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मंगलवार, 23 नवंबर 2010

मैं द्वार बनूं—दीवार न बनूं--


मैं तुम्‍हें अपने पर नहीं रोकना चाहता। मैं तुम्‍हारे लिए द्वार बनूं, दीवार न बनूं। तुम मुझसे प्रवेश करो, मुझ पर मत रुको। तुम मुझसे छलांग लो, तुम उड़ो आकाश में। मैं तुम्‍हें पंख देना चाहता हूं। तुम्‍हें बाँध नहीं लेना चाहता। इसलिए तुम्‍हें सारे बुद्धों का आकाश देता हूं।
      मैं तुम्‍हारे सारे बंधन तोड़ रहा हूं। इसलिए मेरे साथ तो अगर बहुत हिम्‍मत हो तो ही चल पाओगे। अगर कमजोर हो तो किसी कारागृह को पकड़ो, मेरे पास मत आओ।
      वस्‍तुत: मैं तुम्‍हें कही ले जाना नहीं चाहता; उड़ना सिखाना चाहता हूं। ले जाने की बात ही ओछी है। मैं तुमसे कहता हूं; तुम पहुँचे हुऐ हो। जरा परों को तौलो, जरा तूफ़ानों में उठो, जरा आंधियां के साथ खेलो,जरा खुले आकाश का आनंद लो। मैं तुमसे वही नहीं कहता कि सिद्धि कहीं भविष्‍य में है। अगर तुम उड़ सको तो अभी है,यहीं है।
--ओशो
एस धम्‍मो सनंतनो
भाग—6

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