रहिमन धागा प्रेम का-(प्रश्नोत्तर)-ओशो
रसो वै सः—तीसरा प्रवचन
प्रश्नसार:
1—ईश्वर को खोजना है। कहां खोजें?
2—आप कहते हैं, संन्यासी को सृजनात्मक होना चाहिए। सो मैंने काव्य-सृजन शुरू कर दिया है।
मगर कोई मेरी कविताएं सुनने को राजी नहीं है। आपका आशीष चाहिए।
3—आपकी "नारी के समान अधिकार' की बातें बहुत अच्छी लगीं। इसके अतिरिक्त जो आप इच्छाओं को न दबाने और
उनसे न लड़ने की बात कहते हैं, वह भी हृदय को स्पर्श करती है।
किन्तु इसके साथ-साथ जब आद्य शंकराचार्य, पतंजलि और तुलसी
वगैरह की बातें याद आ जाती हैं तो द्वंद्व खड़ा होता है। शंकराचार्य ने नारी की
निंदा किस दृशिट से की है? अद्वय ब्रह्म का अनुभवी क्या ऐसी
निंदा कर सकता है? क्या वे भी केवल एक विद्वान मात्र थे,
अनुभवी नहीं? पतंजलि समाधि के लिए यम-नियम पर
विशेष जोर देते हैं, आप नहीं। इसका क्या कारण हैं?
4—जब भी मैं भारतीयों को आश्रम दिखाने ले जाता
हूं तो विदेशी स्त्रियों को देख कर, संन्यासिनियों को देख
कर वे एकदम ठगे खड़े रह जाते हैं, एकदम उनके मुंह से लार
टपकने लगती है। ऐसा क्यों?
5—क्या सच ही मारवाड़ियों को शैतान भी धोखा नहीं
दे सकता?
पहला प्रश्न: ईश्वर को खोजना है। कहां खोजूं?
विद्याधर! ईश्वर की खोज की
बात ही गलत है। स्वयं को खोजो, ईश्वर मिलेगा। स्वयं को खोजो,
ईश्वर तुम्हें खोजेगा। स्वयं को न खोजा, लाख
सिर पटको ईश्वर की तलाश में--और कुछ भी मिल जाए, ईश्वर मिलने
वाला नहीं है। जो स्वयं को ही नहीं जानता, वह अधिकारी नहीं
है ईश्वर को जानने का; उसकी कोई पात्रता नहीं है। पहले पात्र
बनो।
आत्म-अज्ञान सबसे बड़ी अपात्रता है। वही तो एकमात्र पाप है। और सब पाप
तो उसी महापाप की छायाएं हैं। और सारे पापों से लोग लड़ते हैं--क्रोध से लड़ेंगे, काम से लड़ेंगे, लोभ से लड़ेंगे, द्वेष से लड़ेंगे, मद-मत्सर से लड़ेंगे--और एक बात भूल
ही जाएंगे कि भीतर अंधकार है। और ये सांप-बिच्छू उस अंधकार में पलते हैं। भीतर
रोशनी चाहिए, प्रकाश चाहिए, आत्मबोध
चाहिए।
ध्यान की बात पूछो, ईश्वर की चर्चा ही मत उठाओ। बीज
बोए नहीं और फूलों की बात करने लगे! कहां से फूल आएंगे?
हां, प्लास्टिक के फूल मिल सकते हैं बाजार में। मंदिरों
में, मस्जिदों में, गुरुद्वारों में,
गिरजों में प्लास्टिक के भगवान हैं, आदमी के
गढ़े हुए भगवान हैं। वे मिल सकेंगे। और अगर तुमने ज्यादा मेहनत की, बहुत कल्पना को दौड़ाया, तो तुम्हारी कल्पना में भी
धनुर्धारी राम का दर्शन हो जाएगा। सपना है वह, इससे ज्यादा
नहीं। कि मोर-मुकुट बांधे हुए कृशण खड़े हो जाएंगे। वह भी तुम्हारी कल्पना है,
इससे ज्यादा नहीं।
जब तक तुम जागते नहीं हो भीतर, जब तक तुम भीतर सोए
हुए हो--उसी नि(ा को मैं आत्म-अज्ञान कह रहा हूं--तब तक तुम जो भी करोगे, गलत ही होगा।
विद्याधर, ईश्वर को क्यों खोजना है? ईश्वर
ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? और अगर ईश्वर तुमसे छिपना चाहता
है...जरूर छिपना चाहता होगा, नहीं तो मिल जाता, खुद ही तुम्हारे द्वार पर दस्तक देता। आखिर यह ताली दोनों तरफ से बजनी है,
यह आग दोनों तरफ लगनी है। एक हाथ से ताली नहीं बजती। अगर परमात्मा
तुम्हें नहीं खोजना चाहता है और भागा-भागा फिरता है, तो तुम
कितना ही खोजो, तुम्हारी बिसात कितनी है? तुम्हारे हाथ कितने दूर जा सकेंगे? तुम्हारी पहुंच
की सीमा है और वह असीम है। वह अपने को छिपा-छिपा लेगा।
लेकिन लोग सोचते हैं यह बड़ी ता९ति०वक बात है--ईश्वर को खोजना। अपने को
खोजेंगे नहीं, ईश्वर को खोजने के लिए राजी हैं। असली सवाल यह है:
मैं हूं, तो क्या हूं? कौन हूं?
इस एक प्रश्न के अतिरिक्त सारे प्रश्न व्यर्थ हैं, खोपड़ी की खुजलाहट से ज्यादा नहीं हैं।
ईश्वर को खोजना चाहते हो! ईश्वर यानी कौन? जब तक मिला नहीं, तब तक तो तुम्हें यह भी पता नहीं
कि ईश्वर शब्द का अर्थ भी क्या होगा। ईसाइयों के लिए एक अर्थ है, हिंदुओं के लिए दूसरा है, मुसलमानों के लिए तीसरा
है। जितने धर्म हैं, उतने अर्थ हैं। और एक-एक धर्म में कितने
संप्रदाय हैं! और एक-एक संप्रदाय में कितने उप-संप्रदाय हैं! और उन सबकी अपनी-अपनी
धारणा है। किस ईश्वर को खोजोगे? ये सारी धारणाएं मनुशय
द्वारा निर्मित हैं। और ईश्वर पाया जाता है तब, जब
मनुशय-निर्मित सारी धारणाएं गिरा दी जाती हैं, जब तुम
धारणा-शून्य हो जाते हो, धारणा-मुक्त हो जाते हो।
यह ईश्वर की खोज उठती ही क्यों है तुम्हारे मन में? यह तुम्हारी खोज है? या कि पंडित-पुरोहित, साधु-महात्मा चूंकि ईश्वर की चर्चा करते रहते हैं, इसलिए
यह बात तुम्हारे सिर में भी गूंजने लगती है। रूस में तो कोई ईश्वर को नहीं खोजता,
क्योंकि रूस में कोई ईश्वर की चर्चा का सवाल नहीं है। ईश्वर की बात
करो तो लोग हंस देंगे। बीस करोड़ लोग यूं हंस देते हैं कि तुम मूर्खतापूर्ण बात कर
रहे हो। क्योंकि प्रचार ईश्वर का नहीं किया जा रहा है। आज साठ साल से प्रचार बंद
है। तो लोग भूल-भाल गए, किसी को नहीं खोजना ईश्वर को। रूस की
तो छोड़ दो, तुम्हारे पड़ोस में ही जैन रहते हैं, वे ईश्वर को नहीं खोजते, क्योंकि जैन धर्म में ईश्वर
के लिए कोई स्थान नहीं है, कोई स्रशटा नहीं है। बौद्ध ईश्वर
को नहीं खोजते। सारा एशिया बौद्ध है।
तो तुम खोजते क्या हो? यह खोज तुम्हारी है?
यह प्यास तुम्हारी है? जैसे प्यासे को पानी की
तलाश होती है, ऐसी यह तलाश है?
नहीं, ऐसी यह तलाश नहीं है। यह तलाश ऐसी है जैसे अखबार में
विज्ञापन पढ़ कर पैदा हो जाती है। क्षण भर पहले तक जरा तुम्हें कोई अड़चन न थी;
अखबार में विज्ञापन पढ़ लिया किसी नई चीज का, जिसकी
तुम्हें अभी क्षण भर पहले तक कोई जरूरत नहीं थी, और अब अचानक
तुम्हें लगता है कि इसके बिना जीना बेकार है। तुम व्यर्थ ही जी रहे हो। कि जब तक
तुमने इस नाम की सिगरेट नहीं पी, क्या खाक जीए! जब तक तुमने
इस नाम की शराब नहीं पी, तब तक तुम पैदा ही क्यों हुए! जब तक
तुमने यह मशीन न खरीदी, तब तक अकारथ है तुम्हारा जीवन!
पहले अर्थशास्त्री कहते थे: जिस चीज की मांग होती है, बाजार में उसे पैदा करने वाले लोग तैयार हो जाते हैं, उसकी पूर्ति करने वाले लोग तैयार हो जाते हैं। अब हालात बदल गए। अब पहले
लोग पूर्ति कर देते हैं और फिर धुआंधार विज्ञापन करते हैं और मांग पैदा हो जाती
है। पहले मांग होती थी, फिर पूर्ति होती थी। अब मामला उलट
गया है। अब विज्ञापन की कला बहुत विकसित हो गई है। अमरीका जैसे देशों में उत्पादन
दोत्तीन साल बाद शुरू होता है, विज्ञापन दोत्तीन साल पहले
शुरू हो जाता है। इसके पहले कि बाजार में कोई चीज आए, तीन
साल तक धुआंधार प्रचार चलता है। लोगों की खोपड़ियां भनभनाने लगती हैं उस प्रचार से।
अखबार में वही पढ़ते हैं, कि जिंदगी का मजा ही और है कोकाकोला
के संग! अब जिंदगी में कौन मजा नहीं लेना चाहता? और किसकी
जिंदगी में मजा है? सो सोचते हैं, हो न
हो, कोकाकोला में मजा है! कौन जाने कहां छिपा हो! करो
धुआंधार प्रचार। अखबार में हो, बाजार में निकलो तो बड़े-बड़े
बोर्ड लगे हों। सिनेमा में जाओ तो वहां विज्ञापन, रेडियो पर
सुनो तो वहां विज्ञापन, टेलीविजन पर देखो तो वहां विज्ञापन।
और जो लोग विज्ञापन तैयार करते हैं, ढंग से करते हैं। जो
आदमी कोकाकोला पी रहा है विज्ञापन में, उसके चेहरे पर ऐसी
मुस्कुराहट मालूम होती है कि बुद्धों को ईशर्या हो, कि
महावीर झेंप कर खड़े हो जाएं--कि हमने भी अकारथ जीवन गंवाया, कोकाकोला
भी न पीया! सुंदर स्त्रियां उन लोगों की तरफ देखती हैं--ललचाई नजरों से--जो
कोकाकोला पी रहे हैं। अरे जो कोकाकोला पीता है, उसके शरीर
में खून थोड़े ही, अमृत बहता है। वह बूढ़ा थोड़े ही होता है,
वह सदा जवान रहता है। उसमें जवानी की गंध होती है, ताजगी होती है। हाथ में कोकाकोला की बोतल, चेहरे पर
मुस्कुराहट, जवानी के रंग-ढंग! जहां निकल जाता है वहीं
स्त्रियां एकदम उसकी तरफ देखने लगती हैं, लौट-लौट कर देखती
हैं, झुंड बना कर खड़ी हो जाती हैं। तुम्हारा भी दिल होता है
कि है कुछ राज कोकाकोला की बोतल में!
ऐसा ही तुम्हारा ईश्वर है। चल रहा है प्रचार सदियों से। तुम्हें ईश्वर
से क्या लेना-देना! तुमने अभी अपनी तक तलाश नहीं की और तुम परम सत्य को खोजने चले!
अपना सत्य देखे बिना? प्रचार है लेकिन, भयंकर प्रचार
है। और हजारों साल से चल रहा है। हर शास्त्र दोहरा रहा है कि आनंद ही आनंद है
जिसने ईश्वर को पा लिया उसे; उसके लिए शाश्वत आनंद है;
उसके लिए बैकुंठ के सुख हैं, मोक्ष का मजा है।
और तुम्हारी भी लार टपकने लगती है, तुम भी ललचा जाते हो। तुम
भी सोचते हो: जब इतने महात्मा कहते हैं तो गलत न कहते होंगे।
प्रचार का एक ही परिणाम होता है: लोग सम्मोहित हो जाते हैं। धुआंधार
अगर एक ही बात दोहराई जाए, बार-बार सदियों तक, तो ऐसा कौन
होगा नासमझ जो खोजने न निकल पड़े? नहीं तो तुम्हें ईश्वर की
कोई प्यास है? सच, अपने में तलाशो। अगर
औरों न तुमसे ईश्वर के बाबत न कहा होता तो तुम ईश्वर को खोजते? अगर पंडित-पुजारी निरंतर विज्ञापन न कर रहे होते तो तुम ईश्वर को खोजते?
बहुत बड़ा यहूदी धनपति हुआ: रथचाइल्ड। वह कभी विज्ञापन नहीं देता था।
पुराने ढंग का धनपति था। नई हवा न लगी थी। एक विज्ञापन-विशेषज्ञ उसके पीछे पड़ा था।
वह विज्ञापन मांगने वाले लोगों को धक्के देकर निकलवा देता था अपने द९ब०तर से। वह
कहता था: मेरा काम बिना विज्ञापन के ही अच्छा चल रहा है। मैं क्यों फिक्र करूं? लेकिन इस विशेषज्ञ ने भी तय कर लिया था कि अगर इस आदमी को विज्ञापन में
नहीं उलझाया तो हमारी विशेषज्ञ होने की बात ही बेकार है। वह एक दिन सुबह-सुबह ही
पहुंच गया। ऐसे नहीं पहुंचा जैसे कि विज्ञापन लेने गया हो। ऐसे पहुंचा कि जैसे किसी
और काम से आया है। द९ब०तर में नहीं गया, घर गया। रथचाइल्ड
बगीचे में टहल रहा था। वह अंदर गया, उसके फूलों की प्रशंसा
की, उसके बगीचे की प्रशंसा की। रथचाइल्ड भी उत्सुक हो गया।
उसे साथ लेकर अपना बगीचा दिखाया, यह भूल ही गया कि यह आदमी
कौन है। पूछा: कैसे आए?
उसने कहा: आपके पड़ोस में नया-नया आया हूं, सोचा आपसे परिचय कर लूं। और इससे शुभ घड़ी क्या होगी, सुबह-सुबह आप बगीचे में थे तो मैं चला आया!
पूछा: काम क्या करते हो ?
तो उसने कहा कि विज्ञापन-विशेषज्ञ हूं। रथचाइल्ड थोड़ा चौंका। लेकिन अब
देर हो चुकी थी। और यह कोई वक्त भी नहीं था इसे धक्के देकर निकलवाने का। यह
विज्ञापन लेने आया भी नहीं था। तो उसने पूछा--रथचाइल्ड ने--कि ये विज्ञापन मांगने
वाले मेरे पीछे पड़े रहते हैं, इसमें कुछ सार है कि यह बकवास है?
क्योंकि मैं तो बिना विज्ञापन के खूब कमाया हूं, क्या जरूरत? आप तो विशेषज्ञ हैं, आप क्या कहते हैं? आपकी क्या राय है?
तभी पास की पहाड़ी पर खड़े हुए चर्च की घंटियां बजने लगीं। उस
विज्ञापन-विशेषज्ञ ने कहा कि सुनिए, यह चर्च कितना पुराना
है?
रथचाइल्ड ने कहा: होगा कम से कम डेढ़ सौ वर्ष पुराना।
उस विज्ञापन-विशेषज्ञ ने कहा: लेकिन अभी भी यह रोज घंटी बजाता है, कि लोग भूल न जाएं। रोज सुबह घंटी बजाता है, ताकि
गांव में लोगों को याद रहे कि अभी चर्च है। स्मरण दिलाता है। यही तो विज्ञापन का
राज है कि लोगों को याद दिलाते रहो, लोग भूल न जाएं। जब आपने
बिना विज्ञापन के इतना कमाया, तो जरा सोचिए तो कि विज्ञापन
से कितना न कमाया होता!
रथचाइल्ड ने पहली दफा विज्ञापन देना शुरू किया। इस आदमी ने उसका दिल
जीत लिया। और उसने जो तरकीब बताई, वह बताई: चर्च भी, ईश्वर का घर भी, बिना विज्ञापन के नहीं जीता। वह जो
मंदिर में झांझ बजती है, आरती होती है, चर्च में घंटी बजती है, मंत्रोच्चार होता, अखंडपाठ होता, कीर्तन होता, भजन
होता--वे सब पुराने ढंग हैं खबरें पहुंचाने के गांव में, कि
भूल मत जाना, हम हैं! और अगर सतत इस तरह की बात तुम्हारे ऊपर
पड़ती रहे, पड़ती रहे, पड़ती रहे, तो कभी न कभी तुम्हारे मन में भी सवाल उठेगा: इतने लोग खोजे हैं, हम भी खोजें!
विद्याधर, लेकिन जिस खोज का जन्म तुम्हारी अंतरात्मा से न हुआ
हो, उस खोज में सफलता नहीं मिलेगी। परमात्मा की अभीप्सा है
या बस एक उधार आकांक्षा पैदा हो गई है? लोग नकलची हैं। और
लोग खोज रहे हैं तो हमें भी खोजना चाहिए। परमात्मा इस तरह नहीं खोजा जा सकता।
मेरा सुझाव तो है: तुम परमात्मा की फिक्र ही छोड़ो। परमात्मा से क्या
तुम्हें लेना-देना? तुम अपनी तो फिक्र कर लो। और एक बात जरूर मैं तुमसे
कहता हूं: जिन्होंने अपनी फिक्र कर ली, जिन्होंने अपने भीतर
का घर सजा लिया, वह मेहमान अपने आप आ जाता है। तुम तैयार हो
जाओ, वह तुम्हें खोजता आएगा, आना ही
चाहिए! अपरिहार्य है, अनिवार्य है। तुम पात्र हो जाओ और परमात्मा
उस पात्र में न बरसे, यह कैसे हो सकता है? यह तो शाश्वत नियम के विपरीत हो जाएगी बात। जो भी जिस बात के लिए पात्र है,
उसे मिलती ही है वह। इस जगत में तुम जिस बात के योग्य हो, उसका मिलना सुनिश्चित है। यह जगत बहुत न्यायपूर्ण है।
आदमी ने एक व्यवस्था बना ली है समाज की, जो अन्यायपूर्ण है।
लेकिन परमात्मा आदमी की व्यवस्था के भीतर नहीं है। परमात्मा का तो अर्थ ही होता
है: शाश्वत नियम, ऋत, ताओ, धर्म। तुम तैयार हो जाओ। तुम जरा भीतर से कूड़ा-कर्कट साफ करो। तुम कोमल
बनो, निर्मल बनो। तुम निर्दोष हो जाओ। तुम्हारे भीतर जगह भी
तो हो! तुम्हारा सिंहासन खाली भी तो हो! आ जाएगा परमात्मा तो बिठाओगे कहां?
तब सोचोगे: आज ही घर में बोरिया न हुआ! बोरिया भी नहीं होगा बिछाने
को। उसे बिठाओगे कहां? मालिक को बुला रहे हो तो कम से कम घर
की साज-संवार तो कर लो। साधारण मेहमान भी घर में आते हैं तो हम तैयारी करते हैं,
सफाई करते हैं, रंग-रोगन करते हैं। परमात्मा
को निमंत्रण देना चाहते हो, उसके पहले अपने भीतर इतना आकाश
तो पैदा कर लो कि वह विराट समा सके! अनंत को बुलाते हो, कम
से कम शांत तो हो जाओ, मौन तो हो जाओ। सत्य को बुलाते हो,
कम से कम झूठ का कचरा तो हटा दो। प्रकाश को बुलाते हो और अंधेरे से
भांवरें पाड़ रखी हैं; अंधेरे के साथ विवाह रचाया हुआ है;
अंधेरे में जी रहे हो; अंधेरे में तुम्हारा
सारा न्यस्त स्वार्थ जुड़ा हुआ है।
सच तो यह है कि परमात्मा अगर आज तुम्हारे द्वार पर आकर खड़ा हो जाए तो
तुम पीछे के दरवाजे से निकल भागोगे। मैं तुमसे यूं ही नहीं कह रहा हूं; यही होगा। तुम निकल भागोगे एकदम। उसका आमना-सामना कैसे करोगे? उसके सामने आंख उठाने का बल कैसे पाओगे? वह तुम्हें
आलिंगन में भरना चाहेगा। तुम पाओगे अपने को इस योग्य कि उसकी बांहों में समा जाओ?
इसलिए मैं ईश्वर की खोज के लिए बहुत मूल्य नहीं देता। मैं तो ठीक जगह
से खोज शुरू करना चाहता हूं। पूछो कि मैं कौन हूं! इसे कैसे जानूं? लेकिन पंडित-पुजारियों को इसमें उत्सुकता नहीं है; क्योंकि
मैं कौन हूं, इसमें न तो पूजा पैदा होगी, न सत्यनारायण की कथा पैदा होगी, न रामायण पैदा होगी,
न मंदिर बन सकता है इसके आस-पास, न मस्जिद खड़ी
हो सकती है, न कुरान, न गीता, न बाइबिल, कुछ नहीं। मैं कौन हूं, यह सीधा-सादा अस्तित्वगत प्रश्न है। तुम खुद ही निपटाओगे तो निपटेगा। किसी
दूसरे का मध्यस्थ बनने का भी उपाय नहीं। हां, ईश्वर को खोजना
है तो तुम्हें पंडित के पास जाना ही पड़ेगा; उससे व्याषया
पूछनी पड़ेगी, ईश्वर के लक्षण पूछने पड़ेंगे, ईश्वर तक जाने का मार्ग पूछना पड़ेगा--कैसा है ईश्वर? कहां है ईश्वर?
विद्याधर, मैं कोई पंडित नहीं हूं, कोई
पुरोहित नहीं हूं। मैं तुम्हें पूजा-उपासना सिखाने के लिए नहीं हूं। तुम यह प्रश्न
और जगह भी पूछते रहे होओगे। हां, तुम शंकराचार्य से पूछोगे
पुरी के, तो जरूर उत्तर मिलेगा। क्योंकि शंकराचार्य का और
उपयोग क्या है? ईश्वर को जितना अगम्य बता सकें, जितना दुर्गम बता सकें, जितना दूर बता सकें, और जितने लंबे रास्ते की चर्चा कर सकें--उतना ही उनके लिए उपयोगी है। न
तुम उतने लंबे रास्ते पर कभी जाओगे...
और मजा यह है कि ईश्वर दूर नहीं है, पास से भी पास है;
तुम्हारे हृदय की धड़कन में धड़क रहा है; तुम्हारी
श्वासों में प्रवाहित है। मगर तुम अपने से अपरिचित हो, इसलिए
उससे अपरिचित हो। किसी मध्यस्थ की कोई आवश्यकता नहीं है।
लेकिन लोग पूछते हैं इस तरह के प्रश्न और सोचते हैं, ये प्रश्न ता९ति०वक हैं। ये प्रश्न ता९ति०वक नहीं हैं। ये प्रश्न थोथे हैं,
अता९ति०वक हैं।
कभी की जा चुकीं नीचे यहां की वेदनाएं,
नये स्वर के लिए तू क्या गगन को छानता है?
बताएं भेद क्या तारे? उन्हें कुछ ज्ञात भी हो।
कहे क्या चांद? उसके पास कोई बात भी हो।
निशानी तो घटा पर है, मगर किसके चरण की?
यहां पर भी नहीं यह राज कोई जानता है।
सनातन है, अचल है, स्वर्ग चलता ही नहीं है;
तृषा की आग में पड़ कर पिघलता ही नहीं है।
मजे मालूम ही जिसको नहीं बेताबियों के,
नई आवाज की दुनिया उसे क्यों मानता है?
धुओं का देश है नादान! यह छलना बड़ी है,
नई अनुभूतियों की खान वह नीचे पड़ी है।
मुसीबत से बिंधी जो जिंदगी, रोशन हुई वह,
किरण को ढूंढ़ता, लेकिन, नहीं
पहचानता है।
गगन में तो नहीं, बाकी जरा कुछ है अनल में,
नये स्वर का भरा है कोष पर, अब तक अतल में।
कढ़ेगी तोड़ कर कारा अभी धारा सुधा की,
शरासन को श्रवण तक तू नहीं क्यों तानता है?
नया स्वर खोजने वाले! तलातल तोड़ता जा,
कदम जिस पर पड़ें तेरे सतह वह छोड़ता जा;
नई झंकार की दुनिया खतम होती कहां पर?
वही कुछ जानता, सीमा नहीं जो मानता है।
वहां क्या है कि फव्वारे जहां से छूटते हैं?
जरा सी नम हुई मिट्टी कि अंकुर फूटते हैं?
बरसता जो गगन से, वह जमा होता मही में,
उतरने को अतल में क्यों नहीं हठ ठानता है?
हृदय जल में सिमट कर डूब, इसकी थाह तो ले,
रसों के ताल में नीचे उतर अवगाह तो ले।
सरोवर छोड़ कर तू बूंद पीने की खुशी में,
गगन के फूल पर शायक वृथा संधानता है।
आकाश की तरफ देख रहे हो--और वह भीतर छिपा है। गगन में खोज रहे हो, चांदत्तारों से पूछ रहे हो। अरे अपने से पूछो! उत्तर आएगा तो तुम्हारे
अंतर से आएगा, अंतर्तम से आएगा। वहीं हैं वेद, वहीं है कुरान, वहीं है बाइबिल। और सब तो आदमी की
बौद्धिक कलाबाजियां हैं। मन से छूटो। मन की सतत उलझनों से छूटो। धीरे-धीरे मन के
साक्षी बनो। मन को देखो। लड़ो भी नहीं और मन के साथ चलो भी नहीं। सिर्फ (शटा मन के!
और तुम चकित हो जाओगे। जैसे-जैसे (शटा का भाव थमेगा, ठहरेगा,
सघन होगा, वैसे-वैसे मन विरल होगा, विलीन होगा, विसर्जित होगा। जिस दिन तुम्हारा
साक्षी-भाव, (शटा-भाव पूर्ण हो जाएगा, उसी
दिन मन शून्य हो जाएगा। बस मन शून्य हुआ, साक्षी पूर्ण हुआ,
कि तुम आ गए मंदिर के द्वार पर, तुम आ गए परमात्मा
के द्वार पर! वही तुम्हें पुकार दे देगा। वही तुम्हें आलिंगन में ले लेगा। मत खोजो
उसे। सिर्फ पात्र बनो। खोजेगी बुद्धि। पात्र बनना होगा--हृदय से। ये दोनों अलग-अलग
बातें हैं।
खोजना तो बुद्धि का धंधा है। इसलिए बुद्धि विज्ञान में ठीक है।
विज्ञान में खोज चलती है। हृदय खोजता नहीं। हृदय स्त्रैण है; प्रतीक्षा करता है, प्रार्थना करता है। बुद्धि
आक्रामक है, करीब-करीब बलात्कारी है। इसलिए विज्ञान ने
प्रकृति पर बलात्कार कर दिया है। बुद्धि पुरुष है और हृदय स्त्रैण है। हृदय ग्राहक
है। हृदय ऐसे है, जैसे स्त्री का गर्भ।
तुम बुद्धि से हृदय की तरफ सरको। यह सोच-विचार छोड़ो कि ईश्वर कहां है? क्या है? कैसे खोजूं?
विद्याधर, यह सब विद्या भूलो। यह ज्ञान सब उधार और बासा है।
जानो कि मैं अज्ञानी हूं। जानो कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं, तो बुद्धि से छुटकारा हो जाएगा। छोटे बच्चे की भांति निर्दोष बनो और सरको
हृदय की तरफ, ताकि तुम, आश्चर्य से भर
जाओ; ताकि तुम चारों तरफ यह जो सौंदर्य है प्रकृति का,
इसे देख कर अवाक हो जाओ; ताकि तुम्हारे भीतर
संगीत उठे, नृत्य उठे, गीत उठे;
ताकि तुम्हारे भीतर गुलाल उड़े, रंग उड़े;
ताकि तुम्हारे भीतर उत्सव शुरू हो! उसी उत्सव में, उसी वसंत के क्षण में परमात्मा का आगमन होता है। साक्षी बनो और पूछो कि
मैं कौन हूं?
और मुझसे मत पूछो। यह तुम्हें पूछना है अपने से ही। क्योंकि मैं जो भी
उत्तर दूंगा, वह तुम्हारे भीतर ज्ञान बन जाएगा; वह बुद्धि का हिस्सा हो जाएगा; स्मृति में संजो कर
तुम उसे रख लोगे। मेरा उत्तर काम नहीं आएगा। पूछना है अपने से।
एक छोटा सा ध्यान ही करो। जब भी समय मिल जाए, शांत बैठ कर, एक ही प्रश्न अपने भीतर पूछो: मैं कौन
हूं? पहले शब्दों में पूछो कि मैं कौन हूं? फिर धीरे-धीरे शब्द छोड़ दो और सिर्फ भाव रह जाए भीतर कि मैं कौन हूं?
एक प्रश्नवाचक अवस्था रह जाए कि मैं कौन हूं? जब
तक शब्दों में पूछोगे, बुद्धि सक्रिय रहेगी। जब शब्द छोड़
दोगे, सिर्फ भाव रह जाएगा कि मैं कौन हूं, तो हृदय में प्रश्न उतर जाएगा। और वहीं से उत्तर है। वहीं से झरना फूटेगा।
और उसकी एक बूंद भी तुमने चख ली कि तुमने अमृत का स्वाद जाना। और वहीं से तुम
पात्र बनोगे। वहीं से, केवल वहीं से--जब भी किसी ने जाना है
तो जाना है!
हां, पंडित बनना हो तो बात और। पंडित बनना तो बड़ा सस्ता
है। तोते भी पंडित हो जाते हैं। सिवाय तोतों के पंडित और कौन होता है? पांडित्य से बचो।
विद्याधर, तुम्हारा नाम खतरनाक है। अपने अज्ञान को स्मरण करो।
कहीं इस नाम में भरोसा न कर लेना। नाम बड़े धोखे दे रहे हैं। हम तो सुंदर से सुंदर
नाम दे देते हैं बच्चों को और बच्चे उन पर भरोसा कर लेते हैं। वही उनकी अकड़ बन
जाती है। वे यह मान कर ही जीने लगते हैं कि शायद ऐसा ही है। अनाम पैदा होते हैं और
एक नाम का लेबल चिपका देते हैं। और स्वभावतः नाम देंगे तो अच्छे ही देंगे। नाम
देने में कोई कंजूसी करता है! प्यारे-प्यारे नाम हम दे देते हैं। और फिर उन नामों
पर भरोसा हो जाता है। फिर उन नामों के पीछे हम अटके रह जाते हैं।
जिन्होंने जाना है, उन्होंने कहा है: दो चीजें ही
आदमी को अटकाती हैं--नाम और रूप। नाम भी झूठ, रूप भी झूठ।
नाम मन में बैठ जाता है और रूप देह है, शरीर है। तुम दोनों
नहीं हो। न तुम नाम हो, न तुम रूप हो। तुम अनाम हो, अरूप हो। और तुमने अगर अपने अनाम-अरूप को अनुभव कर लिया तो वही तो परमात्मा
का प्रथम अनुभव है।
दूसरा प्रश्न: आप कहते हैं संन्यासी को सृजनातमक
होना चाहिए। सो मैंने काव्य-सृजन शुरू कर दिया है। मगर कोई मेरी कविताएं सुनने को
राजी नहीं है। आपका आशीष चाहिए।
सीता मैया! यह तो खतरनाक
काम शुरू किया। कुछ और सृजन करो। कुछ सृजन ऐसा करो कि जिसमें दूसरों पर हमला न हो।
यह कविता में तो आक्रमण है, क्योंकि कविता का सृजन किया तो अब श्रोता चाहिए। मगर
श्रोता को भी तो बेचारे को आत्मरक्षा का अधिकार है।
एक आदमी कुएं में गिर गया था, चिल्ला रहा था:
बचाओ-बचाओ! और एक आदमी घाट पर ही खड़ा था कुएं के, नीचे झांक
कर देख रहा था, कुछ बोल नहीं रहा था। दूसरा आदमी आया,
उसने कहा कि खड़े देख क्या रहे हो? अरे वह मर
रहा है आदमी, उसको बचाते नहीं?
उसने कहा: वह खुद ही कूदा है।
तो दूसरे ने पूछा: कूदा क्यों?
उसने कहा कि मैं कवि हूं, मैं उसको अपनी कविता
सुना रहा था। वह एकदम कूद गया कुएं में, अब चिल्ला रहा है
बचाओ-बचाओ!
दूसरे ने कहा: तुम फिक्र मत करो, मैं भी कवि हूं। मैं
कुएं में जाकर सुनाऊंगा। वह भी कूद पड़ा। उसने कहा कि मैं उसको वहीं कविता-पाठ
सुनाऊंगा। क्या फिक्र है! अगर कुएं में कूद गया तो क्या चिंता है! अच्छा ही है,
भाग भी नहीं सकता। जितना दिल होगा उतनी सुनाएंगे।
मैंने तो सुना है, एक गांव में इतने कवि हो गए कि
हालत बदलनी पड़ी। मतलब श्रोताओं को बिठालना पड़ा मंच पर और कवि बैठे भवन में। और
श्रोताओं को शाल भेंट करनी पड़ी और गजरे पहनाने पड़े और इक्कीस-इक्कीस रुपया...अरे
फूल नहीं तो पंखुड़ी भेंट में देना पड़ी। और फिर भी द्वार-दरवाजे बंद करके पहलवानों
को खड़ा रखना पड़ा कि कोई भाग न जाए। फिर डट कर चला कवि-सम्मेलन।
सृजन कुछ ऐसा करो कि किसी दूसरे का विध्वंस न हो। अब अगर दूसरे सीता
मैया की कविता नहीं सुनना चाहते, तो मैं कैसे आशीष दूं? तुम्हारी जितनी मौज है उतनी कविता करो, मगर खुद ही
पढ़ो। खुद ही गुनगुना लिए एकांत में, खुद ही अपनी पीठ थपथपा
लिए। थोड़ा अहिंसात्मक भी तो होना ही चाहिए।
प्लेटो ने, यूनान के बहुत बड़े विचारक ने, कल्पना
की है कि समाज कैसा होना चाहिए--अपने प्रसिद्ध ग्रंथ रिपब्लिक में। उसमें उसने
सबको प्रवेश दिया है, कवियों को भर नहीं। पहले जब मैंने यह
बात पढ़ी तो मैंने कहा कि यह तो बात ठीक नहीं हुई। क्यों कवियों के साथ यह विरोध?
लेकिन फिर जब कवियों को मैंने सुना तो मजबूरन मुझे प्लेटो से राजी
होना पड़ा। मैंने कहा कि उसने बात पते की कही है। कविता में कोई हर्जा नहीं है,
मगर सौ कवियों में एकाध कवि होता है, निन्यानबे
बड़े खतरनाक लोग होते हैं। सिर खा जाते हैं दूसरों का। तुकबंदी को कविता समझ लेते
हैं। और तुकबंदी करने में कोई कठिनाई है?
एक कवि के घर में एक चोर घुस गया रात। कवि ने तो चोर को पकड़ लिया। कहा
कि बैठो। अब आ ही गए तो सुन कर ही जाना पड़ेगा।
चोर ने कहा: भैया हाथ जोड़ते हैं, मुझे जाने दो। मुझे
दूसरे भी काम करने हैं। और मैं गलती से आ गया, अब कभी नहीं
आऊंगा। मुझे क्या पता कि यहां कवि रहता है! वैसे भी कवियों के घर में रखा क्या है!
मेरी भूल का मुझे इतना दंड मत दो।
मगर कवि कहीं सुनने वाला था! आखिर उसने कहा कि कम से कम मुझे घर फोन
तो कर लेने दो--उस चोर ने कहा। उसने पुलिस-स्टेशन फोन किया कि हलो-हलो, मैं फलां-फलां जगह से बोल रहा हूं। इस घर में चोर घुस आया है। फौरन पुलिस
भेजिए।
इंस्पेक्टर ने कहा: अभी भेजते हैं। आप कौन हैं?
उसने कहा कि मैं चोर हूं।
इंस्पेक्टर हैरान हुआ। उसने कहा: यह पहला मौका है जीवन में कि चोर फोन
कर रहा है।
अरे--उसने कहा--यह मौका भी पहला है कि कवि के घर में फंस गया हूं।
इससे तो हवालात बेहतर। यह रात भर में मार ही डालेगा। इसने तो इतनी बड़ी पोथी खोल ली
है, द्वार-दरवाजे बंद कर दिए हैं।
बहुत हाथ-पैर जोड़े, गिड़गिड़ाया, तो कवि ने कहा: अच्छी बात है, जा।
उसने कहा: कभी आऊंगा फुर्सत में, सुन लूंगा आपकी,
मगर अभी मेरे धंधे का समय है।
मगर उसने कहा: कुछ तो लेता जा। कवि ने कहा: कुछ लेता जा, घर पढ़ लेना।
तो उसने पूछा: क्या-क्या है इसमें?
तो उसने कहा: खंडकाव्य है, महाकाव्य है। तुक्तक
हैं, मुक्तक हैं।
उसने कहा: तुम मुक्तक ही दे दो। क्योंकि मैं मुक्त होना चाहता हूं।
सीता मैया, वह तो मैं ठीक कहा हूं कि संन्यासी को सृजनात्मक होना
चाहिए। जो भी करो, उसे इतने प्रेम से करो, इतने आह्लाद से करो कि जैसे सारा जीवन उसी कृत्य को करने के लिए बना हो।
जैसे कल होगा ही नहीं। और आज जो कर रहे हो, उसमें अपने को
पूरा उंडेल देना है। जो भी करो, उसे इतने उत्सव और
अनुग्रह-भाव से करो कि परमात्मा ने इतना किया है हमारे लिए--परमात्मा कहो, अनजान प्रकृति कहो, अज्ञात ऊर्जा कहो, जो भी नाम देना चाहते हो, अ ब स, कोई भी नाम ठीक है--इतना तय है कि कोई अज्ञात ऊर्जा बहुत कुछ कर रही है।
अन्यथा हम कैसे होते? चांद कैसे होता, तारे
कैसे होते? वृक्षों में फूल कैसे लगते? पक्षियों के कंठों में गीत कैसे जन्मते? यह जो दूर
से कोयल कूकने लगती है! यह जो पपीहा पुकारता है पी-कहां! यह सारा सौंदर्य! यह
एक-एक तितली के पंखों पर ऐसा रंग! एक विराट सृजनात्मक शक्ति काम कर रही है। तो तुम
जो भी करो, इसे अपना अनुदान समझो--इस विराट सृजनात्मक शक्ति
के साथ सहयोग का।
मेरे देखे, परमात्मा अगर स्रशटा है, तो तुम
जब भी कोई स्रशटा की अवस्था में पहुंचते हो, तो परमात्मा से
तुम्हारा तालमेल हो जाता है। इसलिए सृजन से बड़ी कोई प्रार्थना नहीं है। रोटी बनाओ,
सीता मैया, चलेगा। इसी खयाल से बनाओ कि राम जी
के लिए बना रही हो। जिसके लिए भी बना रही हो, उसके भीतर ही
राम है। अब धनुर्धारी राम के लिए मत बैठी रहो। अब आजकल कहां धनुर्धारी राम मिलेंगे?
हो सकता है, सूट-पैंट पहने हुए, टाई वगैरह लगाए आएं। कोई फिक्र नहीं। किसी शक्ल में आएं, पहचानो।
एक गांव में बड़ा उप(व हो गया। मैं उस गांव में ठहरा हुआ था। गांव के
कालेज के लड़कों ने एक ड्रामा किया हुआ था। झगड़ा हो गया, डंडे चल गए। छोटी सी बात पर! क्योंकि लड़कों ने तो एक हास्य-नाटक का आयोजन
किया था। हंसी की बात थी। लेकिन भारत तो हंसना ही भूल गया है। भारत तो ऐसा गंभीर
हुआ है! ब्रह्मज्ञानियों ने ऐसी कुटाई-पिटाई की है भारत की! ब्रह्मज्ञानी ऐसा कचरा
लाद गए हैं लोगों के ऊपर! ओंठ सी गए हैं, हंस नहीं सकते।
हंसना कुछ अधार्मिक मालूम होता है। वह तो उन्होंने मजाक की। मगर गांव के लोग तो
समझे नहीं। झगड़ा हो गया। मजाक यह थी कि रामचं( जी सूट पहने हुए हैं, टाई बांधे हुए हैं, बगल में सोला हैट दबाए हुए हैं।
और यहां तक भी तो ठीक था, सीता मैया एड़ीदार जूते पहने हुए
हैं और सिगरेट पी रही हैं! बस गांव ने कहा कि हद्द हो गई, सीता
मैया और सिगरेट पी रही हैं? मारो इनको! परदे फाड़ दिए,
पिटाई-कुटाई हो गई। सीता मैया की पिटाई हो गई! रामचं( जी की छीन ली
टाई और कहा कि शर्म नहीं आती?
धनुर्धारी राम होते वही सज्जन, तो ये ही उनके पैर
छूते। गांव में जहां भी रामलीला होती है, जो भी राम बन जाए,
गांव का लफंगा से लफंगा आदमी राम बन जाए...और लफंगों के सिवाय और
कौन बनता है? किसको पड़ी है फुर्सत? किसको
समय है? तो लोग पैर छूते हैं, चढ़ौतरी
चढ़ाते हैं, पूजा करते हैं, आरती उतारते
हैं। और जानते हैं भलीभांति कि गांव का लफंगा है। यह ही उप(व कल करेगा और कल कर
रहा था उप(व, अभी रामचं( जी बना हुआ बैठा है रथ में, शोभायात्रा निकल रही है, बारात जा रही है जनकपुरी!
भलीभांति लोग जानते हैं कि सीता मैया मैया ही नहीं है; यह भी
गांव का एक छोकरा बना बैठा है। मगर उनकी भी पूजा चल रही है!
मगर वहां लोग गुस्से में आ गए, दंगा-फसाद हो गया।
छोटी सी बात पर। और ज्ञानी तुमसे कहते रहे कि सब में राम देखो। तो टाई बांधे हुए
राम में कोई अड़चन है? टाई क्या राम को खत्म कर देगी? टाई का इतना बल? ये निर्बल के बल राम! टाई ने मारा!
टाई ने बिगाड़ा!
अरे सीता मैया ने पी ली सिगरेट तो पी ली। थोड़ा निकोटिन चला गया भीतर
तो क्या बिगड़ता है? कोई टिका थोड़े ही रहता है! चौबीस घंटे में शरीर के
बाहर हो जाता है। इतनी क्या अड़चन?
मगर अड़चन हो गई। और एड़ीदार जूते, उस पर बहुत एतराज हो
गया कि यह कैसी सीता मैया!
तो मैं तुमसे कहूंगा: चाहे रोटी बनाओ, चाहे कपड़े सीओ,
चाहे घर साफ करो--राम के लिए ही कर रही हो।
कबीर से कोई पूछता था कि आप कपड़ा बुनते हैं, अब बुद्धत्व को पाकर? अब तो बंद कर दें! उनके शिशय
कहते: अब हम राजी हैं, जो आपको चाहिए। हमारे रहते आप क्यों
कपड़ा बुनें?
कबीर कहते: लेकिन नहीं, राम जी मेरे कपड़े
बहुत पसंद करते हैं। और जब गांव में जाते थे बेचने कबीर अपने कपड़े तो हर ग्राहक को
कहते थे कि राम जी, ले जाओ। राम जी के अलावा कोई था ही नहीं।
जो भी आया वही राम है। राम ही है, और तो कुछ है नहीं।
मुझे तो कबीर की इस बात में ज्यादा अर्थ, गरिमा और गौरव मालूम होता है--बजाय तुलसीदास की इस घटना में कि उनको जब
कृशण के मंदिर में ले जाया गया, तो नाभादास ने अपने
संस्मरणों में लिखा है कि तुलसीदास कृशण के मंदिर में झुके नहीं। कृशण को कैसे
झुकें? राम के भक्त! और यही तुलसीदास कहते हैं कि सारे जग
में मैंने सीता-राम को ही देखा। सियाराममय सब जग जानी! और भूल गए वहां, सब में देख लिया। कविता ही कर रहे हैं मालूम होता है, तुकबंदी बिठा रहे हैं मालूम होता है। कृशण में नहीं देख सके।
नाभादास ने लिखा है कि तुलसीदास ने कहा कि मैं नहीं झुकूंगा। तुलसी
झुके न माथ। जब तक धनुष-बाण हाथ में नहीं लोगे, तब तक मेरा माथा
झुकने वाला नहीं है। बाबा तुलसीदास की असलियत जाहिर हो गई। वह सारे जग में जो राम
को देखा था, वह कविता ही थी, वह
जीवन-अनुभव नहीं था। कृशण में भी न देख सके राम को! कृशण के सामने भी झुकने से
इनकार कर दिया! धनुष-बाण लेहु हाथ! तब झुकेगा, तुलसी का माथा
तब झुकेगा! तो यह तो भक्त भगवान पर शर्त लगाने लगा कि मेरी शर्त पहले पूरी करो। यह
झुकना भी बेशर्त न रहा। यह समर्पण भी सशर्त हो गया। और सशर्त समर्पण मर गया,
आत्महत्या हो गई उसकी। गले में फांसी लगा कर मर गया। सशर्त कोई
समर्पण होता है--कि मैं ऐसा करूंगा, कि मैं वैसा करूंगा,
तो! समर्पण तो बेशर्त होता है। समर्पण तो कहता है: जो तेरी मर्जी!
अगर तेरी आज मर्जी ऐसी है कि मोर-मुकुट बांध कर खड़ा है, तो
चल, हम तुझे ऐसे में भी देखेंगे।
यह तो कबीर ज्यादा ठीक काम कर रहे हैं। आम ग्राहक, जो खरीदने चला आया है सामान, उससे कह रहे हैं: राम
जी, ले जाओ। बहुत मेहनत से बुना है, यूं
ही नहीं बुना है। बहुत प्रेम से बुना है। भीनी-भीनी बीनी रे चदरिया! राम-रस में
डुबा-डुबा कर रंगा है। मस्ती में बुना है। गा-गा कर बुना है।
गुनगुनाते थे और बुनते थे। डोलते थे और बुनते थे। निश्चित ही उनका
खुमार, उनके भीतर की शराब फैल जाती होगी तानों-बानों पर।
जरूर कुछ न कुछ छाप रह जाती होगी। और कहते थे कि इतनी मेहनत से बुना है, इतना मजबूत बुना है, कि फाड़ना भी चाहोगे तो भी
वर्षों लग जाएंगे। ले ही जाओ!
तो वे कहते कि राम जी आएंगे बाजार में, खोजेंगे कि कबीर आया
कि नहीं, और मुझे नहीं पाएंगे तो बड़े उदास होंगे। जीवन की
अंतिम घड़ी तक कपड़े बुनते रहे। इसे मैं सृजनात्मकता कहता हूं।
सृजनात्मकता से यह भ्रांति होती है कि या तो मूर्ति बनाओ या कविता करो
या पेंटिंग बनाओ, इस तरह की दोत्तीन चीजों से लोग सृजनात्मकता का अर्थ
लेते हैं। सृजनात्मकता का इतना ही अर्थ नहीं होता।
यहां आश्रम में लोग आते हैं। उनको जो सबसे ज्यादा बात छूती है, वह छूती है--आश्रम में आनंद-मग्न काम करने वाले लोग। चाहे वे संडास साफ कर
रहे हों, क्योंकि यहां तो कोई नौकर नहीं है, एक भी नौकर नहीं है। नौकर की बात ही अमानवीय है। यहां तो सारा काम
संन्यासी कर रहे हैं। और इसमें कोई भेदभाव ही नहीं है। जो पाखाने साफ कर रहा है
उसमें और जो द९ब०तर में बैठ कर ध्यान-विश्वविद्यालय का कुलपति है उसमें--कोई भेद
नहीं है। वैसे भी भेद नहीं है। संडास और बाथरूम साफ करने वाले संन्यासियों में पीएच.
डी. हैं। सवाल ही नहीं है कि कौन क्या कर रहा है। एक पीएच. डी. आश्रम की गाड़ियों
को चलाते हैं, ड्राइव करते हैं। एक पीएच. डी. आश्रम के बगीचे
में सब्जी उगाते हैं।
सृजनात्मकता का अर्थ इतना ही नहीं है कि कविता करो। जो भी करो, वह तुम्हारा ध्यान हो, मौज हो, मस्ती हो। फर्श साफ करो तो ऐसे जैसे परमात्मा के लिए किया जा रहा है।
इसलिए आश्रम में तुम्हें एक ताजगी मिलेगी, एक सुवास मिलेगी, एक स्वच्छता मिलेगी, एक अलग गंध मिलेगी। और वह गंध है सृजनात्मकता की। जो भी जिस काम में लगा
है, उसमें ऐसे तल्लीन है कि वही पूजा है, वही प्रार्थना है।
सीता मैया, कविता करो, कोई हर्जा नहीं है।
कविता में कुछ बुराई नहीं है। मगर खतरा एक ही है कि कविता काम की तो बहुत कम होती
है। और फिर कविता बन गई तो स्वभावतः खयाल उठता है कि कोई सुने। कोई सुने ही न तो
कविता में सार क्या! कोई प्रशंसा करे। फिर मुसीबत शुरू होती है। अगर यह स्वांतः
सुखाय हो तब तो ठीक, नहीं तो खतरा है।
महान कवि ढब्बू जी एक बार बीमार हो गए। बीमारी कुछ ऐसी कि डाक्टरों की
समझ में न आए। अंततः हार कर उन्होंने ढब्बू जी से ही पूछा कि आप ही बताइए, हम सब तो इस बीमारी को समझने में असमर्थ सिद्ध हो गए हैं। आपने हमें हरा
दिया। आप ही बताएं कि इस बीमारी की मूल जड़ क्या है? अरे आप
तो महाकवि हैं। आप तो बड़ी गहरी बातें खोज लाते हैं। जरा अपनी बीमारी के बाबत भी
कुछ बताएं। क्या आपको कोई मानसिक यातना सता रही है? कोई तनाव
है? बात क्या है?
ढब्बू जी बोले: बीमार न होऊं तो और क्या हो! अरे पिछले तीन सप्ताह से
एक भी श्रोता नहीं मिला। सो कविताएं भीतर उबल रही हैं। श्रोता चाहिए।
अब डाक्टरों की खोपड़ी में कुछ सूझा। उन्होंने एक बहरे आदमी को दस
रुपये देकर राजी किया कि वह आज रात भर इस तरह से ढब्बू जी की कविताएं सुनता रहे, जैसे कि बहुत मजा आ रहा है! यही एकमात्र उपाय है ढब्बू जी को मृत्यु से
बचाने का। बहरा राजी हो गया। जब दूसरे दिन सुबह-सुबह डाक्टर आया देखने के लिए कि
माजरा क्या है, तो उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा! ढब्बू जी
तो एकदम स्वस्थ, प्रसन्न, प्रफुल्लित
और आनंद-विभोर होकर कविता-पाठ कर रहे थे और बेचारा बहरा श्रोता पता नहीं कब का मर
चुका था!
सीता मैया, तुम्हें मेरा आशीष! जी भर कर कविता करो। मगर किसी को
सुनाना मत। एकांत में द्वार-दरवाजे बंद करके गुनगुना लेना--मैं सुन लूंगा! यही तो
लाभ है। तस्वीर टांग ली, सुना दी। नहीं तो लाकेट तुम्हारे
पास है ही, बस लाकेट को पकड़ा और सुना दी कविता। तस्वीर तो मर
नहीं सकती, मैं मुस्कुराए ही चला जाऊंगा। तुम भी खुश,
मैं भी खुश!
मगर सृजनात्मक को और विधाएं दो। सारा जीवन सृजनात्मक होना चाहिए तो
जीवन में एक प्रसाद आ जाता है, एक सौंदर्य आ जाता है। उठो-बैठो
तो, चलो-फिरो तो। बुद्ध चलते हैं तो काव्य है। कृशण बैठते
हैं तो काव्य है, उठते हैं तो काव्य है। जीसस सूली पर भी
लटके हैं तो भी एक प्रसाद है। और तुम सिंहासन पर भी बैठो तो भी प्रसाद नहीं होगा।
और यह सारी बात इसलिए संभव हो पाती है, यह चमत्कार इसलिए संभव
हो पाता है: जब तुम समर्पित हो परमात्मा को, अस्तित्व को,
जब तुमने अपने अहंकार को अलग कर लिया, बस!
सृजनात्मक का अर्थ होता है: अपने अहंकार को अलग कर लेना और परमात्मा जो कराए करना,
उसके हाथों...बस उसके लिए एक माध्यम बन जाना। आएं उसकी हवाएं,
ले चलें उड़ा कर तुम्हें एक सूखे पत्ते की भांति, तो उड़ना! आए उसकी नदी, आए उसकी बाढ़, ले चले बहा कर तुम्हें सागर की तरफ, तो बहना। परमात्मा
जो कराए करना।
सब छोड़ दो अस्तित्व पर। चिंता गल जाएगी, संताप मिट जाएगा। फिर
यह भी हो सकता है कि काव्य उठे, गीत जन्में। तब उन गीतों में
बात और होगी। तब तुम्हें श्रोता नहीं खोजने होंगे, श्रोता
तुम्हें खोज लेंगे। क्योंकि तुम्हारे शब्द-शब्द में रस होगा। रस परमात्मा का दूसरा
नाम है। रसो वै सः!
तीसरा प्रश्न: आपकी "नारी के समान अधिकार' की बातें बहुत अच्छी लगीं। इसके अतिरिक्त जो आप इच्छाओं को न दबाने और
उनसे न लड़ने की बात कहते हैं, वह भी हृदय को स्पर्श करती है।
किंतु इसके साथ-साथ जब आद्य शंकराचार्य, पतंजलि और तुलसी
वगैरह की बातें याद आ जाती हैं तो द्वंद्व खड़ा होता है। शंकराचार्य ने नारी की
निंदा किस दृशिट से की? अद्वय ब्रह्म का अनुभवी क्या ऐसी
निंदा कर सकता है? क्या वे भी केवल एक विद्वान मात्र थे,
अनुभवी नहीं? पतंजलि समाधि के लिए यम-नियम पर
विशेष जोर देते हैं, आप नहीं। इसका क्या कारण है?
शांतानंद सरस्वती! पहली तो बात यह, भूल कर भी कभी तुलना मत करना, नहीं तो उलझते चले
जाओगे सुलझने की बजाय। बुद्ध और महावीर को साथ-साथ सोचोगे, पागल
हो जाओगे। कृशण और क्राइस्ट को साथ-साथ सोचोगे, भयंकर
द्वंद्व में पड़ जाओगे, विक्षिप्त हो जाओगे।
मुक्त करने के लिए एक सदगुरु काफी है। हां, विक्षिप्त होना हो तो फिर बहुत सदगुरुओं की बातों में उलझना। क्योंकि प्रत्येक
सदगुरु की अभिव्यक्ति अनूठी होती है। प्रत्येक सदगुरु अद्वितीय होता है, बेजोड़ होता है। वह किसी और की नकल नहीं होता। वह अपना अनुभव कहता है,
वह अपनी प्रतीति कहता है। वह अपने उपाय खोजता है, अपनी विधियां खोजता है। तो सारे सदगुरुओं की बातें भिन्न-भिन्न होंगी।
अब तुम अगर बुद्ध को भी, महावीर को भी,
कृशण को भी, क्राइस्ट को भी, शंकराचार्य को भी मेरे साथ-साथ सोचोगे, तो तुम्हारी
कठिनाइयों का अंत नहीं आएगा कभी, तुम्हारे उलझाव रोज-रोज
बढ़ते जाएंगे, तुम विक्षिप्त हो जाओगे। अभी-अभी ऐसा हुआ।
अद्वैत बोधिसत्व के भाई पढ़े-लिखे हैं, होशियार हैं, प्रतिभाशाली हैं। मुझे भी पढ़ते हैं, सुनते हैं;
कृशणमूर्ति को भी पढ़ते हैं और सुनते हैं। अब भारी तनाव में पड़ गए
हैं। संन्यास लेना चाहते हैं। लेकिन कृशणमूर्ति कहते हैं: किसी के शिशय मत बनना,
किसी को गुरु मत बनाना। अब बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई। कृशणमूर्ति की
मानें तो संन्यासी नहीं हो सकते। मेरी मानें तो संन्यासी होना है। किसकी मानें?
और मुश्किल उनकी बढ़ जाती है, क्योंकि मैं कहता
हूं: कृशणमूर्ति प्रबुद्ध पुरुष हैं। जो कहते हैं, उनकी
दृशिट से ठीक ही कहते हैं। तब तो और अड़चन बढ़ गई। अगर मैं यह भी कह दूं कि वे प्रबुद्ध
पुरुष नहीं हैं तो भी एक सुलझाव हो जाए; या तो वे मुझे चुन
लें या उन्हें चुन लें। उनको खबर भी दी गई थी कि इस उलझन में ज्यादा न पड़ो। दिन भर
टेप सुनते हैं मेरा, फिर कृशणमूर्ति का; कृशणमूर्ति का, फिर मेरा। फिर अभी चार-छह दिन पहले
खबर आई, वे घर से भाग गए, नदारद हैं।
अद्वैत बोधिसत्व भागे हुए गए कि क्या हुआ? कहां गए? बेहोश पाए गए हैं। आज चार-पांच दिन से बेहोश हैं अस्पताल में। क्या हो गया?
सीमा से ज्यादा खिंचाव हो गया।
यह घटना घटी इक्कीस तारीख को। आना चाहते थे यहां और कृशणमूर्ति खींच
रहे होंगे कि कहां जाते हो! सो न यहां आए, न कृशणमूर्ति के हुए;
घर छोड़-छाड़ कर भाग गए कि अब किसी तरह इस झंझट से बचो। फिर क्या हुआ,
यह तो जब वे होश में आएं, तो पता चले कि क्या
मुसीबत हुई, कैसे बेहोश हुए, कहां पाए
गए, किस तरह लाए गए--यह सारी कथा तो पीछे हो। अभी तो डाक्टर
कहते हैं कि उनको जितनी देर बेहोश रहें, अच्छा है। सोने दो।
जितनी देर नींद में गुजर जाए उतना बेहतर है, ताकि मस्तिशक
वापस थोड़ा शांत हो जाए।
तो पहली तो बात तुमसे कहना चाहता हूं, शांतानंद: तुलना मत
करना, नहीं तो द्वंद्व में पड़ोगे। प्रत्येक सदगुरु अपने समय
के लिए बोलता है। समय रोज बदल जाता है। समय के अनुसार समस्याएं बदल जाती हैं। प्रत्येक
सदगुरु अपने शिशयों के लिए बोलता है, सारे जगत के लिए भी
नहीं, क्योंकि सारा जगत तो उसे मिलता नहीं सुनने को। जो उसके
पास होते हैं, उनके लिए बोलता है। उनकी जरूरतों की पूर्ति
करता है। उनकी बीमारियों की फिक्र लेता है।
अब जैसे पतंजलि ने यम-नियम पर जोर दिया; मैं नहीं देता। कारण
हैं। पतंजलि जिस समाज में पैदा हुए आज से पांच हजार साल पहले, वह अत्यंत भोगी समाज था, निपट भोगी समाज था। धर्म भी
धर्म नहीं था; वह भी भोग की ही आकांक्षा का विस्तार था।
ऋषि-मुनि भी कुछ खाक ऋषि-मुनि नहीं थे। उनकी प९ति०नयां थीं। प९ति०नयां ही नहीं थीं,
उप-प९ति०नयां भी थीं, जो वधुएं कही जाती थीं।
धन था उनके पास, सुविधाएं थीं उनके पास। सब तरह की राजनीति
में उलझे हुए लोग थे। कहने को ऋषि-मुनि थे, मगर सब तरह की
राजनीति में उलझे हुए लोग थे। वैदिक धर्म कोई योग का धर्म नहीं था। लोग यज्ञ-हवन
करते थे, वे भी भोग के लिए थे। तुम जरा वेद की ऋचाएं पढ़ो। सब
मांगें हैं वासनाओं की--हे प्रभु, यह दे दे! हे प्रभु,
वह दे दे! बस देने ही देने की बात है। और कैसी छोटी-छोटी मांगें!
हैरानी होती है कि किन पागलों ने इन शब्दों को वेदों में इकट्ठा कर लिया! कि मेरी
गऊ के स्तन में दूध बढ़ा दे। यह भी प्रार्थना! कि मेरे खेत में जरा ज्यादा पानी
गिरा दे। यह भी प्रार्थना! और बात यहीं नहीं रुकी। बात यहीं कभी रुकती नहीं। मेरे
दुश्मन की गऊ का थन सूख ही जाए। यह भी प्रार्थना! मेरे दुश्मन के खेत में पानी
गिरे ही नहीं। यह भी प्रार्थना! इं( देवता भी बड़ी मुश्किल में पड़ते होंगे कि अब एक
के खेत में पानी गिराओ और पड़ोसी के खेत में पानी न गिराओ। क्योंकि दुश्मन अक्सर
पड़ोसी होता है। दुश्मन होने के लिए पहले पड़ोसी होना जरूरी है। तुम दुश्मन खोजने
कोई बहुत दूर थोड़े ही जाओगे, कि रहोगे हिंदुस्तान में और
दुश्मन होगा चीन में! दुश्मन तुम्हारा पड़ोस में होगा, वह जो
रेडियो जोर से बजाएगा और जिसके लड़के चीख-पुकार मचाएंगे, गिल्ली-डंडा
खेलेंगे, तुम्हारे घर की खिड़कियों के कांच फोड़ेंगे। दुश्मन
कौन होगा? दुश्मन यानी पड़ोसी। और दुश्मन के खेत में कम...।
दूसरे गांव में तो होगा ही नहीं, इतना तो पक्का ही है। और उन
जमानों में न रेलगाड़ी थी, न हवाई जहाज था, कि तुम बहुत दूर-दूर जाकर दुश्मनी करो, कि रहो
अमरीका में और गोआ में दुश्मनी करो, यह नहीं हो सकता था। तो
एक खेत में पानी ज्यादा गिरा देना, दूसरे में कम। इं( देवता
की भी तकलीफ देखते हो! एक की गाय के थन में दूध बढ़ा देना, दूसरे
का उड़ा देना, नदारद ही कर दो!
ये कोई प्रार्थनाएं हैं? ये निपट भोगियों के
लक्षण हैं। और भोग भी किस निम्न कोटि का! क्रूरता और कठोरता से भरा हुआ। और कितनी
कलह है! विश्वामित्र और वशिशठ में कितनी कलह है! कितना झगड़ा-झांसा है! वही कलह
चलती रही, वही झगड़ा-झांसा चलता रहा। समाज भोगी था, निपट भोगी था। गांव-गांव में वेश्याएं थीं। और वेश्याएं स्वीकृत अंग थीं।
उनको नगर-वधू कहा जाता था। असल में नियम यह था कि नगर में जो सबसे सुंदर युवती हो,
उसको नगर-वधू घोषित कर दिया जाता था, ताकि
उसके कारण ईशर्या न पैदा हो। नहीं तो वह किसी एक की पत्नी बनेगी, झगड़ा-झांसा खड़ा होगा। दूसरे भी उम्मीदवार हैं। तो कलह पैदा होगी। कलह से
बचने के लिए बेहतर यह है कि उसको नगर-वधू घोषित कर दो। इसलिए वह सबकी पत्नी है।
नगर-वधुएं स्वीकृत थीं। लोग भोगी थे। शराब प्रचलित थी। सोमरस के नाम
से तरहत्तरह के मादक (व्य चल रहे थे--गांजा, अफीम। तुम यह मत
सोचना कि कोई आजकल के साधु ही इनका उपयोग कर रहे हैं। यह बड़ी प्राचीन परंपरा है,
बाप-दादे करते रहे हैं। सच तो यह है, आजकल
इनकी बेचारों की निंदा होती है। अगर कोई साधु मिल जाए गांजा पीते हुए, तुम कहते हो: तुम कैसे साधु? हालांकि यह पांच हजार
साल की पुरानी परंपरा मान रहा है, यह वस्तुतः साधु है। अगर
कोई गांजा न पीए, उससे पूछना चाहिए: तुम कैसे साधु? न पीए गांजा, न पीए भांग, न
चखा सोमरस--और हो गए साधु? अरे पहले कुछ अनुभव भी तो करो! और
बिना भांग के कहां भगवान! बिना गांजे के कहीं कोई समाधिस्थ हुआ है? वह तो गांजे में ही उड़ान आती है!
तो पतंजलि के समय में जो चारों तरफ भोग-विलास था और साधुओं के नाम पर
भी जो चल रहा था, उस सबको रोकने के लिए यम-नियम को उन्होंने मूल्य
दिया।
आज हालत बिलकुल उलटी है। आज हालत दमन की है। आज लोग दमन से पीड़ित हैं।
नैसर्गिक प्रवृत्तियों का इतना दमन करवा दिया गया, यम-नियम इतना ज्यादा
हो गया कि अब लोगों के पास और कुछ बचा ही नहीं, बस यम-नियम
हैं। और भीतर? भीतर सब लपटें जल रही हैं--वासनाओं की,
इच्छाओं की। भयंकर लपटें जल रही हैं! उनका निशकासन जरूरी है। उनको
दबा कर मिटाया नहीं जा सकता। उनका ऊर्ध्वीकरण करना जरूरी है।
इसलिए मैं यम-नियम पर जोर नहीं देता, मैं बोध पर जोर देता
हूं। क्योंकि यम-नियम पर जोर देने का परिणाम यह हुआ कि लोगों ने दमन करना शुरू कर
दिया। भोगी गलत होता है; और जिसने दमन किया, वह भी गलत होता है। न तो भोग में मार्ग है, न दमन
में मार्ग है; दोनों के मध्य में मार्ग है।
मगर तुम अगर यह सब सोचने बैठोगे तो तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे।
तुम्हारे सामने कुछ साफ नहीं होता--कि क्या स्थिति थी जब पतंजलि ने यम-नियम की बात
कही? किनसे कही? कौन सुनने वाले थे?
फिर सबके अपने-अपने अनुभव हैं। प्रत्येक व्यक्ति के अपने अनुभव हैं; उसके जीवन की अपनी धारा है। अपने अनुभव के आधार पर ही वह कुछ बोलता है,
कुछ कहता है।
शंकराचार्य निपट विद्वान नहीं थे, प्रबुद्ध पुरुष थे।
लेकिन उन्होंने जो भाषा चुनी थी अपनी अभिव्यक्ति की, वह
परंपरा की थी। शायद उस दिन और किसी भाषा में बोला भी नहीं जा सकता था। आज भी बोलना
कितना कठिन हो रहा है! मेरी कठिनाई देखते हो? मैंने चूंकि
परंपरागत भाषा नहीं चुनी, चूंकि परंपरागत औपचारिकता नहीं
चुनी, तो मुझे कितनी गालियां पड़ रही हैं! मुझमें तो वे ही
लोग उत्सुक हो सकते हैं, जिनमें थोड़ा परंपरा से मुक्त होने
का साहस है--दुस्साहस कहना चाहिए। इसलिए दूसरे देशों से लोग ज्यादा आ रहे हैं,
भारतीय कम; क्योंकि भारतीय बहुत जकड़े हैं रूढ़ि
से, बहुत परंपरा से बंधे हैं। और फिर डरते भी हैं, क्योंकि अगर यहां आएंगे तो पास-पड़ोस के लोग क्या कहेंगे! गांव में खबर
पहुंच जाएगी कि यह आदमी भी गया!
मैं बंबई में था, तो जो मित्र बंबई में कभी मुझे
सुनने नहीं आए, वे यहां आ जाते हैं। उनमें से कई ने यहां आकर
संन्यास ले लिया। मैं उनसे पूछता हूं: बंबई में क्यों नहीं आए? उन्होंने कहा: बंबई में आने में अड़चन थी। मैं जबलपुर था, तो जो लोग जबलपुर में मुझे कभी मिलने नहीं आए, वे
यहां मिलने आते हैं। और मुझे पक्का पता है, जब पूना मैं छोड़
दूंगा तब पूना के लोग भी आने शुरू हो जाएंगे। अभी पूना में आने में कठिनाई है,
क्योंकि बदनामी कौन सहे! गांव, बाजार, दुकानदारी, सब सम्हालना है। लड़की का विवाह भी करना
है। लड़के को स्कूल में भरती भी करवाना है। हजार झंझटें हैं। जिस भीड़ के साथ रहना
है, उस भीड़ के विपरीत जाना खतरे से खाली नहीं है।
शंकराचार्य ने परंपरागत भाषा चुनी। जो परंपरा कहती थी, उसी भाषा का उपयोग करके अपना संदेश दिया। निश्चित ही उस भाषा में आज बहुत
भूलें दिखाई पड़ेंगी; उस दिन नहीं दिखाई पड़ी थीं। इसलिए
शंकराचार्य सहज स्वीकृत हो सके।
तुमने एक बात देखी? बुद्ध सहज स्वीकृत नहीं हो सके,
क्योंकि बुद्ध ने गैर-परंपरागत भाषा चुनी। इसलिए बुद्ध के मरने के
बाद बुद्ध-धर्म भारत से उखड़ गया। भारत बहुत रूढ़ि-चुस्त देश है। लकीर के फकीर हैं
लोग। लोग बिलकुल मर गए हैं, कब के मर गए हैं; बहुत समय हो गया तब के मर चुके हैं! बस चले जा रहे हैं मरे-मराए! किसी तरह
धक्कमधक्की में चले जा रहे हैं, चलते जा रहे हैं। तुमने कई
कहानियां सुनी होंगी कि राणासांगा की गर्दन कट गई और फिर भी वे लड़ते रहे। ये
कहानियां सच्ची हों या न हों, मगर भारत में तुम्हें जगह-जगह
ऐसे लोग मिलेंगे, जिनकी गर्दन कब की कट चुकी है, लड़े जा रहे हैं, चले जा रहे हैं; दुकान भी कर रहे हैं, बाजार भी कर रहे हैं, बच्चे भी पैदा कर रहे हैं--मर चुके हैं बहुत पहले। भारत में लोग मर जाते
हैं बहुत पहले, गड़ाए जाते हैं बहुत बाद में।
यहां बुद्ध ने एक प्रयोग करके देख लिया। महावीर परंपरागत भाषा बोले, इसलिए जैन धर्म मरा नहीं। हालांकि इतनी परंपरागत भाषा बोले कि जैन धर्म
भारत के बाहर न जा सका। क्योंकि उतनी परंपरागत भाषा में भारत के बाहर कोई उत्सुक
नहीं हो सकता था। भारतीयों की परंपरा थी, इसलिए वह बात भारत
के बाहर किसी को प्रभावित नहीं की। जैन धर्म सिकुड़ कर रह गया, मगर जिंदा रह गया। रही क्षीण धारा उसकी, मगर जिंदा
रहा।
बुद्ध ने बिलकुल नूतन भाषा बोली, मौलिक भाषा बोली।
अपने सिक्के गढ़े, अपनी टकसाल खोली। नहीं पुराने सिक्के चलाए।
तो बुद्ध जब तक जीवित रहे, गालियां बहुत खाईं, लेकिन उनके व्यक्तित्व का प्रभाव था, जब तक जीवित
रहे, तब तक लोगों ने उनके साथ सत्संग किया, उनसे जुड़े। लेकिन बुद्ध के हट जाने के बाद मुश्किल खड़ी हो गई। बुद्ध के
विदा हो जाने के बाद भारत से बौद्ध धर्म उखड़ गया।
शंकराचार्य बुद्ध के इस अनुभव से सजग हो गए। शंकराचार्य ने करीब-करीब
वही बातें कही हैं जो बुद्ध ने, तुम हैरान होओगे। मेरे हिसाब में
शंकराचार्य छिपे हुए बौद्ध हैं, प्रच्छन्न बौद्ध। रामानुज,
निम्बार्क और वल्लभ ने यही उनकी आलोचना की है कि यह छिपा हुआ बौद्ध
है। यह बातें तो कर रहा है हिंदू शास्त्रों की, मगर व्याषया
ऐसी कर रहा है कि जो हिंदू शास्त्रों की नहीं है। यह शब्द तो उपयोग कर रहा है
हिंदुओं के, मगर अर्थ दे रहा है बौद्धों के। यह रामानुज,
निम्बार्क और वल्लभ को दिखाई पड़ गया। वे बिलकुल परंपरागत लोग हैं।
वे पहचान गए कि शंकराचार्य होशियारी का काम कर रहे हैं।
जो भूल बुद्ध ने की थी, इस अर्थ में भूल थी
कि बात टिक नहीं सकी। अनूठा प्रयोग था, मगर टिक नहीं सका।
शंकराचार्य ने वही बात टिका दी, मगर फिर परंपरागत शब्दों का
उपयोग करना पड़ा। तो शंकराचार्य रूढ़िवादी दिखाई पड़ते हैं। टिक गए। ऐसे टिके कि
शंकराचार्य सबसे ज्यादा प्रभावी व्यक्ति हो गए। भारत में शंकराचार्य ने जितना
प्रभाव छोड़ा, किसी और व्यक्ति ने नहीं छोड़ा। सारा संन्यास
शंकराचार्य से प्रभावित हो गया। मगर एक बहुमूल्य कीमत चुका दी उन्होंने। बात मार
दी। बात में जो धार थी, वह चली गई।
बुद्ध की बात में धार है। माना कि धर्म खो गया, यहां भारत में कोई बुद्ध-धर्म की जड़ें न रहीं, मगर बुद्ध
के शब्दों में जो तलवार जैसी धार है, उस पर जंग न चढ़ी।
शंकराचार्य ने माना कि धर्म को टिका दिया, मगर धार खो गई।
मगर प्रत्येक व्यक्ति को अपना चुनाव करना होता है। और कोई किसी को कह
नहीं सकता कि क्यों उसने ऐसा चुनाव किया। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी परिस्थिति
देखनी होती है, अपना समय देखना होता है, अपनी
जरूरत देखनी होती है।
लेकिन शांतानंद, तुम इन उलझनों में मत पड़ो। अब
तुम देखो, अगर मैं परंपरागत भाषा बोलूं तो मेरी वही हालत हो
जो महावीर की हुई; मैं भारत में सीमित रह जाऊं। मैं कोई दस
वर्ष तक ऐसी ही भाषा का उपयोग कर रहा था। और तब मैंने देखा कि यह बात भारत के बाहर
जा नहीं सकती। यह बात भारत के बाहर पहुंचानी असंभव है। तब जैन मुझसे प्रसन्न थे;
हिंदू मुझसे प्रसन्न थे; मुसलमान मुझसे
प्रसन्न थे। क्योंकि मैं जो भी मुझे कहना होता, कुरान के
बहाने कहता; जो भी मुझे कहना होता, महावीर
के बहाने कहता; जो भी मुझे कहना होता, वह
गीता के बहाने कहता। गीता से मुझे क्या लेना-देना? और महावीर
से भी क्या लेना-देना? मैं अपनी बात सीधी कह सकता हूं। लेकिन
मैंने देखा कि सीधी बात सुनने वाला भी कोई नहीं है। हां, महावीर
के नाम से जैन आ जाता है सुनने; वह महावीर को सुनने आता है।
मगर उस बहाने वह मुझे सुन लेता है, कुछ मेरी बात भी उसके
कानों में पड़ जाती है। धीरे-धीरे वह मुझमें भी उत्सुक हो जाता है।
लेकिन फिर मैंने देखा कि यह बात तो सिकुड़ कर रह जाएगी, इसका विस्तार नहीं हो सकेगा, यह जागतिक नहीं हो
सकेगी। और आज मनुशय की जरूरत है जागतिक धर्म की। एक ऐसा धार्मिक आंदोलन, जो कहीं आबद्ध न हो, जिसमें सारी दुनिया के लोग
सम्मिलित हो सकें। स्वभावतः, उस विस्तार में जाने का एक ही
अर्थ था कि वह जो छोटे-छोटे घेरे के लोग मेरे पास इकट्ठे थे, वे बिखर जाएंगे। वह कीमत चुकानी पड़ेगी। मगर वह कोई कीमत न थी।
मैं महावीर पर बोलने पूना आता था तो जो लोग मुझे सुनते थे, उनमें से दस-पांच ही अब मौजूद हैं। हजारों सुनते थे। गीता पर बोलने आता था,
हजारों सुनते थे। आज उनमें से दो-चार ही मौजूद हैं। उनके अंगुलियों
पर नाम गिनाए जा सकते हैं। बाकी सब लोग कहां गए? गीता पर
बोलूं, आज वे फिर हजारों लोग वापस आ जाएंगे। मगर सारी दुनिया
में एक लाख संन्यासी फैल गए। एक दस साल के भीतर एक करोड़ संन्यासी होंगे सारी
दुनिया में--बिना अड़चन के।
तो तीस लाख हिंदुस्तान के जैनियों में आबद्ध रह जाने की बजाय...और
इनके सुनने में भी कोई सार नहीं था। क्योंकि इनको कुल मतलब इतना था कि मैंने
महावीर की प्रशंसा कर दी, ये खुश होकर चले गए। महावीर की प्रशंसा से इनको ऐसा
लगता है कि इनकी प्रशंसा हो गई। इनके अहंकार को थोड़ा सा रस आ जाता, बस इससे ज्यादा कुछ भी मतलब न था। इनमें कोई फर्क नहीं होगा, कोई भेद नहीं होगा। ये वैसे के वैसे रहेंगे। गीता पर लोग, हिंदू इकट्ठे हो जाएंगे, सुन लेंगे, बस उनको अच्छा लगेगा, मनोरंजन हो जाएगा। उनकी लकीर
पीटी जा रही है, उनकी परंपरा की प्रशंसा कर दी गई है,
वे खुश होकर चले जाएंगे।
यह मैंने देख लिया दस वर्ष प्रयोग करके कि इस तरह उनके जीवन में कोई
रूपांतरण होने वाला नहीं है और मैं नाहक अपना समय गंवा दूंगा। मुझे अपनी पूरी
व्यवस्था बदल देनी पड़ी। और व्यवस्था बदलते ही क्रांति शुरू हो गई। अब जो मैं कह
रहा हूं, उसका एक जागतिक परिणाम है। आज दुनिया का कोई ऐसा देश
नहीं है जिसकी भाषा में मेरे शब्द न पहुंच गए हों, किताबें
अनुवादित न हुई हों। ऐसा कोई देश नहीं है जहां संन्यासी न हों, जहां आश्रम खड़े न हो गए हों।
तो प्रत्येक व्यक्ति को अपने ढंग से सोचना होता है। अपने समय और अपने
समय की समस्याओं का प्रत्युत्तर देना होता है।
तुम इस चिंता में न पड़ो। शंकराचार्य क्या कहते हैं स्त्री के संबंध
में, वह शंकराचार्य का वक्तव्य कम है, वह हिंदू शास्त्र जो कहते रहे स्त्री के संबंध में, उसको
सिर्फ उन्होंने दोहरा दिया है। हिंदू उससे प्रसन्न होते हैं। हिंदू पुरुषों का
अहंकार उससे तृप्त होता है।
और नारी का तो कोई मूल्य था नहीं शंकर के जमाने में। आज मुझे सुनने
वालों में जितने पुरुष हैं उतनी नारियां हैं, क्योंकि यह जागतिक
समुदाय है। लेकिन जब मैं पुराने ढंग की भाषा का उपयोग कर रहा था तो उसमें नारियां
इनी-गिनी होती थीं, मुश्किल से होती थीं; समूह पुरुषों का होता था। शंकराचार्य को सुनने वाले सब पुरुष रहे होंगे,
स्त्रियों को कहां मौका था? उनको तो सुनने का
अधिकार भी नहीं था। तो शंकराचार्य सिर्फ वही बोल रहे हैं जो शास्त्रों में लिखा
हुआ था। मैं जानता हूं कि बे-मन से बोल रहे हैं, मगर
मजबूरियां हैं; काम करना असंभव होता उन्हें।
नारी का एक डर पुरुष के मन में है। और डर का कुल कारण दमन है। नारी
में कोई डर नहीं है, नारी में क्या डर हो सकता है? लेकिन
डर का कारण दमन है। तुमने जितनी अपनी कामवासना दबा ली है, उतने
तुम नारी से डरोगे। यह बड़े मजे की बात है कि नारियां पुरुषों से नहीं डरतीं।
उन्होंने पुरुषों की निंदा में कुछ नहीं कहा। हालांकि उनके पास पुरुषों की निंदा
में कहने के लिए बहुत ज्यादा सामग्री है, मगर उन्होंने
पुरुषों की निंदा में कुछ भी नहीं कहा। क्योंकि नारियों ने कोई दमन नहीं किया।
नारियां ज्यादा सहज स्वाभाविक हैं, ज्यादा पार्थिव हैं,
ज्यादा व्यावहारिक हैं। ब्रह्मज्ञान वगैरह में उनका रस नहीं,
फालतू बकवास में वे पड़तीं नहीं। वह पुरुषों पर छोड़ देती हैं कि यह
तुम्हीं करो।
मुल्ला नसरुद्दीन से कोई पूछ रहा था कि तुझमें और तेरी पत्नी में झगड़ा
नहीं होता, कैसे तूने हल कर लिया? यह
शाश्वत मसला कैसे हल कर लिया?
उसने कहा: मैंने पहले ही दिन हल कर लिया। पहले ही दिन मैंने कहा कि
देख, अपन तय कर लें। जो महत्वपूर्ण समस्याएं हैं, उनका निर्णायक मैं रहूंगा; और जो गैर-महत्वपूर्ण
समस्याएं हैं, उनकी निर्णायक तू रहेगी। और तब से कोई झगड़ा
नहीं हुआ। महत्वपूर्ण समस्याएं मैं हल करता हूं, गैर-महत्वपूर्ण
वह हल करती है।
सुनने वाले ने कहा कि यह तो बड़ी आश्चर्य की बात है! इससे कैसे हल हो
जाएगा? कौन सी समस्याएं महत्वपूर्ण हैं और कौन सी गैर-महत्वपूर्ण?
नसरुद्दीन ने कहा: यह मत पूछो। उससे सब राज ही खुल जाएगा। महत्वपूर्ण
समस्याएं यानी ईश्वर है या नहीं? संसार कब बना? स्वर्ग है या नहीं? कितने नरक हैं? कर्म का सिद्धांत? पुनर्जन्म होता कि नहीं? भूत-प्रेत होते कि नहीं? ये सब महत्वपूर्ण समस्याएं
मैं तय करता हूं। मकान कौन सा खरीदना, कार कौन सी खरीदनी,
बच्चों को किस स्कूल में भरती करना, साड़ी कौन
सी खरीदनी, मेरे लिए भी कौन सा कोट खरीदना--यह सब वह तय करती
है। छोटी-मोटी समस्याएं! झगड़े का कोई सवाल ही नहीं उठता।
स्त्रियां बिलकुल प्रसन्न होती हैं--तुम करो तत्व-चर्चा, जितनी तुम्हें करनी है, मजे से करो। छोटी-मोटी
समस्याएं...तनषवाह पहली तारीख को स्त्री ले लेती है, वह कहती
है: अब तुम तत्व-चर्चा करो, तनषवाह यहां रख दो।
स्त्रियां ज्यादा सहज-स्वाभाविक, पार्थिव हैं।
उन्होंने दमन किया नहीं, इसलिए पुरुषों की निंदा की नहीं।
पुरुष हमेशा घबड़ाए रहे।
एक वैज्ञानिक से उसके विद्यार्थियों ने पूछा कि आप नारी की रासायनिक
व्याषया क्या करते हैं?
उस वैज्ञानिक ने कहा: मानव-जाति की एक सदस्या रूप में परिचित; कभी-कभी ही अपनी प्राकृतिक अवस्था में प्राप्त; चमड़ी
के रंगों से पुती; तापमान अनिश्चित, कभी
गरम, कभी सर्द; अत्यधिक विस्फोटक;
मुषयतः अलंकृत; पुरुष को मार्गच्युत करने की
संभवतः सबसे बड़ी शक्ति; एक से अधिक रखना अवैध।
पुरुष डरा रहता है।
चंदूलाल का बेटा चंदूलाल से पूछ रहा था कि पापा, यह नियम क्यों बनाया गया है कि दो शादियां करना जुर्म है?
चंदूलाल ने कहा: बेटा, यह उनके लिए बनाया
गया है जो अपनी रक्षा खुद नहीं कर सकते। एक ही काफी है। तू अपनी मम्मी को देख न!
मुझको देख, घर के बाहर कैसा सिंह जैसा सीना फुला कर चलता
हूं! और घर में जब आता हूं, एकदम कुत्ते की तरह पूंछ दबा कर
आता हूं। अब एक ही स्त्री जब यह हालत कर रही है, और दोत्तीन
हों, तो फिर मुसीबत हो जाएगी, फिर अड़चन
हो जाएगी। और पुरुष ऐसा है कि अपनी रक्षा करने में असमर्थ है, इसलिए कानून बनाना पड़ा है। नहीं तो वह दोत्तीन-चार क्या, वह तो बढ़ाता ही जाएगा।
पुरुष डरा रहा है। अपने भीतर दबाया है जो, उससे भयभीत है, उससे घबड़ाया हुआ है। इसलिए सदियों से
वह स्त्रियों के खिलाफ बोलता रहा है। वह स्त्रियों के खिलाफ नहीं है; वह सिर्फ अपनी ही मनोदशा की अभिव्यक्ति है।
ओलंपिक दौड़ प्रतियोगिता में प्रथम स्थान करने वाले धावक से एक पत्रकार
ने पूछा: आपकी दौड़ने की इस आश्चर्यजनक तीव्र र९ब०तार के पीछे कौन सी प्रेरणा काम
करती है भाईजान?
वह धावक बोला: दौड़ते समय मैं हमेशा यह सोचता रहता हूं कि मेरी पत्नी
मेरे पीछे दौड़ रही है और उसने मुझे अब पकड़ा! अब पकड़ा! बस फिर जैसी गति मेरे
तन-प्राण में आती है, उसका विश्वास मुझे स्वयं ही नहीं होता।
और उसने यह भी कहा कि सुनो, मुझे भाईजान मत कहो,
बस भाई ही भाई हूं, जान कहां! जान तो शादी हुई
उसके पहले थी। तब से तो भाई ही भाई हूं।
पुरुष डरे हुए हैं।
एक स्त्री अपने जीवन की अंतिम सांसें गिन रही थी। बामुश्किल थोड़ा सा
ऊपर उठ कर उसने पास ही बैठे अपने पति से पूछा: प्रिये, क्या मेरी मृत्यु के तुरंत बाद तुम दूसरा विवाह कर लोगे?
नहीं-नहीं, कभी नहीं! पति बोला। ऐसी बातें ही मत सोचो। पहले मैं
कुछ दिन आराम करूंगा।
पुरुष ज्यादा वासनाग्रस्त है। और कारण, कि वासना को दबाने का
पाठ उस पर थोपा गया है। सो डरता है। स्त्री को देखा कि उसे कंपकंपी हुई, उसे घबड़ाहट हुई, उसे बेचैनी हुई। वह जानता है कि अगर
वह स्वतंत्रता ले तो कुछ न कुछ उप(व हो जाएगा। स्वतंत्रता नहीं ले सकता। इसलिए
यम-नियम-संयम! बांध कर रखो अपने को!
और यह बड़ी अशोभन बात है कि तुम सहज न हो सको और यम-नियम के सहारे...कि
एकदम देखी स्त्री कि जल्दी से इधर-उधर देखने लगे, स्त्री को छोड़ कर
राम-राम जपने लगे, माला फेरने लगे, एकदम
सोचने लगे ज्ञान की बातें, कि किसी तरह यह स्त्री टल जाए,
यह कहां से दिखाई पड़ गई!
संत ने पूछा है--संत हमारे पहरेदार हैं--उन्होंने
पूछा है कि यहां जब भी मैं भारतीयों को आश्रम दिखाने ले जाता हूं तो बस विदेशी
युवतियों को, संन्यासिनियों को देख कर वे एकदम ठगे खड़े रह जाते हैं,
एकदम उनके मुंह से लार टपकने लगती है। ऐसा क्यों होता है?
संत महाराज! यह इस बात का
सबूत है कि ये ऋषि-मुनियों की असली संतान हैं। ये पुण्यभूमि भारत में पैदा हुए
हैं। ये धार्मिक लोग हैं। यह धार्मिक लोगों का लक्षण है। और फिर स्वभावतः उनको आत्मग्लानि
होगी, अपराध-भाव अनुभव होगा, तो वे
मुझको गालियां देंगे। वे बाहर जाकर मुझको गालियां देंगे। और एक से एक झूठी बातें
गढ़ेंगे! ऐसी झूठी बातें कि जिनका हिसाब नहीं।
कल मैं एक बंगाली पत्रिका, "परिवर्तन'
देख रहा था। बड़ा लेख छापा है। दोनों तरफ मुषय कवर पर आश्रम के चित्र
दिए हुए हैं। और पत्रकार ने लिखा है कि मैं खुद आश्रम में होकर आया हूं। और इससे
बड़ी झूठ दूसरी नहीं हो सकती, क्योंकि जो बात उसने लिखी है वह
यह लिखी है कि सबसे पहले मैं मा योग लषमी को मिला, वह कैथलिक
साध्वी जैसे सफेद कपड़े पहने हुए थी। यह आदमी यहां आया होगा? इस
आदमी को यहां आने का कुछ...यानी पता नहीं यह कहीं कोई और जगह पहुंच गया, क्या हुआ! जो भी लिखा है, सब अनर्गल है। लिखा है कि
रोज रात मैं सौ व्यक्तियों को संन्यास देता हूं।...चाहूंगा तो जरूर कि सौ व्यक्ति
रोज रात संन्यास लें।...यह वह आंखों देखा हाल लिख रहा है! और संन्यास लेते वक्त
प्रत्येक को नग्न होना होता है। जब तक नग्न न होओ, तब तक
संन्यास नहीं मिलता।
ये सब झूठ चल जाते हैं और लोगों को जंच जाते हैं। क्योंकि लोगों के
भीतर एक रुग्ण दशा है, उससे इनका तालमेल बैठ जाता है। फिर स्त्रियों को जब
तुम्हारे साधु-संत गालियां देते रहे--वे गालियां दे रहे थे अपने को ही, मगर स्त्रियों को गालियां देते रहे--तो उनका अपनी स्त्रियों से जो
जीवन-संबंध रहा होगा, अपनी पतिनयों से उनके जो अनुभव रहे
होंगे, वे कड़वे रहे होंगे। इसमें जिम्मेवार वे भी रहे होंगे,
मगर अपनी तो कोई बात कहता नहीं, अपनी तो लोग
छिपा जाते हैं। स्त्रियों की निंदा अभी भी उनके पीछे पड़ी है। अभी भी वे सोच रहे
हैं कि स्त्रियां खतरनाक हैं। घर छोड़ कर भाग गए हैं, साधु हो
गए हैं...।
एक जैन मुनि गणेशवर्णी की मृत्यु हुई, कुछ ही वर्ष पहले।
जिन्होंने उनकी जीवन-कथा लिखी है, वे मेरे परिचित हैं। वे जब
किताब छपी तो मुझे भेंट करने आए। मैं किताब उलट-पलट कर देखा, उसमें एक बात देख कर मैं दंग रह गया--कि उन्होंने तीस साल पहले अपनी पत्नी
को त्याग दिया। और तीस साल बाद उनकी पत्नी मरी। पत्नी को आटा पीस-पीस कर जिंदा
रहना पड़ा, किसी तरह जीवन गुजारा करना पड़ा। किस मुसीबत में जी,
वह वह जाने, उसका कुछ उल्लेख है नहीं ज्यादा।
लेकिन तीस साल बाद जब वे काशी में थे और उनको खबर मिली कि उनकी पत्नी चल बसी,
तो उनके मुंह से एक उदगार निकला--कि चलो झंझट मिटी! इसका बड़े ही
प्रशंसात्मक ढंग से उल्लेख किया गया है कि वाह, कैसे अनासक्त
पुरुष थे! कैसे वीतराग! कि उन्होंने पत्नी की मृत्यु पर आंसू भी नहीं गिराया। उलटे
कहा कि चलो झंझट मिटी!
मैंने उन लेखक को कहा कि तुम महामूढ़ हो। आंसू गिराया होता तो समझ में
आ सकता था। उसमें थोड़ी आदमियत होती, थोड़ी अहिंसा होती,
थोड़ी करुणा होती। यह कहना कि चलो झंझट मिटी, इससे
तो सिर्फ एक बात सिद्ध होती है कि तीस साल पहले जिस पत्नी को यह छोड़ कर भाग आया
आदमी, उसकी झंझट भीतर इसके अभी भी चल रही है। और कुछ सिद्ध
नहीं होता। जिसको तुम तीस साल पहले छोड़ आए, उसकी झंझट बची
कहां? तुम्हें झंझट क्या है? तीस साल
से उस पत्नी को देखा नहीं, मिले नहीं, उसको
हर तरह की झंझट में डाल आए--और अब कह रहे हो कि झंझट मिटी! तो जरूर इसके भीतर-भीतर
सुलगती रही होगी आग, अंगारा रहा होगा राख के भीतर। यह अभी भी
डरा हुआ दिखता है अपनी पत्नी से। हो सकता है पत्नी सामने आ जाए तो इसके अभी छक्के
छुड़ा दे। यह अभी भूल जाए अपनी साधुता वगैरह।
एक स्त्री कुत्ता खरीदने गई। तो फर्म के मैनेजर ने एक कुत्ता दिखाते
हुए कहा: महोदया, इस नस्ल का यही एक कुत्ता बाकी बचा है। यदि आपको पसंद
हो तो आज ही खरीद लीजिए। पता नहीं कल तक कोई और खरीदार आ जाए!
वह महिला बोली: लेकिन मेरे पति को इस नस्ल के कुत्ते कतई पसंद नहीं
हैं।
मैनेजर ने पूछा: जहां तक मैं समझता हूं, आप कविवर ढब्बूजी की पत्नी
हैं।
स्त्री ने प्रसन्नतापूर्वक कहा: आपने ठीक पहचाना। मैं श्रीमती ढब्बूजी
ही हूं।
मैनेजर बोला: तब मैं आपसे कहना चाहूंगा कि आप अपने पति की पसंद की जरा
भी फिक्र न करें। अरे इस नस्ल का कुत्ता मिलना दुबारा मुश्किल है, जब कि आपके पति की नस्ल के पति बिना ढूंढ़े जितने चाहो उतने मिल जाएंगे।
और मैंने सुना है कि यह सुनते ही श्रीमती ढब्बू जी कुत्ता खरीद कर घर
लौट आई हैं और तब से श्रीमान ढब्बू जी साधु होने का विचार कर रहे हैं। अब ये अगर
साधु हो गए तो ये जिंदगी भर स्त्री को गाली देंगे। कुत्तों को गाली देंगे, स्त्री को भी नहीं! इनकी गालियां खबर देंगी इस बात की कि इनके जीवन-अनुभव
क्या हैं।
तुम पूछते हो, शांतानंद, कि क्यों तुलसी ने
निंदा की है?
तुलसी ने निंदा की है, क्योंकि तुलसी कामुक
व्यक्ति थे, बहुत कामुक व्यक्ति थे। कुछ दिन के लिए पत्नी
मायके गई थी, तो भी पहुंच गए पीछे-पीछे। बरसात के दिन थे,
नदी तैर कर पार कर ली--एक मुर्दे को पकड़ कर, समझ
कर कि कोई लकड़ी का ठूंठ बहा जा रहा है। अंधे रहे होंगे बिलकुल वासना में। और फिर
पीछे की तरफ से मकान पर चढ़े तो सांप को रस्सी समझ कर चढ़ गए। इतने कामांध व्यक्ति
को स्त्री ने ही बोध दिया। कहा कि अगर इतना तुम्हारा प्रेम परमात्मा से होता तो
तुम उसे कभी का पा लेते, जितना प्रेम तुम्हारा मुझसे है। काश
परमात्मा से होता, तुम क्या से क्या न हो जाते! इस स्त्री ने
बोध दिया और इसी स्त्री को जीवन भर गाली देते रहे। धन्यवाद देना था। थोड़ी तो
सौजन्यता बरतनी थी।
मगर तुलसीदास कोई बुद्धत्व को प्राप्त व्यक्ति नहीं हैं। महाकवि जरूर
हैं, लेकिन महाकवि होने से कोई बुद्ध नहीं हो जाता। वह जो
स्त्री ने अपमान कर दिया--उन्हें अपमान लगा--वह जो आत्मग्लानि हुई पैदा कि अरे मैं
कैसा कामी! लौट पड़े, मगर क्रोध में लौटे। छोड़ दिया घर-द्वार,
मगर स्त्री पर नाराजगी जाहिर है। तो ढोल गंवार शू( पशु नारी,
ये सब ताड़न के अधिकारी। इनको सताओ, मारो,
पीटो--यह फिर उनके जीवन भर का स्वर बन गया।
तुम इस झंझट में न पड़ो।
बहुत से तो व्यक्ति हैं जो ज्ञान को उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन तुम समझते हो कि ज्ञान को उपलब्ध हैं। वे तुम्हें और भी झंझट में
डाल देंगे। जो ज्ञान को उपलब्ध हैं, उनकी बातें भी
भिन्न-भिन्न होंगी, उनकी अभिव्यक्ति भी भिन्न-भिन्न होंगी।
तुम अगर खंड-खंड में टूट जाना चाहते हो तो बात अलग। शांतानंद, अगर अशांतानंद होना है तो बात अलग। हरेक के देखने का अपना नजरिया है।
रास्ते में मुल्ला नसरुद्दीन की मुलाकात अनायास अपने एक बचपन के दोस्त
से हो गई। मुल्ला ने पूछा: कहो भाई, क्या हालचाल हैं?
शादी-वादी हुई कि नहीं?
जवाब मिला: शादी हुए तो काफी अरसा गुजर चुका है और ऊपर वाले की कृपा
से पिछले माह ही एक बच्चा भी हो गया है।
मुल्ला ने पूछा: अच्छा, तो तुमने ऊपर की
मंजिल में क्या कोई किराएदार रख लिया?
मत झंझटों में पड़ो। अब मेरे पास आ गए हो, मैं काफी हूं। अब तुम किस-किस की बातों को सोचते रहोगे? तुलना में मत पड़ो। ऊहापोह न खड़ा करो। इससे बुद्धि उलझेगी, जाल बढ़ेगा। सरल होने से सत्य मिलता है, उलझने से
नहीं।
आखिरी प्रश्न: क्या सच ही मारवाड़ियों को शैतान भी
धोखा नहीं दे सकता है?
सहजानंद! कल का प्रवचन
सुन कर नसरुद्दीन को भी ताव आ गया। मैंने कहा था कि मारवाड़ी को शैतान भी धोखा नहीं
दे सकता। सो मुल्ला ने मन ही मन सोचा: ऐसी की तैसी मारवाड़ियों की! आज ही किसी
मारवाड़ी को ऐसा चकमा दूंगा कि उसकी सात पीढ़ियों तक को याद रहेगा।
सांझ का समय था, सूरज ढल चुका था और बिजली की
खराबी के कारण सड़क पर अंधेरा था। नसरुद्दीन ने देखा कि एक लंबा घूंघट काढ़े पड़ोस के
ही मारवाड़ी सेठ धन्नालाल की नई बहू हाथ में एक खूबसूरत बैग लटकाए चली आ रही है।
मुल्ला ने सोचा, अच्छा मौका है, इस
मारवाड़िन को आज मजा चखाया जाए। वह जल्दी से उठा और उस स्त्री के साथ हो लिया। साढ़े
सात बजे शाम का अंधेरा और फिर लंबा घूंघट! स्त्री ने सोचा कि मेरे पतिदेव आ गए। वह
बोली: सुनो जी, मुझे तो कोकाकोला पीने की इच्छा हो रही है।
मुल्ला समझ गया कि यह औरत मुझे अपना पति समझ रही है। वह बोला: चलो पास
ही में यह रेस्तरां है, चल कर कोकाकोला पीएंगे।
इस तरह मुल्ला उस स्त्री को अपने घर ले आया। कमरे का दरवाजा बंद करके
मुल्ला ने उस स्त्री के साथ बलात्कार किया। स्त्री न रोई, न चिल्लाई। मुल्ला को बहुत खुशी भी हो रही थी कि आखिर एक मारवाड़िन को धोखा
दे ही दिया। पर स्त्री के प्रतिरोध न करने से आश्चर्य भी हो रहा था। जब स्त्री चली
गई तो नसरुद्दीन भी उत्सुकतावश छिपा-छिपा उसके घर तक पहुंचा। खिड़की में से झांक कर
उसने जो हाल देखा तो उसे छठी का दूध याद आ गया।
वह महिला रो-रो कर बता रही थी कि एक अजनबी ने मेरे साथ व्यभिचार किया
है।
उसके ससुर और पति ने पूछा: अरी मूर्ख, बैग में जो सोने के
कंगन लेकर तू जा रही थी, क्या वे भी छिन गए?
स्त्री बोली: नहीं-नहीं, मैंने होशियारी से उन
सोने के कंगनों को बैग में से निकाल कर अपनी जूतियों में छिपा लिया था। वह
हरामजादा यह देख भी न पाया। और यही नहीं, उसके तकिए के नीचे
उसका मनीबैग रखा था, वह भी मैं ले आई हूं।
ऐसा कहते हुए उस मारवाड़िन ने अपनी जूतियों में से कंगन निकाले और
मुल्ला का मनीबैग निकाला, जिसमें तीन हजार रुपये थे। सबके सब प्रसन्न हो उठे।
सबके चेहरे चमक उठे। ससुर ने संतोष की सांस लेते हुए कहा: चलो, बलात्कार हुआ तो हुआ! अपना क्या गया! अरे इज्जत बच गई, यही क्या कम है!
आज इतना ही।
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