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सोमवार, 11 अप्रैल 2011

सपनों के पाँच प्रकार—II

चौथे प्रकार के स्‍वप्‍न–
     चौथे प्रकार के स्‍वप्‍न जो कि आते है पिछले जन्‍मों से। वे बहुत विरल नहीं होते है। वे घटते हैं, बहुत बार आते है वे। लेकिन हर चीज तुम्‍हारे भीतर इतनी गड़बड़ी में है कि तुम कोई भेद नहीं कर पाते। तुम वहां होते नहीं भेद समझने को।
      पूरब में हमने बहुत परिश्रम किया है इस चौथे प्रकार के स्‍वप्‍न पर। इसी स्‍वप्‍न के कारण हमें प्राप्‍त हो गयी पुनर्जन्‍म की धारणा। इस स्‍वप्‍न द्वारा धीरे-धीरे तुम जागरूक होते जाते हो पिछले जन्‍मों के प्रति। तुम जाते हो पीछे और पीछे की और अतीत काल में। तब बहुत सारी चीजें तुममें परिवर्तित होने लगती है। क्‍योंकि यदि तुम्‍हें स्‍मरण आ सकता है, सपने में भी कि तुम क्‍या थे तुम्‍हारे पिछले जन्‍म में। बहुत सी नयी चीजें अर्थहीन हो जाएंगी। सारा ढांचा बदल जायेगा। तुम्‍हारा रंग-ढंग गेस्‍टाल्‍ट  बदल जायेगा।
      यदि तुमने पिछले जनम में बहुत सारा धन एकत्रित किया था। यदि तुम देश के सबसे धनी व्‍यक्‍ति होकर मरे थे। और गहरे में तुम भिखारी थे और फिर तुम वही कर रहे हो इस जीवन में, तो अकस्‍मात क्रिया-कलाप बदल जायेगा। यदि तुम याद रख सको कि तुमने क्‍या किया था और कैसे वह सब कुछ हो गया ना कुछ, यदि तुम याद रख सको कि तुमने क्‍या किया था और कैसे वह सब कुछ हो गया। जो नहीं कुछ; यदि तुम याद रख सको बहुत सारे जन्‍म कि कितनी बार तुम वही बात फिर-फिर कर रहे हो—तुम अटके हुए ग्रामोफोन रेकार्ड की भांति हो। एक दुस्चक्र; फिर तुम उसी तरह आरंभ करते हो और उसी तरह अंत करते हो। यदि तुम याद कर सको तुम्‍हारे थोड़ से भी जन्‍म तो तुम एकदम आश्‍चर्यचकित हो जाओगे कि तुमने एक ही बात की बार-बार, फिर-फिर तुमने धन एकत्रित किया; बार-बार तुम ज्ञानी बने;फिर-फिर तुम प्रेम में पड़े; और फिर-फिर चला आया वही दुःख जिसे प्रेम ले आता है। जब तुम देख लेते हो यह दोहराव तो कैसे तुम वहीं बने रह सकते हो। तब यह जीवन अकस्‍मात रूपांतरित हो जाता है। तुम अब और नहीं रह सकते उसी पुरानी लीक में उसी चक्र में।
      इसीलिए पूरब में लोग पूछते आये है बार-बार कई शताब्‍दियों से, जीवन और मृत्‍यु के इस चक्र से कैसे बाहर आएं। यह जान पड़ता है वही चक्र। यह जान पड़ती है बार-बार की वहीं कथा—एक दोहराव। यदि तुम इसे नहीं जान लेते तो तुम सोचते हो कि तुम नहीं बातें कर रहे हो। और तुम इतने उत्तेजित हो जाते हो। में देख सकता हूं कि तुम यही बातें करते रहे हो बार-बार।
      कुछ नया नहीं है जीवन में; यह एक चक्र है। यह उसी मार्ग पर बढ़ता चला जाता है। क्‍योंकि तुम अतीत के विषय में भूलते चले जाते हो। इसी लिए तुम इतनी अधिक उत्‍तेजना अनुभव करते हो। एक बार तुम्‍हें स्मृति आ जाती है। तो सारी उत्तेजना गिर जाती है। उसी स्मरण में संन्‍यास घटता है।
      सन्‍यास एक प्रयास है संसार के चक्र में से बाहर आने का। यह प्रयास है चक्र के बाहर छलांग लगा देने का। यह है कह देना स्‍वयं से बहुत हो गया अब मैं उस पुरानी नासमझी में भाग नहीं लेना चाहता। मैं बाहर हो रहा हूं। उससे। संन्‍यास है इस चक्र से सम्पूर्णता से बाहर हो जाने का रास्‍ता। न ही केवल समाज के बहार, बल्‍कि जीवन मृत्‍यु के तुम्‍हारे भीतर के चक्र के बाहर। यह है चौथे प्रकार के स्‍वप्‍न।

पांचवें प्रकार के स्‍वप्‍न--
      पांचवें और अन्‍तिम प्रकार के स्‍वप्‍न आता है तुम्‍हारे अतीत से। भविष्‍य से। संभावना से। ये स्‍वप्‍न एक विरल होता है। बहुत ही विरल। यह केवल कभी-कभी ही घटता है। जब तुम होते हो बहुत संवेदनशील, खुले नमनीय, तो अतीत देता है एक छाया। और भविष्‍य भी देता है एक छाया। यह तुममें प्रतिबिंबित होती है। यदि तुम जागरूक बन सकते हो अपने सपनों के प्रति तो किसी दिन तुम जागरूक हो जाओगे। इस संभावना के प्रति भी कि भविष्‍य तुमसे झाँकता है। एकदम अकस्‍मात ही द्वार खुल जाता है। और भविष्‍य का तुमसे संप्रेषण हो जाता है।
      ये होते है पाँच प्रकार के स्‍वप्‍न। आधुनिक मनोविज्ञान समझता है केवल दूसरे प्रकार को। रूसी मनोविज्ञान समझता है केवल पहले प्रकार कोही। तीन प्रकार—बाकी दूसरे तीनों प्रकार करीब-करीब अज्ञात है। लेकिन योग समझता है उन सभी प्रकारों को।
      यदि तुम ध्‍यान करो और सपनों वाले तुम्‍हारे आंतरिक अस्‍तित्‍व के प्रति जागरूक हो जाओ तो और बहुत बातें घटेगी। पहली बात तो यह हे कि धीरे-धीर जितना अधिक तुम जागरूक होते जाओगे। अपने सपनों के प्रति। उतने ही तुम कम और कम कायल होओगे अपने जागने के समय की वास्‍तविकता के प्रति। इसीलिए हिंदू कहते है कि संसार एक सपने की भांति है। अभी तो बिलकुल विपरीत है अवस्‍था। सपने देखते हो तो तुम सोचते हो वे सपने भी वास्‍तविक है। जब सपना आ रहा होता है, तो कोई अनुभव नहीं करता कि वह सपना अवास्‍तविक है। जब सपना आ रहा हो तो वह ठीक लगता है। वह बिलकुल वास्‍तविक लगता है। निस्‍संदेह सुबह तुम कह सकते हो कि यह तो बस एक सपना था। लेकिन बात इसकी नहीं क्‍योंकि अब एक दूसरा मन भी कार्य कर रहा है। ये मन साक्षा बिलकुल न था। इस मन ने तो केवल उड़ती खबर सुनी थी। यह चेतन मन जो सुबह जागता है। और कहता है कि वह सब सपना था, यह मन तो बिलकुल साक्षा न था। कैसे यह मन कह सकता है कुछ? इसने तो बस एक खबर सुन ली है। यह ऐसा है जैसे कि तुम सोये हो और दो व्‍यक्‍ति बातें कर रहे हों और तुम नींद में यहां-वहां से कुछ शब्‍द सुन लेते हो क्‍योंकि वे इतनी जोर से बोल रहे होते है। मिला-जुला प्रभाव बचता है।
      ऐसा घट रहा होता है—जब अचेतन निर्मित करता है सपने और जबरदस्‍त हलचल चल रही होती है, चेतन मन सोया हुआ होता है। और केवल कोई खबर सुन लेता है। सुबह यह कह देता है, वह सब धोखा था। वह मात्र सपना था। अभी तो जब कभी तुम सपना देखते हो तब तुम अनुभव करते हो कि वह बिलकुल वास्‍तविक है। बेतुकी चीजें भी वास्तविक लगती है। अतर्क पूर्ण चीजें वास्‍तविक दिखाई पड़ती है। क्‍योंकि अचेतन किसी तर्क को नहीं जानता। तुम सड़क पर चल रहे होते हो सपने में, तुम देखते हो किसी घोड़े को आते, और अचानक वह घोड़ा नहीं होता, वह घोड़ा तुम्‍हारी पत्‍नी बन गया होता है। तुम्‍हारे मन को कुछ नहीं घटता वह नहीं पूछता, यह कैसे संभव है। घोड़ा अचानक पत्‍नी कैसे बन गया है? कोई समस्‍या नहीं उठती, कोई संदेह नहीं उठता। अचेतन नहीं जनता किसी संदेह को। इतनी बेतुकी बात पर भी विश्‍वास कर लिया जाता है। उसकी वास्‍तविकता के प्रति संदेह दूर हो जाता है तुम्‍हारा।
      बिलकुल विपरीत घटता है जब तुम जागरूक हो जाते हो सपनों के प्रति। तुम अनुभव करते हो कि वे वस्‍तुत: सपने ही है। कोई चीज वास्तविक नहीं है। वे मात्र मन का खेल है। एक मनोनाटक। तुम हो रंगमंच तुम्‍हीं हो अभिनेता और तुम्‍हीं हो कथा लेखक, तुम्‍हीं हो निर्देशक तुम्हीं हो निर्माता और तुम्‍हीं हो दर्शक—दूसरा कोई नहीं है वहां, बस मन का सृजन है। जब तुम इस बात के प्रति जागरूक हो जाते हो। तब तुम जाग रहे होते हो। तब ये सारा संसार अपनी गुणवता बदल देगा। तब तुम देखोगें कि यहां भी वहीं अवस्‍था है, लेकिन लंबे-चौड़े रंगमंच पर। सपना वहीं है।
      हिंदू इस संसार को कहते है माया, भ्रम, स्‍वप्‍न-सदृश, मन की चीजों का धोखा। क्‍या मतलब होता है उनका? क्‍या वे यह अर्थ कहते है कि यह अवास्‍तविक है? नहीं, यह अवास्तविक नहीं है,लेकिन जब तुम्‍हारा मन उसमें धुल-मिल जाता है तो तुम अपना एक अवास्‍तविक संसार बना लेते हो। हम एक तरह के संसार में नहीं जीते; हर कोई अपने ही संसार मे जीता है। उतने ही संसार है जितने कि मन है। जब हिंदू कहते है कि  यह संसार माया है। तो उनका अर्थ होता है कि वास्‍तविकता और मन का जोड़ है माया। वास्‍तविकता, जो कि है, हम जानते नहीं है। वास्‍तविकता और मनका जोड़ भ्रम, माया। जब कोई समग्र रूप से जाग जाता है, एक बुद्ध हो जाता है। तब वह जानता है मन से मुक्‍त हो गया वास्‍तविकता को। तब यह होता है सत्‍य, ब्रह्म, परम।


 ओशो
पतंजलि :योग-सूत्र
भाग—2
प्रवचन-1
श्री रजनीश आश्रम पूना
1 मार्च, 1975


 

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