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सोमवार, 28 जून 2010

सोने की मछली —(कथा यात्रा-001)

सोने की मच्छली- (एस धम्मों सनंतनो)
बात उस समय की है, जब भगवान बुद्ध श्रावस्‍ती में विहरते थे। श्रावस्‍ती नगर के पास केवट गांव के कुछ मल्‍लाहों ने अचरवती नदी में जाल फेंककर कर एक स्‍वर्ण-वर्ण की अद्भुत मछली को पकड़ा।  कहानी कहती है अचरवती नदी.....जो चिर नहीं है......अचिर यानि क्षणभंगुर है।
      ऐसा ही तो जीवन है, प्रत्‍येक प्राणी क्षण-क्षण बदलते प्रवाह के संग-साथ जाता है और पकडना चाहता है। जाल फेंक कर बैठे है, अचरवती के किनारे, कोई पद का, यश का, धन का, नाम का......की मछली को पकड़-पकड़ को कहां पकड़ पाता है। कास हम समझ जाते ये जीवन क्षण भंगुर है।
      सोने की मछली तो मल्‍लाहों ने पकड़ ली, जिसका शरीर तो सोने का था, परन्‍तु उसके मुख से भयंकर दुर्गंध आ रही थी।
      यहां भी शरीर तो लाखों लोग सोने जैसा पा लेते है। पर अन्‍दर तो सब सड़ रहा है। देखो किसी सुंदर स्‍त्री को पड़ो उसके प्रेम में, जैसे-जैसे तुम पास आते हो शरीर तो स्‍वर्ण तो सोने का पा लिया है। पर अंदर तो सब सड़ गल रहा है। अहंकार, व्‍यमनस्‍य, क्रोध....भरा है, प्रेम की सुवास कहां है वहां। उस से सब ढका है। अंदर कुड़ा कर्कट भरा है।
      यहां सुन्‍दरत्‍म देह तो मिल सकती है, लेकिन अंदर तो कुरूपता ही होगी। कहां पाओगे सुन्‍दर आत्‍मा, किसी मीरा, सहजो, किसी लल्ला, में ही स्‍वर्ण आत्‍मा के दर्शन हो सकते है। वहीं वास पाओगे सुन्‍दर देह और सुन्‍दर आत्‍मा। इससे पहले कहां तृप्‍ति हे।
      लेकिन ये सब दूसरों के लिए नहीं है। ये सब तुम्‍हारे लिए ही है, तुम्‍हारे पास सुन्‍दर शरीर तो है पर कहां है सुन्‍दर आत्‍मा। तीर को फल अपनी और करके देखना। तभी तुम्‍हें पता चलेगा की यह है अचरवती , झांक करे देखना एक बार उसमे शायद दिख जाये हमें हमारा असली रूप। हमारे सब शिष्‍टाचार, सौम्‍यता, उपर-उपर ही लिपी पूती है। उपर से हम छाप तिलक लगा, दाढ़ी बढ़ा बन बैठेंगे संत। हजारों को छल सकेंगे। पर अंदर तो वहीं गंदगी भरी है। वहीं रोग सड़ रहा है। उपर ही उपर सज्‍जनता है अन्‍दर अंदर अभी भी जंगली जानवर तैयार खड़ा है। जरा सा खूरोचा नहीं निकल कर बहार खड़ा हो जाता है। आप इसे अपने ही जीवन  अनुभव से देखे तोले, तीर अपनी तरफ रखें तभी समझ पायेंगे। दूसरों में देखना आसान है। अपनी तरफ बहुत मुश्किल है।
      मल्‍लाहों की समझ में बात आई नहीं, ऐसी मछली तो पहले न देखी थी न सुनी थी। जब बात सर से उपर चली गई तो वह राज के पास गये। भला राजा को भी कहां समझ में आनी थी। वह भी सीमित संकुचित बुद्धि का होगा हमारा प्रतिनिधित्‍व हमसे अलग कैसे हो सकता है। राजा उसे द्रोणी में रख कर भगवान के पास ले गए। और उसी समय मछली में अपना मुख खोला।
      देखा मल्लाहों नहीं समझे,समझ आती है बात कहां सोना देखा है। कहां कंचन काया जानी, जीवन बस किसी तरह रेग रहा है।  पर राजा तो सोने में जीता, सोने की काया को भोगता, सोने के ही वर्तनों में खाता है। उसकी भी समझ में नहीं आई। मल्‍लाहों को क्षमा किया जा सकता हे। उनमें कोई विरला ही कबीर, नानक, रवि दास...ही सोने की मछली को समझ सकते है। पर गरीबी में कहां ध्‍यान...वहां तो मांग ही शुरू नहीं हुई है सही तरीके से। लेकिन धन वैभव हो तो तुम उसके पास देख सकते है। कि ये सब पा कर भी कुछ नहीं मिला अंदर तो अभी खाली का खाली ही है।
      राज को भी समझ में नहीं आया, फिर क्‍या, समझें कथा क्‍या कहती है। आखिर हम सब को जाना होगा एक दिन बुद्ध के पास वहीं निवारण है वहीं निर्वाण है। किसी जाग्रत पुरूष के संग बैठना हो उसकी छांव में । संग साथ लेना होगा उनकी तरंगों का जो तुम्‍हें अपने साथ उड़ा ले चले, बिन पंखों के। किसी और लोक की और, जिसकी तुम कल्‍पना भी न कर सको। वहीं होश ही तुम्‍हारी सारी उलझनों सुलझा सकता है। वहीं तुम्‍हारी उलझी बेल सुलझ सकती है। वहीं समाधान है, जो समाधि प्राप्‍त कर चुका है, वहीं कर सकता है हमारा समाधान, हमारा रूपान्‍तरण, बदलाव, उससे पहले कोई मार्ग नहीं।
      जैसे ही मछली को भगवान के सामने लाये उसने अपना मुख खोला—क्‍यों खोला मछली ने अपना मुख? याद आ गई होगी, आवक रह गयी होगी, बुद्ध को देख कर चल चित्र की भी बह गई होगी अपने पीछे जीवन में। उस बुद्ध कि याद आ गई होगी जिसका संग साथ किया था पहले।  अरे यह क्‍या? फिर वहीं सौन्दर्य, वहीं तरंगें, वहीं सुगंध, वहीं शांतिएक बार फिर। समझ में नहीं आया होगा कि ये सब क्‍या है। कैसे है। खुला रह गया होगा उसका मुख। कितने कम भाग्‍य शाली लोग होते है। जो फिर-फिर उसी वर्तुल में घूम कर बुद्धों के सामने आ जोत है। हम तो बचते है, बचना ही चाहते है। कोई न कोई बहाना कर टाल देना चाहते है। उनके आस पास जाने से भी कतरते है। उनके शब्‍द कानों में न पड़ जाये इस लिए बच कर दूसरे रास्‍ते से चल जाते है। क्या कि हम समझदार है, कोई मूढ़ नहीं जो कोई हम बहका फुसला ले। और तो मुर्ख है अज्ञानी है। पर हम तो....ओर मर जाने के बाद कितनी श्रद्धा भगती से पूजा करते है। आरती का थाल सजाते है। तिलक टिका भी लगा देते है। भोग लगो प्रसाद भी ग्रहण कर लेते है। वह आग तो चली गई अब तो उस का फोटो है छुओ उसे नहीं जलेगा तुम्‍हारा है। पर यहीं शायद हमारे अहंकार को तृप्‍ति देता है।
      जीवत बुद्ध को तो देख कर तुम्‍हें भरोसा नहीं आता। कि कोई बुद्धत्‍व भी है। हमारी अकड़...समझदारी बन हमारा बचाव कितनी खूबसूरती से करती है। प्राचीन परंपरा है कि गुरु के पास कोई जाये तो उसे झुकना होगा। तभी तो तुम भर सकोगे अपनी गागर को, बहती रहे नदी तुम जीवन भर उस अकड़े खड़े रहो और कहो की यहां कोई पानी नहीं है। देखो मुझे तो मिला ही नहीं और लोग झूठ बोल रहे है। होता तो क्‍या मुझको नहीं मिलता। अकड़े खड़े रहो खाली लोट आओगे। इसमें नदी को कोई कसूर नहीं है। पानी तुम्‍हारे कंठ को कैसे छुए यही तो कला है गुरु के संग जाने की, तब हम कह सकते है, ये कोई ध्‍यान-वान नहीं सब मंद बुद्धि आदमी की बनाई हुई बात है। कोई समाधि नहीं होती। कोई बुद्धत्‍व नहीं होता। सब पागल है...
      राजा ने पूछा: भंते, भगवान का ही अति सुंदर छोटा रूप है, भंते, क्‍यों इसका शरीर स्‍वर्ण का हो गया। और इसके मुख से कितनी दुर्गंध आ रही है। भगवान ने मछली को गोर से देख, चले गये उसके पूर्व जन्‍म में ऐक्सरे मशीन की तरह....ओर कहा यह कोई साधारण मछली नहीं है।
      यह कश्‍यप बुद्ध के शासन काल में कपिल नाम का एक महा पंडित भिक्षु था। संन्‍यास धारण किया था इसने। त्रिपुटक था, ज्ञानी था, विद्यावान था। देखा आपने ज्ञान से अंहकार कटता नहीं और मजबूत हो जाता है। धन, पद, यश, नाम तो तुम्‍हारे कपड़ों की तरह से है। पर ज्ञान तो तुम्‍हारी चमड़ी की तरह है। धन छोड़ सकते हो, घर छोड़ सकेत हो बड़े मजे में। पर चमड़ी को छोडने के लिए विकट साहस की जरूरत है। वो तो कोई विरल ही कर सकता है। चमड़ी को उतरना कठिन है। इसलिए आपने देखा बोधक तोर से ज्ञान लोग अहंकारी होते है। अहंकार और ज्ञान का चोली दामन का साथ है।
      ऐसा अकसर होता है, महावीर को उसके ही शिष्‍य मखनी गोशालक ने धोखा दिया। महा पंडित था, बड़ा ज्ञानी था...पर क्‍या हुआ। बुद्ध को उसके ही चचेरे भाई देवदत्त ने मारने की कोशिश की। साथ खेला था, बुद्ध से दीक्षा ले उनका संन्‍यासी हुआ। सुसंस्‍कृत था, सुसभ्‍य था। ज्ञानी था। ऐसा ही जीसस के साथ हुआ सब अनपढ़ थे एक पढ़ा लिखा शिष्‍य था जूदास, तीस रूपये में बेच दिया अपने ही गुरू को। ऐसा अक्‍सर क्‍यों होता है क्‍यों ये सब बार-बार दोहराया जाता है। ओशो को उनकी ही शिष्‍य शीला ने जहर देने की कोशिश की और्गन का पूरा का पूरा आश्रम खत्‍म करा दिया किस वजह से , वो खुद गुरु होना चाहती थी। पढ़ी लिखी थी, जब उसने पहली बार ओशो को देखा तो बस वही की होकर रह गई। आई थी अपने पिता के संग नहीं गई घर। ओशो ने एक बार प्रवचन में उस के लिए मील के पत्‍थर के शब्‍द कहे थे, ‘’शीला तै तय किया गज्‍जब’’ ( रज्‍जब तै तय किया गजब) जब ये शब्‍द पढ़े तो मेरी आंखें भर आई। इतनी उच्‍चाई से  भी कोई गीर सकता है। तो वह बच नहीं सकता। आज यूरोप की जल में सड़ रही है शील....। बौधिक पंडित सदा धोखा दे जाते है। इसने अपने गुरू को धोखा दिया। इसकी देह तो स्‍वर्ण की हो गई पर अंदर दुर्गंध भरी रह गई।
      राजा को इस कथा पर भरोसा नहीं आया, तुमको भी नहीं आयेगा। किसे आता है, कौन मानने को तैयार है कि मृत्‍यु के बाद भी कुछ है। इसका क्‍या प्रमाण है। पर मृत्‍यु के बाद नहीं तो जन्‍म के बाद तो हम हजारों प्रमाण देखते है। एक ही माता पिता से एक ही कोख से जन्‍म लेने के बाद दो सन्‍तान एक सी नहीं होती, न बौधिक तोर से शारीरिक तोर से ये भिन्‍नता आती कहां से कुछ तो ऐसा है जो यहां का नहीं है, फिर वह यहां रह ही कैसे सकता है। ..
      राजा ने कहां आप इस मछली के मुख से कहलाये तो मानें। सोचना बुद्ध की बात पर यकीन नहीं आया। भरोसा नहीं आया। पर मछली अगर बोल दे तो यकीन आ जाए, ऐसा है मनुष्‍य फिर गिरेगा अचरवती में, यही है वेदन, पीड़ा। देखी आदमी की मूढ़ता ऐसी होती है। क्षुद्र बातों पर बहुत भरोसा करता है। विराट छूटता चला जाता है। मछली कहे तो मानें।
      भगवान हंसे, शायद करूणा के कारण, चला एक और मछली की रहा पर। और उन्‍होंने राजा को देखा। मछली की आंखों में झांक कर कहां, याद करो भूले को याद करों तुम्हीं हो कपिल, झांक कर देखो, तुम्हीं हो कपिल?
      मछली बोली: हां, भंते, मैं ही कपिल हूं।
      ये कथाएं मनोविज्ञान का संकेत देती है। ये बोध कथा ये है, जैसे आपने देखा ईसप की कहानियां, या पंच तंत्र की कहानियां, जिसमें शेर बोलता है, खरगोश बोलता है। जानवर बोर रहे है, पर बच्‍चें कितने आनंद से पढ रहे है। समझ रहे है, बुद्धों के सामने तो हमारा मानसिक विकास बच्‍चों से भी कम है। ये कथाएं हमारे जीवन दर्शन की कथा कहती है। हमारी चेतना के तलों को भी उजागर कर रही है। हमारी समझ को हमारे ही सामने पार दर्श कर रही है। कहां है हमें होश बुद्ध के होश के सामने, तो अभी हम गहरी तन्‍द्रा में सोये है। छोटे बच्‍चों से भी छोटे है।
      हों, भंते, मछली ने कहां: ‘’मैं ही कपिल हूं। और उसकी आंखों से पश्‍चाताप के आंसू भर आये। गहने सम्‍मोहन में केंद्रित हो गई, पश्‍चाताप से भर जार-जार आंसू बह चलें। आगे कोई शब्‍द नहीं निकला। खो गई उस क्षण में जब अपने गुरू को धोखा दिया था। आंखे खुली की खुल रह गई, मुहँ भी यथा वत खुला हा, और प्राण निकल गई। मर गई मछली पल भर में।
      पर एक चमत्‍कार हुआ, उसका मुख तो पहले की तरह ही खुला था पर अब उसमें दुर्गंध नहीं थी। जैसे ही पुराने वाली दुर्गंध हवा के साथ विलीन होने लगी। अपूर्व सुगंध से भर गई वह जगह। एक मधुर सुवास चारों तरफ फेल गई।
      राजा चुका मछली पा गई। उलटी दुनियां है। राजा अभी भी बैठा देख रहा है। सोच रहा होगा जरूर बुद्ध ने कुछ किया है। कोई चमत्‍कार कोई वेन्‍ट्रीलोकिस्‍ट जानते होंगे, राजा की समझ में कुछ नहीं आया। राजा होने भर से क्‍या समझ विकसित हो जाती है। वेन्‍ट्रीलोकिस्‍ट मूर्ति को बुलावा दे, गड्ढे को बुलवा दे, मछली को बुलवा दे। उसके होठ नहीं हिलते पर बोलता वही है।
      गंध कुटी के चारों तरफ एक सुवास फेल गई। एक गहन शांति छा गई। समाधि के मेघों से सीतलता बरसाने लगी। एक ही क्षण में क्रान्‍ति घटित हो गई। एक सन्‍नाटा, विषमय, और प्रसाद का चारों और फेल गया। अवाक हर गये लोग, संविग्‍न, विषमय विमुग्ध, जड़ वत खड़े रह गये लोग। भाव विभूत हो गये लोग।
      जीते जी दुर्गंध आ रही थी। मर कर तो और अधिक आनी चाहिए थी। पर नहीं कुछ अपूर्व घटा, कुछ ऐसा घटा जो घटना चाहिए। जिस की प्रत्‍येक भिक्षु इंतजार करता है। मछली मर गई—उसका मुख खुला रह गया, पवित्र कर गया उसे अंतस में जमे अंहकार को, उसका पश्‍चाताप क्षण में गला गया पत्‍थर को जो जन्‍मों से उसे खाये चला जा रहा था। बुद्ध के सान्निध्य में मोम बन कर बह गया सब।  परम भाग्‍य शाली थी। गल गया पिघल गया उसका अन्‍तस आंसू बन कर।
      किसी दूसरे बुद्ध को धोखा दिया और किसी बुद्ध के समक्ष पश्‍चाताप किया समय की दुरी है, पर बुद्धत्‍व का स्‍वाद वहीं है। अहंकार लेकर मरी थी किसी बुद्ध के संग और अहंकार गर्ल कर मर गई किसी दूसरे बुद्ध के सामने। क्षमा मांग ली। आंसू बन गए। इससे सुन्‍दर क्षण मरने का कहां प्राप्‍त होता है। सौभाग्य शाली रही। मछली, परम भाग्‍य शाली थी।
      चारो तरफ कैसा सन्नाटा छा गया। सारे भिक्षु इक्‍कट्ठे हो गये। मछली को देखने के लिए। जो दुर थे वो भी भागे, कि ये दुर्गंध कैसे उठी, ये सब उन लोगो ने देख, मछली को बोलते, मरते, फिर महाराज को भी देखा। फिर बुद्ध के अद्भुत वचन सुने, जैत वन जो पहले दुर्गंध से भर गया था अचानक अपूर्व सुगंध से भरने लगा। भिक्षु उस सुगंध से परिचित थे। उन्‍हें भली भाति ज्ञात थ जब वो गंध कुटी के पास से गुजरते थे तो वहीं गंध उनके नासापुट में भर जाती थी। बुद्धत्‍व की गंध थी। पुरी प्रकृति में पेड़ पर उसके फूल खिलते है तो अपनी-अपनी गंध बिखरते है। तो जब मनुष्‍य का फूल खिलेगा तो उसकी अपनी कोई गंध नहीं होगा। हम उस गंध को नहीं जान सकते जब तक हम अंदर गंदगी से भरे है। ध्‍यान हमारे, तन मन की स्‍वछता का नाम है।
      मछली उपलब्‍ध होकर मरी, एक क्षण में क्रांति घट गई। क्रांति जब घटती है। क्षण में ही घटती है। ये हमारे बोध की बात है त्‍वरा की बात है।

परिशिष्ट प्रकरण—
      हमारे घर में ही बचपन से प्‍याज लहसुन नहीं प्रयोग होता था। मांसाहार का तो सवाल ही नहीं उठता शायद वो तो हमारी पिछली अनेक पीढ़ियों के जीन्‍स में ही नहीं है। तब हम लोग कहीं शादी वगैरह में भोजन कर लेते तो मुहँ से कई दिनों तक दुर्गंध आती थी। शादी के बाद हमारी पत्‍नी पंजाबी परिवार से है। वो लोग तो छोले, पलाव आदि में खूब मिर्च मशालें का प्रयोग करते थे। अब गांव में उन के बने भोजन को प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति सराहता। उस अपने घर का भोजन घास-फुस सा लगता। किसी के घर जन्‍म दिन हो तो उसे खाना बनाने के लिए विशेष बुलाया जाता था। उसी की देख रेख में सब खाना बनता, उन दिनों हलवाईयों का प्रचलन नहीं था। छोटे मोट भोज तो सब मिल बाट कर निबटा लेते थे। हाँ शादी विवाह में जरूर हलवाई की जरूरत होती थी।
      फिर हम लोगों ने करीब 10-12 साल खूब प्‍याज लहसुन खाया हम भी आदी हो गये। कोई दुर्गंध नहीं आती थी। अचानक ओशो से जड़ने के दो साल बाद यानि 1992 में ध्‍यान के दौरान अचानक अपने ही अंदर से दुर्गंध आने लगी, मुझे ही नहीं हमारी पत्‍नी को भी। तब दोनों ने  सलाह की कि ये प्‍याज लहसुन बंद करना होगा। तब से अब तक हम बिना प्‍याज लहसुन का ही भोजन करते है। फिर धीरे-धीरे पास पड़ोस में खड़े लोगों में से भी दुर्गंध आने लगी। दुकान पर पंखा लगान पड़ता था। इसके अतिरिक्‍त किसी-किसी व्‍यक्‍ति में से तो इतनी तेज गंध आती की पूरादिन मुहँ में कड़वाहट से भरा रहता। इसी बिच एक औरत जो शायद हिमाचल प्रदेश की थी। नाक नक्‍श, तीखे, रंग गोरा, ऊँचा कद, कुल मिला कर अभी तक उस से सुन्‍दर औरत मैने नहीं देखी। मानों देवी का ही रूप था। अगर में देवी की मूर्ति बनात तो वही औरत मेरी आंखों के सामने आ खड़ी होती। इतनी सुंदर होने पर भी उसके शरीर से इतनी तेज दुर्गंध आती थी कि पुरी दुकान दो ही मिनट में भर जाती थी।
      जब भी ये सोने की मछली वाली कथा में पढ़ता तो वहीं औरत सामने आन खड़ी होती,मैंने उसका नाम ही सोने की मछली रख दिया था। मैंने ये बात अपनी पत्‍नी को भी बताई, वो कहने लगी में भी इतनी परेशान हो जाती है। कह भी नहीं पाती लोग कहेंगे कि तुम बहुत अहंकारी हो गये हो। अब में सोचता हूं कि आदमी अगर ध्‍यान करे सही और सच्‍ची लगन से कुछ न छोड़े बस होने दे। वो आपके जीवन में आनेवाली सारी बाधाओं को काटता चला जायेगा।
      वो औरत इतनी सुंदर थी की उसे देख कर अगर मन वासना जगती भी तो जो की स्‍वभाविक है। पर अगर में ध्‍यान नहीं कर इतना संवेद शील नहीं होता तो क्‍या मुझे उसके शरीर से इतनी दुर्गंध आती उसका पति भी तो सोता है उसके साथ। दो बच्‍चे थे उसके। पर इसका सकारात्मक पहलु देखिये। जब में उसके साथ दो मिनट बात ही नहीं कर सकता तो उसके संग रहने की, सहवास की  कलपना ही नहीं कर सकता। वासना के आने का सवाल ही नहीं उठता। देखा आदमी को नीचे गिरने के लिए ये जो हमारा होश है इसे भी भुलाने की जरूरत होती है। जभी तो लोग शराब का सहारा लेते है। होश ही एक मात्र मार्ग दृष्‍टा है एक मात्र ध्‍यान के मार्ग का फिर चाहे, जीवन में लोभ, क्रोध, सेक्‍स, ईश, आदि अंधेरे मार्ग क्‍यों न हो एक ही टौर्च सब के लिए है होश...मार्ग सरल से सरलतम होता चला जाता है।
       ध्‍यान का मार्ग खुद-ब-खुद अपना मार्ग बना लेता है। किसी धारण,या व्रत, संकल्‍प की जरूरत ही नहीं है। ये करना ये नहीं करना होश में कुछ पाप होता ही नहीं। बुद्ध ने तो पाप पुण्‍य की परिभाषा ही होश से कि है। जो होश से करोगे वही पूण्‍य जो वे-होशी में करोगे वहीं पास सच इस से अच्‍छी पाप पूण्‍य की परिभाषा हो ही नहीं सकती
      होश ही है राही पथ का,
      तू पथिक बन चल-चला चल,
      कहां भटकन डगर की,
      तू अडिग बस है बढ़ा चल,
      है नहीं तू अब अकेला
      होश को साथी बना चल।।

मनसा आनंद ‘’ मानस’’

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