अभी कुछ दिन पहले मेरे एक पुराने संन्यासी—भूतपूर्व संन्यासी—विजय आनंद, कृष्ण प्रेम को मिल गये महाबालेश्वर में। कृष्ण प्रेम से बोले कि मैंने भगवान को पूर्ण समर्पण कर दिया था। पाँच साल तक संपूर्ण समर्पण रखा। लेकिन जब मुझे बुद्धत्व उपलब्ध नहीं हुआ तो मैंने फिर संन्यास का त्याग कर दिया।
कैसी मजेदार बात है, कैसी रस भरी बात कहीं। संपूर्ण समर्पण। और वह भी वापस लिया जा सकता है। संपूर्ण समर्पण का अर्थ ही क्या होता है फिर। जब पूरा-पूरा ही दे दिया था तो लेने बाला कौन पीछे बचा था जो वापस ले ले? निश्चित ही समर्पण संपूर्ण नहीं रहा होगा।
पहली बात, संपूर्ण समर्पण में लौटने का कोई उपाय ही नहीं होता, पुराने सेतु ही टूट जाते है। सीढ़ी ही फेंक दी जाती है। लौटना भी चाहो तो नहीं लौट सकते। लौटने को ही नहीं बचता कोई। पहली बात तो यह की वह संपूर्ण समर्पण नहीं था। कुछ ता बचा ही था पीछे। जो बचा हुआ था वह ज्यादा था। क्योंकि संन्यास लेते वक्त तो मुझसे हजार सवाल पूछे थे। विचार किया था कि लूं या न लूं, ऐसा होगा, वैसा होगा; क्या परिणाम होंगे, क्या नहीं होंगे। लेकिन छोड़ते वक्त तो मुझसे पूछा भी नहीं। तो जरूर निन्यानवे प्रतिशत तो भीतर ही बचा होगा, एक प्रतिशत दिया होगा। ज्यादा तो भीतर था उसने वापस खींच लिया हाथ।
और क्या समर्पण अधूरा हो सकता है—यह दूसरा सवाल, समर्पण यह तो होता है तो पूरा होता है या नहीं होता। एक प्रतिशत की बात भी मैंने सिर्फ बात करने के लिए कहीं तुमसे,ताकि विचार कर सको। सच में तो एक प्रतिशत समर्पण होता ही नहीं। या तो सौ प्रतिशत या नहीं। निन्यानवे प्रतिशत समर्पण भी समर्पण नहीं है। क्योंकि वह जो एक प्रतिशत भीतर रह गया है वह सारे के सारे समर्पण को वापस खींच सकता है।
और क्या समर्पण अधूरा हो सकता है—यह दूसरा सवाल, समर्पण यह तो होता है तो पूरा होता है या नहीं होता। एक प्रतिशत की बात भी मैंने सिर्फ बात करने के लिए कहीं तुमसे,ताकि विचार कर सको। सच में तो एक प्रतिशत समर्पण होता ही नहीं। या तो सौ प्रतिशत या नहीं। निन्यानवे प्रतिशत समर्पण भी समर्पण नहीं है। क्योंकि वह जो एक प्रतिशत भीतर रह गया है वह सारे के सारे समर्पण को वापस खींच सकता है।
और मजे की बात तीसरी जो उन्होंने कही कि पाँच साल तक संपूर्ण समर्पण रखा।
जैसे कि संपूर्ण समर्पण का भी समय से कोई संबंध है—एक मिनट रखा, कि दो मिनट रखा, कि पाँच मिनट रखा। पूरा पाँच साल। महान कार्य किया। पाँच साल तक समर्पण, और संपूर्ण; कितनी कठोर साधना नहीं की, कांटों की शय्या पर लेटे रहे। आग बरसतें में चारों तरफ धूनी लगा कर बैठे रहे। पाँच साल। छोटी कुछ बात है। और फिर छोड़ा क्यों संन्यास? क्योंकि पाँच साल संपूर्ण समर्पण रखने के बाद भी बुद्धत्व प्राप्त नहीं हुआ। सौदा था, शर्त थी, अंदर मोल भाव था कोई, भीतर कोई व्यवसाय चल रहा था। समर्पण का कोई प्रयोजन था, कोई आकांक्षा थी। कोई वासना थी। संन्यास नहीं था वह वासना थी, संसार था। बुद्धत्व चाहिए था। छोटी-मोटी कोई चीज चाहिए भी नहीं थी। न आनंद, न शांति...ठेठ बुद्धत्व चाहिए था। और पाँच साल के भीतर।
और विजय आनंद ने बेचारे ने कितनी तपश्चर्या की; कैसा त्याग किया, पाँच साल तक सूली पर लटके रहे, और जब देखा कि अभी तक बुद्धत्व प्राप्त नहीं हुआ, तो सूली से उतर गये। की भाड़ में जाये यह सूली।
कैसी यह सूली थी जिस पर पाँच साल लटके रहे और मरे भी नहीं। और पाँच साल टकटकी बाँध केर देखते रहे, कि अब आया बुद्धत्व, कि तब आया। लेकिन बुद्धत्व था कि आया ही नहीं। सोचा कि अब दस्तक देगा, इधर से आया, उधर से आया। मगर कभी हवा का झोंका निकला कभी बादल गरजा, कभी बिजली कड़की। बुद्धत्व को कोई पता ही नहीं। पाँच साल सतत प्रतीक्षा करने के बाद अब और क्या चाहते हो, साधना पूरी हुई।
कृष्ण प्रेम ने ठीक कहा विजय आनंद को। क्योंकि विजया आनंद ने कृष्ण प्रेम से पूछा कि तुम्हें बुद्धत्व मिला? कृष्ण प्रेम ने कहा, हमें प्रयोजन ही नहीं। लेना-देना क्या हे बुद्धत्व से; करेंगे क्या बुद्धत्व का? हम तो यूं ही मजे में है। हम तो मस्त है।
विजय आनंद को यह बात समझ में नहीं आई। विजय आनंद ने कहा, यह बात ठीक नहीं है। अरे जब संन्यासी हो तो बुद्धत्व तो होना ही चाहिए।
पर कृष्ण प्रेम ने कहा, हम संन्यस्त होकर ही आनंदित है, अब हमें और कुछ चाहिए ही नहीं। भी जाए बुद्धत्व तो सोचेंगे कि लेना कि नहीं लेना। मतलब और नई झंझट कौन पाले सोचेंगे, विचारेंगे। और हमें लेन देन की कोई चिंता नहीं। इस झंझट से बचे रह गये इसी लिये तो संन्यास समझ में आ गया।
मगर भारतीय बुद्धि एक ढंग से चलती है। भारतीय बुद्धि व्यवसायी बुद्धि है। लाख तुम मोक्ष की बातें करो,मगर तुम्हारा व्यवसाय भीतर बना ही रहता है। कहीं हिसाब किताब तुम लगाए ही रखते हो ।
विजय आनंद चलते-चलते कृष्ण प्रेम को कह गये कि नहीं, यह तो सोचना ही पड़ेगा। बुद्धत्व का विचार तो रखो ही। नहीं तो संन्यास का सार ही क्या है।
संन्यास भारतीय बुद्धि में हमेशा है, साध्य नहीं है। इसीलिए मेरे पास सारी दुनियां से आए लोगों को एक सहज आनंद की अनुभूति हो रही है। जो भारतीय को नहीं हो पा रही है। और उसका कुल इतना करण है कि भारतीय मन हिसाबी किताबी हो गया है। बातें तो ऊंची करता है, मगर बातों के पीछे माजरा कुछ ओर, कुछ हिसाब छिपा है। मोक्ष पाना, कैवल्य पाना, बैकुंठ जाना, गोलोक में निवास करना। कहीं कोई लक्ष्य छिपा है; संन्यास अपने आप में सिद्ध नहीं है। संन्यास अपनेआप में सिद्धि नहीं है। साधना है। और मेरा आग्रह है कि जब भी तुम साधन में ओर साध्य में भेद करोगे, तुम विभाजित हो जाओगे। तुम दो टुकड़ों में टूट जाओगे। साध्य होगा भविष्य में और साधन होगा वर्तमान में। भविष्य आया और संसार आया।
साधन ही साध्य हो जाना चाहिए, तभी तुम वर्तमान में जी सकते हो। तब यही क्षण काफी है। तब न कहीं जाना है, नहीं कुछ पाना है। और ऐसी अवस्था का नाम ही बुद्धत्व है—न कहीं जाना है, न कुछ पाना है। आनंदित है। यही क्षण अपनी समग्रता में आपने पूरे रस से झर रहा है। अगले क्षण की बात ही नहीं उठती ऐसी। ऐसा शुद्ध वर्तमान निर-अंहकार होते ही उपलब्ध हो जाता है। और जिसको शुद्ध वर्तमान उपलब्ध हुआ, किस निमित हो जाए....।
हां, अगर तेरा समर्पण भी विजय आनंद जैसा हो—कि समग्र समर्पण कर दिया और पाँच साल हो गए और अभी तक बुद्धत्व नहीं मिला—तो फिर कहीं और खोजना पड़ेगा। मगर यूं कहीं भी खोज पान असंभव है। पाने की आकांक्षा ही पाने में बाधा है। जो यहां घट सकता है, अभी घट सकता है। उसे क्यों कल पर टालना। साधन और साध्य में भेद न कर।
और मैं तो सिर्फ बहाना हूं। तेरा सिर झुकाना कैसे भी हो जाए, किसी बहाने हो जाए, बस सिर झुक जाए, तू बेसिर हो जाए ताकि ह्रदय की ह्रदय बचे—और आ गई वह घड़ी वह परम सौभाग्य की घड़ी, जब स्वर्ग तेरे भीतर उतर आता है।
एक-एक करके हुए जाते है तारे रोशन
मेरी मंजिल की तरफ तेरे कदम आते है
दिल में अब यूं तेरे भूले हुए गम आते है
जैसे बिछुड़े हुए काबे में सनम आते है
रक्से-मय तेज करो, साज की लय तेज करो
सूए-मैख़ाना सफीराने-सफर आते है।
आज इतना ही।
ओशो
आपुई गई हिराय,
प्रवचन—5, प्रश्न-2
ओशो आश्रम, पूना
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें