प्रिय आनंद मूर्ति,
प्रेम, फौलाद के बनों—मिट्टी के होने से अब काम नहीं चलेगा।
संन्यासी होना प्रभु के सैनिक होना है।
माता-पिता की सेवा करो।
पहले से भी ज्यादा।
संन्यासी बेटे का आनंद उन्हें दो।
लेकिन, झुकना नहीं।
अपने संकल्प पर दृढ़ रहना।
इसी में परिवार को गौरव है।
जो बेटा संन्यास जैसे संकल्प में समझौता कर ले वह कुल के लिए कलंक है।
मैं आश्वस्त हूं तुम्हारे लिए।
इसी लिए तो तुम्हारे संन्यास का साक्षी बना हूं।
हंसों और सब झेलो।
हंसों और सब सुनो।
यही साधना है।
अंघिया आएँगी और चली जाएंगी।
रजनीश का प्रणाम
(15-10-1970)
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