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मंगलवार, 17 नवंबर 2009

स्वर्णिम बचपन—(सत्र-21

 सत्र--21  शंभु बाबू से भेट

     ठीक है.....जिन सज्‍जन के बारे में मैं बात करने जा रहा हुँ, उन का पूरा नाम पंडित शंभु रत्न दुबे। हम उनको शंभु बाबू कहते थे। वे कवि थे, बहुत ही अनोखे, क्‍योंकि वे अपनी कविताओं को प्रकाशित नहीं करना चाहते थे। किसी कवि में ऐसा गुण बहुत ही दुर्लभ है। मैं सैकड़ों कवियों से मिला हूं, वे अपनी कविताओं को प्रकाशित करने के लिए इतने उत्सुक रहते है कि उनके लिए काव्य रचना गौण हो जाती है। किसी भी प्रकार से महत्‍वाकांक्षी लोगों को मैं राज‍नीतिज्ञ कहता हूं। और शंभु बाबू महत्‍वाकांक्षी नहीं थे।
      वे निर्वाचित उप सभापति भी नहीं थे। क्‍योंकि निर्वाचित होने के लिए कम से कम चुनाव में खड़ा होना पड़ता है। वे सभापति द्वारा मनोनीत थे। वह सभापति खुद तो गोबरगणेश था, जैसा कि मैंने पहले कहा। उसे कुछ आता-जात नहीं था। इसलिए उसे एक ऐसे बुद्धिमान व्‍यक्ति की आवश्‍यकता थी जो उसके सब काम कर दे। सभापति एकदम गोबरगणेश था और वह इस पद पर कई वर्षो से था। दूसरे गोबरगणेश ने बार-बार उसको र्नि‍वाचित किया था।
       भारत में गोबरगणेश होना बहुत बड़ी बात है, ऐसे गोबरगणेश महात्‍मा बन जाते है। यह सभापति भी अन्‍य बोगस महात्‍माओं जैसा ही था। कोई भी प्रतिभाशाली और सृजनशील व्‍यक्ति भी इस प्रकार का महात्‍मा बनना पसंद नहीं करेगा, न वह चाहेगा कि उसकी पूजा की जाए। मैं तो उस गोबरगणेश के नाम का भी उल्‍लेख नहीं करना चाहता। अपने जीवन में उसने केवल एक ही  समझदारी का काम किया था और वह था शंभु बाबू को उप सभापति बनाना। शायद वह नहीं जानता था कि वह क्‍या कर रहा है। गोबरगणेश लोग सजग नहीं होते।
      जिस क्षण शंभु बाबू और मैंने एक दूसरे को देखा, कुछ हुआ। उसी क्षण हम दोनों के ह्रदय एक हो गए—विचित्र मिलन हो गया। जिसे कार्ल गुस्‍ताव जुंग सिन्‍क्रॉनिसिटी कहता है। मैं छोटा सा जंगली बच्‍चा—अशिक्षित और अनुशासन विहीन, हम दोनों में कोई साम्‍य नहीं था। वे थे अति शक्तिशाली और अत्‍यंत सम्‍मानित व्‍यक्ति। लोग डरते थे कि अगर उनके प्रति आदर न दिखाया गया तो इसके लिए एक न एक दिन अवश्‍य पछताना पड़ेगा, क्‍योंकि उनकी स्‍मरण शक्ति बहुत तेज थी। और में तो सिर्फ एक बच्‍चा था। ऊपर से हम दोनों के बीच कुछ भी समानता न थी। वे सारे गांव के उप सभापति थे। वकीलों की एसोसिएशन और रोटरी क्‍लब आदि के भी सभापति थे। वे कई समितियों के सभापति और उप सभापति थे। वे प्राय: सब स्‍थानों या पदों पर थे। वे अत्‍यंत शिक्षित थे। उन्‍होंने कानून की उच्‍चतम डिग्री प्राप्‍त की थी। लेकिन वे उस गांव में वकालत नहीं करते थे।
      विज्ञान थोड़ा बहुत शै‍तान का रूप है। तुम लोगों को मेडिकल ट्रेनिंग मिली है, सो तुम भी एक प्रकार के बील्‍जबब की टेकनालॉजी  के हिस्‍से हो। उन बेचारे लोगों को माफ कर दो। वे अपनी और से पूरी कोशिश कर रहे है। और जहां तक मेरा सवाल है मैं जब बोलने लगता हुं तो कोई बाधा नहीं डाल सकता।
      मैं कहा रहा था—इस पृष्‍ठभूमि को देखो और उस मौन को। अगर इसको कोई समझ जाए तो बील्‍जबब को नौकर की तरह उपयोग किया जा सकता है।
      मैं शंभु बाबू के बारे में बता रहा था‍ कि वे कवि थे, लेकिन वे जब तक जीवित रहे उनहोंने अपनी कविताओं को प्रकाशित नहीं किया। वे बहुत अच्‍छे कहानी लेखक भी थे। और संयोग से एक फिल्‍म डायरेक्‍टर उनसे और उनकी एक कहानी पर आधारित जो महान फिल्‍म बनी है उसका नाम है: ‘’झांसी की रानी’’ इस पिक्‍चर को अनेक राष्‍टीय और अंतर्राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार मिले है। लेकिन अफसोस कि अब वे नहीं है। वहां पर वे ही  मेरे एकमात्र मित्र थे।
      एक बार जब निर्णय हो गया कि मैं वहीं पर रहूंगा—वहां रहने की योजना सात साल की थी, लेकिन असल में मैं वहां ग्‍यारह साल रहा। शायद मुझे वहां रहने को राज़ी करने के लिए उन्‍होंने सात साल कहे होगें। या शायद शुरू से ही उनका यही इरादा था।
      शायद यही उनकी इच्‍छा थी और वे मुझसे झूठ नहीं बोल रहे थे। लेकिन एक दूसरा तरीका भी था और वही हुआ। चार वर्ष‍ के  बाद तुम उसी पद्धति पर ही अपनी आगे की पढाई कर सकते हो। या मिडिल स्‍कूल में दाखिल हो सकते थे। पहली पद्धति के अनुसार चलते रहने के अनुसार अंग्रेजी नहीं सीख सकते थे। प्राथमिक शिक्षा सात साल के बाद समाप्‍त हो जाती थी। और सिर्फ स्‍थानीय भाषा में पूरी तरह शिक्षित हो जाते थे। और भारत में तीस भाषाओं को मान्‍यता मिली हुई है। लेकिन चौथे बरस के बाद छात्र के लिए विकल्‍प था, वह अंग्रेजी स्‍कूल में दाखिल हो सकता था। मिडिल स्कूल में जा सकता था। वह भी चार साल का पाठ्यक्रम था। और उसी क्रम में पढाई करते रहने पर और तीन साल के बाद मीट्रिक की परीक्षा पास कि जा सकती थी।
      हे भगवान, जीवन के इतने सुंदर वर्षों को इतनी बेरहमी से, इतनी क्रूरता से नष्‍ट कर दिया जाता है। कुचल दिया जाता है। मीट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद ही विश्‍वविद्यालय में दाखिल हो सकते थे। फिर विश्‍वविद्यालय में छ: साल का पाठ्यक्रम होता था। इस प्रकार मुझे चार साल प्राइमरी स्‍कूल में, चार साल मिडिल स्‍कूल में, तीन साल हाई स्‍कूल में और छ: साल विश्विद्यालय में—मेरे जीवन के कुल सत्रह बरस बरबाद करने पड़े। यह कैसी व्‍यवस्‍था है। नासमझी और मूर्खता की कोई सीमा नहीं। सत्रह वर्ष, मैं आठ या नौ साल का था जब मैंने इस मूर्खता को आरंभ किया। विश्‍वविद्यालय को छोड़ते समय मैं छब्‍बीस बरस का था। मैं बहुत खुश था, इसलिए नहीं कि मैं ‘’गोल्ड मैडलिस्‍ट’’ था। बल्कि इसलिए क्‍योंकि अंत में अंक मैं मुक्‍त हो गया था। अब मैं फिर स्‍वतंत्र था। वहां से जाने के लिए मैं इतना उतावला हो रहा था कि मैंने अपने प्रोफसर से कहा: ‘आप मेरा समय बरबाद मत कीजिए। इस फाटक के भीतर पुन: प्रवेश करने के लिए कोई भी मुझे राज़ी नहीं कर सकता। जब मैं नौ बरस का था तब भी मेरे पिता को मुझे घसीट कर भीतर ले जाना पडा था। लेकिन अब कोई घसीट नहीं सकता। अगर कोई कोशिश भी करे तो मैं उसे घसीट कर बहार ले आऊँगा।’ और सचमुच मैंने उस बेचारे सज्‍जन को घसीट ही लिया। जो मुझे वहाँ रोकने की पूरी कोशिश कर रहे थे। वे मुझे समझा रहे थे कि पी.एच. डी.के लिए ऐसी छात्रवृति बड़ी मुश्किल से मिलती है। और फिर मैं इसी तरह से डी.लिट. भी कर सकता हूं। मैंने कहा: ‘मेरा समय बरबाद मत कीजिए क्‍योंकि मेरी बस छूट रही है। बस वहां दरवाजे पर खड़ी था। मुझे दौड़ कर उसे पकड़ना था। मुझे खेद है कि मैं उन्‍हें धन्‍यवाद भी न दे सका। मेरे पास समय न था। बस छूट रही थी और मेरा सामान बस पर चढ़ चुका था और उसका ड्राइवर जैसा कि ड्राइवर करते है, बड़ी बेसब्री से हॉर्न बजा रहा था।’
      केवल मैं ही ऐसा मुसाफिर था जो बस के बाहर खड़ा था और मेरे वृद्ध प्रोफेसर मेरी मिन्‍नत कर रहे थे कि मैं न जाऊँ।
      जब शंभु बाबू से मेरी मित्रता आरंभ हुई तो शंभु बाबू तो अत्‍यंत शिक्षित थे और में था अशिक्षित। उनका अतीत सुनहरा था और कोई अतीत न था। सारे गांव को हमारी मित्रता पर आश्‍चर्य होता था। लेकिन शंभु बाबू को इस मित्रता से कोई संकोच नहीं होता था। इस विशेषता कर मैं बहुत आदर करता हूं। हम दोनों हाथ में हाथ डाले घूमते थे। वे मेरे पिता की उम्र के थे और उनके बच्‍चे भी मुझसे बड़े थे। मेरे पिता की मृतयु के दस साल पहले उनकी मृत्‍यु हुई। उस समय शायद वे पचास बरस के थे। सह  समय हमारी मित्रता के लिए उपयुक्‍त होता। उस समय मुझे ठीक से पहचानने वाले केवल शंभु बाबू ही थे। उस गांव में उनका बड़ा दबदबा था और उनकी मित्रता ने मेरी बडी सहायता की।
      काना मास्‍टर तो फिर कभी स्‍कूल में देखा न गया। सेवा निवृति होने से पहले उसको छुट्टी पर भेज दिया गया। सेवा-काल बढ़ाने का उसका आवेदन पत्र नामंजूर कर दिया गया। इसलिए गांव में  उत्‍सव मनाया गया। काना मास्‍टर उस गांव में उस समय बहुत प्रभावशाली माना जाता था। लेकिन मैंने एक ही दिन में उसका पत्‍ता काट दिया। यह बहुत बड़ी बात थी। लोग मुझे सम्‍मान की दृष्टि से देखने लगे। मैंने उनसे कहा कि मैंने तो कुछ नहीं किया, मैने तो केवल उसके गलत कामों को उजागर किया है। मुझे हैरानी होती है यह सोच कर कि कैसे उसने जीवन भर छोटे-छोटे बच्‍चों को सताया।
      उस समय लोगों की यह धारणा थी कि बिना मारे-पीटे बच्‍चों को पढा़या नहीं जा सकता। अभी भी बहुत से भारतीय ऐसा ही सोचते है--वे इस बात को मानें या न मानें।
      तो मैंने लोगों यह कहा: ‘मेरे प्रति आदर का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता। शंभु बाबू से मेरी जो मित्रता है उसमें आयु से अंतर से कोई अड़चन नहीं होती। वास्‍तव में वे मेरे पिता के मित्र थे।’
      मेरे पिताजी को भी इस मित्रता पर बहुत आश्‍चर्य होता था। इन्होंने शंभु बाबू से पूछा: ‘इस शैतान लड़के से आपकी इतनी दोस्‍ती क्‍यों है?
      शंभु बाबू ने हंसते हुए कहा: इसके बारे में अभी तो मैं कुछ नहीं कह सकता, ले‍किन एक न एक दिन आप अवश्‍य समझ जाएंगे।‘
      उनके सौदर्य पर मुझे सदा आश्‍चर्य हाता था। यह उनके सौंदर्य का हिस्‍सा था कि वे कहा सके कि मैं उत्‍तर नहीं दे सकता, एक दिन आप खुद समझ जाएंगे फिर एक दिन उन्‍होंने मेरे पिता जी से कहा, इस लड़के से मुझे दोस्‍ती नहीं वरन इसके प्रति मुझे आदर प्रकट करना चाहिए।
      उनके इन शब्‍दों को सुन कर मैं भी चौंक उठा। जब हम दोनों अकेले थे तो मैंने उनसे पूछा, शंभु बाबू आपने पिताजी से क्‍या कह रह रहे थे। आपको सम्‍मान करना चाहिए। इसका क्‍या मतलब है।
      उन्‍होंने कहा: ‘हां, मैं तुम्‍हारा आदर करता हूं, क्‍योंकि में देख सकता हूं बहुत साफ-साफ नहीं लेकिन एक धुँधले परदे के पीछे से दिखाई देता है कि एक दिन तुम क्‍या बनोगें।’
      इस पर मैंने अपने कंधे बिचकाते हुए कहा: ‘भला मैं क्‍या बनूंगा। में तो अभी भी वही हूं।’
      उन्‍होंने कहा: ‘यही , तुम्‍हारी इन्‍ही बातों पर तो मुझे हैरानी होती है। तुम बच्‍चे हो। सारा गांव हमारी मित्रता पर हंसता है। उनकी समझ में नहीं आता कि हम दोनों आपस में क्‍या बातें करते है। लेकिन उन्‍हें नहीं मालूम कि वे क्‍या चूक रहे है।’
      मुझे मालूम है: ‘उन्‍होंने कुछ जोर देकर कहा, हां मुझे मालूम है कि मैं क्‍या चू‍क रहा हूं। मैं उसे कुछ-कुछ महसूस कर सकता हूं लेकिन मैं उसको स्‍पष्‍ट नहीं देख सकता हूं। मुझे धुंधला सा दिखाई देता है। शायद एक दिन जब तुम बड़े हो जाओगे तब मैं अच्‍छी तरह से देख सकूंगा कि तुम क्‍या हो।’
      और आज मैं यह स्‍वीकार करता हूं कि मग्गा बाबा के बाद शंभु बाबू दूसरे आदमी थे जो यह समझ सके कि मेरे साथ कुछ अवर्णनीय घटा है। वे रहस्य दर्शी तो नहीं थे, लेकिन बहुत अच्‍छे कवि थे। और कवि को कभी-कभी अचानक रहस्‍य की झलक मिल जाती है। वे महान व्यक्ति‍ थे। क्‍योंकि उन्‍होंने किसी कवि सम्‍मेलन में भाग नहीं लिया। बड़ा अजीब लगता था कि वे अपनी कविता मुझे, नौ साल के बच्‍चे को, सुनाते थे और मेरी राय पूछते थे कि कविता अच्‍छी है या नहीं। अब उनकी कविताएं प्रकाशित हुई है। लेकिन अब वे नहीं रहे। उनकी स्‍मृति में इन्‍हें प्रकाशित किया गया है। लेकिन इनमें उनकी बढ़िया कविताओं को संकलित नहीं किया गया। उनकी कविताओं का चुनाव तो कोई रहस्य दर्शी ही कर सकता था। संकलन करने वाले तो कवि भी नहीं थे। जो भी उन्‍होंने लिखा था वह मैंने देखा है। बहुत ज्‍यादा नहीं था—कुछ लेख थे, कुछ कहानियां थी, कुछ कविताएं थी। लेकिन अजीब बात तो यह है कि उन सबका विषय एक ही है और वह है ‘’जीवन’’ दार्शनिक जीवन नहीं काल्‍पनिक जीवन नहीं—जीवन जैसा है वैसा—क्षण-क्षण में जो जिया जाए, ऐसा जीवन अंग्रेजी के शब्‍द ‘लाइफ’ (जीवन) को वे बड़े एल से नहीं, छोटे एल के साथ लिखते थे, क्‍योंकि वह अंग्रेजी में बड़े अक्षर के प्रयोग के विरूद्ध थे। अंग्रेजी के वाक्‍य के आरंभ में भी वे छोटा अक्षर ही लिखते थे।
      एक दिन मैंने उनसे पूछा: ‘बड़े अक्षरों में क्‍या गलती है, आप बड़े अक्षरों के विरूद्ध क्‍यों है।’
      उन्‍होंने कहा: ‘मैं उनके विरूद्ध नहीं हूं। मुझे सुदूर भविष्‍य से नहीं, वर्तमान से प्रेम है। मुझे प्रेम है छोटी-छोटी चीजों से, और इनको बड़े अक्षरों में नहीं लिखा जो सकता। जैसे चाय का प्‍याला, नदी में तैरना, आराम से लेट कर धूप सेंकना..।’      मैं उन्‍हें अच्‍छी तरह समझता हूं। यद्यपि वे सुबुद्ध या जाग्रत गुरु नहीं थे—किसी भी प्रकार से उन्‍हें गुरु नहीं कहा जा सकता—फिर भी मैं उनका स्‍थान मग्‍गा बाबा के बाद द्वितीय मानता हूं। क्‍योंकि उन्‍होंने मुझे त‍ब पहचाना जब कि पहचानना असंभव था। बिलकुल ही असंभव था। उस समय तो शायद में भी अपने आपको नहीं पहचान पाता। लेकिन शंभु बाबू ने मुझे पहचान लिया।
      जब मैंने पहली बार उनके उप सभापति के आफिस में प्रवेश किया और हम दोनों की आंखें मिली तो एक क्षण के लिए तो मौन छा गया, फिर वे खड़े हो गए और उनहोंने मुझसे कहा, ‘कृपया बैठिए।’
      मैंने कहा: ‘लेकिन आपको खड़े होने की क्‍या जरूरत है?’ 
      उन्‍होंने कहा: ‘जरूरत का सवाल ही नहीं है, तुम्‍हें देख कर खड़े होने का मन हुआ, मुझे खुशी हुई, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। मैं गवर्नर जैसे अन्‍य शक्तिशाली लोगों के सामने भी खड़ा हुआ हूं। नई दिल्‍ली में मैंने वाइसराय को भी देखा है। लेकिन उन्‍हें देख कर भी में ऐसा विस्‍मय से नहीं भरा जैसा तुम्‍हें देख कर हुआ है। यह बात किसी को बताना मत।’
      और मैंने चालीस बरस तक इस बात को गुप्‍त रखा है। आज पहली बार मैं इसे बता रहा हूं। और इसका उल्लेख करते हुए मुझे संतोष हो रहा है।
      शंभु बाबू एक ऐसे व्‍यक्ति थे कि जो संबुद्ध हो सकते थे, लेकिन चूक गए। अपनी अतिबौद्धिकता के कारण वे चू‍क गए। वे महा मनीषी थे। वह एक क्षण के लिए भी चुप नहीं रह सकते थे। उनकी मृत्‍यु के समय मैं उनके पास था। वह विचित्र संयोग है कि मुझे उन सब लोगों की मृत्‍यु देखनी पड़ी जिनसे मैं प्रेम करता था। मरने से पहले उन्‍होंने मुझे टेलिफोन किया कि ‘’जल्दी आ जाओ। मैं शायद ही कुछ दिन जीवित रह सकूंगा।‘’ जबलपुर उस गांव से अस्‍सी मील दूर था। मैं तुरंत चल पडा और दो घंटे में वहां पहुंच गया। वह मुझे देख कर बहुत खुश हुए। उन्‍होंने मुझे उसी दृष्टि से देखा जैसे उन्‍होंने मुझे पहली बार देखा था जब में नौ बरस का था। कुछ कहा नहीं गया, लेकिन सब कुछ सुन लिया गया—उस समय का मौन बहुत मुखर था।
      उनका हाथ पकड़ कर मैंने कहा: ‘आप आंखें बंद कर लीजिए, खुली मत रखिए।’
      उन्‍होंने कहा: ‘आंखें तो जल्‍दी ही अपने आप बंद होने बाली है। तब मैं उनको खोल नहीं सकूंगा। तुम मुझे आंखे बंद करने को मत कहो। इस समय मैं तुम्‍हें देखना चाहता हूं। इसके बाद शायद मैं तुम्‍हें दुबारा देख नहीं सकूंगा, क्‍योंकि एक बात निश्चित है कि इसके बाद तुम जन्‍म नहीं लोगे। काश, मैंने तुम्‍हारी बात मानी होती, तुमने कितनी बार मुझसे मौन होने को कहा, लेकिन में सदा टालता रहा। अब तो टालने का भी समय नहीं रहा।’
      उनकी आंखों में आंसू भर आए। मैं उनके पास चुपचाप बैठा रहा। उन्‍होंने आंखे बंद की और उनके प्राण निकल गए। उनकी आंखें बहुत ही सुंदर थी। उनका चेहरा बहुत ही प्रतिभापूर्ण था। मैं बहुत से सुंदर लोगों को जानता हूं। लेकिन उनके जैसा सुंदर व्‍यक्ति‍ दूसरा नहीं दिखा। उनका सौंदर्य दिव्‍य था। वे मेरे ब‍हुत प्रिय थे और अभी भी है। अभी तक उनहोंने शरीर धारण नहीं किया है और मैं उनकी प्र‍तीक्षा कर रहा हूं।  
        इस कम्‍यून के कई उद्देश्‍य है। कुछ उद्देश्‍यों को तो तुम जानते हो और कुछ की जानकारी केवल मुझे ही है। कम्‍यून के व्‍यवस्‍थापकों को यह नहीं मालूम कि मैं कुछ आत्‍माओें की प्रतीक्षा कर रहा हूं। मैं कुछ ऐसे दंपतियों को भी तैयार कर रहा हूं जो उन आत्माओें को ग्रहण कर सकेंगी। शंभु बाबू जल्‍दी ही यहां आ जाएंगे। इस व्‍यक्ति से संबंधित इतनी स्मृतियाँ है कि मुझे बार-बार उनका उल्लेख करना पड़ेगा। लेकिन आज तो मैं केवल उनकी मृत्‍यु के बारे में ही बताना चाहता हूं।
      बड़ी अजीब बात तो यह है कि मैं पहले उनकी मृत्‍यु की चर्चा कर रहा हूं और दूसरी बातों की बाद में। जहां तक मेरा प्रश्न है, मुझे यह अजीब नहीं लगता, क्‍योंकि मुझे मालूम है कि मृत्‍यु के क्षण में व्‍यक्ति पूर्णत: खिल जाता है, प्रस्‍फुटित हो जाता है। प्रेम में भी ऐसा चमत्‍कार नहीं होता। हो सकता है, लेकिन प्रेमी इसे रोक देते है। इसमें बाधा डाल देते है। प्रेम में दो व्‍यक्ति की आवश्‍यकता होती है। मृत्‍यु में तो व्‍य‍क्ति  अकेला ही पर्याप्त है। मृत्‍यु में दूसरा कोई अड़चन, कोई बाधा नहीं डाल सकता। मैंने शंभु बाबू को इतने आनंद और इतनी शांति से मरते हुए देखा है कि मैं उनके चेहरे को कभी भूल नहीं सकता।
      तुम्‍हें जाना कर आश्चर्य होगा कि उनका चेहरा अमरीका के भूतपूर्व राष्‍ट्रपति निकसन से मिलता था। निकसन की कुरूपता उनमें नहीं थी। अन्‍यथा शंभु बाबू भी भारत के राष्‍ट्रपति बन जाते। इसमें कोई संदेह नहीं कि वे भारत के राष्ट्रपति संजीव रेड्डी से कहीं अधिक प्रतिभाशाली थे। लेकिन मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि देखने में तो वे ऐसे दिखाई देते थे जैसा निकसन अपनी कम उम्र में दिखाई देता था। सच तो यह है कि जब आत्‍माएं भिन्‍न होती है तो बाह्रा रूप के साम्‍य के बावजूद चेहरे का आभा मंडल अलग ही होता है। इसलिए मुझे गलत मत समझना। क्‍योंकि तुम सब लोग तो रिचर्ड निकसन को जानते हो और केवल मैं ही शंभु बाबू को जानता हूं। इस लिए गलतफहमी हो सकती है।
      अब यह भूल जाओ कि मैंने कहा कि वे एक जैसे दिखाई देते है। भूल जाओ, अच्‍छा यही है कि तुम शंभु बाबू के चेहरे को बिलकुल न जानों, बजाए इसके की तुम उन्‍हें रिचर्ड निकसन की तरह सोचने लगो।
      जब निकसन अमरीका का राष्‍ट्रपति बना, तो मैंने सोचा, वहाँ, कम से कम शंभु बाबू जैसा दिखाई देने बाला आदमी अमरीका का राष्‍ट्रपति बन गया। हां, इन दोनों के चेहरों के साम्‍य से ही मुझे संतोष हो गया। जब निकसन ने वह कांड किया तो मुझे बहुत शर्म आई, क्‍योंकि वह शंभु बाबू जैसा दिखाई देता था। जब उसने राष्‍ट्रपति के पद से त्याग पत्र दिया तो मैं उदास हो गया—उसके कारण नहीं, उससे तो मेरा कोई संबंध नहीं था। इसलिए कि अब मैं समाचार पत्रों में शंभु बाबू का चेहरा न देख सकूंगा।
      अब तो यह समस्‍या भी नहीं रही, क्‍योंकि अब मैं समाचार पत्र नहीं पढ़ता। कई वर्षों से मैंने उन्‍हें पढ़ा ही नहीं। एक समय था जब मैं चार समाचार-पत्रों को एक मिनट में पढ लेता था। लेकिन पिछले दो साल से मैंने एक भी अख़बार नहीं पढ़ा। अब मैं किताबें भी नहीं पढ़ता—कुछ भी नहीं पढ़ता। अब मैं पुन: अशिक्षित हो गया हूं। जैसा मैं सदा होना चाहता था। अगर मेरे पिता जबरदस्‍ती मुझे घसीट कर स्‍कूल के भीतर न ले जाते....लेकिन उन्‍होंने घसीटा तो था ही। और इन सब स्‍कूलों, कलेजों और विश्नविद्यालयों ने मुझे जो सिखाया उसकेा भुलाने में, उसको मिटाने में मरी बहुत ऊर्जा बहुत शक्ति खर्च हुई। लेकिन ऐसा करने में मैं सफल हुआ। समाज ने मुझे जो भी सिखाया उसको मैंने बिलकुल मिटा दिया है और अब मैं दुबारा अशिक्षित गंवार लड़का बन गया हूं।
      अंग्रेजी में इसके लिए कोई शब्‍द नहीं है। लेकिन हिंदी में गांव के आदमी को गंवार कहते है। देहात को गांव कहा जाता है। और देहाती को गंवार। लेकिन गंवार का अर्थ मूर्ख भी होता है। और ये दोनों अर्थ इतने घुल मिल गए है कि अब यह कोई नहीं सोचता कि गंवार का अर्थ देहाती होता है। सभी सोचते है कि इसका अर्थ मूर्ख ही होता है।
       मैं तो गांव से उस कोरे कागज जैसा आया था जिस पर कुछ भी नहीं लिखा गया था। गांव से दूर रहने पर भी मैं जंगली लड़का ही बना रहा। मैंने कभी किसी को मुझ पर कुछ लिखने नहीं दिया। लोग तो सदा तैयार रहते है—तैयार ही नहीं, वे आग्रह करते है कि किसी न किसी प्रकार तुम पर कुछ लिख दिया जाए। मैं तो गांव से बिलकुल खाली आया था। और सच तो यह है कि मैंने उस दीवाल को ही गिरा दिया जिस पर दुबारा कुछ लिखा जा स‍कता।
      शंभु बाबू भी ऐसा कर सकते थे। मुझे मालूम है कि वे बुद्ध होने के योग्‍य थे। लेकिन हुए नहीं। शायद दनका पेशा—वे वकील थे—बाधा बन गया। मैने अनेक प्रकार के लोगों का बुद्ध होना सुना है। लेकिन आज तक कभी किसी वकील को बुद्ध होते नहीं देखा। इस पेशे का आदमी तब तक बुद्ध नहीं हो सकता जब तक वह अपनी समस्‍त शिक्षा का परित्‍याग न कर दे। शंभु बाबू इतना साहस न कर सके। मुझे उनके लिए बहुत ही अफसोस हाता है। किसी दूसरे कि लिए मुझे कोई अफसोस नहीं है। क्‍यों‍कि ऐसा कोई दूसरा मुझे मिला ही नहीं जिसमें इतनी योग्‍यता हो और फिर भी छलांग न लगा सके।
      मैं बार-बार पूछता: ‘शंभु बाबू, क्‍या झिझक है?
      और वे सदा एक ही उत्‍तर देते: ‘क्‍या बताऊ? कैसे बताऊ? मुझे खुद ही नहीं मालूम कि अड़चन क्‍या है।’
      मुझे मालूम है कि अड़चन क्‍या थी? उनको भी मालूम था। लेकिन उन्‍होने कभी यह माना नहीं कि उनको यह मालूम था। वे यह भी जानते थे कि मैं जानता हूं कि उनको मालूम है। जब भी मैं उनसे यह प्रश्‍न पूछता तो वे आंखे बंद कर लेते। लेकिन मैं भी कम जिद्दी नहीं हूं। मैं उनसे बार-बार पूछता, ‘बताइए’ अड़चन क्‍या है? वे अपनी आंखे बंद कर लेते, क्‍योंकि वे मेरी आंखों से आँख नहीं मिलाना चाहते थे। क्‍योंकि तब वे झूठ नहीं बोल सकते थे, तब वे वकीलों का झूठ नहीं बोल सकते थे।
      अब तो वे जीवित नहीं है। अब मैं यह कह सकता हूं कि यद्यपि वे बुद्ध नहीं थे, तथापि वे बुद्धत्‍व के बहुत निकट थे। किसी और के बारे में मैं ऐसा कभी न कहता। ‘बुद्धत्‍व के निकट’ होने का विशेष वर्ग मैंने केवल शंभु बाबू के लिए ही रखा है।

--ओशो                             शंभु बाबू

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