महेश भट्ट-विजय आंनद-का संन्यास-
मरौ हे जोगी मरौ-ओशो
शिष्यों की चार कोटियां है। पहली कोटि—विद्यार्थी की है, जो कुतूहल वश आ जाता है। जिसके आने में न तो साधना की कोई दृष्टि है न कोई मुमुक्षा है, न परमात्मा को पाने की कोई प्यास है। चलें देखें, इतने लोग जाते है, शायद कुछ हो। तुम भी रास्ते पर भीड़ खड़ी देखो तो रूक जाते हो, पूछने लगते हो क्या मामला है? भीतर प्रवेश करना चाहते हो, भीड़ में। देखना चाहते हो कुछ हुआ होगा.....। नहीं कि तुम्हें कोई प्रयोजन है, अपने काम से जाते थे। आकस्मिक कुछ लोग आ जाते है। कोई आ रहा है। तुमने उसे आते देखा;उसने कहा: क्या करते हो बैठे-बैठ, आओ मेरे साथ चलो, सत्संग में ही बैठेंगे। खाली थे कुछ काम भी न था, चले आये। पत्नी आयी, पति साथ चला आया; पति आया, पत्नी साथ चली आई। बाप आया बेटा साथ चला आया।
मरौ हे जोगी मरौ-ओशो
शिष्यों की चार कोटियां है। पहली कोटि—विद्यार्थी की है, जो कुतूहल वश आ जाता है। जिसके आने में न तो साधना की कोई दृष्टि है न कोई मुमुक्षा है, न परमात्मा को पाने की कोई प्यास है। चलें देखें, इतने लोग जाते है, शायद कुछ हो। तुम भी रास्ते पर भीड़ खड़ी देखो तो रूक जाते हो, पूछने लगते हो क्या मामला है? भीतर प्रवेश करना चाहते हो, भीड़ में। देखना चाहते हो कुछ हुआ होगा.....। नहीं कि तुम्हें कोई प्रयोजन है, अपने काम से जाते थे। आकस्मिक कुछ लोग आ जाते है। कोई आ रहा है। तुमने उसे आते देखा;उसने कहा: क्या करते हो बैठे-बैठ, आओ मेरे साथ चलो, सत्संग में ही बैठेंगे। खाली थे कुछ काम भी न था, चले आये। पत्नी आयी, पति साथ चला आया; पति आया, पत्नी साथ चली आई। बाप आया बेटा साथ चला आया।
ऐसे बहुत से लोग आकस्मिक रूप से आ जाते है। उनकी स्थिति विद्यार्थी की है। वे कुछ सूचनाएं इकट्ठी कर लेंगे, सुनेंगे तो कुछ सूचनाएं इकट्ठी हो जायेगी। उनका ज्ञान थोड़ा बढ़ जायेगा। उनकी स्मृति थोड़ी सधन होगी। ऐसे आने वालों में से, सौ में से दस ही रूकेंगे; नब्बे तो छिटक जायेंगे। दस रूक जाते है यह भी चमत्कार है। क्योंकि वे आये न थे किसी सजग-सचेत प्रेरण के कारण—ऐसे ही मूर्छित -मूर्छित किसी के धक्के में चलें आये थे पानी में बहती हुई लकड़ी की तरह किनारे लग गये थे। किनारे की कोई तलाश नहीं थी।
कितनी देर लगा रहेगा लकड़ी का टुकड़ा किनारे से? हवा की कोई लहर आयेगी, फिर वह जायेगा; उसका रूकना बराबर है। लेकिन ऐसे लोगों में से भी दस प्रतिशत लोग रूक जाते है। जो दस प्रतिशत रूक जाते है वे ही दूसरी सीढ़ी में प्रवेश करते है।
कितनी देर लगा रहेगा लकड़ी का टुकड़ा किनारे से? हवा की कोई लहर आयेगी, फिर वह जायेगा; उसका रूकना बराबर है। लेकिन ऐसे लोगों में से भी दस प्रतिशत लोग रूक जाते है। जो दस प्रतिशत रूक जाते है वे ही दूसरी सीढ़ी में प्रवेश करते है।
दूसरी सीढ़ी साधक की है। पहली सीढ़ी में सिर्फ बौद्धिक कुतूहल होता है—एक तरह की खुजलाहट,जैसे खाज खुजाने में अच्छा लगता है। हालांकि लाभ नहीं होता, नुकसान होता है—ऐसे ही बौद्धिक-खुजलाहट से भी लाभ नहीं होता है। नुकसान होता है पर अच्छा लगता है। मीठा लगता है। यह पूँछें, वह पूँछें, यह भी जाने लें; अहंकार की तृप्ति होती है कि मैं कोई अज्ञानी नहीं हूं, बिना ज्ञान के ज्ञानी होने की भ्रांति पैदा हो जाती है। इसमें से दस प्रतिशत लोग रूक जायेंगे। ये दस प्रतिशत साधक हो जायेंगे।
साधक का अर्थ है: जो अब सिर्फ सुनना नहीं चाहता,समझना नहीं चाहता, बल्कि प्रयोग भी करना चाहता हे। प्रयोग साधक का आधार है। अब वह कुछ करके देखना चाहते है। अब उसकी उत्सुकता एक नया रूप लेती है। कृत्य बनती है। अब वह ध्यान के संबंध में बात ही नहीं करता, ध्यान करना शुरू करता है। क्योंकि बात से क्या होगा, बात में से तो बात निकलती रहती है बात तो बात ही है, पानी का बबूला है, कोरी गर्म हवा है—कुछ करें जीवन रूपांतरित हो कुछ,कुछ अनुभव में आये।
यह जो दूसरा वर्ग है। इसमें जितने लो रह जायेंगे, इसमें से पचास प्रतिशत रूकेंगे पचास प्रतिशत खो जायेंगे। क्योंकि करना कोई आसान बात नहीं है। सुनना तो बहुत आसान है। तुम्हें कुछ करना नहीं है। मैं बोला,तुमने सुना,बात खत्म हुई। करने में तुम्हें कुछ करना होगा, सफलता सुनिश्चित नहीं है, जब तक कि त्वरा न हो तीव्रता न हो दांव पर लगाने की हिम्मत न हो साहस न हो—सफलता आसान नहीं है। कुनकुने -कुनकुने करने से तो सफलता नहीं मिलेगी, सौ डिग्री पर उबलना होगा। उतना साहस कम ही लोग जुटा पाते है जो नहीं जुटा उतना साहस, वे सोचने लगते है कि कुछ है नहीं, करने में भी कुछ रखा नहीं है। यह अपने मन को समझाना है कि करने में कुछ रखा नहीं है। किया है ही नहीं, करने में ठीक से उतरे ही नहीं, उतरे भी तो किनारे-किनारे रहे, कभी गहरे गये नहीं, जहां डुबकी लगती। भोजन पकाया ही नहीं, ऐसे ही चूल्हा जलाते रहे, वह भी इतने आलस्य से जलाया कि कभी जला नहीं। धुआं इत्यादि तो उठा,लेकिन आग कभी बनी नहीं। तो धुएँ में कोई कितनी देर रहेगा। जल्दी ही आँख आंसुओं से भर जाएगी। मन कहेगा चलो भी यहां क्या रखा है। धुआं ही धुआं है।
जहां धुआं है वहां आग हो सकती थी, क्योंकि धुआं जहां है वहां आग होगी ही। लेकिन थोड़ा और गहन प्रयास होना चाहिए था। थोड़ा और तपश्चर्या होनी थी। थोड़ा और श्रम, थोड़ा और प्रयास। जो नहीं इतना प्रयास कर पाते, पचास प्रतिशत लोग विदा हो जायेंगे; जो पचास प्रतिशत रह जायेंगे, वे तीसरी सीढ़ी में प्रवेश करते है।
तीसरी सीढ़ी शिष्य की सीढी है। शिष्य का अर्थ होता है: अब अनुभव में रस आया, अब सद्गुरू की पहचान हुई। अनुभव से ही होती है, सुनने से नहीं होगी। सुनने से तो इतना ही पता चलेगा—कौन जाने,बात तो ठीक लगती है, लेकिन इस व्यक्ति का अपना अनुभव हो कि न हो, कि केवल शास्त्रों की पुन रूक्ति हो, कौन जाने सद्गुरू है भी या नहीं, या केवल पांडित्य है। यह तो तुम्हें स्वाद लगेगा तभी स्पष्ट होगा कि जिसके पास तुम आये हो वह पंडित नहीं हे, या कि पंडित ही है? स्वाद में निर्णय हो जायेगा, तुम्हारा स्वाद ही तुम्हें कह देगा। अगर सद्गुरू है तो तीसरी घड़ी आ गयी, तीसरी सीढ़ी आ गयी; तुम शिष्य बनोंगे।
शिष्य का अर्थ है: समर्पित। अब शंकाएं न रहीं। अब पुराना ऊहापोह न रहा। अब भटकाव न रहा। अब एक टिकाव आया जीवन में अब नाव पर सवार हुए।
जो लोग शिष्य हो जाते है। इनमें से नब्बे प्रतिशत रूक जायेंगे, दस प्रतिशत इनमें से भी छिटक जायेंगे। क्योंकि जैसे-जैसे गहराई बढ़ती है साधना की वैसे-वैसे कठिनाई भी बढ़ती है। शिष्य को अग्नि-परीक्षाए देनी होंगी। जो कि साधक से नहीं मांगी जाती। और विद्यार्थी से तो मांगने का सवाल ही नहीं है। अग्नि परीक्षा तो सिर्फ शिष्य की होती है। जो इतने दूर चला आया है, उसी पर गुरु अब कठोर होता है। कठोर होना पड़ेगा। चोट गहरी करना होगी, अगर किसी पत्थर की मूर्ति बनानी हो तो छैनी उठाकर पत्थर को तोड़ना ही होगा। बहुत पीडा होगी, क्योंकि तुम्हारे ऊपर जो आवरण जो धुल मिट्टी जमी है, सदियों पुरानी, तुम्हारे ऊपर जो अज्ञान की पर्तें है, वे कपड़ों जैसी नहीं है निकालकर फेंक दीं और नग्न हो गये,वे चमड़ी जैसी हो गयी हैं। उन्हें उधेड़ना है, सर्जरी है।
तो दस प्रतिशत लोग तीसरी सीढ़ी से भी भाग जायेंगे। जो नब्बे प्रतिशत तीसरी सीढ़ी पर टिक जायेंगे, जो अग्नि परीक्षा से गुजरेंगे, वे चौथी सीढ़ी पर प्रवेश करते है। जो कि अंतिम सीढ़ी है। वे भक्त की है। शिष्य और गुरु में थोड़ा सा भेद रहता है। समर्पण तो होता है शिष्य की तरफ से, लेकिन समर्पण शिष्य की ही तरफ से होता है। अभी समर्पण में थोड़ा-सा अहंकार जीवित होता हे। कि मैंने समर्पण किया, मेरा समर्पण। चौथी सीढ़ी पर मैं भाव बिलकुल शून्य हो जाता है। अब भक्ति जगी,अब प्रेम जगा। अब गुरु और शिष्य अलग-अलग नहीं है। इस सीढ़ी से फिर कोई भी जा नहीं सकता। जो यहां तक पहुंच गया, उसका वापिस लौटना नहीं होता।
इसलिए बहुत आयेंगे, बहुत जायेंगे। जितने लोग आयेंगे उतनी ही अधिक संख्या में जाएंगे। इस समय मेरे कोई पचहत्तर हजार(1978) संन्यासी है, सारी पुरी दुनियां में। अब इनमें से दस-पाँच छिटकेंगे, भागेगे तो कुछ आश्चर्य की तो बात नहीं है। कोई चिंता की बात भी नहीं है। ये पचहत्तर हजार कल पचहत्तर लाख हो जायेंगे तो और भी ज्यादा हटेंगे और भी ज्यादा छिटकेंगे। यह काम जितना बड़ा होगा,उतने ही बड़े काम के साथ उतने ही लोग छिटकेंगे। स्वाभाविक है यह अनुपात रहेगा। विद्यार्थियों में से नब्बे प्रतिशत भाग जायेंगे। साधकों में से पचास प्रतिशत भाग जायेंगे। शिष्यों में से दस प्रतिशत भाग जायेंगे। सिर्फ भक्तों में से जाना नहीं होता।
लेकिन भक्त तक आते-आते लंबी यात्रा है, जैसे कोई हिमालय चढ़े। ऊंची चढ़ाई है, बहुत पसीना होगा। बहुत थकान होगी, दम भी आयेगी। और जो भी भागेगा, उसकी भी मजबूरी है। जब वह भागता है तो उसकी मजबूरी भी समझो, मैं उसकी मजबूरी समझता हूं। जैसे तुमने पूछा है कि विजया आनंद और महेश भट्ट आपके विरोध में कहते है: कहना ही पड़ेगा। क्योंकि जो भाग गया वह यह तो नहीं कहेगा कि मैं भाग आया अपनी कमजोरी से; कि मैं योग्य नहीं था, कि मैं अपात्र था, कि मेरी क्षमता छोटी पड़ गयी, कि पहाड़ ऊँचा था; मैंने सोचा था कि छोटा टीला होगा, और मैं चढ़ जाऊँगा, और ये निकला गौरी शंकर। मैं नहीं चढ़ पाया, ऐसा तो कोई नहीं कहेगा भागा हुआ। अगर वो ऐसा समझ जाये तो भी फिर भागे ही नहीं। उसको अपने अंहकार की रक्षा भी करना होगी न। तो कोई यह तो नहीं कहेगा कि मैं हार गया इसलिए आ गया हूं। उस अहंकार की सुरक्षा के लिए मेरे विरोध में बोलना शुरू करना ही पड़ेगा। पीड़ा भी होगी, क्योंकि झूठ दिखाई पड़ेगा।
तो विजया आनंद लोगों से मेरे पास खबर तो भेजते है कि भगवान को मेरे प्रणाम कह देना, लेकिन मेरे खिलाफ भी बोलते रहते है। एक द्वंद्व पैदा हो गया। भीतर से जानते है कि अपनी कमजोरी...नहीं चल सके साथ। तो मुझे प्रणाम भी भेजते है। और मेरे खिलाफ वक्तव्य भी देते रहते है। मेरे खिलाफ वक्तव्य देने पड़ेंगे, क्योंकि लोग पूछते है कि आपने छोड़ा क्यों? अब दो ही उपाय है: या तो गुरु गलत रहा हो या शिष्य गलत रहा हो। स्वाभाविक है, इतनी हिम्मत ही अगर होती कि मैं गलत हूं, तो जाने की जरूरत ही न पड़ती, भागने का सवाल ही न उठता। इतनी हिम्मत नहीं थी, तो अब रक्षा तो करनी होगी।
इस बात को ख्याल में लेना। जब तुम संन्यास लेते हो तो तुम मेरे पक्ष में बोलना शुरू कर देते हो। जरूरी नहीं है कि तुम मेरे पक्ष में बोल रहे हो। संभावना यहीं है कि अब तुमने संन्यास लिया तो मेरे पक्ष में बोलना ही पड़ेगा। क्योंकि नहीं मेरे पक्ष में बोलोगे तो लोग कहेंगे: पागल हो, फिर संन्यास क्यों लिया? तुम्हें अपनी आत्म रक्षा के लिए बोलना पड़ेगा मेरे पक्ष में।
तो तुम जब मेरे पक्ष में बोलते हो तो जरूरी नहीं है कि मेरे पक्ष में ही बोलते हो, बहुत संभावना तो यहीं है कि तुम अपने अहंकार की रक्षा के लिए बोलते हो...कि हां, मेरे सद्गुरू पूर्ण सद्गुरू है, कि वे परमात्मा को उपलब्ध है। तुम्हें कुछ पता नहीं है। तुम्हें क्या पता होगा अभी? जब तक तुम उपलब्ध न हो जाओ, तुम्हें कैसे पता हो सकता है? लेकिन तुम्हें मेरे पक्ष में बोलना ही पड़ेगा,मेरी स्तुति करनी पड़ेगी। उसी स्तुति में तुम अपने अहंकार की रक्षा कर सकते हो। तुम्हें सारे संदेह अपने भीतर दबा देने होंगे। अचेतन में फेंक देने होंगे। नहीं कि संदेह उठेंगे, इतनी आसानी से थोडे ही जाते है कि तुम आये, संन्यस्त हो गये और संदेह मिट गये। काश...इतना आसान होता। संदेह वर्षों तक पीछा करेंगे। संदेह लौट-लौट कर आयेगा। मगर तुम किसी से कह न सकोगे; कहोगे तो भद्द होगी। अगर किसी से कहोगे कि मुझे शक है कि मेरा गुरु-गुरु है भी या नहीं, तो लोग कहेंगे कि फिर तुम गुरु को स्वीकार क्यों किये हो? फिर किस लिए गैरिक वस्त्र धारण किये हैं, फिर क्यों यह माला, फिर क्यों यह स्वांग रचाया है? अब तुम बड़ी मुशिकल में पड़े,अब तुम बड़ी अड़चन में पड़े।
अगर सच-सच अपने संदेह कहो तो लोग कहेंगे तुम मूढ़ हो। इससे बचने के लिए तुम संदेहों को दबा दोगे। और तुम खूब श्रद्धा की बातें करोगे। तुम चेष्टा करोगे कि मेरा जैसा गुरु कभी हुआ ही नहीं दुनियां में, क्योंकि तुम जैसा शिष्य कहीं हुआ है दुनिया में, तुम्हारे अहंकार की तृप्ति तुम्हारे गुरु की ऊंचाई से होगी। जितना ऊँचा तुम अपने गुरु को सिद्ध कर सकोगे,उतने ही बड़े तुम शिष्य हो। और तुमने जिसे गुरु चुना है वह बड़ा होना ही चाहिए; तुम जैसा आदमी छोटे-मोटे को चूनेगा।.....(क्रमश: अगले अंक में)
--ओशो
मरौ हे जोगी मरौ,
प्रवचन: दसवां, 10 अक्टूबर 1978,
( प्रश्न: पहला)
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