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शनिवार, 12 जून 2010

ज्‍योतिष अर्थात अध्‍यात्‍म—7

  

बहुत पुराना संघर्ष है आदमी के चिन्‍तन का। अगर आदमी पूरी तरह स्‍वतंत्र है जैसा ज्‍योतिषी साधारणत: कहते हुए मालूम पड़ते है, कि सब सुनिश्‍चित है, जो विधि ने लिखा है वह होकर रहेगा तो फिर सारा धर्म व्‍यर्थ हो जाता है। और या फिर जैसा कि तथाकथित तर्कवादी और बुद्धिवादी गुरु कहते है कि सब स्‍वच्‍छन्‍द है, कुछ बंधा हुआ नहीं है। कुछ होने का निश्‍चित नहीं है, कुछ अनिश्‍चित है—तो जिन्‍दगी एक के ऑफ और एक अराजकता और एक स्‍वच्‍छन्‍दता हो जाती है। फिर तो यह भी हो सकता है कि मैं चोरी करूं और मोक्ष पा जाऊं, हत्‍या करूं और परमात्‍मा मिल जाए। क्‍योंकि जब कुछ भी बन्‍धा हुआ नहीं है। और किसी भी कदम से कोई दूसरा कदम बंधता नहीं है और अब कहीं भी कोई नियम और सीमा नहीं है......।
      फिर मुझेख्‍याल आता है मुल्‍ला नसरूदीन का। मुल्‍ला एक मस्‍जिद के नीचे से गुजर रहा है और एक आदमी मस्‍जिद के ऊपर से गिर पडा। अजान पढने चढ़ा था। मीनार पर, ऊपर से गिर पडा। मुल्‍ला के कंधे पर गिरा। मुल्‍ला की कमर टूट गई। अस्‍पताल में मुल्‍ला भर्ती है, उसके शिष्‍य उसको मिलने गए और शिष्‍यों ने कहा, मुल्‍ला इस र्दुघटना से क्‍या मतलब निकलता हे। आऊ डू इन्‍टरप्रीट इट इस घटना की व्‍याख्‍या क्‍या है? क्‍योंकि मुल्‍ला हर घटना की व्‍याख्‍या निकालता था।
      मुल्‍ला ने कहा, इससे साफ जाहिर होताहै कि कर्म का और फल का कोई संबंध नहीं है। कोई आदमी गिरता है, किसी की कमर टूट जाती है। इसलिए अब तुम कभी कर्मफल के सैद्धान्‍तिक विवाद में मत पड़ना। यह बात सिद्ध होती है कि गिरे कोई,कमर किसी की टूट सकती है। वह आदमी तो मजे में है, वह मेरे ऊपर सवार हो गया था, फंसा मैं। न मैं अजान पढ़ने चढ़ा, मैं अपने घर लौट रहा था हमारा कोई संबंध ही न था—फिर भी मैं फंसा।
      इसलिए आज से कर्मफल के सिद्धांत की बातचीत बंद कुछ भी हो सकता है...कुछ भी हो सकता है। कोई कानून नहीं है। अराजकता है—नाराज था स्‍वाभाविक है उसकी कमर जो टूट गई थी।
      दो विकल्‍प सीधे रहे है—एक विकल्‍प तो यह है कि ज्‍योतिषी, साधारणत: जैसे सड़क पर बैठने वाला ज्‍योतिषी कहता है। वह चाहे गरीब आदमी का ज्‍योतिषी हो चाहे मोरारजी देसाई का ज्‍योतिषी हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह सड़क का है ज्‍योतिषी जिससे कोई नान एसेंशियल बातें पूछने जाता है। कि इलेक्‍शन में जीतेंगे कि हार जाएंगे—जैसे कि आपके इलेक्‍शन से चाँद तारों का कोई लेना देना है। वह कहता है सब बंधा हुआ है। कुछ इंच भर यहां से वहां नहीं हो सकता। वह भी गलत कहता है।     
      और दूसरी तरफ तर्कवादी है। वह कहता है, किसी चीज का कोई संबंध नहीं है। कुछ भी घट रहा है। सांयोगिक है, चांस है—कोइन्‍सीडेंट है, संयोग है। यहां कोई नियम नहीं है। सब अराजकता है। वह भी गलत कहता है। यहां कोई नियम है। क्‍योंकि वह बुद्धिवादी कभी बुद्ध की तरफ आनंद से भरा हुआ नहीं मिलता। वह बुद्धिवादी ही धर्म और ईश्‍वर को और आत्‍मा को तर्क से इनकार कर लेता है। लेकिन कभी महावीर की प्रसन्‍नता को उपलब्‍ध नहीं होता। जरूर महावीर कुछ करते है। जिससे उनकी प्रसन्‍नता फलित होती है। और बुद्ध कुछ करते है जिससे उनकी समाधि निकलती है। कृष्‍ण कुछ करते है जिससे उनकी बांसुरी के स्‍वर अलग है।
      स्‍थिति तीसरी है और तीसरी स्‍थिति यह है, जो बिलकुल सारभूत है, जो बिलकुल अंतरतम है वह बिलकुल सुनिश्‍चित है। जितना हम अपनी केंद्र की तरफ आते है उतना निश्‍चय के करीब आते है। जितना हम अपनी परीधि की तरफ सरकमफेरेंस की तरफ जाते है। उतना संयोग की तरफ जाते है। जितनी ही बहार की घटना की बात करते है उतनी ही सांयोगिक बात है। जितनी ही भीतर की बात करते है उतनी ही नियम और विज्ञान पर, उतनी ही सुनिश्‍चित बात हो जाती है। दोनों के में भी जगह है जहां बहुत रूपांतरण होते है। जहां जाननेवाला आदमी विकल्‍प चुन लेता है। नहीं जानने वाला अंधेरे में वही चुन लेता है जो भाग्‍य है। जो अंधेरे में है, वह जो संयोग है, उसको पकड़ लेता है।
      तीन बातें हुई। ऐसा क्षेत्र है जहां सब सुनिश्‍चित है। उसे जानना सारभूत ज्‍योतिष को जानना है। ऐसा क्षेत्र है, जहां सब अनिश्‍चित है। उसे जानना अनिश्‍चित हे। उसे जानना व्‍यावहारिक जगत को जानना है। और ऐसा क्षेत्र जो दोनों के बीच में है, उसे जानकार आदमी जो नहीं होना चाहिए उससे बच जाता है। जो होना चाहिए उसे कर लेता है। और अगर परिधि पर या केंद्र के मध्‍य में आदमी इस भांति जिए कि केंद्र पर पहुंच जाए तो उसकी जीवन की यात्रा धार्मिक हो जाती है। और अगर इस भांति जिए कि केंद्र पर कभी न पहुंच जाए तो उसके जीवन की यात्रा अधार्मिक हो जाती है।
      जैसे, एक आदमी चोरी करने खड़ा है। चोरी करना कोई नियति नहीं है। चोरी करनी ही पड़ेगी ऐसा कोई सवाल नहीं है। स्‍वतंत्रता पूरी मौजूद है। हां, करने के बाद एक पैर उठ जाएगा। दूसरा पैर फंस जाएगा। करने के बाद न करना मुशिकल हो जाएगा। किए हुए का सारा का सारा प्रभाव व्‍यक्‍तित्‍व को ग्रसित कर लेगा। लेकिन जब तक नहीं किया है तब तक विकल्‍प मौजूद है। हां और न के बीच में आदमी का चित डोलता है। अगर वह न करे तो केंद्र की तरफ आ जाएगा। अगर वह हां कर दे तो परिधि पर चला जाएगा। वह जो मध्‍य में है चुनाव, वहां अगर वह गलत को चुन ले तो परिधि पर फेंक दिया जाता है। और अगर सही को चुन ले तो केंद्र की तरफ आ जाता है—उस ज्‍योतिष की तरफ जो हमारे जीवन का सारभूत है।
      कुछ बातें मैंने कही। आज मैंने एक बात आपसे कहीं और वह यह कि सूर्य के हम फैले हुए हाथ है। सूर्य से जनमती है पृथ्‍वी, पृथ्‍वी से जन्‍मते है हम। हम अलग नहीं है हम जुड़े है। हम सूर्य की ही दूर तक फैली हुई शाखाएं और पत्‍ते हे। सूर्य की जड़ों में जो होता है वह मारे पत्‍ते के रोंए-रोंए, रेशे-रेशे तक फैल जाता है। और कंपित  कर जाता है। यदि यह ख्‍याल में हो तो  हम जगत के बीच एक पारिवारिक बोध को उपलब्‍ध हो सकते है। जब हमें स्‍वयं की अस्‍मिता और अंहकार में जीने का कोई प्रयोजन नहीं है।
      और ज्‍योतिष की सबसे बड़ी चोट अहंकार पर है। अगर ज्‍योतिष सही है तो अहंकार गलत है, ऐसा समझें। और अगर ज्‍योतिष गलत है। तो फिर अहंकार के अतिरिक्‍त कुछ सही होने को नहीं बचता। अगर ज्‍योतिष सही है जा जगत सही है। और गलत हूं अकेले की तरह। जगत का एक टुकड़ा ही हूं मैं, एक हिस्‍सा ही, और वह भी कितना नाचीज टुकड़ा हूं, जिसकी कोई गणना भी नहीं हो सकती।  ( क्रमश: अगले अंक में..............

--ओशो
ज्‍योतिष अर्थात अध्‍यात्‍म,
वुडलैण्‍ड, बम्‍बई—
दिनांक: 10 जुलाई 1971

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