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बुधवार, 7 जून 2017

प्रेम—पंथ ऐसो कठिन-(प्रश्नोत्तर)-प्रवचन-10

प्रेम—पंथ ऐसो कठिन-(प्रश्नोत्तर)-ओशो

प्रवचन—दसवां
दिनांक 05 अप्रेल सन् 1979,
ओशो आश्रम, कोरेगांव पार्क पूना।
प्रश्न-सार-

1—बिन मांगे सच्चे रत्नों से झोली भर दी
बिन चाहे मेरे जीवन में खुशियां भर दीं
ये कैसे क्या कुछ हुआ, इसे कह दो भगवन
अनहोनी थी जो बात, उसे होनी कर दी
2—प्रार्थना कैसे और कब जन्मती है?
3—मैं ध्यान में गहरा जाना चाहता हूं। पर फिर डर लगता है कि पत्नी-बच्चों का क्या होगा?


पहला प्रश्न:
बिन मांगे सच्चे रत्नों से झोली भर दी
बिन चाहे मेरे जीवन में खुशियां भर दीं
ये कैसे क्या कुछ हुआ, इसे कह दो भगवन
अनहोनी थी जो बात, उसे होनी कर दी

जगदीश भारती! अनहोना न कभी हुआ है, न होता है। जो होता है, वह हो सकता था, इसीलिए होता है। स्वाभाविक था, इसीलिए संभव हुआ।
जब पहली बार स्वयं का अनुभव शुरू होगा, तो ऐसा लगेगा ही कि कुछ अनहोना हो रहा है। अब तक तो नहीं हुआ था, जन्मों-जन्मों से नहीं हुआ था, आज अचानक रात टूट गई, सुबह हो गई, अंधेरा रोशनी बन गया; अब तक तो कांटे ही कांटे थे, आज अचानक फूल खिले--खिले ही नहीं, कांटे फूलों में रूपांतरित हो गए, तो लगेगा कि कुछ अनहोना हो रहा है।
मगर फिर भी मैं तुम्हें याद दिलाऊं, जो भी हो रहा है, अनहोना नहीं हो सकता। अघट घटता ही नहीं। अस्वाभाविक न हो सकता है, न होने की कोई संभावना है। देर-अबेर कितनी ही हो जाए, तुम वही हो जाने वाले हो जो तुम होने को पैदा हुए हो। तुम्हें वही होना है, तुम जो हो। भूले रहो, बिसरे रहो, कितना ही अपनी तरफ पीठ किए रहो, और कितने ही अड़ंगे खड़े कर लो, मार्ग में कितनी ही चट्टानें बिछा दो कि झरना बह न सके, लेकिन जिस दिन भी चट्टानें हटाओगे, जिस दिन भी पर्दे उठाओगे, जिस दिन भी घूंघट सरकाओगे, उस दिन लगेगा चमत्कार ही! मगर चमत्कार नहीं है।
चमत्कार लगेगा, क्योंकि इतने दिन तक भुलाए रखा था कि सुध ही चली गई थी। स्मरण भी नहीं आता था सुबह का। सूरज सपनों में भी नहीं झांकता था। मगर फिर भी, रात है तो सुबह है। और संसार है तो मोक्ष है। और मन है तो मन से मुक्ति है। मन भरा है विचारों से। विचारों की तरंगों पर तरंगें। झील देखी है--तरंगों पर तरंगें--ऐसा मन है। लेकिन कभी झील चुप भी होती है, शांत भी होती है, एक तरंग भी नहीं होती है। झील तब दर्पण बन जाती है। तब झील में झलकता है आकाश, तारे, चांद। तब झील में झलकते हैं पास खड़े वृक्ष। तब झील उसे दर्शाती है, जो है।
ऐसी ही मन की दो अवस्थाएं हैं। एक: विक्षुब्ध; आंधी, तूफान, अंधड़, तरंगें, लहरें, लहरों पर लहरें, सब डांवाडोल--चंचलता। और दूसरी अवस्था है: निर्विचार। न कोई तरंग, न कोई लहर, मन हो गया शांत एक झील। बस तत्क्षण जो है...जो है वह तो सदा से है, सिर्फ हम उद्विग्न थे, इसलिए उसे झलका न पाए, उसे जान न पाए। जैसे ही हम अनुद्विग्न होते हैं, वैसे ही सारा परमात्मा सब दिशाओं से हमारी तरफ दौड़ पड़ता है। हम भर दिए जाते हैं, शून्य होते ही भर दिए जाते हैं।
मगर जगदीश, तुम ठीक कहते हो। जब पहली बार ऐसा होता है, तो लगेगा ही:
बिन मांगे सच्चे रत्नों से झोली भर दी
जिस झोली को तुम सोच रहे हो मैंने भर दी, वह भरी ही हुई थी। सिर्फ तुमने अपनी झोली में टटोला न था। गुदड़ी में लाल है, मगर तुम भागे फिरते सारे संसार में। गुदड़ी को टांगे कंधे पर। गुदड़ी में टटोलते नहीं। संसार खोज आते हो, घर में खोजते नहीं। और जितना खोजते हो बाहर, उतनी ही बेचैनी बढ़ती जाती है। क्योंकि रोज-रोज असफल होते हो, रोज-रोज हारते हो। रोज-रोज आशाएं धूल-धूसरित होती हैं। रोज-रोज कल्पनाओं के दीये फिर बुझ जाते हैं। सोचते थे, कल हो जाएगा। कल आ गया और कुछ भी नहीं हुआ। विषाद घेर लेता है। अंधकार और घना हो जाता है। निराशा छाती पर हिमालय बन कर बैठ जाती है। हटाए नहीं हटती।
जैसे-जैसे दिन बीतते हैं जीवन के, वैसे-वैसे ही आदमी आशाएं खोने लगता है। उसकी आंखें चमक खो देती हैं। उसके प्राण हिम्मत खो देते हैं। उसके पैर डगमगाने लगते हैं। अपने पर भरोसा चला जाता है। आत्म-श्रद्धा चली जाती है। इतनी बार हारोगे तो आत्म-श्रद्धा खो ही जाएगी। इतनी बार पराजित होओगे तो कैसे माने जाओगे कि एक न एक दिन जीतूंगा, जरूर जीतूंगा? हर चीज की सीमा है। एक बार हारे, सोचा कि जीतूंगा। दो बार हारे, सोचा कि जीतूंगा। लेकिन कितनी बार हार कर तुम यह जीतने की आशा बनाए रखोगे?
तो जैसे-जैसे बाहर खोजते हो, वैसे-वैसे झोली और खाली मालूम होने लगती है। जैसे-जैसे वासनाओं में दौड़ते हो, वैसे-वैसे और भिखमंगे हो जाते हो। यहां भिखमंगे तो भिखमंगे हैं ही, यहां जिनके पास सब कुछ है, वे भी भिखमंगे हैं। जब तक वासना है तब तक भिखमंगापन है। वासना भिक्षापात्र है। वासना का अर्थ है: और! और! और और का कोई अंत नहीं है। और की दौड़ कहीं समाप्त होती नहीं। कितना ही मिल जाए, और! बाहर दौड़ता हुआ आदमी धीरे-धीरे विक्षिप्त हो जाता है। बाहर की दौड़ की अंतिम निष्पत्ति विक्षिप्तता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं।
और मजा ऐसा है--चमत्कारों का चमत्कार, आश्चर्यों का आश्चर्य, भरोसा न आए, बात ऐसी है--कि जिसे तुम तलाश रहे हो, वह तुम्हारी गुदड़ी में है। और गुदड़ी तुम्हारे कंधे पर टंगी है। उसमें तुम टटोलते नहीं। अपने भीतर टटोलते नहीं। "अपने माहिं टटोल!' जिस दिन यह बोध आ जाता है, भीतर टटोलने का, उसी दिन क्रांति घट जाती है।
वही क्रांति घटनी शुरू हो गई है। मैंने तुम्हारी झोली नहीं भरी। तुम्हारी झोली भरी ही हुई थी, सिर्फ तुम्हें झकझोरा, कि जगदीश, जरा जागो और देखो, व्यर्थ मांगने जा रहे हो उसे जो तुम्हें मिला ही हुआ है! तुमने सुनी। हजार को कहो तो एकाध सुनता है। और हजार सुनें तो एकाध मानता है। और हजार मानें तो एकाध उस मान्यता को कृत्य में रूपांतरित करता है। तुमने सुना, तुमने माना, तुमने उसे कृत्य में रूपांतरित किया। अचानक तुम्हें लगा कि मैं तो सोचता था झोली खाली है, भर दी गई! भरी नहीं गई है, भरी ही हुई थी।
परमात्मा ने प्रत्येक को सम्राट की तरह ही बनाया है। भिखारी परमात्मा बनाता ही नहीं, बना नहीं सकता। यह अस्तित्व सिर्फ सम्राटों को ही पैदा करता है, जिनकी सबकी क्षमताएं अनंत हैं। यहां बूंदों में सागर छिपाए गए हैं। यहां छोटे-छोटे आंगन में भी विराट आकाश समाया हुआ है। जरा देखने की आंख, जरा निखार, जरा सूझ, जरा दृष्टि पैनी--और भिखमंगापन समाप्त हो जाता है, करना नहीं पड़ता।
बिन मांगे सच्चे रत्नों से झोली भर दी
बिन चाहे मेरे जीवन में खुशियां भर दीं
और यह बात भी समझने जैसी है। यह क्रांति बिन मांगे ही होती है। क्योंकि मांगने वाला आदमी तो बाहर ही आंख गड़ाए रहता है। मांगने वाले की आंख तो उस पर गड़ी होती है जिससे वह मांग रहा है। स्वभावतः, अगर तुम किसी के द्वार पर दस्तक दिए हो और भिक्षा मांगने गए हो, तो तुम्हारी नजर तो उस आदमी पर होगी जो भिक्षा देने वाला है। तुम तो उसकी आंखों में टटोलोगे--दया, ममता, करुणा, थोड़ा कुछ सहारा मिल जाए। तुम अपने में थोड़े ही देखोगे!
भिखारी अपने में देखने की क्षमता नहीं जुटा सकता। उसे नजर तो दूसरे पर ही लगाए रखनी होगी। भिखारी अपने को भूल ही जाता है, दूसरे ही उसे दिखाई पड़ते हैं। तुम्हें वही दिखाई पड़ता है जो तुम मांगने चले हो और जिससे मांगने चले हो।
तुमने एक बात खयाल की? रास्ते से लोग गुजरते हैं, लेकिन हर आदमी अलग-अलग चीजें देखता है। चमार लोगों के जूते देखता है। चमार की पहचान ही लोगों से उनके जूतों से है। चमार जूते को ही देख कर तुम्हारा पूरा मनोविज्ञान समझ लेता है। जूते की खस्ता हालत बता देती है कि तुम्हारी जेब की हालत कैसी होगी। चुनाव जीते कि हारे इस बार--जूता बता देता है। दर्जी तुम्हारे कपड़े ही देखता है। जिसकी जो मांग है, वह वही देखता है। आंखें वहीं गड़ी रहती हैं। जूते वाला, जूता सुधारने वाला, जूता बेचने वाला बस लोगों के पैर ही देखता है, उनके चेहरे नहीं देखता। चेहरों से उसे क्या लेना-देना? चेहरे हों तो ठीक, न हों तो ठीक। जूतों से प्रयोजन है। वही उसे आकृष्ट करते हैं।
तुम अगर भूखे हो या तुमने उपवास किया है, तो रास्ते पर तुम्हें सिर्फ होटलें दिखाई पड़ेंगी, और कुछ दिखाई नहीं पड़ेगा। रास्ते पर तुम्हें सिर्फ भोजन की उड़ती हुई गंधें मालूम पड़ेंगी। लेकिन जिस दिन तुम्हारा पेट भरा है उस दिन ये होटलें और रेस्तरां तुम्हें दिखाई नहीं पड़ते। जब तुम्हारी जेब गरम है, तब तुम कुछ और चीजें देखते हो। जिसे हीरे खरीदने हैं, उसे हीरे की दूकानें दिखाई पड़ती हैं।
हमारी दृष्टि वहां जाती है, जिसकी हमारी मांग है।
हिंदू गुजर जाता है, उसको मस्जिद नहीं दिखाई पड़ती। मस्जिद के पास से गुजरता है, नहीं दिखाई पड़ती। मुसलमान गुजरता है, उसे दिखाई पड़ती है। हिंदू को मंदिर दिखाई पड़ता है। मुसलमान वहीं से गुजर जाता है, उसे मंदिर का कोई पता ही नहीं चलता। हम वही देखते हैं जिसकी हम तलाश करते हैं। और अपने पर नजर तो कैसे आए? तलाश तो हम अपनी कभी करते ही नहीं।
हां, जो अपनी तलाश करे, उसके लिए एक शर्त पूरी करनी पड़ती है--उसे चाह से अपने को मुक्त कर लेना होता है। क्योंकि चाह दूसरे से बांधती है। चाह का अर्थ ही होता है: मेरे और दूसरे के बीच सेतु। चाह एक सेतु है, जो मुझे दूसरों से जोड़ती है। जिस व्यक्ति को स्वयं को जानना है, उसे चाह के सारे सेतु तोड़ देने पड़ते हैं। उसे आंख भीतर लौटा लेनी होती है। उसे भीतर देखने की क्षमता और भीतर सुनने की क्षमता जुटानी पड़ती है। वही ध्यान है। और वह होना शुरू हो जाए, तो जीवन खुशियों से भर जाता है। इतनी खुशियों से, जिनकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। इतनी खुशियों से, जिनके तुम सपने भी देखना चाहो तो नहीं देख सकते। अनुभव ही नहीं है तो सपना कैसे देखोगे?
सपने भी तो हम उन्हीं बातों के देखते हैं, जिनका हमें अनुभव है। थोड़ा-बहुत हेर-फेर कर लेते होंगे, थोड़ा रंग-रोगन कर लेते होंगे, लेकिन सपने भी तुम उन्हीं बातों के देखते हो जिनका तुम्हें अनुभव है। जिसका अनुभव नहीं है, उसका तुम सपना भी नहीं देख सकते, उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। इसलिए तुम्हारे सपनों की जांच करके जाना जा सकता है कि तुम्हारी जिंदगी के अनुभव क्या हैं। मनोवैज्ञानिक तुम्हारे सपनों का विश्लेषण करते हैं ताकि तुम्हारे जीवन का अर्थ पता चल जाए। तुम्हारी रात तुम्हारे दिन का प्रतिफलन है। तुम्हारी रात तुम्हारे दिन की गूंज है।
अभी तो तुम कल्पना भी नहीं कर सकते कि कितनी खुशियों के तुम मालिक हो! कितनी खुशियां तुम्हारा स्वरूपसिद्ध अधिकार हैं! खुशियां ही खुशियां तुम पर बरस सकती हैं! मेघ तैयार हैं बरसने को। तुम लेने को तैयार नहीं। तुम भागे-भागे हो। तुम कभी उस जगह हो ही नहीं जहां मेघ बरसने को राजी हैं। तुम कहीं और हो--अतीत में, भविष्य में, मगर वर्तमान में कभी भी नहीं। और जो भी बरसता है, वह वर्तमान में बरसता है। परमात्मा वर्तमान में बरसता है।
परमात्मा का एक ही समय है: वर्तमान। और तुम्हारा, वर्तमान छोड़ कर सब है। अतीत भी तुम्हारा, भविष्य भी तुम्हारा, वर्तमान भर तुम्हारा नहीं है। वर्तमान में हो जाना ही तो ध्यान है। ऐसे जीना कि अतीत की छाया न हो, भविष्य की योजना न हो, तो फिर तुम्हारे भीतर कोई विचार न रह जाएंगे, तुम निर्विचार हो जाओगे। जहां वर्तमान ही है सिर्फ, वहां कैसे विचार? वहां एक अपूर्व शांति हो जाएगी। और उसी शांति में खुशियां बरस उठती हैं।
बिन मांगे...
तुम कहते हो:
...मेरे जीवन में खुशियां भर दीं
ये कैसे क्या कुछ हुआ, इसे कह दो भगवन
यह हुआ नहीं है--तुम इसे होने नहीं दे रहे थे। यह तो होना ही चाहता था। नदी तो सागर पहुंचना ही चाहती थी, तुमने बांध बना लिया था। वृक्ष तो फूल बनना ही चाहता था, लेकिन तुमने बीज की छाती पर पत्थर रख दिया था। जो होना था, वह तुम नहीं होने दे रहे थे।
आध्यात्मिक जीवन कोई उपलब्धि नहीं है। आध्यात्मिक जीवन सिर्फ बाधाएं न डालने का नाम है। इसे तुम ठीक से समझ लो। इसे मुझे फिर से दोहराने दो। आध्यात्मिक जीवन कोई नई उपलब्धि नहीं है। स्वरूप की अभिव्यक्ति है। जो है, उसी का पाना है। लेकिन हम उसे नहीं पा पा रहे हैं, क्योंकि हमने बहुत सी बाधाएं खड़ी कर दी हैं, हमने बहुत सी अड़चनें खड़ी कर दी हैं। आंख देख सकती है, मगर आंख पर पर्दा डाल रखा है।
हटाओ पर्दे! पर्दे हटते ही सब प्रकट हो जाएगा। जैसे अंधे आदमी की अचानक आंख खुल जाए, जगदीश, तो चकित हो जाएगा न! कहेगा कि एकदम रंग बरस उठे! एकदम रोशनी बरस उठी! यह कैसा चमत्कार कर दिया! अनहोनी थी जो बात, उसे होनी कर दी!
लेकिन जिसके पास आंखें हैं वह कहेगा कि अनहोनी नहीं थी, हो ही रही थी। वृक्ष हरे थे, गुलाब लाल थे, चांदत्तारों में रोशनी थी, सिर्फ तुम्हारी आंखें बंद थीं। जगत वही का वही है। अंतर अगर पड़ गया है थोड़ा सा तो तुममें पड़ गया है। और वह भी बहुत थोड़ा सा। बस पलक झपकने और खोलने की बात है। तुम अंधे भी नहीं हो, सिर्फ पलकें बंद किए बैठे हो।
तुम्हें शायद याद ही नहीं रही कि पलकें खोली जा सकती हैं। तुम्हें बचपन से ही पलकें बंद करना सिखाया गया है। तुम्हें शुतुरमुर्ग का तर्क सिखाया गया है। तुम्हें कहा गया है, जिंदगी में बड़ी कठिनाइयां हैं, बड़े दुख हैं, बड़े संकट हैं, बड़ी विपदाएं हैं। आंख बंद रखना, न दिखाई पड़ेंगे संकट, न दिखाई पड़ेंगी विपदाएं, न दिखाई पड़ेंगी कोई कठिनाइयां। और न दिखाई पड़ेंगी, तो शुतुरमुर्ग का तर्क यह है कि जो नहीं दिखाई पड़ता, वह नहीं है। इसलिए शुतुरमुर्ग अपने दुश्मन को देख कर अपने सिर को रेत में गड़ा लेता है। और जब दुश्मन दिखाई नहीं पड़ता, तो कहता है, जो दिखाई नहीं पड़ता, वह हो कैसे सकता है?
तुम शुतुरमुर्ग पर हंसना मत। वही तो सारे नास्तिकों का तर्क है--कि ईश्वर हो कैसे सकता है, दिखाई नहीं पड़ता! सब नास्तिक शुतुरमुर्ग हैं। और सब शुतुरमुर्ग नास्तिक हैं। नास्तिकता का आधारभूत दृष्टिकोण यही है कि जो नहीं दिखाई पड़ता, वह हो नहीं सकता। और मजा यह है कि तुम देखते हो नहीं। तुम्हें कोई दिखाए तो भी तुम आंख नहीं खोलते।
नवीनतम शोधें इस सत्य को प्रकट करती हैं कि मनुष्य केवल दो प्रतिशत घटनाओं को अपने भीतर आने देता है, अट्ठानबे प्रतिशत को बाहर रोक देता है। तुम सिर्फ दो प्रतिशत को देखते हो, अट्ठानबे प्रतिशत को नहीं देखते। तुम सिर्फ दो प्रतिशत को सुनते हो, अट्ठानबे प्रतिशत को नहीं सुनते। तुम सिर्फ दो प्रतिशत जीते हो, अट्ठानबे प्रतिशत नहीं जीते। तुम्हारी जिंदगी इसीलिए तो ऐसी कुनकुनी है। तुम्हारी जिंदगी में इसीलिए तो कोई त्वरा नहीं है, कोई तीव्रता नहीं है, कोई सघनता नहीं है। और बिना सघनता और तीव्रता के कैसे आनंद होगा?
खुशियां बरसीं, क्योंकि तुम राजी हो गए जगदीश, थोड़ी सी बाधाएं हटाने को। तुम आंख खोलने को राजी हो गए। महंगा मालूम पड़ता है लोगों को आंख खोलना। क्योंकि उन्होंने कुछ चीजें मान रखी हैं, वे डरते हैं कि आंख खोलें, कहीं ऐसा न हो कि वे चीजें हों न। लोग डरते हैं आंख खोलने में कि कहीं कुछ सपने खो न जाएं।
मुल्ला नसरुद्दीन एक रात बड़बड़ा रहा था। उसकी पत्नी उठ कर बैठ गई कि क्या बड़बड़ा रहा है? एकदम गिनती बोल रहा था--सत्तानबे, अट्ठानबे, निन्यानबे...और बड़ा बेचैन मालूम हो रहा था और करवटें बदल रहा था। पत्नी ने उसे झकझोर कर उठाया, सोचा कि कोई दुःस्वप्न देख रहा है। मुल्ला ने आंखें खोलीं और कहा कि सब नष्ट कर दिया। देवदूत खड़ा था सामने और वह कह रहा था, ले ले, कितना चाहिए? उसी से सौदा चल रहा था। पक्का कंजूस देवदूत था वह थी। मैं कहूं सत्तानबे, तो वह कहे छियानबे। मैं कहूं अट्ठानबे, तो वह बामुश्किल से सत्तानबे। मैं किसी तरह खींच-खींच कर सौ के पास ला रहा था--निन्यानबे से आगे बढ़ने को वह राजी नहीं था। और यह तूने क्या किया, बीच में उठा दिया? अब गड़बड़ मत करना। जल्दी से उसने आंख बंद कर लीं और बोला कि अच्छा, कहां हो? प्रकट हो जाओ! मगर अब कौन है वहां? और कौन प्रकट हो? मुल्ला ने कहा, अच्छा तो निन्यानबे ही ले लेंगे। चलो जाने दो, जिद्द मैं नहीं करता, छोड़ो जिद्द! चलो अट्ठानबे सही, सत्तानबे सही! मगर अब वहां कौन है? सपना टूट गया सो टूट गया। फिर दुबारा नहीं जोड़ा जा सकता।
लोग आंखें खोलने में डर रहे हैं। डर रहे हैं, क्योंकि उन्होंने कुछ सपने बसा रखे हैं। कोई सोचता है कि मकान बना लिया, सब कुछ बना लिया; पत्नी है, बच्चा है, सब कुछ है; पद है, प्रतिष्ठा है, सब कुछ है; लोगों में सम्मान है, आदर है, सब कुछ है; डरता है, कि कहीं आंख खोली और सचाई पता न चल जाए! कहीं ऐसा न हो कि जो लोग प्रशंसा करते हैं, पता चले कि वे ऊपर-ऊपर ही प्रशंसा करते हैं, पीछे गालियां देते हैं। आंख खुलेगी तो सब पता चल जाएगा।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन मुझसे बोला कि मैंने और मेरे मित्र ने तय किया कि जब हमारी मित्रता इतनी गहरी है, तो हम एक-दूसरे से कभी झूठ न बोलेंगे, सत्य ही बोलेंगे। इतनी तो मित्रता में क्षमता होनी चाहिए--प्रामाणिक होने की, सत्य होने की।
मैंने पूछा, फिर क्या हुआ?
मुल्ला ने कहा, फिर मत पूछो। आज बीस साल हो गए, बस एक ही दिन सत्य हम एक-दूसरे से बोले कि दोस्ती खत्म हो गई, बीस साल से बोलचाल बंद है।
इस दुनिया में ऊपर की बातें कुछ और हैं, भीतर की बातें कुछ और हैं। जो तुम्हारे सामने तुम्हारी प्रशंसा के पुल बांध जाता है, पक्का समझो कि तुम्हारे पीछे जाकर निंदा करेगा। उसे करनी ही पड़ेगी। उसके कारण हैं। उसने प्रशंसा करके जो कष्ट पाया है, उसका बदला लेगा। तुम्हारी प्रशंसा करने में उसे कोई बड़ी खुशी नहीं हो रही थी; उसके निहित स्वार्थ थे; वह कुछ तुमसे लेने आया था। तुमसे कुछ पाना चाहता था, बिना प्रशंसा के नहीं पा सकता था, तो मक्खन लगा रहा था। तो वह चमचागिरी कर रहा था। लेकिन पीड़ा तो उसे हो रही थी, उसके अहंकार को तो चोट लग रही थी कि किस बुद्धू को मैं बुद्धिमान कह रहा हूं! किस पाखंडी को चरित्रवान कह रहा हूं! किस अभद्र को भद्र कह रहा हूं! किस कंजूस को कृपालु कह रहा हूं! यह सब वह अनुभव कर रहा था। उसे कष्ट तो हो रहा था। और अपने अहंकार को भी चोट लग रही थी कि आज दुर्भाग्य का दिन कि किसी का चमचा होना पड़ रहा है! इसका बदला लेगा ही लेगा। पीठ पीछे लेगा। आज नहीं कल लेगा।
जो आदमी तुम्हारी प्रशंसा करे, उससे सावधान रहना। वह तुम्हारी निंदा करेगा ही। निंदा उसे करनी पड़ेगी, तभी उसके चित्त को शांति मिलेगी। तभी संतुलन हो सकेगा। तभी वह रात चैन से सो सकेगा। अगर उसने निंदा न की तो उसके ऊपर बड़ा बोझ रह जाएगा।
तो तुम डरते हो कि अगर आंख खोली...और आंख खोली तो आंख पारदर्शी हो जाती है। कोई प्रशंसा कर रहा है, तो प्रशंसा ही नहीं दिखाई पड़ती, उसके भीतर छिपी हुई निंदा भी दिखाई पड़ती है। कोई झूठ बोल रहा है, झूठ ही नहीं दिखाई पड़ता, उसके भीतर पड़ा हुआ सच भी दिखाई पड़ता है। आंख पारदर्शी हो जाती है। आर-पार देखने लगती है। लोगों के हृदय खुले हो जाते हैं, आंख के सामने हो जाते हैं। वे जो भीतर छिपाए हैं, उसे छिपा नहीं सकते। हर चीज झलकने लगती है।
इससे लोग आंख खोलने से डरते हैं, भयभीत होते हैं, कि अगर आंख खोली, और कहीं ऐसा न हो कि इतने भ्रम जो पाल रखे हैं, वे सब टूट जाएं? कहीं अपने पराए सिद्ध न हों? कहीं प्रशंसा निंदा न हो जाए? कहीं सम्मान अपमान न निकले? और यह जो घर बनाया और यह जो पत्नी है और ये जो बच्चे हैं, जिनको मैं सोचता हूं मेरे हैं, जिनके लिए मैं सब समर्पित कर रहा हूं, कहीं ऐसा न दिखाई पड़ जाए कि कौन किसका? यहां कौन किसका? कौन मेरा? कौन तेरा? आंख खोलते डर लगता है। अभी आंख बंद रखो। अभी और थोड़ी देर यह मीठा सा सपना चल रहा है, इसे देख लो।
सपनों के कारण लोग आंख नहीं खोल रहे हैं। जो व्यक्ति भी आंख खोलने को राजी हो जाए, वही संन्यासी है। जो कहे, जो भी हो, परिणाम चाहे कुछ भी हो, फल चाहे कैसा भी कड़वा आए, सत्य अगर कड़वा भी है तो भी वांछनीय है और झूठ अगर मीठा भी है तो भी वांछनीय नहीं है, क्योंकि झूठ आखिर झूठ है।
बुद्ध ने कहा है, झूठ पहले मीठा और फिर कड़वा होता है। और सत्य पहले कड़वा, फिर मीठा होता है।
कड़वाहट से लोग बच रहे हैं। सत्य की पीड़ा से बच रहे हैं। इसलिए आंखें बंद किए बैठे हैं। लाख उनसे कहो आंखें खोलो, आंख खोलते नहीं। कुछ तो इतने होशियार हैं कि आंख बंद किए-किए, आंख खोल ली हैं, इस बात के सपने देखने लगते हैं। आंख बंद किए-किए सपने देखने लगते हैं कि हां, खुली आंख, खोल ली आंख। इन्हीं को तुम तथाकथित धार्मिक लोग कहते हो।
जीवन उनका प्रमाण नहीं देता कि उनकी आंखें खुली हैं। क्योंकि जिसकी आंख खुली हो, उसे मंदिर और मस्जिद में भेद रहेगा? जिसकी आंख खुली हो, उसे राम और अल्लाह में भेद रहेगा? जिसकी आंख खुली हो, उसे गीता और कुरान में भेद रहेगा? जिसकी आंख खुली हो, उसे काले और गोरे में भेद रहेगा? जिसकी आंख खुल गई, उसके सारे भेद गिर गए। भेद ही आंख बंद होने के भेद हैं। आंख खुलते ही अभेद हो जाता है। आंख खुलते ही यह सारा अस्तित्व एक ही परमात्मा की अभिव्यक्ति हो जाता है।
तो बहुत लोग हैं जो सोचते हैं कि उन्होंने आंख खोल ली। आंख खोली नहीं है। तुमने कभी-कभी ऐसा सपना भी तो देखा होगा न, जिसमें तुम्हें लगता है तुम जग गए। जरा वैसे सपने याद करो। जरूर सभी को कभी न कभी ऐसा अनुभव हुआ होगा कि सपने में सपना देखा कि जग गए। सुबह पता चला कि वह जगना जगना नहीं था, वह तो सपने का ही एक ढंग था। सपने में भी सपने देखे जा सकते हैं। सपनों के भीतर सपने देखे जा सकते हैं। तुमने चीनी डिब्बे देखे न--डिब्बों के भीतर डिब्बे, डिब्बों के भीतर डिब्बे! वैसे ही सपनों के भीतर सपने और सपनों के भीतर सपने देखे जा सकते हैं।
तुम रात सोए और तुमने एक सपना देखा कि तुम घर लौटे हो दफ्तर से थके-मांदे...सपना देख रहे हो...कि घर लौटे हो दफ्तर से थके-मांदे, बिस्तर पर पड़ गए हो, सोने की तैयारी कर रहे हो। सो चुके हो, अब तुम सपना देख रहे हो सोने में कि सोने की तैयारी कर रहे हो, और तुम सो गए--यह दूसरे सपने में। और तुमने एक सपना देखा इसके भीतर कि तुम फिल्म देखने जा रहे हो और तुम एक फिल्म देख रहे हो।
तुम सपने के भीतर सपने देख सकते हो। चित्त बड़ा जटिल है। और सपने के भीतर जो सबसे अजीब सपना है और सबसे आश्चर्यजनक सपना है, वह है जागने का सपना। वह भी पैदा हो जाता है। मन कहता है, तुम जो चाहो, वही हम देने को राजी हैं।
तुम सपने का मनोवैज्ञानिक आधार समझते हो?
पहले तो लोग सोचते थे सदियों तक कि सपना नींद में बाधा है। अभी भी इस देश में लोग ऐसा ही सोचते हैं कि जिस दिन सपने आए, उस दिन नींद ठीक नहीं हुई। सपनों ने नींद में बड़ी बाधा डाली। मगर आधुनिक मनोवैज्ञानिक शोध कुछ उलटा ही नतीजा निकाली है। नतीजा आधुनिक शोध का यह है कि सपने नींद में बाधा नहीं हैं, सहयोगी हैं। बिना सपनों के तुम सो ही न सकोगे। सपना तो नींद की तरकीब है कि कहीं तुम जग न जाओ। सपना नींद का उपाय है तुम्हें सुलाए रखने का।
जैसे समझो, तुमने उपवास किया। एकादशी का व्रत आ गया और उपवास किया। अब रात भूख तो लगेगी ही। दिन भर ही लगी रही थी। किसी तरह दिन भर तो टालते रहे। यहां-वहां, राम-राम, भजन करते रहे। धर्म-प्रवचन सुनने चले गए, मंदिर में जाकर बैठ गए, पूजा की थाली सजा ली, किसी तरह अपने को उलझाए रखे। लेकिन रात क्या करोगे? सोते ही शरीर मांग करेगा, भूख लगी है। और अगर भूख लगी है तो नींद कैसे लग पाएगी? तो सपना एक रास्ता बनाएगा। सपना कहेगा, आज राजमहल में तुम्हारा निमंत्रण है। चले! बड़ा भोज हो रहा है। छत्तीसों प्रकार के व्यंजन बने हैं। भोजनों में से गंध आ रही है। एक से एक सुंदर भोजन, जो तुमने कभी नहीं किए हैं, जिनको तुमने सिर्फ कहानियों में पढ़ा है, वे सब उपलब्ध हैं। तुम डट कर भोजन कर रहे हो।
यह सपना तुम्हारी नींद को टूटने से बचा रहा है, नहीं तो भूख तुम्हारी नींद तोड़ दे।
सबको अनुभव होगा। रात सोए, जोर से तुम्हारे ब्लैडर पर दबाव पड़ना शुरू हुआ। जीवन-जल बाहर जाना चाहता है। अब उठो, नींद टूटेगी। अब बाथरूम जाओ, नींद में बाधा पड़ जाएगी। तत्क्षण नींद एक सपना पैदा करती है। नींद सपना पैदा करती है कि तुम उठ गए, बाथरूम गए, जीवन-जल से छुटकारा पा लिया, वापस आकर सो गए। यह सब सपने में हो रहा है। यह ब्लैडर को धोखा दिया जा रहा है। यह तुम रोज इस तरह के सपने देखते हो।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने दो साथियों के साथ हज-यात्रा को गया। तीनों बड़े पहुंचे फकीर। एक मामला ऐसा बना कि एक गांव में बहुत मांगा, भिक्षा तो मिली ही नहीं। जो थोड़े-बहुत पैसे थे, तीनों ने इकट्ठे करके हलुवा खरीदा। हलुवा इतना कम था और भूख इतनी ज्यादा थी कि एक का ही पेट भर सकता था। तीनों में विवाद छिड़ा कि कौन भोजन करे? तीनों ने सिद्ध करने की कोशिश की कि किसका जीवन जगत के लिए ज्यादा उपयोगी है। मगर कोई निर्णय न हो सका। तीनों अपना-अपना दावा कर रहे थे कि मेरे बिना जगत खाली हो जाएगा। मेरी फिर बड़ी जरूरत होगी दुनिया को। और मेरा स्थान कभी भरा न जा सकेगा। विवाद इतना बढ़ गया कि दिन भर तो ऐसा विवाद में गुजर गया। सांझ हो गई। भूख जैसे बढ़ती गई, वैसे विवाद भी बढ़ता गया। गाली-गलौज पर नौबत आ गई। मार-पीट पर नौबत आ गई। फिर आखिर तीनों ने कहा कि हम फकीर आदमी हैं, ज्ञानी आदमी हैं, मार-पीट करना शोभा नहीं देता हलुवा के पीछे! एक काम करो--मुल्ला नसरुद्दीन ने ही कहा--एक काम करो। हलुवे को सम्हाल कर रख दो, और हम तीनों सो जाएं। सुबह उठ कर जो बता सकेगा कि जिसने सबसे सुंदर सपना देखा--तीनों अपने-अपने सपने बता देना--जिसने सबसे सुंदर सपना देखा हो, सबसे धार्मिक, सबसे पुण्य का, वही हलुवे का मालिक हो जाएगा।
बात जंची। तीनों सो गए। तीनों ने खूब कल्पना की कि कौन सा सपना सुबह बताना है। क्योंकि सपने कोई ऐसे मनचाहे तो आते नहीं। चाहो कुछ, आते कुछ हैं। पुण्य के चाहो, पाप के आते हैं। तुम ईश्वर को देखना चाहो, ईश्वर तो दिखाई ही नहीं पड़ते, शैतान दिखाई पड़ते हैं।
खैर सपने का कोई सवाल न था, सुबह उठ कर तीनों ने कहा कि भाई, अपने-अपने सपने बोलो। अब तो भूख भी बहुत लग आई! और अब तो बस हलुवा ही हलुवा याद आ रहा है।
एक ने कहा कि मैंने सपना देखा कि स्वयं खिज्र...खिज्र सूफियों का मार्गदर्शक गुरु है; अदृश्य गुरु जो भटके हुए लोगों को मार्ग पर ले जाता है; जो पहुंचे हुए सिद्धों को भटकने नहीं देता, गिरने नहीं देता, सम्हाले रखता है। वह ऊंची से ऊंची बात है सूफियों में, खिज्र का दर्शन। तो उसने कहा, खिज्र का दर्शन हुआ। दर्शन ही नहीं हुआ, खिज्र ने एकदम गले से लगा लिया--आलिंगनबद्ध। अब इससे बड़ा और क्या हो सकता है! हलुवा कहां है?
दूसरे ने कहा कि रुको, यह कुछ भी नहीं है। क्योंकि मैंने देखा कि स्वयं परमात्मा...खिज्र-विज्र का हिसाब ही कहां है...स्वयं परमात्मा मुझे देखते ही एकदम सिंहासन से उठे और अपने सिंहासन पर पास में बिठाया। निकालो हलुवा कहां है?
नसरुद्दीन ने कहा, मेरा सपना भी सुनो। मुझे पता नहीं किसने आवाज दी--परमात्मा थे, खिज्र थे, कि शैतान था, कौन था मुझे कुछ पता नहीं--सपने में मैंने आवाज सुनी कि अरे उल्लू के पट्ठे, पड़ा-पड़ा क्या कर रहा है? हलुवा खा! सो मैं तो उठ कर हलुवा खा गया। क्योंकि आज्ञा का उल्लंघन...अब जिसने भी दी हो आज्ञा, मुझे कुछ पक्का पता नहीं। सपने में कौन चिल्लाया, कुछ मुझे पक्का पता नहीं। हलुवा अब नहीं है। वह तो पच भी चुका।
सपने भी तुम्हारी नींद को सम्हालते हैं। सपने भी तुम्हारी नींद के अनुषंग हैं। और बहुत सपने तुमने बना कर रखे हैं। कोई खिज्र को देख रहा है, कोई खुदा को देख रहा है, कोई आवाजें सुन रहा है कि हलुवा अभी खा! तुमसे अगर मैं कहूं: आंख खोलो! तो तुम कहोगे, जरा ठहरो। जरा हलुवा तो खा लेने दो! सपना ही सही, मगर कुछ तो है। ना-कुछ से तो कुछ ही भला।
लेकिन जगदीश, तुम राजी हुए; तुमने थोड़ी आंख खोलने की हिम्मत जुटाई; तो जो हुआ, वह सभी को हो सकता है। तो आज तुम कह सकते हो--अनहोनी थी जो बात, उसे होनी कर दी।
नहीं, अनहोनी नहीं थी। मेरे किए कुछ भी नहीं हो सकता। न तुम्हारे किए कुछ हो सकता है। हमारे किए तो सिर्फ बाधाएं पड़ सकती हैं। हम जो भी करेंगे, वह नकारात्मक है। हम नकारात्मक बाधाएं खड़ी न करें, तो परमात्मा स्वयं प्रत्येक को हाथ पकड़ कर ले चल रहा है। हम भर बीच-बीच में न आएं, तो परमात्मा मिला ही हुआ है। झोली भर जाएगी मोतियों से, खुशियां बरसेंगी। अमी बरसे, बिगसत कंवल! अमृत बरसेगा, तुम्हारे सहस्रार का कमल खुलेगा।
यह हो सकता है, जो सब बुद्धों को हुआ। तुम्हारी भी बांसुरी वैसी ही बज सकती है जैसी कृष्ण की बजी। और तुम्हारे पैर भी वैसे ही नाच सकते हैं जैसे मीरा के पैर नाचे। जो एक मनुष्य को हुआ है, वह सभी मनुष्यों को हो सकता है।
चिराग टिमटिमा रहा है, जुल्मतों की छाओं में
कि जैसे ताइरे-कफस घुटी-घुटी फजाओं में
दमागो-दिल के दरमियां रुके हुए से वलवले
कि जैसे बेड़ियां पड़ी हों गाजियों के पांओं में
नवेदे-मौसमे-बहार गुल-ब-गुल चमन-चमन
कि जैसे आशिकों का जिक्र वह भी गांवों-गांवों में
तरसत्तरस के मर रही हैं दिल ही दिल में हसरतें
कि जैसे बेगमाते-सीमतन हरमसराओं में
हवा में कोंपलों की भीनी-भीनी सरसराहटें
कि जैसे नोंक-झोंक हो रही हो अप्सराओं में
मिठास बन गई हैं यूं भी जिंदगी की तल्खियां
कि जैसे कैफे-सरमदी शबाब की खताओं में

आंख खुली हो तो यह संसार ही स्वर्ग है।
मिठास बन गई हैं यूं भी जिंदगी की तल्खियां
जिंदगी की कड़वाहटें भी मिठास बन जाती हैं और कांटे भी फूल और जहर भी अमृत।
मिठास बन गई हैं यूं भी जिंदगी की तल्खियां
कि जैसे कैफे-सरमदी शबाब की खताओं में
जीवन की साधारणता साधारणता नहीं है; सिर्फ हम आंख बंद किए हैं। अन्यथा यहां सभी कुछ असाधारण है। यहां का कंकड़-पत्थर भी कोहिनूर है। क्योंकि कंकड़-कंकड़ में परमात्मा समाया हुआ है--और कोहिनूर में क्या ज्यादा हो सकता है? यहां पत्ते-पत्ते पर उसके हस्ताक्षर हैं, और पक्षी-पक्षी के कंठ में उसका गीत है। जरा आंख खोलो! जरा कान खोलो! जरा हृदय खोलो! जरा द्वार दो! और अनहोना होना शुरू हो जाता है। शुरू-शुरू में अनहोना लगेगा, अंत में तो तुम पाओगे--कुछ उलटा ही पाओगे--अंत में तुम पाओगे कि संसार अनहोना था, हमारा अज्ञान अनहोना था, हमारा अंधकार अनहोना था, हमारी पीड़ा अनहोनी थी, हमारा नरक अनहोना था, नहीं होना था और हो गया था। और स्वर्ग तो हमारा स्वभाव है।


दूसरा प्रश्न: प्रार्थना कैसे और कब जन्मती है?

रूपेश! प्रार्थना के उतने ही रूप, जितने प्रार्थना करने वाले लोग। प्रार्थना की कोई बंधी-बंधाई रूपरेखा नहीं है। जैसे चमेली के फूल चमेली के फूल और गुलाब के फूल गुलाब के फूल, और चंपा के फूल चंपा के फूल। रंग भी अलग, ढंग भी अलग, गंध भी अलग, रूप भी अलग, सौंदर्य अलग। लेकिन एक बात समान है कि सभी फूल हैं, सभी खिले, सभी ने अपना आनंद लुटाया।
प्रार्थना के भी अनंत फूल खिलते हैं। मीरा की प्रार्थना और चैतन्य की प्रार्थना में उतना ही फर्क है जितना चंपा और चमेली में। जीसस की प्रार्थना और मोहम्मद की प्रार्थना में उतना ही अंतर है जितना कमल और गुलाब में। लेकिन फिर भी प्रार्थना का सार तो एक है।
तो दो बातें समझनी होंगी। एक तो प्रार्थना का सार, उसका अंतर्गर्भ; और एक प्रार्थना की अभिव्यक्ति। एक तो प्रार्थना का केंद्र और दूसरी प्रार्थना की परिधि।
परिधि तो भिन्न-भिन्न होंगी। यह जगत बहुत वैविध्यपूर्ण है। और अच्छा है कि वैविध्यपूर्ण है, अन्यथा बड़ा उबाने वाला होता। यहां एक ही जैसे फूल होते, एक ही जैसे लोग होते, एक ही जैसे वृक्ष होते, तो आत्महत्या करने के अतिरिक्त और कुछ भी न सूझता। अच्छे होते तो भी। समझो कि सभी रामचंद्र जी! लिए धनुष-बाण, चले जा रहे हैं! बहुत घबड़ाहट हो जाती। सच तो यह है कि बिना रावण के रामलीला भी न बनती। घूमते रहते रामचंद्र जी धनुष-बाण लिए और सीता मैया को साथ लिए! जब तक रावण न मिले, रामलीला न बने। और कब तक घूमोगे मंच पर? जनता भी कहेगी, अब घर जाएं, अब पर्दा गिराओ!
यहां राम उतने ही आवश्यक हैं, जितना रावण। नहीं तो राम की कथा में रस ही न रह जाए। यहां तारे उतने ही जरूरी हैं, जितना अंधेरा आकाश। नहीं तो तारे चमकें ही न। पृष्ठभूमि चाहिए। यहां वैविध्य है, विरोध है। और दोनों ही महत्वपूर्ण हैं।
तो पहली तो बात: भिन्न-भिन्न प्रार्थनाएं हैं। प्रार्थना के रंग अलग, ढंग अलग। इससे यह मत समझना कि प्रार्थनाओं की आत्मा अलग-अलग है। आत्मा अलग-अलग नहीं है, सिर्फ देह; सिर्फ आवेष्टन, सिर्फ परिधान। आत्मा तो एक है।
प्रार्थना की आत्मा है समर्पण। मैं नहीं हूं, तू है, ऐसा भाव प्रार्थना का प्राण है। फिर यह भाव कैसे प्रकट होगा, यह व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर होगा।
मीरा में नाच कर प्रकट होगा। मीरा नाच कर अपने को खो देगी। मैं नहीं हूं, तू है, इस बात की अभिव्यक्ति मीरा में नाच कर होगी। ऐसी नाचेगी, ऐसी नाचेगी, कि नर्तक खो जाए, नृत्य ही रह जाए।
बुद्ध में यही प्रार्थना नृत्य में पैदा नहीं होगी, शून्य में पैदा होगी। नाचना तो दूर, हिलना-डुलना भी नहीं होगा। बुद्ध तो पत्थर की, संगमरमर की प्रतिमा की भांति थिर--जरा भी नहीं अथिर, बिलकुल थिर बैठे होंगे। उनके भीतर भी वही प्रार्थना खुल रही है, लेकिन मौन, शांत, शून्य, नाचती हुई नहीं। इस प्रार्थना का नाम ध्यान। जब प्रार्थना शून्य होती है, गुनगुनाती नहीं, गीत नहीं गाती, तब ध्यान। और जब ध्यान गुनगुनाता है, गीत गाता है, तब प्रार्थना।
फिर प्रार्थना प्रार्थना में भी भेद होंगे। गाए जाने वाले गीत भी अलग-अलग होंगे। अलग-अलग भाषाएं हैं। अलग-अलग लोग हैं। अलग-अलग लोगों की संवेदनशीलताएं हैं। अगर किसी संगीतज्ञ को प्रार्थना का जन्म होगा, तो वह अपनी वीणा उठा लेगा। और क्या करेगा? छेड़ देगा वीणा को! अगर किसी चित्रकार को प्रार्थना पैदा होगी तो वह क्या करेगा? उठा लेगा अपनी तूलिका, फेंक देगा रंग कैनवस पर, उंडेल देगा रंग। अगर किसी कवि को प्रार्थना पैदा होगी, तो काव्य जन्मेगा। अलग-अलग लोगों की संवेदनशीलताएं हैं। तो उनकी अलग-अलग अभिव्यक्तियां होंगी।
तुम्हारी संवेदनशीलता पर निर्भर होगी तुम्हारी प्रार्थना। इसलिए मैं निरंतर कहता हूं, किसी और की प्रार्थना को मत उधार लेना। अन्यथा तुम आत्मघात कर लोगे। किसी दूसरे के अंधे अनुयायी मत बन जाना। सीखो सबसे, लेकिन करो वही जो तुम्हारा प्राण कहे। सुनो सबकी, गुनो सबकी, मगर जीओ वही जो तुम्हारा अंतर-भाव कहे। सदगुरुओं के पास उठो-बैठो, लेकिन नकलची मत बन जाना। नकलची बनने की आकांक्षा पैदा होती है। क्योंकि नकलची बनना बहुत साधारण होता है, सस्ता होता है। अपने प्राणों को जगाना तो जरा महंगा सौदा है। लेकिन किसी और के वस्त्र ओढ़ लेने तो बहुत आसान हैं।
सुनो, समझो, सीखो, सब जगह झुको, मगर एक बात कभी न भूले कि परमात्मा ने तुम्हें एक आत्मा दी है और तुम्हारी आत्मा में कुछ बीज छिपे हैं, उन्हें प्रकट होना है। पता नहीं जुही के हैं, कि चंपा के हैं, कि केवड़े के हैं। जब तक प्रकट न हो जाएंगे तब तक पता हो भी नहीं सकता। उनकी कोई भविष्यवाणी भी नहीं हो सकती, कि तुम नाचोगे, कि तुम गाओगे, कि तुम बिलकुल चुप हो जाओगे। मगर प्रार्थना का प्राण एक है--समर्पण। अस्तित्व के प्रति लीनता का भाव। अस्तित्व से मैं भिन्न नहीं हूं, एक हूं, इसकी प्रतीति। फिर वह प्रतीति तुम जैसी भी प्रकट करो, वैसी ही सुंदर।
पूछते हो तुम: "प्रार्थना कैसे और कब जन्मती है?'
प्रार्थना जन्मती है, जब तुम्हारा कर्ता का भाव खूब-खूब हार चुका होता है। जब तुम लड़े, जूझे और हर बार हारे। जब धारा तुम के विपरीत तैरे और हर बार टूटे। जब जीवन से लड़-लड़ कर तुम गिर जाते हो टूट कर, तब प्रार्थना जन्मती है। हारे को हरिनाम! हारना बिलकुल जरूरी है।
जो जीत ही रहा है, उसके जीवन में प्रार्थना पैदा नहीं होगी। क्योंकि उसको तो अकड़ पैदा होगी। वह तो कहेगा, मैं कुछ हूं! और जहां मैं है, वहां प्रार्थना नहीं है। टूटे मैं, इसकी कगारें बहती जाएं जीवन की धारा में, यह चट्टान मैं की क्षीण होते-होते रेत हो जाए। जिस दिन तुम अनुभव करोगे कि यह मेरे का भाव ही गलत है, इस मेरे-भाव से ही संघर्ष पैदा होता है, इस मेरे-भाव से ही मैं अस्तित्व से युद्ध में संलग्न हो गया हूं, जब कि अस्तित्व से आलिंगनबद्ध होना है, युद्ध में संलग्न नहीं; अस्तित्व से मैत्री साधनी है, हम अस्तित्व के हैं, अस्तित्व हमारा है; जिस दिन तुम्हें ऐसा अनुभव होगा, जिस दिन ऐसी विवशता, ऐसी मजबूरी तुम अनुभव करोगे कि अलग होना संभव नहीं है, अलग होना भ्रांति है, बस उसी दिन प्रार्थना का जन्म होगा।

मैं चाहता हूं--
बालों का पकना रुक जाए।
मैं चाहता हूं--
जवानी का ढलना रुक जाए।
लेकिन!
बाल पकेंगे ही।
जवानी ढलेगी ही।
मैं इसे रोक नहीं सकता
यहीं पर
पराजित हो जाता हूं।
संघर्ष
की प्रवृत्ति अपने आप में
लय हो जाती है।
तर्क का स्थान
प्रार्थना ले लेती है।

जब तुम जीवन को देखोगे, इसकी अनिवार्यता को देखोगे, इसकी अपरिहार्यता को देखोगे, और जब देखोगे कि मेरे किए कुछ भी नहीं होता--मैं गिर जाएगा। और जहां मैं गिरा, वहां प्रार्थना जन्मी।
तो एक तो प्रार्थना का जन्म होता है मैं की पराजय में, मैं की आत्यंतिक पराजय में। धन्यभागी हैं वे जिनका मैं पराजित हो जाता है। अभागे हैं वे जो छोटे-मोटे खिलौनों को जीत लेते हैं और समझते हैं कि जीत गए। किसी ने थोड़ा सा बैंक में धन इकट्ठा कर लिया है, वह अकड़ा फिरता है, उछला फिरता है; उसके पैर जमीन पर नहीं पड़ते। कोई किसी पद पर पहुंच गया है, जरा उसकी अकड़ देखो! दो दिन की अकड़ है। दो दिन भी टिक जाए तो बहुत है। मगर जब पद पर है तब उसकी अकड़ देखो! तब उसके अहंकार को बल मिल रहा है। ऐसे आदमी में प्रार्थना पैदा नहीं होती। कैसे होगी?
धन्यभागी हैं वे जिनके जीवन में इस तरह के खिलौने धोखा नहीं देते। जो जानते हैं कि खिलौने खिलौने हैं, सब पड़े रह जाएंगे। सब ठाट पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा। उन्हें पता है कि मौत आती है और जल्दी ही कारवां रवाना हो जाएगा। और यहां के पद और यहां का धन और प्रतिष्ठाएं, सब यहीं पड़ी रह जाएंगी। इनको बटोरने में जो मैं समय गंवा रहा हूं वह व्यर्थ ही जा रहा है। जिसे ऐसा दिखाई पड़ जाता है, वह बड़भागी प्रार्थना को उपलब्ध होता है।
और प्रार्थना है रहस्य का अनुभव। प्रार्थना तर्क नहीं है, विचार नहीं है; प्रार्थना भावना है। तर्क के पास उत्तर हैं, प्रश्न हैं, प्रश्नों में से उत्तर निकलते हैं, उत्तरों में से नये प्रश्न निकल आते हैं। तर्क प्रश्न और उत्तरों के बीच में उलझा रहता है। न तो कोई उत्तर अंतिम है, न कोई प्रश्न वस्तुतः सार्थक है। क्योंकि सार्थक प्रश्न वही है जो अंतिम उत्तर ले आए। लेकिन तर्क डोलता रहता है घड़ी के पेंडुलम की तरह उत्तरों और प्रश्नों के बीच में। खुद ही प्रश्न बनाता है, खुद ही उत्तर रचता है। हर उत्तर में नये प्रश्न खोज लेता है। हर प्रश्नों के नये उत्तर बना लेता है। एक पहेली है जो आदमी बैठ कर सुलझाता रहता है। यह कभी सुलझती नहीं। यह कभी सुलझेगी ही नहीं।
प्रार्थना विचार नहीं है। प्रार्थना न तो प्रश्न है और न उत्तर है। प्रार्थना तो प्रश्न और उत्तर का चुप हो जाना है। प्रार्थना अवाक अवस्था है। विस्मयविमुग्ध! जगत के रहस्य के सामने सिर्फ ठिठका खड़ा रह गया कोई। कुछ सूझा नहीं, सब सूझ-बूझ खो गई। बस वहीं प्रार्थना का जन्म है।

अज्ञात स्थल में डूबती
अनुगामिता किरणें
अभिसंधि से बचती हुई
अभिनव मिलन की ओर
बढ़ कर
गुम गईं
आलोक के इस
विलोपन के बाद
नीले आस्मां में
कुछ छितरे हुए
टुकड़े उभर आए
और उसमें रात भर
भटकने के बाद,
किसको क्या पता
यह
चांद बनजारा
किधर जाए!

नहीं कुछ पता है कि कहां से आए हैं, नहीं कुछ पता है कि कहां जाना है।
किसको क्या पता
यह
चांद बनजारा
किधर जाए!
जो जीवन को उसकी रहस्यमयता में स्वीकार कर लेते हैं। जो कहते हैं कोई उत्तर नहीं है जीवन का और न कोई प्रश्न है। जीवन है, और जीवन एक रहस्य है--समस्या नहीं, एक रहस्य। समस्या के समाधान होते हैं, रहस्य का कोई समाधान नहीं होता। जीवन कोई पहेली नहीं है कि जिसको हल किया जा सके। जीवन एक रहस्य है। जितना जानोगे, उतना गहन होता जाता है। जितना इसमें उतरोगे, उतना अथाह होता जाता है। जितना जानोगे, उतना कम जानोगे। जो पूरा-पूरा जान लेते हैं, वे कहते हैं कि हम कुछ जानते ही नहीं।
उपनिषद कहते हैं: जो कहे मैं जानता हूं, जानना कि नहीं जानता। और जो कहे कि मैं नहीं जानता, जानना कि जानता है।
सुकरात ने कहा है कि मैं एक ही बात जानता हूं कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं।
ऐसी घड़ी में प्रार्थना का जन्म होता है, ऐसे रहस्य की प्रतीति में--जहां सब ज्ञान व्यर्थ हो गया, जहां सारा कर्तृत्व व्यर्थ हो गया, जहां सारी अस्मिता, अहंकार गल गया--हारे को हरिनाम!


तीसरा प्रश्न: मैं ध्यान में गहरा जाना चाहता हूं। पर फिर डर लगता है कि पत्नी-बच्चों का क्या होगा? मेरे भय को हरें! मुझे आश्वस्त करें!

हरिप्रसाद! मरोगे या नहीं मरोगे? मरोगे, फिर पत्नी-बच्चों का क्या होगा? और ध्यान तो सिर्फ अहंकार की मृत्यु है, तुम्हारी तो नहीं। तुम तो रहोगे, तुम तो और भी सघन होकर रहोगे, तुम तो और भी गहन होकर रहोगे। हां, ध्यान में अहंकार चला जाएगा।
लेकिन क्या तुम सोचते हो, तुम्हारे अहंकार के कारण पत्नी-बच्चों को बहुत लाभ हो रहा है?
तुम्हारा अहंकार ही तो उनकी फांसी बना है! तुम्हारा अहंकार चला जाए तो तुम्हारी पत्नी और बच्चे आह्लादित होंगे--बड़े आह्लादित होंगे। पत्नी की गर्दन दबा रहे हो तुम। बच्चों की भी छाती पर सवार हो। अहंकार ऐसा करेगा ही। क्योंकि अहंकार सभी का शोषण करना चाहता है। अहंकार महा शोषक है। और अहंकार सभी का उपयोग करना चाहता है। सभी को साधन बना लेना चाहता है। और जब भी कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को साधन बनाता है, तो हिंसा होती है। फिर चाहे पति पत्नी को साधन बनाए, चाहे पत्नी पति को साधन बनाए, दोनों हालत में हिंसा होती है। क्योंकि जब भी किसी व्यक्ति को हम साधन बनाते हैं, तो हम उसकी गरिमा छीन लेते हैं। प्रत्येक व्यक्ति साध्य है, साधन नहीं। तुम्हारी पत्नी आत्मवान है, वस्तु नहीं कि तुम उसका उपयोग करो।
लेकिन लोगों ने पत्नियों को वस्तुएं बना लिया है। इस देश में तो लोग कहते ही हैं: स्त्री-संपत्ति। तुम जरा सोचते हो कि कैसे अपमानजनक शब्दों का उपयोग चल रहा है? पुरुष-संपत्ति कोई नहीं कहता। स्त्री-संपत्ति! और तुम्हारे बड़े-बड़े महात्मा भी यह दोहराते हैं। कन्यादान! पुत्रदान कोई नहीं कहता। जैसे लड़की न हुई, चीज-वस्तु हुई; दान कर दी--कन्यादान। और लोग सोचते हैं, महाकार्य कर रहे हैं, कन्यादान कर रहे हैं।
दान? आत्माओं के दान हो सकते हैं? स्त्री को संपदा कहते हो? स्त्री आत्मवान है उतनी ही, जितने तुम! लेकिन नहीं, सदियों-सदियों से पुरुष के अहंकार ने स्त्री की गर्दन में फांसी लगा रखी है। और इसका बदला स्त्री ने भी लिया है--छोड़ तो नहीं देगी। स्त्री के ढंग से लिया है। स्त्री के अपने ढंग हैं। उसके ढंग परोक्ष हैं, सूक्ष्म हैं।
अगर पुरुष को क्रोध आ जाए तो वह पत्नी को पीटता है, अगर पत्नी को क्रोध आ जाए तो वह खुद को पीटती है। मगर खयाल रखना, खुद को पीट कर वह तुम्हें इस बुरी तरह पीट देती है जितना कि तुम उसको पीट कर नहीं पीट पाते। पत्नी को क्रोध आ जाए तो रोती है। लेकिन उसके आंसू ज्यादा बड़े घाव करते हैं। वह तुम्हें गालियां दे देती तो शायद तुम सह लेते। उसके परोक्ष रास्ते हैं, स्त्रैण रास्ते हैं। वह बड़ी तरकीबों से तुम्हें बंधन में डालती है। स्वाभाविक, तुम बंधन में उसे डालोगे, तो वह तुम्हें बंधन में डालेगी। बंधन हमेशा पारस्परिक होता है।
मुसलमान सूफी फकीर जुन्नैद अपने शिष्यों के साथ एक गांव से गुजर रहा था। उसकी यह आदत थी--यह सूफियों का ढंग है--कि हर स्थिति में से कुछ शिक्षण निकाल लेना। एक आदमी गाय को बांध कर ले जा रहा था। जुन्नैद ने कहा, भाई, जरा रुक, मेरे शिष्यों को कुछ समझा लेने दे!
वह आदमी रुक गया। उसने सोचा कि हमको भी कुछ समझने मिलेगा। शिष्यों ने घेर लिया गाय को, उस आदमी को। जुन्नैद ने कहा कि देखो, शिष्यो, सुनो! इनमें कौन मालिक है और कौन गुलाम है? यह आदमी जो गाय के गले में रस्सी बांधे है, यह मालिक है? या यह गाय जिसके गले में रस्सी बंधी है, यह मालिक है?
शिष्यों ने कहा, यह भी आप खूब पूछते हैं! यह तो बात सीधी-साफ है। अंधे को भी दिखाई पड़ जाए। मालिक यह आदमी है। इसके हाथ में रस्सी है और गाय के गले में फंदा है।
जुन्नैद ने कहा, तो तुम पक्का कहते हो कि मालिक यह आदमी है?
उन्होंने कहा, हम पक्का कहते हैं।
तो जुन्नैद ने कहा, देखो! उसने कैंची निकाली, जो वह अपने झोले में रखे था, रस्सी काट दी। गाय भागी और मालिक गाय के पीछे भागा। तो उसने कहा, अब कौन मालिक है? अगर गाय गुलाम है तो आदमी के पीछे जाती। आदमी गुलाम है, इसलिए गाय के पीछे जा रहा है। रस्सी सिर्फ धोखा थी। मैंने रस्सी काट कर धोखा तोड़ दिया।
तुम सोचते हो तुमने किसी को गुलाम बना लिया। हो सकता है रस्सी तुम्हारे हाथ में हो। मगर कोई जुन्नैद अगर मिल जाए और रस्सी काट दे, तब तुम्हें पता चलेगा कि कौन किसके पीछे भागता है! तब पता चलेगा कि यह मालकियत एकतरफा नहीं थी, दोतरफा थी; यह गुलामी थी एकतरफा नहीं थी, दोतरफा थी। यह तलवार दुधारी है।
तुम बड़े परेशान हो रहे हो कि ध्यान करूंगा तो डर लगता है, पत्नी-बच्चों का क्या होगा?
लाभ ही लाभ होगा! अगर लाभ से तुम्हें डर लग रहा हो...तुम अगर शांत हो जाओगे तो कोई हानि होने वाली है पत्नी-बच्चों की? तुम जो शोरगुल मचाए रखते हो घर में, सोचते हो उससे बड़ा लाभ हो रहा है?
पत्नियां डरती हैं रविवार के दिन से। पति भी घर, बच्चे भी घर...बड़ा उपद्रव! और बच्चों को तो किसी तरह सम्हाल भी लो, पति को कैसे सम्हालो? और घर में है तो कुछ न कुछ खटर-पटर करेगा ही। ठीक चलती घड़ी को खोल कर सुधारने लगेगा। कि ठीक चलती कार का बोनट उघाड़ कर बैठ जाएगा। कुछ न कुछ करेगा ही। खाली तो बैठ नहीं सकता। जिंदगी भर करने की आदत है। दफ्तर में रोब-दाब बांधता है, घर में बांधेगा। हर चीज में भूल-चूक निकालेगा।
पत्नियां बड़ी प्रसन्न होती हैं, पति दफ्तर गए, पत्नियां निश्चिंत हो जाती हैं। सारा सिरदर्द गया। सारा उपद्रव गया। बच्चे स्कूल गए, फिर तो कहना ही क्या!
और तुम सोचते हो, बच्चे बहुत प्रसन्न होते हैं तुम्हारे घर में मौजूद रहने से? जोर से बोलो मत, डैडी घर में हैं! खेलो मत, डैडी घर में हैं! नाचो मत, डैडी घर में हैं!
तुम अगर शांत हो जाओगे, हरिप्रसाद, तो कोई हानि नहीं होने वाली। पत्नी प्रसन्न होगी, कि यह अच्छा हुआ, कि बैठे हैं आंख बंद किए। ऐसे ही बैठे रहो! बड़े सुंदर लगते हो! और बच्चे भी कहेंगे, यह बड़ा अच्छा हुआ कि अब शोरगुल मचाओ या कुछ भी करो, डैडी तो साक्षी हो गए। वे अब न कर्ता, न भोक्ता। वे तो सिर्फ बैठे देखते हैं। जो भी हो। परमात्मा जो करवाए। अब परमात्मा अगर बच्चों से ऊधम करवा रहा है तो वे ऊधम कर रहे हैं। अब तो वे लीला मानते हैं संसार को।
तुम नाहक चिंतित हो रहे हो!
तुम कह रहे हो कि मेरे भय को हरें!
नहीं लेकिन, कुछ भय जरूर होगा। नहीं तो तुमने पूछा नहीं होता। भय यही होगा कि अब तक तुमने अपने अहंकार से जो एक तरह की व्यवस्था बना रखी होगी पत्नी-बच्चों पर, परिवार पर, ध्यान में अहंकार गल जाएगा, फिर से तुम्हें नई व्यवस्था बनानी पड़ेगी। एक नई शैली जीवन की रचनी होगी। नये संबंध बनाने होंगे फिर से अपने बेटे से, अपनी बेटी से, अपनी पत्नी से, अपने भाई से, अपने मित्र से। और नये से लोग डरते हैं। पुराने के तो आदी हो गए हैं, आश्वस्त हो गए हैं। पुराना बार-बार दोहराने से एक तरह की कुशलता आ गई है। नये से लोग डरते हैं कि पता नहीं, नया करेंगे तो क्या होगा! क्या परिणाम होंगे?
घबड़ाओ मत! शांत होने से कभी दुष्परिणाम नहीं होते। कभी हुए नहीं। और अगर किसी को लगते हों दुष्परिणाम, तो वह जिम्मेवारी उसकी है, तुम्हें उसकी चिंता लेने की जरूरत नहीं है।
तुम्हारी हालत वैसी है जैसे एक आदमी बहुत दिन से बीमार पड़ा है। लकवा लग गया, बिस्तर पर पड़ा है। जब एक आदमी घर में लकवा लग जाए और बिस्तर पर पड़ जाए, तो उसके कारण पूरे घर की जीवन-व्यवस्था बदल जाती है, यह खयाल रखना। वह सारे घर का केंद्र हो जाता है। सब उसकी तीमारदारी करते हैं। सब उससे सहानुभूति रखते हैं। कोई उस पर क्रोध नहीं करता। वह अगर क्रोध भी करे तो लोग पी जाते हैं। क्योंकि बीमार है, अब उससे क्या कहना! वह अगर धंधा न करे तो कोई यह नहीं कहता कि तुम काहिल हो, सुस्त हो, आलसी हो, तामसी हो। वह अगर बिस्तर पर पड़ा रहे तो कोई निंदा नहीं करता। वह अगर देर से सोकर उठे तो कोई नहीं कहता कि ब्रह्ममुहूर्त में उठो। उस पर सबकी दया, सहानुभूति, समानुभूति होती है। सब उसकी सेवा में तत्पर होते हैं।
अब अचानक, समझो कि हरिप्रसाद तुम्हीं, ऐसे लकवा लगे पड़े घर में। और मैंने देखा कि लकवा वगैरह कुछ नहीं है, सिर्फ तुम धोखा खा गए हो। और मैंने तुमसे कान में कहा कि लकवा वगैरह कुछ भी नहीं है, तुम उठ आओ, तुम खड़े हो सकते हो।
तुम भयभीत होओगे। क्योंकि सारी व्यवस्था जो तुम्हारे लकवे के आस-पास निर्मित हो गई है, एकदम टूट जाएगी। तुम्हारे खड़े होते ही तुम्हारे प्रति जो सहानुभूति की धाराएं बह रही थीं, वे सब सूख जाएंगी। इतना ही नहीं, बल्कि लोग कहेंगे, अरे, तो इतने दिन तक तुम धोखा देते रहे? तो नाहक हमें परेशान किया? तो इतने दिन तक नाहक बिस्तर पर पड़े रहे? तो यह मानसिक बीमारी थी, असली बीमारी नहीं थी? और न मालूम कितनी दवाइयों के बिल सिर पर चढ़ गए! और दूसरे ही दिन पत्नी कहेगी कि अब बैठे घर में क्या कर रहे हो? अब कुछ करो-धरो! अब जाओ दुकान! और लोग तुम्हारी तरफ ऐसे देखेंगे जैसे तुम पागल हो। क्योंकि अब तक कैसे लकवे में पड़े रहे? इतनी भी बुद्धि नहीं है? झूठे ही लकवे में पड़े रहे?
तुम्हें डर लगेगा। और इतने दिनों के बाद अब फिर दुकान खोलना, फिर दुकान पर जाना, फिर वे झंझटें, फिर चिंताएं। मन करेगा कि यह आदमी कहां से मिल गया जो कहता है लकवा झूठ है? तुम तो चाहोगे कि कोई कहे कि यह लकवा बिलकुल सच है और यह कभी छूटने वाला नहीं, यह सदा रहेगा। तुम शांति से यहीं विश्राम करो, बस ऐसे ही रहो!
मैं यही तुमसे कह रहा हूं कि तुम्हारे चित्त की हजार-हजार बीमारियां, सब झूठ हैं। तुम्हारी कल्पित हैं। तुम्हारी निर्मित हैं। उनके कारण तुमने निश्चित ही एक खास तरह की जीवन-शैली, एक आचरण निर्मित कर लिया है। और आज अगर तुम उसे बदलोगे, तो जरूर थोड़ी अड़चन आने वाली है। मगर वह अड़चन उठाने जैसी है। बीमार पड़े रहना शुभ नहीं है। और झूठे बीमार!
मन बीमारी है, ध्यान स्वास्थ्य है। मन से बाहर जाओगे तो निश्चित बहुत चीजें बदलेंगी, यह बात पक्की है।
कल सांझ ही एक दंपति आस्ट्रेलिया से मुझे मिलने आया। दोनों संन्यासी हैं। दोनों जैसे-जैसे ध्यान में गहरे गए, मुश्किलें आईं। वही मुश्किलें जो हरिप्रसाद बता रहे हैं। और बड़ी मुश्किल जो आई वह यह आई कि दोनों का रस कामवासना में समाप्त हो गया। अब पति-पत्नी का संबंध, वह तो है ही कामवासना के लिए। असली आधार ही टूट गया। अब दोनों का रस ही नहीं है। दोनों मुझसे बोले, अब हम क्या करें? यह क्या हुआ? यह आपने क्या किया? यह आपने पहले क्यों नहीं बताया? अब हमें कामवासना में कोई रस ही नहीं है। तो कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम एक-दूसरे से ऊब गए हैं? न तो कोई खुशियों के बड़े पहाड़ आते, ऊंचाइयां आतीं, न दुखों की कोई घाटियां आतीं--कुछ भी नहीं आता। एकदम समतल जमीन, बिलकुल सुपर हाईवे पर चल रहे हैं! कोई झगड़ा नहीं, कोई झांसा नहीं।
खयाल रखना, जब झगड़ा-झांसा होता है, तो सुख भी आता है। क्योंकि जब झगड़ा-झांसा मिटता है, तो थोड़ी राहत मिलती है। अक्सर ऐसा हो जाता है, सांझ को पति-पत्नी लड़ेंगे, ताकि रात को प्रेम कर सकें। उलटा लगेगा तुम्हें। मगर जरा भी उलटा नहीं है, मनोविज्ञान इसके पूरे के पूरे समर्थन में है कि यही रास्ता है। पहले लड़ेंगे, जूझेंगे, बकवास करेंगे, एक-दूसरे की निंदा करेंगे, खंडन-मंडन करेंगे, नाराज होंगे, रूठेंगे। ये सब प्रक्रियाएं हैं। फिर इस सबका अंतिम फल यह होगा कि एक-दूसरे को प्रेम करेंगे, पश्चात्तापस्वरूप कि अब बहुत हो गया। अब थोड़ा, एक-दूसरे को थोड़ा फुसलाना जरूरी है, क्योंकि कल फिर जिंदगी जीनी है। सुबह से चाय की जरूरत पड़ेगी। और अगर पत्नी नाराज ही सो गई, तो सुबह चाय का पता नहीं चलेगा। सुबह से ही जूते खोजोगे अपने कि बाथरूम जाना है, स्लीपर। स्लीपर मिलेंगे ही नहीं। सब अस्तव्यस्त हो जाएगा। सुबह के पहले समझौता हो जाना जरूरी है। तुम देखते हो न, जब युद्ध होता है, तो युद्ध के बाद शांति आती है। हर दो युद्धों के बीच में शांति होती है। ऐसे ही हर दो कलह के बीच में प्रेम होता है। पति-पत्नी लड़ते ही रहते हैं और प्रेम भी करते रहते हैं।
इन दोनों की मुसीबत तुम समझो, हरिप्रसाद! न झगड़ा होता, और न ही कोई प्रेम की ऊंचाइयां उठतीं। कुछ होता ही नहीं है। घर में सन्नाटा हो गया है। दोनों ही ध्यानी हो गए। जब मौका मिलता है, दोनों ध्यान करते हैं। तो अब करना क्या है? बेचैन थे, परेशान थे। और भी परेशान थे, क्योंकि पश्चिम से आए हैं। पूरब में तो हमारी धारणाएं हजारों-हजारों सालों में बहुत गहराइयों तक गईं। आज भला हम भूल गए हों, आज हमें याद भी न रहा हो, लेकिन हमने बड़ी गहराइयां छुई हैं। इस देश के ऋषि-मुनि, जब कभी कोई नववधू, नवविवाहित युवक-युवती आशीर्वाद लेने आते थे, तो तुम्हें पता है क्या आशीर्वाद देते थे? आशीर्वाद देते थे नववधू को कि तेरे दस बेटे हों और ग्यारहवां बेटा अंततः तेरा पति हो जाए। अनूठा आशीर्वाद है! दुनिया में कहीं नहीं दिया गया। दिया भी नहीं जा सकता था, क्योंकि इतनी गहराई तक किसी ने खोज ही नहीं की। कि जिस दिन पति भी बेटे जैसा हो जाता है, उसी दिन समझना कि प्रेम अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचा। अपनी परम शुद्धि पर पहुंचा।
आस्ट्रेलिया से आए हुए युवक-युवती की तकलीफ तो समझ में आ सकती है। जब मैंने उन्हें कहा कि यह शुभ हुआ है; तुम अब भाई-बहन हो गए, पति-पत्नी नहीं रहे; तो उनके आनंद की सीमा न रही। एक-दूसरे से आलिंगनबद्ध हो गए। दोनों की आंख से आंसू बहने लगे। वे आंसू अपूर्व थे। यह उन्होंने सोचा भी नहीं था कि यह भी हो सकता है।
जैन पुराणों में महत्वपूर्ण कथा है कि सबसे पहले, शुरू-शुरू में, आदिकाल में मां के गर्भ से लड़का और लड़की साथ ही साथ पैदा होते थे। जोड़ा पैदा होता था। लड़का पति बन जाएगा बाद में, लड़की पत्नी बन जाएगी बाद में। भाई-बहन, जुड़वें, एक साथ पैदा होते थे। इसलिए भगिनी--भगिनी का अर्थ होता है बहन--अब तक भी पत्नी के अर्थ में प्रयोग किया जाता है। भगिनी का अर्थ तो बहन होता है। लेकिन अब भगिनी का अर्थ पत्नी होता है। जिन लोगों ने ये पुराण, यह कहानी, यह कल्पना गढ़ी होगी...यह कल्पना ही है, लेकिन इसमें बड़ा माधुर्य है; इसमें अर्थ है, बड़ा सत्य है।
असल में पति-पत्नी वे ही लोग हो सकते हैं, जिनके बीच भाई और बहन जैसा तारतम्य हो। जिनके बीच भाई और बहन जैसी लयबद्धता हो, वे ही लोग पति-पत्नी हो सकते हैं। शुरू से ही, किसी दिन अगर मनुष्य ने जीवन को फिर से वैज्ञानिक आधार दिए, तो हम इस बात की फिक्र करेंगे: वे ही लोग विवाहित हों, जिनके बीच भाई-बहन जैसा तारतम्य हो, जिनके बीच भाई-बहन जैसी संगीतबद्धता हो, लयबद्धता हो। तो प्रथम भी उन्हें भाई-बहन होना चाहिए और अंततः तो भाई-बहन हो ही जाना चाहिए। तो ही समझना कि दांपत्य पराकाष्ठा पर पहुंचा।
तो इस तरह की अड़चनें तो, हरिप्रसाद, निश्चित आएंगी। तुम ध्यान करोगे तो पत्नी धीरे-धीरे पत्नी की जगह बहन होने लगेगी। और अगर पत्नी ने भी ध्यान न किया तो झंझट भारी होने वाली है!
अक्सर ऐसा होता है, रोज मेरे अनुभव में यह आता है, हजारों लोगों पर प्रयोग करने के बाद मैं ऐसा कह रहा हूं कि अक्सर स्त्रियां पति को पशु की भांति समझती हैं, क्योंकि वह कामुक है, कामातुर है। स्त्रियां मुझसे आकर शिकायत करती हैं कि पति हमारे पीछे ही पड़े रहते हैं। हमें बिलकुल रस नहीं है अब कामवासना में। मगर क्या करें, पति की मांग है! पत्नियां ऐसे दिखाती हैं जैसे बड़ी पवित्र हैं। जैसे उनकी कोई मांग नहीं है। और शायद चेतन मन में उनके कोई मांग हो भी न। क्योंकि चेतन मन में सदियों से हमने स्त्रियों को समझाया है--पवित्रता, कुंआरापन। और स्त्रियां बहुत ही संवेदनशील हैं। सम्मोहित होने की उनकी क्षमता गहरी है। इसलिए सदियों से दोहराया है तो उनके मन में यह बात बैठ गई है कि कामवासना तो पशुता है।
तो हर स्त्री अपने पति को तो पशु मानती है। कहती भला हो कि हे पति परमात्मा, भीतर कुछ और जानती है कि तुम और परमात्मा! इसलिए पत्नी किसी ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे के पैर छू सकती है जाकर; कोई साधु-संन्यासी, कोई भी आ जाए आबा-बाबा, उसके पैर छू सकती है, मगर पति के पैर छूते वक्त वह जानती है कि यह मैं क्या कर रही हूं, एक औपचारिकता! क्योंकि इसकी पशुता का उसको पता है।
लेकिन एक मजे की घटना रोज-रोज यहां घटती है। जब पति ध्यान करने लगता है और धीरे-धीरे कामवासना में उसकी उत्सुकता नहीं रह जाती, तो पत्नियां एकदम कामातुर हो जाती हैं। वे ही पत्नियां, जो एकदम पवित्र होने का दंभ भर रही थीं, वे ही पत्नियां कामातुर हो जाती हैं। उनके ही पति आकर हमसे कहते हैं, अब हम बड़ी मुसीबत में पड़ गए हैं। पत्नी की मांग बहुत बढ़ गई है। पहले कभी नहीं थी। यह क्या हुआ? जब हमारी मांग थी, उसकी नहीं थी। अब हमारी कोई मांग नहीं है, उसकी मांग है।
यह मामला सीधा-साफ है। गणित का है, सौदे का है। पहले तुम्हारी मांग थी, तो पत्नी ऐसा टुकड़ा-टुकड़ा तुमको देती थी। हिलाओ पूंछ काफी, तो थोड़ा सा टुकड़ा देती थी। इसमें मालकियत थी उसकी। वह जानती थी: मैं तुमसे ऊपर, तुम नीचे। हिलाओ पूंछ काफी। कभी कहेगी, सिरदर्द है; कभी कहेगी, आज बहुत थक गई हूं; कभी कहेगी, आज बच्चे के दांत निकल रहे हैं, दिन भर में परेशान हो गई हूं--कभी कुछ, कभी कुछ। लेकिन जैसे ही पति की उत्सुकता कम होती है, वैसे ही उसे घबड़ाहट होती है--यह तो मेरी मालकियत जा रही है! वही तो उसकी मालकियत थी। वही तो उसका बल था। वही तो उसका आधिपत्य था। वही उसकी राजनीति थी।
पति उत्सुक नहीं रहा अब, घबड़ाहट पैदा हो जाती है। तो कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि पति अब बिलकुल ही अनुत्सुक हो जाए। अब पति पूंछ नहीं हिलाता, तो अब उसे डर लगता है। अब उसे घबड़ाहट होती है कि कहीं संबंध...अब तक जैसा था, मैं ऊपर, पति नीचे...यह तो बात बदली जा रही है--पति ऊपर। वह पति को ऊपर नहीं रहने देगी।
और फिर घबड़ाहट लगती है कि कहीं यह वैराग्य बढ़ते-बढ़ते कहीं पूर्ण वैराग्य न हो जाए। तो फिर मेरी साड़ियां और मेरे सारे गहने और मेरे आभूषणों का क्या होगा? वे तो वही पूंछ हिलाने वाले पति से ही मिल सकते थे। अब तो इसका कामवासना का रूप क्षीण होने लगा, तो उसी पर तो मेरा सारा दारोमदार था। स्त्रियां एकदम दीवानी हो जाती हैं। एकदम पागल की तरह पीछे पड़ जाती हैं।
और स्त्रियां अगर पीछे पड़ जाएं तो अड़चन तो होगी। जब तुम्हारा रस न रह जाए, तब स्त्रियां पीछे पड़ें, तो अड़चन होगी।
तो हरिप्रसाद, तुम्हारे भय को मैं समझ सकता हूं। कुछ तो भय सच है। तुम ध्यान करोगे, मेरा सुझाव यह है: अगर पत्नी को भी साथ में ध्यान में लगा सको तो अच्छा। अगर पत्नी को भी धीरे-धीरे ध्यान में उत्सुक करा सको तो अच्छा। तुम साथ-साथ बढ़ो तो अच्छा। तो अड़चन कम आएगी। और एक-दूसरे के सहयोगी बन जाओगे। और मैं तुमसे कहता हूं, जैसे घर-गृहस्थी की गाड़ी चलने में दो चाक चाहिए, अगर तुम्हारे ध्यान को भी दो चाक मिल सकें तो तुम्हारी गति बहुत होगी--अपूर्व होगी। इसलिए पत्नी को छोड़ कर ध्यान मत करो। पत्नी को समाहित कर लो।
और ध्यान जैसी बड़ी संपदा को लेने चले हो, अकेले ही जाओगे? जिसको प्रेम किया है, उसे साथ नहीं लोगे? अच्छा है उसे साथ ले लो। और मेरी अपनी अनुभूति यह है कि स्त्रियां ध्यान में सुगमता से उतर जाती हैं पुरुषों की बजाय। क्योंकि पुरुषों के अहंकार जरा ज्यादा मजबूत होते हैं। स्वभावतः, पुरुष का अहंकार। स्त्री कोमल होती है। स्त्री को समर्पण बहुत स्वाभाविक है। पुरुष को संघर्ष बहुत स्वाभाविक है। पुरुष लड़ने के लिए तैयार रहता है। बिना लड़े उसे लगता है मैं किसी काम का ही नहीं हूं। जिस दिन लड़ाई-झगड़ा न हो, वह चारों तरफ घूमता है, वह कहता है--आ बैल, मुझे सींग मार! वह किसी न किसी तरह की झंझट खड़ी करना चाहता है। वह किसी भी बात में से कुछ विवाद निकाल लेगा। लेकिन स्त्रियां सरलता से ध्यान में उतर सकती हैं।
जैविक शास्त्र के हिसाब से पुरुष में एक तरह का तिरछापन है; स्त्री में एक तरह की गोलाई है। स्त्री के भीतर जो परमाणु हैं, वे समतुल हैं। पुरुष के भीतर परमाणु समतुल नहीं हैं। ऐसा समझो कि चौबीस जीवाणु मां के पेट में पुरुष से आते हैं। और चौबीस जीवाणु मां के पेट से पुरुष के जीवाणुओं को मिलते हैं। अड़तालीस जीवाणुओं के मिलने से बच्ची पैदा होती है, लड़की पैदा होती है।
पुरुष के जीवाणु दो ढंग के होते हैं। एक जिनमें चौबीस कोश होते हैं और एक जिनमें तेईस कोश होते हैं। अगर तेईस कोश वाला जीवाणु जाकर स्त्री के चौबीस कोश वाले जीवाणु से मिलता है तो पुरुष का जन्म होता है। तो पुरुष में सैंतालीस जीवाणु होते हैं। एक पलड़ा थोड़ा भारी होता है, एक पलड़ा थोड़ा कम भारी होता है। एक तरफ तेईस, एक तरफ चौबीस। यह पुरुष का जैविक आधार है तिरछे-तिरछे होने का। पुरुष तिरछा-तिरछा चलता है, अकड़-अकड़ कर चलता है। और यही कारण है स्त्री के सौंदर्य का; उसमें एक समतुलता है। यही कारण है कि स्त्रियों में एक तरह की शांति दिखाई पड़ती है। उनके चेहरे पर एक तरह की सौम्यता दिखाई पड़ती है।
और यह कुछ सीखी हुई बात नहीं है। मां के पेट में भी, अनुभवी मां को, जिसको दो-चार बच्चे हो गए हों, उसे गर्भ में भी पता चलना शुरू हो जाता है कि लड़का है कि लड़की! क्योंकि लड़का टांगें मारेगा; सिर मारेगा...झंझटें शुरू करेगा! लड़की शांत पड़ी रहेगी।
छोटे बच्चे ही देखो! एक लड़की को बिठाल दो और एक लड़के को--एक ही उम्र के। और लड़का कुछ न कुछ उपद्रव करेगा। बिना उपद्रव के नहीं रह सकता। लड़की अपनी गुड़िया सजाएगी, दुल्हन बनाएगी, दूल्हा बनाएगी, विवाह रचाएगी। लड़का बैठा है खोल कर अपनी मोटर खिलौने को--वही वह बाद में भी करेगा; अभी से अभ्यास शुरू कर रहा है।
लड़के-लड़कियों के खिलौने तुम देखते? लड़के उत्सुक होते हैं--बंदूक, साइकिल, मोटर साइकिल, कार। लड़कियां इनमें उत्सुक नहीं होतीं। बंदूक? लड़कियों को अर्थहीन मालूम होता है। दोनों के खिलौने भिन्न, दोनों का उठना-बैठना भिन्न। स्त्री ज्यादा सुगमता से ध्यान में उतर सकती है।
आंकड़े भी यही हैं पूरे इतिहास के। महावीर के चालीस हजार संन्यासी थे। उनमें तीस हजार स्त्रियां और दस हजार पुरुष। यही अनुपात बुद्ध के संन्यासियों का था--तीन स्त्रियां और एक पुरुष। यही अनुपात मेरे पास घट रहा है--तीन स्त्रियां, एक पुरुष। इसके पीछे कुछ मनोवैज्ञानिक कारण हैं। स्त्री सुगमता से समर्पण कर सकती है, अहंकार को छोड़ सकती है।
तो अपनी स्त्री को भी, हरिप्रसाद, राजी करो। उसे भी लाओ। ऐसी संपदा को अकेले-अकेले ही पीओगे? जिसके साथ जीवन का गठबंधन बांधा है, उसे सब चीजों में भागीदार बनाओ। उसे अलग-थलग मत छोड़ दो!
मनुष्य-जाति धर्म से बहुत कुछ इसी कारण वंचित रह गई।
यहूदियों के सिनागॉग में स्त्रियां नहीं जा सकतीं। मस्जिदों में स्त्रियां नहीं जा सकतीं। सैकड़ों-हजारों साल से स्त्रियों के लिए वेद और उपनिषद पढ़ने की मनाही है। बुद्ध जैसा महाक्रांतिकारी भी, जब पहली दफा स्त्री उनसे दीक्षा लेने आई, तो बुद्ध ने कहा कि नहीं, स्त्रियों को मैं दीक्षा नहीं दूंगा। क्योंकि स्त्रियों के आने से उपद्रव शुरू होगा।
यह उपद्रव स्त्रियों के कारण शुरू होगा या बुद्ध को अपने भिक्षुओं पर संदेह है? सच्ची बात तो यह है कि भिक्षुओं पर संदेह है। बुद्ध को पता होगा कि ये भिक्षु सब बैठे हैं दबाए वासनाओं को। हैं सांड, बने बैठे हैं बैल। खतरा है! स्त्री क्या खतरा करने वाली थी?
लेकिन बुद्ध ने कहा कि नहीं, स्त्रियों को मैं संन्यास न दूंगा। बड़ी मुश्किल, बहुत बार, दस वर्षों तक निरंतर आवेदन करने पर बुद्ध ने स्त्रियों को संन्यास दिया। और जब संन्यास दिया तो अनुपात--तीन स्त्रियां और एक पुरुष। अनुपात वही हो गया फिर।
आज भी किसी मंदिर में जाकर देखो। संख्या तुम्हें तीन स्त्रियों की और एक पुरुष की मिलेगी। और वह पुरुष भी हो सकता है स्त्रियों के कारण वहां चला गया हो! कोई राम जी से या कृष्ण जी से कुछ लेना-देना न हो। मोहल्ले की किसी स्त्री में उत्सुकता हो। या हो सकता है अपनी पत्नी के पीछे चला गया हो। पत्नी-पिछलग्गू हो, कि जहां पत्नी जाए वहीं जाता हो। पुरुष के वहां होने के कारण कई हो सकते हैं। उसका कुछ पक्का नहीं है। क्योंकि पुरुष के लिए समर्पण स्वाभाविक नहीं है।
लेकिन हरिप्रसाद, तुम्हें समर्पण का भाव उठा, तुम ध्यान में गहरा जाना चाहते हो, अपनी पत्नी को भी समेटो! अपने बच्चों को भी लाओ! क्योंकि बच्चे तो और भी जल्दी ध्यान में उतर सकते हैं। अभी तो उनके चित्त पर व्यर्थ की बातें नहीं पड़ीं। अभी कूड़ा-करकट इकट्ठा नहीं हुआ। अभी तो दर्पण कोरा है।
मुझसे लोग पूछते हैं कि मैं छोटे-छोटे बच्चों को क्यों संन्यास दे देता हूं?
इसीलिए क्योंकि उनको संन्यास देना सुगमतम है। इसीलिए क्योंकि उनको तो अभी से अगर ध्यान में रस आ जाए तो तुम जिन परेशानियों से परेशान हो रहे हो, वे कभी परेशान न होंगे। बीमारी हो जाए, फिर उसका इलाज करने से बेहतर बीमारी को पहले ही रोक लेना है।
छोटे बच्चे अगर ध्यान में उत्सुक हो जाएं, तो बीमारी पहले ही रुक गई। बीमारी पैदा ही न होगी। तुम्हारी तो बहुत बीमारियां पैदा हो गई हैं। अब उसमें ध्यान की एकाध बूंदाबांदी पड़ती भी है तो कहां खो जाती है, पता नहीं चलता--इतना कचरा तुमने इकट्ठा कर रखा है! छोटे बच्चे कोरी स्लेट हैं। अभी उनके ऊपर अगर परमात्मा की छाप पड़ जाए, शांति की भनक पड़ जाए, उत्सव का रस आ जाए, अगर थोड़ी प्रतीति उन्हें होने लगे अदृश्य की, तो जितनी जल्दी अभी हो सकती है इतनी जल्दी फिर कभी नहीं होगी। जितनी देर हो गई उतनी मुश्किल हो गई।
अपने बच्चों को भी, हरिप्रसाद, लाओ। अपनी पत्नी को भी लाओ। और धीरे-धीरे उनको भी डुबाओ। सब डूबो। इकट्ठे डूबो। पूरा परिवार डूबे।
और मैं तो संन्यास ऐसा नहीं चाहता कि तुम जंगल भाग जाओ। मैं तो संन्यास ऐसा चाहता हूं कि तुम डूबो, तुम्हारा परिवार डूबे, सब डूबें। और तुम जहां हो, जैसे हो, वैसे ही डूबो। हां, अगर मेरे ध्यान करने से तुम घर छोड़ कर भाग जाओगे तो अड़चन होगी।
बहुत अड़चन हुई। बुद्ध-महावीर के कारण कितने लोगों ने घर छोड़ दिया! कोई हिसाब लगाए उस पीड़ा का, जो उतने लोगों के घर छोड़ने से हुई होगी! कोई ने हिसाब नहीं लगाया। जैन भी नहीं लगाएंगे, बौद्ध भी नहीं लगाएंगे, क्योंकि वह हिसाब लगाना तो उनके खिलाफ पड़ेगा। कितनी स्त्रियां विधवा हो गईं--पति के जिंदा रहते! कितने बच्चे अनाथ हो गए--बाप के जिंदा रहते!
और तुम जरा हिसाब तो लगाओ, उन पत्नियों ने फिर कैसे जीवन बिताया? किसी ने किसी के बर्तन मांजे होंगे। उन बच्चों ने क्या किया? कहीं भीख मांगी होगी। कौन जाने कितने भिक्षु जो हो गए, मुनि जो हो गए, उनकी स्त्रियां सिर्फ इसीलिए वेश्या हो गई होंगी कि उनके पास और कुछ उपाय न रहा होगा अपने जीवनयापन को चलाने का, जीवन अर्जन करने का!
तुमने भिक्षुओं का तो हिसाब रख लिया। लेकिन भिक्षुओं का जो परिणाम हुआ होगा!
एक आदमी भिक्षु हो तो कम से कम दस आदमी उससे प्रभावित होंगे। उसके पिता होंगे बूढ़े, उसकी मां होगी, हो सकता है विधवा बहन घर में हो, पत्नी हो, बच्चे हों, कम से कम एक आदमी से औसतन दस आदमी प्रभावित होंगे। और उन दस आदमियों की जिंदगी डांवाडोल हो जाएगी, अस्तव्यस्त हो जाएगी। उनका किसी ने कोई हिसाब नहीं लगाया। किसी न किसी दिन यह हिसाब लगाना होगा, ताकि इतिहास पूरा हो सके। उस दिन तुम थोड़े चिंता में पड़ोगे कि हम महावीर और बुद्ध को धन्यवाद दें या न दें? सोच-विचार करना पड़ेगा। माना कि कुछ लोगों के जीवन में उनके कारण ज्योति जली। मगर कितने लोगों के जीवन उनके कारण गहन अंधकार में पड़ गए!
इसलिए मेरा संन्यास तो बहुत भिन्न है। तुम्हें तोड़ता नहीं हूं, तुम्हें जोड़ता हूं। तुम्हारी पत्नी से तुम इतने कभी नहीं जुड़े थे, जितने तुम ध्यान से जुड़ोगे। क्योंकि वासना जोड़ थोड़े ही सकती है, वासना तो तोड़ती है। वासना तो शोषण है। ध्यान वासना को प्रेम बना देगा। और तब तुम जुड़ोगे।
बच्चों से तुम्हारा संबंध क्या है? महत्वाकांक्षा का है। बच्चों के कंधों पर बंदूक रख कर तुम अपनी गोलियां चलाना चाहते हो। तुम मैट्रिक में फेल हो गए थे, अब तुम चाहते हो बच्चा मैट्रिक में प्रथम श्रेणी में प्रथम आ जाए। तुम उसके कंधे पर बंदूक रख कर चलाने का मजा लेना चाहते हो। कम से कम इतना तो कह सको कि मेरा बेटा, देखते हो, प्रथम आया! तुम शिक्षित नहीं हो पाए तो तुम चाहते हो, तुम्हारा बच्चा स्नातक हो जाए विश्वविद्यालय का। किसी बड़े ओहदे पर पहुंच जाए। तुम धन नहीं कमा पाए, तुम्हारा बेटा कमा ले। मगर यह तो महत्वाकांक्षा है, जो तुम्हारा रोग है। अधूरा रह गया, उसको तुम बच्चे पर थोप रहे हो।
और उसी बच्चे को तुम आज्ञाकारी कहते हो जो तुम्हारी बीमारी को सिर-आंखों पर ले लेता है। जो कहता है, लाओ, आपकी सब बीमारी मैं ढोऊंगा, बिलकुल चिंता न करो। आप चले भी जाओगे तो कोई फिक्र न करो, आपकी लाश मैं ढोऊंगा। आपकी अरथी, सड़ी हुई अरथी मैं लिए फिरूंगा। आप घबड़ाओ मत, आप निश्चिंत जाओ। आपकी सब बीमारियां अक्षुण्ण रहेंगी। रत्ती भर हेर-फेर नहीं करूंगा। बढ़ती भला करूं, कमी नहीं होने दूंगा। उसको तुम आज्ञाकारी पुत्र कहते हो।
यह तो कोई संबंध नहीं है। ये तो झूठे संबंध हैं। संबंध तो एक ही होता है, प्रेम का। और प्रेम तब होता है जब अहंकार न हो। और प्रेम तब होता है जब ध्यान हो।
उतरो ध्यान में, हरिप्रसाद। कुछ अड़चनें भला हों, मगर अड़चनें कीमत की तरह हैं, चुकानी पड़ती हैं। चुनौती स्वीकार करो। मगर पूरे घर को डुबा लो!
तुमसे मैं एक अंतिम बात कहूं। पश्चिम में नवीनतम मनोविज्ञान की शोधें एक नतीजे पर पहुंची हैं कि जब भी घर में एक आदमी बीमार होता है, पागल होता है, विक्षिप्त होता है, तो उसका अकेला इलाज नहीं किया जा सकता। एक नई शोध है, वह कहती है कि अगर एक आदमी घर में पागल हो, तो उसका अकेला इलाज नहीं हो सकता। अगर उसका इलाज करना है तो उसके पूरे परिवार का इलाज करना होगा, तभी उसका इलाज हो सकता है। क्योंकि वह आदमी उस पूरे परिवार के संदर्भ में पागल हुआ है। पूरा परिवार ही विक्षिप्तता के कारण अपने भीतर लिए हुए है। वह जो आदमी एक पागल हो गया है, वह सबसे ज्यादा संवेदनशील था, कमजोर था, कोमल था। तो सारे घर का पागलपन उससे प्रकट हो गया है। वहां से बीमारी प्रकट हो गई। लेकिन उसकी बीमारी सीधी-सीधी ठीक नहीं की जा सकती। उसकी बीमारी अगर ठीक करनी है तो उसके पूरे परिवार की ही मनोचिकित्सा करनी जरूरी है।
इसलिए पश्चिम में अब पारिवारिक मनोचिकित्सा का जन्म हुआ है। एक आदमी बीमार, पूरे घर की चिकित्सा। और इसके परिणाम बड़े महत्वपूर्ण हुए हैं।
मैं यहां वही प्रयोग किसी और गहरे तल पर कर रहा हूं। एक व्यक्ति संन्यस्त हो, तो मैं चाहूंगा पूरा परिवार संन्यस्त हो। एक व्यक्ति ध्यान में डूबे, तो मैं चाहूंगा पूरा परिवार ध्यान में डूबे। तो तुम सब सहयोगी हो जाओगे। एक-दूसरे की तरंगें, एक-दूसरे की धारा तुम्हें बल देगी। अकेले शायद तुम इतनी ऊंचाई न पा सको, जितनी तुम पूरे परिवार के साथ पा सकते हो।
और फिर बच्चे-पत्नी के लिए ही कब तक सोचते रहोगे?
अवसाद सपनों पर करूं,
फरियाद अपनों पर करूं;
कितने दिनों के वास्ते?

विश्वास मैं अपना लिखूं,
उपहास मैं अपना लिखूं,
इतिहास मैं अपना लिखूं,
कितने दिनों के वास्ते?

अरमान मन की भूल है,
अभिमान मन की भूल है;
इस भूल को वरदान मैं
समझी, समझती ही रहूं!
कितने दिनों के वास्ते?

चार दिन की इस जिंदगी में इसे बहुत मूल्य मत दो। मूल्य तो उसे दो जो शाश्वत है। और शाश्वत से संबंध केवल ध्यान से ही हो सकता है।

प्राण रहते
चाहता हूं ओंठ पर नित गान रहते।

भाग्य का यह चक्र फिरता या न फिरता
नभ बरसता फूल अथवा गाज गिरता
जय-पराजय में अगर हम शीश उन्नत नष्ट शंका
वज्र पुष्प समान सहते!
प्राण रहते!
चाहता हूं ओंठ पर नित गान रहते।

कठिन क्षण में सहज गति होती हमारी
और धीरज मति नहीं खोती हमारी
प्रलय-पारावार वीचि-विलास होता
ढंग से पतवार चलती
जलधि-भर जलयान बहते!
प्राण रहते!
चाहता हूं ओंठ पर नित गान रहते।
लोग देते साथ अथवा छोड़ देते
किंतु हम नाता प्रलय से जोड़ लेते
हाथ मानो पकड़ कर तूफान का हम
बढ़ रही हर लहर को सोपान कहते!
प्राण रहते!
चाहता हूं ओंठ पर नित गान रहते।

तूफान तो आएंगे, सीढ़ियां बना लेना। कठिनाइयां आएंगी, चुनौतियां और सौभाग्य समझना। पत्थर मिलेंगे राह पर, अड़चन मत बनाना, सीढ़ी बना लेना।
जीवन तो यही है। इसी जीवन को कुछ लोग नरक में बदल लेते हैं--अगर उनका जीवन को देखने का ढंग नकारात्मक हो। और कुछ लोग स्वर्ग में बदल लेते हैं--अगर उनके जीवन को देखने का ढंग विधायक हो। कुछ लोग गुलाब की झाड़ी में कांटे ही गिनते रहते हैं और जिंदगी बीत जाती है। और कुछ लोग फूल चुन लेते हैं। हरिप्रसाद, कांटे मत गिनो, फूल चुनो!

आज इतना ही।



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