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शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

स्वर्णिम बचपन (परिशिष्ट प्रकरण)—04

एक विश्वास चमत्‍कार-(साईं बाबा)

      कल ही मेरी मां मुझे बता रही थीं.....ओर विवेक ने पहली बार इस उत्‍साह से इतनी देर तक बात‍ करते हुए सुना; वरना जो कुछ भी उनसे पूछा जाता है वह एक या दो वाक्‍यों में, हां या नहीं में उत्‍तर दिया करती है और वार्तालाप संपन्‍न हो जाता है। लेकिन कल उन्‍होंने लंबे समय बात की और वे काफी उत्‍साहित थी, इसलिए विवेक ने मुझसे पूछा, ‘आपकी मां आपको क्‍या बता रही थी।’
      मैंने उससे कहा: ‘वे कुछ बातें याद कर रही थी। मैंने उसे अभी तक नहीं बताया कि वे मुझे क्‍या बता रही थी, क्‍योंकि यह एक लंबी कहानी थी। वे मुझको बता रही थी कि उनके गर्भ में जब मैं पाँच माह का था तब एक चमत्‍कार घटित हुआ था।’
      वे मेरे पिता के घर से अपने पिता के घर जा रही थी।  और यह बरसात का मौसम था। भारत में यह रिवाज है कि पहले बच्‍चे का जन्‍म नाना के घर पर हो, इसलिए यद्यपि बरसात का मौसम चल रहा था और जाना बहुत कठिन था, सड़कें नहीं थी और उन्‍हें घोड़े पर जाना पडा था। जितनी जल्‍दी वे पहुंच जातीं उतनी ही बेहतर होता, यदि उन्‍होंने और अधिक प्रतीक्षा की होती तो यह और कठिन हो जाता, इसलिए वे अपने चचेरे भाई के साथ चली गई।
      यात्रा के मध्‍य में एक बड़ी नदी थी, नर्मदा। इसमें बाढ़ आई हुई थी। जब वे नाव पर पहुंचे तो मल्‍लाह ने देखा कि मेरी मां गर्भवती है, और उसने मेरी मां के चचेरे भाई से पूछा, ‘आपका आपस में क्‍या रिश्‍ता है।‘        
      वे नहीं जानते थे कि वे परेशानी में पड़ जाएंगे, इसलिए उन्‍होंने बता दिया: ‘हम भाई और बहन है।’
      मल्‍लाह ने इनकार कर दिया, उसने कहा: ‘मैं आपको नहीं ले जा सकता, क्योंकि आपकी बहन गर्भवती है—इसका अर्थ हे आप दो नहीं है, आप तीन है।’
      भारत में यह एक रिवाज है, पुराना रिवाज है—शायद  यह कृष्‍ण के समय से आरंभ हुआ होगा—कि किसी को अपनी बहन के पुत्र के साथ पानी पर यात्रा, विशेषत: नाव के द्वारा नहीं करना चाहिए, ऐसा होने पर नाव डूबने का खतरा है।
      मल्‍लाह ने कहा: ‘इस बात का क्‍या प्रमाण है कि तुम्‍हारी बहन के गर्भ में जो शिशु है वह लड़की है लड़का नहीं है। यदि वह लड़का है तो मैं खतरा लेना नहीं चाहता, क्‍योंकि केवल मेरे जीवन का प्रश्‍न नहीं है, नाव में साठ अन्‍य लोग भी जा रहे है। या तुम आ सकते हो या तुम्‍हारी बहन आ सकती है। दोनों को मैं नहीं ले जाऊँगा।’
      नदी के दोनों किनारों पर जंगल और पहाड़ थे। और नाव दिन में केवल एक बार जाया करती थी। सुबह नाव जाती थी। और की चौडाई वास्‍तव में इतनी अधिक थी कि नाव शाम वक ही लौट पाती थी। अगली सुबह यह पुन: जाएगी, वह नाव। तो या तो मेरी मां को इस पार ठहरना पड़ता, जो खतरनाक था या अ‍केले ही उस पार जाना पड़ता, यह भी उतना ही खतरनाक था। अत: तीन दिनों तक वे मल्‍लाह से बात करते रहे, उससे निवेदन करते रहे, यह बताते रहें कि वे गर्भवती है और उसको दया करनी चाहिए।
      वह बोला: ‘इसमें मैं कोई सहायता नहीं कर सकता, ऐसा नहीं किया जाता है। यदि तुम मुझको यह प्रमाण दे दो कि इनके गर्भ में यह बच्‍चा लड़का नहीं है, तब मैं तुमको ले जा सकता हूं; लेकिन तुम मुझे प्रमाण किस प्रकार दे सकते हो।’
      इस लिए तीन दिनों तक उनको वहां एक मंदिर में रहना पडा। उस मंदिर में एक संत रहा करते थे, उन दिनों उस क्षेत्र में वे बहुत प्रसिद्ध थे। अब उस मंदिर के चारो और उस संत की स्‍मृति में एक नगर बस गया है—साई खेड़ा। साई खेड़े का अर्थ होता है, ‘संत का गांव।’ वे साईं बाबा के नाम से जाने जाते थे। ये वह साईं बाबा नहीं है जो विश्‍वविख्‍यात हो गए—शिरड़ी वाले साईं बाबा—किंतु वे समकालीन थे।
      शिरड़ी वाले साईं बाबा इस साधारण से संयोग के कारण विश्‍वविख्‍यात हो गए, क्‍योंकि शिरड़ी बंबई के निकट है,  और बंबई  के सभी के सभी प्रसिद्ध व्यक्तियों ने और बंबई के सभी धनी व्यक्तियों ने शिरड़ी बाले साईं बाबा के पास जाना आरंभ कर दिया था। और क्‍योंकि बंबई विश्‍व भर के लोगों के आवागमन का केंद्र था, शीध्र ही शिरड़ी वाले साईं बाबा का नाम भारत के बाहर पहुंचने लगा, ओरा उनके चारों और अनेक चमत्‍कार निर्मित कर दिए गए।
      उस मंदिर में रहने वाले साईं बाबा की भी वैसी ही प्रतिष्‍ठा थी। अंतत: मेरी मां को साईं बाबा से निवेदन करना पडा: क्‍या आप कुछ कर सकते है? तीन दिनों से हम लोग यहां पर पड़े हुऐ है। मैं गर्भवती हूं, और मेरे चचेरे भाई ने मल्‍लाह को बता दिया है कि वह मेरा भाई है, और वह हमें नाव में बिठाने को तैयार ही नहीं है। अब जब तक कि आप कुछ नहीं करेंगें, नाव वाले से कुछ न कहेंगे, हम यहीं फंसे रहेंगे। क्‍या किया जाए, मेरा भाई मुझको अकेला छोड़ नहीं सकता; मैं अकेली उस पार जा नहीं सकती। दोनों किनारों पर घने जंगल और जानवर है, और कम से कम चौबीस घंटे मुझको अकेले रह कर प्रतीक्ष करनी पड़ेगी।
      मेरी साईं बाबा से कभी भेंट नहीं हुई, लेकिन एक अर्थ में मैं उनसे मिल चुका हूं, उस समय मैं गर्भ में पाँच माह का था। उन्‍होंने मेरी मां के उदर को छू लिया। मेरी मां ने कहा: ‘यह आप क्‍या कर रहे है।’
      उन्‍होंने कहा: ‘मैं तुम्‍हारे बच्‍चे के चरण स्‍पर्श कर रहा हूं।’
      मल्‍लाह ने यह देखा और कहा: बाबा, आप यह क्‍या कर रहे है? आपने कभी किसी के चरण स्‍पर्श नहीं किए।‘
      और तब बाबा ने कहा: ‘यह बच्‍चा कोई साधारण नहीं है; और तुम मूढ़ हो, तुमको उन्‍हें दूसरी और ले जाना चाहिए। चिंता मर करो, इस गर्भ के भीतर जो आत्‍मा है वह हजारों लोगों को तारने में सक्षम है, इसलिए अपने उन साठ लोगों कि चिंता मत करो, उन्‍हें उस पार ले जाओ।’
      तो मेरी मां कह रह थी, ‘उसी समय मुझको पता लगा कि मेरे गर्भ में कोई विशिष्‍ट आत्‍मा है।’
            मैंने कहा: ‘जब तक मैं समझता हूं, साईं बाबा एक होशियार आदमी थे, उस मल्‍लाह को उन्‍होंने वास्‍तव में मूर्ख बना दिया। इसमें कोई चमत्‍कार नहीं है, ऐसा कुछ नहीं है। और नावें इसलिए नहीं डूबा करती हैं कि अपनी बहन के पुत्र के साथ यात्रा कर रहा है। इस खयाल का कोई तार्किक आधार नहीं है, असंगत है यह बात। शायद कभी संयोगवश ऐसा कुछ हो गया होगा, और तब यह एक नियमित ख्‍याल बन गया।‘
      मेरी अपनी समझ यह है, क्‍योंकि कृष्‍ण के जीवन में उनके मामा कंस को ज्योतिषियों ने बता दिया था कि तुम्‍हारी बहन की संतान में से कोई एक तुम्‍हें मार डालेगा, ‘तो उसने अपनी बहन और अपने जीजा को कारागृह में डाल दिया। उसने सात बच्‍चों, सात लड़कों को जन्‍म दिया और मामा ने उन सभी को मार डाला। आठवां बच्‍चा कृष्‍ण थे, और निस्‍संदेह जब स्‍वयं परमात्‍मा को जन्‍म लेना था, तो कारागृह के सभी ताले खुल गए और पहरेदार गहरी नींद में सो गए, और कृष्‍ण के पिता उनको बाहर ले गए।’
      कंस के राज्‍य की सीमा में यमुना नदी थी। कंस वही व्‍यक्ति था जो अपनी बहन के पुत्र को इस भय के कारण मारने जा रहा था कि उसके पुत्रों में से कोई उसको मार डालने वाला है। यमुना में बाढ़ आई हुई थी, और यह भारत की विशालतम नदियों में से एक है। कृष्‍ण के पिता वसुदेव बहुत भयभीत थे, लेकिन किसी भी तरह बालक को नदी के उस पार, एक मित्र के घर जिसकी पत्नी ने एक बालिका को जन्‍म दिया था, पहुंचाना ही था—जिससे कि वे उनकी अदला-बदली कर सकें। वे बालिका को अपने साथ ले आते क्‍योंकि अगली सुबह कंस वहां आकर पूछता, बच्‍चा कहां है? और उसको मारने की सोचता। लेकिन वह बालिका को नहीं मारेगा, मारने के लिए बच्‍चे को लड़का होना चाहिए।
      लेकिन नदी पार कैसे की जाए, रात्रि में कोई नाव भी नहीं थी, किंतु नदी तो पार करनी ही थी। लेकिन जब परमात्‍मा कारागृह के तालों को बिना चाबी के, बिना किसी के द्वारा खोले हुए खोल सकता है—वे बस स्‍वय: खुल गए, द्वार खुल गए, रक्षक सो गए—परमात्‍मा कुछ करेगा।
      इसलिए उन्‍होंने बच्‍चे को एक टोकरी में रखा और नदी को पार कर लिया—कुछ वैसा ही हुआ जैसा मोजे़ज के साथ हुआ, जब सागर दो भागों में बट गया इस बार यह भारतीय ढंग से हुआ। ऐसा मोज़ेज के साथ नहीं हो पाया था। क्‍योंकि वह सागर भारतीय नहीं था, किंतु यह यमुना नदी भारतीय थी।
      जैसे ही उनहोंने बच्‍चे को एक टोकरी में रखा और नदी को पार कर लिया—कुछ वैसा कि यह क्‍या हो रहा है। उन्‍हें आशा थी कि नदी नीची हो जाएगी, किंतु यह ऊपर उठने लगी। वह उस बिंदु तक ऊपर उठती चली गई जहां पर उसने कृष्‍ण के चरणों को स्‍पर्श कर लिया, फिर वह वापस नीचे हो गई। यह है भारतीय ढंग, ऐसा और कहीं नहीं हो सकता। नदी यह अवसर कैसे चूक सकती थी, जब परमात्‍मा ने जन्‍म लिया है और उसमें से होकर गुजर रहा है, तो बस उसको रास्‍ता दे देना ही पर्याप्‍त नहीं है, शिष्‍टाचार नहीं है।
      उस समय ऐसा खयाल बन गया कि व्‍यक्ति और उसके भांजे में विरोध होता है, क्‍योंकि कृष्‍ण ने अपने मामा कंस को मार डाला। यमुना नदी पार कर ली गई, उसने रास्‍ता दे दिया; उसने शिशु के साथ सहयोग किया। तब से नदिया, भारत की सभी नदिया मामाओं से क्रृद्ध है। और यह अंधविश्‍वास अभी तक चला आ रहा था।
      मैंने अपनी मां से कहा: ‘एक बात तो तय है कि साईं बाबा एक बुद्धिमान और मजाकिया स्‍वभाव के व्‍यक्ति रहे होगें। लेकिन उनहोंने नहीं सुना। और जो कुछ भी हुआ वह सारे गांव को पता लग गया। और एक माह बाद इस चमत्‍कार के समर्थन में एक घटना और घट गई...जीवन में ऐसे अनेक संयोग होते हे जिनको तुम चाहो तो चमत्‍कार बना सकते हो। एक बार तुम तय कर लो कि चमत्‍कार बना लेना है, तो किसी भी संयोग को चमत्‍कार में बदला जा सकता है।’
      एक माह बाद बहुत बड़ी बाढ आई, और मेरी मां के घर के सामने बरसात के मौसम में एक नदी सी बहा करती थी। वहां एक झील थी, और घर तथा झील के माध्‍य के एक छोटी सी सड़क थी, लेकिन वर्षा ऋतु में इतना अधिक पानी आता था कि वह सड़क पूरी तरह से नदी की भांति हो जाती थी, और झील और सड़क मिल कर एक हो जाया करती थी। यह सागर जैसा बन जाता था और जितनी दूर तक तुम देख सको पानी ही पानी दिखाई देता था। और उस साल भारत में शायद तब‍ तक की सबसे बड़ी बाढ़ आई थी।
      भारत में आमतौर पर प्रतिवर्ष बाढ़ें आया करती है। लेकिन उस वर्ष एक विचित्र बात देखने में आई कि बाढ़ों ने नदियों के पानी का प्रवाह उलटना आरंभ कर दिया। बरसात इतनी अधिक हो गई थी कि सागर में जितना पानी बह कर आ रहा था, उतनी तेजी से वह सागर में समा नहीं पा रहा था। इस लिए सागर की और प्रवाह अवरूद्ध हो गया और वह पीछे की और लौटने लगा था। जहां पर छोटी नदियों बड़ी नदियों में मिल जाती है, बड़ी नदियों ने पानी लेने से इनकार कर दिया, क्‍योंकि उनमें स्‍वयं का पानी ही नहीं समा रहा था। छोटी नदियों ने पीछे की और बहना आरंभ‍ कर दिया।
      मैंने कभी ऐसा नहीं देखा, मैं इससे चूक गया, लेकिन मेरी मां ने कहा कि पानी को पीछे की और बहते देखना एक अनूठी घटना थी। और वापस लौटता यह पानी घरों में घुसने लगा था, यह मेरी मां के धर में धूस गया। वह दो मंजिल में भरने लगा। जाने के लिए अब कोई स्‍थान न बचा था। इसलिए वे सभी लोग वहां पर उपलब्‍ध सबसे ऊंचे स्‍थानों, पलंगों पर बैठ गए। लेकिन मेरी मां ने कहा: यदि साईं बाबा की बात सही है तो कुछ चमत्‍कार हो जाएगा। और यह एक संयोग ही रहा होगा कि जैसे ही पानी ने मेरी गर्भवती मां के पेट का स्‍पर्श किया, वह वापस लौट गया।
      मेरे जन्‍म से पहले ये दो चमत्कार घटित हुए थे। घटित हुए थे। इसलिए मेरा उनसे कुछ भी लेना-देना नहीं है। लेकिन ये दोनों चमत्‍कार विख्‍यात हो गए थे। इसलिए, जब मेरा जन्‍म हुआ तो पूरे गांव में मैं करीब-करीब एक संत के रूप में स्‍थापित हो चुका था। प्रत्‍येक व्‍यक्ति बहुत आदरपूर्ण था, यहां तक कि बूढ़े लोग भी मेरे चरण स्‍पर्श किया करते थे। मुझे बाद में बताया गया, ‘सारे गांव ने तुमको एक संत के रूप में स्‍वीकार कर लिया था।’
      उस समय मैं कोई चार वर्ष का रहा होऊं गा, तब उस घर में मैं एकमात्र बच्‍चा था—करने को कुछ था भी नहीं, न जाने को कोई स्‍थान था, न स्‍कूल। मेरे नाना की एक बहु-उपयोगी दुकान थी। जिसमें हर प्रकार की वस्‍तु बिका करती थी। गांव की वह एकमात्र दुकान थी, इसलिए प्रत्‍येक प्रकार की वस्‍तु...तो यह एक दुकान के स्‍थान पर एक छोटा मोटा बाजार ही थी। इसलिए मैंने मिठाइयों तथा और दूसरी वस्‍तुओं के साथ खेलना शुरू कर दिया, और मैं नहीं जानता कि मेरे साथ ऐसा किस भांति होने लगा....लेकिन जल्‍दी ही मेरे पास ऐसे लोग लगातार आने लगे जो रोगी थे, और उस क्षेत्र में कोई चिकित्‍सक, कोई वैद्य, कोई अस्‍पताल नहीं था। सैकड़ों मील के क्षेत्र में दूर-दूर तक कोई अस्‍पताल नहीं था।
      किसी तरह मुझे यह समझ में आया कि लोग मुझको संत की भांति समझते थे। और वे मेरे पाँव छूते थे, मैंने उनको औषधि देना आरंभ कर दिया था। और यह औषधियां और कुछ नहीं बल्कि अच्‍छी तरह से कूट कर मिलाई गई मिठाइयों का मिश्रण थी। जिनको विभिन्‍न रेगों की शीशी यों में रख दिया गया था। और निस्‍संदेह वक लोग जिन्‍हें बुखार या सरदर्द या पेट दर्द होता है इसके कारण मर थोड़े ही जाते है। और वे ठीक होने लगे। वह तो वैसे ही ठीक हो जाते—यह कोई चमत्‍कार न था, लेकिन यह चमत्‍कार बन गया था।
      मेरे नाना कहने लगे—‘तुम मेरी दुकान चौपट कर ड़ालोगे, अब यह एक अस्‍पताल बन गर्इ है। सारे दिन लोग आते रहते है। और कभी तो मुझको भी तुम्‍हारी औषधियां देनी पड़ती है। और मुझको जरा भी नहीं पता है कि ये औषधियां कैसी है। तुम मेरी मिठाइयों और मेरी दुकान दोनों ही बरबाद कर रहे हो। लेकिन लोग ठीक हो रहे है इसलिए कोई नुकसान नहीं है, तुम अपना काम जारी रखो।’
      सात वर्ष का होने पर जब मैं अपने पिता के घर चला गया, तो मैंने औषधियों बांटने बाला अपनी काम छोड़ दिया, किंतु उस गांव से आने बाले लोग जब भी कभी आते मुझको याद दिलाया करते। मुझे वे लोग डाक्‍टर साहब कहा करते थे। और मैं कहता: ‘यहां पर कृपया यह शब्‍द प्रयोग मत करो, क्‍योंकि मैंने यह कार्य पूरी तरह से छोड़ दिया है। पहली बात तो यह कि यहां पर मिठाई नहीं है। मेरे पिता की कपड़ों की दुकान है, कपड़ों से मैं औषधि नहीं बना सकता। और यहां कोई नहीं जानता कि मैं चमत्‍कार कर सकता हूं। पहले लोगों को जानना पड़ता है, फिर तुम चमत्‍कार कर सकते हो, वरना तुम चमत्‍कार नहीं कर सकते।’
--ओशो

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