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बुधवार, 16 जून 2010

महेश भट्ट -विजय आंनद- का संन्यास-ओशो भाग-02

महेश भट्ट-विजय आंनद-का संन्यास-
मरौ हे जोगी मरौ-ओशो
....तो यह तो जब तुम दीक्षा लोगे यह घटना घटेगी। फिर जब तुम दीक्षा छोड़ोगे, इससे उल्‍टी घटना घटेगी। घटनी ही चाहिए, ठीक तर्क है; एक सरणी है उसकी। अब तुम्‍हें बोलना पड़ेगा मेरे खिलाफ। अब तुमने जो-जो संदेह दबा लिए थे, वे सब उभर कर ऊपर आ जायेंगे। और जो-जो श्रद्धा तुमने आरोपित कर ली थी, वह सब तिरोहित हो जायेगी। अब तुम्‍हारे सारे संदेह अतिशयोक्‍ति से प्रकट होंगे। करने ही पड़ेंगे। क्‍योंकि जिसे तुमने छोड़ा वह गलत होना चाहिए, जैसे तुमने जब पकड़ा था तो वह सही था।

      तो विजया नंद पाँच साल मेरे पक्ष में बोलते रहे, अब पचास साल मेरे खिलाफ बोलना पड़ेगा। वे सब जो पाँच साल में दबाये हुए संदेह थे, सब उभरकर आयेंगे। और अब रक्षा करनी होगी, क्‍योंकि वे ही लोग जो कल कहते थे कि क्‍या तुम पागल हो गये हो संन्‍यास लेकर,अब कहेंगे कि हमने पहले ही कहा था कि तुम पागल हो गये हो। अब इनको जवाब देना होगा।  तो अब बड़ी अड़चन खड़ी होगी। उस अड़चन से बचाव करना होगा। बचाव एक ही है कि हम भ्रांति में पड़ गये थे। या बचाव यह है कि कुछ-कुछ बातें ठीक थीं, उन्‍हीं बातों के कारण हम संन्‍यस्‍त हो गये थे। फिर जब संन्‍यस्‍त हुए तब धीरे-धीरे पता चला है कि कुछ-कछ बातें गलत है।
फिर धीरे-धीरे जैसे-जैसे अनुभव बढ़ा, पता चला कि बिलकुल गलत है। ऊपर-ऊपर की बातें ठीक है, भीतर-भीतर बिलकुल गलत है।
      यह आत्‍म रक्षा है। यह बिलकुल  स्‍वाभाविक है। इससे जरा भी चिंतित मत होना। इसे समझो जरूर।
      महेश तो विद्यार्थी की हैसियत से आगे कभी बढ़े ही नहीं। कुतूहलवश आ गये थे। विजया आनंद के साथ ही आ गये थे। साथ ही चले भी गये। आना एक संयोग मात्र था। न तो आये थे न गये। मेरे हिसाब में न तो कभी आये, न गये। मैने हिसाब नहीं रखा महेश भट्ट का। ऐसे लोगों का हिसाब नहीं रखना पड़ता; ये तो नदी में बहती हुई लड़कियाँ है। लग गयीं किनारे तो कोई किनारा यह सोचने लगे कि मेरी तलाश में आकर लग गयी  है तो गलती हो जायेगी। क्‍योंकि अभी आयेगा हवा का झोंका और लकड़ी बह जायेगी। विजय आनंद के साथ ही आ गये थे।  जब मैंने महेश को संन्‍यास दिया था तो विजया आनंद मौजूद थे। महेश को सन्‍यास देने के पहले मैंने कहा: विजय आनंद तुम भी पास आकर बैठ जाओ, ताकि सहारा रहे........। पास बिठा लिया था विजया आनंद को, ठीक बगल में महेश के, और विजया आनंद ने उसकी पीठ पर हाथ रख लिया था, तब मैंने उन्‍हें संन्‍यास दिया। क्‍योंकि मैं महेश को तो जानता नहीं कि इनका कोई मूल्‍य है, कि ये कोई जिज्ञासा से आये है। यह तो विजया आनंद को कुछ हुआ है.....ये विजया आनंद के शिष्‍य है, मेरे नहीं।
      तो स्‍वाभाविक था कि जब विजया आनंद जायेंगे तो महेश भी जायेगा। इनका कोई मूल्‍य नहीं है। विद्यार्थी की हैसियत से उनका आगे कभी जाना हुआ नहीं। विजया आनंद न जरूर चेष्‍टा की थी। और साधक की स्‍थिति आ गयी थी। थोड़ी और हिम्‍मत रखते तो शिष्‍य की घटना भी घटती। मगर अड़चनें आ गयीं। अड़चनें आती है, मानवीय अड़चनें है। समझना, तुमको भी आ सकती है, इसलिए उत्‍तर दे रहा हूं। सभी को आ सकती है। विजया आनंद ख्याति लब्ध हैं। बड़े फिल्‍म निर्देशक है,(‘’गाइड’’ और ‘’तेरे मेरे सपने’’ संन्‍यास के दिनों में बनाई थी) सारा देश उन्‍हें जानता है—यह अहंकार अड़चन बनता रहा। आकांशा थी कि उनको में ठीक उसी तरह व्‍यवहार करुँ—एक विशिष्‍ट व्‍यक्‍ति की तरह—वी. वी. आई. पी.। वह मुझे तोड़ना पड़ेगा। नहीं तो साधक कभी शिष्‍य नहीं बन सकेगा। उसे मैंने तोड़ना शुरू कर दिया। रोज-रोज उन पर चोटें पड़ने लगीं। पहले वे जब भी आते थे, जिस क्षण  चाहते थे मिलने को आ जाते थे। अब उनको भी समय लेना पड़ता—दो दिन बाद, सात दिन बाद....। पीड़ा होने लगी, कष्‍ट होने लगा। अड़चन होने लगी कि उनके साथ भी और दूसरे संन्‍यासियों जैसा ही व्‍यवहार हो रहा है। विशिष्‍ट व्‍यवहार नहीं हो रहा।
      पहले मैं तुम्‍हारी बहुत चिंता लेता हूं। वह तो कांटे पर आटा है। मगर आटा ही आटा मछली को खिला ये जायेंगे तो मछली फंसे गी कब? जल्‍दी ही आटे के भीतर का छिपा कांटा प्रगट होगा। जब कांटा प्रगट होगा तब अड़चन होती है। जब मैं विजया आनंद के साथ ठीक वैसा व्‍यवहार करने लगा जैसा सब के साथ—जो कि जरूरी था, यही सीढ़ी अगर वे गुजर गये होते,अगर उन्‍होंने स्‍वीकार कर लिया होता कि संन्‍यस्‍त जब हुआ तो विशिष्‍टता छोड़ देनी है। अपने को भिन्‍न मानने का कोई कारण नहीं है। किसी का नाम जाहिर है किसी का नाम नहीं जाहिर है। इससे फर्क थोड़े ही पड़ता है, इससे कोई जीवन की अंतर्दिशा थोड़े ही बदलती है। तुम्‍हें कितने लोग जानते है इससे तुम्‍हारे पास ज्‍यादा आत्‍मा थोड़े ही होती है। न ज्‍यादा ध्‍यान होता है, न ज्‍यादा समाधि होती है। यह भी हो सकता है, तुम्‍हें कोई न जानता हो और तुम्‍हारे भीतर परम घटा हो। जानने न जानने से इसका कुछ लेना देना नहीं है।
      फिर जैसा मैंने कहा कि जैसे-जैसे तुम्‍हारी सीढ़ी आगे बढ़ेगी; वैसे-वैसे मैं कठोर होता जाउँगा, वैसे-वैसे तुम्‍हें आग में डाला जायेगा। तभी तो निखरोगे, तभी तो कुंदन बनोंगे। कुम्‍हार घड़े को बनाता है। तो थापता है मिट्टी को बड़ा सम्‍हालता है। ऊपर से चोट भी करात है भीतर से हाथ का सहारा भी देता है। लेकिन अहंकारी को चोट ही दिखाई पड़ती है। भीतर हाथ का सहारा नहीं दिखाई पड़ता है। निर-अहंकारी को भीतर हाथ का सहारा दिखाई पड़ता है, चोट की वह फ्रिक नहीं करता। वह कहता है। एक हाथ चोट मार रहा है कुम्‍हार का। दूसरा हाथ सहारा दे रहा है। यही तो रास्‍ता है घड़े के बन जाने का। फिर जब घड़ा बन जाता है तो कच्‍चे घड़े को तो कुम्‍हार सम्हाल कर रखता है। फिर जल्‍दी ही आग में डालेगा। और घड़ा बन जाता है तो कच्‍चे घड़े को तो कुम्‍हार सम्हाल कर रखता है, फिर जल्‍दी ही आग में डालेगा। और घड़ा अगर चिल्‍लाने लगे कि इतना सम्‍हाला मुझ..... इतना होशियारी से रखते थे। सम्‍हाल-सम्हाल कर कि टूट न जाऊँ, फूट न जाऊँ और अब आग में डालते हो। अगर कच्‍चे घड़ों में भी विजया आनंद जैसे लोग होते, भाग खड़े होते। वे कहते हम चले....। मगर घड़े कहीं भाग नहीं सकते, इसलिए सुविधा है। मैं जिंदा घड़ों पर काम करता हूं। इसलिए कभी-कभी भाग भी जाते है। जब आग में डालने के दिन करीब आने लगे तो वे घबड़ा गये। साधक की हैसियत में ही भाग गय।
      कुछ लोग शिष्‍य की हैसियत तक में जाकर भाग जाते है, क्‍योंकि जो आखिरी चोट है, वह तुम्‍हारे अहंकार का परिपूर्ण विसर्जन है। वह तुम्‍हारे व्‍यक्‍तित्‍व का पूरी तरह लीन हो जाना है गुरु में, जैसे बूंद सागर में लीन हो जाये। उतना दांव जो लगा सकता है। अन्‍यथा कठिनाई हो जाती है।
      और जो भी जायेगा छोड़कर, वह विरोध में बातें करेगा, निंदा भी करेगा। वह सब स्‍वाभाविक है, इसकी चिंता मत लेना। जहां लाखों शिष्‍य होने वाले है, वहां इस तरह के हजारों लोग होंगे.........

--ओशो

मरौ हे जोगी मरौ,
दसवां प्रवचन; दिनांक 10 अक्‍टूबर, 1978,
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

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