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शनिवार, 4 मई 2019

नये समाज की खोज-(प्रवचन-10)

नये समाज की खोज-(दसवां प्रवचन)

जिंदगी निरंतर चुनाव है

मेरे प्रिय आत्मन्!
तीन दिन की चर्चाओं के संबंध में बहुत से प्रश्न इकट्ठे हो गए हैं। शायद सभी प्रश्नों के उत्तर देना संभव न हो पाए। फिर भी मैं ज्यादा से ज्यादा प्रश्नों को लेने की कोशिश करूंगा। इसलिए थोड़े संक्षिप्त में ही थोड़ी-थोड़ी बात की जा सकेगी।
एक मित्र ने पूछा है कि क्या आप बूढ़ी गायों को मारने के पक्ष में हैं? उनकी हिंसा के पक्ष में हैं?
मैं किसी की भी हिंसा के पक्ष में नहीं हूं। लेकिन यदि मनुष्य मरने को हो जाए, तो मजबूरी की हालत में मनुष्य को अपने जीने के लिए बहुत सी हिंसाओं को स्वीकार करना पड़ेगा। हिंसा तो बुरी है, लेकिन अहिंसा पूरी तरह हो सके, इसके लिए पृथ्वी पर हम अभी तक इंतजाम नहीं कर पाए हैं। यदि आदमी की जिंदगी मुश्किल में पड़ जाए तो हमें बूढ़ी गायों को विदा करना ही पड़ेगा!


उन मित्र ने यह भी पूछा है कि जब बूढ़ी गायों को विदा करने के लिए आप कहते हैं, तो कल तो यह भी हो सकता है कि बूढ़े बाप या बूढ़ी मां को भी विदा करना पड़े!

यह हो सकता है। और अगर आप बच्चे ज्यादा पैदा किए गए तो यह होकर रहेगा! यह बहुत कठोर सत्य है। यह बहुत दुखद है। लेकिन इसके सिवाय शायद कोई रास्ता न बचे।
जैसे आज हम पचपन साल के या अट्ठावन साल के आदमी को नौकरी से रिटायर करते हैं। किसलिए करते हैं?
इसलिए करते हैं कि पीछे आने वाले बच्चों को काम मिले, अन्यथा बच्चों को काम न मिल सकेगा। जरूरी नहीं है कि पचपन साल का आदमी काम के लायक न रहा हो। सच तो यह है कि पचपन साल के अनुभवी आदमी को काम से अलग करना और बीस साल के गैर-अनुभवी आदमी को काम देना, बहुत आर्थिक रूप से नुकसान की बात है, फायदे की बात नहीं है। लेकिन मजबूरी है। पचपन साल के आदमी को अलग करना पड़ेगा, अन्यथा बच्चों को काम कैसे मिलेगा!
जैसे ही स्थिति और बिगड़ जाएगी, आपको नौकरी से ही रिटायर नहीं, हो सकता है हमें तय करना पड़े कि पैंसठ साल या सत्तर साल के आदमी को जिंदगी से रिटायर होना पड़े! इसकी जिम्मेवारी उन लोगों पर नहीं होगी जो पचपन या साठ या पैंसठ या सत्तर साल के आदमी को हटाने के लिए कहें, इसकी जिम्मेवारी उन लोगों पर होगी जो ज्यादा बच्चों को पैदा किए चले जाएं। जमीन पर रहने के लिए अगर जगह बनानी मुश्किल हो गई...आपको ख्याल में नहीं है, जिस अनुपात से संख्या रोज बढ़ रही है, अगर सौ साल..सिर्फ सौ साल..इस अनुपात से संख्या बढ़ी, तो एक आदमी के पास एक वर्गफीट जमीन बचेगी सारी दुनिया में। एक वर्गफीट जमीन में खड़े हो लें, चाहे सो लें, चाहे बैठ लें, चाहे जी लें, चाहे काम कर लें। सौ साल बाद सभा करने की कोई जरूरत नहीं होगी। जहां आप होंगे वहीं सभा हो रही होगी।
अगर इतनी संख्या जमीन पर हो गई, तो कोई आश्चर्य न होगा कि बूढ़े आदमी को हमें विदा करने के लिए मजबूर होना पड़े। और यह भी जान कर आपको हैरानी होगी कि इतिहास में ऐसे मौके थे और ऐसी कौमें थीं, जिन्होंने अपने बूढ़ों को मारा है, मारना पड़ा है। ऐसी कौमें थीं इतिहास में, जो एक उम्र के बाद बूढ़े की हत्या कर देंगी। और ऐसी भी कौमें थीं, जो अपने बच्चों को पैदा होने के बाद मार डालेंगी; क्योंकि उनके जिलाने का कोई उपाय न था।
बच्चों को मारने के लिए तो हम तैयार हो गए हैं। जापान ने गर्भपात का नियम बना लिया है। कोई भी स्त्री अपने गर्भपात को करना चाहे, तो उसके लिए कोई कानूनी रोक नहीं रह गई, बल्कि सरकारी सुविधा दी है। गर्भपात का क्या मतलब होता है? गर्भपात का मतलब होता है कि जो बच्चा अब जिंदगी पा रहा था, उसको हम समाप्त करते हैं।
अगर बच्चे मारे जा सकते हैं तो बूढ़ों को मारने में कितनी देर लगेगी? और अगर बच्चे और बूढ़ों के बीच चुनाव का सवाल उठा, तो मैं भी कहूंगा कि बच्चों को बचाना चाहिए, बूढ़ों को मारना चाहिए। बूढ़े भी यही कहेंगे कि हम मर जाते हैं, बच्चे बचें! इसके सिवाय रास्ता क्या रहेगा!
तो आपने तो शायद व्यंग्य में पूछा होगा कि क्या बूढ़े बाप को भी विदा कर दें?
अगर ये गऊमाता वाले लोगों की बात चली, तो बूढ़े बाप को भी विदा करना पड़ेगा! जिंदगी निरंतर चुनाव है। मच्छर को भी मारना ठीक नहीं है, लेकिन आदमी को जिलाए रखने के लिए मच्छर को मारना पड़ता है। जानवरों को मार कर खाना उचित नहीं है, लेकिन जमीन पर इतनी साग-सब्जी नहीं है कि आदमी जिंदा रह सके, उसे जानवर को मारना पड़ता है। किसी दिन हम ऐसी आशा करें कि सब ऐसा इंतजाम हो सकेगा कि किसी जानवर को न मारना पड़ेगा। लेकिन अभी वह इंतजाम हो नहीं सका है। इसलिए गाय के साथ भी विशेष बर्ताव नहीं किया जा सकता।
और गाय के साथ विशेष बर्ताव करने का कारण क्या है? हिंसा अगर बुरी है तो बुरी है। चाहे बकरी को काटो, चाहे गाय को काटो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर हिंसा बुरी है तो बुरी है। और जो लोग बहुत समझदार हैं, जिन्होंने बहुत इस संबंध में अनुभव किए हैं, वे तो कहेंगे, वृक्ष को काट रहे हो, वह भी हिंसा है। है तो हिंसा! वृक्ष में भी जीवन तो है! और अब तो विज्ञान स्वीकार करता है कि प्रत्येक पौधे में जीवन है। तो वृक्ष को भी काट रहे हो, हिंसा तो हो ही रही है।
ऐसे लोग रहे हैं जिन्होंने वृक्षों को काटने की मनाही की। महावीर हुए, जिन्होंने कहा कि वृक्ष को काटने में हिंसा है। इसलिए जैनियों ने खेती करनी बंद कर दी। इसलिए सारे जैनी दुकान करने लगे, खेती से हट गए। क्योंकि खेती करेंगे तो वृक्ष को काटना पड़ेगा।
लेकिन तुम्हारे हटने से क्या होता है? दूसरे के कटे हुए वृक्षों को तो खाओगे ही, इससे फर्क क्या पड़ता है? वृक्ष में भी प्राण हैं, उसको भी काटना तो पड़ता है। असल में आदमी के भोजन का मामला तब तक हल नहीं होगा, जब तक हम सिंथेटिक फूड पर नहीं आ जाते। जब तक हम फैक्ट्री में बनाई हुई गोली को ही खाकर जीवन नहीं चलाते, तब तक हमें किसी न किसी तरह की हिंसा जारी रखनी पड़ेगी। मजबूरी है, नेसेसरी ईविल है। लेकिन मजबूरी है और उसे झुठलाया नहीं जा सकता।

एक मित्र ने पूछा है कि क्या आप मांसाहार के पक्ष में हैं?

मैं मांसाहार के पक्ष में क्यों होने लगा, मांस ने मेरा कुछ बिगाड़ा नहीं है। लेकिन आदमी की संख्या है साढ़े तीन अरब पृथ्वी पर, और अगर हम सिर्फ साग-सब्जी और फल से आदमी को जिंदा रखना चाहें, तो करीब-करीब तीन अरब आदमियों को मरना पड़ेगा! सिर्फ पचास करोड़ आदमी जिंदा रह सकते हैं! तो या तो जानवरों को बचा लें या तीन अरब आदमियों को मर जाने दें। दो में से कुछ एक कर लें।
अगर हम कसम खा लें कि मांस न खाएंगे, मछली न खाएंगे, तो तीन अरब आदमियों के मरने की हिंसा किसके ऊपर होगी? वे तीन अरब आदमी मरेंगे! क्योंकि इस पृथ्वी पर पचास हजार आदमियों के लिए भी शुद्ध शाकाहारी भोजन जुटाना मुश्किल है।
और आप शायद समझते हों कि दूध शाकाहार है, तो आप बड़ी गलती में हैं। दूध मांसाहार का ही हिस्सा है, दूध खून है। और जो शुद्ध शाकाहारी है उसको दूध नहीं पीना चाहिए। आदमी के खून में दो तरह के कण होते हैं, सफेद और लाल। मादाओं के स्तन में यंत्र होता है जो सफेद कणों को अलग कर देता है, चाहे वे स्त्रियां हों, और चाहे और जानवरों की स्त्रियां हों। उनके स्तन का यंत्र खून के सफेद कण को अलग कर देता है, लाल को अलग कर देता है..वही सफेद कण दूध बन जाता है। इसलिए दूध पीने से आपका खून बढ़ जाता है। वह खून ही है, कुछ और नहीं है।
तो शुद्ध शाकाहारी दूध नहीं पी सकता। नहीं पीना चाहिए। अब दूध को भी अलग कर दो, सिर्फ साग-सब्जी और फल पर आदमी को अगर जिंदा रहना पड़े, तो कितने आदमियों को जिंदा रखिएगा? यह पूरी जमीन लाशों से भर जाएगी।
जैन साधु दूध बड़े मजे से पीता है, बिना इसकी फिकर किए कि वह हिंसा कर रहा है, खून पी रहा है। लेकिन मजबूरी है, इसके सिवाय कोई रास्ता नहीं है। दूध जो लोग भी पी रहे हैं, वे सब खून पी रहे हैं। इसलिए बहुत मन में ऐसा मत सोचें कि बड़ा शुद्ध आहार कर रहे हैं। दिन भर उपवास किया और शाम को दूध की मिठाई खा रहे हैं, तो सोच रहे हैं कि फलाहार कर रहे हैं। फलाहार नहीं कर रहे, मांसाहार कर रहे हैं!
आदमी की जिंदगी को बचाने के लिए कुछ भोजन तो करना पड़ेगा। गाय नहीं बचाई जा सकती। गाय को बचाइएगा तो आदमी को मरना पड़ेगा। और जानवर भी नहीं बचाए जा सकते, मछली भी नहीं बचाई जा सकती। हां, लेकिन भविष्य में हम आशा कर सकते हैं कि अगर विज्ञान ठीक से विकास करे...और धर्म के विकास से नहीं होगा यह फर्क, न गुरुओं के समझाने से मांसाहार रुकेगा! विज्ञान के विकास से किसी दिन रुक सकता है। जिस दिन विज्ञान सीधी गोली आपको खाने को दे दे, उस दिन मांसाहार रुक सकता है, उसके पहले नहीं रुक सकता।
खाने के साथ तो मुसीबत यह है कि जीवन जीवन को ही खाता है..चाहे फल का जीवन खाएं, चाहे पौधे का जीवन खाएं, चाहे पशु का जीवन खाएं..जीवन जीवन को ही खाता है। और मजे की बात यह है कि जब आप उपवास करते हैं, कुछ भी नहीं खाते, तब भी मांसाहार करते हैं, अपना खुद का मांस पच जाता है। दो पौंड एक दिन में आदमी खा जाता है। जिस दिन आप उपवास करते हैं, उस दिन खुद का मांसाहार कर रहे हैं, और कुछ भी नहीं कर रहे हैं। आपका दो पौंड वजन कहां खो गया? एक दिन के उपवास में दो पौंड वजन आप अपना पचा गए, अपनी चर्बी खा गए दो पौंड। ये जीवन की सच्चाइयां हैं। इन सच्चाइयों को समझे बिना बातचीत करने से कुछ हो नहीं सकता।
मेरी अपनी समझ यह है कि बड़ा अच्छा होगा वह दिन जिस दिन हम न गाय को मारेंगे, न मच्छर को मारेंगे, न कुत्ते को मारेंगे, न बिल्ली को मारेंगे, न हिरन को मारेंगे, न बकरी को मारेंगे, बहुत अच्छा दिन होगा। लेकिन वह दिन आपके जगदगुरु शंकराचार्य और गौ-माता का आंदोलन चलाने वाले लोगों से आने वाला नहीं है। वह दिन आएगा विज्ञान की खोज से, धर्म की बकवास से नहीं आने वाला है। जिस दिन हम भोजन की जगह सिंथेटिक फूड दे सकेंगे, उस दिन वह दिन आएगा, उसके पहले नहीं आ सकता है।
और दूसरी बात भी ध्यान में रख लें। और वह दूसरी बात यह जान लेनी जरूरी है कि जिंदगी में सब नियम जरूरत से तय होते हैं। आज जरूरत...आदमी की इतनी मुश्किल हो गई है आज कि आदमी को बचाने के लिए अब मछलियों को बचाने की हम बात नहीं सोच सकते। दुखद है यह बात कि आदमी को जीने के लिए मछली मारनी पड़े! दुखद है यह बात कि कोई जानवर मारना पड़े! लेकिन यह असलियत है, आदमी को जीने के लिए इसके सिवाय कोई रास्ता नहीं है। इसका जिम्मा किस पर है?
दुनिया में जो लोग शाकाहार और वेजीटेरियन होने की बातें करते हैं, उन्होंने दुनिया को कितने शाकाहार के नये उपाय दिए? एक उपाय नहीं दिया। उन्होंने, शाकाहार के द्वारा आदमी बच सके, इसके लिए कौन सी रिसर्च की है, कौन सी खोज की है? कोई खोज नहीं की, कोई रिसर्च नहीं की। और सिर्फ शाकाहारी आदमी शरीर से कमजोर हो ही जाता है, वह कभी स्वस्थ नहीं हो सकता पूरा। जब तक कि शाकाहार के साथ कुछ और दवाइयां, कुछ और विटामिन्स न जोड़े जाएं, तब तक शाकाहारी आदमी स्वस्थ नहीं हो सकता। उसका मस्तिष्क भी कमजोर हो जाता है, शरीर भी कमजोर हो जाता है, उम्र भी कमजोर हो जाती है।
पश्चिम के लोग हमसे हर हालत में आगे बढ़ गए हैं। उसमें उनके मांसाहार का हाथ है। उनकी उम्र ज्यादा है, उनका स्वास्थ्य अच्छा है। हम पिछड़ गए हैं। यह समझने जैसी बात है कि हिंदुस्तान हजारों साल से शाकाहार की बातों में विश्वास करता रहा है। और हिंदुस्तान पर जब भी किसी मांसाहारी कौम ने हमला किया, तो हिंदुस्तान ने घुटने टेक दिए। शाकाहारियों ने अब तक मांसाहारियों को हराया नहीं है किसी भी मामले में, घुटने टेक दिए। ये सारे सत्य हैं, इन सारे सत्यों को झुठलाना आसान नहीं है।
और कोई कहता है कि गऊ तो माता है। गऊ ने तो कभी नहीं बताया कि आप उसके बेटे हैं! आप ही कहे चले जाते हैं, आप ही लगाए चले जाते हैं..गऊ माता है। आपकी किताब में लिखने से गऊ माता हो जाएगी? गऊ की तो किसी किताब में नहीं लिखा हुआ है। और मैं नहीं सोचता कि गऊ राजी होगी आपको बेटा मानने के लिए। इतनी योग्यता मैं नहीं समझता कि हम में है कि गऊ भी राजी हो जाए कि मान ले कि बेटा हैं हम उसके।
और अगर किसी और अर्थ से सोचते हों तो सभी जानवर हमारे माता-पिता हैं। विज्ञान की दृष्टि से भी, अध्यात्म की दृष्टि से भी। अध्यात्म कहता है कि आदमी की आत्मा पिछली योनियों से विकसित होकर आई है। जिस योनि से भी हम गुजरे हैं, उस योनि में हमारे माता-पिता होंगे। जरा दूर का संबंध हो गया, बाकी होंगे तो ही। विज्ञान कहता है, डार्विन कहता है कि आदमी का शरीर बंदरों से आया है, और बंदरों का शरीर और पिछले जानवरों से, और आखिर में मछली से सारे लोगों का आना हुआ है। तो डार्विन के हिसाब से भी मछली आदि माता है। फिर बाद में और माताएं होंगी और पिता होंगे।
तो अब अगर माता-पिताओं को बचाने में लग गए आप सबको, तो आप मर जाएंगे इतना पक्का है। तो या तो यह तय कर लेना चाहिए कि माता-पिताओं को बचाना है..मछली को, गऊ को, फलां को, ढिकां को..सबको बचाना है। बचा लीजिए! तो आप मर जाइए, हम मना न करेंगे। लेकिन आप कहें कि हमको भी बचाओ और गऊ माता को बचाओ! अब ये दोनों अभी संभव नहीं हो सकते।
लेकिन मुल्क का राजनीतिज्ञ हिम्मतवर नहीं है। वह जानता तो है कि गऊ माता को बचाया नहीं जा सकता, लेकिन डरता भी है कि वोट देने वाला गऊ माता का भक्त है। तो वह ऊपर से कहे चला जाता है..बचाएंगे, जरूर बचाएंगे! और वह गऊ माता का आंदोलन चलाने वाले भी सब चालाक हैं। वे भी समझते हैं कि आदमी को फिजूल की बातों से भड़काया जा सकता है कि गऊ माता खतरे में है।
इधर मनुष्य खतरे में है, इसकी उन्हें फिकर नहीं है। आदमी मर जाए, इसकी फिकर नहीं है। गऊ माता खतरे में है, इसकी फिकर है। और आदमी की जिंदगी के असली सवालों से डेविएट करते हैं, ये सारे लोग बहुत खतरनाक हैं। आदमी की जिंदगी में जब असली सवाल हैं, उनको हल करने का तो उपाय नहीं खोजेंगे, बेकार की बातें उठाएंगे। घर में आग लगी है और वे फर्नीचर जमाने की बात कर रहे हैं कि फर्नीचर इस तरह का होना चाहिए, यह हिंदू विधि है। और यह गैर-हिंदू विधि है, इस ढंग का फर्नीचर हम नहीं जमने देंगे। और घर में आग लगी है! अब फर्नीचर तुम कैसे ही जमाओ, सब जल जाएगा, जब घर में आग लगी हो।
तो हमें यह भी समझ होनी चाहिए कि जिंदगी के सामने प्रिआरिटी क्या है? पहला महत्वपूर्ण सवाल क्या है? महत्वपूर्ण सवालों का भी हमें ख्याल नहीं है। सारी दुनिया हम पर हंसती है। जब उसको पता चलता है कि हम गऊ माता को बचाने का आंदोलन चला रहे हैं, तो सारी दुनिया के लोग हैरान होते हैं कि ये खुद को बचाने का आंदोलन कब चलाएंगे! बीस साल में तो ये खत्म हो जाएंगे!
नहीं लेकिन, आदमी से हमें कोई मतलब नहीं है। न हमारे शंकराचार्य को मतलब है, न हमारे साधुओं को मतलब है, न हमारे धार्मिकों को मतलब है। उन्हें अपनी किताबों से मतलब है कि उनकी किताब में क्या लिखा हुआ है! बस उस किताब के हिसाब से सब चलना चाहिए।
नहीं, किताबें आदमी से ज्यादा कीमती नहीं हैं। और जरूरत पड़ेगी तो सारी किताबों को अलग फेंक देना पड़ेगा, आदमी को बचाना पहली बात है। आदमी किताबों के लिए नहीं है, किताबें आदमी के लिए हैं। और आदमी सबसे पहली बात है।
इसका यह मतलब नहीं है कि मैं कह रहा हूं कि गऊ की हत्या आप करें। मैं यह कह रहा हूं, ऐसी व्यवस्था बनाएं, जिसमें आप भी बच सकें, गऊ भी बच सके, मच्छर भी बचे, मछली भी बचे, बहुत अच्छा है। लेकिन जब तक यह व्यवस्था नहीं बन गई है, तब तक आदमी पहली प्रिफरेंस है, आदमी को पहले बचाना होगा! इसके बाद किसी और को बचाया जा सकता है। और हम कभी गौर से सोचें तो हमें ये चीजें साफ हो सकती हैं।
लेकिन सोचने की हमारी तैयारी नहीं है। और हम सोचने से कतराते हैं और डरते हैं।

आज एक सज्जन आए। उन्होंने कहा कि आपने यज्ञ को बेकार कहा, इससे बड़ा दिल को धक्का पहुंच गया।

आपका दिल बड़ा कमजोर है, इसमें मेरा क्या कसूर! अपने दिल को ताकतवर बनाने के लिए थोड़ी दवाइयां खाइए! मैंने यज्ञ को बेकार कहा, आप उसे काम का है यह सिद्ध करें, तब तो मेरी समझ में आता है। आप कहें कि बेकार कह देने से हमारे दिल को धक्का पहुंच गया, तब तो बड़ी मुश्किल बात है। आप अपने दिल के लिए इलाज का इंतजाम करिए। लेकिन यज्ञ सार्थक है अगर यह सिद्ध करिए, तो मैं मानने वाला पहला आदमी हो जाऊंगा जो स्वीकार कर लूं कि सार्थक है। अगर यज्ञ से पानी गिर सकता हो तो मैं पागल हो गया हूं जो पानी गिरवाने के लिए राजी न हो जाऊं! बिल्कुल राजी हो जाऊंगा। लेकिन आप विज्ञान की प्रयोगशाला में सिद्ध तो नहीं कर पाते।

अब एक मित्र ने पूछा है कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि यज्ञ से कुछ ऐसा वातावरण पैदा होता हो कि वैज्ञानिक आधार से पानी गिर जाता हो?

यह सिद्ध करके बताइए। ऐसा हो नहीं सकता का सवाल नहीं है, अब तक ऐसा हुआ नहीं है। आप, विज्ञान की प्रयोगशालाएं मुल्क भर में खड़ी हैं, हर कालेज, हर यूनिवर्सिटी में विज्ञान की लेबोरेट्री है, वहां जाइए और यज्ञ करके अपना सिद्ध कर दीजिए। अगर आप यज्ञ करके सिद्ध कर देंगे, सारी दुनिया आपके पैर छुएगी और कहेगी कि आपने बड़ी ऊंची तरकीब खोज ली। हमको बहुत परेशानी उठानी पड़ती है, आपका फार्मूला बहुत आसान है। लेकिन सिद्ध करिए! आपकी किताब में लिखा है, इससे कोई सिद्ध नहीं होता। आप मानते हैं, इससे कुछ सिद्ध नहीं होता। आपके दिल को चोट पहुंचती है, इससे कुछ सिद्ध नहीं होता।

एक सज्जन दोपहर में मुझे लिख कर दे गए कि आपने बेकार कहा, वहां तक भी ठीक था। आपने यह भी कह दिया कि कोई आदमी जमीन पर जूता घिस रहा है, जिस तरह उससे पानी गिरने का कोई संबंध नहीं है, इसी तरह यज्ञ से कोई संबंध नहीं है। इससे बड़ा अनुचित हो गया।

मैं फुर्सत में नहीं था, जल्दी में था, वे सज्जन चले गए, मैं उनसे पूछ नहीं पाया कि वे यज्ञ को प्रेम करने वाले आदमी थे कि जूते को प्रेम करने वाले आदमी थे..अन्याय किसके साथ हुआ? पीछे मैंने सोचा तो मुझे ख्याल आया कि जूते के साथ अन्याय हो गया। यह उदाहरण मुझे देना नहीं चाहिए था। क्योंकि जूते का तो कुछ काम भी है, यज्ञ का उतना भी काम नहीं है। जूते का तो कुछ उपयोग भी है, यज्ञ का उतना भी उपयोग नहीं है।
लेकिन हमारे मन में भावनाएं घर किए बैठी हैं। हम बौखला उठते हैं, बस सुनते से ही बौखला उठते हैं। सोचने-समझने की तैयारी नहीं है।
सोचने-समझने की कमजोरी अगर आप दिखाएंगे तो दुनिया आपके इस हृदय की कमजोरी से कोई लाभ उठाने वाली नहीं है। आप सिर्फ नासमझ समझे जाते हैं।
प्रयोग करके बताइए! विज्ञान की प्रयोगशालाएं सामने पड़ी हैं, बड़े मजे से आ जाइए, प्रयोग करिए, पानी गिरा कर बता दीजिए। हम सब आदर करेंगे, स्वीकार करेंगे, यज्ञ की साइंस बन जाएगी। लेकिन वह तो कुछ बनता नहीं, लाखों रुपये जलवा देते हैं गरीब और नासमझ लोगों के। लाखों रुपये फुंकवा देते हैं, घी फुंकवा देते हैं, अन्न जलवा देते हैं, और कोई भी यह नहीं पूछता कि यज्ञ तो हो गया, पानी कहां है? यज्ञ तो हो गया, विश्व-शांति कहां हुई इससे? यह यज्ञ तो हो गया, इससे दुनिया में शांति कहां आई? यह कोई भी नहीं पूछता।
बड़े मजे की बात है, इतने यज्ञ हमने किए, परिणाम कहां हैं? और जमीन पर हिंदुस्तान ने जितने यज्ञ किए हैं, और किसी ने तो नहीं किए। अगर यज्ञों का कोई फल हो सकता था तो हम सबसे ज्यादा समृद्ध होते। लेकिन हमारी शक्लें कहती हैं कि हम सबसे ज्यादा गरीब हालत में हैं दुनिया में आज। और उन्होंने कोई यज्ञ नहीं किए..न रूस ने कोई यज्ञ किए, न अमेरिका ने कोई यज्ञ किए। भगवान मालूम होता है यज्ञ न करने वाले लोगों से बड़ा प्रसन्न है। और हम यज्ञ करते-करते मर गए, हमसे कोई प्रसन्नता नहीं मालूम होती। ऐसा लगता है कि भगवान हमारी बुद्धि पर भी बहुत नाराज है।
असल में अबुद्धि पर भगवान को भी नाराज होना ही चाहिए। वह भी हैरान होगा हमारे यज्ञों को देख-देख कर। अगर कहीं है तो वह भी सोचता होगा कि इनके दिमाग कब सुधरेंगे? पांच हजार साल से करते-करते इनमें अक्ल आएगी कभी कि नहीं आएगी?
मैं नहीं कहता हूं कि यज्ञ गलत है। मैं कहता हूं, सिद्ध करके बताइए! प्रयोगशालाएं खुली पड़ी हैं। अपने पंडितों को लिवा लाइए, अपने वेद के करने वालों को लिवा लाइए, अपने यज्ञ-हवन करने वालों को लिवा लाइए, और वहां प्रयोग करके सिद्ध कर दीजिए! विज्ञान तो खुली दुनिया है, वहां जो सिद्ध कर देता है वह स्वीकृत हो जाता है। वहां कोई आग्रह नहीं है।
तो मैंने तो सिर्फ एक वैज्ञानिक बात आपसे कही है, इसमें दुख मनाने की जरूरत नहीं है। और जूता और यज्ञ में न कोई छोटा है, न कोई बड़ा है। जितना यज्ञ में भगवान है, उतना ही जूते में भी भगवान है। उधर यज्ञ भगवान, इधर जूता भगवान। सभी चीजें समान हैं, यहां कोई मूल्य-भेद नहीं है। इसलिए परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है।

एक मित्र ने पूछा है कि आपने अमेरिका की समृद्धि और अमेरिका की संपन्नता और अमेरिका के वैभव के संबंध में बहुत सी बातें कहीं। अमेरिका में हिप्पी बढ़ रहे हैं, उसके संबंध में आपका क्या ख्याल है?

असल में जहां भी बहुत संपन्नता बढ़ती है, वहां संपन्नता से ऊब भी पैदा हो जाती है। जिस दिन आप ठीक से धनी हो जाएंगे, उस दिन आपको पता चलता है धन बेकार है। असल में धन का अर्थ सिर्फ गरीब को बहुत ज्यादा मालूम पड़ता है, अमीर को बहुत ज्यादा मालूम नहीं पड़ता। जिंदगी का नियम यह है कि जो चीज हमें मिल जाती है वह बेकार हो जाती है; जब तक नहीं मिलती तभी तक हम परेशान होते हैं। बड़े महल में जो रह रहा है, उसे बड़े महल में रहने का कोई मतलब नहीं रह गया है। वह तो सड़क से निकलने वाले आदमी को लगता है कि बड़े महल का आदमी बड़े मजे में रह रहा होगा। बड़े महल का आदमी महल में आकर पाता है कि बहुत मेहनत की, लेकिन महल से कुछ तृप्ति नहीं हो जाने वाली है।
असल में धन पा लेने का सबसे बड़ा फायदा यही है कि धन पाकर पता चलता है कि धन से सब कुछ नहीं मिल सकता; कुछ शेष रह जाता है जो धन से मिल ही नहीं सकता! जिस दिन यह पता चलता है कि कुछ शेष रह जाता है जो धन से नहीं मिलता, उसी दिन बेचैनी शुरू होती है। वह बेचैनी आध्यात्मिक बेचैनी है, वह स्प्रिचुअल अनरेस्ट है।
आज अमेरिका पहली दफा उस जगह आया है, जहां व्यक्तिगत परिवार कभी-कभी आए थे। पूरा समाज पहली दफा संपन्न हुआ है, पूरा समाज पहली दफा एफ्लुएंट हुआ है। इसलिए अमेरिका के बच्चे बहुत बेचैन हो गए हैं। उनको पहली दफा यह पता चला...। आज अमेरिका के बच्चे की कोई जरूरत नहीं है, जो भी उसे चाहिए उसको मिला हुआ है। इसलिए अमेरिका के बच्चे को बड़ी तकलीफ हो रही है कि अब वह क्या करे? धन तो मिल गया है, मकान मिल गए हैं, कारें मिल गई हैं, रेडियो मिल गए हैं, खाने के लिए सब है, कपड़े हैं। अब कोई लड़ाई नहीं रही जिंदगी में, अब क्या करना है?
तो लड़के बगावती हो गए हैं! अगर उनके बाप उनसे अब कहते हैं कि तुम कालेज में पढ़ने जाओ। तो वे कहते हैं, कालेज में पढ़ने से क्या होगा? बाप कहते हैं, तनख्वाह अच्छी मिलेगी। बेटे कहते हैं, आपको अच्छी तनख्वाह मिल रही है, लेकिन जिंदगी में कोई शांति तो मालूम नहीं पड़ती! तो अच्छी तनख्वाह पाकर क्या करेंगे?
अगर गरीब बाप अपने बेटे से कहता है..पढ़ो! तो बेटे की समझ में आता है, क्योंकि गरीब बाप को वह देखता है कि बिना पढ़े बड़ी मुसीबत में जी रहा है। और गरीब बाप जब अपने बेटे को कहता है..कालेज जाओ, नहीं तो भूखों मरोगे! तो बेटे की समझ में आता है। लेकिन अमेरिका में कोई बाप अपने बेटे से यह भी नहीं कह सकता है कि अगर नहीं पढ़ोगे तो भूखे मरोगे। क्योंकि जो नहीं पढ़ रहा है वह भी भूखा नहीं मर रहा है। आज अमेरिका में मैनुअल लेबर की, साधारण श्रम की इतनी कीमत हो गई है जिसका हिसाब नहीं है। एक आदमी सात दिन काम कर ले, तो इक्कीस दिन आराम करे, फिर कोई काम की जरूरत नहीं है।
तो लड़के यह कहते हैं, हम पढ़ कर क्या करेंगे? बाप अगर कहते हैं कि बड़ी कार तुम्हारे पास होगी, बड़ा मकान तुम्हारे पास होगा। तो लड़के कहते हैं, आपके पास सब है, आपको क्या मिल गया, वह आप हमें बता दें! हमारे पास भी होगा तो क्या मिल जाएगा?
इसलिए अमेरिका में एक नई स्थिति बन गई है, वह यह है कि धन अत्यधिक होने की वजह से धन के प्रति ऊब पैदा हो गई है। वे जो हिप्पीज हैं, वह धन के खिलाफ बगावत है। असल में मेरे हिसाब में हिप्पीज उसी हालत में हैं जिसमें बुद्ध और महावीर थे। बाप से बगावत है। वह बाप की जो इस्टैब्लिशमेंट की दुनिया है, जहां सब चीजें ठहरी हुई थीं..लड़के कह रहे हैं, बेकार है तुम्हारी दुनिया! क्या करेंगे? क्या फायदा है? क्या करोगे बड़ा मकान बना कर? बड़ा मकान बना तो लिया, बड़ी कार भी है, सब कुछ है, फायदा क्या है? लड़के पूछ रहे हैं कि सब है, लेकिन तुम्हारी जिंदगी में भीतर तो कुछ भी नहीं है!
इसलिए हिप्पी को मैं बहुत सूचक मानता हूं, सिंबालिक मानता हूं। वह इस बात की खबर है कि अमेरिका के बच्चों ने अमेरिका की समृद्धि को पाकर एक नई दुनिया की खोज शुरू कर दी है। जब यह खोज शुरू होती है, तो पहले तो दुर्घटनाएं घटती हैं। क्योंकि एकदम से कोई आदमी आध्यात्मिक नहीं हो सकता; वैक्यूम पैदा हो जाता है। अमेरिका के बच्चे की जिंदगी में एक शून्य पैदा हो गया है। बाप की दुनिया बेकार हो गई और उस बेटे को कुछ पता नहीं है कि अब वह क्या करे!
तो वह शराब पी रहा है, मेस्कलीन ले रहा है, एल एस डी ले रहा है, नशा कर रहा है, नाच रहा है, वेश्याओं के घर पड़ा है, ढोल पीट रहा है, जंगलों में लेटा है। वह बाप की दुनिया बेकार हो गई और बेटे के लिए कोई रास्ता नहीं है।
लेकिन ज्यादा दिन ऐसा नहीं चलेगा, क्योंकि ये बेटे सोचना शुरू कर रहे हैं कि अब हम क्या करें? इसलिए अमेरिका में आज योग, ध्यान, धर्म, इनके बाबत बड़ा विचार है। तो अगर आपके महर्षि महेश योगी अमेरिका में जाकर गुरु बन जाते हैं, तो उनमें उनकी खुद की खूबी बहुत ज्यादा नहीं है। क्योंकि यहां वे दस शिष्य नहीं खोज सकते। उनकी खुद की खूबी नहीं है। वह असली बात दूसरी है। अमेरिका में सिचुएशन बहुत ऐसी है कि हर आदमी बेचैन है। धन पा लिया और कुछ नहीं मिला। तो अब वह खोज रहा है कि कोई और रास्ता मिल जाए, शायद ध्यान से मिल जाए, शायद प्रार्थना से मिल जाए।
तो आप जान कर हैरान होंगे कि न्यूयार्क और लंदन की सड़कों पर लड़के और लड़कियां हरि-भजन और हरि-कीर्तन करते हुए घूम रहे हैं। लड़के और लड़कियों ने सिर घुटा लिए हैं, बड़ी-बड़ी चोटियां रख ली हैं, ढोल पीट रहे हैं, तिलक लगा लिए हैं, ‘हरे कृष्ण, हरे राम,’ लंदन में और न्यूयार्क की सड़क पर भी लड़के और लड़कियां नाच कर ‘हरे कृष्ण, हरे राम’ कर रहे हैं। शायद हमारे मन को बड़ी तृप्ति मिलेगी यह जान कर। हम कहेंगे, अच्छा! तब तो हम ठीक ही कर रहे हैं।
इस गलती में मत पड़ जाना आप। अमेरिका के बच्चे अगर हरे कृष्ण और हरे राम कर रहे हैं तो उसका कारण बिल्कुल भिन्न है। उसका कारण यह है कि संसार पा लिया गया है और पाया गया कि बेकार है, बहुत कुछ उसमें मिलता नहीं। और अगर आप हरे राम और हरि-भजन करते हैं तो आप इसलिए नहीं करते कि संसार बेकार है। वह हरि-भजन भी इसलिए करते हैं कि जिस लड़की से मेरा प्रेम है, उससे विवाह हो जाए। अदालत में मुकदमा चल रहा है, वह पूरा हो जाए। लड़के को नौकरी नहीं लग रही, नौकरी लग जाए। पत्नी बीमार पड़ी है, ठीक हो जाए। वह हरि-भजन और हरि-कीर्तन सांसारिक चीजों के लिए है..हमारा हरि-भजन और हरि-कीर्तन। उनका हरि-भजन और हरि-कीर्तन संसार के बाहर ले जा रहा है। इसलिए आप बहुत प्रसन्न मत हो जाना। हमारा मन बड़ा प्रसन्न होता है कि शायद आ गए हमारे रास्ते पर वे लोग।
वे हमारे रास्ते पर नहीं हैं, उनकी स्थिति हमसे बहुत भिन्न है। वे हमारे रास्ते पर नहीं हो सकते। हम गरीब हैं, हमारा भगवान की तरफ जाना भी हमारी गरीबी ही कारण बनती है। अगर मंदिर में चले जाएं और लोगों की खोपड़ियों में खिड़कियां बनाई जा सकें, उनमें झांक कर देखें, तो मंदिर में जाने वाले सौ में से निन्यानबे आदमी किसी सांसारिक चीज को मांगने के लिए मंदिर में जाते हैं।
अमेरिका का संसार बेकार हो गया है। यह बड़ी सुखद स्थिति है कि संसार बेकार हो जाए। किसी दिन मैं चाहता हूं कि हमारा भी सौभाग्य होगा और संसार इसी तरह बेकार हो जाएगा, तो हम फिर भगवान के पास बिना कुछ मांगे जा सकेंगे..बेशर्त, अनकंडीशनल। तब हमारी प्रार्थना सीधी होगी, हम यह न कहेंगे कि रोटी मिल जाए। तब हम भगवान से कहेंगे कि अब तो तुझी को चाहते हैं, रोटी-वोटी की कोई चिंता नहीं है। तुझे जरूरत हो तो हम दे सकते हैं, बाकी हमें रोटी की कोई जरूरत नहीं है।
हिप्पी बहुत कीमती घटना है। जब भी कोई समाज समृद्ध होगा तो ऐसी घटनाएं घटनी शुरू होती हैं। अब तक कोई समाज समृद्ध नहीं था। कभी-कभी कोई परिवार समृद्ध होता था..कभी बुद्ध का घर, महावीर का घर। ये समृद्ध घर थे। इन घरों में से कोई लड़का बगावती हो जाता था। वह अपने बाप को कह देता था..बेकार है तुम्हारा राज्य, बेकार है तुम्हारा धन, बेकार हैं तुम्हारे महल, बेकार हैं ये औरतें जो तुमने इकट्ठी कर दीं, इनसे अब कुछ मतलब नहीं है। वह निकल भागता था।
असल में यह बड़े मजे की बात है कि जो चीजें हमें मिल जाएं वे सदा बेकार हो जाती हैं। इसलिए अगर किसी प्रेमी को उसकी प्रेयसी मिल जाए तो फिर वह मिल कर पछताता है, न मिले तो जिंदगी भर प्रेम जारी रहता है।
मैंने सुना है, एक पागलखाने में ऐसा हुआ कि एक आदमी पागलखाने का अध्ययन करने गया और पागलखाने के सुपरिनटेंडेंट ने उसे एक आदमी को दिखाया जो सींकचों के भीतर बंद था। उस आदमी ने सुपरिनटेंडेंट से पूछा कि यह आदमी क्यों पागल हो गया? आदमी बड़ा भला मालूम पड़ता है। एक तस्वीर लिए है, आंख से आंसू बह रहे हैं और कुछ कविता कर रहा है। तो उस सुपरिनटेंडेंट ने कहा कि यह आदमी बड़ा प्रेमी है। इसकी प्रेयसी इसको नहीं मिली, इसलिए यह पागल हो गया।
समझ में आने वाली बात थी। वे दोनों आगे बढ़ गए। दूसरे कटघरे में एक दूसरा आदमी बंद है और छाती पीट रहा है और बाल नोंच रहा है। उस आदमी ने पूछा, इस आदमी को क्या हो गया? इसको भी इसकी प्रेयसी नहीं मिली? उसने कहा कि नहीं, इसको इसकी प्रेयसी मिल गई इसलिए पागल हो गया। और सुपरिनटेंडेंट ने बताया कि एक ही औरत दोनों की प्रेयसी थी। वह जिसको नहीं मिली, वे न मिलने से पागल हो गए! ये सज्जन मिलने से पागल हो गए!
जिंदगी बहुत अजीब है! धन न मिले तो धन को पागलपन रहता है पाने का। मिल जाए तो पता चलता है कि ठीक है। धन की एक जरूरत है, लेकिन धन जिंदगी का अंत नहीं है। लेकिन जब पेट भूखा हो तो अंत मालूम पड़ता है। रोटी की जरूरत है, लेकिन रोटी जीवन का अंत नहीं है। लेकिन जब पेट खाली हो तो रोटी ही लक्ष्य मालूम होती है। जब पेट भर जाए तब रोटी बिल्कुल भूल जाती है। किसको याद रही है रोटी! भरे पेट आदमी को रोटी कभी याद नहीं रही, रोटी भूल जाती है। और तब भरा पेट आदमी दूसरी बातें सोचता है..शतरंज खेलूं? मछली मारूं? वीणा बजाऊं? बांसुरी फूंकूं? ध्यान करूं? क्या करूं? दूसरी मुसीबतें तत्काल शुरू हो जाती हैं।
असल में आदमी बिना मुसीबत के नहीं रह सकता। वह नई मुसीबतें खोजता है। मैं इसमें बुरा भी नहीं मानता, मुसीबतें खोजनी ही चाहिए। जिंदगी का मतलब ही यह है कि नई चुनौती, नया चैलेंज। लेकिन मुसीबतें ऊंचे किस्म की हों, इतनी आकांक्षा तो की ही जा सकती है। गरीब मुल्क की आकांक्षाएं बड़ी नीचे किस्म की होती हैं, वे रोटी-रोजी के आस-पास घूमती रहती हैं।
अब एक सज्जन आज मेरे पास आए। उन्होंने कहा कि मन बड़ा अशांत है, तो शांति का कोई उपाय बता दें!
मैंने कहा, पहले अशांति का कारण तो बता दें।
तो उन्होंने कहा कि कोई बीस हजार रुपये का कर्ज हो गया।
अब बीस हजार का कर्ज ध्यान से तो मिट नहीं सकता, कोई उपाय नहीं है। बीस हजार का कर्ज तो बीस हजार से ही मिटेगा। अब अगर वे अपनी अशांति मुझे न बताएं और मैं उनको बताऊं कि भई मन को शून्य कर लो, निर्विचार कर लो। तो वह कैसे निर्विचार होने वाला है, वह बीस हजार का आंकड़ा तो घूमता ही रहेगा! और वे मुझे अगर न बताएं तो मैं भी गलती में पडूंगा, मैं समझूंगा कि मन में अशांति है। मन में अशांति नहीं है, परिस्थिति में अशांति है।
जिस दिन परिस्थिति की अशांति समाप्त होती है, उस दिन मनःस्थिति की अशांति शुरू होती है। वह बड़ी ऊंची बात है। हमारे मन अशांत नहीं हैं, हमारे शरीर अशांत हैं। अमेरिका का मन अशांत है।
लेकिन हिंदुस्तान के साधु-संन्यासी हिंदुस्तान में समझाते हैं कि देखो, अमेरिका को क्या मिल गया! उनके मन तो बहुत अशांत हैं। वे तो पागल हो जाते हैं। मनोवैज्ञानिक से चिकित्सा करवाते हैं। मन के डाक्टरों की संख्या बढ़ती जाती है। तो हमें बड़ी खुशी होती है।
लेकिन ध्यान रहे, शरीर के डाक्टर की संख्या से मन के डाक्टर की संख्या जितनी ज्यादा होती है, समझना आदमी शरीर के ऊपर मन की तरफ चला गया। शरीर का डाक्टर कम होता जाना चाहिए, मन का डाक्टर बढ़ना चाहिए। यह ऊंचाई है, यह एवोल्यूशन है, यह विकास है। अब आदमी को शरीर की तकलीफ नहीं, अब मन की तकलीफ है। और इससे भी ऊपर जब आदमी उठता है तब आत्मा की तकलीफ शुरू होती है। आत्मा की तकलीफ ही मनुष्य को धार्मिक बनाती है।
अभी अमेरिका आत्मा की तकलीफ की तरफ एक कदम हमसे आगे है। हम एक कदम पीछे हैं। हमारी तकलीफ शरीर की है। अभी हमारी शरीर की तकलीफ मिटे तो मन की तकलीफ शुरू होती है, नहीं तो नहीं होती।

एक मित्र ने पूछा है कि आप इतनी तारीफ कर रहे हैं संपन्न मुल्कों की, लेकिन वहां तो चरित्रहीनता, भ्रष्टाचार। नैतिकता नहीं है। और लोग इतने अशांत, तनाव से भरे, मेंटल टेंशन है।

उसके कारण हैं। और मैं कहूंगा कि आप भी उस जगह पहुंच जाएं तो अच्छा है। उसके दो-तीन कारण हैं। पहली बात तो यह है कि जैसे ही व्यक्ति का शरीर तृप्त होता है, वैसे ही उसका मन अतृप्त होता है। स्वाभाविक है। अगर आपको जिंदगी में सब सुविधा मिल जाए तो आपको सुविधा से भी परेशानी शुरू हो जाएगी।
आप एक महल में बिठा दिए गए हैं, सब सुविधा है। खाना है, पीना है, सब जो आपको चाहिए, तत्काल मौजूद है। बस अब आप परेशान होने शुरू हो जाएंगे कि अब मैं क्या करूं? अब करने को कुछ नहीं बचा। आपका मन अशांत होना शुरू हो जाएगा।
अमेरिका में मन अशांत है। लेकिन मन अशांत हो तो अच्छा है। मन को शांत करना बहुत आसान है, क्योंकि मन को शांत करना समझ से हो जाता है। लेकिन शरीर को शांत करना समझ से नहीं होता, शरीर को शांत करने के लिए सुविधा जरूरी है। इसलिए अमेरिका बहुत जल्दी अपने मन को शांत करने के करीब ले आएगा, उसमें बहुत अड़चन नहीं है।
दूसरी बात, अमेरिका में हमें अनैतिकता दिखाई पड़ती है और हम अपने को, अपने आपको नैतिक मालूम पड़ते हैं, यह बड़ी भ्रांति है। असल में कठिनाई क्या है कि हमारी नैतिकता की परिभाषाएं बड़ी अलग-अलग हैं। अगर एक आदमी सिगरेट पीता है, तो हम कहते हैं अनैतिक हो गया।
अब सिगरेट पीने से अनीति का कोई भी संबंध नहीं है, दूर का भी संबंध नहीं है। एक आदमी धुआं भीतर ले जाता है, बाहर निकालता है, इससे अनीति कैसे हो जाएगी? हां, अगर किसी के मुंह पर निकालता हो या किसी की आंख पर धुआं फेंकता हो, तो अनीति हो सकती है। अपने ही फेफड़े में बेचारा धुआं भरे और निकाले, तो बेवकूफी हो सकती है, अनीति नहीं हो सकती। यह नासमझी हो सकती है। यह आदमी, दिमाग इसका थोड़ा ढीला है कि धुआं भीतर ले जाता है और बाहर निकालता है। इस पर पैसा खर्च करता है..धुआं निकालने, ले जाने पर। मगर इसमें अनीति नहीं है, इसमें इम्मारेलिटी बिल्कुल नहीं है। इसमें इम्मारेलिटी क्या है?
बल्कि खतरा यह है कि इस आदमी को अगर कसम दिलवा दी जाए मंदिर में कि तुम धुआं निकालने का काम बंद करो, नहीं तो नरक जाना पड़ेगा! तो यह आदमी है तो बुद्धू, नहीं तो धुआं निकालने का काम न करता, इसका बुद्धूपन नहीं बदलेगा, यह धुआं निकालना बंद कर देगा, लेकिन कोई दूसरा बुद्धूपन शुरू करेगा जो ज्यादा खतरनाक हो सकता है।
आप यह जान कर हैरान होंगे कि हिटलर सिगरेट नहीं पीता था, हिटलर मांस नहीं खाता था, हिटलर अंडा नहीं खाता था, हिटलर शराब नहीं पीता था, बड़ा अच्छा आदमी था। लेकिन सारी दुनिया में जितनी हत्या उसने की, उतनी दुनिया में कभी किसी आदमी ने नहीं की। अब मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि हिटलर अगर थोड़ी सिगरेट पीता होता, थोड़ा मांस खाता होता, शराब पीकर किसी नाचघर में थोड़ा नाच आता, तो दुनिया का बड़ा हित होता। क्योंकि उसके बहुत से रोग इस तरह निकल जाते, उसकी बेवकूफियां गिर जातीं, इकट्ठी न होतीं।
तो हमारी परिभाषा क्या है नैतिकता की? मैं नहीं मानता कि सिगरेट पीने वाला आदमी अनैतिक है। इतना मैं मानता हूं कि यह आदमी बेचैन है, नासमझ है। और इस आदमी को अकेले में रहने में परेशानी होती है तो सिगरेट की दोस्ती उसने खोज ली..धुआं निकालने का काम..यह आकुपेशन है इनोसेंट, बिल्कुल निर्दोष व्यस्तता है। इसमें क्या बुराई है?
हां, अगर कुछ भी बुराई है तो इस आदमी को खुद थोड़ा-बहुत नुकसान पहुंचता है। एक आदमी बीस साल अगर दिन में रोज बारह सिगरेट पीए, तो बीस साल में जितनी सिगरेट पीता है, उतनी सिगरेट का इकट्ठा जहर अगर दिया जाए तो कोई आदमी मर सकता है। हालांकि एक सिगरेट पीने से कोई नहीं मरता। बीस साल एक आदमी बारह सिगरेट रोज पीए, इतनी सिगरेटों का निकोटिन इकट्ठा निकाल लिया जाए और किसी आदमी को दिया जाए तो कोई मर सकता है। लेकिन बीस साल पीने से भी कोई नहीं मरता। हां, शायद साल-छह महीने की उम्र कम हो जाती हो। लेकिन यह नुकसान उसका अपना है। और आदमी को अपने को नुकसान पहुंचाने का हक है। सिर्फ दूसरे को नुकसान पहुंचाने का हक नहीं है। अनीति वहां से शुरू होती है, जहां से हम दूसरे को नुकसान पहुंचाते हैं।
अब एक आदमी अगर रोज एक प्याली शराब पीकर रात सो जाता है, तो अनैतिक क्यों हो गया? असल में सारी दुनिया में जहां शराब पीना साधारण पेय है, वहां शराब के नुकसान बहुत कम होते हैं। जिन मुल्कों में शराब साधारण पेय नहीं है, वहां नुकसान बहुत ज्यादा होते हैं। जिन मुल्कों में शराब लोग घर में साधारणतः पीते हैं, सो जाते हैं, खाने के साथ लेते हैं, वहां सड़कों पर शराब पीकर गिरा हुआ आदमी नहीं मिलेगा। सिर्फ उन मुल्कों में शराब पीकर सड़कों पर गाली बकते हुए, गिरे हुए लोग मिलेंगे, जहां लोगों ने शराब को साधारण पेय नहीं बनाया है। असल में जो चीज साधारण हो जाती है, उसका आकर्षण कम हो जाता है। और जो चीज साधारण नहीं होती, उसका आकर्षण बहुत बढ़ जाता है।
हिंदुस्तान में शराब का इतना ज्यादा जो दुष्परिणाम होता है, उसका कारण शराबी नहीं है, हिंदुस्तान के महात्मा हैं..जो समझा रहे हैं कि शराब बहुत बुरी चीज है, बहुत बुरी चीज है, बहुत...। तो आदमी रोकता, रोकता, रोकता, एक दिन जब पीता है तो फिर पूरी तरह पीकर सड़क पर ही गाली बकने लगता है। जो चीज बहुत बुरी है उसे थोड़ी-थोड़ी मात्रा में सबको देते रहना चाहिए ताकि ज्यादा मात्रा में लेने की स्थिति न बने। और ऐसे शराब बुरी है भी नहीं, थोड़ी-बहुत शराब शरीर के लिए स्वास्थ्यपूर्ण है। अच्छे किस्म की शराब शरीर के लिए हितकर है, बुरे किस्म की शराब अहितकर है।
तो अगर मुझसे कोई पूछने आए तो उससे मैं कहूंगा, पीना हो तो अच्छे किस्म की शराब पीना और थोड़ी मात्रा में पीना जो फायदा पहुंचाए। ज्यादा मात्रा में बुरे किस्म की शराब नुकसान पहुंचाती है। लेकिन यह कोई अच्छा आदमी कहने को राजी नहीं है। अच्छे आदमी चिल्लाए चले जाते हैं..शराब पीना बुरा है। बुरे आदमी पीए चले जाते हैं। इन दोनों के बीच कोई तालमेल नहीं बैठ पाता।
सरकारें चिल्लाती रहती हैं..शराब बंद करेंगे। जहां शराब बंद होती है वहां रद्दी शराब बिकनी शुरू हो जाती है। मुल्क को ज्यादा नुकसान पहुंचता है।
सरकार का कर्तव्य होना चाहिए कि अच्छी से अच्छी शराब कम से कम दामों में अधिकतम सुविधा से अधिकतम लोगों को मिल सके। तो शराब के सारे नुकसान खत्म हो जाते हैं। शराब में ऐसा कोई नुकसान नहीं है। और अगर फिर भी कोई नुकसान हो तो विज्ञान इतना विकसित हो गया है कि हम शराब से वे तत्व बाहर कर सकते हैं जिनसे नुकसान होता है।
आदमी को थोड़ी दूर अपने को भूल जाने की सुविधा देना बुरा नहीं है। क्योंकि आदमी इतना बेचैन और परेशान है कि अगर वह चैबीस घंटे अपने को याद रखे तो पागल हो सकता है। थोड़ी-बहुत देर के लिए अपने को भूल जाता है तो अच्छा है।
आप जान कर यह हैरान होंगे कि आमतौर से थोड़ी-बहुत शराब लेने वाले लोग अच्छे किस्म के होते हैं। जो लोग न सिगरेट पीते, न पान खाते, न बीड़ी पीते, न गाली बकते, न शराब पीते, न होटल में जाते, न नाचते, आमतौर से इस तरह के आदमी बहुत बुरे किस्म के आदमी होते हैं। इस तरह के आदमियों से दोस्ती तक बनाना मुश्किल हो जाता है। इस तरह के आदमी दोस्त नहीं बन सकते। इस तरह के आदमी भीतर से बहुत कठोर और दुष्ट किस्म के होते हैं। और उनकी दुष्टता से बहुत दुष्परिणाम होते हैं।

आपने पी है?

बिल्कुल चैबीस घंटे पीए हुए बैठा हूं। लेकिन जरा शराब मैंने बहुत अच्छे किस्म की खोज ली, उसको बाजार से खरीदना नहीं पड़ता!

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

मेरी बात सुन लें, मेरी बात सुन लें, आपको न पीनी हो तो आप मत पीना।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

मेरी पूरी बात सुन लें। यहां मालूम होता है, दो-चार शराबी आ गए हैं, तो उनको तकलीफ हो गई है। उनको थोड़ी बात समझ लेने दें।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

आप लिख कर दे दें, भेज दें जो भी बात करनी हो। इतने लोगों के साथ अनैतिक व्यवहार न करें। आप लिख कर भेज दें। इतने लोगों के साथ दुव्र्यवहार न करें।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

मैं अपनी बात पूरी कर लूं, फिर आप बोलें।
मैं आपसे कह रहा था कि आदमी की जिंदगी में इतनी चिंताएं हैं, आदमी की जिंदगी में इतने तनाव हैं कि यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि आदमी इन तनावों और इन परेशानियों और इन चिंताओं को थोड़ी देर के लिए भूलना चाहे। अगर आदमी इन चिंताओं और परेशानियों को न भूल सके, तो ये चिंताएं और परेशानियां इतनी इकट्ठी हो सकती हैं कि इनके परिणाम घातक हों। तो दो ही उपाय हैं। एक उपाय तो यह है कि आदमी अपनी जिंदगी में चिंता और परेशानियों को पैदा न होने दे। ऐसे लोग बहुत कम हैं, उनको शराब पीने की दुनिया में कभी कोई जरूरत नहीं पड़ी है। किसी नानक को शराब पीने की जरूरत न पड़ेगी। लेकिन कारण दूसरा है, नानक ने कोई और गहरी शराब पी ली है जो इस बाजार में नहीं मिलती है और इसलिए उनकी जिंदगी में अब कोई चिंता नहीं रह गई है।
लेकिन साधारण जो आदमी हैं, इनको उस शराब का तो कोई पता नहीं है। उस शराब का इन्हें पता चल जाए, तब तो इन्हें किसी बेहोशी की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन यह जो साधारण आदमी है, सारे यूरोप में, सारे अमेरिका में..हिंदुस्तान को छोड़ कर सारी दुनिया में..सहजता से शराब पी रहा है। इसके सहजता से शराब पीने को मैं अनैतिकता नहीं कहता! अनैतिकता इसलिए नहीं कहता कि एक आदमी को अपने को भूलने का हक है!
हां, अगर मैं अपने को भूल कर आपको नुकसान पहुंचाऊं तो अनीति शुरू हो जाती है। अनीति का मतलब ही यह है कि जहां मैं ट्रेसपास करता हूं, जहां मैं अपनी जिंदगी से हट कर दूसरे की जिंदगी में प्रवेश करता हूं और नुकसान पहुंचाता हूं, वहां से अनीति शुरू हो जाती है। वहां तक जहां तक मैं अपने भीतर सीमित हूं, मैं कोई अनीति नहीं करता हूं। जो मैं समझा रहा था, वह आपको यह समझा रहा था कि पश्चिम में अनीति है या नहीं है, यह हमारी व्याख्या पर निर्भर करेगा कि हम किस चीज को अनीति कहते हैं।
अब यह बात हमें अनीति मालूम पड़ती है कि पश्चिम के अधिक लोग शराब पीते हैं। यह हमें अनीति मालूम पड़ती है, क्योंकि हमारी व्याख्या ऐसी है कि जो आदमी शराब पीता है वह अनैतिक है। लेकिन हमें अंदाज नहीं है कि दुनिया के सारे ठंडे मुल्कों में बिना शराब के तो जिंदा रहना भी असंभव है। अगर कोई तिब्बत में बिना शराब के जिंदा रहना चाहे, तो मुश्किल है मामला! अगर कोई साइबेरिया में बिना शराब के जिंदा रहना चाहे, तो जिंदा नहीं रह सकता! क्योंकि साइबेरिया में शराब नशा लाती ही नहीं, सिर्फ शरीर को थोड़ी सी कुनकुनाहट और थोड़ी सी गर्मी देती है, और कुछ भी नहीं करती। हमारे जैसे मुल्क में, गर्म मुल्क में, ठंडे मुल्क की शराब जरूर नुकसान करती है। और उसका कारण यह नहीं है कि शराब नुकसान करती है। उसका कुल कारण यह है कि हम गर्म मुल्क के योग्य शराब विकसित नहीं कर सके। अगर हम गर्म मुल्क के योग्य शराब विकसित कर सकें, तो शराब का सारा नुकसान समाप्त हो जाता है।
आप जान कर हैरान होंगे कि शायद ही कोई टॅानिक हो जिसमें बीस परसेंट, पंद्रह परसेंट, दस परसेंट शराब न हो। लेकिन आप टॅानिक पीते वक्त कभी ख्याल नहीं करते कि शराब पी रहे हैं। सारी शराब टॅानिक बन सकती है। जो मैं कह रहा हूं, वह यह नहीं कह रहा कि आप शराब पीने लगें। मेरे मित्रों को जो तकलीफ हुई वह इसीलिए हो गई कि शायद मैं लोगों को शराब पीना समझा रहा हूं।
मेरे समझाने की जरूरत नहीं है, लोग मेरे बिना समझाए मजे से पी रहे हैं। रोकने की ताकत भी नहीं है किसी में, कोई रोक भी नहीं पा रहा है। जो मैं कह रहा हूं वह तो यह कह रहा हूं कि अगर मेरी बात समझ में आ जाए, तो शराब के पीने का नुकसान कम हो सकता है, शराब के पीने की हानि कम हो सकती है। हम ऐसी शराब भी विकसित कर सकते हैं जो स्वास्थ्यप्रद हो और हानि न पहुंचाती हो।
और जिनको पीना है, अगर वे अपने से अतिरिक्त किसी को नुकसान पहुंचाने नहीं जाते हैं, तो किसी को कोई हक नहीं है कि उनको पीने से रोके। हक वहीं शुरू होता है जहां वे किसी को नुकसान पहुंचाते हैं।
यह नुकसान बहुत तरह का हो सकता है। एक आदमी किसी को जाकर शराब के नशे में चोट मार दे सिर पर, तो भी नुकसान होता है। अगर एक आदमी अपनी पत्नी के साथ शराब पीकर दुव्र्यवहार करे, तो भी दूसरे को नुकसान होता है। एक आदमी अगर शराब पीकर नौकरी छोड़ दे और उसके बच्चे भूखे मरने लगें, तो भी दूसरे को नुकसान होता है। इन सारी स्थितियों में यह शराब पीना अनैतिक हो गया।
लेकिन एक आदमी की शराब अगर उसके स्वास्थ्य को नुकसान न पहुंचाए, अगर उसकी पत्नी और उसके बीच संबंध बिगड़ने की बजाय अच्छे बनें, अगर उसका काम दूसरे दिन दफ्तर जाकर वह और आराम से कर सके, तो मैं नहीं मानता हूं कि ऐसी शराब ने किसी तरह का अनैतिक काम किया। अनीति का अर्थ ही यह है कि हम अपने द्वारा दूसरे को कोई हानि पहुंचाएं। अगर हमारे द्वारा किसी को कोई हानि नहीं पहुंच रही, तो अनीति का कोई अर्थ नहीं है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

मैं आपसे कह रहा था कि किस बात को हम अनैतिक कहें, नीति और अनीति की हमारी परिभाषाएं हैं। मेरी दृष्टि में अनीति वहां से शुरू होती है, जहां से हम किसी आदमी को नुकसान पहुंचाना शुरू करते हैं। असल में नीति और अनीति के दो तरह के सोचने के ढंग हो सकते हैं।
एक ढंग तो यह हो सकता है कि हम व्यक्ति को रोकने के लिए नियम बनाएं। ऐसी नीति का मैं पक्षपाती नहीं हूं। मैं नीति का इतना ही अर्थ लेता हूं कि जिससे किसी व्यक्ति को अहित न हो, अमंगल न हो, किसी व्यक्ति को नुकसान न पहुंचे। हमें नीति की धारणा ऐसी बनानी चाहिए।
पश्चिम में नीति की धारणा पाजिटिव हो गई है। पूरब में नीति की धारणा अभी भी निगेटिव है। अभी भी हम सोचते हैं कि यह काम नहीं करना चाहिए, यह नैतिक हो गया। पश्चिम और तरह से सोचता है। पश्चिम सोचता है: कौन सा काम करना चाहिए जो नैतिक हो। एक आदमी शराब नहीं पीता, एक आदमी सिगरेट नहीं पीता, एक आदमी मांस नहीं खाता, ये सब नकारात्मक बातें हैं। इससे कुछ पता नहीं चलता कि वह आदमी क्या करता है। इससे इतना ही पता चलता है कि वह आदमी क्या नहीं करता है। 

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