किसी तरह नाक को अवरूद्ध कर के वृक्ष पर चढ़ा। हाथ-पैर कंप रहे थे । वृक्ष पर चढ़ना भी बहुत मुश्किल था। किसी तरह उस लाश की डोरी काटी। वह लाश जमीन पर धम्म से नीचे गिरी, न केवल गिरी , बल्कि खिलखिला कर हंसी। विक्रमादित्य के प्राण निकल गये होगें। सोचा था मुर्दा है, वह जिंदा मालूम होता है। और जिंदा भी अजीब हालत में। घबड़ाया हुआ नीचे आया। और उससे पूछा क्यों हंसे? क्या मामला है।
बस, इतना कहना था कि लाश उड़ी वापस जाकर वृक्ष पर लटक गई थी। और लाश ने कहा कि शांत होना, तो ही तुम मुझे उस फकीर तक ले जा सकते हो। तुम बोले और चुक गये।
दोबारा लाश की रस्सी काट कर नीचे लाया। बड़ा मुश्किल काम था। बोलने से भी थोड़ी राहत मिलती है। क्योंकि जब आदमी को भय लगता है कुछ बोलना चाहता है। भय जब लगे आपने को भुलाने के लिए गीत गुनगुनाने लग जाता है। थोड़ी हिम्मत बड़ जाती है। राम-राम जपने लग जाता है। कोई सहारा चाहिए। अब बोलना भी नहीं है। शांत भी रहना है भयंकर सन्नाटा; और चारों ओर मौत।
शायद इस लिए आदमी अतीत की सोचता है। भविष्य की सोचता है। क्योंकि डरता है। वर्तमान के क्षण में जीवन भी है और मौत भी। दोनों ही एक साथ है। क्योंकि वर्तमान में ही तुम मरोगे और वर्तमान में ही तुम जीते है। न तो कोई भविष्य में मर सकता है और न भविष्य में जी ही सकता है।
तुम भविष्य में मर सकते हो? जब मरोगे, तब अभी और यहीं, वर्तमान के क्षण में मरोगे आज मरोगे। कल तो कोई भी नहीं मरता। कल तो मरोगे कैसे? कल तो आता ही नहीं, जब मर नहीं सकते कल में तो जीओगे कैसे? कल का कोई आगमन ही नहीं होता। कल है ही नहीं। जो है, वह अभी और यहीं है। बोले कि चूक जाते हो। सोचे की चुक जाते हो।
बड़ा कर विक्रमादित्य ने अपने आप को रोका। आदमी बहादूर था। मुरदा काट कर फिर से नीचे गिराया। फिर हंसा, उसकी भयंकर खिलखिहट से सारा वातावरण क्षण भर के लिए कंप गया। छाती कंप गई। नीचे उतरा। मुरदे को कंधे पर रखा। चलने लगा। मुरदे ने कहा कि सुनो, राह लंबी है, रात अंधेरी है, और तुम्हारा बोझ हलका करने के लिए तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं। ऐसी पहली कहानी।
उसने कहा की तीन युवक थे ब्राह्मण........।
विक्रमादित्य सुनना भी नहीं चाहता था। पड़ना भी नहीं चाहता था चक्कर में, क्योंकि जब तुम सुनोंगे, तो पता नहीं, बीच में बोल उठो। या कुछ हो जाए। या कम से कम सुनने में ही लग जाओ और जो तुमने सम्हाल रखा है अपने को, वह चुक जाए। क्षण में चूक सकती है बात। मगर इससे नहीं कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि नहीं कहते ही लाश उड़ जायेगी। और फिर वृक्ष पर चढ़ना पड़ेगा। और उसे नीचे गिराना होगा। इस लिए विक्रमादित्य चुप ही रहा। और वह मुर्दा कहानी कहने लगा।
एक गुरु के आश्रम में तीन युवक थे। तीनों ही गुरु की लड़की के प्रेम में पड़ गये......।
कहानी में रस आने लगा। प्रेम की कहानी में किसे रस नहीं आता। विक्रमादित्य थोड़ा बेहोश होने लगा। सम्हाल रहा है, लेकिन उत्सुकता जग गई; जिज्ञासा, कि फिर क्या हुआ?
तीनों एक से थे, योग्य थे, अप्रतिम थे। प्रतिभाशाली थे। जिज्ञासा, कि फिर क्या हुआ। गुरु मुश्किल में पड़ गया। कि किसे चुने। और किसे छोड़। युवती भी मुश्किल में पड़ गई। और कोई उपाय न देख की कोन जीवन साथी बने। तीनों के गण धर्म इतने गहरे और अंतस को खींचने वाले थे की वह किसी को छोड़ नहीं पाई। और अंत में हार कर आत्म हत्या कर ली। उसके लिए कोई मार्ग नहीं था। वह जानती थी अगर किसी को छोड़ा तो जीवन भर पछतावा रहेगा की वहीं काबिल था। और एक को चुनने के लिए दो को छोडना ही होता। वह हार गई और अपना जीवन ही समाप्त कर दिया।
बड़ी अड़चन थी। तीन से विवाह तो नहीं कर सकती थी। और उसकी लाश को जला दिया गया।
उन तीन युवकों में से एक तो उसी मरघट पर रहनें लगा। उसकी राख के पास एक कुटिया बना ली। और वहां एक मढ़ी बना कर धुनि बना कर ध्यान करने लगा। दीवाना हो गया।
दूसरा युवक इतने दुःख से भर गया कि यात्रा पर निकल गया,अपना दुःख भुलाने को। घूमता रहेगा संसार में। अब बसना नहीं है। क्योंकि जिसके सा बसना था, वहीं न रही। अब घर नहीं बसाना है। वह परिव्राजक हो गया, एक फकीर, भटकता हुआ आवारा फक्कड़ योगी।
और तीसरे युवक किसी आशा से भरा हुआ, क्योंकि उसने सुन रखा था कि ऐसे मंत्र भी है कि अस्थिपंजर को पुनरुज्जीवित कर दें, तो उसने सारी अस्थियां इकट्ठी कर लीं। रोज उसको गंगा जल में ले जाता और धोकर साफ करता। फिर ले आकर रख लेता। उनकी रक्षा करता कि कभी कोई मंत्र का जानने वाला मिल जाए।
वर्षों बित गये। जो घूमने निकल गया था यात्रा पर, उसे एक आदमी मिल गया, जो मंत्र जानता था। उससे उसने मंत्र सीख लिया। मंत्र का शास्त्र ले लिया। भागा। वहां से जल्दी थी उसे पहुंचने की। डर था उसे कि वो अस्थिर पंजर बचेंगे या नहीं। क्योंकि वह तो कभी के फेंक दिये होगें। लेकिन जब पहुंचा तो अपने को आश्वस्त पाया, अस्थिर पंजर अभी भी बचे हुए थे। उन को उसके ही एक साथी ने सम्हाल, सहज कर रखा था।
उसने उन अस्थिर पिंजरों को जोड़ कर मंत्र पढ़ा। वह युवती पुनरुज्जीवित हो गई। पहले से भी ज्यादा सुंदर। मंत्र-सिक्त। उसकी देह स्वर्ण की हो गई। उसके अंदर कमल की सा कोमलता और ताजगी प्रवेश कर गई। उसका रूप और यौवन देखते ही बनता था। पर फिर वहीं कलह शुरू हो गया। कि अब यह किसकी?
अब तक सम्राट भी भूल गया थ कि वह क्या कर रहा है और यह सुनने में लग गया था। जैसा तूम सुनने में लग गए।
उस मुरदे ने पूछा की सम्राट ध्यान से सुनो। गौर से सुनो। फिर वहीं झगड़ा शुरू हो गया। अब सवाल यह है कि उन तीन में से यह युवती किसकी? तुम्हारे इस विषय में क्या ख्याल है? और अगर तुम्हारे भीतर उत्तर आ जाये और तुमने उत्तर नहीं दिया तो तुम्हारे सर के टुकड़े-टुकडे हो जायेंगे और तुम तत क्षण में मर जाओगे। हां अगर उत्तर न आये तो कोई हर्ज नहीं।
बड़ा मुश्किल है उत्तर नआना। आदमी का इतना वश थोड़े ही है अपने मन पर। कोई बुद्ध पुरूष हो, तो न आये। ठीक है, सुन लिया प्रश्न: कोई हर्ज नहीं ।
विक्रमादित्य बड़ी मुश्किल में पडा। उत्तर तो आ रहा है। बुद्धिमान आदमी था। तर्क-निष्ठ था, समझदार था, शास्त्र का ज्ञात था। तर्क साफ था। तब मुरदे ने कहा की अगर उत्तर आ रहा है तो बोल दे, वरना तू इसी क्षण मर जायेगा।
तब विक्रमादित्य ने कहां की उत्तर तो आ रहा है। इसलिए बोलना ही पड़ेगा। अत्तर मुझे यह आ रहा है। कि जिसने मंत्र पढ़ कर युवती को जिलाया, वह तो पितातुल्य है; उसने जन्म दिया है। इसलिए वह विवाह के हक से बहार हो गया। पिता तुल्य से कोई विवाह थोड़े ही किया जाता है। उसने तो उसे जन्म दिया है। और जिसने अस्थियां सम्हाल कर रखी थी। रोज गंगा जल में पवित्र करता था। उनकी देख रेख करता था। वह तो पुत्र तुल्य है। कर्तव्य, सेवा, उससे शादी नहीं हो सकती है। प्रेमी तो वही है, जो धूनी रमाए, राख लपेटे, भूखा-प्यास मरघट पर ही बैठा रहा, न कहीं गया, न कहीं आया। विवाह तो उसी से....।
लाश छूटी, जाकर वृक्ष से फिर लटक गई। क्योंकि न बोलने की बात खत्म हो गई विक्रमादित्य बोल गया।
इसी तरह की पच्चीस कहानियां बारी-बारी से चलती रहती है। और बैताल पच्चीसी तैयार हो जाती है।
जीवन में तुम चूकते हो, जब भी मूर्च्छा पकड़ लेती है। जब भी तुम होश खो देते हो। जब भी जागे हुए नहीं होते। तत्क्षण जीवन का सुत्र हाथ से छूट जाता है। जब भी तुम जरा से अशांत हो जाते हो, विचार की तरंगें चलने लग जाती है। और तभी आप देखना जीवन का सूत्र आपके हाथ से सरक गया। क्योंकि विचार की तरंग। और तुम वर्तमान से च्युत। इधर उठी तरंग,उधर तुम हटे वर्तमान से।
वह विक्रमादित्य हार गया। वह फिर...। ऐसी पच्चीस कहानियां चलती रहती है पूरी रात। और हर बार चुकता जाता है। हर बार चूकता जाता है। पच्चीसवीं कहानी पर सम्हल पाता है। हर कहानी में ज्यादा से ज्यादा हिम्मत बढ़ती है; साहस बढ़ता है; ज्यादा देर तक रोकता है। ज्यादा देर तक विचार की तरंगें नहीं अनुकंपित करती। पच्चीसवीं कहानी आते-आते कहानी चलती रहती है। विक्रमादित्य सुनता रहता है, भीतर कुछ भी नहीं होता।
जीवन एक तैयारी है। यहां बहुत कुछ है तुम्हें उलझा लेने को। बाजार है पूरा,मीना बाजार है। वहां सब तरफ बुलावा है—उत्सुकता को, जिज्ञासा को, मनोरंजन को। प्रश्न है, विचार की सुविधा है। सोच-विचार का उपाय है, चिंता का कारण है । सब तरह के उलझाव हे।
अगर तुम इस सारे संसार से ऐसे गुजर जाओ,जैसे विक्रमादित्य उस मरघट से बिना बोले, चुप चाप और जागा हुआ पच्चीसवीं कहानी पर गुजर गया, तो तुम वर्तमान क्षण की अनुभूति को उपलब्ध होओगे। अन्यथा तुमने वर्तमान जाना ही नहीं है।
तुम वर्तमान से गुजर जरूर रहे हो, क्योंकि और कोई जगह नहीं जहां से तुम गुजर सको। लेकिन बेहोश, सोए हुए गुजर रहे हो। या तो अतीत में खोए हुए गुज़रे हो, या भविष्य में डूबे हुए गुज़रे हो। वर्तमान से तुम्हारा कभी तालमेल नहीं बैठा है। वर्तमान से संगीत नहीं छिड़ा है। वर्तमान के साथ स्वर नहीं मिले।
वर्तमान से स्वर मिल जाए, तुम पाओगे, एक ही है; अनेक उसके रूप है। एक है सागर; अनेक है लहरें।
--ओशो
गीता दर्शन, भाग—8,
अध्याय—17, प्रवचन—10,
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