तो पहले तो स्मरण करना पड़ेगा जन्म तक, जन्म के दिन तक। लेकिन वह असली जन्म-दिन नहीं है। असली जन्म दिन तो उस दिन है। जिस दिन गर्भाधान शुरू हुआ था। जिस को हम जन्म दिन कहते है। वह जन्म के नौ महीने के बाद का दिन है। जिस दिन गर्भ में आत्मा प्रवेश करती है। उस दिन तक स्मृति को गर्भ तक ले जाना कठिन नही है। और न ही इसमें बहुत ही खतरा है। क्योंकि वह इसी जीवन की स्मृति है। और उसे ले जाने के लिए जैसा मैंने कहा, भविष्य से मन को मोड़ ले। और थोड़ा सा ध्यान कर पात है, उन्हें कोई कठिनाई नहीं है भविष्य को भूलने में। भविष्य में याद करने को है भी क्या। भविष्य है ही नहीं। उन्मुखता बदलनी है। भविष्य की तरफ न देखें। पीछे की तरफ देखें। और अपने मन में धीरे-धीरे क्रमश: संकल्प करते जाये। एक साल लोटे, दो साल लोटे, दस साल लोटे, बीस साल लोटे, पीछे लोटते ही जाएं। और वह बड़ा अजीब अनुभव होगा।
साधारणत: अगर होश में हम पीछे लौटें बिना ध्यान किए, तो जितने हम पीछे लौटगें उतनी स्मृति धुँधली होगी। कोई कहेगा की मैं पाँच साल से आगे नहीं जा सकता। पाँच साल तक मुझे याद आता है। कि ऐसा हुआ था। वह भी एक आध घटना याद आयेगी। जैसे-जैसे हम करीब आयेंगे अपनी उम्र के वैसे-वैसे स्मृति साफ होती चली जाती हे। आज की और साफ होगी। परसों की और कम होगी,वर्ष भर की और कम होगी। पच्चीस साल की और कम होगी, पचास साल की और कम होगी।
लेकिन जब ध्यान में आप प्रयोग करेंगे,तो आप बहुत हैरान हो जायेंगे। स्थिति बिलकुल ही उलटी हो जायेगी। जितनी बचपन की स्मृति होगी उतनी साफ होगी। क्योंकि बच्चे के पास जितना साफ स्लेट होता है, उतनी फिर कभी नहीं होती। उस पर जितनी साफ लिखावट उभरती है। उतनी कभी नहीं उभरती है। जब आप ध्यान में स्मृति पर जाएंगे तो आप बहुत हैरान होगें जाएंगे। स्मृति उलटी हो जायेगी। जितनी बचपन में जायेंगे उतना साफ मालूम होगा। जितने बड़े होने लगेंगे स्मृति में, उतना धुंधला होने लगेगा। आज का दिन सबसे धुंधला होगा। ध्यान में। और आज से पचास साल पहले का दिन, जन्मदिन पहला दिन सबसे स्पष्ट होगा क्योंकि ध्यान में हम स्मरण नहीं कर रहे।
इस फर्क को समझ ले। जब हम होश में स्मरण करते है तो स्मरण कर रहे है। होश के स्मरण में क्या फर्क है। अगर मैं याद कर रहा हूं अपने बचपन को, तो मैं हुं तो पचास साल का, पचास साल का हूं, आज हूं अभी हूं। और खड़ा होकर स्मरण कर रहा हूं स्मृति को। पाँच साल की, दो साल की, एक साल की। यह पचास साल का मेरा मन बीच में खड़ा है। इसलिए वह धुंधला हो जायेगा। क्योंकि पचास साल की परतें बीच में है और उनके पास मैं झांक रहा हूं।
ध्यान की प्रक्रिया में तुम पचास साल के नहीं हो, पाँच ही साल के हो गए। जब तुम ध्यान में स्मरण कर रहे हो, तो तुम पाँच साल के ही हो गए। पचास साल के होकर पाँच साल की स्मृति को याद नहीं कर रहे हो। तुम पाँच साल की स्मृति में वापस लोट गये हो। इसलिए होश में—उसको हम रिमेंबरिंग कहें, स्मरण कहे; और ध्यान में उसे री-लिविंग कहें। वह पुनजींवन है, पूनर्स्मरण नहीं। और इन दोनों में फर्क है। पूनर्स्मरण में बीच में स्मृतियों की बड़ी परत होती है। जो धुंधला कर जाती है। पुनर्जीवन तुम पाँच साल के हो गये ध्यान की अवस्था में।
अब आज ही शोभना बैठी हे तुम्हारे पीछे। वह कहती है कि ध्यान में उसे अचानक अजीब-अजीब ख्याल आ रहे है। कि वह छोटी हो गई है। गुड्डे गुड्डी यों से खेल रही है। और वह ख्याल इतना मजबूत हो जाता है कि एक दम वह डर जाती है। कि कहीं कोई आकर देख न ले। नहीं तो कहेगा की इस उम्र में गुड्डे-गुड्डी से खेल रही है। वह आँख खोल कर देख लेती है, कि कहीं कोई आ तो नहीं गया। उसकी उम्र मिट गई है। उसे यही ख्याल है कि यह स्मृति है, यह री-लिविंग है। यानि वह पाँच साल की हो गई है। अब वह एक युवक है। जो ध्यान करेगा तो अंगूठा मुंह में चला जाएगा। वह छह महीने का हो जा रहा है। जो ध्यान करेगा तो अंगूठा मुंह में चला जाएगा। वह छह महीने का हो जा रहा है। वह जैसे ही ध्यान में गया कि उसका अंगूठा मुहँ में गया। वह जब छह महीने का रहा होगा, तब की स्थिति में पहुंच गया।
तो स्मरण और पुनर्जीवन,फिर से जीना, इनके फर्क को समझ लेना जरूरी है। तो एक जन्म का पुनर्जीवन तो बहुत कठिन नहीं है। थोड़ी कठिनाई तो होती है। क्योंकि हम सबने अपनी उम्र की आइडेंटिटी बना रखी है। जो आदमी पचास साल का हो गया है, वह पाँच साल पीछे हटने को राजी नहीं होगा। वह पचास साल का सख्ती से रहना चाहता है। इसलिए जिन लोगों को पुनर्जीवन में लौटना है, थोड़ी याद करनी है, उन्हें थोड़े आपने को बिलकुल फ़िक्स्ड आइडेंटिटी है। उन्हें थोड़ा ढीला करना चाहिए
अब जैसे उदाहरण के लिए एक आदमी अपने बचपन को याद करना चाहता है। अच्छा होगा की वह बच्चों के साथ खेले। दिन में घंटा भर निकाल ले और बच्चों के साथ खेले। उसके पचास साल होने का जो फिकसेशन है, वह जो गंभीर होने की आदत है। वह थोड़ी छूट जाए। अच्छा होगा कि वह दौड़ें, तेरे, नाचे, अच्छा होगा की घंटे भी के लिए बचपन में जीए होश पूर्वक तो ध्यान में भी उसका लौटना आसान हो जाएगा।
और ध्यान रहे। चेतना की कोई उम्र नहीं होती। चेतना पर सिर्फ फिकसेशन होता है। चेतना को कोई उम्र नहीं होती। कि पाँच साल की चेतना की दस साल की चेतना। या पचास साल की चेतना। सिर्फ ख्याल है। आँख बंद कर के बताएं की आपकी चेतना की कितनी उम्र है। तो आँख बंद करके आप कुछ भी नहीं बता पायेंगे। आप कहेंगे कि मुझे डायरी देखनी होगी। कैलंडर का पता लगाना होगा। जन्म पत्री देखनी होगी। असल में जब तक दुनिया में जब तक जन्म पत्री नहीं थी। कैलंडर नहीं था, सालों की गणना नहीं थी। आंकड़े कम थे। दुनियां में किसी को अपनी उम्र का पता ही नहीं होता था। आज भी आदिवासियों में आप जाकर पूँछें कि कितनी उम्र है। तो वह बड़ी मुश्किल में पड़ जायेंगे। क्योंकि किसी की संख्या पंद्रह पर खत्म हो जाती है। किसी की दस पर खत्म हो जाती है। किसी की पाँच पर खत्म हो जाती है।
एक आदमी को मैं जानता हूं। जिससे किसी ने पूछा की कितनी उम्र है? वह घर का नौकर था। उसने कहां होगी यहीं कोई पच्चीस साल। उसकी उम्र होगी कम से कम साठ साल की। तो घर के लोग हैरान रह गये। उन्होंने पूछा तुम्हारे लड़के की उम्र कितनी होगी। तो उन्होंने कहां होगी कोई पच्चीस साल। क्योंकि पच्चीस जो था वह आखरी आंकड़ा था। उसके आगे तो कुछ था ही नहीं। उन्होंने कहा तुम्हारी भी उम्र पच्चीस साल और तुम्हारे लड़के की उम्र भी पच्चीस साल ऐसा कैसे हो सकता है। हमें कठिनाई हो सकती है क्योंकि हमारे पास पच्चीस के बाद भी आंकड़ा है। उसके लिए पच्चीस के बाद कोई संख्या नहीं है। पच्चीस के बाद असंख्य शुरू हो जाता है। उसकी कोई संख्या नहीं होती।
उम्र तो हमारे बाहर के कैलंडर, तारीख दिनों को हम हिसाब लगा कर पता लगा लेते है। अगर भीतर हम झांक कर हम देखें तो वहां कोई उम्र नहीं होती। अगर कोई भीतर से ही पता लगाना चाहे की मेरी उम्र कितनी है तो नहीं पता लगा पायेगा। क्योंकि उम्र बिलकुल बहारी माप जोख है। लेकिन बहारी माप जोख भीतर के चीत पर फिकसेशन बन जाती है। वहां जाकर कील की तरह ठूक जाता है।
और हम कीलें ठोकते चले जाते है। कि अब में पचास साल का हो गया हूं, अब इक्यावन साल का हो गया हूं। ये सब हम चेतना पर ठोकते चले जाते है। अगर ये बहुत सख्त है। तो कठिनाई होगी पीछे लौटने में। इसलिए बहुत गंभीर आदमी बचपन की स्मृति में नहीं लोट सकता। जिसको हम सीरियस कहते है। इस तरह के लोग रूग्ण होते है। असल में सीरियसनेस एक बीमारी है। मानसिक बीमारी। जो बहुत गंभीर है, वे सदा बीमार होते है। उनका पीछे लौट आना बहुत मुश्किल है। थोड़ा सा जिनका चित हलका है। निर्भार है, जो बच्चों के साथ खेल सकता है। जो बच्चों के साथ हंस सकता है। उस को लौटाना बहुत आसान है।
तो बहार की जिंदगी में फिकसेशन को तोड़ने की फ्रिक करे। चौबीस घंटे अपनी उम्र को याद मत रखें। और जब भी अपने बेटे से कहें तो यह मत कहें कि मैं जानता हूं। क्योंकि मेरी उम्र इतनी है। उम्र से जानने का कोई संबंध नहीं है। अपने छोटे बच्चे के साथ ऐसा व्यवहार मत करें कि आपके और उसके बीच पचास साल का फासला है। दोस्ती का हाथ आगे बढ़ाएं। (क्रमश:........अगले अंक में)
ओशो
मैं मृत्यु सिखाता हूं,
प्रवचन—10, (संस्करण—19991)
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