टुकड़ा कोई यूं टूट कर,
कुछ दूर रह गया।
मुझसे मेरे ऐ दोस्त
तू रूठ क्यों गया।
कहने लगा इक घर चाहिए उसकी तलाश है।
ढ़ूँढ़ा जिसे ता उम्र भर फिर भी न मिल सका।
गिर-गिर के उठ गया,वो न अब भी उदास है।
कुछ ख्याल और ख्वाब गर्दिश में खो गये।
वो चाँद-तारे राह के भी अँधेरों में मिट गये।
भटकन बनी है राह की न और छौर है।
कभी कोई तो पुकारेगा सुबह की आस है।।
पूजा जिसे था उम्र भर वो बूत ही रह गया।
दिल था मेरा जो राह कि ज़र्रों में मिल गया।
मत जाओ उस जगह वहां कोई बुत परस्त है।
खँड़हर खड़े हुऐ है, सिसकना न पास है।
कहां है मेरा वो घर जिसकी तलाश है।
ऐ जिंदगी तुम बस झूठी सी आस है।।
दर्द के कोई पैबंद, अगर दे सके तो दे।
यूं तन्हा खड़े हुए है लूटने की आस है।
--स्वामी आनंद प्रसाद ‘मनसा’
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