नाना की मृत्यु के बाद मुझे फिर नानी से दूर रहना पडा, लेकिन मैं जल्दी ही अपने पिता के गांव वापस आ गया। मैं वापस आना तो नहीं चाहता था, लेकिन वह इस के ओ. के. की तरह था जो कि मैंने शुरूआत में कहा, नहीं के मैं ओ. के. कहना चाहता था। लेकिन में दूसरों की चिंता की उपेक्षा नहीं कर सकता। मेरे माता-पिता मुझे अपने मृत नाना के घर भेजने को तैयार नहीं थे। मेरी नानी भी मेरे साथ जाने को तैयार नहीं थी। और मैं सिर्फ सात साल का बच्चा था, मुझे इसमें कोई भविष्य नहीं दिखाई दे रहा था।
बार-बार मैं कल्पना में अपने आप को उस पुराने घर को वापस जाते देखता, बैलगाड़ी में अकेले....भूरा बैलों से बात करते हुए। कम से कम उसको तो संग-साथ मिल जाता। मैं बैलगाड़ी के भीतर अकेले बैठे हुए भविष्य के बारे में सोच रहा होता। वहां मैं करूंगा भी क्या? हां, मेरे घोड़े वहां पर है। लेकिन उनको खिलाएगा कौन? और मुझे भी कौन खिलाएगा? मैं तो एक कप चाय भी नहीं बना सकता।
एक दिन गुड़िया छुट्टी पर चली गई। चेतना उसका काम कर रही थी। मेरी देखभाल कर रही थी। सुबह जब मैं उठता हूं तो अपनी चाय के लिए बटन दबाता हूं। चेतना ने चाय का कप लाकर मेरे बिस्तरे के पास रख दिया और फिर मेरे तौलिए और टूथ-ब्रश आदि को तैयार रखने के लिए वह बाथरूम में चली गई। क्या तुम्हें मालूम है, इस बीच दस बरस में पहली बार आदमी को छोटे-मोटे काम भी सीखने पड़ते है—मैंने कप को जमीन से उठाने की कोशिश की, और वह गिर गया।
चेतना दौड़ी हुई आई और थोड़ा डर गई। मैंने कहा, ‘फ़िकर मत करो। मेरी जिम्मेवारी थी। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। मुझे कप को जमीन से उठाने की कभी जरूरत ही नहीं हुई। दस साल से गुड़िया मुझे बिगाड़ रही है। अब एक दिन में तुम मुझे सुधार तो नहीं सकती।’
कर्इ बरस तक मुझे बिगड़ा गया था, हां मैं इसको बिगाड़ना ही कहूंगा, क्योंकि उनहोंने मुझे कभी कुछ करने ही नहीं दिया। मेरी नानी तो गुड़िया से भी बढ़ कर थी। वे मेरे दाँत भी साफ करती थीं। मैं उनसे कहता, नानी मैं अपने दाँत खुद बुश कर सकता हूं। वे कहती, ‘चुप रहो राजा, जब मैं कोई काम कर रही होती हूं तो तुम बीच में मत बोला करो।’
मैं अपना सिर हिला कर कहता, यह भी कोई बात है, ‘आप मुझ पर कुछ कर रही है। और मैं आपसे यह भी नहीं कह सकता, कि मैं अपना काम खुद कर सकता हूं।‘
सिवाय स्वयं होने के, सिर्फ अपने ढंग से जीने के अलावा मैं एक भी चीज याद नहीं कर सकता जो मुझे करने की जरूरत पड़ी है। और उसका अर्थ सारी शैतानी यों की जड़ था। क्योंकि बच्चे के पास बहुत ऊर्जा होती है। जब उससे कुछ नहीं कराया जाता तो अपनी इस ऊर्जा को यह कहीं तो खर्च करेगा ही। गलत या सही का सवाल नहीं उठता। खर्च करने का सवाल होता है। और शैतानी सबसे अच्छा उपाय है। इसलिए मैंने अपने आस-पास के लोगो के साथ सब तरह की शैतानियां कीं।
मैं ड़ाक्टरों के सूटकेस की तरह एक छोटा सा सूटकेस अपने पास रखता था। मैंने एक बार एक डाक्टर को अपने गांव से गुजरते देखा था। और मैंने अपनी नानी से कहा: ‘जब तक मुझे वह सूटकेस नहीं मिलेगा, मैं खाना नहीं खाऊंगा। न जाने कहां से मैने न खाने की बात सीखी। मैंने अपने नाना को चौमासे में, विशेषत: जैनियों के त्योहार के समय उपवास करते देखा था। रूढ़िवादी लोग दस दिन तक नहीं खाते। इसीलिए मैंने कहा: जब तक वह सूटकेस नहीं मिलेगा तब तक मैं खाना नहीं खाऊंगा।’
मालूम है नानी ने क्या किया? इसीलिए तो अब तक मैं उनसे बहुत प्रेम करता हूं। उन्होंने भूरा से कहा: ‘अपनी बंदूक लेकर डाक्टर के पीछे दौड़ों और उसका बैग छीन लो। अगर इस बैग को लेने के लिए उसे गोली भी मारनी पड़े तो मार दो, तुम कोई चिंता मर करना अदालत में हम तुम्हे बचा लेंगे।’
भूरा अपनी बंदूक लेकर भागा। मैं उसके पीछे यह देखने के लिए भागा कि क्या होता है। भूरा को बंदूक के साथ देख कर उस डाक्टर ने समझा कि कोई अंग्रेज आ रहा है। उन दिनों बंदूक लिए हुए अंग्रेज को देख कर लोग डर जाते थे। सो वह डाक्टर भी मारे डर के हवा में पत्ते की तरह कांपने लगा। भूरा ने उससे कहा: कांपने की जरूरत नहीं है। अपना बैग दे दो और जहां जाना चाहो चले जाओ। ‘डाक्टर ने कांपते हुए वह बैग भूरा को दे दिया।’
मुझे मालूम नहीं देवराज कि तुम डाक्टर के इस बैग को क्या कहते हो। क्या इसको सूटकेस कहा जाता है या कुछ ओर? देव गीत तुम इसको क्या कहते हो?
शायद इसे विजिटिंग बैग कहते है।
विजिटिंग बैग? यह बैग जैसा नहीं तो नहीं दिखाई देता। देवराज, क्या तुम कोई नाम बता सकते हो? इससे अच्छा और कोई शब्द नहीं है?
‘मुल बैग तो गलैडस्टोन बैग कहलाता था। वह काला बैग होत था।’
वह क्या है? गलैडस्टोन बैग, हां उसी के बारे में मैं सोच रहा था। लेकिन मुझे याद नहीं आ रहा था। लेकिन इस बैग के लिए यह नाम मुझे पसंद नहीं है। मैं तो इसको डाक्टर का सूटकेस ही कहूंगा। हालांकि मुझे यह नाम पसंद नहीं है। खेर कोई बात नहीं, अब तक सब समझ गए है कि मेरा मतलब क्या है।
उस डाक्टर को कांपते हुए देख कर पहली बार मेरी समझ में आया कि सारी शिक्षा निरर्थक है। अगर यह तुम्हें निर्भय नहीं बना सकती तो इसका क्या फायदा है? दाल-रोटी कमाने के लिए तुम कांपने लगोंगे। तब तो तुम कांपते हुए दाल-रोटी से भरे बोरे बन गए। वह तो अचानक मुझे डाक्टर ईचलिंग की याद दिलाता है। मैंने सुना है—गॉसिप, गप्प हे और मुझे तो गौसपल्स से अधिक गॉसिल्स, गप्पें प्रिय है। गॉसपल्स भी तो गप्पें ही है। गॉस्पल को नमक-मिर्च लगा कर सही ढंग से नहीं कहा गया। मैंने सुना है, इसी प्रकार बुद्ध की गॉस्पल आरंभ होती है, मेरा मतलब है कि बुद्ध कि गप्पें शुरू होती है। मैंने सुना है....कितना अच्छा मुहावरा है... मैंने सुना है कि डाक्टर ईचलिंग की प्रेमिका...मैं तो उसे ईकलिंग ही कहना चाहता हूं—लेकिन मैंने सुना है कि उसका नाम ईकलिंग नहीं है बलकि ईचलिंग है।
मैं इस आदमी को जानता नहीं हूं। मैंने समझा कि वह मर गया है, क्योंकि मैंने उसे संन्यास देकर शून्यो नाम दिया। मुझे मालूम नहीं कि शून्यो को क्या हुआ और डाक्टर ईचलिंग कैसे पुन जीवित हो गया। लेकिन अगर जीसस हो सकते है तो ईचलिंग क्यों नहीं? खेर, वह अभी भी वहां है। या तो वह बच गया या पुन जीवित हुआ, इससे कोई फर्क नहीं? गप्प यह है कि उसकी प्रेमिका किसी दूसरे संन्यासी के साथ भाग गई और वह इस नये आदमी से प्रेम करने लगी। जब वे वापस आए तो डाक्टर ईचलिंग को लव-अटेक हुआ। मुझे यह जान कर बड़ी हैरानी हुई कि यह कैसे हुआ? क्योंकि लव-अटेक के लिए पहले ह्रदय का होना जरूरी है। हार्ट-अटैक लव अटेक नहीं है। हार्ट-अटैक तो शारीरिक है और लव-अटेक मनोवैज्ञानिक है—ह्रदय के गहरे हिस्से से। लेकिन पहले तुम्हारे पास ह्रदय तो होना चाहिए।
अगर तुम बी. एफ. स्कैनर के या पावलफ के अनुयायी हो.....पावलफ जो स्किनर का दादा या शायद परदादा था और जो फ्रायड का समकालीन और उसका सबसे बड़ा विरोधी भी था....तब मन उपयुक्त शब्द नहीं है। जब आप मस्तिष्क कह सकते है। लेकिन मस्तिष्क मन का शरीर है, एक यंत्र जिसका माध्यम से मन काम करता है। इसको चाहे मन कहो चाहे मस्तिष्क कहो, कोई फर्क नहीं पड़ता है। महत्वपूर्ण बात यही है कि सब को केंद्र वहीं पर है।
डाक्टर ईचलिंग...मैं उसको शून्यो नहीं कह सकता, क्योंकि मद्रास में उसके आफिस के बाहर जो बोर्ड लगा हुआ है उस पार लिखा है: डा. ईचलिंग का आफिस। अगर उसे फोन किया जाए तो उसका सहायक कहता है, डा. ईचलिंग अभी मिल नहीं सकते, मीटिंग में है। मैं तो शून्यो तभी कहूँगा जब बोर्ड भी गायब हो जाएगा।
लेकिन यह कहानी या गप्प तुम लोगों को यह बताने के लिए सुनाई कि पहले सब कुछ मन में रहता है, उसके बाद शरीर में आता है। शरीर मन का विस्तार है, पदार्थ के रूप में। मस्तिष्क इस विस्तार का आरंभ है और शरीर उसका पूर्ण प्रकटीकरण है। लेकिन बीज तो मन में ही होता है। मन में सिर्फ इस शरीर का ही बीज रहता है, इसमें कछ भी बनने की संभावना होती है—इसकी संभावना असीम है। मनुष्यता का सारा अतीत इसमें समाया हुआ है—और सिर्फ मनुष्यता का अतीत ही नहीं वरन पूर्व-मनुष्यता का भी।
बच्चा जब मां के गर्भ में नौ महीने रहता है तो वह एक प्रकार से तीस लाख साल के विकास के क्रम को पार करता है—इतनी तेजी से वह पार करता है कि जैसे किसी फिल्म को तेजी से चलाया जाए तो ठीक से कुछ भी दिखाई नहीं देता, सिर्फ कुछ झलकियाँ दिखाई देती है। नौ महीने में बच्चा निश्चित रूप से जीन के आरंभ ओर उसके बाद के समस्त क्रम से गुजरता है। आरंभ में—बाइबिल से उद्घत नहीं कर रहा, मैं तो हर बच्चे के जीवन के तथ्यों को बता रहा हूं—आरंभ में हर बच्चा मछली होता है, ठीक वैसे ही जैसे समस्त जीवन समुद्र में आरंभ हुआ था। अभी भी मनुष्य के शरीर में उतनी ही नमक है जितना समुद्र के पानी में होता है। मनुष्य का मन इस नाटक को बार-बार खेलता है: जन्म का नाटक, मछली से अंतिम श्वास के लिए तड़पते हुए बूढे आदमी तक।
मैं गांव वापस जाना चाहता था, लेकिन जो खोया जा चुका था उसे वापस पाना असंभव था। उसी समय से मैं यह समझ गया कि कहीं भी दुबारा वापस न जाना ही अच्छा है। उसके बाद मैं कई जगहों पर गया, लेकिन दु्बारा कहीं नहीं गया। एक बार जब किसी स्थान को छोड़ देता हुं तो सदा के लिए छोड़ देता हूं। बचपन की इस घटना से मेरे जीवन का एक विशेष ढांचा तैयार हो गया। मैं जाना चाहता था, लेकिन जाने के लिए कोई सहारा ही नहीं मिल रहा था। मेरी नानी ने साफ कह दिया, ‘मैं उस गांव वापस नहीं जा सकती। जब मेरे पति ही वहां नहीं है तो मैं वहां जाकर क्या करूंगी’? मैं उस गांव वापस नहीं जा सकती। जब मेरे पति ही वहां नहीं है तो,.. मैं उनके कारण वहां था, गांव के कारण नहीं। अगर मुझे कहीं जाना भी होगा तो मैं खजुराहो जाऊंगी।
लेकिन वह संभव नहीं था, क्योंकि उनके माता पिता मर चुके थे। बाद में मैंने उस घर को भी देखा जहां वे पैदा हुई थी। वह खंडहर हो चूका था। वापस वहां जाने की कोई संभावना नहीं थी। केवल भूरा ही ऐसा आदमी था जो वापस जाने के लिए तैयार हो सकता था। लेकिन वह तो अपने मालिक की मृत्यु के चौबीस घंटे बाद ही मर गया था।
इतने कम समय में इन दोनों की मृत्यु के लिए कोई तैयार नहीं था। विशेषकर मैं जिसे ये दोनों बहुत ही प्रिय थे।
भले ही भूरा सिर्फ मेरे नाना का आज्ञाकारी नौकर था, लेकिन मेरे लिए वह दोस्त था। हम दोनों प्राय: एक साथ रहते—खेतों में, जंगल में, झील पर—सब जगह। भूरा तो मेरे साथ मेरी छाया की तरह बना रहता, कभी किसी बात में दखल न देता और मदद करने के लिए सदा तैयार रहता—और इतने बड़े दिल के साथ। इतना गरीब होते हुए भी इतना अमीर था।
उसने कभी मुझे अपने घर आमंत्रित नहीं किया। एक बार मैंने उससे पूछा: ‘भूरा तुम मुझे अपने घर क्यों नहीं बुलाते?’
उसने कहा: ‘मैं इतना गरीब हूं कि चाहते हुए भी मैं तुम्हें अपने घर बुला नहीं सकता। मेरी गरीबी आड़े आती है। मैं अपना वह भद्दा और गंदा घर तुम्हें नहीं दिखाना चाहता। इस जीवन में तो मैं अपने घर कभी आंमत्रित नहीं कर सकूंगा। इसलिए अब मैं इसके बारे में सोचता भी नहीं।’
वह बहुत गरीब था। उस गांव में दो भाग थे, एक ऊंची जातियों के लिए, और एक दूसरा गरीबों के लिए, जो झील के उस पार था। वहीं भूरा भी रहता था। हालांकि मैंने कई बार उसके घर जाने की कोशिश की, परंतु मैं सफल नहीं हो सका, क्योंकि भूरा छाया की तरह हमेशा मेरे साथ ही रहता था। उस दिशा की और कदम बढ़ाने से पहले ही वह मुझे रोक देता था। मेरा घोड़ा भी उसी का कहना मानता था। मैं जब उसके घर की और जाने की कोशिश करता तो भूरा कहता, ‘नहीं मत जाओ।’ घोड़ा उसकी बात समझता था, क्योंकि उसने उसको बड़ा किया था। उसके आदेश को वह मानता और रूक जाता। घोड़ा भूरा के घर की और तो क्या, उस गांव की गरीब बस्ती की और भी न मुड़ता। मैंने तो दूसरी और से ही उसे देखा था। उस और से जहां पर ऊंची जाति में जिनमें, समृद्ध और धनी ब्राह्मण और जैन आदि अन्य लोग रहते थे। भूरा तो बेचारा शूद्र था। शूद्र का अर्थ है: जो जन्म से ही अशुद्ध है, उसे किसी प्रकार से भी शुद्ध नहीं किया जा सकता।
यह मनु की कृपा है। इसीलिए तो मुझे उससे इतनी धृणा है और उसकी निंदा करता हूं। और मैं चाहता हूं कि इस मनु नामक व्यिक्त के बारे में सारी दुनिया को पता लगे; क्योंकि जब तक हम ऐसे लोगों के बारे में नहीं जानेंगे तब तक हम उनसे मुक्त नहीं हो सकेंगे। वे किसी न किसी रूप मैं प्रभावित करते रहेगें। यहां तक कि अमेरिका में भी, अगर तुम नीग्रो हो, तो तुम शूद्र हो, एक निगर हो, अछूत हो।
चाहे कोई नीग्रो हो चाहे सफेद चमड़ी वाला, दोनों को मनु की विक्षिप्त फिलासफी से परिचित होना चाहिए। मनु ने अति सूक्ष्म ढंग से दोनों महा युद्धों को प्रभावित किया है। और शायद तीसरे और अंतिम महायुद्ध का भी कारण वही होगा—सचमुच वह बहुत प्रभावशाली आदमी है।
डेल कार नेगी की पुस्तक ‘हाउ टू विन फ्रेंडस एण्ड इनफलुएंस पीपुल’ के लिखे जाने के पहले मनु को इन बातों की जानकारी थी। हमें यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि डेल कारनेगी के कितने मित्र थे और उसने कितने लोगों को प्रभावित किया। निश्चित रूप से वह कार्ल मार्क्स, सिग्मंड़ फ्रायड और महात्मा गांधी जैसा नहीं था। और ये सब लोग दूसरों को प्रभावित करने के विज्ञान से बिलकुल अंजान थे। उन्हें जानने की जरूरत भी नहीं था, क्योंकि यह तो उनकी स्वाभाविक विशेषता था।
मेरे खयाल में तो मनुष्यता को मनु ने सर्वाधिक प्रभावित किया है। आज भी वह—चाहे तुम्हें उसके नाम की जानकारी हो या न हो—तुम्हें प्रभावित करता है। गोरी चमड़ी या काली चमड़ी होने के कारण, अथवा पुरूष या स्त्री होने के कारण अगर तुम अपने आप को श्रेष्ठ मानते हो तो इसका अर्थ है कि किसी ने किसी प्रकार मनु तुम्हें प्रभावित कर रहा है। मनु का बिलकुल त्याग देना चाहिए।
मैं तो कुछ ही कहना चाहता था, लेकिन गलत कदम के साथ मैंने आरंभ कर दिया। मेरी नानी हमेशा यही कहती थी। कि बिस्तर से बाहर निकलते समय पहले अपना दायां पैर नीचे रखो। और तुम्हें यह जान कर हैरानी होगी कि आज मैंने उनकी यह सलाह नहीं मानी और सब कुछ गलत हो रहा है। मैंने गलत ओ. के. कह दिया है और जब आरंभ में ही तुम ओ. के. नहीं हो तो बाद में सब कुछ गड़बड़ हो जाएगा।
मैं गांव जाना चाहता था, लेकिन दूसरा कोई भी जाने को तैयार नहीं था। और बिना अपने नाना-नानी और भूरा के मैं अकेला कैसे रह सकत था ? नहीं, यह संभव नहीं था। इसलिए बेमन से मैने कह दिया, अच्छा मैं पिता के गांव में ही रहूंगा। स्वभावत: मेरी मां चाहती थी कि मैं नानी के साथ नहीं बल्कि उसके साथ रहूँ। नानी ने तो पहले से ही यह साफ कर दिया था कि वे उस गांव में रहेंगी लेकिन अलग रहेंगी। नदी के पास एक बड़े सुंदर स्थान में एक छोटा सा मकान उनके लिए खोज लिया गया।
मेरी मां ने आग्रह किया कि मैं उनके साथ ही रहूँ, क्योंकि सात साल से मैं अपने परिवार के साथ नहीं रहा था। मेरा परिवार कोई छोटा-मोटी बात नहीं थी। वह तो बहुत बड़ा था—कई प्रकार के बहुत से लोग थे: मेरे चाचा, चाचियां, उनके बच्चे और मेरे चाचाओं के रिश्तेदार आदि, आदि।
भारत में परिवार पश्चिम जैसे नहीं होते। पश्चिम में तो केवल एक इकाई होती है—पति, पत्नी और एक दो या तीन बच्चे—अधिक से अधिक परिवार में पाँच सदस्य होते है। भारत में तो लोग पाँच की संख्या सुन कर हंसेगे। भारत में परिवार में सैकड़ों सदस्य होत है। मेहमान जब आते है तो जाने का नाम ही नहीं लेते। और कोई उनसे यह नहीं कहता कि अब आपने जाने का समय हो गया है। कयोंकि सच तो यह हे कि किसी को मालूम ही नहीं कि कौन किसका मेहमान है। पिता सोचता है कि शायद ये मेरी पत्नी के रिश्तेदार है। इसलिए चुप रहना ही ठीक है। मां सोचती है कि शायद ये मेरे पति के सगे-संबंधी है। भारत में तो तुम ऐसे घर में प्रवेश कर सकते हो जहां तुम्हारा कोई रिश्तेदार नहीं है। और अगर तुम अपना मुहँ बंद रख सको तो तूम वहां पर वर्षों ते रह सकते हो। कोई भी तुम्हें चले जाने के लिए नहीं कहेगा। क्योंकि हर सदस्य यहीं सोचगा कि किसी दूसरे ने तुम्हें आमंत्रित किया है। तुम्हें सिर्फ चुप रहना होगा और मुसकुराते रहना होगा।
मेरे पिताजी का परिवार भी बहुत बड़ा था। मैंने अपने दादा को कभी पंसद नहीं किया। वे मेरे नाना से बिलकुल उलटे थे—बहुत बेचैन, अशांत और झगड़ालु, किसी से भी झगड़ा करने के लिए हर समय तैयार रहते थे। झगड़ा तो उनके लिए आवश्यक कसरत के समान था। उनका झगड़ा निरंतर चलता रहता था। शायद ही कभी झगड़ा किए बिना रहते। लेकिन अजीब बात तो यह है कि कुछ लोग ऐसे भी थे जो उनको प्रेम करते थे।
मेरे पिता जी की छोटी सी कपड़े की दुकान थी। मैं कभी-कभी वहां बैठ कर देखता कि लोग क्या करते है। उनके व्यवहार को देखने में मुझे बड़ा मजा आता। सबसे दिलचस्प बात तो यह थी कि कुछ लोग आकर मेरे पिताजी से पूछते ‘बाबा कहा है? हमें अनेक साथ धंधा करना है। ’ यह सुन कर मुझे बडी हैरानी होती, क्योंकि मेरे पिता बहुत ही सीधे-साधे सरल और ईमानदार थे। वे जब किसी को कोई कपड़ा दिखाते तो उसी समय कह देते, ‘यह आप निर्भर है कि आप कितना मुनाफा देना चाहते है। यह मैं आप पर ही छोड़ देता हूं। लागत कि कीमत तो कम कर नहीं सकता। अब यह आप ही तय कर लें कि आप उसको किस कीमत पर खरी देंगे।‘ वे ग्राहक से कहते, ‘मेरी लागत की कीमत बीस रूपये है। आप एक दो रूपये अधिक दे सकते है। दो रूपये का मतलब है दस प्रतिशत लाभ, और मेरे लिए वह काफी है। लेकिन विचित्र बात तो यह थी कि लोग आते ही पूछते, बाबा कहा है? उनके बिना धंधा करने का मजा ही नहीं आता।’
पहले तो मुझे उनकी बात पर विश्वास ही नहीं होता था। लेकिन बाद में इसका कारण मेरी समझ में आया, कारण था: मोल-भाव करने का रस। एक-एक पैसे के लिए घंटो खींचातानी करना। बहस करना। ग्राहक को इसी में मजा आता था। अगर कपड़ा बीस रूपये का होता तो मेरे बाबा उसकी कीमत पचास रूपये से शुरू करते। फिर घंटों चलता मोल भाव का चक्कर जिसमें दोनों पक्षों को बहुत मजा आता। तब अंत में दोनों पक्ष तीस रूपये पर सहमत हो जाते। यह सब देख कर मैं हंसता और ग्राहम चला जाता तो बाबा मुझसे कहते, ‘ऐसे वक्त पर तुम्हें हंसना नहीं चाहिए। तुम्हें तो ऐसा गंभीर चेहरा बनाना चाहिए जेसे कि हमारा बहुत नुकसान हो रहा है। हालांकि हमारा नुकसान नहीं होता। वे मुझसे कहते थे कि चाहे चाकू खरबूजा पर गिरे, चाहे खरबूजा चाकू पर गिरे—बात तो एक ही है। कटना तो खरबूजा को ही है। चाकू को तो कुछ नहीं होता। इसलिए तुम्हें यह देख कर हंसना नहीं चाहिए कि जिस चीज को तुम्हारा पिता बीस रूपये में तीस रूपये में बेच देता हूं। तुम्हारा पिता तो बेवकूफ है।
हां, मेरे पिता सीधे-सादे थे और मेरे दादा बहुत चालाक और चतुर थे। जब उनके बारे में सोचता हूं, तो मुझे सियार की याद आती है। कभी वे सियार ही रहे होगें। इसलिए वे सियार ही थे। वे अपने सब काम बहुत हिसाब-किताब लगा कर करते थे। वे शतरंज के अच्छे खिलाड़ी हो सकते थे। क्योंकि वे पाँच कदम आगे की सोच कर चलते थे। सचमुच वे बहुत काइयां आदमी थे। मैंने बहुत से चालाक आदमी देखे है। लेकिन बाबा जैसा शायद ही और कोई हो। मुझे यह सोच कर बड़ी हैरानी होती कि न जाने कैसे मेरे पिता इतने सीधे और सरल थे, इतना भोलापन उन्हें कहां से मिला? शायद प्रकृति का यही नियम है कि यह सदा संतुलन बनाए रखती है। इसी लिए बाबा जैसे चालाक आदमी को उसने पिताजी जैसे भोलाभाला बेटा दिया।
चालाकी में बाबा बहुत चतुर थे। सारा गांव उनसे डरता था। किसी को यह मालूम नहीं होता कि वे कब क्या करने बाले है। सच में वे ऐसे आदमी थे—और यह तो मैंने कई बार देखा कि अगर मैं और बाबा नदी की और जा रहे होते और रास्ते में कोई पूछ लेता, बाबा कहां जा रहे हो? सारा गांव उन्हें बाबा कह कर पुकारता था। हम नदी जा रहे होते और मजा तो यह कि सब लोग जानते कि हम कहां जो रहे है। लेकिन वह आदमी अपनी आदत के अनुसार कहता, कि ‘’हम स्टेशन जा रहे है’’ मैं अचरज से उनकी और देखता और वे मुझे देखते और आँख मार देते। मुझे बड़ी हैरानी हो कि ऐसा तो महत्वपूर्ण काम नहीं हो रहा कि जिसे गुप्त रखने के लिए बाबा झूठ बोल रहे है। पूछने बाले आदमी के चले जाने के बाद जब मैं उनसे पूछता, ‘बाबा तुमने आँख क्यों मारी और बिना किसी कारण के उस आदमी से आपने झूठ क्यों बोला? यह भी तो कह सकते थे कि हम नदी जा रहे है। उस आदमी को और सब लोगों को मालूम है कि यह सड़क स्टेशन नहीं नदी की और जाती है। आपको भी यह मालूम है और फिर भी कहते हो स्टेशन।‘
तो वे कहते, ‘तुम अभी नहीं समझ सकते। लगातार अभ्यास करना पड़ता है।’
मैंने पूछा: ‘किसका अभ्यास?’
उनहोंने उत्तर दिया: ‘अपने व्यापार का लगातार अभ्यास करना पड़ता है। यह सीधा सा सच मैं नहीं बता सकता। क्योंकि फिर एक दिन धंधा करते समय अनजाने ही मैं सही कीमत बता दूँगा। और तुमको इससे क्या मतलब? इसीलिए तो मैंने तुम्हें आँख मारी कि तुम चुप रहो। यह सड़क स्टेशन की और जाती है या नहीं जाती, इससे मुझे कोई मतलब नहीं, हम तो स्टेशन ही जा रहें है। अगर वह आदमी कहता कि यह सड़क स्टेशन नहीं जाती, तो मैं उससे कहता कि हम नदी की और से स्टेशन जा रहे हे। अरे, यह तो मेरी मर्जी है कि मैं कहां से कहां जाने चाहता हूं।‘ थोड़ा ज्यादा समय लगेगा, और क्या।
ऐसे थे मेरे दादा। वे अपने सभी बच्चों के साथ वहां रहते थे—मेरे पिताजी, उनके भाई और बहनें, और उनके पति। वहां इकट्ठे हुए सब लोगों को जानना मुश्किल था। मैं लोगों को आते तो देखता, लेकिन जाते कभी नहीं देखता। हम बहुत अमीर नहीं थे, लेकिन सबके खाने के लिए पर्याप्त था।
मैं इस परिवार में नहीं रहना चाहता था और मैंने अपनी मां से कहा, ‘या तो मैं अकेला ही गांव चला जाऊँगा—बैलगाड़ी तैयार है, और मैं रास्ता जानता हूं, किसी ने किसी तरह मैं वहां पहुंच ही जाऊँगा। उस गांव के लोगों को जानता हूं। वे सब इस बच्चें की देखभाल करेंगे ही और कुछ वर्षो की ही तो बात है। बाद में उनका सब अहसान चुका दूँगा। लेकिन मैं इस परिवार में नहीं रह सकता। यह परिवार नही बाजार है।‘
और सचमुच वह बाजार ही था, हर वक्त लोगों का शोरगुल होता रहता। न शांति मिलती न खुला स्थान। उस प्राचीन तालाब में अगर कोई हाथी भी कूद पड़ता तो किसी को छपाक की आवाज सुनाई न देती। मैंने तो साफ इनकार कर दिया यह कह कर, अगर मुझे यहां रहना है तो में नानी के पास रहूंगा।‘ यह सुन कर मेरी मां को दुःख तो अवश्य हुआ और तब से लेकर आज ते न जाने कितनी बार मैंने उन्हें दुःख पहुंचाया है, लेकिन मैं भी क्या करता। असहाय था। परिस्थिति ही ऐसी थी। कि इतने वर्षो तक पूर्ण स्वतंत्रता, शांति और खुले अवकाश में मुक्त रहने के बाद मैं ऐसे वातावरण में नही रह सकता था। नाना के घर में नाना से बात करने वाला मैं ही था। नाना दिन भर मंत्र का जाप करते रहते। नानी से बात करने वाला दूसरा कोई नहीं, वर्षों सदा शांति में रहने के बाद यहाँ रहने बाद तथाकथित परिवार में रहना असंभव था। इस परिवार में असंख्य अपरिचित चेहरे थे—चचेरे भार्इ, चाचा ताऊ, उनके ससुर—मेरी समझ में ही न आत कि किसके साथ क्या रिश्ता है और कोन क्या है? बाद में मुझे विचार आया कि मेरे परिवार पर एक छोटी सी पुस्तिका लिखी जानी चाहिए कि किसके साथ क्या रिश्ता है?
जब में प्रोफेसर था तो लोग मेरे पास आकर कहते, तुम मुझे नहीं पहचानते? मैं तुम्हारी मां का भाई हूं।‘ मैं उससे कहता, कुछ और बताते तो अच्छा होता, जहां तक मुझे मालूम है कि मेरी मां के कोई भाई ही नहीं था।‘ इतना तो मैं अपने परिवार के बारे में जानते हूं। तब उस आदमी ने कहा: ‘तुम ठीक कहते हो, लेकिन में उनका चचेरा भाई हूं।’ मैंने कहा: अच्छा ठीक है। आपको क्या चाहिए? मेरा मतलब है कि कितना चाहिए? आप उधार रूपये मांगने आए होंगे? यह सुन कर उसने कहा: ‘अरे तुमने तो मेरे मन की बात कैसे जान ली? मैंने कहा यह तो बहुत आसान है, अब आप बताइए आपको कितना चाहिए।’
उसने मुझसे बीस रूपये उधार लिए और मैंने अपने मन में सोचा कि शुक्र है भगवान का, एक रिश्तेदार से तो मेरा छुटकारा हुआ। अब यह आदमी दुबारा मुझे अपनी चेहरा कभी नहीं दिखायेगा।
और सचमुच ऐसा ही हुआ। मैंने उसका चेहरा फिर कभी नहीं देखा। सैकड़ों लोगों ने मुझसे पैसे उधार लिए और कभी नहीं लोटाए। मुझे इससे खुशी होती, क्योंकि अगर वे लौटा देते तो दूसरी बार और बड़ी रकम मांगने आ जाते।
मैं गांव जाने चाहता थे लेकिन नहीं जा सका। मुझे अपनी मां कि साथ समझोता करना पडा ताकि उनके दिल का ठेस न लगे। लेकिन मुझे मालूम है कि मैं उनको दुःख देता रहा हूं। उनहोंने जो भी चाहा, मैंने ठीक उसका उलटा किया। इसलिए धीरे-धीरे उन्होंने यह स्वीकार कर लिया कि वे मुझे खो चुकी है।
कई बार ऐसा हुआ कि मैं उनके सामने बैठा रहता और वे मुझसे पूछती, तुमने किसी को देखा? क्योंकि मैं उसको सब्जी लाने के लिए बाजार भेजना है।
बाजार दूर नहीं था। छोटा सा गांव था। बाजार पहुचने में दो मिनट लगते थे—और वे मुझसे पूछती, तुमने किसी को देखा?
मैं कहता : ‘नहीं, मैंने किसी को नहीं देखा। घर तो बिलकुल खाली है—ये सब रिश्तेदार कहां गायब हो गए है? जब भी कोई काम होता है तो ये दिखाई ही नहीं देते। लेकिन वह मुझसे सब्जी लाने के लिए न कहती। एक दो बार कह कर वे पछताई थी। उसके बाद उनहोंने मुझे फिर कभी नहीं कहा।’
एक बार उन्होंने मुझसे केले खरीदने को कहा। लेकिन मैं रस्ते में भूल गया कि क्या खरीदना है और मैं टमाटर ले आया। मैंने तो याद रखने की बहुत कोशिश कि थी और रास्ते में बार-बार याद कर रहा था—केले, केले, और उसी समय एक कुत्ता भौंका या किसी ने पूछा कि कहां जा रहें हो? लेकिन मैं बोलता रहा, केले, केले, पूछने वाले ने कहा: ‘क्या तुम पागल हो गए हो? मैने कहा: मैं नहीं तुम पागल हो गए हो। दूसरे लो्ंगो के काम में गड़बड़ कर रहे हो।’ लेकिन तब तक में भूल गया मुझे क्या खरीदना है। सो मेरा समझ में जो आया वह मैंने खरीद लिया। मैं टमाटर ले आया। अब जैन घर में टमाटर तो कभी लाए ही नहीं जाते। मां ने उन्हें देखा तो अपना माथा ठोक कर कहा, ‘क्या ये केले है? कब तुम्हारी समझ में आएगा’?
मैंने कहा: ‘हे भगवान, क्या आपने केले खरीदने के लिए कहा था। मैं तो भूल गया मुझे अपनी गलता पर अफसोस है।’
मैं ने कहा: ‘अगर तुम भूल गये थे टमाटर के अलावा कुछ और नहीं ला सकते थे। तुम्हें पता है कि इस घर में टमाटर नहीं खाये जाते। इनकी मनाही है। कारण यह है कि टमाटर लाल रंग के होते है। और मांस जैसे दिखाई देते है। जैन घर में लाल रंग खून और मांस की याद दिलाता है। इसलिए जैन लोग टमाटर को देख कर ही परेशान हो जाते है।’
बेचारे टमाटर, इतने सीधे-साधे और इतने ध्यान में डूबे हुए। उनको देख कर तो घुटे हुए। सिर बाले बौद्ध भिक्षुओं की याद आती है और इतने ध्यान में डूबे हुए दिखार्इ देते हे कि जैसे सारा जीवन ध्यान में डूबे हो। लेकिन जैस उन्हें पसंद नहीं करते। सो मुझे उन टमाटरों को भिखारियों को देना पडा। वे हमेशा मुझे देख कर खुश हो जाते है। सिर्फ भिखारी ही मुझे देख कर हमेशा खुश होते थे, क्योंकि जब भी मुझसे कुछ भी घर से बहार फेंकने के लिए कहा जाता तो में उसे कभी न फेंकता, बाहर जाकर उसे भिखारियों को दे देता।
मैं परिवार में उनके अनुसार नहीं रह सकता था। सभी बच्चे पैदा कर रहे थे। हर औरत सदा गर्भवती दिखाई देती। जब भी मुझे अपने परिवार की याद आती है तो मेरा दिमाग खराब हो जाता है। सचमुच नहीं होता, लेकिन सोचता हूं कि खराब हो जाएगा। सब औरतों के पेट सदा बढ़े रहते। एक बच्चा पैदा होते ही दूसरा गर्भ में आ जाता। और इतने बच्चे थे।
नहीं, मैंने अपनी मां से कहा: ‘मुझे मालूम हे कि आपको बुरा लगेगा, और मुझे अफसोस है, लेकिन मैं यहां पर नहीं रह सकता। मैं तो अपनी नानी के साथ ही रहूंगा। एक वही तो है जो मुझे अच्छी तरह से समझ सकती है। मुझसे प्रेम भी करती है और पूरी स्वतंत्रता भी देती है।’
एक बार मैंने अपनी नानी से पूछा: ‘आपने केवल मेरी मां को ही क्यों जनम दिया? उन्होने कहा: ‘यह भी कोई प्रश्न है।‘ मैंने कहा: ‘इस परिवार में तो हर औरत सदा गर्भवती दिखाई देती है। आपने केवल मेरी मां को ही क्यों पैदा किया। उनके लिए कम से कम एक भाई तो होना चाहिए था।‘ उसके उत्तर में नानी न जो कहा वह मैं कभी नहीं भूल सकूंगा। तुम्हारे नाना को बच्चा चाहिए था इसलिए मैंने उनसे यह समझौता कर लिया कि केवल एक बच्चा होगा। अब यह लड़की होगी या लड़का, यह आपके भाग्य पर निर्भर है।‘ उनको बैटा चाहिए था, लेकिन यह अच्छा हुआ कि लड़की हुई, नहीं तो तुम कैसे मिलते हां, अच्छा हुआ कि मैंने किसी दूसरे बच्चे को जनम नहीं दिया, अन्यथा तुम्हें यह जगह भी पसंद न आती, यहां भी भीड़ हो जाती। मैं ग्यारह साल तक अपने पिता के गांव में रहा और मुझे जबरदस्ती स्कूल भेजा गया। और वह कोई एक दिन की बात नहीं थी। यह तो हर रोज की बात थी, हर सुबह मुझे जबरदस्ती स्कूल भेजा जाता। कोई एक चाचा मुझे स्कूल ले जाता और स्कूल के बाहर तब तक खड़ा रहता जब तक किसी मास्टर के सुपुर्द न कर देता। रोज सुबह यही क्रम दोहराया जाता, मुझे पकड़-धकड कर स्कूल भेजा जाता। स्कूल पहुंच कर मुझे किसी जायदाद की भांति या किसी कैदी की तरह किसी को सौंप दिया जाता।
शिक्षा का तरीका आज भी वहीं है—हिंसात्मक और जोर जबरदस्ती वाला। हर पीढी दूसरी पीढ़ी को भ्रष्ट करती है। यह तो निश्चित रूप से एक प्रकार का बलात्कार है—आध्यात्मिक बलात्कार, छोटा बच्चा अपने से अघिक बलशाली माता-पिता के सामने बिलकुल असहाय होता है। उसको उनकी इच्छा के अनुसार चलना ही पड़ता है। मैंने तो उसी—पहले दिन से विद्रोह कर दिया जिस दिन मुझे जबरदस्ती स्कूल ले जाया गया। स्कूल के फटक को देखते ही मैंने पिताजी से पूछा, ‘ये जेल है या स्कूल?’ पिताजी ले कहा: ‘ये कैसा सवाल है?’ अरे भाई, यह स्कूल है। तुम ड़रो मत। मैंने कहा: ‘मैं डर नहीं रहा। मैं जानना चाहता हूं कि मेरा अपना रवैया कैसा होना चाहिए। इतने बड़े फाटक की क्या जरूरत है?’
जब सब बच्चे कैदियों की तरह भीतर चले जाते तो फाटक बंद कर दिए जाते। फिर बज शाम को बच्चों को बाहर निकालना होता तो वे खोल दिए जाते। मुझे तो अभी भी वह फाटक दिखाई देता है। मुझे अभी भी स्पष्ट दिखाई देता है कि उस भद्दे स्कूल के सामने मैं अपने पिताजी के साथ कैसे खड़ा था—अपना नाम दर्ज कराने के लिए। स्कूल तो जैसा था वैसा था ही लेकिन उसका फाटक तो और भी अधिक बदसूरत था। उस बड़े फाटक को हाथी-द्वार कहा जाता था। वह इतना बड़ा था कि उसमें से एक हाथी निकल सकता था। शायद वह सर्कस के हाथियों के लिए ठीक रहता और वह सर्कस ही तो था। छोटे बच्चों के लिए वह बहुत बड़ा था।
इन नौ सालों के बारे में मुझे तुम्हें बहुत कुछ बताना है।
--ओशो
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