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बुधवार, 4 नवंबर 2009

स्वर्णिम बचपन (परिशिष्ट प्रकरण)—03

दूकान पर मेरा नग्न आना

क बार मेरे पिता ने मेरी सभी सलवारें और मेरे कुर्ते और मेरी तीनों तुर्की टोपियों एक पोटली में बाँध कर घर के तहखाने में ऐसे स्‍थान पर रख दीं जहां अनेक प्रकार की बेकार टूटी-फूटी चीजें पड़ी हुई थी। मुझे पहनने के लिए उनमें से कुछ नहीं मिला, इसलिए जब मैं स्‍नानगृह से बहार आया तो अपनी आंखें बंद करके नग्नावस्था में दुकान में पहुंच गया। जैसे ही मैं बाहर निकल रहा था, मेरे पिता ने कहा: ‘ठहरो, जरा भीतर तो आओ, अपने वस्‍त्र लिए जाओ।’
      मैंने कहा: ‘वे जहां कहीं भी हैं आप उनको लेकर आइए।’
      उन्‍होंने कहा: ‘मैंने कभी न सोचा था कि तुम ऐसा करोगे। मैंने सोचा कि तुम चारों और देखोगे और कपड़ों की खोज करोगे, और जब वे तुम्‍हें नहीं मिलेंगे—क्‍योंकि मैंने उनको ऐसे स्‍थान पर रख दिया है कि तुम्‍हें वह नहीं मिल पाते, तब स्‍वभावत: तुम उन सामान्‍य से वस्‍त्रों को पहन लोगे जो तुम्‍हें पहनना चाहिए। मैंने कभी नहीं सोचा तुम ऐसा कर ड़ालोगे।’
      मैंने कहा: ‘मैं सीधे ही कर डालता हूं, मैं अनावश्‍यक वार्ता में भरोसा नहीं करता; मैं किसी से पूछता भी नहीं कि मेरे वस्‍त्र कहां रखे है। मुझे क्‍यों पूछना चाहिए? मेरी नग्‍नता यही उद्देश्‍य पूरा कर देगी।’
      उन्‍होंने कहा: ‘ये लो अपने वस्‍त्र और अब तुम्‍हारे वस्‍त्रों के बारे में तुमको कोई परेशान नहीं करेगा, लेकिन कृपया नग्‍न होकर चलना मत आरंभ कर देना, क्‍योंकि उससे और अधिक परेशानियां निर्मित होगी—कि कपड़ा बेचने वाले के पुत्र के पास पहनने के लिए कपड़े तक नहीं है। तुम बदनाम हो और अपने साथ हमें भी बदनाम कर दोगे; बेचारे बच्‍चे को तो देखो, प्रत्‍येक व्‍यक्ति सोचेगा कि हम तुम्‍हें वस्‍त्र नहीं दे रहे है।’
      उसके बाद से उन्‍होंने मेरे वस्‍त्रों पर आपति करना बंद कर दिया। जब मैंने मैट्रिक्‍यूलेशन पास कर लिया तो मैंने वे वस्‍त्र पहनना छोड़ दिए। जैसे मैंने वह नगर छोड़ा मैंने अपने वस्‍त्रों को अपने कालेज के जीवन के अनुसार परिवर्तित कर लिया। मैं जिस पहले कालेज में पढ़ने गया तब मुझे पता लगा कि वहां पर छात्रों के लिए टोपी अनिवार्य थी—तुम टोपी लगाए बिना कालेज में नहीं आ सकते। यह एक विचित्र खयाल था। तुमको उचित प्रकार के वस्‍त्र, जूते पहन कर, शर्ट के बटन बंद करके, टोपी लगा कर ही कालेज आना पड़ता था। मैं वहां बिना बटन का कुर्ता पहन कर, बिना टोपी लगाए, अपनी लकड़ी की खड़ाऊँ पहन कर चला गया—और तुरंत ही मैं वहाँ विख्‍यात हो गया।
      प्रधानाचार्य ने तुरंत मुझको बुलवाया। ‘उन्‍होंने कहा: यह क्‍या है।’
      मैंने कहा: ‘यह बस आपसे परिचित होने का उपाय है, वरना इस काम में वर्षो लग सकते थे। पहले वर्ष के छात्र के बारे में कौन चिंता करता है।’
      उन्‍होंने कहा: ‘हो सकता है कि इसके पीछे तुम्‍हारा कोई ख्‍याल होगा, लेकिन कालेज में इस प्रकार के वेश की अनुमति नहीं है; तुम्‍हें टोपी पहनना पड़ेगी और बटन बंद रखना पड़ेंगे।’
      मैंने कहा: ‘आपको मेरे सम्‍मुख सिद्ध करना पड़ेगा कि टोपी पहनने का कोई वैज्ञानिक कारण है। क्‍या इससे किसी प्रकार से आपको बुद्धि मता के विकास में कोई सहायता मिलती है। तब मैं पगड़ी तक बाँध सकता हूं। टोपी तो क्‍या है, यदि यह आपके मस्तिष्‍क की शक्ति को बढ़ाती है तो, लेकिन तथ्‍य यह है कि भारत में सबसे अधिक मूर्ख पंजाब में पाए जाते है, और वे कस कर बंधी हुई पगड़ी का प्रयोग करते है। संभवत: पूरे संसार में वे एकमात्र लोग है जो इतना कस कर पगड़ी बाँधते है। उनका दिमाग पूरी तरह से कारागृह में होता हे, इस लिए दिमाग बचता ही नहीं। और भारत में सर्वाधि‍क बुद्धिमान हैं बंगाली लोग, जो टोपी का प्रयोग नहीं करते। मैंने कहा: आप बस मुझको बता दें कि इसके मूलभूत वैज्ञानिक कारण क्‍या है, कि मुझे टोपी पहल लेनी चाहिए।’
      उन्‍होंने कहा: ‘अजीब बात है यह, किसी ने टोपियों के बारे में मूलभूत वैज्ञानिक कारण कभी नहीं पूछे। इस कालेज में हमारी बस एक परंपरा है यह।’
      मैंने कहा: ‘परंपराओं की परवाह नहीं करता। यदि परंपरा अवैज्ञानिक है और लोगों की बुद्धि मता नष्‍ट कर रही है, तो मैं वह पहला व्‍यक्ति हूं जो उसके विरोध में विद्रोह करेगा। और जल्‍दी ही आप कालेज से टोपियों को गायब होता हुआ देखेंगे। मैं लोगों को बताने जा रहा हूं, देखो, बंगाली लोगों के पास सर्वश्रेष्‍ठ बुद्धि मता होती है और वह टोपी का प्रयोग नहीं करते है।’
      ‘भारत में पहला नोबल पुरस्‍कार बंगाली व्‍यक्ति को मिला है। मैं कभी नहीं सोचता कि भविष्‍य में कभी भी नोबल पुरस्‍कार किसी पंजाबी व्‍यक्ति को मिलेगा। मैं इस आंदोलन को फैलाने जा रहा हूं। लेकिन यदि आप खामोश रहें और मुझे जैसा मैं हूं वैसा ही रहने की अनुमति प्रदान कर दें तो मैं कोई उपद्रव पैदा नहीं करूंगा, वरना यहां पर एक आंदोलन होगा। आप अपने कार्यालय के सामने आग जलती हुई देखेंगे, टोपियों की होली जलेगी।’
      उन्‍होंने मुझे देखा और बोले: ‘ठीक है, कोई गड़बड़ी मत करना, जैसे तुम हो वैसे ही जारी रखो, लेकिन मैं परेशानी में पड़ जाऊँगा, क्येांकि आज नहीं तो कल दूसरे लोग पूछने बाले है: आपने इनको बिना टोपी के आने की अनुमति क्‍येां दे दी?
      मैंने कहा: ‘सच्‍ची बात तो यह है कि यदि आप एक ईमानदार आदमी है, तो आपको स्‍वयं टोपी लगाना बंद कर देना चाहिए। क्योंकि आपके पास इसके लिए कोई विज्ञानिक आधार नहीं है। वरना जो आता है इसके वै‍ज्ञानिक मूलभूत कारण खोजने के लिए कह दें—कि किसी ढंग से यह बुद्धि के विकास के लिए सहयोगी है। और कालेज का अर्थ है लोगों की बुद्धि को तेज करने में सहायता देना। वह बुद्धि को अवरूद्ध कर देती है। तो टोपी किस भांति सहायता कर सकती है।‘
      किंतु, वे बोले: ‘कम से कम बटन......’
      मैंने कहा वे मुझे पसंद नहीं है, मुझे हवा का सीधे ही मेरे सीने तक आना पसंद है, मैं इसका आनंद लेता हूं, मुझको बटन पसंद नहीं है। और कालेज कोड़ में कहीं भी नहीं लिखा है कि तुम्‍हें बटनों को प्रयोग करना पड़ेगा।‘
      लेकिन वहां कभी किसी ने सोचा भी न था कि कालेज में लोग बिना बटन के आ सकते है।
--ओशो

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