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रविवार, 8 अगस्त 2010

ओशो की विश्‍व यात्रा—1

29 अक्‍तूबर 1985 को जब अमरीका की सरकार ने बिना किसी अपराध और बिना किसी वारंट के ओशो को गिरफ्तार कर लिया-–तो प्रताड़ना से भरे उन बाहर दिनों में—एक बात स्‍पष्‍ट हो गई कि रोनाल्ड रीगन और उसकी सरकार ओशो की क्रांतिकारी आवाज को बंद करने के लिए किसी भी हद को पार कर सकती है। ऐसी स्‍थिति में ओशो के मित्रों ने उनसे प्रार्थना की अमरीका में रहकर पाखंडों के खिलाफ अपनी लड़ाई जानी रखने की बजाएं भारत लौट चलें। जहां वे शारीरिक रूप से अधिक सुरक्षित रह सकेंगे।
     14 नवंबर, अमरीका की धरती ने ओशो को अंतिम प्रणाम किया। जैट स्‍टार 731 पर सवार होकर ओशो नई दिल्‍ली की और रवाना हो गए।
     लेकिन ओशो के लिए यह यात्रा अपनी जन्‍मभूमि पर वापस लौटने की यात्रा नहीं थी। वरन, यह शुरूआत थी उस ऐतिहासिक विश्‍व यात्रा की, जिसमें 46,000 मील का आकाश नाप कर उन्‍होंने विश्‍व के उन सब बड़े-बड़े देशों का पर्दाफाश किया जो लोकतांत्रिक होने का दावा करते है। एक निहत्‍था,कोमल-सा-व्‍यक्‍ति सिर्फ अपने हवाई जहाज पर बैठा-बैठा ही बड़े से बड़े बम बनाने वाली सरकारों को कंप कँपाता रहा—और हंसता रहा। चलो चल हम भी उस यात्रा पर.......
भारत: पहला पड़ाव—
     17 नवंबर, सुबह निकलने से कुछ ही घड़ी पहले ओशो नई दिल्‍ली पहुंचे।
      नई दिल्‍ली के अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट पर हजारों लोगों की भीड़ जमा थी। ओशो के संन्‍यासी उनके मित्र दो रातों से लगातार एयरपोर्ट पर ही डटे हुए थे—अपने गुरु की एक झलक पाने के लिए।
      भगवान श्री रजनीश की जय, भगवान श्री रजनीश की जय, की आकाश छूती जय कारों के बीच ओशो ने भारत की जमीन पर कदम रखा। अपने हजारों मित्रों के प्रेम से वे बिलकुल साफ आंदोलित नजर आ रहे थे। एयरपोर्ट से वे सीधे होटल हयात रिजेंसी पहुंचे,जहां पहुंचते ही विश्राम करने की बजाएं उन्‍होंने प्रेस से मिलने का निर्णय लिया। ‘’गुड मोर्निंग इंडिया’’ यह उनके पहले शब्‍द थे। बुद्धों की धरती पर लौटकर वे आनंदित थे।
      अगले दिन ओशो देश के हर बड़े अख़बार के मुख्‍यपृष्‍ठ पर थे। और तब तक स्‍वयं वे हिमालय की कूल्‍लू घाटी में पहुंच चुके थे। जिसे दोनों और से बर्फ से ऊंचे पहाड़ घेरे खड़े है।
      यहां ओशो का स्‍वास्‍थ्‍य जो अमरीका जेलों में बुरी तरह बिगड़ गया था, धीरे-धीरे  सुधरने लगा। वे सुबह-श्‍याम नदी के किनारे घूमने जाते, कुछ देर वहां बैठते। कुछ ही दिनों में नदी किनारे उनके दर्शन के लोग इकट्ठे होने लगे। स्‍थानीय लोग भी ओशो के प्रति अपना सम्‍मान व्‍यक्‍त करने के लिए आने लगे।
      एक सुबह आप पास के दस गांवों के मुखिया ओशो को यह विश्‍वास दिलाने आए कि वे हर तरह से ओशो की मदद करना चाहते है। ओशो ने नदी के किनारे बैठकर उन लोगों के साथ नाश्‍ता लिया। हिमाचल प्रदेश बार एसोसियेशन के अध्‍यक्ष, सचिव, और अन्‍य अधिकारी भी ओशो से मिलने आए। वे सब चाहते थे कि ओशो कूल्लू में ही रहें।
      जल्‍दी ही ओशो ने सुबह-श्‍याम प्रेस से बोलना शुरू कर दिया। इस अवसर का लाभ उठाने भारतीय प्रेस के ही नहीं अंतर्राष्‍ट्रीय प्रेस के लोग भी पहुंचने लगे। क्रांति के स्‍वर एक बार फिर से विश्‍व के कोने-कोने तक पहुंचने लगे। वह घटनाक्रम वाशिंगटन डी. सी. में बैठे हुए लोगों की योजना के अनुरूप नहीं था। वाशिंगटन से नई दिल्‍ली तक कुछ गुप्‍त संदेश और आदेश पहुंचने लगे।
      और देखते ही देखते ओशो के पश्‍चिमी संन्‍यासियों के वीसा रद्द कर दिए गये। उन्‍हें भारत से जाने पर मजबूर कर दिया गया। पाश्‍चात्‍य लोग ओशो तक न पहुंच पाये इसकी पुरी-पुरी कोशिश की जाने लगी।
      ‘’अमरीका सरकार भारत पर दबाव डालने लगी कि मुझे भारत में ही रखा जाए, और बाहर कहीं भी जाने की अनुमति न दी जाए। और दूसरी बात, कि कोई विदेशी, खासकर प्रेस वालों को मुझसे ने मिलने दिया जाए। ये दो शर्तें थी। जिन्‍हें मैं स्‍वीकार नहीं कर सकता था। मैं एक स्‍वतंत्र व्‍यक्‍ति हूं और हमेशा एक स्‍वतंत्र  व्‍यक्‍ति की भांति ही मैंने जीना और मरना चाहा है। चाहे मुझे गोली मार दी जाए। इससे कोई हर्ज नहीं। लेकिन मैं किन्‍हीं शर्तों का गुलाम नहीं बन सकता।  अगर मुझे इन शर्तों के अधीन जीना पड़ता कि मैं भारत में ही रहूँ। और मेरे विदेशी शिष्‍य मुझसे न मिल सकें तो ऐसे जीने में क्‍या सार? यह लगभग मुझे मार ही डालने जैसी बात थी। वह तो जीते जी मृत्‍यु हो जाती।
      मुझे मेरे शिष्‍यों से मिलने से कोई नहीं रोक सकता। इससे पहले कि वे मेरा पासपोर्ट छीनते, कि मैं कहीं आ जा न सकूँ, मैंने भारत छोड़ देने का निर्णय लिया। वहां से मैं नेपाल चला गया—क्‍योंकि वही एक देश था जहां मैं बिना वीसा के जा सकता था। वरना तो भारत सरकार ने सारे दूता वासों को सूचित कर दिया था कि मुझे कोई वीसा नदिया जाए। लेकिन नेपाल जाने के लिए वीसा की जरूरत नहीं थी। इसलिए मैं नेपाल चला गया।
ओशो
ओशो टाइम्‍स इंटरनेशनल,
जन्‍म दिवस विशेषांक, दिसंबर, 1990,

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