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सोमवार, 9 अगस्त 2010

मूर्तिपूजा-व्‍यक्‍तिपूजा:-- (कमजोरी व कायरता)

बुद्ध ने कहां था, अपने शिष्‍यों से कि मेरी मूर्ति मत बनाना। आज जमीन पर बुद्ध की जितनी मूर्तियां है। उतनी किसी दूसरे आदमी की नहीं। अकेले बुद्ध की इतनी मूर्तियां है, जितने किसी दूसरे आदमी की नहीं। उर्दू में तो बुत शब्‍द बुद्ध का ही बिगड़ा हुआ रूप है। बुद्ध का मतलब ही मूर्ति हो गया। बुद्ध की इतनी मूर्तियां बनीं कि बुद्ध का मतलब ही मूर्ति हो गया। एक-एक मंदिर में दस-दस हजार बुद्ध की मूर्तियां है।
      चीन में एक मंदिर है, दस हजार मूर्तियों वाला मंदिर। उसमें बुद्ध की दस हजार मूर्तियां हैं। और बुद्ध ने कहां की मेरी पूजा मत करना।
      बड़े अजीब लोग है हम, जो हमसे कहे कि मेरी पूजा मत करना, हम उसे और जोरों से पकड़ लेते है। कि बहुत प्‍यारा आदमी है। कहीं भाग न जाये, कहीं छूट न जाये। यह जो हमारी आदत है—जो शब्‍दों को व्‍यक्‍तियों को पकड़ लेने की, इस आदत न हमें गुलाम बना दिया है। और अगर पुराने आदमी छूट जाते है तो हम नये पैदा कर लेते हैं, लेकिन हम छोड़ते नहीं पीछा।
      अगर महावीर और बुद्ध थोड़े छूट गये है, कृष्‍ण और राम थोड़े दूर पड़ गये है तो हम गांधी को पैदा कर लेंगे, साई बाबा को पकड़ लेंगे, लेकिन हमें पकड़ने को कोई न कोई चाहिए। हम खुद अपने पैरों पर खड़े नहीं होना चाहते। और मैं कहना चाहता हूं कि वही आदमी अपने को आदमी कहने का हकदार है जो सबको छोड़कर ,खूद को पकड़कर खड़ा हो जाता है। सबको जो छोड़ देता है। वही खुद को पकड़ सकता है।

दूसरों को पकड़ो मत:---
      और ध्‍यान रहे,जो दूसरों को पकड़ता है, उसकी अपने पर स्‍वयं पर कोई श्रद्धा नहीं है। दूसरों को वहीं पकड़ता है, जो अपने प्रति अश्रद्धावान हो। खुद को जितना कमजोर पाता है। वह उतना दूसरों को पकड़कर मजबूत अनुभव करना चाहता है। खुद के प्रति जो अश्रद्धा है, वही दूसरों के प्रति श्रद्धा बनती है।
      जो व्‍यक्‍ति खुद के प्रति श्रद्धावान है, वह आदमी किसी को भी नहीं पकड़ता है। और मजे कि बात है कि जो आदमी अपने को ही नही पकड़ पाता है, वह दूसरों को पकड़ कैसे पायेगा। जिसका अपने पर कोई वश नहीं है, वह दूसरों को वश में कर पायेगा। जिसे अपना कोई सुराग नहीं, अपना ही कुछ पता नहीं वह महावीर और बुद्ध की धूल पर बने हुए चिन्‍हों को पकड़कर बैठ जाये तो उसे क्‍या मिल जायेगा।
      स्‍वयं पर श्रद्धा धर्म है, दूसरों पर श्रद्धा धर्म नहीं है। एक गुलामी है। जो दूसरों पर श्रद्धा करता है, वह स्‍वयं पर अश्रद्धा करता है। स्‍वयं के पास परमात्‍मा न वह सब दिया है। जो किसी और को दिया है। स्‍वयं के पास वह सब है छिपे हुए अर्थों में, जो किसी के पास प्रकट कभी हुआ हो—किसी राम के पास, किसी बुद्ध के पास, किसी महावीर के पास, किसी गांधी के पास। जो भी प्रकट होता है। वह बीज रूप में हर आदमी के पास छिपा हुआ है।
      और जबकि मैं यह कहता हूं कि उन्‍हें छोड़ दो तो मेरी उनसे कोई दुश्‍मनी नहीं है। जिनको मैं छोड़ने को कहता हूं। उनसे मेरी कोई दुश्‍मनी नहीं है। उनसे क्‍या दुश्‍मनी हो सकती है। जब मैं कहता हूं कि उन्‍हें छोड़ दो तो उनसे मेरी कोई बुराई नहीं है। कहता हूं, छोड़ दो, क्‍योंकि जब तक उन्‍हें पकड़े हो तब तक अपने को पाना असंभव है।
उपसंहार
ऐसा हर युग में और हर जाग्रति पुरूष के साथ होता आया है। और आज भी हो रहा है। क्‍योंकि हम सोये हुए लोग है। हमारा जीवन नींद और तमस से भरा है। थोड़ी बहुत तंद्रा जीवित गुरु के सामने टूटती है। और फिर करवट ले कर सो जाते है। और मजेदार बात यह है कि ये नींद बड़ी मीठी और गहरी होती है। आप जब सुबह उठ कर दोबार सो जाते है। यहीं हाल बुद्धत्‍व प्राप्‍त व्‍यक्‍ति के संग के लोगों का हो जाता है। आप उनके हजारों शिष्‍यों को इतनी गहरी तंद्रा में पाओगे जितनी की उनमें पहले नहीं थी। वो करवट ले फिर सो गये।

 अब ओशो को ही ले लीजिए उन्‍हें फोटो खिचवाना बहुत अच्‍छा लगता था। इस लिए जीतने फोटो ओशो जी के खींचे शायद किसी दूसरे मनुष्‍य के कभी नहीं खींचे हो। हर राज दो घंटे का फोटो सैशन होता था। अब उस में क्‍या रहस्‍य था। और ये सब ओशो जी क्‍यों करते थे हम उस रहस्‍य को नहीं छू पाये। हमनें तो बस इतना करना है। जो गुरु कह गया है उसका विरोध भाष शायद गुरु के सामने हम थोड़े दब्बू होते है। या उसके तेज के सामने हम ठहर नहीं पाते। पर मरने के बाद तो हम वो सब कर ही सकते है। जो हम करना चाहते है। आज ओशो की फोटो ‘’ओशो टाइम्स( या यश ओशो)’’ में शायद एक या दो ही हो। आश्रम में एक फोटो ओशो की समाधि पर लगी है। जिसे कोई चाह कर भी नहीं हटा सकता। क्‍योंकि ये फोटो करोड़ो फोटो में से ओशो जी खुद चुन कर गये थे। आप इस फोटो को जब भी देखेंगे आप ध्‍याम में गहरे उतरते चले जाओगे। पर आप ओर एक भी फोटो आश्रम में कही ढूंढ नहीं सकते, वे क्‍यों इतने फोटो खिंचवाते थे जब आश्रम में कही लगनी ही नहीं थी। और उनकी पत्रिका में छपने ही नहीं थी। दस साल जब तक मां नीलम आश्रम को चलाती रही। वो ओशो का अक्षर-अक्षर उनके पदों पर चलती रही। चाहे संन्‍यास हो या कोई और बात पर जब मों शून्य ने आश्रम सम्‍हाला है। उनके अपने ही अलग प्रयोग। संन्‍यास जो 25 वर्षो से हर शनि वार रात 9-30 बजे होता था। और हर महीने के अंतिम रवि वार को दिन में 12 बजे। जिसका पालन सालों से उनके सामने और उनके बाद भी होता हुआ आया था। पर अब उसका समय शुक्रवार हो गया। क्‍योंकि उनका अचेतन शुक्र वार को पवित्र दिन मानता आया होगा। जब की ओशो जी हम संन्‍यासियों लोगो को कुछ वचन दे कर गये है। उन में से एक ये भी था की संन्‍यास के समय हर शनिवार आप मेरी उपस्थित को महसूस करोगे। फिर भी हम सोये हुए लोग कुछ भी नहीं समझ पाते और बुद्ध पुरूष आते है और जाते है हम वहीं के वहीं रह जाते है
अब कबीर दास जी को ही ले लीजिए, जीते जी हिन्दू मुसलमान दोनों उसके साथ रहते थे। कबीर न हिन्दू थे न मुसलमान। पर शिष्‍य उनके जीते जी तो कुछ कर नहीं पाये, उनके संग साथ, न ही आपने आप को बदल ही पाये पर मरते ही लाश पर लड़ाई हो गई । हिन्दू शिष्‍य कहने लगे हम जलाये गे, मुसलमान कहने लगे हम दफ़नाएंगे। अब भला पूछो इन शिष्‍यों से क्‍या सीखा तुमने जीवन भर कबीर के चरणों में बैठ कर फिर हम कैसे बदल सकते है या कुछ ले सकते है जब बुद्ध, कबीर, नानक, महावीर, गोरख चला जाता है।…..
मनसा आनंद मानस



1 टिप्पणी:

  1. पोस्ट अच्छी है . मेरी पोस्ट भी देखिये और कृतार्थ कीजिये मुझे भी और स्वयं को भी .

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