परंपरा और धर्म
धर्म का और कोई रूप होता ही नहीं।
धम्र कभी परंपरा बनता ही नहीं,
जो बन जाता है, परंपरा वह धर्म है ही नहीं।
परंपरा तो ऐसे है जैसे आदमी गुजर गया,
उसके जूते के चिन्ह रेत पर पड़े रह गए।
वे चिन्ह जीवित आदमी तो है ही नहीं,
आदमी के जूते भी नहीं है।
जीवित आदमी तो छोड़ो,
धर्म खतरनाक है,
धर्म से ज्यादा खतरनाक और को ई चीज़ पृथ्वी पर नहीं है।
लेकिन अक्सर देखोगे भीरूओं को धार्मिक बने।
घुटने टेके, प्रार्थनाएं-स्तुति करते हुए, भय ाक्रांत।
उनका भगवन उनके भय का निचोड़ है।
धर्म तो खतरनाक ढंग से जीने का नाम है।
धर्म का अर्थ है निरंतर अभियान।
धर्म का अर्थ ही है पुराने और पीटे-पिटाए से राज़ी न हो जाना।
नए की, मौलिक की खोज।
धर्म का अर्थ है, अन्वेषण।
धर्म का अर्थ है, जिज्ञासा, मुमुक्षा।
धर्म का अर्थ है, उधार और बासे से तृप्त न हो जाना,
धर्म वेद से राज़ी नहीं होता,
जब तक अपना वेद निर्मित न हो जाए।
धर्म स्मृति में नहीं है। धर्म अनुभूति में है।
श्रुति और स्मृति। या तो सुना, या याद रखा।
लेकिन धम्र तो है, अनुभूति, न श्रुति, न स्मृति ।
--एस धम्मो सनंतनो
हिन्दी चिठठाकारीता फले-फुले!!
जवाब देंहटाएंआपका लेखन प्रकाश की भॉति दुनिया को आलोकित करे!!
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जय ब्लोग- विजय ब्लोग
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मनसा आनंद मानसजी!
धर्म स्मृति में नहीं है। धर्म अनुभूति में है।
आप द्वारा धर्म को लेकर कही बातो से मे प्रभावित हुआ
अति सुन्दर विचारो की प्रस्तुती!
आपका आभार
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हे प्रभू यह तेरापन्थ को पढे
अणुव्रत प्रवर्तक आचार्य तुलसी
मुम्बई-टाईगर
तब तो सारी पुस्तको को आग लगा देना चाहिए । स्वयं ओशो की पुस्तको को भी । यह अतिवादी सोच है । मध्यम-मार्ग अपनाना श्रेयस्कर होगा। धन्यवाद.....
जवाब देंहटाएंतो पहली बात कोई शास्त्र परंपरा नहीं है। शास्त्र के आसपास परंपरा निर्मित होती जरूर। तो परंपरा को तोड्ने का उपाय कर रहा हूं। शास्त्र को बचाना और परंपरा को तोड़ना, यही मेरी चेष्टा है। शास्त्र पर और लोग भी बोलते हैं लेकिन फर्क समझ लेना। वे परंपरा को बचाते हैं और शास्त्र को तोड़ते हैं। मैं शास्त्र को बचाता और परंपरा को तोड़ता हूं
हटाएंहां एक दम से सही, कहां महादेव जी, अगर पुस्तक अनुभुत बन जाए, जो आपको पंख दे फिर क्या कोई उनसे बंधना चाहेगा, दुनियां के सारे धर्म ग्रथं जो लोग पढ़ते है किसी काम के नहीं है, जो पढ़ते है वह पहली कक्षा के विद्यार्थी है आरे बोल रहा आईस्टीन बुद्धों के वचन केवल साधको के लिए मिल को पत्थर होते है। जो मार्ग का नक्शा दिखा सके की जब आप चलेगे तो क्या-क्या मागर् में मिलेगा, ओर हम अंधे करते है उनकी पुजा कम से कम दिमाग के अंदर न साही तो बहार तो छु कर अपने अंहकार को शांत कर ले कि हम कुछ जानते है। आपका कसुर नही है। महादेव जी, मनुष्य इतना मुढ है। इतना चालाक है खुद अपने ही हाथों अपना विनास किये जा रहा है। लिखिए कुछ थोड तो .......
जवाब देंहटाएंमनसा मानस