धर्म तुम्हें संस्कारित करते है। राजनेता तुम्हें संस्कारित करते है। तुम एक संस्कारित चित हो। केवल ध्यान द्वारा संभावना है तुम्हारे मन को अ-संस्कारित करने की। केवल ध्यान ही संस्कारों के पार जाता है। क्यों? क्योंकि प्रत्येक संस्कार विचारों के द्वारा काम करता है। यदि तुम अनुभव करते हो कि तुम हिंदू हो, तो क्या है यह? विचारों का एक बंडल तुम्हें दे दिया गया, जब तुम जानते भी न थे कि तुम्हें क्या दिया जा रहा है। विचारों की एक भीड़—और तुम ईसाई हो जाते हो, कैथोलिक हो जाते हो, प्रोटेस्टैट हो जाते हो।
ध्यान में विचार तिरोहित हो जाते है—सभी विचार। तुम निर्विचार हो जाते हो। मन की निर्विचार अवस्था में कोई संस्कार नहीं रहते। फिर तुम हिंदू नहीं रहते, ईसाई नहीं रहते। कम्युनिस्ट नहीं रहते। फासिस्ट नहीं रहते। तुम कुछ भी नहीं रहते—तुम केवल तुम हो जाते हो। पहली बार सारी संस्कारों की ज़ंजीरें गिर चुकी होती है। तुम कैद के बाहर होते हो।
केवल ध्यान ही तुम्हें संस्कार-मुक्त कर सकता है। कोई समाजिक क्रांति मदद न देगी। क्योंकि क्रांतिकारी फिर तुम्हें संस्कारित कर देंगे। आपने ढंग से। उन्नीस सौ सत्रह में रूस में क्रांति हुई। इससे पहले वह सर्वाधिक रूढ़िवादी ईसाई देशों में एक था। रूसी चर्च सर्वाधिक पुराना चर्च था। वेटिकन से ज्यादा रूढ़िवादी—लेकिन फिर, अचानक, रूसीयों ने हर चीज बदल दी। चर्च बंद हो गए—वे स्कूलों मे, कम्युनिस्ट पार्टी के दफ़्तरों में, अस्पतालों में बदल गये। धार्मिक शिक्षा पर रोक लगा दि गई। और उन्होंने लोगों को कम्यूनिज़म के लिए संस्कारित करना शुरू कर दिया। दस वर्षों के भीतर सब नास्तिक हो गए। केवल दस वर्षों में ही। उन्नीस सौ सत्ताईस तक सारा धर्म गायब हो गया था रूस से। उन्होंने लोगों को एक दूसरे ही ढंग से संस्कारित कर दिया।
लेकिन मेरे देखे बात एक ही है: चाहे तुम किसी व्यक्ति को कैथोलिक के रूप में, ईसाई के रूप में संस्कारित करो या तुम उसे कम्युनिस्ट की भांति संस्कारित करो। मेरे देखे इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता। क्योंकि सारी समस्या संस्कारों की है। तुम संस्कारों में बाँधते हो, तुम स्वतंत्रता नहीं देते उसको। इससे क्या फर्क पड़ता है कि तुम ईसाई नरक में रहते हो हिंदू नरक में रहते हो। तुम ईसाई गुलामी में जीते हो हिंदू गुलामी में। इससे क्या फर्क पड़ता है। कुछ फर्क नहीं पड़ता है।
अगर तुम हिंदू जेल में रहते हो तो किसी दिन क्रांति हो जाती है: वे फाड़ देते है लेबल; वे नया लेबल लगा देते है: कम्युनिस्ट जेल। और तुम प्रसन्न होते हो और आनंद मनाते हो कि तुम मुक्त हो—उसी जेल में।
केवल शब्द बदल जाते है। पहले तुम्हें सिखाया गया: ‘’ईश्वर है, उसने संसार बनाया’’ अब तुम्हें सिखाया जाता है: ‘’ईश्वर नहीं है, और किसी ने नहीं बनाया संसार को’’ लेकिन दोनों ही बातें तुम्हें सिखाई गई है। और धर्म सिखाया नहीं जा सकता। वह सब जो सिखाया जा सकता है, राजनीति होगी। इसीलिए मैं कहता हूं: धर्म स्वयं एक बहुत बड़ी राजनीति रहा है अतीत में। और किसी समाजिक क्रांति की कोई संभावना नहीं है, क्योंकि सारी क्रांतियां तुम्हें फिर संस्कार देंगी।
केवल एक संभावना है: अ-मन को उपलब्ध होने की व्यक्तिगत क्रांति। तुम निर्विचार को उपलब्ध हो जाते हो। तब कोई तुमको संस्कारित नहीं कर सकता। तब सारे संस्कार बंधन गिर जाते है। तब पहली बार तुम मुक्त होते हो। तब सारा आकाश तुम्हारा होता है; तुम प्रेम करते हो; तुम आनंद मनाते हो; तुम आह्लादित होते हो।
ओशो
पतंजलि: योग-सूत्र—3
प्रवचन—10 पूना।
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