इतने
दिन की चर्चा
में मैंने यह
कहा कि अज्ञानी
मनुष्य, अज्ञान
से घिरा हुआ
व्यक्ति जो भी
करेगा वह गलत
होगा। वह जो
भी करेगा गलत
होगा।
पूछा
है: यदि
अज्ञान से
घिरा हुआ
व्यक्ति जो भी
करेगा वह गलत
होगा, तो
ध्यान, जागरण,
इसकी जो
चेष्टा है वह
भी उसकी गलत
होगी। फिर तो
कोई द्वार
नहीं रहा, फिर
तो कोई मार्ग
नहीं रहा।
इससे संबंधित
और दोत्तीन
प्रश्न भी हैं
इसलिए सबसे
पहले इसी प्रश्न
को मैं ले
लेता हूं।
निश्चित
ही, भीतर
अज्ञान हो तो
हम जो भी
करेंगे वह ठीक
नहीं हो सकता।
सामान्यतया
सोचा जाता है
कि कर्म ठीक
होते हैं या
गलत होते हैं।
एक आदमी मंदिर
जाता है तो हम
कहते हैं ठीक
है; एक
आदमी
वेश्यागृह
में जाता है
तो हम कहते
हैं गलत है।
एक आदमी चोरी
करता है तो हम
कहते हैं बुरा
है, पाप है;
एक आदमी दान
देता है तो हम
कहते हैं शुभ
है, पुण्य
है। हम कर्मों
को देखते और
विचार करते
हैं। मेरे
देखे यह आमूलतः
गलत है। कर्म
न तो अच्छे हो
सकते हैं और न
बुरे; चेतना
अच्छी होती है
या बुरी। और
चेतना यदि गलत
हो तो चाहे
कर्म ऊपर से
कितना ही ठीक
दिखाई पड़े, बुनियाद में,
आधार में
गलत होगा।
जैसे, एक आदमी
जिसने जीवन भर
शोषण किया हो,
शोषण से धन
इकट्ठा किया
हो, मंदिर
बनाए, तो
मंदिर बनाना
कृत्य अच्छा
नहीं हो सकता।
मंदिर बनाना दिख रहा है
कि बहुत अच्छा,
लेकिन उसके
प्रयोजन
अच्छे नहीं हो
सकते हैं। हो
सकता है वह
अपने नाम को
छोड़ जाने के
लिए मंदिर
बनाता हो, अपने
अहंकार की
पुष्टि के लिए
मंदिर बनाता
हो। और सच तो
यही है कि अब
तक जो मंदिर
बनाए गए हैं
उनमें
परमात्मा की
कोई स्थापना
नहीं हुई, उनमें
तो अपने-अपने
बनाने वालों
का अहंकार ही प्रतिष्ठित
हुआ है।
इसीलिए तो जो
मंदिर बनाता
है उसकी चिंता
इसकी बहुत कम
होती है कि
उसके भीतर
क्या होता है,
उसकी चिंता
यही ज्यादा
होती है कि
उसके बाहर किसका
नाम है। नाम
की चिंता
प्रमुख है, परमात्मा की
और प्रार्थना
की कोई चिंता
नहीं है।
जो
व्यक्ति, भीतर
से जिसकी
चेतना शुभ
नहीं हुई है, जाग्रत नहीं
है, कुछ भी
करेगा--वह दान
भी देगा तो भी
दान में जिसे
उसने दान दिया
उसके प्रति
प्रेम नहीं
होगा। हो सकता
है दान में भी
अहंकार की ही
पूजा हो।
उसमें भी वह
यह अनुभव करना
चाहता हो कि
मैं बड़ा दानी
हूं। उसमें भी
वह मजा लेना
चाहता हो।
उसमें भी उसका
रस हो। होगा!
उसका रस यह
नहीं होगा कि
किसी की
दरिद्रता मिट
जाए। क्योंकि
अगर दानी का
यही रस होता
कि किसी की
दरिद्रता मिट
जाए तो उसके पास
धन इकट्ठा
कैसे होता? अगर
दरिद्रता
मिटाना ही
उसके चित्त की
स्थिति होती,
दुख मिटाना
ही उसके चित्त
की स्थिति
होती, तो
धन इकट्ठा
कैसे होता? दरिद्रता
पैदा कैसे
होती?
आश्चर्यजनक
है कि दुनिया
में दानी भी
हैं और दरिद्रता
भी है! और हो
सकता है ये
दानी ही
दरिद्रता के
लाने में भी
कारण हों।
क्योंकि यह धन
कहां से आता
है?
जब कोई
धन इकट्ठा
करता है तो
दूसरी तरफ
दरिद्रता
पैदा होती है।
जब एक तरफ धन
के ढेर लगने
लगते हैं तो
दूसरी तरफ धन
का अभाव पड़
जाता है। जिसके
पास ढेर बहुत
बढ़ जाते हैं
वह उनके दान
भी करने लगता
है। लेकिन उस
चित्त में
दरिद्र के
प्रति प्रेम
नहीं है। और
यह दान जो वह
कर रहा है
इसमें भी और
नये इनवेस्टमेंट
हैं, मोक्ष तक
के इनवेस्टमेंट
हैं। वह दान
इसलिए कर रहा
है, यहां
उसने इकट्ठा
किया, यहां
उसने सुख
भोगा--जिसको
उसने सुख समझा,
वह सुख हो
या न हो--यहां
उसने बहुत धन
इकट्ठा किया,
बड़े मकान
बनाए, अब
वह इस बात के
लिए भी चिंतित
है कि स्वर्ग
में उसकी
हवेली छोटी न
हो, वहां
भी बड़ी होनी
चाहिए। वहां
भी पुण्य का
खाता वह खोल
लेना चाहता है,
वहां भी
जाकर वह
दावेदार होगा,
वहां भी
जाकर वह अपना
इंतजाम कर
लेना चाहता है,
इसलिए सारी
व्यवस्था कर
रहा है।
दरिद्र से उसे
प्रेम नहीं
है। अपने अमीर
होने से
पश्चात्ताप
नहीं है। धन
के प्रति उसका
मोह कम नहीं
हुआ है, लोभ
उसका कम नहीं
हुआ है, बल्कि
और बढ़ गया है।
इस संसार को
छोड़ कर परलोक तक
उसके लोभ की
व्यापकता हो
गई है, वह
दूर तक सोचने
लगा है। यहां
उसका बैंक है,
यहां उसका एकाउंट
है। वहां
परमात्मा के
जगत में भी
अगर कोई एकाउंट
हो सकता है, उसकी भी
व्यवस्था है,
वह कर रहा
है। वह वहां
दर्ज करवा रहा
है कि स्मरण
रहे, मैं
यहां भी
दरिद्र नहीं
था, मैं
वहां भी
दरिद्र नहीं
रहना चाहता
हूं। और तब
उससे दान निकल
रहा है। तब वह
बांट रहा है गरीबों
को।
यह सब
झूठा होगा, यह मिथ्या
होगा। यह शुभ
नहीं है। यह
महत्वपूर्ण
नहीं है कि आप
क्या करते हैं,
महत्वपूर्ण
यह है कि आप
क्या हैं!
आपका होना महत्वपूर्ण
है, आपकी बीइंग।
आपका एक्शन
और आपकी डूइंग
नहीं। आप क्या
करते हैं, यह
महत्वपूर्ण
नहीं है। आप
क्या हैं? क्योंकि
उसी होने से
तो आपका कृत्य
निकलेगा,
उसी होने से
आपका कर्म निकलेगा।
कर्म
हो सकता है
अच्छा दिखाई
पड़े। और अच्छा
क्यों दिखाई
पड़ता है? समाज
को जिसमें
सुविधा होती
है वह अच्छा
दिखाई पड़ने
लगता है कर्म,
जिसमें
समाज को
असुविधा होती
है वह बुरा
दिखाई पड़ने
लगता है।
लेकिन धर्म के
और आत्मा के
जगत में वैल्यूज
अलग हैं, मूल्य
अलग हैं। समाज
मूल्य नहीं
है। कौन सी स्थिति
मुझे अधिक
जागरण, अधिक
आनंद, अधिक
सत्य के करीब
ले जाती है, वह शुभ है।
कौन सी स्थिति
मेरे भीतर दुख
को लाती है, चिंता को
लाती है, अंधेरे
को लाती है, अज्ञान को
बढ़ाती है, वह
अशुभ है।
सवाल
बिलकुल भीतर
है। और इस
भीतर को हम
आचरण से नहीं
तौल सकते हैं।
क्योंकि भीतर
दूसरा आदमी हो
सकता है, आचरण
में दूसरा
आदमी हो सकता
है। भीतर बहुत
क्रोधी आदमी
हो सकता है, ऊपर क्षमा
की बातें कर
सकता है। और
अक्सर ऐसा होता
है, जो
भीतर बहुत
क्रोधी होता
है वह बाहर
क्षमा को ओढ़
लेता है। जो
बहुत कुरूप
अपने को अनुभव
करता है वह
सुंदर वस्त्र
पहनता है ताकि
कुरूपता छिप
जाए। जो जितना
कुरूप खयाल
करता है अपने
को उतने आभूषण
लाद लेता है
ताकि कुरूपता छिप जाए।
सौंदर्य को ओढ़ता है
ताकि कुरूपता
दिखाई न पड़े।
जहां जितना
क्रोध है वहां
उतनी क्षमा को
ओढ़ने की
चेष्टा चलती
है। जहां भीतर
जितनी हिंसा
है वहां ऊपर
अहिंसा को ओढ़ने
की तरकीबें
चलती हैं।
भीतर कुछ और
है, बाहर
कुछ और है, क्योंकि
बाहर हम वह
नहीं दिखना
चाहते हैं जो
हम भीतर हैं।
इसलिए हम अहिंसा
ओढ़ सकते
हैं, सस्ती
अहिंसा ओढ़
सकते हैं और
उसके ओढ़ने
के भीतर अपनी
हिंसा को छिपा
सकते हैं।
यह जो
स्थिति है, यह जो हमारी
स्थिति है भेद
की--भीतर हम
कुछ और हैं, बाहर हम कुछ
और हैं। इसलिए
केवल कृत्य से
नहीं सोचा जा
सकता कि क्या
हो रहा है।
कृत्य से नहीं
सोचा जा सकता।
वही आदमी चर्च
को बनाने के
लिए पैसा देता
है, वही
आदमी वार-फंड
में भी पैसा
देता है। वही
आदमी है! वही
मंदिर भी
बनाता है, वही
युद्ध के लिए
भी पैसा दान
करता है। यह
इस आदमी की
चेतना कैसी
है? क्योंकि
जिस आदमी ने
परमात्मा के
मंदिर के लिए
दान दिया, उसके
लिए युद्ध के
लिए दान देने
का अब कोई उपाय
नहीं रह गया।
लेकिन
वही आदमी दे
रहा है! उसके
पास पैसा है, वह युद्ध
में भी देता
है। वह उस चर्च
को भी देता है
जहां प्रेम की
शिक्षा दी
जाती है और वह
युद्ध को भी
देता है जहां
आदमी की हत्या
की जाती है।
वही गीता भी छपवा कर बंटवाता
है, वही
युद्ध के लिए
भी सहायता
करता है।
यह जो
आदमी है इसके
भीतर चेतना
सोई हुई है, यह जो भी कर
रहा है वह गलत
है। गलत चेतना
से ठीक कर्म
असंभव है। एक
ऐसे कुएं से
जिसमें जहर
भरा हो, ऐसा
पानी निकालना
असंभव है
जिसमें जहर
ऊपर न आ जाए।
आएगा ही! जो
भीतर है वही
बाहर आता है।
इसलिए मैंने
कहा कि अज्ञान
की स्थिति में
जो भी हम
करेंगे वह गलत
होगा, वह
शुभ नहीं हो
सकता।
तो
दूसरी बात
उन्होंने यह पूछी है कि
फिर यह ध्यान
का क्या होगा? जागरण का
क्या होगा? साधना का
क्या होगा? फिर तो यह भी
गलत हो जाएगी।
निश्चित!
अगर यह भी एक
कर्म हो, एक एक्शन हो, तो गलत हो
जाएगी। यह एक्शन
ही नहीं है, यह कर्म ही
नहीं है, इसलिए
गलत नहीं हो
सकती।
अब इस
थोड़ी सी बात
को समझना बहुत
जरूरी है।
ध्यान
कोई क्रिया
नहीं है, कोई
कर्म नहीं है।
ध्यान कोई एक्ट
नहीं है।
मैंने कहा, कोई भी कर्म
अज्ञान से निकलेगा,
गलत होगा।
ध्यान कोई
कर्म नहीं है।
जापान
में एक बहुत
बड़ा राजा हुआ।
उसने सुनी खबर
कि पास के
पहाड़ पर एक
फकीर लोगों को
ध्यान सिखाता
है। बहुत
लोगों ने खबर
दी कि बहुत
शांति मिली है, बहुत आनंद
मिला है और
प्रभु की झलक
दिखाई पड़ी है।
तो वह राजा भी
गया। दूर-दूर तक
पहाड़ में फैला
हुआ आश्रम था,
बीच में बड़ा
भवन था, जो
उस पूरे आश्रम
में सबसे ऊपर
और अलग दिखाई
पड़ता था, बाकी
तो झोपड़े थे।
तो वह फकीर झोपड़ों
का तो बताने
लगा कि वे
यहां स्नान
करते हैं, यहां
भोजन करते हैं,
यहां पढ़ते
हैं, यहां
वह करते हैं।
वह राजा बोला
कि मैं समझ
गया झोपड़ों
की बात, लेकिन
इस बीच के बड़े
भवन में क्या
करते हैं? लेकिन
फकीर इस बात
को पूछते ही
चुप हो जाता
था। राजा बहुत
परेशान हुआ।
वह दूसरे झोपड़ों
के बाबत फिर
बताने लगा।
आखिर विदा
होने का वक्त
आ गया, न तो
वह उस बड़े भवन
में ले गया और
न उसके संबंध
में कुछ कहा।
राजा
ने चलते हुए
कहा कि या तो
तुम पागल हो
या मैं पागल
हूं। जिस चीज
को देखने आया
था उसको तो तुमने
दिखाया भी
नहीं, उस
बड़े भवन में
मुझे ले भी
नहीं गए, उसके
संबंध में कुछ
कहते भी नहीं।
मैं दो-चार बार
पूछ भी चुका।
और तुम यह सब
फिजूल--कि
भिक्षु यहां
स्नान करते
हैं, यहां
पानी है, यहां
यह है--यह सब
तुमने मुझे
बताया, इससे
क्या प्रयोजन
है?
वह
फकीर बोला, मैं जरा
मुश्किल में
पड़ गया जब आप
पूछते थे कि भिक्षु
यहां क्या
करते हैं? तो
कठिनाई हो गई
कि बात गड़बड़
हो जाएगी।
भिक्षु वहां
कुछ करते नहीं,
वहां ध्यान
में जाते हैं।
और ध्यान कोई
करना नहीं है।
इसलिए मैं बड़ी
मुश्किल में
पड़ गया। अगर
मैं कहूं कि
ध्यान करते
हैं, तो
गलती हो जाएगी,
क्योंकि
ध्यान किया
नहीं जाता।
वह कोई
एक्ट
नहीं है आपका, आपकी कोई
क्रिया नहीं
है। बल्कि जब
आप सारी
क्रियाएं छोड़
कर मौन हो
जाते हैं, वहां
कोई क्रिया
नहीं रह जाती;
शरीर कुछ
नहीं कर रहा
है, मन भी
कुछ नहीं कर
रहा है; शरीर
भी शांत हो
गया, मन भी
शांत हो गया।
दो ही तो
क्रियाएं
होती हैं--शरीर
की या मन की।
आत्मा की कोई
क्रिया नहीं होती।
आत्मा की कोई
भी क्रिया नहीं
होती। शरीर की
क्रिया होती
है या मन की क्रिया
होती है।
ध्यान वह
स्थिति है जब
शरीर की भी
सारी
क्रियाएं
शांत हो गई
हैं, मन की
भी सारी
क्रियाएं
शांत हो गई
हैं। फिर क्या
है? वहां
कोई एक्शन
नहीं है, वहां
सिर्फ बीइंग
है। वहां कोई
कर्म नहीं है,
मात्र
आत्मा है।
वहां मात्र
होना मात्र
है। वहां कुछ
किया नहीं जा
रहा है, हम
सिर्फ हैं।
इस
फर्क को समझ
लेंगे तो आपको
खयाल में आ
जाएगा कि
अकेला ध्यान
ऐसी स्थिति और
अवस्था है जिसको
अज्ञानी भी कर
सकता है। भाषा
की भूल है। अज्ञानी
भी कर सकता है
और कुछ बुरा
नहीं होगा। बल्कि
इसके ही
द्वारा उसका
अज्ञान टूटेगा
और नष्ट होगा।
मैं एक
शिविर में था।
वहां एक
अत्यंत वृद्ध
महिला, कोई
अस्सी वर्ष की
बूढ़ी
महिला भी उस
शिविर में आईं।
वे बड़ी सीधी
महिला हैं, अत्यंत गांव
की हैं, बिलकुल
बे-पढ़ी-लिखी हैं।
बहुत लोग उनको
आदर करते हैं।
कारण खोजना
कठिन है आदर
का। क्योंकि न
वे कुछ बोलती
हैं, न कोई
खास बात है, गांव की
बिलकुल
सामान्य
महिला हैं।
फिर भी उनके
घर को लोग
तीर्थ मानते
हैं और आसपास
उनके घर के
चक्कर लगा
जाते हैं।
वे भी
आ गईं।
किसी उनके
भक्त ने कहा
कि वहां चलिए, तो उन्होंने
कहा, ठीक
है, तो वे
भी आ गईं।
उनके पास
गुजरात के एक
बहुत
प्रतिष्ठित
वकील कोई बीसत्तीस
वर्षों से सब
कुछ छोड़ कर
उनके पास ही
रहते हैं, उनके
पैर दाबते
रहते हैं, उनके
कपड़े धोते
रहते हैं। वे
उनके साथ आए
हुए थे।
सुबह
की चर्चा में
मैंने ध्यान
के लिए समझाया।
रात को हम
ध्यान के लिए
बैठे तो वे
वकील मेरे पास
आए और
उन्होंने कहा
उन महिला के
बाबत कि वे तो
नहीं आती हैं।
मैंने बहुत कहा
कि ध्यान करने
चलो, तो
वे हंसती
हैं और कहती
हैं, तुम
जाओ। मैं नहीं
समझा, उन्होंने
कहा। वकील ने
मुझसे कहा कि
मैं नहीं समझ
पाया वे क्यों
नहीं आती हैं?
मैंने
कहा, कल सुबह
मेरे सामने ही
उनसे पूछना।
कल
सुबह उन वकील
ने खड़े होकर
उनसे पूछा कि
मैं यह निवेदन
करता हूं कि
यह बताइए आप
कल आईं
क्यों नहीं? जब मैंने
आपसे बार-बार
कहा कि ध्यान
करने चलिए
तो आप नहीं आईं।
तो वे हंसने लगीं
और मुझसे बोलीं, आपने इतना
समझाया सुबह
कि ध्यान किया
नहीं जाता।
मगर ये फिर भी
मुझसे कहने
लगे कि ध्यान
करने चलिए,
ध्यान करने चलिए। तो
मुझे हंसी आने
लगी कि ये कुछ
समझे नहीं तो ध्यान
क्या करेंगे?
तो मैंने
इनसे कहा, तुम
जाओ। और जब ये
चले आए तो मैं
ध्यान में चली
गई। उन्होंने
मुझसे कहा, जब ये चले आए
और कमरा सन्नाटा
हो गया, तो
मैं ध्यान में
चली गई। ये
यहां ध्यान
करते रहे और
वहां मैं
ध्यान में चली
गई।
ध्यान
करना नहीं है, क्योंकि
करने में एक एफर्ट है, कोशिश है, काम है।
ध्यान कोई काम
नहीं है, ध्यान
एक अवस्था है।
ध्यान ऐसी
अवस्था है जहां
कोई क्रिया
नहीं हो रही
है।
तो
इसलिए अज्ञान
की स्थिति में
एकमात्र
द्वार है जहां
से ज्ञान तक
पहुंचा जा
सकता है। वह
ध्यान है।
बाकी तो फिर
सब क्रियाएं
हैं। कोई प्रार्थना
करता है तो
क्रिया हो
जाती है।
लेकिन अगर वह
प्रार्थना न
करे और
प्रार्थना
में हो जाए, तो फिर वह
अक्रिया हो
जाएगी, फिर
वह ध्यान हो
जाएगा। जब मैं
आपसे कहता हूं
मैं आपको
प्रेम करता
हूं, तो
कोई क्रिया
करता हूं क्या?
नहीं, प्रेम
कोई क्रिया
नहीं है। मैं
प्रेम में होता
हूं। यह बात
गलत है जब मैं
कहता हूं कि
मैं प्रेम
करता हूं।
कहना चाहिए कि
मैं प्रेम में
हूं। प्रेम
करना जैसी कोई
चीज नहीं है, प्रेम में
होना जैसी चीज
है। ऐसे ही
ध्यान में
होना जैसी चीज
है। उस पर हम
और विचार
करेंगे कि
ध्यान में
होना और ध्यान
करना, इन
दोनों में
बुनियादी
फर्क है। अगर
ध्यान करते
हैं, तो आप
निश्चित मानिए,
ध्यान भी एक
गलत कृत्य
होगा। और तब
इस ध्यान के
करने का यही
परिणाम होगा
कि आपके भीतर
अहंकार मजबूत
होगा कि मैं
ध्यान करने
वाला हूं, मैं
धार्मिक हूं,
मैं ज्ञानी
हूं! और
दूसरों को आप
हीन समझना शुरू
कर देंगे जो
ध्यान नहीं
करते हैं।
मोहम्मद
ने एक दिन
अपने एक
रिश्तेदार के
लड़के को कहा कि
कल सुबह तू भी
मस्जिद चलना।
उस युवा को
सुबह-सुबह
पांच बजे उठा
लिया और लेकर चले।
वह पहले दिन
पहली बार गया।
जब मस्जिद से लौटते
थे तो कुछ लोग
बाहर सोए हुए
थे। तो उस युवा
ने मोहम्मद
से कहा कि ये
अधार्मिक, ये पापी देखो
अभी तक सो रहे
हैं!
मोहम्मद
ने वहीं खड़े
होकर ऊपर हाथ
उठाए और कहा, हे परमात्मा,
मुझसे भूल
हो गई। यह घर
ही सोया रहता
तो बेहतर था, कम से कम यह
दूसरों को
अधार्मिक और
पापी तो नहीं
समझता था। यह
आज एक दिन
मस्जिद क्या
हो आया है, इसने
और एक अहंकार
के लिए नया
बिंदु खोज
लिया कि दूसरे
जो सो रहे हैं
वे पापी हैं
और अधार्मिक
हैं।
यह
प्रार्थना एक्ट हो गई, क्रिया हो
गई अज्ञान से निकली
हुई। अगर यह
मस्जिद में
जाकर
प्रार्थना
में चला गया
होता तो लौटते
में यह खयाल
असंभव था कि ये
अधार्मिक हैं
और पापी हैं।
यह असंभव था।
क्योंकि
अहंकार का
पोषण संभव
नहीं था।
प्रार्थना
में और ध्यान
में अहंकार तो
विलीन हो जाता
है, शून्य
हो जाता है।
वह बिंदु नहीं
रह जाता सोचने
का और विचार
करने का। उसके
आधार पर फिर
चिंतन नहीं
होता। फिर इसे
कुछ और स्थिति
होती। इसे
शायद उन पर
दया आती, शायद
उन पर प्रेम
आता, शायद
यह उनकी सेवा
में लग जाता, शायद यह
उनकी फिक्र
करने लगता कि
किस दिन ये भी
प्रार्थना के
आनंद को
उपलब्ध हो
जाएं। लेकिन
अभी यह नहीं
हुआ। अभी यह
हुआ कि उसे
लगा कि ये
दुष्ट, ये
सब पापी! उसने
एक मजा ले
लिया।
दूसरे
को नीचा
दिखाने के
बहुत उपाय
हैं। एक आदमी
साधु बन कर
बैठ जाता है, सारी दुनिया
को असाधु मान
लेता है। मजा
आ गया। एक आदमी
संन्यासी
होकर बैठ जाता
है, बाकी
सबको भोगी मान
लेता है। आनंद
आ गया, बहुत
गहरा आनंद आ
गया। सबको
नीचा दिखाने
का दुनिया में
बड़ा रस है।
तो अगर
ध्यान क्रिया
है तो आपको यह
रस आ जाएगा लौट
कर कि मैं एक
ध्यान के
शिविर से लौट
रहा हूं, साधारण
आदमी नहीं हूं,
ध्यानी हूं।
तो जो नहीं आए
हैं उनको नीचा
दिखाने की आपको
एक सुविधा हो
गई। यह वही
रास्ता है! एक
आदमी छोटी
कुर्सी पर
बैठता है, दूसरा
बड़ी कुर्सी पर
बैठ जाता है, वह बड़ा हो
जाता है। एक
आदमी के पास
दस रुपये हैं,
एक के पास
दस हजार हैं, वह बड़ा हो
जाता है। एक
आदमी बेचारा
मंदिर नहीं
जाता है, दूसरा
जाता है, वह
बड़ा हो जाता
है। एक आदमी
रोज गीता उठा
कर पढ़ता है, वह बड़ा हो
जाता है।
ये सब
अहंकार की
खोजें हैं।
अहंकार के
रास्ते बहुत
सूक्ष्म हैं।
अहंकार वहीं
टूटता है जहां
क्रिया न हो।
जहां क्रिया
है वहां तो
अहंकार मजबूत
होगा।
सिर्फ
ध्यान एक ऐसी
स्थिति है
जीवन में जो
क्रिया नहीं
है और इसलिए
उसमें प्रवेश
हो सकता है।
और वह प्रवेश
अशुभ नहीं
होगा। और उसी
सूत्र के द्वारा
अज्ञान से
ज्ञान में
संक्रमण होता
है।
फिर
ज्ञान में
पहुंच कर भी
क्रियाएं
होंगी। लेकिन
वे क्रियाएं
अहंकार को
मजबूत नहीं करेंगी, क्योंकि
ध्यान से
गुजरने में
अहंकार तो
विलीन हो
जाएगा। तब भी
क्रियाएं
होंगी।
महावीर को ज्ञान
उपलब्ध हुआ हो,
बुद्ध को
उपलब्ध हुआ हो,
क्राइस्ट
को, फिर
जीवन भर
क्रिया तो
करते रहे, फिर
जीवन भर दौड़ते
तो रहे एक
गांव से दूसरे
गांव, लोगों
को समझाते तो
रहे, बोलते
तो रहे, यह
सब क्रिया तो
हुई। लेकिन
फिर इससे
अहंकार कोई
पुष्ट नहीं
हुआ, वह तो
जा चुका था।
जब तक
अहंकार है, अज्ञान है, तब तक
क्रिया
वासना-प्रेरित
होती है। और
जब अहंकार
विलीन हो जाता
है तो क्रिया
करुणा से स्फुरित
होती है।
वासना आगे
होती है जिसको
पाने के लिए
क्रिया होती
है, करुणा
पहले होती है
जिससे क्रिया
का स्पंदन होता
है, जिससे
क्रिया
निकलती है।
दो तरह
की क्रियाएं
हैं जगत
में--वासना के
लिए प्रेरित
और करुणा से
स्फूर्त।
करुणा से स्फूर्त
क्रिया शुभ है, वासना से
प्रेरित
क्रिया अशुभ
है। लेकिन हमारी
तो सारी क्रियाएं,
चूंकि हम
अज्ञान में
हैं, वासना
से प्रेरित
होंगी। हम पूछेंगे
कि किसलिए?
इसमें
एक प्रश्न
पूछा है:
ध्यान किसलिए
करें? सत्य
की खोज किसलिए
करें? आत्मा
की खोज किसलिए
करें?
ठीक
पूछा है।
क्योंकि हम तो
हर बात के लिए पूछेंगे
कि किसलिए? कोई कारण हो
पाने के लिए
तो ठीक है, कुछ
दिखाई पड़े कि
धन मिलेगा,
यश मिलेगा,
गौरव मिलेगा,
कुछ मिलेगा,
तो फिर हम
कुछ कोशिश
करें।
क्योंकि जीवन
में हम कोई भी
काम तभी करते
हैं जब कुछ
मिलने को हो। ऐसा
कोई काम करने
के लिए कोई
राजी नहीं
होगा जिसमें
कहा जाए कि
कुछ मिलेगा
नहीं और करो। वह
कहेगा, फिर मैं
पागल हूं क्या?
कि जब कुछ मिलेगा
नहीं और मैं
करूं।
लेकिन
मैं आपसे
निवेदन करता
हूं, जीवन में
वे ही क्षण
महत्वपूर्ण
हैं जब आप कुछ
ऐसा करते हैं
जिसमें कुछ भी
मिलता नहीं।
यह मैं फिर से दोहराऊं, जीवन में वे
ही क्षण
महत्वपूर्ण
हैं जब आप कुछ
ऐसा करते हैं
जिसमें कुछ
मिलता नहीं।
जब कुछ मिलने
के लिए आप
करते हैं तब
बहुत क्षुद्र
हाथ में आता
है। विराट को
पाने के लिए
कुछ पाने की
आकांक्षा
नहीं होनी
चाहिए। हो तो
फिर बाधा हो
जाएगी।
ध्यान
किसलिए करते
हैं? अगर कोई
आपसे पूछे, प्रेम
किसलिए करते
हैं? तो
क्या कहेंगे?
कहेंगे,
प्रेम
स्वयं अपने आप
आनंद है। वह
किसी के लिए नहीं,
कोई परपज
नहीं है और
आगे। प्रेम
अपने में ही
आनंद है। उसके
बाहर और कोई
कारण नहीं
जिसके लिए
प्रेम करते
हों। और अगर
कोई किसी कारण
से प्रेम करता
हो तो हम फौरन
समझ जाएंगे कि
गड़बड़ है, यह
प्रेम सच्चा
नहीं है।
मैं
आपको इसलिए
प्रेम करता
हूं कि आपके
पास पैसा है, वह मिल
जाएगा। तो फिर
प्रेम झूठा हो
गया। मैं इसलिए
प्रेम करता
हूं कि मैं
परेशानी में
हूं, अकेला
हूं, आप
साथी हो
जाएंगे। वह
प्रेम झूठा हो
गया। वह प्रेम
न रहा। जहां
कोई कारण है
वहां प्रेम न
रहा, जहां
कुछ पाने की
इच्छा है वहां
प्रेम न रहा।
प्रेम तो अपने
आप में पूरा
है।
ठीक
वैसे ही, ध्यान
के आगे कुछ
पाने को जब हम
पूछते
हैं--क्या मिलेगा?
वह हमारा
लोभ पूछ रहा
है। मोक्ष मिलेगा
कि नहीं? आत्मा
मिलेगी
कि नहीं? वह
पूछ रहा है
हमारा लोभ।
वही जो हमारी
हमेशा लाभ, लोभ की जो
चिंतना है, वह काम कर
रही है।
नहीं, मैं आपसे
कहता हूं, कुछ
भी नहीं मिलेगा।
और जहां कुछ
भी नहीं मिलता
वहीं वह मिल
जाता है, सब
कुछ जिसे हम
कहें। जिसे
हमने कभी खोया
नहीं, जिसे
हम कभी खो
नहीं सकते, जो हमारे
भीतर मौजूद
है। अगर उसको
पाना हो जो हमारे
भीतर मौजूद है
तो कुछ और
पाने की
चेष्टा सार्थक
नहीं हो सकती
है। सब पाने
की चेष्टा छोड़
कर जब हम मौन, चुप रह
जाएंगे, तो
उसके दर्शन
होंगे जो
हमारे भीतर
निरंतर मौजूद
है। कुछ वहां
मौजूद है, उसे
पाने के लिए
अक्रिया में
हो जाना जरूरी
है, सारी
क्रियाएं छोड़
कर अक्रिया
में हो जाना
जरूरी है।
अगर
मुझे आपके पास
आना हो तो दौड़ना
पड़ेगा, चलना पड़ेगा।
और अगर मुझे
मेरे ही पास
आना हो तो फिर
कैसे दौडूंगा
और कैसे चलूंगा?
और अगर कोई
आदमी कहे कि
मैं अपने को
ही पाने के लिए
दौड़ रहा हूं, तो हम उससे कहेंगे, तुम पागल हो,
दौड़ने में तुम समय
खराब कर रहे
हो। दौड़ने
से क्या होगा?
दौड़ते हैं दूसरे
तक पहुंचने के
लिए, अपने
तक पहुंचने के
लिए कोई दौड़ना
नहीं होता।
फिर? अपने
तक पहुंचने के
लिए सब दौड़
छोड़ देनी होती
है।
क्रिया
होती है कुछ
पाने के लिए, लेकिन जिसे
स्वयं को पाना
है उसके लिए
कोई क्रिया
नहीं होती, सारी क्रिया
छोड़ देनी होती
है। जो क्रिया
छोड़ कर, दौड़
छोड़ कर रुक
जाता, ठहर
जाता, वह
स्वयं को
उपलब्ध हो
जाता है। और
यह स्वयं को
उपलब्ध कर
लेना सब
उपलब्ध कर
लेना है। और
जो इसे खो
देता है वह सब
पा ले तो भी
उसके पाने का
कोई मूल्य
नहीं। एक दिन
वह पाएगा वह खाली
हाथ था और
खाली हाथ है।
अज्ञान
की स्थिति में
सिवाय ध्यान
के कोई और मार्ग
नहीं है, और
ध्यान अज्ञान
का कृत्य नहीं
है।
उन्होंने
यह भी पूछा है
कि यदि ध्यान
मात्र जागरण
है, तो किसके
प्रति जागरण?
स्वभावतः
हम जीवन में
तो हमेशा ऑब्जेक्टिव
कांशसनेस
को जानते हैं।
किसी के प्रति
जागरण को
जानते हैं। दरख्त को
देखते हैं, आदमी को
देखते हैं, मकान को
देखते हैं, चांदत्तारों को देखते
हैं। तो कुछ न
कुछ हमारी
चेतना में ऑब्जेक्ट
होता है, कोई
विषय होता है,
कोई वस्तु
होती है।
स्वभावतः
पूछा है कि
ध्यान किसका?
जागरण
किसके प्रति?
एक बात
समझ लें: जब तक
किसी के प्रति
आप जागे हैं, तब तक आप
संसार में हैं;
जब तक कोई ऑब्जेक्ट
मौजूद है
चेतना में, तब तक आप
अपने से बाहर
हैं। जिस क्षण
चेतना अकेली
रह गई और वहां
कोई ऑब्जेक्ट,
कोई विषय, कोई वस्तु न
रही, कोई
नाम, कोई
शब्द, कोई
रूप न रहा, कोई
भी न रहा, चेतना
अकेली रह गई, कंटेंटलेस,
विषय-वस्तु
से रहित और
शून्य, अकेली,
उस क्षण--उस
क्षण आप अपने
में हैं।
निश्चित
ही, अगर हम एक
दीया जलाएं
तो उस दीये के
प्रकाश में
आसपास के दरख्त
दिखाई पड़ेंगे।
लेकिन क्या दरख्तों
के दिखाई पड़ने
के अतिरिक्त
दीये का अपना
होना नहीं है?
अगर दीये का
अपना होना न
हो तो दरख्त
भी कैसे
प्रकाशित
होंगे? प्रकाश
अलग है उन दरख्तों
से जो
प्रकाशित हो
रहे हैं।
मैं
आपको देख रहा
हूं, आपसे अलग
हूं, मेरे
भीतर अपनी
चेतना है। अगर
इस चेतना के
शुद्ध स्वरूप
को मुझे अनुभव
करना है, तो
मुझे अपनी चेतना
को सारे
विषयों से अलग,
शांत और
निस्पंद कर
लेना होगा। उस
घड़ी मैं
स्वयं को जानूंगा।
जब तक कोई और
मौजूद है तब
तक मैं उसे जानूंगा।
विज्ञान
किसी और को
जानता है, धर्म स्वयं
को। विज्ञान ऑब्जेक्टिव
खोज है--वस्तु
की, पदार्थ
की, पर की, पराए की, बाहर
की। धर्म उसकी
खोज है जो स्व
है, स्वयं
है, भीतर
है, वह जो सब्जेक्टिविटी
है, वह जो
आत्मिकता है,
वह जो
आंतरिकता है।
और दो ही दिशाएं
हैं मनुष्य के
सामने। भूगोल
तो कहती है दस दिशाएं
हैं, लेकिन
मनुष्य के
सामने
वस्तुतः दो दिशाएं
हैं। दस
दिशाओं की बात
तो झूठी है।
एक दिशा है
बाहर की तरफ, एक दिशा है
भीतर की तरफ।
और कोई दिशा
नहीं है। एक
खोज है बाहर
की दुनिया में,
एक खोज है
भीतर की
दुनिया में।
बाहर
की दुनिया में
हम सारे लोग
खोजते हैं और जीवन
उलझता से
उलझता चला
जाता है। हम
तो समाप्त हो
जाते हैं, खोज वहीं की
वहीं रह जाती
है। क्योंकि
एक बुनियादी
बात हम भूल गए
कि जिस आदमी ने
स्वयं को नहीं
खोजा है उसकी
कोई भी खोज
सार्थक नहीं
हो सकती।
क्योंकि
जिसको स्वयं
का ही कोई बोध
नहीं है उसे
और ज्ञान कैसे
हो सकता है? जो अपने
भीतर अंधेरे
से भरा है, सारे
जगत में भी
रोशनी हो, उससे
कोई फर्क नहीं
पड़ेगा, वह जहां
जाएगा अपने
अंधेरे को साथ
ले जाएगा। अंधेरा
उसके भीतर है,
तो वह जहां
भी जाएगा, अंधेरा
उसके रास्तों
को घेर लेगा।
इसीलिए
तो विज्ञान
इतनी खोज करता
है, लेकिन
परिणाम अच्छे
नहीं आते हैं।
क्योंकि आदमी
के भीतर
अंधकार है और
बाहर विज्ञान
बड़ी ताकतें
इकट्ठी कर
लेता है, वे
अज्ञानी आदमी
के हाथ में पड़
जाती हैं।
उनसे फल शुभ
नहीं आता, अशुभ
आता है। आदमी
को मारने के
उपाय निकलते
हैं उनसे, हत्या
करने के, हिंसा
करने के तीव्र
उपाय निकलते
हैं। निकलेंगे
ही। बाहर की
कोई खोज
सार्थक नहीं
है जब तक भीतर
आलोकित न हो।
यह जो
ध्यान है यह
भीतर की तरफ
गमन है।
क्रमशः उस
स्थिति में
पहुंच जाना है
जहां मैं जान
सकूं कि मेरे
केंद्र पर, मेरे
व्यक्तित्व
के बीच मध्य
में कौन चेतना
बैठी है, क्या है वह? उसका मेरे
सामने पूरा उदघाटन हो
जाए।
निश्चित
ही, वहां तक
जाने के लिए
सब छोड़ देना
होगा। सब छोड़
देने से मेरा
मतलब कोई
घर-द्वार छोड़
कर भाग जाने
से नहीं है।
सब छोड़ने से
मेरा मतलब कोई
मित्र, परिजन,
प्रियजन
छोड़ कर भाग
जाने से नहीं
है। सब छोड़ने
से मेरा मतलब
है: चेतना को
धीरे-धीरे ऑब्जेक्टलेस,
वस्तु से
रहित, विचार
से शून्य और
रिक्त करने से
है।
भीतर
एक भीड़ घिरी
है। चौबीस
घंटे चेतना
किसी न किसी
चीज पर अटकी
हुई है। उस
अटकाव की वजह
से वह स्वयं
को नहीं जान
पाती। अगर कोई
अटकाव न रह
जाए तो फिर
क्या होगा? तब एक ही
रास्ता रह
जाएगा कि
चेतना स्वयं
को जाने।
चेतना जब तक
पर को जानती
है तब तक
स्वयं को
जानने से
वंचित हो जाती
है। जब वह सब
पर से खाली हो
जाती है, फिर
क्या होगा?
फिर तो
एक क्रांति हो
जाएगी भीतर, फिर तो एक
अभूतपूर्व
घटना घट
जाएगी। तब यह
होगा कि चेतना
स्वयं को जानेगी।
जानना उसका
धर्म है, ज्ञान
उसका स्वभाव
है। जब तक वह
बाहर जानती रहती
है, तो
भीतर नहीं जान
पाती। जब बाहर
के जानने से
वह थोड़ा विराम
लेती है, उपराम
होती है, तो
स्वयं को जान
पाती है।
आत्म-ज्ञान
का अर्थ किसी
चीज पर ध्यान
करना नहीं है, वरन ध्यान
से सब चीजों
को विदा कर
देना है। जब चेतना
की धारा शुद्ध
रह जाती है और
उसमें कोई नहीं
रह जाता मौजूद,
तब चेतना स्वयं
को जानती है, स्वयं से
परिचित होती
है, स्वयं
में
प्रतिष्ठित
होती है।
मैं
समझता हूं
मेरी बात खयाल
में आई होगी।
(प्रश्न
का
ध्वनि-मुद्रण
स्पष्ट नहीं।)
वह
ध्यान का अंतर्गमन
है। यह जो
चेतना का भीतर
की तरफ लौटना
है, यह जो
चेतना का अंतर्गामी
पथ है, यही
जीवन की वृत्तियों
के ट्रांसफार्मेशन
का, उनके
परिवर्तन का
माध्यम है, उपाय है, द्वार
है।
कल
मैंने आपसे
कहा था--कैसे
चित्त की जो वृत्तियां
हैं वे
परिवर्तित
हों? क्रोध
कैसे क्षमा बन
जाए? घृणा
कैसे प्रेम बन
जाए? हिंसा
कैसे करुणा बन
जाए? कैसे
यह हो?
दो
रास्ते हैं।
एक रास्ता तो
यह है कि भीतर
तो क्रोध रहे, ऊपर से हम
क्षमा को ओढ़
लें। यह एकदम
सरल और आसान
रास्ता है।
भीतर घृणा रहे,
ऊपर से हम
प्रेम को ओढ़
लें।
वस्त्रों की
भांति हम इनको
ओढ़ लें।
भीतर तो
कठोरता रहे, ऊपर से हम
करुणा ओढ़
लें। यह कठिन
नहीं है।
ठीक-ठीक
अनुशासन दिया
जाए जीवन को, नैतिक
शिक्षा दी जाए,
संस्कार
दिए जाएं, भय
दिए जाएं, प्रलोभन
दिए जाएं, हो
जाता है; इज्जत
दी जाए, आदर
दिया जाए, हो
जाता है। ऊपर
से चीजें ओढ़ लेना
कठिन नहीं है।
लेकिन
जो आदमी ऊपर
से ओढ़ने
में लग जाता
है उसका जीवन
नष्ट हो जाता
है। क्योंकि
भीतर वह वही
का वही रहता
है। ऊपर सारा
ढोंग हो जाता
है, भीतर वही
का वही होता
है। वह जीता
नहीं, वह
करीब-करीब एक्टिंग
में होता है, अभिनय में
होता है।
सारा
अभिनय है उसका
ऊपर। इसे कोई
भी सोचेगा
तो दिखाई पड़ेगा, कोई भी भीतर
थोड़ी खोज
करेगा तो समझ
में आएगा कि
सब धोखा है, वंचना है, डिसेप्शन है। यह मैं
क्या?...जिनके
प्रति आपका
कोई आदर नहीं
होता, उनके
सामने हाथ जोड़
कर खड़े हुए
हैं। आदर को ओढ़ा हुआ
है। जिनके
प्रति आपको
कोई प्रेम
नहीं, उनके
साथ प्रेम की
गहरी से गहरी
बातें कर रहे हैं।
सब झूठा है।
और अगर इस तरह ओढ़ते चले
गए, ओढ़ते चले गए, तो
पर्तों
में खो जाइएगा,
आपको पता ही
नहीं रहेगा कि
आपकी
वास्तविकता क्या
थी?
लेकिन
अब तक तो
सभ्यता ने यही
सिखाया
है कि
अच्छे-अच्छे
वस्त्र ओढ़
लो। भीतर कुछ
भी हो उसकी
फिक्र छोड़ो, बाहर से
अच्छे आदमी बन
जाओ। आचरण
अच्छा हो, आत्मा
से हमें क्या
लेना-देना है!
इस आचरण ने
पाखंड पैदा
किया है, सारी
दुनिया में
पाखंडी
व्यक्तित्व
पैदा हो गए
हैं। भीतर कुछ
और है, बाहर
कुछ और। और तब
फिर दुख होगा,
क्योंकि
खुद के भीतर
ही लड़ाई
शुरू हो गई, हमारे भीतर
ही संघर्ष
शुरू हो गया।
हमारा बाहर का
ही
व्यक्तित्व
भीतर की आत्मा
से चौबीस घंटे
लड़ेगा, चौबीस घंटे लड़ेगा। लड़ाई
स्वाभाविक
है।
यह दमन
हुआ, जिसकी
मैंने कल आपसे
रात बात की, यह सप्रेशन
हुआ, भीतर
वेग दबा लिए
गए। यह ट्रांसफार्मेशन
नहीं है, यह
परिवर्तन
नहीं है, यह
जीवन का
ऊर्ध्वगमन
नहीं है। यह
तो जीवन का एक कांफ्लिक्ट
में पड़ जाना
है, एक द्वंद्व
में पड़ जाना
है। इसका एक
ही परिणाम हो
सकता है कि
आदमी टूटे और
नष्ट हो जाए।
और हम सब इसी
तरह टूट-टूट
कर खंडहर हो
गए हैं। लड़ते
हैं चौबीस
घंटे, खुद
के खिलाफ ही
लड़ रहे हैं।
अपने ही दोनों
हाथों को लड़ाइएगा
तो कोई जीतेगा
फिर? कोई
भी नहीं जीतेगा।
एक परिणाम होगा:
दोनों हाथों
के लड़ने में
आपकी ही ताकत
दोनों तरफ से
खर्च होगी। आप
ही टूटते चले
जाएंगे। आखिर
में आप एक
खाली खंडहर
मात्र रह
जाएंगे। बुढ़ापे
तक आदमी खंडहर
हो जाता है।
होना तो उलटा
चाहिए। होना
तो यह चाहिए
कि जीवन भीतर
गहरे से गहरा,
घने से घना
हो जाए, इंटेंस से इंटेंस
हो जाए।
क्योंकि मतलब
यह हुआ कि
इतने दिन जीए,
तो बच्चा
जितना समृद्ध
था, बूढ़ा
उससे ज्यादा
समृद्ध होना
चाहिए।
लेकिन
दिखता उलटा
है। बूढ़े से
भी पूछो
तो वह कहता है, बचपन में
दिन बड़े अच्छे
थे। इसका मतलब?
बाकी खोए
दिन! जिंदगी
गई व्यर्थ!
बचपन की इतनी
प्रशंसा उसी
दुनिया में हो
रही है जिसमें
कि बूढ़े
धीरे-धीरे
खंडहर होते
जाते हैं, तो
पीछे की याद
आती है कि
बचपन बहुत
अच्छा था। यह
क्या मूर्खता
है? अगर
बचपन अच्छा था
तो जिंदगी
उलटी चली।
मतलब हम ऊपर
नहीं चले, नीचे
गिरे। हमने
खोया, पाया
नहीं।
लेकिन
दुनिया भर में
कविताएं
हैं जो बचपन
की तारीफ करती
हैं--कि बचपन
बड़ा अदभुत था।
होना तो यह
चाहिए कि बुढ़ापा
अदभुत हो। तब
तो विकास हुआ, सम्यक विकास
हुआ, आगे
गए। अगर बचपन
अदभुत था तब
तो बड़ी मूढ़ता
हो गई, यह
तो बड़ा पागलपन
हो गया कि हम
पहली सीढ़ी
पर थे तब बहुत
अदभुत था, अब
ऊपर आ गए तो सब
खत्म हो गया।
तो यह चढ़ना
हुआ या उतरना
हुआ? बुढ़ापा चढ़ाव है
या उतार है?
आमतौर
से उतार है।
आमतौर से खोते
जाते हैं, खोते जाते
हैं। यह तो
अजीब बात हो
गई। यह तो जिंदगी
व्यर्थ हो गई।
इससे ज्यादा
और फ्यूटिलिटी
क्या हो सकती
है? और
व्यर्थता
क्या हो सकती
है? और तब
फिर बुढ़ापा
कुरूप हो जाए,
दरिद्र हो
जाए, दीन
हो जाए, हीन
हो जाए, तो
आश्चर्य क्या?
नहीं, इसके पीछे
कारण वही है
कि हम
व्यक्तित्व
में ओढ़ते
हैं। ओढ़ने
से सब झूठा
होता जाता है।
बच्चा ही
सच्चा होता है
बूढ़े की बजाय।
कुछ ओढ़ा
हुआ नहीं होता,
सीधा और साफ
होता है सब।
अभी कोई आचरण
नहीं होता है
उसके ऊपर, अभी
जो उसका
अंतःकरण होता
है वही होता
है।
यह
अंतःकरण
विकसित होना
चाहिए। बूढ़े
के पास और भी
समृद्ध
अंतःकरण होना
चाहिए, बड़ी
गहरी आत्मा
होनी चाहिए।
तो बुढ़ापे
से ज्यादा
सुंदर और कुछ
भी नहीं है
फिर। और बुढ़ापे
से ज्यादा
आनंदपूर्ण
कुछ भी नहीं
है फिर। बुढ़ापा
तो शिखर है
जीवन का। वह
तो
क्रमशः-क्रमशः,
धवल से धवल,
शुभ्र से
शुभ्र होता
जाना चाहिए।
लेकिन जीवन की
विधि ही गलत
है तो क्या
होगा? विधि
है: ओढ़ो, ऊपर से ढांको
अपने को, ऊपर
से थोपते चले
जाओ। थोपने
का परिणाम तो
बुरा होगा।
बुरा यह होगा
कि भीतर की असलियतें
भूल जाएंगी,
मिटेंगी थोड़े ही।
भीतर की जो
वास्तविकता
है वह बनी रहेगी
और हम अपने को
धोखा--अपने को
क्या धोखा, दूसरों को
धोखा देते
रहेंगे।
लेकिन
जब मौत करीब
आने लगेगी
तो वस्त्र काम
नहीं देंगे।
तब दिखाई पड़ने
लगेगा कि
यह तो मौत
करीब आ गई! और
मौत तो सब
आचरण छीन लेगी, सिर्फ आत्मा
बचेगी। मौत सब
वस्त्र छीन लेगी, मौत
सब ओढ़ा
हुआ छीन लेगी,
तब जो बच
रहेगा वह फिर
घबड़ाने लगता
है। मौत से जो
डर है वह डर
मौत का नहीं
है, वह उन
सब वस्त्रों
के छिन जाने
का है जिन्हें
हमने जीवन भर सम्हाला
और ओढ़ा।
नहीं तो जिस
आदमी ने जीवन
में समृद्धि
पाई हो आंतरिक,
मौत उसके
लिए आनंद की
एक घड़ी
है। मौत तो
उसके लिए आनंद
की घड़ी
है।
चीन
में ऐसा हुआ, च्वांगत्सु एक व्यक्ति
था, उसकी
पत्नी मर गई।
राजा उसे आदर
देता था, फकीर
था च्वांगत्सु,
तो उसके पास
गया उसको
संवेदना के दो
शब्द कहने। जब
वह पहुंचा तो
वह देख कर
हैरान हुआ। च्वांगत्सु
एक झाड़ के
नीचे बैठ कर खंजड़ी बजा
रहा था। सुबह
उसकी पत्नी
मरी थी। राजा
थोड़ा हैरान
हुआ, उसने च्वांगत्सु
से कहा कि यह
तो बर्दाश्त
के बाहर है।
तुम दुख न
मनाते इतना ही
काफी था, लेकिन
तुम खंजड़ी
बजाओ और
गीत गाओ।
दुख न मनाते
उतना ही काफी
था, लेकिन
तुम यह गीत गाओ
और खंजड़ी बजाओ, यह
तो कुछ समझ
में नहीं आता
है।
च्वांगत्सु बोला, जिसको
विदा दी है
उसने इस विदा
से कुछ पाया
है, खोया
नहीं। तो खुशी
मनाऊं कि रोऊं? और
फिर जिसके साथ
इतने दिन रहा
हूं उसे आंसुओं
के साथ विदा
करना क्या शुभ
होगा? उचित
है कि मेरे
गीत की छाया
में ही उसकी
विदा हो। उसके
आगे के
मंगल-पथ पर
यही उचित होगा
कि मेरे गीत
उसके साथ जाएं
बजाय मेरे आंसुओं
के और मेरे रोने
के। और च्वांगत्सु
ने कहा, स्मरण
रखो, जब
मैं मरूं
तो जरूर तुम
गीत गाना।
क्योंकि मैं
तो प्रतीक्षा
कर रहा हूं उस
क्षण की जब
मैं विदा
होऊंगा, कब
मेरी तैयारी
पूरी होगी और
कब मैं विदा
होऊं।
क्योंकि
स्कूल से
विदाई का वक्त
दुख का थोड़े
ही होता है।
प्रशिक्षण था,
पूरा हुआ, विदा आ गई।
जीवन
तो एक
प्रशिक्षण है, एक बहुत
गहरे अर्थों
में, बहुत
गहरी अनुभूतियों
का। जब परिपक्व
होकर कोई विदा
होता है तो
प्रसन्नता से विदा
होता है। जब
असफल होकर कोई
विदा होता है तो
दुख से विदा
होता है। वह
दुख असफलता का
है, विदाई
का नहीं है।
वह जीवन की
व्यर्थता का
है, अर्थहीनता
का है। अगर
कहीं कोई
सार्थकता पा ली
हो तो मृत्यु
तो सुख है, मृत्यु
तो आनंद है।
मृत्यु से
ज्यादा बड़ा
सखा और मित्र कौन
है? लेकिन
चूंकि सब गलत
है और सब गलत
इकट्ठा होता जाता
है जीवन भर, एक्युमुलेटेड होता चला
जाता है, तो
मौत एकदम गलत
दिखाई पड़ती
है। जीवन भर
का गलत मौत के
वक्त ही सामने
आता है।
अगर
जीवन सुंदर
रहा हो, शांत
रहा हो और
आनंद से भरा
हुआ रहा हो, तो मृत्यु
एक घनी
अनुभूति
होगी। सारे
जीवन का आनंद
मृत्यु के
समक्ष सामने आ
जाएगा। जो हम
जीवन में करते
हैं वह मृत्यु
के साथ हमारे
सामने खड़ा हो
जाता है। और
हम गलत करते
हैं। गलत यह
करते हैं कि
हम थोपते हैं
ऊपर से। थोपना
परिवर्तन
नहीं है।
फिर
क्या हो?
तो
मेरा पहला
निवेदन तो यह
है कि क्रोध
को बदलने की
चिंता न करें, घृणा को
बदलने की
चिंता न करें।
क्योंकि बदलने
की चिंता से
ही थोपने
का उपाय सामने
आ जाता है। तो
फिर करें क्या?
इतना
ही जानें कि
जीवन जब
बहिर्गामी
होता है, चेतना
जब बाहर की
तरफ बहती है, तो उसके
लक्षण
हैं--क्रोध, घृणा, हिंसा।
ये बहिर्गामी
चेतना के
अनिवार्य लक्षण
हैं। ये चेतना
के लक्षण हैं,
ये चेतना को
बाहर बहाने के
कारण नहीं हैं,
चेतना को
बाहर ले जाने
के कारण नहीं
हैं। चेतना
चूंकि बाहर है
इसलिए ये
लक्षण प्रकट
होते हैं। अगर
चेतना भीतर
लौटने लगे तो
दूसरे लक्षण
प्रकट होने शुरू
हो जाते हैं।
घृणा की जगह
प्रेम प्रकट
होने लगता है,
क्रूरता की
जगह करुणा
प्रकट होने
लगती है। वे भीतर
जाती चेतना के
लक्षण हैं।
बहिर्गामी
चेतना के
लक्षण हैं ये
सब; अंतर्गामी चेतना के
लक्षण दूसरे
हैं। वे केवल खबरें हैं
कि अब चेतना
भीतर जाने लगी
है।
इसलिए
इसकी बिलकुल
फिक्र छोड़ दें
कि क्रोध मिटे।
इससे तो केवल
इतना संकेत
लें कि मेरी
चेतना बाहर
बहती है इसलिए
क्रोध है।
इसलिए मैं
चेतना को भीतर
लाऊं।
क्रोध की
फिक्र छोड़ दें, क्रोध तो
लक्षण है।
एक
आदमी बीमार
पड़ा है, उसका
हाथ गरम है।
तो वैद्य उसका
हाथ देखता है।
अगर
नीमहकीम हो, तो वह कहेगा,
हाथ गरम है,
जरूर गर्मी
के कारण इसको
बुखार आ गया
है। तो इसको
खूब ठंडा करो,
पानी में डुबाओ, ठंडा
करो, ठंडा
करो, सब
ठीक हो जाएगा।
गर्मी के कारण
बुखार आ गया है।
नहीं, बुखार के
कारण गर्मी है,
गर्मी के
कारण बुखार
नहीं है।
गर्मी तो
सूचना है, लक्षण
है, इंडिकेशन है। गर्मी
बीमारी नहीं
है, गर्मी
तो मित्र है।
अगर बुखार
भीतर हो और
शरीर की गर्मी
न बढ़े तो आदमी
मर जाएगा।
प्रकृति फौरन
खबर देती है
कि भीतर बुखार
है, भीतर
कोई बीमारी
है। शरीर पर
ताप आ जाता है,
ताप खबर
देता है, सूचना
उसने कर दी--कि
मित्र, सम्हल जाओ! भीतर
कुछ गड़बड़ है!
शरीर को गर्म
करके प्रकृति
ने खबर भेज
दी। यह गर्मी
बीमारी नहीं
है, यह
बीमारी की खबर
है, सूचना
है। अगर इसका
ही इलाज करने
लगे तो मरीज मरेगा, बच
नहीं सकता।
इसका इलाज
नहीं करना है,
इसको तो समझ
लेना है कि
ताप बढ़ गया, खबर मिल गई
कि भीतर कोई
बीमारी है। अब
बीमारी दूसरी
बात है।
ऐसे ही
क्रोध है, काम है, लोभ
है, मोह है,
ये सूचक हैं,
ये सूचनाएं
हैं, ये
खबर देते हैं
कि चेतना
बहिर्गामी
है। इससे ज्यादा
कुछ भी इनका
अर्थ नहीं है।
चेतना बाहर की
तरफ बह रही है,
ये इसकी खबर
देते हैं।
इनसे सचेत हो
जाना चाहिए कि
मेरी चेतना
बाहर की तरफ
बह रही है।
अगर बहुत
क्रोध है, बहुत
काम है, तो
ये तो मित्र
हैं, ये तो
सूचक हैं, ये
तो खबर दे रहे
हैं, ये
शत्रु थोड़े ही
हैं।
इन्होंने तो
खबर दी है आपको,
आपके ऊपर
कृपा की है।
अगर ये खबर न
देते तो आप
डूब ही जाते, आपको पता भी
नहीं चलता कि
चेतना कहां बह
रही है।
मकान
पर हम एक पंखी
लगा देते हैं
पक्षी की। हवा
जहां होती है, पंखी वहीं मुड़ जाती
है। कोई आदमी
पंखी को कस कर
बांध दे एक ही तरफ
कि हम तो पूरब
की तरफ ही हवा
चाहते हैं, तो पंखी को पूरब
की तरफ कस कर
बांध दे। तो
इससे क्या
पूरब की तरफ
हवा हो जाएगी?
इससे पंखी
भर पूरब की
तरफ हो जाएगी,
हवा तो
पश्चिम की तरफ
बहती है तो
बहती रहेगी।
लेकिन एक खतरा
हो जाएगा, अब
यह पंखी खबर
भी नहीं दे सकेगी
कि हवा किस
तरफ बह रही
है।
तो जो
लोग क्रोध को
दबा कर बांध
देते हैं और
ऊपर से क्षमा
को ओढ़
लेते हैं उनकी
पंखी बंद हो
गई, अब वह
सूचना भी नहीं
देगी कि किस
तरफ हवा है। अब
वे मरे, अब
उपद्रव
निश्चित है
उनके जीवन
में। क्योंकि
वह तो सूचक थी,
उसका कोई
कसूर नहीं था
कि वह बताती
थी कि पश्चिम
को हवा बह रही
है। पश्चिम को
हवा बहती थी
तो पश्चिम को
बताती थी, पूरब
को बहेगी
तो पूरब को
बताने लगेगी।
उसका तो काम
था कि वह बता
दे कि हवा
कहां बह रही
है।
तब
चेतना
बहिर्गामी
होती है तो
क्रोध, काम,
मोह, लोभ
सूचनाएं
देते हैं कि सम्हल
जाएं, बाहर
की तरफ बहे
जा रहे हैं। इनको नहीं
बदलना है, चेतना
की धारा को
भीतर ले जाना
है। चेतना की
धारा जैसे-जैसे
भीतर जाएगी, आप पाएंगे
कि क्रोध
क्षीण हुआ, वैसे-वैसे
आप पाएंगे कि
काम क्षीण हुआ,
वैसे-वैसे
आप पाएंगे कि
मोह क्षीण
हुआ। क्षीण होने
लगें तो
समझना कि
हवाएं पूरब की
तरफ बहने लगीं,
पंखी घूम
रही है। जिस
दिन क्षीण हो
जाएं, समझ
लेना कि हवाएं
भीतर पहुंच गई
हैं। अब न क्रोध
उठता है, न
मोह उठता है।
लेकिन
अगर दबा लिया
तो झूठ हो
जाएगा। दबाने
से कुछ फर्क
नहीं पड़ता।
पंखी बांध
देने से हवाएं
वहां नहीं
बहने लगती
हैं। हां, हवाएं वहां
बहने लगें,
पंखी वहां
बताने लगती
है।
ट्रांसफार्मेशन, परिवर्तन
होता है, किया
नहीं जाता। आप
कर नहीं सकते
क्रोध के साथ
कुछ भी, आप
कर सकते हैं
चेतना के साथ
कुछ। और जब
चेतना परिवर्तित
होगी तो क्रोध
विलीन हो
जाएगा।
लोग
कहते हैं, महावीर ने
अहिंसा साधी।
मैं
कहता हूं, बिलकुल ही
झूठ कहते हैं।
महावीर ने आत्मा
साधी, अहिंसा
आई।
लोग
कहते हैं, अहिंसा परम
धर्म है।
बिलकुल
झूठी बात कहते
हैं। आत्मा
परम धर्म है, अहिंसा तो
लक्षण है। जो
आत्मा को साध
लेता है, अहिंसा
उसके पीछे चली
आती है। कोई
भी, कहीं
भी साध ले, अहिंसा
पीछे चली आएगी,
प्रेम पीछे
चला आएगा, करुणा
पीछे चली आएगी,
नाम कुछ भी
रख लें। ये तो खबरें हैं!
जब किसी आदमी
में अहिंसा का
प्रकाश होने लगे
तो जानना, प्रेम
किसी में
प्रकट होने
लगे तो जानना
कि हवाएं भीतर
बहने लगी हैं।
लेकिन
अगर कोई आदमी
जबरदस्ती
प्रेम प्रकट
करने लगे, तो खतरा हो
गया, उसके
भीतर असली
प्रेम के पैदा
होने की
संभावना
हमेशा के लिए
समाप्त हो गई।
इसलिए जीवन
में चरित्र को
ओढ़ने की
कोशिश मत
करना। जैसे हम
सहज हैं उसको
जानना और
पहचानना। और
उसकी पीड़ा को
अनुभव करना, उसके दुख को
अनुभव करना।
क्रोध को
बदलना मत, क्रोध
के दुख और
पीड़ा को अनुभव
करना। वह दुख
और पीड़ा कहेगी
कि चेतना बाहर
बह रही है। वह
दुख और पीड़ा
तुम्हें राजी
करेगी कि भीतर
चलो। वह
पीड़ा तुम्हें
परेशान करेगी
कि भीतर आओ।
लेकिन
हम होशियार
हैं, हम क्रोध
को दबाने
में लग जाते
हैं। और उसका
जो मौलिक काम
था वह व्यर्थ
हो जाता है।
वह जो खबर
देने की बात
थी वह खो जाती
है। और तब
जीवन
धीरे-धीरे
नीचे उतरता है,
ऊपर नहीं
जाता।
ऊर्ध्वगमन
के लिए--यह
अंतिम बात
कहता हूं, फिर कुछ और
प्रश्न हैं वे
रात
लूंगा--ऊर्ध्वगमन
के लिए अंतर्गमन
मार्ग है।
ऊर्ध्वगमन के
लिए अंतर्गमन
मार्ग है, ऊपर
जाने के लिए
भीतर जाना
मार्ग है।
नीचे जाने के
लिए बाहर जाना
मार्ग है।
नीचे अगर जा
रहे हैं तो
नीचे से सीधे
ऊपर नहीं जा
सकते हैं।
नीचे जा रहे
हैं, यह इस
बात की खबर है
कि बाहर चेतना
जा रही है। जो
चेतना बाहर
जाती है वह
नीचे की तरफ
जाती है। वह
पानी की तरह
है बाहर की
तरफ जाने वाली
चेतना, वह
नीचे उतरती
है। जो चेतना
भीतर की तरफ
जाती है वह
ऊपर की तरफ जाती
है, वह आग
की तरह है, जैसे
अग्नि की लपटें
ऊपर की तरफ उठती
हैं। इसलिए
अग्नि जो है
वह प्रतीक है
ऊर्ध्वगमन का
और जल जो है वह
प्रतीक है
अधोगमन का, नीचे जाने
का। बाहर जाने
वाली चेतना
नीचे जाती है,
भीतर जाने
वाली चेतना
ऊपर जाती है।
ऊपर जाना है
तो नीचे से
ऊपर जाने का
सीधा कोई
रास्ता नहीं
है। ऊपर जाना
है तो बाहर से
भीतर जाना
पड़ता है। इस
सूत्र पर थोड़ा
विचार करेंगे
तो खयाल में आ
सकेगा।
मेरी
बातों को इतनी
शांति से सुना, उसके लिए
बहुत-बहुत
धन्यवाद।
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