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सोमवार, 9 नवंबर 2009

स्वर्णिम बचपन (परिशिष्ट प्रकरण)—06

दादा और मेरी शरारतें
     मेरे दादा मेरी शरारतों के कारण मुझसे बहुत प्रेम करते थे। उस वृद्धावस्‍था में भी वे शरारती थे। उन्‍होंने मेरे पिता या चाचाओं को कभी पसंद नहीं किया, क्‍योंकि वे सभी इस बूढ़े आदमी की शरारतों के विरूद्ध थे। वे सभी उनसे कहते थे कि ’अब आप सत्‍तर साल के हो चुके है और आपको उसी प्रकार से आचरण करना चाहिए। अब आपके बेटे पचास-पचपन साल के है, आपकी बेटियाँ पचास साल कि है। उनके बच्‍चों की शादियाँ हो चुकी है, उनके बच्‍चों के बच्‍चें हो चूके है। और आप ऐसे काम करते रहते है कि हमको शर्म आती है।’
      मैं एक मात्र व्यिक्त था। जिससे उनकी निकटता थी, क्‍योंकि मैं उन्‍हें इसीलिए चाहता था कि सत्‍तर साल की आयु में भी उन्‍होंने अपना बचपना नहीं खोया था। वे किसी बच्‍चे की भांति ही शरारती थे। और वे शरारतें अपने स्‍वयं के बेटों और बेटियों और दामादों के साथ किया करते थे। और वे लोग केवल अचंभित रह जात थे।
      केवल मैं ही उनका विश्‍वास पात्र था। क्‍योंकि हम लोग मिल कर शरारत करते कि योजनाएं बनाते थे। निस्‍संदेह बहुत से कार्य वे नहीं कर सकते थे। मुझको उनके लिए कार्य करना होता था। उदाहरण के लिए, उनके दामाद कमरे में सो रहे थे। और मेरे दादा उस कमरे की छत पर चढ़ नहीं सकते थे। लेकिन मैं चढ़ सकता था। इसलिए हम लोगों ने मिल कर योजना बनाई: वे मेरी सहायता करेंगे। वह मेरे लिए सीढ़ी बन जाएंगे और मैं उनके ऊपर चढ़ कर छत से टाईल निकाल लुंगा। और बांस में बंधी हुई झाड़ू को इस छेद में डाल कर रात में सोए हुए उनके दामाद का चेहरा छूना...वे डर कर चीख पड़ेंगे और सारा घर उधर की और दौड़ पड़ेगा,...क्‍या मामला है? लेकिन उस समय तक हम भाग चुके होते। और वे कहते, वहां कोई भूत या कोई व्‍यक्ति मेरा चेहरा छू रहा था। मैंने उसको पकड़ने की कोशिश की लेकिन मैं पकड़ नहीं सका, अँधेरा था।‘
      मेरे दादा पूर्णत: निर्दोष बने रहते थे, और में उस महत स्‍वतंत्रता को देखता था जो उनमें थी। मेरे पूरे परिवार में वे सबसे अधिक आयु के थे। उनको सबसे गंभीर और अनेक समस्‍याओं और अनेक उलझनों से परेशान होना चाहिए था, किंतु उनको कुछ भी प्रभावित नहीं करता था। जब समस्‍याएं होती थी तब हर कोई चिंतित और गंभीर हो जाया करता था। केवल वे ही चिंतित नहीं होते थे। लेकिन उनकी एक बात मुझे कभी पसंद नहीं आई, इसी कारण से में इस समय उनको याद कर रहा हूं। और वह बात थी उनके साथ सोना। उनको अपना चेहरा ढंक कर सोने की आदत थी और मुझको भी उनके साथ चेहरा ढक कर सोना पड़ता था, और इससे दम घुटता था।
      मैंने उनसे साफ-साफ कह दिया, ‘और सभी बातों में मैं आपसे राज़ी हूं, लेकिन इसे मैं सहल नहीं कर सकता। आप अपना चेहरा खोल कर नहीं सो सकते और मैं अपना चेहरा ढाँक कर नहीं सा सकता—इस लिए कि मेरा दम घुटता है। आप ऐसा प्रेम वश करते है—वे मुझको अपने ह्रदय से लगा लेते और मुझको पूरी तरह से ढक लेते थे। ‘यह बिलकुल ठीक है। लेकिन इस तरह सोकर  सुबह मेरे दिल की धड़कन बंद हो चु‍की होगी। आपकी चाहत तो अच्‍छी है, लेकिन सुबह आप जीवित होगें और मैं विदा हो चुका होऊं गा। इसलिए हमारी मित्रता बस बिस्‍तर के बाहर की है।’
      वे चाहते थे कि मैं उनके साथ रहा करुँ, क्‍योंकि वे मुझे प्रेम करते थे। और उन्‍होंने कहा था, ‘तुम आकर मेरे साथ क्‍यों नहीं सोया करते है।’
      मैंने कहा: ‘आप भलीभाँति जानते है‍ कि मुझे किसी के द्वारा दम घोटा जाना पसंद नहीं है। भले ही दम घोटने वाले की चाहत अच्‍छी हो। आप मुझको प्रेम करते है और आप रात में भी मुझे अपने ह्रदय से लगा कर रखना चाहते है। हम सुबह भी दुर तक टहने जाया करते थे, और कभी-कभी रात्रि में भी जब चाँद चमक रहा होता। किंतु मैंने कभी उनको अपना हाथ नहीं पकड़ने दिया। और वे कहते, ‘तुम मुझको अपना हाथ क्‍यों नहीं पकड़ने देते? तुम गिर सकते हो, तुमको किसी पत्थर या किसी और चीज से ठोकर लग सकती है।’
      मैंने कहा: ‘ऐसा बेहतर है। मुझको ठोकरें खा लेने दें, यह ठोकर मुझे मार नहीं सकती, यह ठोकर मुझे सिखा देगी कि अब कैसे ठोकर न खाई जाए, कैसे सजग रहा जाए, किस प्रकार याद रखा जाए कि चट्टानें कहां पर है। लेकिन आपने मेरा हाथ पकड़ हुआ है, कब तक आप मेरा हाथ पकड़े रह सकेगें। आप कितने दिन मेरे साथ रहने बाले है। यदि आप यह भरोसा दिला सकें कि आप सदैव मेरे साथ रहेगें, तो निस्‍संदेह मैं आपका हाथ पकड़ कर चलने को राज़ी हूं।’
      वे बहुत ईमानदार व्‍यक्ति थे, उन्‍होंने कहा: ‘ऐस भरोसा मैं नहीं दिला सकता। मैं तो कल के बारे में भी नहीं कह सकता हूं। और एक बात निश्चित है, अभी तुम बहुत समय तक जाओगे और मैं मर चुका होऊंगा, इसलिए मैं तुम्‍हारा हाथ पकड़ने के लिए सदा यहां नहीं रहने बाला हूं।’
      ‘तब, मैंने कहा: ‘मेरे लिए बेहतर यही रहेगा कि मैं अभी से सीख लू, क्‍योंकि एक दिन आप मुझे बीच से असहाय छोड़ देंगे। और यदि आपने मुझे आपका हाथ पकड़ने के लिए प्रशिक्षित कर दिया....तो केवल दो उपास होंगे, या तो मैं किसी कल्‍पना में जीना आरंभ कर दूँगा: पिता रूपी परमात्‍मा, जो असंदिगध रूप से अदृश्‍य है, तुम्‍हारा हाथ थामे हुए है और वह तुम्‍हें लेकर चल रहा है।’
      मैंने अपने दादा से कहा: ‘मैं नहीं चाहता कि मुझे ऐसी परिस्थिति में छोड़ दिया जाए जहां पर मुझको जीने के लिए किसी कल्‍पना का निर्माण करना पड़े। मैं एक असली जीवन जीना चाहता हूं। कोई नकली जीवन नहीं। मैं किसी उपन्‍यास का कोई पात्र नहीं हूं। इसलिए आप मुझे अकेला छोड़ दें। मुझको गिरने दें। मैं उठने का प्रयास करूंगा। आप प्र‍तीक्षा करें, बस देखते रहिए। और वह मेरे हाथ पकड़ने के स्‍थान पर मेरे प्रति अधिक करुणापूर्ण व्‍यवहार होगा।’
      और वे समझ गए यह बात; उन्‍होंने कहा: ‘तुम ठीक कहते हो, एक दिन मैं संसार में नहीं रहूंगा।‘   
 --ओशो

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