प्रेम—पंथ ऐसो कठिन-(प्रश्नोत्तर)-ओशो
दिनांक 10 अप्रेल सन् 1979,
ओशो आश्रम, कोरेगांव पार्क पूना।
प्रश्न-सार
1—परमात्मा मुझे कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता है। मैं
क्या करूं?
2--मैं संन्यास के लिए तैयार हूं। लेकिन यह कैसे
जानूं कि परमात्मा ने मुझे पुकारा ही है?
यह मेरा भ्रम भी तो हो सकता है!
3—कल आपने प्रवचन में नसरुद्दीन की कहानी
कही--कड़ाही के बच्चे होने वाली।
मैंने संजय को तपेली दी थी। तपेली मर गई, और बाद में छोटी-मोटी तपेलियां भी मर गईं। और अब फिर दिख रहा है कि
कड़ाहियों के बच्चे हो रहे हैं।
दो वर्ष पहले आपसे प्रश्न पूछा था, काफी दुख की छाया में था, आपने सूफी कहानी का संदेश
दिया था--यह भी गुजर जाएगा। बिलकुल वैसा ही हुआ है।
आपके अमूल्य सूत्र--वर्तमान में होने का और होश
को जीवन में उतारने का प्रयत्न करता रहता हूं। प्रश्न कुछ भी नहीं है, फिर भी आपसे कुछ सुनने की प्यास जरूर है!
4—मैं तो प्रकाश से अपरिचित हूं, बस अंधेरे को ही जानता हूं। फिर प्रकाश के नाम पर जो पाखंडों का जाल फैला
है, उससे भी डरता हूं। मुझे मार्ग दें, दृष्टि दें, प्रकाश दें!
5—मैं बच्चा था तो एक तरह की इच्छाएं मन में थीं।
जवान हुआ तो और ही तरह की इच्छाएं जन्मीं। अब बूढ़ा हो गया हूं, तो ईश्वर को पाने की इच्छा जन्मी है। कहीं यह भी तो बस समय का ही एक खेल
नहीं है? इस इच्छा में और अन्य इच्छाओं में क्या भेद है?
पहला प्रश्न: परमात्मा मुझे कहीं भी दिखाई नहीं
पड़ता है। मैं क्या करूं?
आनंद! आंखें खोलो। आंखें बंद किए देख रहे
हो, कान बंद किए सुन रहे हो, हृदय के द्वार बंद हैं--तो
परमात्मा दिखाई पड़ना असंभव है। आंख खुली हो तो रोशनी है। आंख के खुले होने में
रोशनी है। और आंख बंद हो, तो एक नहीं हजार सूरज ऊग जाएं तो
भी अंधेरा रहेगा, अमावस की रात रहेगी।
लेकिन यह तुम्हारी ही भूल नहीं है, यह करीब-करीब सभी की
भूल है। परमात्मा दिखाई न पड़े, तो लोग सोचते हैं, परमात्मा होगा नहीं, इसलिए दिखाई नहीं पड़ता। शायद ही
कोई विरला कभी सोचता है कि हो सकता है मेरी आंख बंद हो, इसलिए
परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। वैसे विरले एक न एक दिन परमात्मा को देखने में समर्थ हो
जाते हैं।
इसलिए पहला सूत्र और अंतिम सूत्र: परमात्मा की तलाश छोड़ो, आंखें कैसे खुलें, इसकी कीमिया सीखो।
दो तरह से आंखें खुलती हैं। या तो ध्यान से आंख खुलती है...और बड़े मजे
की बात है कि ध्यानी आंख बंद करके बैठ जाता है, बाहर की आंख बंद कर
लेता है। बाहर देखने वाली आंख परमात्मा को नहीं देख पाएगी, क्योंकि
परमात्मा तो तुम्हारे अंतरतम में छिपा बैठा है। उसे देखना हो तो बाहर देखने वाली
आंख बंद करनी होगी। बाहर देखने वाली आंख बंद होती है तो भीतर देखने वाली आंख खुलती
है। वही रोशनी जो बाहर भटक जाती है, छिटक जाती है, भीतर संगृहीत हो जाती है। उसी रोशनी के सघनीभूत होने पर तुम्हें अपना
अंतस्तल दिखाई पड़ता है।
परमात्मा कोई और नहीं है, तुम्हारे भीतर बैठा
हुआ द्रष्टा परमात्मा है। तुम्हारे भीतर बैठा हुआ साक्षी परमात्मा है। हां,
यह सच है कि जिसने भीतर परमात्मा को देख लिया, उसे फिर बाहर भी दिखाई पड़ने लगता है। जिसने अपने भीतर पहचान लिया, उसने सबके भीतर पहचान लिया। आदमियों की तो बात छोड़ दो, उसे पत्थरों और पहाड़ों में भी फिर उसके दर्शन होने लगते हैं। मगर पहला
दर्शन स्वयं के भीतर घटना चाहिए। लेकिन अक्सर लोग परमात्मा की खोज में ऐसे उलझ
जाते हैं कि आंख खोलने की याद ही नहीं उठती।
तो एक रास्ता है ध्यान, कि आंख खोल दे;
और एक रास्ता है प्रेम, कि आंख खोल दे। या तो
ध्यान में डूबो या प्रेम में डूबो। दो में से एक तुम्हारी निश्चित ही क्षमता है।
ऐसा होता ही नहीं, हुआ ही नहीं, होगा
ही नहीं कभी कि कोई व्यक्ति पैदा हो जिसमें इन दो में से एक क्षमता न हो। इस
दुनिया में पचास प्रतिशत लोग ध्यान से उपलब्ध होंगे और पचास प्रतिशत लोग प्रेम से
उपलब्ध होंगे। इस जगत में एक संतुलन है। जैसे पचास प्रतिशत स्त्रियां हैं और पचास
प्रतिशत पुरुष हैं। जैसे रात है और दिन है, और जैसे जन्म है
और मृत्यु है; जैसे हर चीज अपने विपरीत से तुली हुई है,
विपरीत सम्हाले हुए है, कोई चीज अकेली नहीं है,
ऐसे ही प्रेम और ध्यान है। प्रेम है स्त्रैण, ध्यान
है पौरुषिक।
इससे यह मत समझ लेना कि जो शारीरिक रूप से पुरुष हैं, वे ध्यान से ही उपलब्ध होंगे। यह बात शारीरिक नहीं है। बहुत पुरुष प्रेम
से उपलब्ध हुए हैं। यह बात आध्यात्मिक है। बहुत सी स्त्रियां ध्यान से उपलब्ध हुई
हैं। जैविक, शारीरिक हिसाब की बात नहीं कर रहा हूं। तुम्हारी
अंतरात्मा तक में यह भेद छाया हुआ है।
अपने को ठीक से समझने की कोशिश करो। दोनों प्रयोग करके देख लो! भजन
में, भाव में डूबो; गीत में, गान में डूबो; नाचो प्रेम में मस्त होकर। और अगर धुन
बंध जाए, सुर मिल जाए, रस बहने लगे,
तो समझना कि यही तुम्हारा मार्ग है।
तुम नाचो और रस न बहे, तुम गीत गाओ और गीत
ओंठों पर रह जाएं और प्राण उनसे संवादित न हों, संवेदित न
हों, तो समझ लेना कि प्रेम तुम्हारा मार्ग नहीं है। फिर
ध्यान में डूबो। फिर आंख बंद करो, फिर मात्र साक्षी रह जाओ।
अपनी श्वास के ही साक्षी रह जाओ। आती-जाती श्वास को देखते रहो। सुगमतम ध्यान की
प्रक्रिया है विपस्सना। श्वास भीतर आए, देखो--भीतर आई;
श्वास बाहर जाए, देखो--बाहर गई। धीरे-धीरे,
श्वास को देखते-देखते तुम्हें वह दिखाई पड़ने लगेगा जो देख रहा है।
और जिस दिन द्रष्टा के दर्शन होंगे, उस दिन परमात्मा का
अनुभव हो जाएगा।
प्रेम के जगत में नाचते-नाचते, गीत गाते-गाते जिस
दिन तुम डूब जाओगे और तुम्हारी अस्मिता खो जाएगी, तुम्हारा
अहंकार भाव खो जाएगा; नृत्य तो बचेगा, नर्तक
खो जाएगा, उस दिन तुम परमात्मा को जान लोगे।
हर कदम पे थी उसकी मंजिल लेक,
सर से सौदा-ए-जुस्तजू न गया।
वह तो जगह-जगह है, लेकिन तुम खोज की धुन में लगे
हो। तुम इतनी तेजी से खोजने में लगे हो, आनंद, कि तुम्हारी खोजने की व्यस्तता ही तुम्हें देखने नहीं दे रही है। तुम्हारी
खोज ही तुम्हें अंधा बनाए हुए है। तुम इतनी तेजी से दौड़ रहे हो कि उसके पास से
गुजर जाते हो और नहीं देख पाते। तुम देखने के लिए ऐसे आतुर हो कि वह सामने खड़ा
होता है, मगर तुम्हारी आतुरता ही तुम्हारे प्राणों पर छाई
रहती है और तुम उसे नहीं देख पाते।
यक जा अटक के रहता है दिल हमारा वर्ना,
सबमें वही हकीकत दिखलाई दे रही है।
हम अटक गए हैं कहीं। कोई धन में अटक गया है, कोई पद में अटक गया है, कोई ज्ञान में अटक गया है,
कोई त्याग में अटक गया है। हम कहीं अटक गए हैं। नहीं तो सभी
में--पत्थरों से लेकर चांदत्तारों तक--उस एक की ही हकीकत है। वह एक ही सत्य प्रकट
हो रहा है।
गुल व बुलबुल बहार में देखा,
एक तुझको हजार में देखा।
देखना आ जाए तो फूल-फूल में वही है, पत्ते-पत्ते में वही
है। पक्षियों के गीत में वही है। सन्नाटे में वही है, संगीत
में वही है। और एक उसकी झलक मिल जाए कि उसकी झलक में ही तुम रूपांतरित हो जाते हो;
तुम वही नहीं रह जाते जो तुम थे; नहा जाते हो
उसकी झलक में; झड़ जाती है धूल जन्मों-जन्मों की, बह जाता है कचरा जैसे बाढ़ में बह गया हो।
उसकी तर्जे-निगाह मत पूछो,
जी ही जाने है, आह मत पूछो।
और जिस दिन तुम देखोगे, तुम ही थोड़े ही देखोगे।
तुम देखोगे, वह भी देखेगा। दो आंखें चार आंखें हो जाएंगी।
अकेला आदमी ही थोड़े ही देखता है परमात्मा को! वह तो देख ही रहा है, तुम ही आंखें चुरा रहे हो। या कहीं उलझे हो, या कहीं
अटके हो, या आंखें बंद हैं, या गहरी
नींद में सोए हो, या सपनों में उलझे हो। वह तो तुम्हें देख
ही रहा है।
फ्रेड्रिक नीत्शे ने एक बहुत अदभुत बोधकथा लिखी है। एक पागल आदमी
पहाड़ों से उतरा और बीच बाजार में आकर हाथ में जलती हुई कंदील लिए भर दोपहर कुछ
खोजने लगा, दौड़ने लगा यहां-वहां। ढली हुई गाड़ियों के नीचे झांका,
वृक्षों के पीछे देखा, लोगों के आस-पास झांका,
जहां भीड़ थी बीच में घुस गया। लोगों ने पूछा, क्या
खोज रहे हो? क्या खो गया? और भर दोपहरी
में लालटेन!
वह आदमी पागल मालूम होता था। और उस पागल ने कहा कि मैं ईश्वर को खोज
रहा हूं।
लोग हंसने लगे। उन्होंने कहा, बहुत ईश्वर को खोजने
वाले देखे, यह भी तुमने खूब ढंग निकाला! किस ईश्वर को खोज
रहे हो? क्या ईश्वर खो गया है? क्या
ईश्वर कोई बच्चा है, जो मेले में अपने मां-बाप से बिछुड़ गया?
किस ईश्वर की बातें कर रहे हो? उसकी पहचान
क्या?
और उस पागल आदमी ने अपनी लालटेन जमीन पर पटक दी और उसने कहा, मालूम होता है तुम्हें अब तक खबर नहीं मिली। ईश्वर मर चुका है! मैं
तुम्हें उसकी खबर देने आया हूं।
किसी ने मजाक में ही पूछा कि ईश्वर मर कैसे गया?
तो उस पागल आदमी ने कहा, यह भी तुम्हें पता
नहीं है? तुम्हीं ने उसे मार डाला है और तुम्हें अभी तक उसकी
खबर नहीं! शायद खबर आने में देर लगेगी--दूर की खबर है, आते-आते
समय लगेगा। शायद मैं अपने समय के पहले आ गया हूं।
और तब भीड़ में से किसी ने पूछा, हमने उसे क्यों मार
डाला?
तो उस पागल आदमी ने कहा, उसे तुमने इसलिए मार
डाला कि वह तुम्हें सदा देखता था। और उसकी आंखें तुम पर गड़ी रहती थीं। और तुम
बेचैन होते गए। और तुम अपने को उससे छिपा न पाते थे। वह तुम्हारा साक्षी था,
गवाह था। तुम गवाह को बर्दाश्त न कर सके, तुम
उस शाश्वत साक्षी को बर्दाश्त न कर सके, इसलिए तुमने उसकी
हत्या कर दी।
यह बात नीत्शे ने बड़ी अदभुत कही--कि आदमी ने ईश्वर की हत्या कर दी है, क्योंकि ईश्वर आदमी का गवाह है। उसकी आंखें सदा तुम पर गड़ी हैं। अच्छा
नहीं लगता कि कोई आंखें सदा तुम पर गड़ाए रहे। मगर हजार आंखें हैं उसकी, चारों तरफ से वह तुम्हें देख रहा है। वही झांक रहा है चारों तरफ से। शायद
तुम उसे देखने से डरते हो; या इस बात से डरते हो कि कहीं वह
तुम्हें देख न रहा हो, इसलिए तुम आंखें बंद किए खड़े हो।
आंखें खोलो! परमात्मा प्रतिपल मौजूद है। और एक बार जरा सी भी आंख खोल
लोगे, जरा सी पलक, जरा सी झलक,
कि फिर न रुक सकोगे। फिर पकड़े गए; फिर उसके
प्रेम के जाल में पड़े।
मय में वो बात कहां जो तेरे दीदार में है,
जो गिरा फिर न कभी उसको सम्हलते देखा।
शराब में भी क्या रखा है, जो उसकी एक झलक में
है! जो उसके दीदार में है, जो उसके दृश्य में है, जो उसके दर्शन में है!
मय में वो बात कहां जो तेरे दीदार में है,
जो गिरा फिर न कभी उसको सम्हलते देखा।
जो एक बार गिरा सो गिरा, फिर कभी सम्हला नहीं।
जो एक बार बेहोश हुआ सो हुआ, फिर कभी होश में न आया। और उसकी
बेहोशी भी बड़ी अदभुत है, बड़ी विरोधाभासी है। क्योंकि जो उसके
साथ बेहोश हो गया, वह इस जगत में इतने होश से भर जाता है
जिसका हिसाब नहीं। और जिसने परमात्मा की बेहोशी नहीं जानी, वह
इस जगत में बेहोश है। ऐसा समझो, इस जगत में जो बेहोश है,
उसने अभी परमात्मा की बेहोशी नहीं जानी। और जिसने परमात्मा की
बेहोशी जान ली, वह इस जगत में समग्र होश से भर जाता है।
अमिय, हलाहल, मदभरे, श्वेत, श्याम, रतनार।
जियत, मरत, झुकि-झुकि परत, जेहि चितवत इक बार।।
उसकी आंखों में अमृत भी है और जहर भी। जहर तुम्हें मार डालेगा, जैसे तुम हो; और अमृत तुम्हें जिला देगा, जैसे तुम होने चाहिए। तेरी इन श्वेत, श्याम, रतनारी आंखों में विष और अमृत, दोनों का विचित्र
सम्मिश्रण हुआ है, क्योंकि जिसका एक बार भी इनसे संपर्क हो
जाता है, ये आंखें जिसे एक बार देख लेती हैं, वह एक अर्थ में तो मर जाता है और एक अर्थ में सदा के लिए जी जाता है।
अहंकार तो मर जाता है, शाश्वत जीवन अनुभव हो जाता है।
अमिय, हलाहल, मदभरे, श्वेत, श्याम, रतनार।
जियत, मरत, झुकि-झुकि परत, जेहि चितवत इक बार।।
मगर वह तो तुम्हें देखने को कब से, कब से खड़ा है।
तुम्हीं आंखें चुरा रहे हो। आनंद, यह मत पूछो कि परमात्मा
मुझे कहीं दिखाई नहीं पड़ता। यही पूछो कि मैं आंख कैसे खोलूं? मेरी आंखें बंद कैसे हैं? किन कारणों से मेरी आंखें
बंद हैं? मैंने कौन से पत्थर अपनी आंखों पर रख लिए हैं?
मैंने कौन से पर्दे अपनी आंखों पर डाल रखे हैं? बस, इतना ही पूछो। और उन पर्दों को हटाने का ही यहां
आयोजन है। संन्यास उन पर्दों को तोड़ने का ही नाम है। संन्यास उन पत्थरों को हटा
देने की ही प्रक्रिया है। पत्थर हट जाएं, पर्दे उखड़ जाएं,
तुम चकित हो जाओगे--जिसे तुम खोजते थे, उसे
खोजने की जरूरत ही न थी, वह सदा तुम्हारा पीछा कर रहा था।
तुम जहां गए, तुम्हारे साथ था। तुम्हारी छाया की तरह
तुम्हारे साथ था। कभी-कभी छाया भी साथ छोड़ देती है--जब तुम छाया में होते हो,
छाया साथ छोड़ देती है--मगर वह तुम्हारा कभी भी साथ नहीं छोड़ता। तुम
नरक जाओ तो नरक में तुम्हारे साथ है। तुम पाप करो तो पाप में तुम्हारे साथ है। तुम
पुण्य करो तो पुण्य में तुम्हारे साथ है। वह तुम्हारा साथ ही नहीं छोड़ सकता,
क्योंकि वह तुम्हारा आंतरिक स्वभाव है। छोड़ेगा भी तो कैसे?
परमात्मा को प्रश्न मत बनाओ। अपनी आंख को, अपने देखने के ढंग को, अपने हृदय को उघाड़ने की
प्रक्रिया को, इसे तुम अपनी समस्या बनाओ।
दरे-जानां पे अगर हसरते-सिज्दा है तुझे,
अर्श जिसके लिए झुक जाए वो सर पैदा कर।
अगर उस प्यारे की चौखट पर नतमस्तक होने की इच्छा है--
दरे-जानां पे अगर हसरते-सिज्दा है तुझे,
अर्श जिसके लिए झुक जाए वो सर पैदा कर।
अगर उस प्यारे की चौखट पर सिर झुकाना है तो एक ऐसा सिर पैदा करो कि
जिसके सामने आकाश झुक जाए। अगर उसे देखने की इच्छा है तो ऐसी आंखें पैदा करो कि वह
खुद तुम्हारे सामने आ जाए। अगर उसे अनुभव करना है तो ऐसी संवेदनशीलता जगाओ कि वह
खुद लालायित हो उठे, तुम्हारे हृदय के साथ एक होने के लिए आंदोलित हो उठे।
दरे-जानां पे अगर हसरते-सिज्दा है तुझे,
अर्श जिसके लिए झुक जाए वो सर पैदा कर।
क्या हुआ गर तेरी रातें रहीं बेगानाए-ख्वाब,
हुस्न बेदार हो जिससे वो सहर पैदा कर।
फिकर न करें, चिंता न करें, कि अगर रातें
स्वप्नरहित रहीं और तुम्हें कोई मधुर स्वप्न न आए--
क्या हुआ गर तेरी रातें रहीं बेगानाए-ख्वाब,
हुस्न बेदार हो जिससे वो सहर पैदा कर।
ऐसी सुबह पैदा करो कि सौंदर्य स्वयं तुम पर बरसने को आतुर हो उठे।
फलके-इश्क के टूटे हुए तारों की कसम,
इक नई अंजुमने-शम्सो-कमर पैदा कर।
एक नया आकाश, नये सूर्य, नये तारे, नये नक्षत्र पैदा करने होंगे--तुम्हारे भीतर! देखने की दृष्टि, अनुभव करने वाला हृदय, प्रेम से भरी आंखें, कि ध्यान में जगा हुआ बोध--ये तारे, ये नक्षत्र,
ये सूरज तुम्हारे भीतर पैदा करने होंगे। फिर परमात्मा ही परमात्मा
है। तुम बचना भी चाहो तो न बच सकोगे। तुम कितने ही भागो तो भाग न सकोगे। क्योंकि
वही है, केवल वही है।
पर लोग अक्सर परमात्मा के संबंध में पूछते हैं, अपनी आंख के संबंध में नहीं पूछते। वहीं प्रश्न गलत हो जाता है। वहीं
भ्रांति हो जाती है। अंधा आदमी प्रकाश के संबंध में पूछे, बस
भूल हो गई। अंधे आदमी को पूछना चाहिए: मेरी आंख का उपचार कैसे हो? मेरी आंख की जाली कैसे कटे? अंधा आदमी इंद्रधनुषों
के संबंध में पूछे, बस मुश्किल में पड़ेगा। रंगों के संबंध
में पूछेगा, मुश्किल में पड़ेगा। और तब अंधे आदमी के पास एक
ही उपाय है सांत्वना का कि वह कह दे कि न कोई रंग होते हैं, न
कोई प्रकाश होता है। ताकि झंझट मिटे; ताकि यह व्यर्थ का
ऊहापोह मिटे।
इसलिए अनेक-अनेक लोगों ने इनकार कर दिया है कि ईश्वर है। क्योंकि अगर
ईश्वर है, तो फिर आंख खोलने की झंझट लेनी पड़ेगी। अगर ईश्वर है,
तो फिर हृदय के द्वार खोलने की तैयारी दिखानी पड़ेगी। उतना साहस नहीं
है। नास्तिक कायरता का आवरण है। नास्तिकता अपने भीतर की कायरता को छिपाने का बड़ा
सुंदर उपाय है, बड़ा सुंदर तर्क है।
और ध्यान रखना, जब मैं नास्तिक को कायर कह रहा हूं, तो तुम यह मत समझ लेना कि तुम मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारा जाने वाले आस्तिक
हो तो तुम कायर नहीं, बड़े बहादुर हो! तुम्हारी आस्तिकता भी
कायरता है। तुम डर के कारण आस्तिक हो। और कोई डर के कारण नास्तिक है। एक ने डर के
कारण इनकार कर दिया है कि ईश्वर है ही नहीं। न होगा बांस न बजेगी बांसुरी, झंझट मिटी। अब न खोजने की बात रही, न तलाशने की बात
रही। अब निश्चिंत होकर अपनी दुकान करें, धन कमाएं, पद कमाएं, इतनी सी जिंदगी है, खा
लें, पी लें, मौज कर लें! यह ईश्वर की
जो महत चिंता पकड़ती थी, उसको समाप्त कर दिया--एक सीधी सी बात
से कि ईश्वर है ही नहीं।
और दूसरी तरफ तथाकथित आस्तिक हैं, उन्होंने चुपचाप
ईश्वर को स्वीकार कर लिया--बिना खोजे, बिना देखे। उन्होंने
भी आंख नहीं खोली है; उन्हें भी पता नहीं है; उन्होंने कहा--होगा ही जी, कौन झंझट में पड़े! है तो
ठीक, कभी मंदिर हो आएंगे, रविवार को
चर्च हो आएंगे, कभी सिर पटक लेंगे किसी मूर्ति पर, दो फूल चढ़ा देंगे, झंझट मिटी!
आस्तिकों ने भी अपने ढंग से झंझट मिटा ली है और नास्तिकों ने अपने ढंग
से झंझट मिटा ली है--दोनों कायर हैं।
धार्मिक आदमी न आस्तिक होता, न नास्तिक होता।
धार्मिक आदमी तो अपनी आंखों की तलाश में लगा हुआ, एक
महायात्रा पर निकला हुआ यात्री होता है।
मैं तुम्हें चाहता हूं कि तुम धार्मिक बनो--न आस्तिक, न नास्तिक। भय के कारण न इनकार करना, न स्वीकार। जब
तक जान न लो, तब तक कहना--मुझे पता नहीं, मैं अज्ञानी हूं। जब जान लो, तभी मानना। उसके पहले
मानना ही मत। और जब मैं कहता हूं, मानना मत, तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि इनकार करना। क्योंकि इनकार करना भी मानना
है। कोई मानता है ईश्वर है, कोई मानता है ईश्वर नहीं है। ये
दोनों मान्यताएं हैं, ये दोनों विश्वास हैं। और दोनों अंधे
आदमियों के हैं। जानने वाला न तो मानता है, विश्वास करता है,
न अविश्वास करता है। जानने वाला तो जानता है। अब विश्वास कैसे करे?
अब अविश्वास कैसे करे? जानने वाला तो पीता है,
जीता है।
ईश्वर को जीया जा सकता है। और ईश्वर को जीया जाए तो ही जीवन में कुछ
अर्थ है। पर उसकी तैयारी करनी होगी, पात्र को निखारना
होगा।
मत पूछो कि परमात्मा कहां है! मत पूछो कि परमात्मा है या नहीं! इतना
ही पूछो कि मेरी आंख कैसे खुलें?
और दो प्रयोग हैं: ध्यान का और प्रेम का--दोनों को कर गुजरो! जो रुच
जाए, जो तुम्हारे हृदय में समा जाए, जिससे
तुम्हारा तालमेल बैठ जाए, उसे चुन लो और सब दांव पर लगा दो।
तुम निश्चित जानोगे। ऐसे ही जाना गया है। ऐसे ही जाना जाता रहा है। ऐसे ही जाना जा
सकता है।
दूसरा प्रश्न: मैं संन्यास के लिए तैयार हूं।
लेकिन यह कैसे जानूं कि परमात्मा ने मुझे पुकारा ही है? यह मेरा भ्रम भी तो हो सकता है!
हरिभजन! इस प्रश्न में
छुपे अहंकार को देखोगे--कि परमात्मा तुम्हें जब पुकारे तब तुम संन्यास लोगे!
संन्यास तो परमात्मा को पुकारना है। तुम परमात्मा को पुकारो! या कि प्रतीक्षा कर
रहे हो कि परमात्मा तुम्हें पुकारे? हालांकि मैंने कहा है
कि तुम पुकारो, उसके पहले परमात्मा तुम्हें पुकारता है।
परमात्मा तो पुकारता ही रहा है, अहर्निश। परमात्मा तो पुकार
का ही एक नाम है। यह सारा अस्तित्व पुकार रहा है कि आओ, लौट
आओ! अपने घर लौट आओ! कहां दूर निकल गए? कैसे भटक गए? वृक्ष तुमसे ज्यादा आनंदित हैं। पशु-पक्षी तुमसे ज्यादा आनंदित हैं। यह
सारा अस्तित्व महोत्सव में लीन है। एक आदमी ही भटका, उदास,
विषाद से भरा, चिंतित, संतापग्रस्त
मालूम होता है। यह सारा अस्तित्व कह रहा है: लौट आओ, वापस आ
जाओ, यह उत्सव तुम्हारा भी है, ऐसे ही
फूल तुम में भी खिलेंगे, ऐसी ही हरियाली तुम में भी होगी,
ऐसा ही रस तुम में भी बहेगा। परमात्मा तो पुकार ही रहा है।
लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि तुम पहले यह निश्चय कर लो कि परमात्मा
ने पुकारा है या नहीं, इसकी गारंटी हो जाए, तब तुम
संन्यास लोगे! गारंटी कौन देगा?
और यह आकांक्षा क्या शुभ है? इतना ही काफी है कि
तुम परमात्मा को पुकारो। या कि तुम चाहते हो परमात्मा तुम्हें पुकारे? अहंकार बड़े सूक्ष्म रास्ते खोजता है। अहंकार कहता है, जब तक वह मुझे नहीं पुकारेगा, तब तक मैं कैसे
संन्यास लूं?
मुझसे आकर लोग पूछते हैं कि हम संन्यास तो लें, आपने हमें पुकारा है?
जिम्मेवारी मेरी होनी चाहिए। तुम संन्यास भी लोगे, तो भी समर्पण नहीं होगा। परमात्मा ने पुकारा है, इसलिए
आए हैं। तुम परमात्मा से भी चाहते हो निमंत्रण-पत्र पहले मिल जाए, तो तुम जाओगे। बिना बुलाए तुम परमात्मा के द्वार पर भी नहीं जाओगे?
ऐसा अहंकार! तो, हरिभजन, सदा ही चूकते रहोगे।
सच-सच बताना
तुमने दी मुझको आवाज
या कि
महज यह मेरा एक भ्रम था?
प्रवंचना के वन से गुजरती हवाएं
बहुत पास आकर
देती हैं
संकेती सीटियां,
चौकन्ने हो-हो कर भागने लग जाते हैं
मृगछौने लंगड़ी इच्छाओं के--
कीलित पथ,
तन श्लथ
खंडहर आस्थाओं का ढोते
सलीब सा
बेचारे मृगछौने जाएं तो कहां जाएं
कस्तूरी मृग को हमने देखा तो कभी नहीं
जीते जरूर रहे।
नाम उसे कुछ भी दे लो
तलाश या भटकन;
शब्दों का बेमानी इंद्रजाल
रच डालो चाहो तो।
सच का हमें पता है
कि अपनी ही खोज हम न कर पाए जीवन भर।
थके-थके
क्षण पर क्षण रीते गए
और
उस रीतने में
रीतने का नियम अधिक
मकसद बहुत कम था
किसी निर्जन पोखर की
काली चट्टानों पर
जमी हुई काई में
फिसल-फिसल बिखरती,
किनारे पर पहुंच कर
टूट-टूट जाती हुई
लगातार लहरों के अर्थहीन क्रम सा
और कुछ भी नहीं,
लगता है,
अपना ही पराजित अहम था!
सच-सच बताना
कि तुमने दी मुझको आवाज
या कि
महज यह मेरा एक भ्रम था?
आदमी पक्का कर लेना चाहता है।
सच-सच बताना
तुमने दी मुझको आवाज
या कि
महज यह मेरा एक भ्रम था?
आवाज की जरूरत क्या है? तुम्हारे भीतर जानने
की आकांक्षा नहीं जगती कि जानें यह अस्तित्व क्या है? तुम्हारे
भीतर जिज्ञासा नहीं उठती कि पहचानूं मैं कौन हूं? तुम्हारे भीतर
ऊहापोह नहीं उठता कि कहां से हम आए, कहां हम जा रहे हैं?
क्यों आखिर हम हैं? तुम्हारे भीतर जीवन का
रहस्य छूता नहीं? तुम्हें विस्मयविमुग्ध नहीं करता? तुम्हें अवाक नहीं करता? तुम्हें आश्चर्यचकित नहीं
करता?
परमात्मा पुकारे क्यों? तुम पुकारो! और तुम
पुकारोगे तो मैं जरूर कहता हूं कि तुम तभी पुकारोगे जब उसने तुम्हें पुकारा है।
अन्यथा तुम्हारे सामर्थ्य के बाहर है कि तुम उसे पुकार सको।
तुम कहते हो: "मैं संन्यास के लिए तैयार हूं। लेकिन मैं यह कैसे
जानूं कि परमात्मा ने मुझे पुकारा ही है?'
डूबो संन्यास में, और जानोगे। कुछ चीजें जीकर ही
जानी जाती हैं। जैसे प्रेम। कोई करेगा तो जानेगा। ऐसे ही संन्यास है। संन्यास यानी
परमात्मा से प्रेम। परम प्रेम। जीओगे, अनुभव करोगे, तो जानोगे। निश्चित एक दिन पाओगे कि उसने तुम्हें पुकारा था, तभी तो तुम चल पड़े थे उसकी ओर। मगर आज बिना चले कोई आश्वासन नहीं दिया जा
सकता, कोई प्रमाणपत्र नहीं दिया जा सकता।
लेकिन, संन्यास की अगर तैयारी हो गई है, तुम कहते हो हरिभजन कि मैं संन्यास के लिए तैयार हूं, तो फिर इतनी भी शर्त क्या लगाते हो? शर्त लगानी उचित
नहीं। परमात्मा पर शर्त नहीं लगानी चाहिए। उस तरफ तो बेशर्त चलना चाहिए। प्रार्थना
बेशर्त ही हो सकती है। अगर शर्त है, तो सौदा है। और जहां
सौदा है वहां प्रेम नहीं। हां, अगर तुम कूद पड़ोगे, छलांग लगा लोगे, तो हजार-हजार प्रमाण मिलेंगे--एक
नहीं, हजार प्रमाण मिलेंगे।
कौन आया कि निगाहों में चमक जाग उठी
दिल के सोए हुए तारों में खनक जाग उठी
किसके आने की खबर ले के हवाएं आईं
जिस्म से फूल चटकने की सदाएं आईं
रूह खिलने लगी, सांसों में महक जाग उठी
किसने मेरी नजर देख के बांहें खोलीं
शोख जज्बात ने सीने में निगाहें खोलीं
ओंठ तपने लगे, जुल्फों में लचक जाग उठी
किसके हाथों ने मेरे हाथों से कुछ मांगा है
किसके ख्वाबों ने मेरे ख्वाबों से कुछ मांगा है
दिल मचलने लगा, आंचल में छनक जाग उठी
कौन आया कि निगाहों में चमक जाग उठी
दिल के सोए हुए तारों में खनक जाग उठी
साधारण प्रेम में यह हो जाता है। कोई किसी स्त्री के प्रेम में पड़ गया, कोई किसी पुरुष के प्रेम में पड़ गया, साधारण प्रेम
में यह हो जाता है--
कौन आया कि निगाहों में चमक जाग उठी
दिल के सोए हुए तारों में खनक जाग उठी
तो उस परम प्यारे के साथ तुम संबंध जोड़ोगे तो तुम सोचते हो प्रमाण न
मिलेंगे? हजार-हजार प्रमाण मिलेंगे। झनझना उठेंगे प्राणों के
तार। गीत उभरने लगेंगे। नृत्य उठेगा। तुम्हारी आंखों से रोशनी झरने लगेगी।
तुम्हारे प्राणों में एक अपूर्व शीतलता का जन्म होगा। तुम नये हो जाओगे। तुम्हारा
पुनर्जन्म होगा। तुम जीवन की शाश्वतता को देखोगे फिर। जन्म और मरण के बीच घिरे हुए
इस छोटे से क्षणभंगुर जीवन से तुम्हारा संबंध टूट जाएगा। तुम उस जीवन को जानोगे जो
जन्म के भी पहले है और मृत्यु के भी बाद है। हजारों होंगे प्रमाण--लेकिन छलांग लगे
तो।
तैयारी है तो शर्त न लगाओ। शर्त लगाते हो तो तैयारी नहीं है। प्रेम
में कोई शर्त कहता है? और परमात्मा तो चुप है। कौन उत्तर देगा? मौन उसकी भाषा है। तुम पूछते रहोगे: क्या तुमने मुझे पुकारा? आकाश शांत रहेगा, उत्तर न आएगा। तुम बैठे-बैठे ही मर
जाओगे।
हृदय में भाव उठा है, छलांग लो। खोओगे क्या? तुम्हारे पास खोने को क्या है? पा सकते हो, खोने को तो कुछ भी नहीं है।
कम्युनिज्म के जन्मदाता कार्ल माक्र्स ने अपनी महत्वपूर्ण किताब
"कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो' का अंत ऐसे किया है कि हे दुनिया
के मजदूरो, इकट्ठे हो जाओ! क्योंकि तुम्हारे पास खोने को
सिवाय जंजीरों के और कुछ भी नहीं, और पाने को सब कुछ है।
यह बात मजदूरों के संबंध में सच हो या न हो, लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि जिनको भी छलांग लेनी है संन्यास में, वे ले ही लें; क्योंकि तुम्हारे पास खोने को सिवाय
जंजीरों के और कुछ भी नहीं है, और पाने को सब कुछ है--सब कुछ,
जिसमें परमात्मा भी सम्मिलित है।
तीसरा प्रश्न: कल आपने प्रवचन में नसरुद्दीन की
कहानी कही--कड़ाही के बच्चे होने वाली। मैंने संजय को तपेली दी थी। तपेली मर गई, और बाद में छोटी-मोटी तपेलियां भी मर गईं। और अब फिर दिख रहा है कि
कड़ाहियों के बच्चे हो रहे हैं। अब यह खेल देखने की क्षमता आ रही है। सुख-दुख,
धूप-छांव, दिन और रात की तरफ देखने की समझ
आपसे मिली है। दो वर्ष पहले आपसे प्रश्न पूछा था, काफी दुख
की छाया में था, आपने सूफी कहानी का संदेश दिया था--यह भी
गुजर जाएगा। बिलकुल वैसा ही हुआ है। अब यह सुख का समय भी जाएगा, इस नियम की भी समझ आई है। आपके अमूल्य सूत्र--वर्तमान में होने का और होश
को जीवन में उतारने का प्रयत्न करता रहता हूं। प्रश्न कुछ भी नहीं है, फिर भी आपसे कुछ सुनने की प्यास जरूर है!
योग माणिक! यह सूत्र समझ
में आ जाए कि जो भी आता है, जाता है, तो सब समझ में आ गया।
न सुख टिकता है, न दुख। न जन्म टिकता है, न मृत्यु। कुछ टिकता ही नहीं। जगत प्रवाह है। जैसे गंगा भागी जा रही,
ऐसे जीवन में घटनाओं की भाग-दौड़ है। मगर इन सारी घटनाओं के बीच एक
है जो टिका हुआ है: साक्षी, देखने वाला।
दो साल पहले तुम दुख में थे, तुमने दुख देखा था;
अब तुम सुख में हो, अब तुम सुख देख रहे हो।
दुख नहीं रहा, सुख भी नहीं रहेगा। मगर एक बचा है: देखने
वाला। उसने दुख भी देखा, सुख भी देखा। उसने बचपन देखा,
जवानी देखी, बुढ़ापा देखेगा। उसने जन्म देखा,
मृत्यु भी देखेगा। वह साक्षी शाश्वत है। बस वह साक्षी में ही हम
धीरे-धीरे डूबते जाएं, डूबते जाएं, एक
हो जाएं, लीन हो जाएं, तो सब पा लिया।
इस जगत की सारी संपदा, सारा साम्राज्य व्यर्थ है। जिसने
साक्षी को पा लिया, उसने परमात्मा का राज्य पा लिया। और उसे
पाने के ही सूत्र हैं: वर्तमान में जीओ; होश से जीओ। साक्षी
यानी होश।
और साक्षी तो केवल वर्तमान का ही हुआ जा सकता है। जो अब है ही नहीं, उसके साक्षी कैसे होओगे? वह तो गया। और जो अभी आया
नहीं है, उसके भी साक्षी नहीं हो सकते, वह तो अभी आया नहीं है। साक्षी तो वर्तमान के ही हो सकते हो। ये तीनों
चीजें संयुक्त हैं। साक्षी होने का अर्थ है: होश से जीना। होश से जीने का अर्थ है:
वर्तमान में जीना। और जो होश और वर्तमान में है, उसका संबंध
उससे जुड़ जाएगा जो कालातीत है, जो साक्षी है।
योग माणिक, तुम्हारे भीतर जो साक्षी बैठा है, वही परमात्मा है। वही परम आनंद है। वह न तो सुख है, न
दुख। वह दुखातीत है, सुखातीत है, लेकिन
सच्चिदानंद है। वही सत्य है, वही चैतन्य है, वही आनंद है। तुम्हारे हाथ सूत्र लग रहा है, चूक न
जाए। क्योंकि जब दुख होता है तब तो हम चाहते हैं कि जाए; पकड़ते
नहीं। कौन पकड़ता है दुख को? लेकिन जब सुख होता है, तब धीरे से मन में भीतर कहीं रस सरकता है कि रुका रहे, रुका रहे, न जाए। कौन सुख को नहीं रोक लेना चाहता?
इसलिए दुख में जागना आसान है, सुख में जागना
कठिन है।
योग माणिक, तुम कहते हो, दो साल पहले मैं
काफी दुख की छाया में था।
वह घड़ी उतनी खतरनाक नहीं थी। खतरनाक घड़ी अब है। तब मैंने तुमसे कहा
था: यह भी गुजर जाएगा। अब भी तुमसे यही कहता हूं: यह भी गुजर जाएगा। तब मेरी बात
को सुन कर तुम्हें ढाढस बंधा होगा। अब मेरी बात को सुन कर तुम्हारी छाती थोड़ी कंप
जाएगी। यह भी गुजर जाएगा। यहां सभी गुजर जाना है। यहां कुछ भी टिकने का नहीं है।
यह जगत पानी का बबूला है। बना और मिटा।
जैसे दुख गुजर गया था और तुम निश्चिंत बने रहे थे, ऐसे ही जब यह सुख भी गुजर जाए तो निश्चिंत बने रहना। आते रहेंगे सुख और
दुख दिन और रात की तरह...दिन और रात के ताने-बाने से समय बना है। ऐसे ही सुख-दुख
के ताने-बाने से जीवन की चादर बुनी गई है। लेकिन तुम चादर नहीं हो। कभी दुख ओढ़ते
हो, कभी सुख ओढ़ते हो, मगर तुम ओढ़नी
नहीं हो। तुम तो वह हो जो ओढ़ लेता है। कभी बीमारी ओढ़ते हो, कभी
स्वास्थ्य; कभी सुंदर, कभी कुरूप;
कभी प्रसन्न, कभी उदास। ये सब ओढ़नियां हैं।
तुम इन सबसे पृथक हो, भिन्न हो, अन्य
हो। तुम इनके साथ अपने को अभिन्न मत जानना, बस, तुम्हारे हाथ में स्वर्ण-सूत्र है। इस स्वर्ण-सूत्र से परमात्मा का द्वार
खुल सकता है!
चौथा प्रश्न: मैं तो प्रकाश से अपरिचित हूं, बस अंधेरे को ही जानता हूं। फिर प्रकाश के नाम पर जो पाखंडों का जाल फैला
है, उससे भी डरता हूं। मुझे मार्ग दें, दृष्टि दें, प्रकाश दें!
रामस्वरूप! यह स्वाभाविक
है। सत्य के नाम पर इतना पाखंड फैला हुआ है, परमात्मा के नाम पर
इतनी धोखाधड़ी है, प्रकाश के नाम पर शब्दों और शास्त्रों के
इतने जाल फैले हुए हैं, कि यह बिलकुल स्वाभाविक है कि कोई ऊब
जाए, कि कोई थक जाए, कि कोई सिर्फ ऊब
में ही पीठ कर ले। मगर प्रकाश के संबंध में शब्दों और शास्त्रों का जाल कितना ही
हो, प्रकाश की तलाश मत बंद कर देना! परमात्मा के संबंध में
चाहे कितनी ही धोखाधड़ियां चल रही हों, और कितना ही बाजार खड़ा
हो गया हो, और मंदिर और मस्जिद कितने ही लूट-खसोट कर रहे हों,
परमात्मा के नाम पर कितनी ही बेईमानी चल रही हो, तो भी परमात्मा की तलाश मत छोड़ देना!
सच तो यह है, इतनी बेईमानी चल रही है इसीलिए कि परमात्मा होना
चाहिए। जब सच्चे सिक्के होते हैं, तभी तो झूठे सिक्के चल
सकते हैं। अगर सच्चे सिक्के हों ही न, तो झूठे सिक्के कैसे
चल सकते हैं? जरा सोचो, सरकार तय कर ले
कि सब सिक्के रद्द; सब सिक्के टकसाल वापस लौटा लिए जाएं। तो
झूठे सिक्कों की बड़ी मुसीबत हो जाएगी। असली तो टकसाल वापस चले जाएंगे, झूठे व्यर्थ हो जाएंगे। असली नोट है तो नकली नोट चल सकता है। नकली नोट
सबूत देता है कि असली नोट कहीं होगा--नहीं तो चलेगा कैसे?
नकली को चलने के लिए असली का सहारा चाहिए। झूठ के पांव नहीं होते, झूठ लंगड़ा है। झूठ हमेशा सत्य के उधार पांव लेकर चलता है। इसलिए हर झूठ
दावा करता है कि मैं सच हूं। और तभी तक चल सकता है जब तक तुम उसे सच मानो। जैसे ही
तुमने झूठ माना कि तत्क्षण वहीं गिर जाएगा। झूठ जब तक ऐसी प्रतिष्ठा बनाए रखे कि
मैं सच हूं, तब तक ही पूजा जा सकता है।
लेकिन एक बात तो तय है कि जब तुम झूठ की पूजा करते हो, तब भी तुम वस्तुतः सत्य की ही पूजा कर रहे हो। माना कि वहां सत्य नहीं है,
लेकिन सत्य का दावा तो वहां निश्चित है। सत्य के दावेदार वहां हैं।
इतना जाल धर्मों के नाम पर चलता रहा है। इतना जाल चला है कि धर्म को नष्ट हो जाना
चाहिए था। इतनी बेईमानी हो चुकी है ईमान के नाम पर कि अभी तक ईमान की कभी की कब्र
खुद जानी चाहिए थी। मगर कुछ बात है, कुछ राज है, कि इतनी धोखाधड़ी, इतनी बेईमानी, इतना खून-खराबा, जमीन लाल हो गई, सुर्ख हो गई रक्त से! हिंदू-मुसलमान लड़ते रहे, ईसाई-मुसलमान
लड़ते रहे, लड़ते ही रहे लोग। धर्म के नाम पर प्रेम की बातें
होती रहीं और तलवारें चलती रहीं। धर्म के नाम पर परमात्मा की बातें होती रहीं और
आदमी की हत्या होती रही। यह सब होता रहा, फिर भी धर्म नष्ट
नहीं हुआ। कुछ बात है। कुछ राज है। निन्यानबे चीजें झूठ चल रही हों, तब भी कहीं एक कोई बात सच है जिसके आधार पर निन्यानबे झूठ चल रहे हैं।
तो तुम्हारा भाव स्वाभाविक है कि तुम थक गए, ऊब गए--पाखंडों का जाल फैला देख कर। कौन नहीं ऊब जाएगा? लेकिन पाखंडों का जाल अगर फैला है तो कहीं न कहीं सत्य छिपा होगा। उसे
खोजो! मुसलमान चाहे सच न हों, मोहम्मद सच हैं; सिक्ख चाहे सच न हों, नानक सच हैं; और जैन चाहे सच न हों, महावीर सच हैं। हिंदू सच हों
या न हों, कृष्ण तो सच हैं। फिर कृष्ण के नाम पर
पंडे-पुरोहित इकट्ठे होंगे, स्वाभाविक है। जहां कृष्ण जैसा
अदभुत व्यक्ति घटेगा और जहां कृष्ण जैसा व्यक्ति आकाश के सत्यों को जमीन पर उतार
लाएगा, वहां जो चालबाज हैं, होशियार
हैं, चालाक हैं, वे मौका नहीं चूकेंगे।
वे अड्डा जमा लेंगे। वे कहेंगे, कृष्ण कितने दिन रहेंगे?
आज नहीं कल विदा होंगे, फिर तो हमीं मालिक
हैं।
यह जान कर तुम हैरान होओगे कि जैनों के चौबीस तीर्थंकर ही क्षत्रिय थे, लेकिन महावीर, जिन्होंने जैन धर्म को पुनरुज्जीवन
दिया, खुद क्षत्रिय, उनके पहले के तेईस
तीर्थंकर क्षत्रिय, लेकिन महावीर के सारे गणधर--उनके प्रमुख
शिष्य--ब्राह्मण पंडित। यह बड़ी हैरानी की बात है। सब पंडित उनके प्रमुख शिष्य होकर
बैठ गए।
पंडित यह मौका नहीं छोड़ेंगे। जहां भी सत्य का जन्म होगा, वहां पंडित जल्दी ही सबसे पहले पहुंच जाएगा। क्योंकि सत्य के आधार पर खूब
शोषण हो सकता है।
एक पुरानी कहानी है। शैतान का एक शिष्य भागा हुआ आया और शैतान से बोला, आप बैठे यहां क्या खंजड़ी बजा रहे हैं? एक आदमी को
सत्य उपलब्ध हो गया है। मैं जमीन से आ रहा हूं। उसकी समाधि पूर्ण हो गई। उसने सत्य
को पा लिया। और आप यहां बैठे खंजड़ी बजा रहे हैं! अपनी बरबादी हो जाएगी!
शैतान खंजड़ी बजाता रहा, हंसता रहा। उसने कहा,
तू फिकर मत कर! तू नया-नया शिष्य है, तुझे अभी
अनुभव नहीं। हमें तो यह धंधा करते सदियां बीत गईं। तू फिकर मत कर। हमने
पंडित-पुजारियों को चला दिया है। जिसको सत्य मिला है, जल्दी
ही उसको पंडित-पुजारी घेर लेंगे। जनता और उसके बीच में पंडित-पुजारी खड़े हो जाएंगे,
बस काम खतम। हमने हत्या कर दी सत्य की। और ज्यादा करने की कोई जरूरत
नहीं है। हमें सीधा जाने की जरूरत नहीं, हमने सेवक रख छोड़े
हैं, पंडित-पुजारी रख छोड़े हैं, वे
हमारा काम करते हैं।
यह कहानी बड़ी अदभुत है। इसका मतलब हुआ, मंदिर में चाहे
मूर्ति तो भगवान की हो, मगर पुजारी शैतान का होता है।
क्योंकि पुजारी तो मूर्ति का शोषण कर रहा है, मूर्ति के नाम
पर शोषण कर रहा है। पुजारियों से सावधान रहना!
लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि तुम धर्म से पीठ फेर लो। झूठे सिक्कों
से सावधान रहना, इसका यह अर्थ नहीं है कि असली सिक्कों को फेंक देना।
यह तो अंग्रेजी में जैसे कहावत है कि पानी के साथ, जिसमें
बच्चे को नहलाया, बच्चे को भी फेंक दिया। पानी फेंका,
बच्चे को भी फेंक दिया। यह तो बड़ी भूल हो जाएगी। पानी गंदा है,
उसको फेंक दो, मगर बच्चे को तो बचाओ।
तुम्हारी बात तो स्वाभाविक है, रामस्वरूप!
रोशनी ने इस कदर छला
अंधेरों से प्यार हो गया।
एक किरण की लपेट में
बहुत दूर तक गया चला
बीहड़ों के सन्नाटों से
तानाकशियों के अंधे जंगल तक
भिंची हुई मुट्ठियों में
रेत के सिवा
कुछ नहीं...
...कुछ नहीं मिला।
रोशनी ने इस कदर छला
अंधेरों से प्यार हो गया
तनी हुई प्रत्यंचाएं देख लीं
गलत जगह निरर्थक टंकारते,
फटते-फटते ज्वालामुखियों के अंदर
जाने कब जा सोईं बर्फ की बेहिसाब सिल्लियों के बीच
आग को कहां-कहां पुकारते?
रोशनी ने इस कदर छला
अंधेरों से प्यार हो गया।
आग की प्रवंचना से क्षुब्ध
क्या कहूं,
यही बहुत कि हूं...
और अब तो होना भी दर्द बो गया!
रोशनी ने इस कदर छला
अंधेरों से प्यार हो गया।
बहुत लोग पंडित-पुजारियों के पाखंडों के कारण, साधु-संतों, महात्माओं की जालसाजियों के कारण
अधार्मिक हो गए हैं। मेरे हिसाब में नास्तिकों के प्रभाव में लोग अधार्मिक नहीं
हुए हैं, आस्तिकों की धोखाधड़ी ने लोगों को अधार्मिक बना दिया
है। आस्तिकों ने इस बुरी तरह दर्ुव्यवहार किया है धर्म के नाम पर कि जिनमें थोड़ी
भी सोच-समझ थी, उन्होंने नाते तोड़ लिए हैं।
रामस्वरूप, तुम ठीक कहते हो। लेकिन फिर भी मैं कहूंगा: नाता तोड़
ही मत लेना। पंडित-पुजारी से तोड़ना; शास्त्र से, सिद्धांत से, शब्द से तोड़ना; मगर
सत्य की तलाश जारी रहे। और सत्य तुम्हारे भीतर है। कोई पंडित नहीं दे सकता,
कोई पुजारी नहीं दे सकता, कोई मौलवी नहीं दे
सकता। कोई तुम्हें सत्य नहीं दे सकता। पंडित-पुजारियों की तो बात छोड़ दो, बुद्ध-महावीर-कृष्ण कोई भी तुम्हें सत्य नहीं दे सकते। हां, सत्य की प्यास दे सकते हैं। इशारे कर सकते हैं, चलना
तो तुम्हीं को पड़ेगा। पहुंचना भी तुम्हीं को पड़ेगा। सत्य के जगत में उधारी नहीं
होती। सत्य तो नगद होता है। अपने ही अनुभव से होता है। निज का होता है। और निज का
होता है तो ही मोक्षदायी होता है।
तो तुम कहते हो: "मैं तो प्रकाश से अपरिचित हूं, बस अंधेरे को जानता हूं।'
अंधेरा भी कुछ बुरा नहीं है। आखिर प्रकाश अंधेरे से ही तो पैदा होता
है। अंधेरी रात के ही गर्भ में ही तो सुबह का जन्म होता है। अंधेरी रात ही तो सुबह
की मां है, जन्मदात्री है। और जैसे-जैसे रात अंधेरी होती है
वैसे-वैसे सुबह करीब होती है। ठीक भोर होने के पहले रात सर्वाधिक अंधेरी हो जाती
है। तो अंधेरे से कुछ दुश्मनी रखने की जरूरत नहीं है। अंधेरे को भी प्रेम करना
सीखो। क्योंकि अंधेरा भी प्रकाश का ही एक रूप है।
इसीलिए तो उल्लू रात में भी देख सकता है। क्योंकि अंधेरा भी प्रकाश का
ही एक रूप है। हमारी आंखें उतनी तेज नहीं हैं कि हम अंधेरे में देख सकें। उल्लू की
आंखें तुमसे ज्यादा तेज हैं, इसलिए उल्लू अंधेरे में देख लेता
है। बहुत देशों में उल्लू को ज्ञान का प्रतीक माना जाता है। हमारे देश में तो नहीं
माना जाता, यहां तो हम गाली देते हैं तो कहते हैं: उल्लू का
पट्ठा। लेकिन पश्चिम में उल्लू को ज्ञान का प्रतीक माना जाता है। और मैं मानता हूं
कि वे ठीक मानते हैं। जिसको अंधेरे में दिखाई पड़े, उसको
ज्ञानी न कहोगे तो और क्या कहोगे? जिसको अंधेरा भी रोशनी
मालूम पड़े, वही तो प्रबुद्ध है, वही तो
प्रज्ञा को उपलब्ध है।
प्राचीन समय में कभी भारत में भी एक परंपरा थी, जो उल्लू को ज्ञान का प्रतीक मानती थी। हमारे छह दर्शनों में एक दर्शन का
नाम औलूक्य-दर्शन है। उल्लुओं का दर्शन! तो जरूर उस समय उल्लू प्रतिष्ठित रहा
होगा। फिर कैसे इसकी दुर्दशा हुई, ये क्यों बेचारा इतना पतित
हुआ, शायद उसका कारण यह है कि इसे दिन में दिखाई नहीं पड़ता।
रात में दिखाई पड़ता है, इस पर अगर हम ध्यान दें, तब तो उल्लू अदभुत मालूम होता है। लेकिन दिन में दिखाई नहीं पड़ता।
जिन्होंने इस बात पर ध्यान दिया कि उल्लू को दिन में दिखाई नहीं पड़ता, उन्होंने गाली गढ़ी होगी: उल्लू के पट्ठे! जिनको दिन में भी दिखाई न पड़े!
जैसे कोई आदमी तुमसे टकरा जाए, भरी सड़क पर, भर दोपहरी में, तुम कहो--क्या उल्लू के पट्ठे! कुछ
अकल है? दिखाई पड़ता है कि नहीं? अंधे
हो?
उल्लू के पट्ठे हम अंधों को कहने लगे। उल्लू को दिन में नहीं दिखाई
पड़ता, वह एक पहलू है। लेकिन उल्लू को रात में दिखाई पड़ता है,
वह भी एक पहलू है। जिन्होंने उस पहलू पर जोर दिया, उन्होंने उसे ज्ञान का प्रतीक माना।
लेकिन, वस्तुतः जो ज्ञान को उपलब्ध होता है, उसे रात में भी दिखाई पड़ता है, दिन में भी दिखाई
पड़ता है। उसका साक्षी जग गया! उसे अंधेरे में भी रोशनी है। रोशनी में तो रोशनी
होती ही है, अंधेरे में भी रोशनी होती है। क्योंकि अंधेरा भी
रोशनी से भिन्न नहीं है। जैसे सर्दी-गर्मी एक ही चीज के दो रूप हैं, वैसे ही अंधेरा-उजाला एक ही चीज के दो रूप हैं।
अंधेरे को घृणा मत करना। अंधेरे में भी जीवन के परम अनुभव पैदा होते
हैं--अंधेरे में ही। ये सारे जो बुद्ध हुए पृथ्वी पर, ये जीवन की अंधेरी रात में ही से पैदा हुए। ये तुम्हारे जैसे ही भटके और
टकराए और भूले और चूके; ये तुम्हारे जैसे ही न मालूम
कितने-कितने जन्मों तक पापों से गुजरे; इन्होंने भी वे सारी
पीड़ाएं झेलीं जो तुम झेलते हो; इन्होंने भी संताप झेले,
इन्होंने भी कंटकाकीर्ण रास्तों पर अपने पैरों को लहूलुहान किया। ये
कुछ ऐसे ही अचानक बुद्ध नहीं हो गए। इनकी भी लंबी यात्रा है, जैसी तुम्हारी लंबी यात्रा है। लेकिन वह सारा अंधेरा जो इन्होंने जीया,
एक दिन उसी अंधेरे में से सुबह का जन्म हुआ।
रात की गहराइयों में गान जागे।
स्वप्न मीठे, रात मीठी,
नींद की हर बात मीठी,
प्राण में मेरे मधुर आह्वान जागे,
रात की गहराइयों में गान जागे।
मूंद कर दृग सो रहे खग,
सुप्त गहरी नींद में जग,
मौन इन अमराइयों में प्राण जागे,
रात की गहराइयों में गान जागे।
जाग वीणा, जाग गायक,
जाग युग के मौन साधक,
रूप शत शत ले अमर अरमान जागे,
रात की गहराइयों में गान जागे।
जाग ओ अनुरक्ति के पल,
जाग ओ अभिव्यक्ति के पल,
जाग मेरी साधना, वरदान जागे,
रात की गहराइयों में गान जागे।
रात की गहराई सुबह के करीब आने का लक्षण है।
तुम कहते हो: "बस मैं अंधेरे को ही जानता हूं।'
घबड़ाओ न। अंधेरे को जानते हो, तो तुम्हारे हाथ में
प्रकाश का आंचल लग गया। अंधेरे को जानते हो, तो अब प्रकाश को
जानना ज्यादा दूर नहीं है। दो कदम और! या कौन जाने, बस एक
कदम और! या कौन जाने, बस आंख का खोलना--इतना ही फासला हो!
पूछते हो: "मुझे मार्ग दें, दृष्टि दें, प्रकाश दें!'
प्रकाश मैं नहीं दे सकता! दृष्टि भी मैं नहीं दे सकता! मार्ग दे सकता
हूं। मार्ग से दृष्टि मिलेगी, दृष्टि से प्रकाश मिलेगा। मार्ग
ही दे रहा हूं। संन्यास मार्ग है।
संन्यास का अर्थ है: संसार में होशपूर्वक जीना। भागना नहीं, जागना। संन्यास का अर्थ है: साक्षीभाव से जीना। जीवन को एक बड़ा मंच अभिनय
का मानना। एक नाटक, जिसमें तुम एक अभिनय पूरा कर रहे हो। अभिनय
के साथ अपना तादात्म्य नहीं जोड़ लेना। कि रामलीला में राम बन गए, तो अब घर भी ले आए, चले आए धनुषबाण लिए! और पत्नी
लाख कहे कि अब धनुषबाण रखो, और तुम कहो कि कैसे रख सकते हैं,
हम राम हैं! तो पागलखाने ले जाना पड़े फिर।
ऐसा कभी-कभी हो जाता है। कभी-कभी क्या, अक्सर हो जाता है।
लोग अभिनय के साथ अपना तादात्म्य कर लेते हैं। मैं कलकत्ते में एक घर में मेहमान
होता था। कलकत्ता हाईकोर्ट के न्यायाधीश का घर था। उनकी पत्नी ने मुझसे कहा कि
मेरे पति आपको इतना मानते हैं कि अगर आप उनको कुछ कहेंगे तो शायद सुनें; और तो किसी की सुनते नहीं!
मैंने कहा, तकलीफ क्या है? शिकायत क्या है?
उसने कहा, शिकायत भारी है। शिकायत यह है कि ये घर भी आ जाते हैं,
मगर इनका ढंग वही होता है जो अदालत में न्यायाधीश का। ये रात बिस्तर
पर भी मेरे साथ सोते हैं तो उसी अकड़ और न्यायाधीश...वह अकड़ नहीं जाती! बच्चे घर
में डरते हैं इनके आने से। इनके आते ही सन्नाटा हो जाता है। सब चौकन्ने हो जाते
हैं। क्योंकि इनका ढंग वही कानूनी। और हर बात में भूल-चूक निकालने की आदत। और खुद
को सिंहासन पर विराजमान समझते हैं। वहां से नीचे उतरते ही नहीं! हम थक गए हैं। आप
इनको इतना ही समझा दें कि अदालत में ठीक है, आप न्यायाधीश
रहें, घर तो पति हैं तो पति, पिता हैं
तो पिता।
अभिनय करने की कला का अर्थ होता है: जो काम जहां करने को मिला है, उसे किया, लेकिन उसके साथ एक नहीं हो गए। फिर उसे
उतार कर रखने की क्षमता होनी चाहिए। चौबीस घंटे में न मालूम कितने काम तुम्हें
करने पड़ते हैं। चूंकि तुम उन सबके साथ अपना तादात्म्य कर लेते हो, तुम्हारे भीतर एक भीड़ इकट्ठी हो जाती है। किसी के तुम पति हो, किसी के पिता हो, किसी के भाई हो, किसी के नौकर हो, किसी के मालिक हो, और न मालूम कितने अभिनय तुम्हें करने पड़ रहे हैं, और
इन सबकी भीड़ तुम्हारे भीतर हो गई है इकट्ठी, इस सबके जाल में
तुम फंस जाते हो। इस जाल का नाम संसार है। दुकान का नहीं, बाजार
का नहीं, इस जाल का, इस भीतरी जाल का
नाम संसार है। इस जाल को जो तोड़ देता है, काम तो सब करता है,
लेकिन अलिप्त, जल में कमलवत, वही संन्यासी है। राम का काम मिला तो राम का काम कर दिया। और कभी रावण
बीमार पड़ गए और रामलीला में जरूरत पड़ी तो रावण का काम भी कर दिया। अब यह थोड़े ही
करोगे कि हम राम बनते हैं, हम कभी रावण नहीं बन सकते। मैं
कैसे रावण बन सकता हूं? मैं तो राम हूं! जो जरूरत पड़ी।
और पर्दा उठता है तब राम बन कर खड़े हो गए, और जब पर्दा गिर जाता है तो कुर्सियां जमा रहे हैं और सामान हटा रहे हैं।
यह नहीं कि हम तो राम हैं, हम तो सिर्फ धनुषबाण लिए खड़े
रहेंगे--और सीतामैया पीछे खड़ी हैं, और लक्ष्मण जी उनके पीछे
खड़े--इसके सिवाय हम कुछ काम कर नहीं सकते दूसरा! पर्दा गिरा कि सब बात खतम,
पर्दा उठा कि बात शुरू। पर्दा गिरा कि राम और रावण पीछे बैठ कर चाय
पी रहे हैं साथ-साथ, गपशप मार रहे हैं। और अभी पर्दे के
सामने--जब पर्दा उठा था--तो एक-दूसरे की जान लेने को तैयार थे।
जीवन को एक खेल समझो, यह मार्ग है। एक विशाल नाटक का
मंच, जिस पर तुम्हें कोई पार्ट अदा करना है। उसे अदा करो।
पूरी तरह अदा करो। पति हो तो पूरी तरह, पत्नी हो तो पूरी तरह,
पिता हो तो पूरी तरह। जो भी करना है, उसे पूरी
तरह करो। और जानते हुए कि मैं कर्ता नहीं हूं, मैं साक्षी
हूं। बस, इतना बोध बना रहे, तो धीरे-धीरे
यही बोध तुम्हारे भीतर प्रकाश बन जाएगा। अंधेरा जाएगा, सुबह
आएगी। सुबह तुम्हारा हक है, तुम्हारा अधिकार है।
पांचवां प्रश्न: मैं बच्चा था तो एक तरह की
इच्छाएं मन में थीं। जवान हुआ तो और ही तरह की इच्छाएं जन्मीं। अब बूढ़ा हो गया हूं, तो ईश्वर को पाने की इच्छा जन्मी है। कहीं यह भी तो बस समय का ही एक खेल
नहीं है? इस इच्छा में और अन्य इच्छाओं में क्या भेद है?
भरतराम! प्रश्न
महत्वपूर्ण है। बचपन में एक तरह की इच्छाएं होती हैं। बच्चे की
इच्छाएं--खेल-खिलौनों की; कल्पनाएं, सपने भविष्य के।
क्योंकि बच्चा भविष्य में जीता है। अभी सारा भविष्य पड़ा है। हर बच्चा बड़ी आशाएं
बांधता है, बड़ी अपेक्षाएं बांधता है--ऐसा करूंगा, वैसा करूंगा। जो कोई नहीं कर पाया वह करके दिखा दूंगा।
एक छोटा सा बच्चा फर्श पर कागज फैलाए, रंग की डिब्बी लिए
चित्र बना रहा है। पादरी का बेटा है। पादरी चर्च जा रहा है, पास
से गुजरा, एक क्षण उसने रुक कर देखा कि बच्चा क्या कर रहा
है। बड़ी तेजी से रंग भर रहा है। पूछा, बेटा, तू क्या कर रहा है?
उस लड़के ने कहा कि मैं ईश्वर का चित्र बना रहा हूं।
पादरी हंसने लगा और उसने कहा, ईश्वर का चित्र! आज
तक किसी ने ईश्वर को देखा ही नहीं, तो चित्र कैसे बनेगा?
उस बेटे ने कहा, आप घबड़ाएं मत, एक दफे मेरा चित्र पूरा हो जाने दें, फिर हरेक को
अनुभव में आ जाएगा कि यह रहा ईश्वर का चित्र। एक दफे मेरा चित्र पूरा हो जाने दें।
अभी तक किसी ने नहीं बनाया है, इसीलिए तो मैं बना रहा हूं।
बच्चों की आकांक्षाएं होती हैं, कि जो किसी ने नहीं
किया, वह करके दिखा देंगे। आकाश में उड़ेंगे, चांदत्तारों को तोड़ लाएंगे।
स्वभावतः बचपन के साथ वे सारी इच्छाएं भी तिरोहित हो जाती हैं। वे
बचपन की कच्ची उम्र की इच्छाएं होती हैं। जवानी में और तरह की इच्छाएं होती हैं।
ज्यादा स्थूल, ज्यादा भौतिक; उनमें सपने कम
होते हैं, यथार्थ ज्यादा होता है। दूर की उड़ान कम होती है,
भौतिकता ज्यादा होती है। वासनाएं--धन की, काम
की, पद की। फिर जवानी बीतते-बीतते उन इच्छाओं की व्यर्थता भी
पता चल जाती है। स्त्रियां भी भोग लीं, पुरुष भी भोग लिए,
धन भी पा लिया, पद भी पा लिया, कुछ हाथ तो लगा नहीं। फिर बुढ़ापे में इच्छा जगती है--मोक्ष को पा लें,
ईश्वर को पा लें।
इसलिए तुम्हारा प्रश्न तो महत्वपूर्ण है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि यह
भी बस बुढ़ापे की एक इच्छा है; जैसे बचपन की इच्छाएं थीं,
जवानी की इच्छाएं थीं, यह भी एक बुढ़ापे की
इच्छा है।
यह बुढ़ापे की इच्छा हो भी सकती है, न भी हो, सब तुम पर निर्भर है। अगर तुम सिर्फ जिंदगी की उदासी से, जिंदगी की परेशानी से, जिंदगी की असफलता से, जिंदगी की विफलता के कारण ईश्वर को खोजने लगे हो, तो
यह बुढ़ापे की इच्छा है। इसका कोई मूल्य नहीं है। यह बुढ़ापे का खिलौना है। तो माला
ले लो और राम-राम जपते रहो; कि राम-नाम चदरिया ओढ़ लो और बैठ
जाओ एक कोने में। यह सिर्फ बुढ़ापे को व्यस्त रखने का एक उपाय है। इसका कोई मूल्य
नहीं है।
लेकिन अगर जीवन भर के अनुभवों से तुम्हारे भीतर थोड़ी सी बोध की
प्रक्रिया का प्रारंभ हुआ हो, थोड़ा होश पैदा होना शुरू हुआ हो,
तुम्हें थोड़ा-थोड़ा अपने भीतर छिपी हुई आत्मा का अनुभव शुरू हुआ हो,
साक्षी जगा हो--अगर साक्षी के जगने में से यह इच्छा पैदा हो रही है,
तब बुढ़ापे से इसका कोई संबंध नहीं है। क्योंकि साक्षी का कोई संबंध
न जवानी से है, न बचपन से, न बुढ़ापे
से। कुछ लोग बचपन में ही साक्षी हो गए।
जैसे शंकर की कहानी है--शंकराचार्य की; नौ वर्ष की उम्र में
साक्षी हो गए। कहानी तुमने सुनी होगी, प्रीतिकर है, महत्वपूर्ण है। संन्यस्त होना चाहते थे। नौ वर्ष की उम्र, कौन मां आज्ञा देगी? नब्बे वर्ष के भी हो जाओ तब भी
मां आज्ञा नहीं देती संन्यास की, तो नौ वर्ष! मां के लिए तो
नब्बे वर्ष का बेटा भी नौ ही वर्ष का होता है। कभी उम्र बढ़ती ही नहीं। नौ वर्ष का
बच्चा और संन्यस्त होना चाहे! मां ने कहा, तू पागल है?...और एक ही बेटा, और पति भी मर चुके हैं, यही सब सहारा, आंख का तारा, बुढ़ापे
का सहारा; जो कुछ भी कहो, यही, और यह नौ वर्ष की उम्र में संन्यासी होना चाहता है! मां ने कहा, जब मैं मर जाऊं, तब तुझे जो करना हो वह करना। जब तक
मैं जिंदा हूं, यह संन्यास नहीं होगा।
शंकर नदी पर स्नान करने गए हैं, कहानी कहती है,
एक मगर ने उनका पैर पकड़ लिया। भीड़ इकट्ठी हो गई किनारे पर। मां भी
भागी हुई आ गई। शंकर ने कहा कि अब तू कह दे! अगर तू वचन देती हो कि मैं संन्यास ले
सकता हूं, तो मुझे भरोसा है, यह मगर
मुझे छोड़ देगा। भरोसा इसलिए है कि मैं संन्यास लेना चाह रहा हूं, तो परमात्मा इतनी तो मेरी सहायता करेगा। मुझे श्रद्धा है कि अगर तू आज्ञा
देती हो संन्यास लेने की, तो परमात्मा मुझे बचाएगा, यह मगर मुझे छोड़ देगा। और अगर तू आज्ञा न देती हो, तो
फिर बात गई। यह मगर मुझे घसीट रहा है।
ज्यादा देर सोचने-विचारने का समय भी नहीं था। बेटा मरे, इससे तो बेहतर संन्यासी हो जाए--कम से कम जिंदा तो रहेगा, कभी-कभी देख तो लेंगे, कभी-कभी मिल तो आएंगे। तो मां
ने घबड़ाहट में कह दिया कि ठीक है, ले लेना संन्यास, मगर किसी तरह बच जा।
और कहानी कहती है कि मगर ने पैर छोड़ दिया। शंकर बच गए। तब मां बहुत
पछताई, मगर अब वचन दे चुकी थी, गांव
वालों के सामने वचन दे चुकी थी।
कहानी सच हो या न हो। सच हो नहीं सकती, मगरमच्छ इतनी आसानी
से नहीं छोड़ते। महात्मा नहीं छोड़ते, मगरमच्छ क्या छोड़ेंगे?
मगर संकेत गहरा है। संकेत यह है कि मां ने आज्ञा तभी दी संन्यास की
जब विकल्प मृत्यु और संन्यास हो गया। मां ने आज्ञा तभी दी संन्यास की, जब देखा कि या तो मृत्यु या संन्यास। जहां तक मेरी दृष्टि है, यह कहानी तो प्रतीक है, शंकर ने मां को समझाया होगा
कि देख, कल मैं मर सकता हूं। आखिर पिता मर गए। देख, पड़ोस में फलां आदमी मर गया, फलां आदमी का बच्चा मर
गया। मैं कल मर सकता हूं, फिर तू क्या करेगी? जब मृत्यु होने ही वाली है, तो कभी भी हो सकती है।
शंकर ने मां को मृत्यु का ठीक-ठीक स्मरण दिलाया होगा। उस स्मरण के आधार पर ही मां
राजी हुई होगी कि तो फिर ठीक है, तू संन्यस्त हो जा।
इस बात को ही इस छोटी सी कहानी में रूपांतरित किया गया है। यह कहानी
बोधकथा है। ऐसी कोई ऐतिहासिक कहानियां नहीं होतीं।
मृत्यु का बोध अगर नौ वर्ष की उम्र में भी आ जाए तो ईश्वर को पाने की
जो कामना पैदा होती है, ईश्वर को पाने की जो इच्छा होती है, वह मौलिक रूप से भिन्न होती है। वह जीवन की किसी इच्छा के साथ उसकी तुलना
नहीं हो सकती। उसमें और जीवन की अन्य इच्छाओं में गुणात्मक भेद होता है। क्योंकि
जीवन की सारी इच्छाएं अहंकार की दौड़ हैं; अहंकार के आक्रमण,
अहंकार को भरने की इच्छाएं हैं। और ईश्वर को पाने की इच्छा अहंकार
को समर्पण करना है, अहंकार का विसर्जन करना है। यह गुणात्मक
भेद है।
फिर जवानी में भी हो सकती है यह घटना। बुद्ध उनतीस वर्ष के थे, तब सब छोड़-छाड़ दिया। सब था; जो हो सकता था उस समय,
जो सुविधा, जो सुख, सब
था। शंकर तो गरीब ब्राह्मण के बेटे थे; बुद्ध तो सम्राट के
बेटे थे। शंकर ने तो शायद दुख जाने थे, दुख से अनुभव लिया था;
बुद्ध ने सुख जाने थे और सुख से अनुभव लिया था। असली सवाल अनुभव
लेना है। दुख से भी अनुभव लिए जा सकते हैं--अनुभव तो एक ही है, साक्षी का। चाहे दुख से लो, चाहे सुख से लो।
बुद्ध ने भी यह देख लिया था: सब चीजें आती हैं, चली जाती हैं, बचता है सिर्फ एक भीतर देखने वाला। यह
देखने वाला कौन है? मैं कौन हूं? यह
मंथन, यह मनन पकड़ लिया उनके प्राणों को। सब इस पर दांव पर
लगा दिया।
तो जवानी में भी लोगों के जीवन में प्रभु को पाने की आकांक्षा उठी है, सत्य को जानने की आकांक्षा उठी है, बुढ़ापे में भी
उठी है। सवाल तुम्हारा है। किस कारण यह इच्छा उठ रही है, भरतराम?
जीवन के दुख, जीवन के सुख, इनको देख-देख कर तुम्हारे भीतर साक्षी थोड़ा सा करवट लिया है? थोड़ा-थोड़ा जागा है? नींद थोड़ी टूटी है? तो ईश्वर की इच्छा सम्यक इच्छा है। और अगर सिर्फ इसलिए कि अब मौत करीब आ
रही है, अब और जो करना था सो कर लिया, अब
कुछ करने को बचा नहीं, अब पैर लड़खड़ाने लगे हैं, हाथ कंपने लगे हैं, अब कौन जाने ईश्वर हो ही,
तो अब कम से कम मरते वक्त थोड़ी उसकी प्रार्थना-पूजा कर लो। यह एक
तरह की रिश्वत। स्तुति यानी एक तरह की खुशामद। स्तुति शब्द का अर्थ भी खुशामद ही
होता है। लोग फिर खुशामद करते हैं। खुशामद किसकी करते हैं, इसका
सवाल नहीं है। जहां खुशामद है वहां अहंकार है, वहां अपने को
बचाने की इच्छा है।
अब तुम यह सोच रहे हो, मौत तो आती है,
यह शरीर तो जाएगा, अब ईश्वर के सामने खड़ा होना
होगा, और वह पूछेगा तो क्या जवाब देंगे? कभी राम-नाम तो लिया नहीं, कभी माला तो फेरी नहीं,
कभी मंदिर तो गए नहीं--फुर्सत ही न मिली! और कभी फुर्सत मिली,
तो ताश खेलने थे, क्लब जाना था, नाच देखना था। कभी राम की तरफ तो ध्यान दिया नहीं। अब जब उसके सामने खड़े
होंगे तो कैसे आंखें उठाएंगे? किस मुंह से उसके सामने खड़े
होंगे? और कौन जाने हो ही! न हो तब तो ठीक, झंझट मिटी। मगर कौन जाने? पक्का तो है नहीं। हो सकता
है हो। तो फिर उसके सामने खड़ा होना बिलकुल खाली हाथ बड़ा बेहूदा मालूम पड़ेगा। तो
चलो, थोड़े हाथ भर लो, थोड़ी पुण्य की
अशर्फियां इकट्ठी कर लो। थोड़ा दान कर लो, हज-यात्रा कर आओ,
कुंभ के मेले हो आओ, साधु-संतों के पैर दबाओ,
थोड़ा दान-दक्षिणा कर दो, सत्यनारायण की कथा
करवा ली कभी-कभी, राम-कथा सुन आए, मंदिर
जाने लगो, चर्च जाने लगो--थोड़ा कहने को तो रहेगा, दावा करने को तो रहेगा कि भई, जितना बना, किया! जरा देर से किया, मगर किया तो। उसका बदला
मांगने की तैयारी तो रहेगी। सौदा हो जाएगा। नहीं बहुत बड़ा सुख मिलेगा तो भी कहीं न
कहीं स्वर्ग में एकाध कोने में जगह मिल जाएगी। ठीक बगल में मकान न भी मिला
परमात्मा के, तो भी कोई बात नहीं, मगर
नरक में सड़ना तो ठीक नहीं है।
ऐसे डर के कारण, ऐसे भय के कारण, ऐसी भीरुता से अगर ईश्वर की इच्छा पैदा हो रही हो, तो
वह झूठी है। वह समय का ही खेल है। जैसे बच्चों को खिलौनों में रस होता है, ऐसे बूढ़ों को ईश्वर में रस होता है। इसका कोई मूल्य नहीं है। ये बुढ़ापे के
खिलौने हैं। यह मौत जब करीब आने लगती है तब ये खिलौने बड़े लुभावने मालूम होते हैं,
बड़े सुहावने मालूम होते हैं।
मेरे एक मित्र हैं, बूढ़े आदमी हैं, अब तो कोई अस्सी वर्ष उनकी उम्र हुई। कृष्णमूर्ति को चालीस साल से सुनते
हैं, पचास साल से सुनते हैं। न भजन करते, न कीर्तन। क्योंकि कृष्णमूर्ति कहते हैं: न भजन में कुछ, न कीर्तन में कुछ। ध्यान भी नहीं करते। क्योंकि कृष्णमूर्ति कहते हैं:
ध्यान क्या? बस, जागरूकता पर्याप्त है।
और जागरूकता ही ध्यान है! मगर कृष्णमूर्ति ध्यान शब्द का उपयोग करना
पसंद नहीं करते, पुराना शब्द है, वे जागरूकता
शब्द का प्रयोग करते हैं। और उनके सुनने वाले इससे बड़ी राहत पाते हैं--न कीर्तन,
न भजन, न ध्यान, कुछ भी
नहीं करना। बिना किए सब हो जाएगा। मगर भीतर डरते भी हैं कि कर-कर के नहीं हुआ है
लोगों को और हमको बिना किए हो जाएगा?
ये सज्जन मेरे पास आते थे तो उनको मैं कहता था: कुछ ध्यान में डुबकी
मारो! तो वे कहते कि लेकिन मैं कृष्णमूर्ति को मानता हूं। वे कहते हैं: ध्यान नहीं, जागरूकता। मैं उनसे पूछता: जागरूकता कृष्णमूर्ति चालीस साल से तुमसे कह
रहे हैं, जागरूकता तुमने साधी कितनी? वे
कहते कि यह बात तो सच है कि जागरूकता अभी साधी नहीं, मगर
जागरूकता ही साधनी है। कब साधोगे? और ध्यान और जागरूकता
भिन्न नहीं हैं। ध्यान तो जागरूकता की ही विधि है। मगर वे कहते, कृष्णमूर्ति कहते हैं: विधि-विधान की जरूरत ही नहीं है।
एक दिन उनका लड़का भागा हुआ आया और मुझसे कहा, आप जल्दी चलें, पिताजी को हृदय का दौरा पड़ा है। आप
पास रहेंगे तो उनको राहत रहेगी।
मैं गया। कमरे में धीरे-धीरे प्रवेश किया कि आहट न हो, क्योंकि वे आंख बंद किए लेटे थे और डाक्टरों ने कहा था कि कोई उनको बाधा न
डाले। मैं बहुत हैरान हुआ, उनके ओंठ हिल रहे हैं! तो मैं पास
गया। राम-राम, राम-राम, राम-राम,
राम-राम...। मैंने कहा...। मैंने कहा कि अब भाड़ में जाए हृदय का
दौरा, मैंने उन्हें हिलाया, मैंने कहा,
यह तुम क्या कर रहे हो? जिंदगी भर जिससे बचे,
अब बुढ़ापे में शर्म नहीं आती?
वे कहने लगे, आप बाधा न डालो!
मैंने उनसे कहा, मैं पहले कहता था ध्यान करो तो
तुम कहते थे, ध्यान, कृष्णमूर्ति कहते
हैं कोई विधि-विधान नहीं है।
उन्होंने कहा, कृष्णमूर्ति को जाने दो! इधर मौत सामने खड़ी है! और
बाधा न डालो! अभी मैं कोई सैद्धांतिक चर्चा नहीं करना चाहता।
मैंने कहा, अभी चर्चा करनी ही होगी! क्योंकि मौत सामने खड़ी है,
मामला तय हो जाए। यह तुम क्या कर रहे हो? राम-राम,
राम-राम...!
उन्होंने कहा कि मौत को सामने देख कर मैं एकदम घबड़ा गया हूं, और सोचता हूं, पता नहीं, हो न
हो। और वहां कृष्णमूर्ति क्या साथ आएंगे! अब रामचंद्र जी मिले कहीं, तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी! वहां मैं कहूंगा भी कि कृष्णमूर्ति कहते थे,
तो वे कहेंगे, तुमसे कहा किसने कि तुम
कृष्णमूर्ति को मानो?
तो आदमी चाहता है कि दोनों तरफ सम्हाल ले। तो अभी राम-राम जप रहे
हैं...।
फिर वे ठीक हो गए। और जब वे ठीक हो गए, तो फिर वे
कृष्णमूर्ति की बातें करने लगे। जब साल भर बाद मेरा उनसे फिर मिलना हुआ, मैंने कहा, अब क्या इरादे हैं?
उन्होंने कहा कि बात तो कृष्णमूर्ति ठीक कहते हैं।
मैंने कहा, देखो, कौन जाने राम-राम जपने से
ठीक हुए होओ!
वे कहने लगे, कभी-कभी शक तो मुझे भी होता है, क्योंकि डाक्टर कहते थे कि दौरा खतरनाक है, बचना
मुश्किल है।
तो मैंने कहा कि अब तो सम्हलो!
वे कहते, लेकिन मगर बात तो कृष्णमूर्ति की ठीक मालूम पड़ती है।
बात कृष्णमूर्ति की ठीक मालूम पड़ती है! और मैंने कहा, अगर दौरा फिर पड़ा, तो तुम मुझे आश्वासन देते हो,
अब राम-राम नहीं कहोगे?
उन्होंने कहा कि वह आश्वासन अब नहीं दे सकता।
मगर इस राम-राम का क्या मूल्य होगा? यह तो भीरुता है। यह
तो कायरता है। अगर कहीं कोई परमात्मा है, तो ऐसे आदमी को तो
कभी क्षमा नहीं करेगा। कम से कम अपनी बात पर तो टिको! कहना कि जो मुझे ठीक लगा,
वह मैंने किया था। और अब जो तुझे ठीक लगे, तू
कर। और जो मैंने किया, उसका फल भोगने को मैं तैयार हूं। अगर
मुझे भरोसा नहीं था तो मैं करता कैसे? श्रद्धा नहीं थी तो
करता कैसे?
लेकिन नहीं, बुढ़ापे में लोग सभी धार्मिक हो जाते हैं। तुम
मंदिरों-मस्जिदों में जाकर देखो, तुम्हें बूढ़े-बुढ़ियां बैठे
दिखाई पड़ेंगे। जवान तो जाते ही कहां! अभी जवान को फुर्सत कहां! जवानों को वहां
फुर्सत नहीं है जाने की। तुम्हें यहां मेरे पास जवान दिखाई पड़ेंगे। क्योंकि मैं
जिंदगी और धर्म को विपरीत नहीं मानता, एक ही मानता हूं।
जिंदगी और धर्म इतने एक हैं कि बच्चे धार्मिक हो सकते हैं, जवान
धार्मिक हो सकते हैं। इसके लिए कोई बुढ़ापे तक रुकने की जरूरत नहीं है।
मगर चालबाज लोग हैं, गणित बिठाते हैं। उन्होंने समाज
को भी चार वर्णों में बांट दिया है और आदमी को भी चार आश्रमों में बांट दिया है।
बांटने वाले हैं। तो आखिरी आश्रम, संन्यास! अंत में! वह अंत
कब आएगा, क्या पक्का पता है! अंत तो कल आ सकता है। लेकिन अगर
उनके हिसाब से चलो तो तुम संन्यासी कभी न हो सकोगे। क्योंकि उन्होंने सौ साल की
उम्र मानी हुई है। पच्चीस साल ब्रह्मचर्य काल। फिर पच्चीस साल गृहस्थ। फिर पच्चीस
साल वानप्रस्थ। पचास साल और पचहत्तर साल के बीच भी संन्यास नहीं, अभी सिर्फ संन्यास का विचार, वानप्रस्थ, जंगल की तरफ मुंह--अभी जाना नहीं है, प्रस्थान की
तैयारी। अभी प्रस्थान नहीं करना है, प्रस्थान तो पचहत्तर साल
में।
कितने लोग पचहत्तर साल जीएंगे? भारत में तो औसत उम्र
ही बत्तीस साल है। तो हो गया फैसला। बत्तीस साल के हिसाब से बांटो। तो आठ साल में
ब्रह्मचर्य समाप्त। आठ साल में गृहस्थ, आठ साल वानप्रस्थ,
आठ साल संन्यास। अगर छब्बीस साल के हो गए, चौबीस
साल के हो गए, बस बहुत, अब तैयारी कर
लो। औसत उम्र ही इतनी अब है। यह सौ साल पता नहीं किन्होंने तय कर रखी थी! तब भी
आदमी की औसत उम्र सौ साल नहीं थी। अगर होती तो उपनिषदों के ऋषि लोगों को आशीर्वाद
न देते कि सौ साल जीओ। अगर सौ साल औसत उम्र होती और तुम किसी से कहते कि सौ साल
जीओ, तो वह कहता कि आप क्या मुझे जल्दी मारना चाहते हैं?
तुम देखते हो, जब बत्तीस साल औसत उम्र है, तब
भी कई लोग अस्सी साल तक जीते हैं। तो जब सौ साल औसत उम्र होती तो कई लोग तो तीन सौ
साल तक जीते। तो किसी को आशीर्वाद देना कि बेटा, सौ साल तक
जी! वह फौरन लट्ठ लेकर खड़ा हो जाता कि महाराज, अपने शब्द
वापस लो। तुमने समझा क्या है? मुझे कोई औसत आदमी समझा है?
तो जब ऋषि-मुनि सौ साल का आशीर्वाद देते थे तो समझ लेना कि उम्र
तीस-चालीस साल से ज्यादा होती नहीं थी। औसत उम्र।
और विज्ञान में भी इसके प्रमाण हैं। जितनी पुरानी लाशें मिली हैं, उन हड्डियों की उम्र चालीस साल से ज्यादा नहीं पाई गई। अब तक कोई सौ साल
पुरानी हड्डी--जो आदमी सौ साल जीया हो--ऐसी हड्डी नहीं मिली। चालीस साल ज्यादा से
ज्यादा जीने वाले लोगों की हड्डियां मिली हैं, पुरानी से
पुरानी हड्डियां। बात जंचती भी है कि हो सकता है चालीस साल औसत उम्र रही हो। चालीस
साल औसत उम्र हो तो कुछ लोग सौ साल जीएंगे। क्योंकि चालीस साल में उनकी उम्र भी सम्मिलित
है जो पैदा होते ही मर जाएंगे, जो मां के गर्भ में ही मर
जाएंगे, जो साल भर में मर जाएंगे। अक्सर तो भारत में दस
बच्चों में से नौ बच्चे मर जाते थे। उनकी उम्र सबकी उम्र को कम कर देती थी।
लोग सोचते हैं, संन्यास बुढ़ापे में, पचहत्तर
साल के बाद!
जब हाथ-पैर हिलाना मुश्किल हो जाएगा, जब बुद्धि भी भीतर
सठिया जाएगी, तब संन्यास? जब किसी काम
के न रह जाओगे, जब कूड़े के ढेर पर फेंकने के योग्य हो जाओगे,
तब संन्यास? वह संन्यास कहलाएगा? जब संसार ही कहेगा कि भइया, अब तुम जाओ, अब बहुत हो गया, तब तुम संन्यास लोगे? वह संन्यास होगा? संन्यास दिलवाया जाएगा तब तुम
संन्यास लोगे? कि लोग हाथ जोड़ कर प्रार्थना करेंगे कि आप
संन्यासी हो जाइए अब! अब और न सताओ परिवार को, अब जंगल जाओ!
अगर ऐसे संन्यास की प्रतीक्षा है या ऐसे संन्यास का भाव है, भरतराम, तो इस इच्छा में और बच्चों की और जवानों की
इच्छा में कोई फर्क नहीं; सब समय की बात है फिर।
अपने सीने से लगाए हुए उम्मीद की लाश
मुद्दतों जीस्त को नाशाद किया है मैंने
तूने तो एक ही सदमे से किया था दो-चार
दिल को हर तरह से बर्बाद किया है मैंने
जब भी राहों में नजर आए हरीरी मलबूस
सर्द आहों में तुझे याद किया है मैंने
और अब जब कि मेरी रूह की पहनाई में
एक सुनसान सी मगमूम छटा छाई है
तू दमकते हुए आरिज की शुआएं लेकर
गुलशुदा शमएं जलाने को चली आई है
मेरी महबूब! यह हंगामाएत्तजदीदे-वफा
मेरी अफसुर्दा जवानी के लिए रास नहीं
मैंने जो फूल चुने थे तेरे कदमों के लिए
उनका धुंधला सा तसव्वुर भी मेरे पास नहीं
प्रेमी कह रहा है:
अपने सीने से लगाए हुए उम्मीद की लाश
मुद्दतों जीस्त को नाशाद किया है मैंने
तेरी प्रतीक्षा करता रहा--प्रेयसी की प्रतीक्षा करता रहा--उम्मीद की, आशा की लाश को छाती से लगाए बैठा रहा। जिंदगी को दुख, अंधेरे, विषाद से भरता रहा।
तूने तो एक ही सदमे से किया था दो-चार
तू एक ही बार क्या सामने आ गई थी कि मेरे टुकड़े-टुकड़े हो गए थे।
दिल को हर तरह से बर्बाद किया है मैंने
फिर उसके बाद मैंने सिर्फ अपने को बर्बाद किया है, और कुछ भी नहीं।
जब भी राहों में नजर आए हरीरी मलबूस
और जब भी रास्ते पर कोई रेशमी वस्त्रों में ढंकी सुंदरी दिखी...
सर्द आहों में तुझे याद किया है मैंने
और अब जब कि मेरी रूह की पहनाई में
और अब जब कि मेरी आत्मा की विस्तीर्णता में...
एक सुनसान सी मगमूम छटा छाई है
और जब कि अब मैं बिलकुल उदास हो गया हूं, हताश हो गया हूं, अब जब कि मैंने आशाओं को भी छोड़
दिया है, अब जब कि मैंने रस से ही संबंध तोड़ लिया है।
और अब जब कि मेरी रूह की पहनाई में
एक सुनसान सी मगमूम छटा छाई है
तू दमकते हुए आरिज की शुआएं लेकर
अब तू चमकते हुए कपोलों को लेकर, अपने सौंदर्य को
लेकर...
गुलशुदा शमएं जलाने को चली आई है
बुझ गए दीयों को फिर से जलाने के लिए तू आ गई?
मेरी महबूब!...
मेरी प्रियतमा!
...यह हंगामाएत्तजदीदे-वफा
यह वफादारी का पुनः प्रयास।
मेरी अफसुर्दा जवानी के लिए रास नहीं
मेरी जवानी कुम्हला चुकी। और अब मेरी कुम्हलाई जवानी के लिए तेरा वापस
लौट आना राहत नहीं देता, रास नहीं आता।
मैंने जो फूल चुने थे तेरे कदमों के लिए
मैंने बहुत फूल इकट्ठे कर रखे थे तेरे कदमों पर चढ़ाने को।
उनका धुंधला सा तसव्वुर भी मेरे पास नहीं
फूल तो दूर, उन फूलों की याद भी मेरे पास नहीं है। अब तेरे चरणों
में चढ़ाने को मेरे पास कुछ भी नहीं है।
जवानी के सपने बुढ़ापे में स्मरण तक नहीं रह जाते। बचपन के खिलौने जवान
होते-होते स्मरण भी नहीं रह जाते।
छोटे बच्चे अपने खिलौनों को छाती से लगा कर रात सोते हैं। उनका खिलौना
हाथ से छीन लो तो वे सोएंगे भी नहीं। जब सो जाते हैं तब उनका खिलौना अलग करना पड़ता
है। चौबीस घंटे अपने खिलौनों को लादे फिरते हैं। और फिर एक दिन, एक घड़ी आती है अचानक, प्रौढ़ता की एक घड़ी कि खिलौना
कोने में पड़ा रह जाता है कचरे में कहीं, और बच्चा फिर उस तरफ
ध्यान भी नहीं देता।
ऐसे ही जवानी के भी खेल हैं। वे भी बड़े प्यारे लगते हैं। जब जवानी मन
को बेहोश रखती है, जब कामवासनाएं मन पर छाई होती हैं, तब सब तरफ उन्हीं वासनाओं के आधार पर हम एक जगत को देखते हैं, जो हमारी ही कल्पनाओं का निर्मित जगत है।
लेकिन एक दिन बुढ़ापा आएगा।
मेरी महबूब! यह हंगामाएत्तजदीदे-वफा
मेरी अफसुर्दा जवानी के लिए रास नहीं
मैंने जो फूल चुने थे तेरे कदमों के लिए
उनका धुंधला सा तसव्वुर भी मेरे पास नहीं
तब जिंदगी में जवानी में तुमने जो-जो आकांक्षाएं की थीं, अगर वे पूरी होने को भी आ जाएं, तो तुम क्षमा
मांगोगे। तुम कहोगे, अब नहीं! अब नहीं, अब बहुत देर हो चुकी; अब मैं पार हो चुका उन खिलौनों
के। अब उन इच्छाओं से दूर आ चुका।
लेकिन यह दूर आना अगर साक्षीभाव में हुआ हो, तो तुम्हारे भीतर परमात्मा की आकांक्षा पैदा होगी। उसका समय से कोई संबंध
नहीं है। तब तुम्हारे भीतर वस्तुतः अभीप्सा पैदा होगी ईश्वर को पाने की। उसका बुढ़ापे
से कोई नाता नहीं, वह कभी भी पैदा हो सकती थी--बचपन में,
जवानी में, बुढ़ापे में। उसका वय से, उम्र से कोई लेना-देना नहीं है।
तो भरतराम, तुम पर निर्भर है। तुम्हारा प्रश्न तो महत्वपूर्ण है,
लेकिन उत्तर मैं नहीं दे सकता। उत्तर तुम्हें ही अपने हृदय में तलाशना
होगा। तुम ईश्वर को क्यों चाह रहे हो अब? किसी भय के कारण?
या किसी बोध के कारण? मौत डरा रही है, इसलिए या कि जीवन को देख लिया और कुछ भी न पाया, सिर्फ
देखते-देखते देखने वाले पर पकड़ आ गई? इतना देखा, इतना देखा कि देखने वाले की याद आ गई?
तुम कभी सिनेमा देखने जाते हो। जब सिनेमा की फिल्म चलती होती है, पर्दे पर रंगीन तस्वीरें आती होती हैं, कहानी का
उलझाव तुम्हें उलझा लेता है, तब तुमने एक बात देखी--तुम अपने
को भूल जाते हो; कहानी ही सब कुछ हो जाती है। कभी-कभी तो
कहानी ऐसे मन को जकड़ लेती है कि कोई तुम्हारी जेब भी काट ले तो तुम्हें पता नहीं
चलता। तभी तो सिनेमागृहों में जेबें कट जाती हैं। तुम ऐसे आतुर हो गए होते हो
कहानी में, ऐसे लीन, ऐसे तल्लीन,
कि जेब कट गई, पता नहीं चलता।
लेकिन फिल्म समाप्त हुई, पर्दा चित्रों से
खाली हुआ--और एकदम से जो पहली याद तुम्हें आती है, खयाल करना,
वह अपनी। एकदम से अपनी याद आती है--कि अरे, अब
चलूं! अब उठूं! फिल्म खत्म हुई, कहानी समाप्त हुई, घर जाने का समय आ गया।
ऐसे ही इस जिंदगी में बहुत खेल हैं, बहुत कहानियां हैं,
बहुत अफसाने हैं; एक के बाद एक सिलसिला है;
अगर इन सारे सिलसिलों के बीच में तुम्हें एक याद बार-बार आती
रहे--अपनी, कि अब चलूं, अब उठूं,
कि अब कहानी खत्म हुई, कि अब घर जाने का समय आ
गया--अगर यह परमात्मा की याद घर जाने की याद हो, तो यह सत्य
है। फिर इसमें गुणात्मक भेद है। और अगर यह सिर्फ कायरता, भीरुता,
भय, डर; मौत आ रही है,
आगे का कुछ इंतजाम कर लो--अगर उससे पैदा हो रही हो, तो यह सिर्फ बुढ़ापे की निशानी है और कुछ भी नहीं। इसका कोई धार्मिक मूल्य
नहीं है।
सोचना तुम्हें होगा। मैं इसका उतर नहीं दे सकता। इसे तुम्हें अपने ही
हृदय में तलाशना होगा। और तलाशोगे तो जरूर उत्तर मिल जाएगा। सच तो यह है कि उत्तर
तुम जानते ही होओगे! इतनी देर मैंने जो बात की, इस बात में तुम्हें
उत्तर साफ हो ही गया होगा। इतनी देर जो मैंने तुम्हारे प्रश्न की चर्चा की,
जो तुम्हारे प्रश्न की छानबीन की, विश्लेषण
किया, तुम्हें भीतर दिखने ही लगा होगा कि किस कारण तुम आज
ईश्वर में उत्सुक हुए हो।
समझो तुम्हारी उम्र सत्तर साल की हो गई और मैं तुमसे कहता हूं कि मैं
तुम्हें आशीर्वाद देता हूं, सत्तर साल और जी सकते हो। क्या होगा? ईश्वर की इच्छा कायम रहेगी? या तुम कहोगे कि अब फिर
देखेंगे! कि अब मिल गए चार दिन और, तो अब फिर चांदनी रातें;
अब फिर मधुशालाएं; अब थोड़ा और भोग लें;
अब ईश्वर फिर सत्तर साल प्रतीक्षा कर सकता है, जल्दी क्या है? जरा सोचो, अगर
कोई चमत्कार घटे और तुमसे कह दिया जाए कि सत्तर साल और तुम जी सकते हो, तो ईश्वर की इच्छा खो जाएगी? या और बलवती हो जाएगी?
तुम कहोगे: अहा, तो यह मौका मिला, अब सत्तर साल पूरे के पूरे लगा दूं ईश्वर की खोज में! पिछले सत्तर तो गए,
अब ये सत्तर नहीं जाने दूंगा। अगर ऐसा भाव उठे तो समझना कि सच्ची
आकांक्षा उठी।
लेकिन अगर यह सुन कर कि सत्तर साल और बचने का मौका मिला, तुम कहो कि यह अच्छा हुआ। वह धंधा शुरू किया था, आधा
था, उसको पूरा कर लूं। जल्दी ही बयासी के चुनाव आ रहे हैं,
घोड़े-गधे, खच्चर, सब खड़े
हो रहे हैं, मैं भी यह मौका न चूकूं। अब रहा ईश्वर, सो ईश्वर प्रतीक्षा कर सकता है। अब क्या जल्दी है? अब
देखेंगे बाद में। अब जब मौत फिर द्वार खटखटाएगी तब स्मरण कर लेंगे। अगर ऐसा भाव
उठे, तो बस समझ लेना कि यह जो तुम्हारी अभीप्सा थी--बचपन का
खिलौना थी, जवानी की आकांक्षा थी, और
इसमें, जरा भी फर्क नहीं, यह बुढ़ापे का
खेल है।
साफ कर लो। क्योंकि अगर यह बुढ़ापे का खेल है, तो व्यर्थ है। और अगर यह जीवन की परिपक्वता का फूल है, तो यह परम सौभाग्य है, तुम बड़भागी हो! धन्यवाद दो
ईश्वर को। देर सही, अबेर सही, घर आने
की सुध आ गई।
और सुबह का भूला सांझ भी घर आ जाए तो भूला नहीं कहाता है।
आज इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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