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रविवार, 17 अप्रैल 2011

विवेकानंद और देव सेन—(कथा यात्रा-0012)

विवेकानंद और देव सेन-(कथा यात्रा)

ऐसा हुआ, विवेकानंद एक बड़े विद्वान के साथ ठहरे हुए थे। उनका नाम था, देवसेन। बहुत बड़ा विद्वान, जिसने संस्‍कृत शास्‍त्रों का पश्‍चिमी भाषाओं में अनुवाद किया। देवसेन उपनिषदों के अनुवाद में संलग्‍न था—और वह सर्वाधिक गहरे अनुवादकों में से एक था। एक नई पुस्‍तक प्रकाशित हुई थी। विवेकानंद ने पूछा, क्‍या मैं इसे देख सकता हूं? क्‍या मैं इसे पढ़ने के लिए ले सकता हूं? देवसेन ने कहा, हां-हां जरूर ले सकते हो, मैंने इसे बिलकुल नहीं पढ़ा है।

      कोई आधे घंटे बाद विवेकानंद ने पुस्‍तक लौटा दी। देवसेन को तो भरोसा न हुआ। इतनी बड़ी पुस्‍तक पढ़ने के लिए तो कम से कम एक सप्‍ताह चाहिए। और अगर तुम उसे ठीक से पढ़ना चाहते हो तब तो और भी समय चाहिए। और यदि उसे तुम उसे समझना भी चाहते हो,  कठिन है पुस्‍तक तब तो और भी अधिक समय चाहिए आपको। उसने कहा,क्‍या आपने पूरा पढ़ लिया इसे? क्‍या आपने सच मैं पूरा पढ़ लिया? या कि बस यूं ही इधर उधर निगाह डाल ली।
      विवेकानंद ने कहा, मैंने भली भांति अध्‍यन किया है इसका।

      देवसेन ने कहा, मैं विश्‍वास नहीं कर सकता। आप मुझ पर एक कृपा करें। मुझे पढ़ने दें यह पुस्‍तक और फिर मैं आपसे पुस्‍तक के संबंध में कुछ प्रश्‍न पुछूगां।
      देवसेन ने सात दिन तक पुस्‍तक पढ़ी, उसका अध्‍ययन किया; और फिर उसने कुछ प्रश्‍न पूछे, और विवेकानंद ने एकदम ठीक उत्‍तर दिये। जैसे कि वे उस पुस्‍तक को जीवन भर पढ़ते रहे हो। देवसेन ने लिखा है अपने संस्‍मरणों में: मेरे लिए असंभव थी यह बात और मैंने पूछा कि कैसे संभव है यह? तो विवेका नंद ने कहा, जब तुम शरीर द्वारा अध्‍ययन करते हो तो एकाग्रता संभव नहीं है। जब तुम शरीर में बंधे नहीं होते तो तुम किताब से सीधे-सीधे जुड़ते हो। तुम्‍हारी चेतना सीधे-सीधे स्‍पर्श करती है। तुम्‍हारे  और किताब के बीच कोई बाधा नहीं होती: तब आधा घंटा भी पर्याप्‍त होता है। तुम उसका अभिप्राय, उसका सार आत्‍मसात कर लेते हो।
      यह बिलकुल ऐसे ही है: जब कोई छोटा बच्‍चा पढ़ता है—वह बड़े शब्‍द नहीं पढ़ सकता है; उसे शब्‍दों को छोटे-छोटे हिस्‍सों में तोड़ना पड़ता है। यह पूरा वाक्‍य नहीं पढ़ सकता। जब तुम पढ़ते हो तो पूरा वाक्‍य पढ़ते हो। अगर तुम तेज पढ़ने वाले हो, तो तुम पूरा पैराग्राफ पढ़ सकते हो—झलक भर—और पढ़ जाते हो उसे।
      तो एक संभावना है, अगर शरीर कोई दखलंदाजी नहीं कर रहा है। तो तुम पूरी किताब पढ़ सकते हो एक नजर भर डालते हुए। और यदि तुम शरीर से पढ़ते हो तो तुम भूल सकते हो। अगर तुम शरीर को एक और हटा कर पढ़ते हो, तो फिर उसे स्‍मरण रखने की कोई जरूरत नहीं होती; तुम उसको नहीं भूलोंगे—क्‍योंकि तुमने समझ लिया होता है उसे।
      शुद्ध शरीर वाले, शुद्ध चेतना वाले; शुद्धता से आपूरित व्‍यक्‍ति में एकाग्रता की शक्‍ति उदित होती है।
      मानसिक शुद्धता से उदित होती है—प्रफुल्‍लता, एकाग्रता की शक्‍ति......।
ओशो
पतंजलि: योग-सूत्र—3
प्रवचन—15
    
     
       
          

     

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