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सोमवार, 4 अप्रैल 2011

03-सजी दूल्हनियां—(कविता)

रात सजी दुल्हनियां जैसी, तारों की ओढ़ चुनरीयां।
मुझे छुपाले खुद में प्रियतम हो गई तो अब सांवलियां।

01-चांद निहारे, पपीहा पुकारे,जीवन में कब हो उजियारे।
एक झलक तो देजा प्रितम, क्यों छुप-छुप करे इशारे।
चलत-चलते थक गई अब तो, मिले न कोई किनारे।
थक गई में तो चलते-चलते,मिला नहीं वो किनारे।
जीवन सांसे छलक रही हे, रीतगई रे गागरियां।
मुझे छूपाले......


02-आना तेरा मिटना मेरा, खुद मैं खुद ही समाये।
तेरी याद अब तो प्रितम, आंसु भी जम आये।
खोल दिये घुंघट पट मैने, तब कहां दर्श है पाये।
दुर कहीं माजी गाता है, भौर बिनी दुलहनियां।
मुझे छुपाले खुद मेंल प्रितम हो गई में सांवरियां।

--मनसा-मोहनी 

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