर टूट पड़ता है--वह सब जो हमारे चारों तरफ घिरा है, हमारे भीतर भी घिरा है, वह जो अस्तित्व है, वह सब तरफ से द्वार प्रवेश पा जाता है। और हम जानते हैं।
लेकिन उस जानने को भी अगर हमने फिर ज्ञान बना लिया, नोइंग को अगर नालेज बनाया, तो फिर पाजिटिव माइंड इकट्ठा होना शुरू हो जाता है। और तब जो झलक मिली थी वह फिर खो जाती है।
इसलिए प्रत्येक साधक को या खोजी को इस चेष्टा में होना चाहिए कि वह हर रोज कैसे निगेटिव माइंड को वापस उपलब्ध कर ले, जो जाना था उसको विदा कर दे। वह फिर कैसे खाली हो जाए; वह फिर कैसे इनोसेंट हो जाए; वह फिर कैसे मुक्त हो जाए।
अन्यथा जो हम कल से जानते हैं वह हमारे आज के जानने के बीच में बाधा बनता है। और तब फिर हम उसी के रिपिटीशन को ही दोहराते चले जाते हैं। तो रोज-रोज मुक्त हो जाना उस सब से जो हम जान लेते हैं...ऐसे ही जैसे रोज धूल जम जाती है शरीर पर, हम स्नान करके मुक्त हो जाते हैं। ऐसे ही चित्त के दर्पण पर भी रोज अनुभव की धूल जम जाती है, शास्त्र की धूल जम जाती है, शब्द की धूल जम जाती है। रोज कुछ न कुछ जम जाता है। उसे रोज झाड़ देना है, ताकि फिर चित्त का दर्पण खाली हो जाए। वह खाली दर्पण ही देखता है, वह खाली दर्पण ही जान सकता है, क्योंकि वही रिफ्लेक्ट कर सकता है, वहीं चीजें प्रतिबिंब बनती हैं।
आपने कल भी पेंट किया था, परसों भी पेंट किया था, जिंदगी भर से आप चित्र बनाते रहे हैं--वे सब चित्र जो आपने बनाए थे अगर आपके चित्त के किसी भी कोने में बैठे हुए हैं, तो आप नया चित्र तो कभी बना ही नहीं सकते! घूम-फिर कर वही चित्र फिर बनते चले जाएंगे और आपका चित्त उन्हीं चित्रों को बार-बार पुनरुक्त करता रहेगा।
नहीं, उनको विदा करना पड़ेगा। उनको ऐसे विदा कर देना पड़ेगा जैसे आपसे उनका कोई लेना-देना नहीं है। जो बन गया वह गया, जो बन गया वह मर गया। चाहे वह ज्ञान हो और चाहे चित्र हो, चाहे धारणा हो, चाहे शब्द हो, चाहे सिद्धांत हो, जो बन गया वह मर गया। जो मर गया उससे छूट जाएं। ताकि फिर जीवन की स्पंदना वैसी ही खड़ी हो जाए जैसी कि बिलकुल नये में खड़ी होती है। ताकि फिर नया, फिर नया।
और वह जो सत्य है वह नित नया है। और वह जो अस्तित्व है वह कोई ऐसी डेड एनटाइटी नहीं है कि आप ने एक बार जान ली और चुक गया। उसे तो प्रतिपल रोज-रोज जानते ही चले जाना है। क्योंकि वह तो रोज नया है, वह रोज नया होता चला जा रहा है। और उस नये को जानने के लिए वह जो ओल्ड माइंड है, बाधा बनता है। और ओल्ड माइंड यानी पाजिटिव माइंड, ओल्ड पाजिटिव ही होता है हमेशा। वह जो नया है वही निगेटिव होता है। निगेटिव का मतलब ही है कि जिसके पास अब कोई संग्रह नहीं है, जो बिलकुल खाली है।
तो मैं जो कह रहा हूं शून्य, वह शून्य अगर ठीक से समझें तो मैं ऐसा कहता हूं कि शून्य ब्रह्म को जानने का द्वार है। शून्य तो मेथड है; शून्य तो विधि है; शून्य तो मार्ग है; जिसे हम जान लेते हैं शून्य से वह ब्रह्म है। और इसलिए शून्य और ब्रह्म में मैं विरोध नहीं मानता। और पाजिटिव और निगेटिव में भी विरोध नहीं मानता। निगेटिव जो है वह पाजिटिव के प्रकट होने का रास्ता है। लेकिन जैसे ही पाजिटिव प्रकट हुआ, निगेटिव ढंका, कि मिस्टेक शुरू हो गई। फिर पाजिटिव को हटाओ, ताकि फिर निगेटिव... और यह चलता ही रहे सतत और ऐसी स्थिति आ जाए कि माइंड पाजिटिव बने ही नहीं, चीजें बनें और विदा हो जाएं, बनें और विदा हो जाएं, और माइंड हमेशा निगेटिव हो, तो ही आप जान पाएंगे।
जैसे कि हम देखते हैं न, एक कैमरे से आप फोटो निकाल रहे हैं, निगेटिव प्लेट लगाई हुई है। वह जैसे ही चित्र बन जाता है, वह प्लेट व्यर्थ हो गई। वह जो निगेटिव थी वह पाजिटिव हो गई, उस पर कुछ बन गया, वह खत्म हो गई, वह खराब हो गई, वह व्यर्थ हो गई अब, एक चित्र बन गया और वह मर गई।
हमारा चित्त जो है बहुत कुछ कैमरे की प्लेट की तरह काम कर रहा है, और इसलिए बहुत जल्दी मर जाता है। बच्चे के पास भी बच्चे जैसा मन नहीं है। बच्चे के पास भी बूढ़े जैसा मन है। यह फर्क हो सकता है कि बच्चे के पास दस साल के बूढ़े का मन है, सत्तर साल वाले के पास सत्तर साल के बूढ़े का मन है। लेकिन एक दिन के बच्चे के पास भी बच्चे का मन नहीं है, एक दिन के बूढ़े का मन है। वह एक दिन का इकट्ठा हो गया उस पर।
तो चाहे साहित्य हो, चाहे कला हो, चाहे दर्शन हो, चाहे धर्म हो, सारी प्रक्रियाओं में आपको निगेटिव से गुजरना ही पड़ेगा। और आप कितने निगेटिव रह सकते हैं उतना जिन्यून पाजिटिव आपके भीतर से प्रकट होता रहेगा।
तो मैं तो कहता भी नहीं कि शब्द बदलें, क्योंकि वह कोई जरूरत नहीं है। और वह जो सामान्यजन जिसको हम कहते हैं--और किसी अर्थों में हम सब ही सामान्यजन होते हैं--वह जो सामान्यजन का चित्त है वह पाजिटिव की मांग करता है, क्योंकि वह भयभीत है। और निगेटिव डराता है, क्योंकि निगेटिव अनजान है। और पाजिटिव जाना हुआ है। जो जाना हुआ है, पहचाना हुआ है, परिचित है--सुरक्षा मालूम पड़ती है। अनजाना, अपरिचित--असुरक्षा मालूम पड़ती है, डर लगता है, मन जाने में घबराता है। ऐसे रास्ते पर चलो जो पहचाना हुआ है!
लेकिन ध्यान रहे, जो ऐसे रास्ते पर चलेगा जो पहचाना हुआ है, वह कहीं पहुंचेगा नहीं। क्योंकि पहचाने हुए पर घूमना ही हो सकता है, पहुंचना नहीं हो सकता। अगर पहचाने हुए से पहुंचना होता तो पहुंचना हो गया होता। वह तो पहचाना हुआ रास्ता है, उस पर तो हम चल चुके हैं, जान चुके हैं। नहीं पहुंचे हैं और फिर उस पर घूम रहे हैं, तो वह कोल्हू का बैल बन जाता है आदमी।
अनजान को खोजना पड़ेगा, जिस पर हम नहीं चले हैं। शायद उससे पहुंच सकें। और रोज-रोज ही खोजना पड़ेगा। ऐसा नहीं है कि यह यात्रा किसी दिन पूरी हो जाती है। एक दिन आदमी कह देता है कि मैं ज्ञानी हो गया, बात खत्म! अब मैं ब्रह्मज्ञानी हो गया, अब मुझे कुछ जानने को शेष नहीं। ऐसा जो आदमी कहता है, उसने किसी अनुभव को पकड़ कर पाजिटिव हो गया वह। कोई अनुभव हो, कितना ही बड़ा अनुभव हो, बस वह वहीं रुक गया और मर गया, अब उसका जीवन न रहा। क्योंकि जीवन का अर्थ ही जानना है, जानना है, जानना है...और जीना है, और जीना है, और जीना है...। और जब हम कहते हैं कि अनंत है अस्तित्व! कहते हैं, अनंत है परमात्मा! तो उसका मतलब ही इतना है कि आप कितना ही जान लो, फिर भी जानने को अनंत सदा शेष है। आप कितना ही जी लो, फिर भी अनंत शेष है। आप कितना ही पा लो, फिर भी अनंत शेष है।
अगर पाए हुए को पकड़ लिया, तो ध्यान रहे, पाजिटिव हमेशा सीमित होगा, पाजिटिव असीमित नहीं हो सकता। निगेटिव ही असीम हो सकता है, शून्य ही असीम हो सकता है, बाकी तो सबकी सीमा होगी। तो जिसको जान लिया, पकड़ लिया, आप सीमित से बंध गए। और जो अनुभव गुजर चुका वह मर चुका!
मैंने कल आपको प्रेम किया था और उसको पकड़ कर बैठ गया हूं कि आपका प्रेमी हूं। न आप वह रहे; न मैं वह रहा; न दुनिया वह रही; कुछ भी वह नहीं रहा है अब। अब सिर्फ एक मरा हुआ अनुभव और एक स्मृति को पकड़ कर बैठा हुआ हूं। और आज जब आप मुझे मिलोगे, तो मैं उसी स्मृति को बीच में लेकर आपको देख रहा हूं। और तब तकलीफ शुरू हो गई, उपद्रव शुरू हो गया। क्योंकि वह आप आदमी नहीं हो, न मैं वह आदमी हूं, अब कुछ भी वह नहीं है। और वह मरा हुआ अनुभव बीच में खड़ा है। और इस तरह मरे हुए अनुभव बहुत से बीच में खड़े हो जाएं, तो हमारा जीवन से संपर्क ही टूट जाता है।
क्या पता अब, कल प्रेम किया था, आज नहीं भी प्रेम हो सकता है! इसीलिए तो प्रेमिका को हम पत्नी बना लेते हैं। पत्नी पाजिटिविटी है और प्रेमिका बिलकुल निगेटिव है। कल प्रेमिका थी, आज नहीं भी हो सकती है। लेकिन पत्नी को हम पाजिटिव बना लेते हैं। क्योंकि वह कल भी थी, आज भी होना पड़ेगा, कल भी होना पड़ेगा; जब तक मर न जाए तब तक उसको पत्नी रहना पड़ेगा।
लेकिन पत्नी होने में ही प्रेमिका मर गई और प्रेम भी मर गया। और पत्नी से प्रेम की अपेक्षा बिलकुल पागलपन है। वह प्रेमिका से ही हो सकती थी--जहां कि प्रेम के न मिलने की भी संभावना थी; जहां जरूरी न था कि प्रेम मिले--वहीं अपेक्षा भी हो सकती थी। अब तो अपेक्षा करना भी पागलपन है। अब तो प्रेम मिलेगा ही! और जो मिलेगा ही, वह व्यर्थ हो गया, उसमें कोई सार्थकता न रही। वह व्यवसाय हो गया, वह धंधा हो गया, सुरक्षा हो गई।
सारी चीजों के मामले में यह ध्यान रख लेना जरूरी है कि हमारा मन कोशिश करता है पाजिटिव बनाने की। और पाजिटिव बनाने की कोशिश इसलिए करता है कि मन की हिम्मत बहुत ज्यादा नहीं है, बहुत कमजोर है। सिक्योरिटी की मांग ज्यादा है, सत्य की मांग कम है। तो वह जो सुरक्षा की मांग ज्यादा है, वह कहती है, जो जाना है उसको पकड़ लो, अनजाने पर मत भटको, पता नहीं भूल जाओ, जो हाथ में है वह खो जाए।
मेरा कहना है कि जो है वह कभी नहीं खोता! इसलिए अनजान रास्तों पर भटकने में कोई डर नहीं है। जो नहीं है और झूठा आपके खयाल में है कि है, वही खो सकता है। और अनजान रास्तों पर भटकते-भटकते आपका माइंड बदलता है पूरा का पूरा और धीरे-धीरे, धीरे-धीरे निगेटिव हो जाता है। निगेटिव का मतलब सिर्फ इतना है कि जो कुछ नहीं पकड़ता, जो कहीं नहीं रुकता, जो कोई दीवार नहीं बनाता, जो सदा खुला है और मुक्त है और जिसके भीतर प्रवेश की अनंत संभावना है।
निगेटिव का मतलब क्या हुआ?
यह कमरा है, इस कमरे में हम आए हैं। ये दीवारें यह कमरा नहीं हैं। इन दीवारों के बीच में जो खाली जगह है वह कमरा है। और खाली जगह जितनी बड़ी होगी, कमरा उतना बड़ा होगा। यह खाली जगह अगर भरी हुई है तो इसके भीतर प्रवेश निषिद्ध हो जाएगा, मुश्किल हो जाएगा।
पाजिटिव माइंड भरा हुआ माइंड है, उसके भीतर नये का प्रवेश असंभव है। और सत्य जो है वह नित नया है। अस्तित्व जो है वह नित नया है, वह प्रतिपल द्वार खटखटा रहा है कि खोलो, मैं भीतर आऊं! लेकिन यहां भीतर पाजिटिव माइंड, भरा हुआ माइंड है। वह कहता है, जगह नहीं है। वह कहता है, हमारे पास जो परिचित बैठे हैं वे ठीक हैं, अपरिचित को यहां जगह नहीं है। अपरिचित की झंझट में कौन पड़े! बामुश्किल इनसे हम परिचित हो पाए हैं अभी, जो अंदर आ गए हैं। अपरिचित को और कौन बुलाए! दरवाजा हम बंद करके बैठे हैं, परिचित में तृप्त हैं।
मर गया। वह रोज-रोज जो दस्तक दे रहा है नया अस्तित्व, उसके लिए द्वार बंद हो गए।
निगेटिव माइंड का मतलब है: खाली कमरा, जिसमें कोई भरा हुआ नहीं है। जिसमें अतिथि आते हैं और चले जाते हैं, कोई ठहर ही नहीं जाता है। तो नये अतिथि के लिए रोज द्वार खुला हुआ है कि वह आ जाए, हम प्रतीक्षा में ही हैं कि वह आ जाए। नये की इतनी तीव्र प्रतीक्षा ही अंततः अस्तित्व से जोड़ पाती है, नहीं तो नहीं जोड़ पाती है। और जीवन से जोड़ पाती है, नहीं तो नहीं जोड़ पाती है।
तो निषेध और नकार और शून्य, वह जो विधेय जीवन है उसको जानने का द्वार है। उनमें कोई विरोध नहीं है। और सामान्यजन को इतनी विधायकता पकड़ाई गई है, इतना पाजिटिव पकड़ाया गया है--इसीलिए वह सामान्य है, नहीं तो वह भी असामान्य हो जाए। फर्क और कुछ है नहीं। एक असामान्य व्यक्ति में और एक सामान्य व्यक्ति में और क्या फर्क होता है? वह सामान्य पकड़े हुए है पाजिटिव को, इसीलिए सामान्य हो गया है। वह भी छोड़ दे, उसकी भी रूट्स टूट जाएं वहां से, जड़ें उखड़ जाएं, वह भी असामान्य हो जाए। वह भी असामान्य हो जाए, वह भी उतर जाए उसी यात्रा पर।
तो न तो मैं शब्द बदलना चाहता हूं, बल्कि जोर देना चाहता हूं कि शून्य शून्य ही है। और हिम्मत जुटाओ उसमें कूदने की! और जितनी हिम्मत जुट जाएगी उसमें कूदने की...।
एक छोटी कहानी मैं कहता रहता हूं इस संबंध में, कि एक आदमी है, वह दुनिया का अंत खोजने के लिए निकल पड़ा है। बहुत लोग समझाते हैं कि दुनिया का अंत कभी कोई खोज पाया है? और दुनिया क्या कहीं अंत होती है? तू किसलिए पागल हुआ है? लेकिन जितना लोग समझाते हैं उतनी ही उसकी जिद बढ़ जाती है कि जब कोई नहीं खोज पाया तो मैं कोशिश तो करूं! और वह खोजते-खोजते एक जगह पहुंच जाता है जहां आखिरी जगह आ जाती है, आखिरी मंदिर आ जाता है। और वह मंदिर का पुजारी कहता है, और आगे मत जाना, क्योंकि थोड़ी ही दूर जाकर दुनिया खत्म हो जाती है। वहां जाना ही मत, क्योंकि उस दुनिया के अंत होने को देखना ही बहुत घबराने वाला है। यह मंदिर हम इसीलिए बनाए हुए हैं कि कभी कोई भूला-चूका इधर आ जाए तो उसे आगे न जाने दें। लेकिन वह आदमी कहता है, मैं तो उसकी खोज में ही निकला हूं। मैं रुकूंगा नहीं। मैं आया ही उसकी खोज में हूं।
वह आदमी आगे गया। वहां एक तख्ती लगी है, जहां लिखा है कि हियर एंड्स दि वर्ल्ड। यहां खत्म होती है दुनिया। आगे मत जाओ, सावधान! लेकिन उसे तो जाना ही है, वह तो उसे ही देखने आया है। लेकिन उस तख्ती के पास पहुंच कर ही उसके प्राण घबराने लगते हैं, क्योंकि उसे पहली दफा खयाल आता है कि जहां दुनिया खत्म हो जाएगी वहां मैं कैसे बचूंगा! मैं तो दुनिया का एक हिस्सा हूं! और सच में अगर दुनिया खत्म होती है तो मैं कैसे बचूंगा! उसके पैर लड़खड़ाने लगते हैं। क्योंकि दुनिया जहां खत्म होगी वहां मैं भी खत्म हुआ! मैं कैसे बचूंगा! दुनिया का अंत तो देखना चाहता हूं, लेकिन मैं तो बच जाऊं। फिर भी वह कहता है कि दो-चार कदम तो आगे बढ़ कर देखो!
वह दस-पांच कदम आगे जाता है--खड्ड आ गया अनंत, जहां आगे शून्य ही शून्य है, नीचे शून्य ही शून्य है, बाटमलेस! न कोई नीचे तल है, न ऊपर कोई तल है, न आगे कोई तल है। सिर घूम जाता है। वह एकदम भागता है कि कहीं ऐसा न हो कि इस गङ्ढ में मैं गिर जाऊं। क्योंकि सब गङ्ढे देखे थे, वे निकलने वाले थे, जिनसे निकला जा सकता था। यह गङ्ढा ऐसा है कि इसमें से निकल ही न सकूंगा; क्योंकि यह गङ्ढा ऐसा है कि इसमें गिर ही नहीं सकूंगा! इसमें तो गिरता ही जाऊंगा, गिरता ही रहूंगा... ऐसा कभी वक्त ही नहीं आएगा कि मैं कह सकूं कि गिर गया, जगह आ गई नीचे टिकने वाली। नीचे तो कोई जगह ही नहीं है टिकने वाली। वह भाग कर घबराता है, वह उलटा लौट पड़ता है एकदम। आकर मंदिर की सीढ़ियों पर गिर पड़ता है, बेहोश हो जाता है।
वह पुजारी उसे हिलाता है, पानी छिड़कता है, पूछता है--क्या हुआ? वह कहता है, जो कुछ हुआ उसकी याद भी मत दिलाओ। क्योंकि जो देखा वह बहुत घबराने वाला था। वह पुजारी पूछता है, तख्ती के उस तरफ भी तूने पढ़ा था कुछ? उसने कहा, नहीं; मैं तो घबरा कर भाग आया हूं, दूसरी तरफ क्या लिखा था वह मैंने नहीं पढ़ा है। तो वह पुजारी उसको कहता है, दूसरी तरफ लिखा था--यहां परमात्मा शुरू होता है। अगर तू कूद ही जाता...। मगर तू वापस लौट आया है, अब फिर तुझे जन्म-जन्म लग जाएंगे। क्योंकि वह तख्ती अब उसी जगह न मिलेगी। क्योंकि सब चल रहा है, कहीं कुछ ठहरा नहीं है। अगर तू वापस भी लौट कर जाए तो वह तख्ती उसी जगह नहीं मिलेगी और वह अंत भी उस जगह नहीं मिलेगा। अब फिर जन्म-जन्म लग जाएंगे तब तू पहुंच पाएगा। अब की दफे खयाल रखना, अगर वह गङ्ढ आ जाए जहां सब खत्म हो जाता है तो तू भी कूद जाना। क्योंकि वहां तू पहली दफे कूद कर पाएगा कि सब हो गया।
शून्यमय होकर ही कोई पाता है कि सब हो गया। और यह जिसको हम कहते हैं ब्रह्मवादी और ईश्वरवादी और आत्मवादी, यह कोई नहीं पा सकता; क्योंकि यह सब पाजिटिव को पकड़ता है। यह कहता है कि ईश्वर है! उसके हम चरण पकड़े हुए बैठे हैं और भजन-कीर्तन कर रहे हैं। यह मिटने वाला आदमी नहीं है, यह मिटने की हिम्मत इसकी नहीं है। यह तो और परमात्मा को भी पकड़ कर अपने को बनाने की कोशिश में लगा हुआ है। यह नाच रहा है, कूद रहा है, प्रसन्न हो रहा है, आनंदित हो रहा है, इसलिए कि भगवान मिल गए हैं। यह मरने से डरता है; मिटने से डरता है; शून्य होने से डरता है। इसने भगवान को भी शून्य से बचने की आखिरी तरकीब बना ली है। यह आदमी कभी सत्य को नहीं जान पाता! यह अपने ही मन के किसी प्रोजेक्शन को, कल्पना को जानता रहता है। सुख भी पाता है, लेकिन उसे नहीं जान पाता जो है। और उसे जानना हो तो किसी न किसी तरह शून्य के खड्ड से गुजरना ही पड़ेगा, उसमें गिरना ही पड़ेगा; वह चाहे किसी दिशा से कोई गिर जाए।
इधर मैं मानता हूं कि नई कला उस शून्य के गङ्ढे के आस-पास भटक रही है। वह तख्ती के आस-पास है, जहां लिखा है--यहां खत्म होता है सब। और इसलिए सब मापदंड गड़बड़ हो गए हैं, सब रंग-रेखा गड़बड़ हो गई है। इसलिए कुछ झांकना शुरू हुआ है जो निगेटिव है, उससे पाजिटिव खो गया है, साफ शक्ल नहीं रह गई है अब। क्या है, यह भी कहना मुश्किल है।
वह पेंटर भी पेंट करके यह नहीं कह सकता कि क्या है यह। यह उसने जो पेंट किया है यह क्या है। पाजिटिव होता तो वह कहता कि यह भगवान कृष्ण मुरली बजाते हुए खड़े हैं। वही पेंट किया था उसने कल तक, सब साफ-सुथरा था, चीजों की रेखाएं थीं, कहीं सब गड्ड-मड्ड नहीं हो जाता था। अब सब गड्ड-मड्ड हो गया है। अब सिर्फ उसकी फ्रेम भर साफ रह गई है, बाकी भीतर फ्रेम के जो है वह सब गड़बड़ हो गया है। और इसलिए फ्रेम खो जाएगी, बहुत ज्यादा दिन तक पेंटिंग पर फ्रेम नहीं चल सकती है। क्योंकि वह जो अंदर बनाया जा रहा है वह फ्रेम में बैठने वाला नहीं है। फ्रेम पुरानी है। फ्रेम पुरानी है, जहां सब ढांचे में बैठता था उसके चारों तरफ फ्रेम थी। पेंटिंग कहीं शुरू होती थी, कहीं खत्म होती थी। अब वह न कहीं शुरू होती है, न वह कहीं खत्म होती है। अब वह एक अनंत शून्य के साथ साक्षात्कार कर रही है। और उस साक्षात्कार में कुछ हो रहा है जो कभी नहीं हुआ था।
इसलिए मैं मानता हूं कि अब तक पुरानी पेंटिंग ने कैमरे का काम किया था, फोटोग्राफ का काम किया था। कैमरा नहीं भी था, उसकी जरूरत थी, उसने पूरी कर दी थी। पहली दफा पेंटिंग फोटोग्राफ से मुक्त हो रही है, कैमरे से मुक्त हो रही है। और वहां आ रही है, जहां चीजें जैसी हैं। लेकिन चीजें जैसी हैं उनके साथ शून्य जुड़ा हुआ है। और इसलिए मुश्किल होता चला जा रहा है।
सब तरफ वह हो रहा है। काव्य भी वहीं पहुंच रहा है जहां अर्थ खो जाएगा। क्योंकि जब तक काव्य में अर्थ है तब तक शून्य प्रकट नहीं हो सकता। और जब तक अर्थ की बंधी हुई व्यवस्था है, तब तक वही प्रकट होगा जो सीमा में आता है। इसलिए उपनिषद भी जो नहीं कह सके और लाओत्से जैसे लोग जो नहीं कह सके, हो सकता है आने वाले दिनों की कोई पेंटिंग, कोई कविता उसे कहेगी। लेकिन उसे समझना मुश्किल हो जाएगा! उसे समझना मुश्किल हो जाएगा। और उसके आस-पास भटकने वाला अगर पागल हो जाए तो आश्चर्य नहीं है।
इधर मेरी समझ यह है कि जिनको हम संत कहते हैं, महात्मा कहते हैं, इनमें से मुश्किल से ही कभी कोई शून्य के पास से गुजरता है। ये सब विधेय के, पाजिटिव के पास ही घूमते रहते हैं।
शून्य के पास से कुछ लोग गुजरते हैं, जैसे नीत्शे जैसा आदमी गुजरता है, तो पागल हो जाता है! पहुंच गया वहां जहां दुनिया खत्म होती है। छलांग लगा लेता तो कुछ बात हो जाती। छलांग नहीं लगाता है, लौट पड़ता है। फिर वह पागल हो जाता है। क्योंकि शून्य को देखने के बाद लौट कोई अगर आए तो पागल हुए बिना और कोई रास्ता नहीं रह जाएगा! कूद जाए तो सब कुछ बदल जाए, और लौट आए तो सब मुश्किल हो जाए।
इधर पचास वर्षों में दुनिया के श्रेष्ठतम चिंतन करने वाले, चित्रण करने वाले, गीत गाने वाले, सभी पागल होने के करीब पहुंच गए हैं। वे कहीं शून्य के आस-पास भटक रहे हैं। उस वक्त जो छलांग लगा जाएगा वह उस अवस्था में हो जाएगा जहां बुद्ध या लाओत्से जैसा आदमी कभी प्रवेश करता है। लौट आएगा, तो इस दुनिया में पागल हो जाएगा वह! क्योंकि जो वह देख आया है, अब उसको भुला भी नहीं सकता! जिसके करीब की झलक पा ली, उसे मिटा भी नहीं सकता! और अब कभी, जो यहां चारों तरफ है, उससे वह राजी नहीं हो सकता! क्योंकि उसने कुछ और भी देखा है जिसका इससे कोई मेल नहीं है, ताल-मेल नहीं है।
जो सारी, जिसको क्राइसिस कहें, इस वक्त जो संकट है सारी मनुष्य-जाति के चित्त पर वह यह है कि हमारी ट्रेनिंग पाजिटिव माइंड की है और सारी विकास की स्थिति वहां ले जा रही है जहां निगेटिव माइंड पैदा होना चाहिए। पाजिटिव माइंड की ट्रेनिंग है, निगेटिव के करीब घूम रहे हैं, मुश्किल हो रही है।
इसलिए मेरा कहना है कि हमें निगेटिव माइंड की ट्रेनिंग देनी चाहिए। और तब नीत्शे पागल नहीं होगा; और तब हमारा वानगाग भी पागल नहीं होगा। और तब हमारा सामान्य आदमी भी निगेटिव से जो निकलता है उसको पहचान सकेगा, पकड़ सकेगा। वह उसे देख सकेगा कि हां, इसमें भी कुछ है। वह यह नहीं पूछेगा--क्या है? वह यही देख सकेगा जो है।
अभी एक पेंटिंग के पास खड़े होकर एक आदमी पूछता है, यह क्या है? जब तक सामान्य आदमी पूछ रहा है, यह क्या है? तब तक समझना चाहिए कि उसकी कोई निगेटिव माइंड की ट्रेनिंग नहीं हो पाई किसी तरह की। फिर वह देखेगा।
अभी हम एक वृक्ष के पास खड़े होकर नहीं पूछते कि यह क्या है। दो फूल क्यों खिले, यह भी नहीं पूछते। चांद ऐसे ही इसी जगह क्यों अटका हुआ है, यह भी नहीं पूछते। चीजें हैं! लेकिन एक पेंटिंग के पास खड़े होकर हम पूछते हैं--ऐसा क्यों है? यह क्या है? ऐसा क्यों बनाया है?
तो सारी दुनिया को निगेटिव माइंड की ट्रेनिंग की जरूरत है। हम जिस दुनिया से गुजर गए हैं, वह पाजिटिव माइंड की थी, वह बचकानी थी, वह गई। अब एक अत्यंत प्रौढ़ दुनिया आएगी जो निगेटिव माइंड की होगी। बीटल हैं, हिप्पी हैं, बीटनिक हैं, ये सब निगेटिव माइंड के आस-पास परेशान हो रहे हैं। और अगर आप ट्रेनिंग नहीं देते, तो ये सब पागल हो जाने वाले हैं। तो निगेटिव माइंड की, शून्य की चर्चा भी होनी चाहिए, साधना भी होनी चाहिए।
मैं तो जो साधना शिविर रखता हूं वह शून्य के ही लिए है। यानी कैसे एक आदमी थोड़ी देर के लिए सही, चौबीस घंटे न सही, पंद्रह मिनट के लिए बिलकुल शून्य हो जाए। थोड़ा तो पहुंचे वहां जहां सब खो जाता है। और इसका अगर थोड़ा सा प्रयोग बढ़े, तो आपके जीवन में एक नया ही द्वार खुलता है जिसका आपको कोई खयाल भी नहीं था। और वहीं से वे किरणें आनी शुरू होती हैं जो सत्य की हैं।
तो मैं तो शून्य को ही ब्रह्म कहता हूं। और जिसकी शून्य की तैयारी है, वह ब्रह्म का अधिकारी हो गया। जिसकी शून्य की तैयारी नहीं है, वह ब्रह्म का अधिकारी नहीं है। और शून्य के पहले जिस ब्रह्म को आप मान लेते हैं, वह झूठा है, माना हुआ है। और केवल कंफर्टेबल है, आपको थोड़ी सी सुविधा में कर देता है, इससे ज्यादा उसका कोई मूल्य नहीं है।

व्हाई वन शुड ट्राई टु नो दि अननोएबल?

हां! आप पूछते हैं कि क्यों कोई जानना चाहे अज्ञात को, अननोएबल को, अननोन को? अज्ञेय को क्यों कोई जानना चाहे?
जैसे ही हम यह पूछते हैं--क्यों कोई जानना चाहे? वैसे ही हम बता देते हैं कि "क्यों' हमारे भीतर है। और "क्यों' हमें बेचैन करता है। वह जो व्हाई है, वह हमें बेचैन करता है। यानी इसे भी हम सीधा स्वीकार नहीं कर सकते कि अज्ञेय को हम जानें। हमारा मन पूछता है--क्यों? हमारा मन यह भी पूछता है--क्यों है अज्ञेय? क्या है अज्ञेय? क्यों है? है भी क्यों? और हम भी क्यों जानना चाहते हैं?
अगर बहुत गौर से देखा जाए कि हम क्यों जानना चाहते हैं अज्ञेय को? यह भी अज्ञेय को ही जानने की कोशिश हुई। यह भी अज्ञेय को ही जानने की कोशिश हुई, क्योंकि यह भी बिलकुल अज्ञेय है कि मैं क्यों जानना चाहता हूं?
तो मेरा कहना यह है कि वह जो ह्यूमन स्प्रिट है, वह जो मनुष्य की आत्मा है, अज्ञेय को जानने की जो आकांक्षा है, वही है। इस पूरे जगत में आदमी भर पूछ रहा है। और सब आदमी भी नहीं पूछ रहे हैं। "क्यों' और "क्या' आदमी पूछ रहा है। आदमियत का हिस्सा है वह। आदमी होने की नियति और भाग्य है वह। हम रुक ही नहीं सकते। हम आदमी हुए और हम पूछेंगे। और हमारे भीतर विवेक हुआ और हम पूछेंगे कि क्यों अस्तित्व है? क्यों हम हैं? क्यों यह सब है? यह न होता तो हर्ज क्या था? यहां बैठ कर हम बात कर रहे हैं, यह बात न हुई होती तो हर्ज क्या था? क्या फर्क पड़ता था? यह क्यों हो रही है? यह हम क्यों इकट्ठे हो गए हैं? यह हम बिना पूछे नहीं रह सकते, यह पूछना ही पड़ेगा। यह जो क्वेस्ट है, यह जो पूछना है, यह पूछना ही मनुष्य की आत्मा है। यानी यहीं से मनुष्य शुरू होता है--इस पूछने से, इस जिज्ञासा से। और इसलिए इस जिज्ञासा पर "क्यों' नहीं लगाया जा सकता। क्योंकि वह बेमानी है। इस जिज्ञासा पर कि "हम क्यों जिज्ञासा करें?' यह तो जिज्ञासा ही हुई। इसलिए जिज्ञासा पर कोई "क्यों' नहीं जोड़ा जा सकता, क्योंकि वह फिर जिज्ञासा ही रहता है। मेरी आप बात समझ रहे हैं न?
और तब एक तरह का, जिसको वे इनफिनिट रिग्रेस कहते हैं लाजिक में, वह हो जाता है खड़ा। हम पूछें--क्यों जिज्ञासा कोई करे? फिर हम पूछें कि जिज्ञासा पर भी कोई क्यों पूछे? यह बात तो कुछ मतलब की होती नहीं। इतना तय है कि जिज्ञासा है। और जिज्ञासा है और वह मनुष्य की चेतना जितनी विकसित होती है उतनी तीव्र होती है।
जिज्ञासा को भुलाने की कोशिश भी हम करते हैं। क्योंकि वह बड़ी बेचैन करने वाली है, वह घबराने वाली है। शराब पी लेते हैं, ताकि "क्यों' से छुटकारा हो जाए। यह न पूछें कि क्यों? नींद ले लेते हैं, बेहोश हो जाते हैं, मैस्कलीन ले रहे हैं, लिसर्जिक एसिड ले रहे हैं। वह "क्यों' मिट जाए हमारे भीतर से। लेकिन वह "क्यों' मिटता नहीं; वह "क्यों' खड़ा है।
जरूर विराट प्रयोजन में उसका कोई अर्थ है। क्योंकि जैसे ही बुद्धि थोड़ी विकसित हुई कि वह "क्यों' खड़ा हुआ है। छोटा सा बच्चा भी उस "क्यों' से मुक्त नहीं है। एक चींटा चला जा रहा है, वह उसको मार डालता है। हम शायद सोचते हों कि वह चींटे का दुश्मन है। न; वह सिर्फ यह जानना चाहता है कि यह क्यों चल रहा है? क्या चल रहा है? इसके भीतर क्या है? जो चल रहा है वह क्या है? वह उसे तोड़ कर...। वह न चलने वाली चीज की उतनी फिकर नहीं करता, लेकिन चलने वाली चीज को छोटा सा बच्चा भी मसल कर देखना चाहता है--मामला क्या है? यह क्या हो रहा है? यह क्यों चल रहा है? यह गति कहां है?
"क्यों' हमारे भीतर है। मानना चाहिए कि "क्यों' ही मनुष्य की आत्मा है--दि व्हाई। और इसलिए जितना विकास होगा आदमी का, उतना वह जो "दि व्हाई' है वह बढ़ता चला जाएगा। और आखिरी सीमा पर जब टोटल समग्र रूप से मनुष्य पूछता है--क्यों? समग्र रूप से वह तभी पूछ सकता है जब अब उसके चित्त में कोई भी रेडीमेड उत्तर न रह गया हो, यानी पाजिटिव माइंड पूरा खत्म हो गया हो। पाजिटिव माइंड नहीं पूछता कि क्यों? वह कई चीजों को मान लेता है, इसीलिए पाजिटिव है। वह मान लेता है, वह शक ही नहीं करता, वह संदेह ही नहीं करता, वह डाउट ही नहीं करता। पाजिटिव माइंड मान लेता है। मान लेना, वह जो बिलीविंग माइंड है, वह पाजिटिव माइंड है। वह जो डाउटिंग माइंड है, वह निगेटिव माइंड है। और जिस दिन डाउट टोटल होता है, जिस दिन पूर्ण हो गया संदेह, उसी दिन छलांग लग जाती है। उसी दिन छलांग लग जाती है, आप वहां खड़े हो जाते हैं जहां "व्हाई' का उत्तर है।
लेकिन उस उत्तर को आज तक कोई यहां नहीं ला सका। उसे जान कर भी वह लौट कर यही कहता है कि जो जाना है वह कहा नहीं जा सकता। लेकिन जब तक वह नहीं हम उसमें छलांग में गुजर जाते, वह "व्हाई' हमको पीछे धक्का मारता चलेगा, मारता चलेगा, मारता चलेगा। और जो आदमी जितना ज्यादा पूछ रहा है उतना ही ज्यादा आदमी है। और जो जितना कम पूछ रहा है उतना ही कम आदमी है। यानी मेरे लिए तो ह्यूमन स्प्रिट यानी पूछना, यानी संदेह, यानी स्वीकार न कर लेना जैसा जो कुछ है, कुछ भी स्वीकार न कर लेना।
वह जो अस्वीकृति की शक्ति और संदेह की जो जिज्ञासा की तीव्र कामना है भीतर, वही मनुष्य-आत्मा है। और वह है। और यह नहीं पूछा जा सकता कि वह क्यों है। क्योंकि यह तो बैगिंग दि क्वेश्चन, यह तो फिर वही बात हो गई। वह क्यों है, यह नहीं पूछा जा सकता। "क्यों' क्यों है, यह बात नहीं पूछी जा सकती। वह है, ऐसा है।

यह नहीं है कि हर निगेटिव माइंड की स्मृतियां अपने मार्ग पर हट कर हम क्या हम कुछ समझ यूं भर नहीं लेते जो हमें हर आने वाली निगेटिव माइंड की एप्रोच को बढ़ावा दें या तो जानने की कोशिश में मदद करें?

निगेटिव माइंड को आपका संग्रह किया हुआ कोई भी बढ़ावा नहीं दे सकता। यह ऐसा ही है, जैसे एक आदमी कहे कि मैं भिखारी होना चाहता हूं, और संपत्ति इकट्ठा करता हूं ताकि संपत्ति मेरे भिखारीपन को बढ़ावा दे। आप मेरा मतलब समझे न? भिखारी होने का मतलब ही संपत्तिहीन होना है। एक आदमी कहता है कि मैं संपत्ति इसलिए इकट्ठा करता हूं कि कल जब मैं भिखारी होऊं तो मुझे सुविधा रहे भिखारी होने में। यह तो उलटी बात हो गई न!
निगेटिव माइंड का मतलब यह है कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं, ऐसी स्थिति मेरी निरंतर बनी रहे। तो जो भी मैं जान लूंगा वह इसमें बाधा बनने वाला है, सहयोगी बनने वाला नहीं है। क्योंकि वह उसको कम करेगा, उसको कम करेगा। हमें खयाल ही नहीं रह जाता धीरे-धीरे कि हम कुछ भी नहीं जानते हैं। और इतना ज्ञान इकट्ठा कर लेते हैं कि मुश्किल हो जाती है।
एक मुसलमान फकीर हुआ है, बायजीद। वह एक गांव से गुजर रहा है। सांझ का वक्त है, और आज दिन भर से उसे कोई नहीं मिला है, रास्ता भटक गया है। एक छोटा सा बच्चा एक दीया जला कर मंदिर की तरफ जा रहा है। उस बच्चे को रोक कर वह पूछता है कि दीया तूने ही जलाया? कहां ले जा रहा है? तो वह बच्चा कहता है, मंदिर में चढ़ाने जा रहा हूं और दीया मैंने ही जलाया है। तो बायजीद पूछता है, तूने ही जलाया है, तेरे सामने ही ज्योति जली है, तो तू बता सकता है कि यह ज्योति आ कहां से गई इस दीये में? कहां से आई, कैसे आई? वह बच्चा बायजीद को देखता है और फूंक मार कर दीये को बुझा देता है और बायजीद से कहता है, ज्योति चली गई बिलकुल आपके सामने; वह कहां चली गई और कैसे चली गई, आप बताएंगे? तो फिर मैं भी कुछ सोचूं कि वह कहां से आई थी! तो बायजीद खड़ा रह जाता है। फिर उस बच्चे के पैरों पर गिर पड़ता है और वह कहता है कि मुझे बड़ा भ्रम था कि मैं जानता हूं कि जीवन कहां से आया और कहां जाता है। सच तो यह है कि तूने मुझे अज्ञान में पटक दिया। अब मैं इस ज्योति को भी नहीं जानता कि यह कहां चली गई है। लेकिन तूने मुझ पर बड़ी कृपा की। जिन गुरुओं के पास मैंने बहुत कुछ सीखा उनसे भी मुझे इतना नहीं मिला। और आज तेरे पास से मैं यह सीख कर जाता हूं कि कुछ भी नहीं जानता हूं। यह भी नहीं जानता हूं कि यह ज्योति कहां चली गई है।
एक ज्ञान का सीखना है, और मैं मानता हूं कि एक अज्ञान का सीखना भी है। अज्ञान का सीखना ही निगेटिव माइंड को पैदा करने का रास्ता है और ज्ञान का सीखना पाजिटिव माइंड को पैदा करने का रास्ता है। सारी संस्कृति, सारी सभ्यता, सारे विद्यालय, सारे गुरु, सारे शिक्षक पाजिटिव माइंड को पैदा करवा रहे हैं। और इसीलिए तो यह होता है--विश्वविद्यालय से निकले हुए आदमी में प्रतिभा खत्म हो जाती है। उसका कारण है। पाजिटिव माइंड मजबूत हो जाता है और निगेटिव माइंड नहीं रह जाता उसके पास। इसीलिए यह हुआ आज तक कि विश्वविद्यालय में जो नहीं गए थे उन्होंने कुछ आविष्कार भी किया हो, कुछ खोजा भी हो, लेकिन वह विश्वविद्यालय में जाने वाला एकदम मुर्दा हो जाता है। उसके पास पाजिटिव माइंड मजबूत है। और जो भी जाना जा सकता है, खोजा जा सकता है, वह हमेशा निगेटिव माइंड का काम रहा है।
हेनरी थारो पढ़ कर लौटा है। उसके गांव में लोगों ने स्वागत किया। एक बूढ़े ने एक बात कही उस स्वागत में। एक बूढ़े ने यह कहा कि हम हेनरी थारो का स्वागत इसलिए कर रहे हैं कि यह लड़का विश्वविद्यालय से बिना बिगड़े हुए घर वापस आ गया। इसे विश्वविद्यालय बिगाड़ नहीं पाया। यह अब भी पूछता है, यह अब भी शक करता है! यह अब भी अज्ञानी होने की हिम्मत रखता है, अब भी! वह सब जो ज्ञान था, इसको ज्ञानी नहीं बना पाया।
तो यह तो सोचिए ही मत कि वह जो हम इकट्ठा कर लेंगे वह हमें दीन बनने में सहयोगी होगा। जीसस का एक शब्द है--पुअर इन स्प्रिट। वह निगेटिविटी का अर्थ हुआ: पुअर इन स्प्रिट। जो भीतर से दरिद्र है! और एक ही समृद्धि है भीतर--अनुभव की और ज्ञान की। भीतर और कोई समृद्धि नहीं है। न तो रुपया ले जा सकते आप भीतर, न कुछ और ले जा सकते। लेकिन ज्ञान भीतर जाता हुआ मालूम पड़ता है, अनुभव भीतर जाता हुआ मालूम पड़ता है। और वह समृद्ध हो जाता है आदमी। बाहर जिनके पास पैसे हैं, वे भी अकड़े हुए हैं। और भीतर जिनके पास अनुभव या ज्ञान इकट्ठा हो गया है, वे भी अकड़े हुए हैं। और बाहर की अकड़ से भीतर वाले की अकड़ ज्यादा है, क्योंकि वह सोचता है कि न मुझसे चोर चुरा सकते, न मुझसे छीना जा सकता, न मुझसे कुछ लिया जा सकता; उसकी अकड़ और ज्यादा है। तो पुअर इन स्प्रिट नहीं है वह।
लेकिन किसी भी दिशा में, जहां भी जानना हो, पुअर इन स्प्रिट, वह आंतरिक एक दीनता। और दीनता का मतलब: वह आंतरिक एक निषेध, जहां समृद्ध होने का खयाल नहीं है। मेरे पास कुछ भी नहीं है। और इस भाव को लेकर जहां भी खड़े हो जाएंगे वहीं बहुत कुछ दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा।

व्हाई डू यू आंसर अवर क्वेश्चंस?

जैसे ही, जैसे ही हम पूछते हैं कि क्यों आप हमारे प्रश्न का उत्तर देते हैं? तो बहुत कारण हो सकते हैं आपके प्रश्न के उत्तर देने के। मेरा कारण यह है ताकि और प्रश्न उठा सकूं। मेरा कारण यह है। मैं आपको कोई उत्तर देता ही नहीं। मैं आपको उत्तर देना ही नहीं चाहता। क्योंकि मैं कौन हूं जो उत्तर दे दे? और मेरा उत्तर आपका उत्तर कभी हो नहीं सकता है। तो मेरी तो सारी चेष्टा, जो मैं उत्तर देता हुआ भी मालूम पड़ता हूं, वह इसीलिए है कि आपके भीतर प्रश्न और गहरा हो जाए, और विकराल हो जाए, और कठिनाई में डाल दे। और एक प्रश्न हल न हो, दस खड़े हो जाएं, हजार खड़े हो जाएं, और आपके भीतर प्रश्न ही प्रश्न हो जाएं। क्योंकि मुझे लगता यह है कि जितना प्रश्न हमारे भीतर बड़ा होता चला जाता है, उतनी ही आत्मा हमारी बड़ी होती चली जाती है। और आत्मा बड़ी हो...।

आपकी या और दूसरे की आत्मा बड़ी होती है?

सच बात तो यह है कि हम और दूसरे इतने अलग-अलग नहीं हैं जितने मालूम होते हैं। अगर आपकी आत्मा बड़ी होती है तो यह असंभव है कि मेरी बड़ी न हो जाए उसके साथ ही। मुझे पता न चले, यह हो सकता है। एक सुकरात पैदा होता है तो सारी मनुष्यता की आत्मा में कुछ बढ़ावा आता है। जो किसी को पता चले या न चले, यह सवाल नहीं है बड़ा। तो मेरी आत्मा कोई ऐसी अलग टूटी हुई चीज नहीं है कि अकेली बड़ी हो जाए। बड़ी होगी तो साथ बड़ी होगी, छोटी होगी तो साथ छोटी हो जाएगी। हम थोड़ा आगे-पीछे हो सकते हैं, अलग-अलग नहीं हो सकते।
एक लहर आगे भागी चली जा रही है। उसके पीछे दूसरी लहर भागी चली आ रही है। लेकिन दो लहरें अलग नहीं हैं, आगे-पीछे हो सकती हैं।
बुद्ध आगे हो सकते हैं, मैं पीछे हो सकता हूं, अलग-अलग नहीं हो सकते। अंततः अगर गौर से देखें तो पूरी मनुष्य-आत्माएं एक साथ ही बड़ी होती हैं। और यह जो बड़े होने की चेष्टा है--तो जब मैं आपके बड़े होने की कामना कर रहा हूं तो जाने-अनजाने अपने को ही बड़ा कर रहा हूं। हम सब चाहे छोटे हों तो हम दूसरे को छोटा करते हैं और बड़े हों तो हम दूसरे को बड़ा करते हैं। हम इतने अलग-अलग नहीं हैं, हम इकट्ठे हैं।

आपने इस प्रश्न का समाधान किया कि यह शून्य के बारे में जो एप्रोच है, वह इतना निगेटिव नहीं है, जितना उसके ऑन दि फेस पर दिखाई देता है। अब इसकी जो निगेटिव ट्रेनिंग की पासिबिलिटी आपने सामने रखी है, वह शायद एक नये प्रकार के कर्म की या आचरण की व्यक्ति की प्रगति के लिए कल्पना हो सकती है। तो क्या वह व्यक्ति के लिए ही है या इस प्रकार की निगेटिव ट्रेनिंग का कंसेप्शन कुछ सारे समाज के लिए भी आप रखते हैं?

बिलकुल, बिलकुल, सारे समाज के लिए ही! क्योंकि मैं मानता ही नहीं कि ये जो हमने विभाजन कर रखे हैं व्यक्ति और समाज के, ये सच में कहीं हैं।

वह प्रश्न पूरा तब होगा जब इसके पीछे एक संदेह और लगाया जाए कि जो इस प्रकार का निगेटिव ट्रेनिंग का कंसेप्शन इंडिविजुअल और उसको सोसाइटी के लिए किसी प्रकार के आर्ट के फार्म में और प्रैक्टिसिंग लाइन के फार्म में रखा जाए, तो क्या वह अनार्की तक नहीं पहुंचाएगा?

पहुंचाना ही चाहिए! अनार्की एकमात्र सुव्यवस्था है, बाकी सब अव्यवस्था है। बाकी सब अव्यवस्था है। अराजक जिस दिन हम समाज को बना सकेंगे, उसी दिन समाज पूरी तरह प्रकट होगा। जो थोड़ा-बहुत समाज कहीं प्रकट होता है, वह अराजक लोगों से प्रकट होता है।
तो यह तो अंतिम खयाल है कि किसी दिन समाज उस जगह पहुंच जाए, जहां अराजक हो सके। अराजक होने की सारी सुविधा हम जुटा दें कि पूरा समाज अराजक हो सके, उस दिन समाज पूरी तरह प्रकट होगा, सारे रूपों में प्रकट होगा। अराजकता जो है वह विकास की अंतिम कामना है, वहां विकास पूरा होगा--जहां एक-एक आदमी पर कोई रोक नहीं, कोई बंधन नहीं, जहां कोई सीमा नहीं, जहां कोई दीवार नहीं, जहां कोई कानून नहीं, लोग जीते हैं अपने स्वभाव से।
और यह अगर हम समझें ठीक से, तो निगेटिव माइंड जितना विकसित होगा उतनी अराजकता अराजकता नहीं रह जाएगी। अराजकता की अपनी डिसिप्लिन है। आप समझ रहे हैं न? अराजकता सिर्फ डिसिप्लिन का अभाव नहीं है, अराजकता की अपनी डिसिप्लिन है, अपना अनुशासन है। लेकिन वह आंतरिक है और बाह्य नहीं है। निगेटिव माइंड की भी अपनी डिसिप्लिन है, लेकिन वह आंतरिक है, बाह्य नहीं है। पाजिटिव माइंड की सब डिसिप्लिन बाहर से है। और इसीलिए पाजिटिव सोसाइटी की भी सब डिसिप्लिन बाहर से थोपी जाएगी--कानून से, पुलिस से, अदालत से। निगेटिव माइंड की डिसिप्लिन भीतर से आती है। वह उसकी सहजता से, स्पांटेनिटी से आती है।
तो हम जैसे ही किसी आदमी को निगेटिव बनाने की दिशा में गतिमान होते हैं, वैसे ही उसके भीतर से एक आंतरिक अनुशासन जगना शुरू होता है। और अगर पूरा समाज कभी भी...आखिरी कामना तो वह होनी चाहिए कि पूरा समाज ऐसा हो कि स्वभाव से चलता हो, भीतर से उसकी सारी व्यवस्था आती हो। अगर भीतर से नहीं व्यवस्था आती है, तो उसका मतलब कुल इतना है कि निगेटिव माइंड विकसित नहीं हुआ, माइंड पाजिटिव है। माइंड पाजिटिव है, इसलिए हम मांग सदा बाहर से करते हैं।
मैं एक लड़की को प्रेम करूं। निगेटिव माइंड प्रेम करने को पर्याप्त मानेगा। और उस प्रेम से जो भी संभव होगा अनुशासन, वह निकलेगा, वह उस प्रेम से निकलेगा। मैं साथ रहूं, तो वह साथ रहना मेरे प्रेम से निकलेगा। लेकिन पाजिटिव माइंड कहेगा कि नहीं, सात फेरे लगा कर विवाह करना चाहिए, रजिस्ट्री आफिस में जाकर रजिस्ट्री करवाना चाहिए। कानून ऊपर होना चाहिए। कानून कहे कि साथ रहो, कानून रोके कि अलग मत हो जाओ। प्रेम पर्याप्त नहीं है, कानून भी ऊपर से चाहिए। वही प्रेम की सुरक्षा बनेगा। और मजे की बात यह है कि जो प्रेम पर्याप्त न हो तो प्रेम है ही नहीं। फिर अब व्यवस्था बनानी पड़ेगी। और अगर हम कहें कि नहीं, कोई व्यवस्था मत बनाओ! तो लोग कहेंगे, फिर तो सब अराजक हो जाएगा।
लेकिन क्या प्रेम की अपनी व्यवस्था नहीं है एक?
और मेरी अपनी मान्यता यह है कि अराजक सब हो गया है। और जो भी महत्वपूर्ण है, सब मर गया है। क्योंकि वह सब सहज ही विकसित होता है, वह नियम और कानून से विकसित होता ही नहीं। वह सब मर गया है। और पूरी ह्यूमैनिटी एबनार्मल हालत में है, कोई नार्मल हालत में नहीं है। पूरी मनुष्यता करीब-करीब पागल होने जैसी हालत में है। सब तरफ कानून है। बाप के पैर भी छूने हैं तो...।
एक-एक व्यक्ति के भीतर उसके निगेटिव माइंड को विकसित होने दें। तो उसके उस निगेटिव माइंड से उसकी डिसिप्लिन भी निकलेगी, वह जीएगा ऐसे जिसमें जीना सर्वाधिक आनंदपूर्ण हो सके। और मेरा मानना यह है कि जो व्यक्ति अपने आनंद के लिए थोड़ा भी जीने की कोशिश करता है, वह किसी के दुख के लिए कभी चेष्टा नहीं करता। यह असंभव है। और जो व्यक्ति किसी तरह का दुख झेलता है अपने जीवन को बनाने में, वह दूसरे को भी दुख देने की सब तरह की चेष्टा करता है। यह हमारी पूरी सोसाइटी सैडिस्ट और मैसोचिस्ट है। और सब तरह के लोग इसमें इकट्ठे हो गए हैं।
वह जो कानून बनाने वाला है, वह सैडिस्ट है। वह कानून को मूल्य देता है। वह कहता है, तुम्हें शादी करनी है तो जिंदगी भर साथ रहना पड़ेगा! वह एक शर्त लगाता है। और जिंदगी भर साथ रहना इतना दुखद भी हो सकता है कि उस दुख और बोझ के नीचे वह जो शादी का और साथ रहने का थोड़ा सा आनंद था, वह फूल कहीं भी दब जाए इस पत्थर के नीचे, उसे मतलब नहीं है। वह कहता है, जिंदगी भर साथ रहना पड़ेगा तो तुम शादी कर सकते हो! अन्यथा शादी नहीं कर सकते। अगर मुक्त रहना है तो शादी नहीं कर सकते, तो प्रेम की संभावना से बच जाओगे। और अगर प्रेम करना है तो शादी करनी पड़ेगी।
वह जो सैडिस्ट है, मेरी अपनी मान्यता यह है कि कानून बनाने वाले सभी सैडिस्ट होते हैं। चाहे वह मनु महाराज हों और चाहे कोई भी हो, सब सैडिस्ट होते हैं। वे सताने का सब उपाय करते हैं। लेकिन सताने को इस भांति छिपाते हैं कि ऐसा मालूम पड़ता है कि वे समाज के और लोगों के कल्याण के लिए भारी उपाय कर रहे हैं। भारी उपाय कर रहे हैं।
समाज में सैडिस्ट भी हैं, और उनसे ही धारा प्रभावित रही है अब तक। और मैसोचिस्ट भी हैं, ऐसे लोग हैं जो खुद को दुख देने में मजा पाते हैं। ऐसे लोग कानून मान कर अपने को बिलकुल ढांचे में खड़ा कर देते हैं। कितना ही दुख पाएं, लेकिन वह अगर शीर्षासन करना नियम है, तो वे शीर्षासन लगा कर खड़े हो जाएंगे। वे अपने को सताने में मजा लेते हैं। ये सताने वाले हमारे गुरु हो जाते हैं, नेता हो जाते हैं--अपने को सताने वाले। और दूसरे को सताने वाले नियंता हो जाते हैं, स्मृतियों के बनाने वाले हो जाते हैं, कानून बनाने वाले हो जाते हैं। अब तक दुनिया सैडिस्ट और मैसोचिस्ट के चक्कर में है, उनके हाथ में है। इसलिए इतना पागलपन, इतना उपद्रव है।
आदमी का निगेटिव माइंड अगर विकसित हो, तो न तो आदमी मैसोचिस्ट रह जाता है, न सैडिस्ट रह जाता है। न वह किसी को सताना चाहता है, न खुद को सताना चाहता है। वह निगेटिव माइंड पहली दफा यह बात जान लेता है कि एक-एक क्षण जीने जैसा है और इतना आनंदपूर्ण है कि उसे हम जीएं। पीछे से भी छोड़ें, आगे से भी छोड़ें और पल-पल हम जीएं। वह मोमेंट टु मोमेंट लिविंग निगेटिव माइंड से पैदा होती है। और वह अगर पैदा हो सके, तो एक के लिए भी वही सत्य है, सब के लिए भी वही सत्य है। देर कितनी ही लगे, यह दूसरी बात है। किसी को भी सुख पाना हो तो उसे क्षण-क्षण जीना पड़ेगा, तो ही सुख पा सकता है। हां, दुख पाना हो तो क्षण में कभी न जीए, तो पीछे अतीत के सब इतिहास में जीए, और भविष्य की सब कल्पना में जीए, तो वह दुख पाता रहेगा। वह दुख पाता रहेगा।
चाहे व्यक्ति, चाहे समाज, आज नहीं कल हमें इस जगह आना ही पड़ेगा कि हम व्यक्ति को कितने दूर तक मुक्ति दे सकें और समाज को भी कितने दूर तक मुक्ति दे सकें। निश्चित ही सब बदल जाएगा! राष्ट्र नहीं रह सकते, युद्ध नहीं रह सकते, जातियां नहीं रह सकतीं, धर्म नहीं रह सकता, क्योंकि यह सब थोपा हुआ पाजिटिविटी है, यह सब खो जाएगा। और इसलिए दुनिया में जितने दुखवादी हैं, पर-दुखवादी या स्व-दुखवादी, वे सब बड़ी परेशानी में पड़ जाएंगे। और इसलिए वे नहीं चाहेंगे कि यह हो। वे सारी चेष्टा कर रहे हैं। विद्यालय उनके हाथ में हैं, राज्य उनके हाथ में है, सब उनके हाथ में है। वे सारी चेष्टा कर रहे हैं।
अगर कहीं मंगल से कोई ऐसा प्राणी देखे हमें, तो वह हमें कहेगा कि यह पूरी पृथ्वी पागल हो गई है, यह पूरा प्लेनेट पागल है। अगर कोई बिलकुल दूर का यात्री हमें बिलकुल पूरी तरह से देखे और हमारा सब हिसाब देखे, तो वह ऐसा नहीं कहेगा कि इसमें कुछ लोग पागल हैं। यह पूरा प्लेनेट एज ए होल पागल है। और बिलकुल मैड हाउस बन गया है। और मैड हाउस जिन्होंने बनाया है वही नेता हैं, वही गुरु हैं, वही शिक्षक हैं, वही सब मैड हाउस बनाए चले जा रहे हैं।
तो एक भारी बगावत चाहिए सारी दुनिया में पाजिटिव माइंड के खिलाफ।

आपकी विचारधारा में और नागार्जुन की विचारधारा में क्या फर्क है?

जितना फर्क मुझमें और नागार्जुन में होगा, उतना फर्क होगा। मेरा मतलब समझे आप? मेरा मतलब यह है कि...।

उनका आधार भी शून्यवाद ही है।

न, न, न। यह जो जल्दी हो जाती है न, जल्दी हो जाती है। मुझमें और नागार्जुन में फर्क बहुत होंगे। मेरी बात समझ लें। मेरी बात समझ लें। विचार कोई ऐसी चीज नहीं है जो आकाश से टपक जाती है। विचार की जड़ें हैं मुझमें, वे मुझसे निकलती हैं और फैलती हैं।
जैसे नागार्जुन है। नागार्जुन शून्य की तो बात करता है, लेकिन मैसोचिस्ट है। शून्य की तो बात करता है, लेकिन दुखवादी है। खुद को भारी दुख दे रहा है।
मैं दुखवादी जरा भी नहीं हूं। मैं मानता हूं कि शून्यवाद परम हैडोनिज्म है, वह अंतिम सुख और आनंद की तलाश है। नागार्जुन आनंदवादी नहीं है।
बुद्ध के पीछे जो कतार चली वह दुखवादियों की है। बुद्ध उनमें सबसे कम दुखवादी हैं। लेकिन मजा यह है कि जो कतार चली वह भारी दुखवादियों की है। बुद्ध उनमें सबसे कम दुखवादी आदमी हैं, जिनसे कतार चली। लेकिन उनके पीछे आने वाला भारी दुखवादी है। और बुद्ध के विचार में उसको दुख के लिए समर्थन मिला। एक आदमी दुखवाद के लिए शून्य का समर्थक हो सकता है। वह कहता है, किसी में कोई सार नहीं है। शून्य का मतलब नागार्जुन के लिए क्या है? शून्य का मतलब नागार्जुन के लिए है कि सब व्यर्थ है। किसी में कुछ सार नहीं है। सब अकारण है। कोई चीज किसी मतलब की नहीं है। सब मीनिंगलेस है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हां, हां, हां, उसकी बात नहीं कर रहा हूं मैं।
तो वह सारी चीज को--कि भोजन भी व्यर्थ है, कपड़ा भी व्यर्थ है, पत्नी भी व्यर्थ है, प्रेम भी व्यर्थ है। वह अगर बहुत गौर से देखें तो नागार्जुन के शून्य में और शंकर की माया में कोई फर्क नहीं है, वे दोनों एक ही हैं। शंकर ने नागार्जुन के शून्य से ही माया चुराई हुई है पूरी की पूरी। वह वही चोरी है पूरी की पूरी। शंकर और नागार्जुन में कोई फर्क नहीं है।
मुझमें और नागार्जुन में तो जमीन-आसमान का फर्क है। सच बात तो यह है कि मैं धर्म की बात कर रहा हूं और जिस धर्म की बात कर रहा हूं वह वैसा है कि अगर चार्वाक धर्म की बात करे या एपीकुरस धर्म की बात करे, तो मैं वैसे धर्म की बात कर रहा हूं। चार्वाक ने बात नहीं की धर्म की और न एपीकुरस ने की है। मेरा अगर तालमेल है तो चार्वाक और एपीकुरस से है। लेकिन उन्होंने धर्म की बात नहीं की।
तो धर्म की बात जो मैं करता हूं तो धर्म की बात का तालमेल दिखता है नागार्जुन से, शंकर से, बुद्ध से। मैं बात वह कर रहा हूं जो शंकर और बुद्ध ने की है, नागार्जुन ने की है। और कर रहा हूं वहां से जहां से एपीकुरस और चार्वाक करें। इसलिए एक बड़ा उलझन का मामला हो गया है जरूर। मेरी आप बात समझ रहे हैं न? यानी मैं खुद तो सुखवादी हूं, निपट सुखवादी हूं।

ऐसा भी नहीं था। नागार्जुन ने भी सब लोगों की मुक्ति हो इसलिए ही रास्ता खोला था!

मुक्ति किससे? मुक्ति किससे? मेरी आप बात समझ रहे हैं न? मेरी बात पर आप सोचना, मेरी बात पर आप सोचना।

मुक्ति तक अपने दुख सहन करना, यह उसका मार्ग है। वह मार्ग कैसा है, इसी से प्रतीत होता है कि...

मेरी बात आप खयाल में लिए न!

एक बात समझ गया कि आप जो क्रांतिकारी बात करते हैं और बिलकुल ऊंचे उठ कर, वह सही बात है। लेकिन सब लोगों को अच्छी से अच्छी तरह से समझ सके, इसीलिए और भी अच्छे उदाहरणों से समझाना जरूरी है।

बिलकुल जरूरी है। बिलकुल जरूरी है।

यू सेड देयर वुड बी मैडमेन हू हैव कम बैक फ्राम दि शून्य, दे हैव सीन दि शून्य एंड केम बैक, लाइक हिप्पीज एंड अदर मैडमेन। नाउ डू यू एप्रूव ऑफ दीज़ मैडमेन बाइ दि यूज ऑफ ड्रग्स सेंडिंग देम बैक टु दि शून्य?

नहीं; जरा भी नहीं, जरा भी नहीं, जरा भी नहीं। क्योंकि असल में एल एस डी या मैस्कलीन या मारिजुआना शून्य को भुलाने की कोशिश है, जीने की कोशिश नहीं है। जीने की कोशिश नहीं है वह। वह भी एस्केपिस्ट है। वह तो हमारा सोमरस से ऋषि बहुत दिन से प्रयोग कर रहा है उसका। गांजा, अफीम, हमारे मुल्क में संन्यासी बहुत दिन से प्रयोग कर रहा है। वह जो देखा है शून्य उसको भुलाने की चेष्टा है, वह फार्गेटफुलनेस की आखिरी चेष्टा है। सोमरस से लेकर एल एस डी तक वह एक ही कथा है। वह वेद में भी कुछ ऋषि वहां पहुंच गया है, जहां शून्य है। और उससे इतनी घबराहट और बेचैनी पैदा हो गई है कि अब किसी तरह उसको भुलाना जरूरी है। तो नाचो, गाओ, गीत गाओ, शराब पीओ, सोमरस पीओ--कुछ भी करो--उसे भूल जाओ।
मेरा कहना है, शून्य में छलांग लगाओ, घबराओ मत। मेरा कहना है, शून्य से घबरा कर लौट मत आओ। लौटने का रास्ता कोई भी हो--लौटो मत। क्योंकि लौट कर तुम या तो पागल हो जाओगे और या नशे में धुत हो जाओगे। दो में से और कोई रास्ता नहीं है। पागलपन से बचना होगा तो नशा करना पड़ेगा; नशे से बचोगे तो पागल हो जाओगे। लौटो मत!
मनुष्य उस जगह पहुंच गया है जहां उसे शून्य का साक्षात्कार, एनकाउंटर करने की हिम्मत जुटानी चाहिए। उसका एनकाउंटर करो और शून्य विलीन हो जाएगा और पूर्ण प्रकट हो जाएगा। वह एनकाउंटर में होगा यह।

दीज हिप्पीज हैव नाट बिकम मैड सीइंग दि शून्य; व्हाट हैज हैपेन्ड इज़ दैट टेकिंग ड्रग्स दे हैव बिकम मैड!

न, न, न, मैड-वैड तो वे नहीं हुए हैं। ड्रग लेने से कोई मैड नहीं होता। ड्रग लेने से कोई मैड नहीं होता, मैड भी ड्रग ले सकता है यह दूसरी बात है। लेकिन एल एस डी लेने से कोई पागल नहीं होता। एल एस डी में कोई तत्व ही नहीं कि किसी को पागल कर दे।
एल एस डी के साथ तो खूबी यह है कि आप जो होओगे एल एस डी आपको वही कर देगा, ज्यादा प्रकट कर देगा। अगर आप पागल हो, तो आप ज्यादा पागल दिखाई पड़ने लगोगे। अगर आप गंभीर हो तो ज्यादा गंभीर हो जाओगे। अगर पेंटर हो तो ज्यादा पेंटिंग में लग जाओगे। अगर कवि हो तो ज्यादा गीत गाने लगोगे। एल एस डी का जो उपयोग है, वह तो जो आप हो उसको पूरी तरह एनफ्लेम कर देना है। और उससे ज्यादा उसका कोई मतलब नहीं है।
अगर आदमी पागल है तो पागल हो जाएगा। अगर एक आदमी भूत-प्रेत देखता है और एल एस डी ले लेगा तो भूत-प्रेत इतने भारी दिखाई पड़ने लगेंगे। और अगर मीरा को एल एस डी दे दोगे तो कृष्ण ही कृष्ण दिखाई पड़ने लगेंगे। वह जो आपका माइंड है, एल एस डी उसको पूरा का पूरा कर देगा। उसमें शक-शुबहः सब मिटा देगा, वह पूरा आपको दिखाई पड़ने लगेगा जैसा भी आपका माइंड है।
इसलिए हक्सले ने एल एस डी लिया तो उसको बड़ा ऐसा लगा कि कबीर को जो अनुभव हुआ वह मुझे हो रहा है। लेकिन दूसरों ने लिया तो उनको ऐसा नहीं लगता। क्योंकि वह जो आपके माइंड में है वही प्रकट हो जाएगा। एल एस डी खुले कैनवस पर आपके भीतर जो है उसको प्रोजेक्ट कर देगा बस, और कुछ करेगा नहीं।
मगर यह सब बचाव है। हिप्पीज हैं या बीटनिक हैं--यह एक तरह की बगावत है, लेकिन बच्चों की बगावत है, एक विचारशील बगावत नहीं है वह। एक विचारशील बगावत नहीं है।

शून्य की तरफ जाने का क्या कोई माध्यम है यह?

जरूर, ध्यान को मैं शून्य की तरफ जाने का मार्ग...।

नहीं, यह हिप्पीज का जो आजकल का व्यवहार है...।
हां, यह होगा, बनेगा माध्यम। असल में हिप्पीज से अब दुनिया कभी मुक्त नहीं हो सकेगी।

नहीं, मेरा प्रश्न यह है कि यह जो ड्रग्स वगैरह लेते हैं, यह लेने से कोई ये माध्यम जाहिर करते हैं उस तरफ जाने का, शून्य की तरफ जाने का?

हांऱ्हां, जाहिर कर रहे हैं न! वे जाहिर यह कर रहे हैं...। असल में एक खास जगह संकट के करीब मनुष्य का मन पहुंच गया है, यह हमें पता नहीं है। एक खास संकट के करीब मनुष्य का मन पहुंच रहा है। उसमें कोई आगे है, कोई पीछे है, यह दूसरी बात है। नये बच्चे उसके ज्यादा निकट हैं, बूढ़ा आदमी उससे जरा दूरी पर है। और जो मुल्क जितना विकसित है वह उसके उतना ज्यादा निकट है, जो मुल्क जितना कम विकसित है वह उससे उतनी दूरी पर है।
हिंदुस्तान में हिप्पी पैदा नहीं हो सकता। कोई उपाय नहीं है पैदा करने का अभी।
वह जो करीब-करीब बार्डर लाइन पर जो खड़े हो गए हैं नये युवक जाकर, उनको आपकी पुरानी पूरी दुनिया बेमानी, एब्सर्ड थी, यह दिखाई पड़ रहा है--एक। आपने जो मूल्य बनाए थे, वे सब फिजूल और बेवकूफी के मालूम पड़ रहे हैं। और सच बात यह है कि जो भी सोचेगा उसे मालूम पड़ेंगे। तो पुरानी जगह से पैर उखड़ गए। पुराना कुछ सार्थक नहीं मालूम हो रहा। और आगे भयानक शून्य है, एबिस है। आगे कुछ दिखाई नहीं पड़ता कि और कोई वैल्यू हो सकती है। आगे कुछ है नहीं और पीछे का सब उखड़ गया है। इस हालत में दो उपाय हैं: या तो वह हिम्मत करके इस एबिस में उतर जाए और या फिर एल एस डी लेकर सो जाए। मेरा मतलब समझ रहे हैं न?
बार्डर लाइन पर खड़े हुए आदमी के लिए दो ही उपाय हैं कि या तो वह जंप लगा ले, फिर जो कुछ होगा, होगा। और या फिर वह एल एस डी ले ले। क्योंकि पीछे से तो वह उखड़ गया, पीछे लौटने का उपाय नहीं है। वह पुल गिर गया, वह ब्रिज गिर गया, जिस पर हम कल तक चले थे। या हो सकता है कि वह था ही नहीं; सिर्फ कल्पना का था, हम सोचते थे कि है और इसलिए बड़े मजे से चल रहे थे। वह तो गिर गया। वह जो हिप्पी जैसा युवक है आज, वह पीछे का ब्रिज गिर गया, आगे कोई ब्रिज नहीं है और इतनी पतली लकीर पर वह खड़ा है मोमेंट की कि डर लगता है कि कहीं गिर न जाए, तो वह एक नशा ले लेता है। फिर भूल गया, फिर ब्रिज दिखाई पड़ने लगते हैं आगे-पीछे, सब होने लगता है।
तो मेरा कहना यह है कि जिस हिप्नोटिज्म के भीतर मनुष्यता जी रही थी, अब उसको पैदा करने के लिए ड्रग के बिना कोई रास्ता नहीं है। वह हिप्नोटिज्म तो टूट गया। एक हिप्नोसिस थी, एक ड्रीम था, जिसमें हम जी रहे थे, हमारा बुजुर्ग जी रहा था, वह तो टूट गया। अब उसको पैदा करना हो तो या तो ड्रग से पैदा करो और या फिर तैयारी दिखाओ कि हम बिना ब्रिज के जीएंगे, हम ब्रिज की मांग ही नहीं करते। हम शून्य में जीएंगे, हम अब मूल्यों की मांग ही नहीं करते।
हुआ क्या है कि पुराना मूल्य तो टूट गया है, लेकिन पुराने मूल्य की मांग नहीं टूटी है। क्योंकि यह बच्चा पैदा तो हमसे हुआ है। इसके एक्सपेक्टेशन वही हैं जो हमारे हैं। लेकिन यह इस जगह जाकर खड़ा हो गया है जहां पुराना कोई मूल्य नहीं है। और मूल्य की मांग इसकी भी है। तो यह कठिनाई में पड़ गया है। यह जो पागल दिखाई पड़ रहा है, इसका पागलपन यह है कि इसकी मांग तो यही है कि वे पुराने मूल्य--भीतर से! आज भी यह अगर किसी लड़की के साथ रहेगा तो मांग तो पत्नी वाली ही है, लेकिन पत्नी होने वाला मूल्य खत्म हो गया है। मांग तो इसकी पति होने की है, लेकिन वह पति होने वाला मूल्य खत्म हो गया है। अब इसके सामने बड़ी दिक्कत हो गई है, या तो यह बिना पति हुए प्रेमी होने के लिए तैयार हो जाए यानी बिना किसी मूल्य के जीने को तैयार हो जाए, और या फिर नशा कर ले।
तो वह जो हिप्पी है, एक तरह से शुभ लक्षण है। वहां से आगे बढ़ना होगा, पचास-चालीस वर्ष लगेंगे, कुछ लोग हिम्मत करके छलांग लगाएंगे। और इसलिए उसमें से हिप्पीज में से जो ज्यादा विचारशील लोग हैं वे एकदम ध्यान और झेन और उस तरफ विचार करने में एकदम संलग्न हो गए हैं।

सो योर सेइंग इज़ दैट वेस्टर्न सिविलाइजेशन हैज फार एडवांस्ड इन दि डायरेक्शन ऑफ शून्य?

बिलकुल ही निश्चित। बिलकुल निश्चित। बिलकुल निश्चित। बिलकुल निश्चित।

यू आर ए मैटीरियलिस्ट इन दैट सेंस।

न, इतनी जल्दी मत कह देना! क्योंकि मैंने वही कहा कि मैं एपीकुरस जैसा आदमी हूं जो बुद्ध हो जाए। मैटीरियलिस्ट मैं नहीं हूं। मैं मानता ही यह हूं कि मैटर और स्प्रिट की लड़ाई ही नासमझी की और बेवकूफी की है। एक ही चीज है, उसे मैटर कहो या स्प्रिट कहो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इसलिए मैं मैटीरियलिस्ट नहीं कह सकता अपने को, स्प्रिचुअलिस्ट भी नहीं कह सकता। क्योंकि मैं मानता हूं कि वह डिवीजन ही नासमझी का था। उस डिवीजन में मैं कहीं खड़ा नहीं होता। मैं मानता हूं--चीज एक ही है, वही दिखाई पड़ रही है मैटर की तरह और नहीं दिखाई पड़ रही है आत्मा की तरह। एक ही चीज के दो छोर हैं। इसलिए मैं क्या कहूं अपने को, बहुत मुश्किल मामला हो गया। क्या कहना चाहिए, अभी कोई शब्द नहीं है सही में, अभी कोई शब्द नहीं है।

थैंक यू!



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