सत्र--14 नीत्शे और एडोल्फ हिटलर
--ओशो
हिटलर नीत्शे
त्वदीयं वस्तु गोविंदम्ा, तुभ्यमेव समर्पयेत। ‘हे प्रभु,’ यह जीवन जो तुमने मुझे दिया वह तुम्हें आभार सहित वापस समर्पित करता हूं। ये मरते समय मेरे नाना के अंतिम शब्द थे।
हालांकि उन्होंने परमात्मा में कभी विश्वास नहीं किया और पे हिंदू नहीं थे। यह वाकय, सह सूत्र हिंदू सूत्र है। लेकिन भारत में सब चीजें घुल मिल गई है। विशेषकर अच्छी बातें। मरने से पहले अन्य बातों के बीच उन्होंने एक बात बार-बार कहीं, ‘चक्र को रोको।’
उस समय तो मैं यह नहीं समझ सका अगर हम गाड़ी का चाक रोक दें और उस समय वहां पर तो केवल बैलगाड़ी का चक्र-चाक था। तो हम अस्पताल कैसे पहुंच सकेंगे। जब उन्होंने बार-बार कहा कि चक्र को रोको तो मैंने अपनी नानी से पूछा ’क्या नाना जी का दिमाग खराब हो गया है।’
वे हंस पड़ी। उनकी यही विशेषता मुझे बहुत पसंद थी। मेरी तरह वे भी जानती थीं कि मृत्यु बहुत निकट है। जब मुझे तक मालूम था तो यह कैसे हो सकता है कि उनको नहीं मालूम था। यह तो साफ दिखाई दे रहा था कि उनकी श्वास कभी भी बंद हो सकती है। फिर भी वे बार-बार चक्र को बंद करने के लिए कह रहे थे। नानी हंसी, मैं उनको अभी भी हंसते हुए देख सकता हूं।
उस समय वे पचास साल से ऊपर न थी। लेकिन मैंने हमेशा यह देखा है कि जो स्त्रीयां बनावटी श्रृंगार द्वारा अपने आपको सुंदर बनाती है वे पैंतालीस की उम्र में बहुत ही कुरूप दिखार्इ देती है। तुम सारी दुनिया में घूम लो कि मैं जो कह रहा हुं वह सच है या झूठ। उनकी लिपस्टिक, मेकअप, कृत्रिम भवें और न जाने क्या-क्या, है भगवान।
भगवान ने जब यह दुनिया बनाई तो उसने भी इन चीजों के बारे में नहीं सोचा था। कम से कम बाईबिल में तो यह नहीं लिखा गया कि पांचवें दिन उसने लिपस्टिक बनाई और छठ वें दिन उसने कृत्रिम भवें बनाई, आदि। अगर स्त्री सचमुच सुंदर है तो पैंतालीस वर्ष की आयु में उसका सौंदर्य चरम सीमा पर होता है। मेरा देखना है कि पुरूष पैंतीस साल की आयु में अपनी चरम सीमा पर होता है। स्त्री की आयु पुरूष से दस वर्ष अधिक होती है। और यह गलत या अनुचित भी नहीं है, बच्चों को जन्म देते समय उसे इतना कष्ट उठाना पड़ता हे कि अगर उसे थोड़ी अतिरिक्त जीवन मिला तो वह उचित है।
मेरी नानी पचास साल की थीं फिर भी उनका यौवन तथा सौंदर्य चरम सीमा पर थे। में उस क्षण को कभी नहीं भूला—वह ऐसा क्षण था, मेरे नाना मर रहे थे और हमें चक्र को रोकने के लिए कह रहे थे। मैं कैसे चक्र को रोक सकता था। हम लोगों को अस्पताल पहुंचने की जल्दी थी।
मेरे नाना ने कहां: ‘राजा चक्र को रोको। क्या तुमने सुना नहीं? अगर मैं तुम्हारी नानी की हंसी सुन सकता हूं तो तुम भी मुझे सुन सकते हो। मुझे मालूम है कि वह बहुत अद्भुत महिला है और मैं उसे कभी नहीं समझ सका।’
मैंने उनसे कहा: ‘नाना, जहां तक में जानता हूं वे सबसे सरल महिला है—हालांकि अभी मैंने दुनिया को अधिक नहीं देखा है।
लेकिन अब मैं तुमसे कह सकता हूं कि इस जमीन पर शायद ही कोई ऐसा आदमी हो, मृत या जीवित, जिसने स्त्रियों को उतना देखा हो जितना मैंने देखा है। लेकिन मरते हुए नाना को दिलासा देने के लिए मैंने उनसे कहा: ‘उनकी हंसी की आप चिंता न करें। में उनको जानता हूं। आप जो कह रहे है उस पर वे नहीं हंस रही है। मैंने उन्हें चुटकला सुनाया था, वे उस पर हंस रही है।’
उन्होंने कहा: ठीक है, अगर वे तुम्हारे चुटकुले पर हंस रही हे, तो हंसना बिलकुल ठीक है। लेकिन इस चक्र का क्या होगा।‘
अब में जानता हूं। लेकिन उस समय मैं इस पारिभाषिक शब्दावली से बिलकुल अपरिचित था। यह चक्र जीवन और मृतयु के चक्र का प्रतीक है और भारतीय विचारधारा इससे इतनी अभिभूत है, इतनी ग्रसित है कि हजारों वर्षों से लाखों लोग यही प्रयास कर रहें है कि इस चक्र को कैसे रोका जाए। वे बैलगाड़ी के चाक के बारे में नहीं कह रहे थे—उसे रोकना तो बहुत ही आसान था, बल्कि उसे चलाना मुश्किल था। वहां कोई सड़क न थी। उस समय ही नहीं थी, अब भी नहीं है। पिछले साल मेरा एक दूर का चचेरा भाई आश्रम आया था, उसने कहा: ‘मैं तो अपना सारा परिवार आपके चरणों में लाना चाहता था, लेकिन असली कठिनाई तो उस सड़क की है।’
मैंने कह: ‘अभी भी।’
करीब पचास साल बीत गए है, लेकिन भारत ऐसा देश है कि वहां समय ठहर गया है। वह आगे बढ़ता ही नहीं। न जाने घड़ी कब बंद हो गई। लेकिन वह ठीक बारह बजे बंद हुई—दोनों सूइयाँ एक साथ, यह सुंदर है घड़ी ने सही समय तय किया। जब कभी भी यह हुआ हो—और हजारों साल पहले हुआ होगा, जब कभी भी हुआ हो—घड़ी या तो संयोग से या फिर किसी कंप्यूटराइज् समझ से बारह बजे रुक् गई, दोनों सूइयाँ एक साथ। वे दोनों ये हो गई, दो तो दिखाई नहीं देती। शायद रात के बारह बजे होगें, क्योंकि देश इतने अंधेरे में हैं और इतना खराब है।‘
सिर्फ इन सड़को के कारण शायद वे मुझसे कभी नहीं मिल सकेंगे। उस समय कोई सड़क नहीं थी और आज भी उस गांव से कोई रेलवे लाइन नहीं जाती। वह बहुत ही गरीब गांव है। और जब मैं बच्चा था तब तो वह गांव और भी गरीब था।
उस समय मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि नाना बार-बार ऐसा क्यों कह रहे हैं। शायद वह बैलगाड़ी—क्योंकि वहां कोई सड़क नहीं थी—बहुत आवाज कर रही थी। सब कुछ खड़खड़ रहा था और उन्हें इतना कष्ट हो रहा था। इसलिए स्वाभाविक है कि वे पहिए को रोकना चाहते थे। लेकिन मेरी नानी हंस पड़ीं। अब मुझे मालूम है कि वे क्यों हंसी थी। नाना जिस पहिए या चक्र की बात बार-बार कर रहे थे वह जीवन और मृत्यु का चक्र हे जो निरंतर चलता रहता है। नाना भी जीवन और मृतयु के चक्र से अभिभूत इस भारतीय मानसिकता की अभिव्यक्ति कर रहे थे।
पश्चिम में केवल नीत्शे ने ही शाश्वत पुनरावृति के बारे में बोलने को साहस या पागलपन किया था। वह भी इसी पूर्वीय विचारधारा से प्रभावित था और यहीं से उसने इस विचार को उधार लिया था। यह दो ग्रंथों से बहुत प्रभावित था। पहला ग्रंथ है, मनु-स्मृति। यह मनु के वचनों को संकलन हे और बहुत महत्वपूर्ण हिंदू-शास्त्र है। मुझे इससे धृणा है। इसके महत्व को तुम समझ सकते हो। किसी भी साधारण चीज से में धृणा नहीं करता। यह तो असाधारण रूप से कुरूप है। अगर मुझे कहीं मनु मिल जाए तो मैं सारी अहिंसा को भूल कर उसे गोली मार दूँगा। वह इसी के योग्य है।‘’
मनु-संहिता, मनु-स्मृति—मैं इसको दुनिया कि सबसे कुरूप पुस्तक क्यों कहता हूं? क्योंकि वह स्त्री और पुरूष को विभक्त करती है। स्त्री और पुरूष को ही नहीं यह तो मनुष्य को भी चार वर्गों में विभक्त करती है। और कोई एक वर्ग दूसरे वर्ग में नहीं जा सकता। इसने ऊंची-नीची श्रेणियां बना दी है।
तुमको यह जान कर आश्चर्य होगा कि एडोल्फ हिटलर अपनी मेज पर अपने बिस्तर के पास सदा मनु-संहिता की एक प्रति रखता था1 वह इस पुस्तक का आदर बाइबिल से भी अधिक करता था। अब तो तुम समझ गए होगें कि मैं क्यों इससे धृणा करता हूं। मेरे पुस्तकालय में मनु-संहिता नहीं रखी गई है। मुझे इसकी कम से कम एक दर्जन प्रतियां भेंट की गई थी। लेकिन मैंने हमेशा उनको जला दिया। वही उनके साथ करने जैसा था। हां, बड़े आदर से उनको जलाया।
नीत्शे को दो पुस्तकें बहुत प्रिय थी और उनसे उसने बहुत कुछ अपनाया....। एक थी मनु-संहिता और दूसरी थी महाभारत। महाभारत बहुत विशाल ग्रंथ है। इसका आकार इतना बड़ा हे कि इसकी बराबरी दूसरी कोई ग्रंथ नहीं कर सकता—न बाइबिल, न कुरान, न धम्म पद, न ताओ तेह किंग। अगर महाभारत को ऐनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के पास रखा जाए, तो उसकी तुलना में ऐनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका बहुत छोटी दिखार्इ देगी। निश्चित ही यह बड़ा काम है। लेकिन भद्दा है, कुरूप है।
वैज्ञानिक जानते हे कि इस पृथ्वी पर विगत काल में बड़े विशाल जानवर हुआ करते थे। करीब-करीब पर्वत जितने बड़े, लेकिन भद्दे। महाभारत भी वैसे ही पशुओं जैसा है। ऐसा नहीं है कि तुम इसमें कुछ भी सुंदर नहीं खोज सकते, यह इतनी बड़ी हे कि अगर उस पहाड़ को खोद कर उसकी गहराई में देखा जाए तो कहीं-कहीं पर सौंदर्य भी दिखाई देगी।
उन दो पुस्तकों ने नीत्शे को बहुत प्रभावित किया। शायद फ्रेड्रिक नीत्शे के काम में इन दो किताबों से अधिक और कुछ जिम्मेवार नहीं है। एक मनु द्वारा लिखी गई और दुसरी महाभारत व्यास द्वारा। दोनों पुस्तकों ने बहुत काम किया है, गंदा काम। अगर ये दोनों पुस्तकें न लिखी जातीं तो अच्छा होता।
फ्रेड्रिक नीत्शे इन दोनों ग्रंथों को इतना आदर से याद करता था कि तुम्हें आश्चर्य होगा कि यह वही व्यक्ति है जिसने अपने आपको क्राइस्ट विरोधी कहा था। लेकिन इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं भी है। ये उसके विरूद्ध है—सत्य-विरोधी, प्रेम-विरोधी, यह मात्र संयोग नहीं है कि नीत्शे को ये बहुत प्रिय लगीं। उसको लाओत्से और बुद्ध कभी अच्छे नहीं लगे, लेकिन मनु और कृष्ण अच्छे लगे।
यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है। उसे मनु अच्छा लगा, क्योंकि उसे मनु द्वारा ऊंच-नीच पर आधारित किया गया लोगों का वर्गीकरण अच्छा लगा। वह प्रजातंत्र, स्वतंत्रता और समानता को विरोधी थी। संक्षेप में वह सभी सच्चे मूल्यों के विरूद्ध था। उसे व्यास की पुस्तक महाभारत भी बहुत पसंद थी। क्योंकि उसमें इस विचार का प्रतिपादन किया गया है कि कवल युद्ध ही सुंदर है। एक बार उसने अपनी बहन को पत्र लिखा था, ‘इस समय मैं असीम सौंदर्य से घिरा हुआ हूं, ऐसा सौंदर्य मैंने पहले कभी नहीं देखा। उसके इन शब्दों से तो लगता है कि शायद उसने ईड़न गार्डन में प्रवेश कर लिया हो। लेकिन नहीं, वह तो मिलिट्री परेड देख रहा था। सूर्य के प्रकाश से नंगी तलवारें चमक रही थी। और जिस आवाज को वह बहुत मधुर कह रहा था, वह बीथोवन या मोझर्ट या वेजनर को भी संगीत नहीं था। बल्कि कूच करते हुए जर्मन सैनिकों के जूतों की आवाज थी।’
वेजनर नीत्शे को मित्र था, और सिर्फ यही नहीं, इससे अधिक नीत्शे अपने मित्र की पत्नी से प्रेम करता था। उसको अपने मित्र के बारे में तो कुछ सोचना चाहिए था। लेकिन नहीं, उसको तो जर्मन सैनिकों क जूतों की आवाज वेजनर, मोझर्ट, और बीथोवन के संगीत से कहीं अधिक अच्छी लगी। उसके लिए तो सूरज की रोशनी में चमकती तलवारें और परेड करते हुए सैनिकों की आवाज अत्यंत आकर्षक थी और इनमें उसे सौंदर्य की चरम सीमा दिखाई दी। इसे कहते हैं सौंदर्य-बोध।
और याद रखना कि मैं फ्रेड्रिक नीत्शे को विरोधी नहीं हूं। मैं उसकी सराहना करता हूं—जब कभी सह सत्य के निकट पहुंचता है। लेकिन सत्य मेरा मापदंड है। जब वह सूरज में चमकती तलवारों और सैनिकों के जूतों की आवाज का वर्णन करते समय सत्य से दूर चला जाता है तब तो नंगी तलवार मैं उसके सिर पर मारूंगा।
यह तो उसके शिष्य एडोल्फ हिटलर ने किया।
हिटलर ने मनु के विचारों को नीत्शे से प्राप्त किया। हिटलर मनु के बार में नहीं जान सकता था। वह तो बौना था। नीत्शे निश्चित ही प्रतिभाशाली व्यक्ति था, लेकिन वह भटक गया। वह बुद्ध हो सकता था, लेकिन खेद कि वह पागल होकर मरा।
मैं तूम लोगों को भारतीय सनक के बारे में बता रहा था। और उस संदर्भ में मुझे नीत्शे की याद आई। पश्चिम में सबसे पहले उसी ने शाश्वत-पुनरावृति के विचार को समझा। लेकिन वह इनामदार नहीं था। उसने यह नहीं कहां कि यह विचार उधार लिया गया है। उसने मौलिक होने
का दिखावा किया मौलिकता का दावा करन बहुत आसान है, इसमें बुद्धि की कोई आवश्यकता नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं कि वह बहुत प्रतिभाशाली था, लेकिन उसने अपनी इस प्रतिभा द्वारा कोई नई खोज नहीं की। उसने अपने विचारों को ऐसे स्रोतों से उधार लिया जिनके बारे में संसार को बहुत कम जानकारी थी। मनु ने इसे लिखा था1 और महाभारत की कोन फ़िकर करता है। कोन पढ़ता है, यह इतनी बड़ी पुस्तक हे कि जब तक कोई पागल ही होना न चाहें, कोई पढ़े़गा नहीं।
लेकिन ऐसे भी लोग है जो ऐनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका पढ़ते है। मैं ऐसे एक आदमी को जानता हूं। वह मेरा व्यक्तिगत मित्र था। यह ऐसा क्षण हे कि जब कम से कम मुझे उसका नाम याद करन चाहिए। शायद वह अभी भी जीवत हो—यह मुझे डर है। लेकिन फिर भी डरने की कोई कारण नहीं है, क्योंकि वह सिर्फ ऐनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका पढ़ता है। मैं जो कह रहा हूं वह उसे कभी नहीं पढ़े़गा—कभी नहीं, उसके पास समय ही नहीं है। वह ऐनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका को पढ़ता ही नहीं याद भी करता है। और यहीं उसको पागलपन है। अन्यथा वह बिलकुल नार्मल, सामान्य लगता है। लेकिन जैसे ही कोई ऐनसाइक्लोपीडिया के किसी अंश का उल्लेख कर दे तो तत्क्षण वह असामान्य हो जाता है। और एक के बाद एक पृष्ठ उद्घाटित करने लगता है। फिर वह इसकी परवाह नहीं करता कि तुम सुनना चाहते हो या नहीं।
सिर्फ ऐसे ही लोग महाभारत पढ़ते है। यह हिंदू ऐनसाइक्लोपीडिया है। इसे ऐनसाइक्लोपीडिया इंडियाना कहना चाहिए1 स्वभावत: यह ऐनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका से बड़ा होने ही बाला है। ब्रिटेन तो सिर्फ ब्रिटेन है भारत के एक छोटे से राज्य से बड़ा नहीं है। उतने बड़े तो कम से कम भारत में तीन दर्जन राज्य है। और वह सारा भारत नहीं है, क्योंकि आधा भारत तो अब पाकिस्तान बन गया है। अगर तुम सारे भारत की तस्वीर चाहो तो तुम्हें उसमें कुछ और भाग जोड़ने पड़ेंगे।
एक समय बर्मा भारत का हिस्सा था। सिर्फ इस सदी के आरंभ में ही इसे भारत से अलग किया गया । अफग़ानिस्तान भी एक समय भारत का हिस्सा था। यह तो एक महाद्वीप है। इसलिए महाभारत, जो ऐनसाइक्लोपीडिया इंडियाना है। ऐनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका से हजार गुना बड़ा होने बाला है। इसके तो केवल बतीस खँड़ है। यह तो कुछ भी नहीं है। मैं ने जो बोला है उसको अगर तुम संग्रहीत करो तो वह उससे ज्यादा होगा। किसी और ने गिनती की है। मुझे पक्का नहीं पता क्योंकि मैं ऐसे व्यर्थ के काम नहीं करता। लेकिन उन्होंने अंदाज लगाया है कि आज तक मैंने तीन सौ तैंतीस पुस्तकें लिखी है। वाह, वह व्यक्ति जिसने गिनती की है1 उसको थोड़ा और इंतजार करना चाहिए, क्योंकि अभी तो बहुत सी पांडुलिपियाँ अप्रकाशित है। और बहुतों का मूल हिंदी से अनुवाद नहीं हुआ है। इन सबको जब एकत्रित किया जाएगा तो यह सच में ऐनसाइक्लोपीडिया रननीशीका होगा। लेकिन महाभारत सचमुच बहुत बड़ा है और वह सदा दुनिया का सबसे बड़ा ग्रंथ बना रहेगा—मेरा मतलब उसके आकार और वज़न से हे।
इसका उल्लेख मैंने इसलिए किया क्योंकि मैं जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त होने की भारतीय मानसिकता की बात कर रहा था। महाभारत में विशद-रूप से बस इसी भारतीय मनेाग्रस्ति हे बारे में लिखा गया है। मनुष्य का जन्म बार-बार होता है।
इसीलिए मेरे नाना कह रहे थे। ‘चक्र को रोको।’ अगर मैं रोक सकता, तो मैं उस चक्र को उनके लिए ही नहीं, सबके लिए रोक देता। में केवल रोकता ही नहीं, उसको सदा के लिए नष्ट भी कर देता, ताकि दुबारा उसे कोई न चलाए। लेकिन यह मेरे हाथ में नहीं है।
उनकी मृत्यु के उस क्षण में मुझे बहुत सी बातों का बोध हुआ। उस क्षण में जिन बातों के प्रति मैं सजग हुआ, जिनका मुझे बोध हुआ, उनके बारे में मैं बात करूंगा, क्योंकि उस बोध ने ही मेरे समस्त जीवन को निधार्रित कर दिया।
--ओशो
ओशो शब्दों के सम्मोहक प्रयोग में दक्ष ज़ेन थे।
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