लेकिन वासिलिएव, जो उस अंधी लड़की पर मेहनत कर रहा था। उसको ऐसा ख्याल आया कि जो एक व्यक्ति के भीतर संभव है वह किसी न किसी मार्ग से, किसी ने किसी रूप में सबकी संभावना होनी चाहिए। तो उसने सोचा, क्या हम दूसरे बच्चों को भी ट्रेंड कर सकते है। उसने अंधों की एक स्कूल में बीस बच्चों पर प्रयोग शुरू किया और चकित रह गया। कि बीस में से सत्रह बच्चे दो वर्ष के प्रयोग के बाद हाथ से अध्यन करने में समर्थ हो गये—और तब तो वासिलिएव ने कहा कि नाइन्टी सेवन परसैंट आदमी की संभावना है कि वे हाथ से पढ़ सकें। 97 प्रतिशत। बाकी जो तीन है, मानना चाहिए हाथ के लिहाज से अंधे है। बाकी और कोई कारण नहीं हो सकता है। कुछ हाथ से यंत्र में खराबी होगी। वासिलिएव के प्रयोगों का परिणाम यह हुआ, अखबारों में जब खबरें निकलती तो कई अंधे बच्चों ने अपने-आपने घरों पर प्रयोग करने शुरू किए। और सैकड़ों खबरें आयी मॉस्को यूनिवर्सिटी के पास गांवों से कि फलां बच्चा भी पढ़ा पाता है। फलां बच्चा भी पढ़ पाता है।
बड़ी हैरानी की बात थी क्योंकि हाथ कैसे पढ़ पायेगा। हाथ के पास तो आँख नहीं है। हाथ से कोर्इ संबंध नहीं जुड़ता हुआ मालूम पड़ता है। हाथ स्पर्श कर सकता है। लेकिन अब चादर ढाँक दी गयी तो स्पर्श भी नहीं कर सकता। जैसे-जैसे प्रयोगों को और गहन किया गया, वैसे-वैसे साफ हुआ कि सवाल हाथ का नहीं है, यह सवाल अतींद्रिय है, पैरा साइकिक है। उस लड़की को फिर पैर से पढ़ने की कोशिश करवाई गई। दो महीने में वह पैर से भी पढ़ने लगी। फिर उसको बिना स्पर्श किए पढ़ने की कोशिश करवाई गई। वह दीवार के उस तरफ रखा हुआ बोर्ड भी पढ़ लेती थी। फिर उसे मीलों के फासले पर रखी हुई किताब खोली जाएगी और वह यहां से पढ़ सकेंगी। तब स्पर्श से कोई संबंध न रहा। वासिलिएव ने कहा है—हम जितनी शक्तियों के संबन्ध में जानते है, निश्चित ही उनसे कोई अन्य शक्ति काम कर रही है।
योग निरंतर उस अन्य शक्ति की बात करता रहा है। महावीर की संयम की जो प्रक्रिया है उसमें उस अन्य शक्ति को जगना ही आधार है। जैसे-जैसे वह अन्य शक्ति जागती है वैसे इन्द्रियों फीकी हो जाती है। ठीक वैसे ही फीकी हो जाती है जैसे की आप किताब पढ़ रहे है—एक उपन्यास पढ़ रहे है। और फिर आपके सामने टेलिविजन पर वह उपन्यास खोला जा रहा है तो आप किताब बंद कर देंगे। किताब एकदम फीकी हो गयी। कथा वही है। लेकिन अब ज्यादा जीवंत मीडिया है, आपके सामने। बहुत दिन तक किताब चलेगी नहीं। बहुत दिन तक किताब नहीं चलेगी। किताब खो जाएगी। टेलिविजन ओर सिनेमा इसको पी जाएगा। जो भी शिक्षा टेलिविजन से दी जा सकती है वह किताब से आगे नहीं दी जा सकेगी। उसका कोई अर्थ नहीं रह गया क्योंकि किताब बहुत मुर्दा है, बहुत फीकी हो जाती है।
अगर अब आपको कोई कहे की उपन्यास किताब में पढ़ लो, और यह कथा फिल्म पर देख लो, दो में से चुन लो जो तुम्हें चुनना हो, तो आप किताब को हटा देंगे। जिन्हें टेलिविजन को कोई पात नहीं है। वे समझेंगे कि किताब का त्याग किया। त्याग आपने नहीं किया है। आपने सिर्फ श्रेष्ठतम माध्यम को चुना लिया है। सदा ही आदमी चुन लेता है, जो श्रेष्ठतम है उसे। अगर आपको अपनी इंद्रियों का अतींद्रिय रूप प्रगट होना शुरू हो जाए तो निश्चित ही आप इंद्रियों को रस छोड़ देंगे और एक नए रस में आप प्रवेश कर जाएंगे। बाहर भी इंद्रियों में ही जीते है, जिनकी समझ की सीमा इंद्रियों के पार नहीं—वे कहेंगे, महात्यागी है आप। लेकिन आप केवल भोग की और गहनत्म, और अंतरतम दिशा में आगे बढ़ गए है। आप उस रस को पाने लगे है जो इंद्रियों में जीने वाले किसी आदमी को कभी पता ही नहीं है। संयम की यह विधायक दृष्टि अतींद्रिय संभावनाओं के बढ़ाने से शुरू होती है।
और महावीर ने बहुत गहन प्रयोग किए है, अतींद्रिय संभावनाओं को बढ़ाने के लिए। महावीर की सारी की सारी साधना को इस बात से ही समझना शुरू करें तो बहुत कुछ आगे प्रगट हो सकेगा। महावीर अगर बिना भोजन के रह जाते है वर्षों तक तो उसका कारण? उसका कारण है उन्होंने भीतर एक भोजन पाना शुरू कर दिया है। अगर महावीर पत्थर पर लेट जाते है और गद्दे की कोई जरूरत नहीं रह जाती तो उन्होंने भीतर एक नए स्पर्श का जगत शुरू कर दिया है। महावीर अगर कैसा भी भोजन स्वीकार कर लेते है—असल में उन्होंने एक भीतर का स्वाद जन्मा लिया है। अब बाहर की चीजें उतनी महत्वपूर्ण नहीं है। भीतर की चीजें हुए मालूम पड़ते है। उनके व्यक्तित्व में कोई कहीं संकोच नहीं मालूम पड़ता है। खिलावट मालूम होता है। वे आनंदित है। वे तथाकथित तपस्वी यों जैसे दुःखी नहीं है।
बुद्ध से यह नहीं हो सका। यह विचारों में ले लेना बहुत कीमती होगा और समझना आसान होगा। टाइप अलग था। बुद्ध से यह नहीं हो सका। बुद्ध ने भी यही सब साधना शुरू की जो महावीर ने की है। लेकिन बुद्ध को हर साधना के बाद ऐसा लगा कि इससे तो मैं और दीन-हीन हो रहा हूं। कहीं कुछ पा तो नहीं रहा हूं। इसलिए छह वर्ष के बाद बुद्ध ने सारी तपश्चर्या छोड़ दी। स्वभावत: बुद्ध ने निष्कर्ष लिया कि तपश्चर्या व्यर्थ है। बुद्ध बुद्धिमान थे और ईमानदार थे। नासमझ होते तो यह निष्कर्ष भी न लेते। व्यक्तित्व से तालमेल नहीं खाती और अपने को समझाए चले जाते है कि पिछले जन्मों में किए हुए पापों के कारण ऐसा हो रहा है। या शायद मैं पूरा प्रयास नहीं कर पा रहा हूं इसलिए ऐसा हो राह है और ध्यान रहे, जो आपकी दिशा नहीं है उसमें आप पूरा प्रयास कभी भी नहीं कर पाएंगे। इसलिए यह भ्रम बना ही रहेगा कि मैं पूरा प्रयास नहीं कर पा रहा हूं।
ओशो
महावीर-वाणी, भाग—1
प्रवचन—सातवां
पाटकर हाल, बम्बई,
दिनांक 24 अगस्त, 1971
very nice knowledgeous article....prernadayak
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