प्रेम—पंथ ऐसो कठिन-(प्रश्नोत्तर)-ओशो
प्रवचन—चौथा
दिनांक 30 मार्च सन् 1979,
ओशो आश्रम, कोरेगांव पार्क पूना।
प्रश्न-सार:
1—एक कौतुक मैंने देखा: मेरी खोपड़ी में खंजड़ी बज
रे लोल!
क्या भक्त को अहंकार होता है? जहां ढूंढा, तो श्री हरि आपको ही पाया।
2—ध्यान की गहराई जैसे-जैसे बढ़ रही है, वैसे-वैसे प्राणों में जैसे अनेक गीत फूट पड़ने को मचल उठे हों। क्या करूं?
3—क्या संकोच अहंकार को पुष्ट करता है?
किसी के चरणों में गिर जाने की चाह होते हुए भी
संकोचवश चरण स्पर्श नहीं करता। संकोच में सोचता हूं कि लोग क्या कहेंगे?
4—क्या आत्मोपलब्धि के लिए सांसारिक जीवन जीना आवश्यक
है?
पहला प्रश्न: एक कौतुक मैंने देखा: मेरी खोपड़ी
में खंजड़ी बजे रे लोल! क्या भक्त को अहंकार होता है? जहां ढूंढ़ा, तो श्री हरि आपको ही पाया।
तरु! कौतुक इसमें कुछ भी नहीं। सचाई यही
है। खोपड़ी खंजड़ी से ज्यादा नहीं। खोपड़ी में चल रहा शोरगुल बस बजाई गई खंजड़ी से
ज्यादा मूल्यवान नहीं है। खोपड़ी तुम्हारी आत्मा नहीं है, तुम्हारी आत्मा पर जम गया कूड़ा-करकट है। विचार तुम पर जम गई धूल है। तुम
हो दर्पण। धूल झड़े, दर्पण निखरे, तो जो
है उसकी प्रतिछबि बने, सत्य का अनुभव हो, साक्षात्कार हो।
खोपड़ी ही बाधा है। और तो कोई बाधा नहीं है तुम्हारे और परमात्मा के
बीच। वह जो खोपड़ी की खंजड़ी बजती रहती है--और बजती ही रहती है; दिन बजती, रात बजती; जागते
बजती, सोते बजती; एक तरफ से बंद करो,
दूसरी तरफ से बजती; उसे बजने के बहुत ढंग आते
हैं। आस्तिक की तरह बजती, नास्तिक की तरह बजती; हिंदू की तरह बजती, मुसलमान की तरह बजती। खोपड़ी के
रास्ते बड़े जटिल हैं, बड़े प्रवंचनापूर्ण हैं। तुम जैसा चाहो
वैसा बजती है। मगर एक बात भर चाहती है कि बजती रहे, शोरगुल
होता रहे। इसी शोरगुल के कारण भीतर जो छिपे हुए प्राणों का अपना नाद है, वह सुनाई नहीं पड़ता। तुम्हारे प्राणों के प्राण में वेद का उच्चार हो रहा
है, वेदों का जन्म हो रहा है--इस क्षण, अभी, यहीं। लेकिन खोपड़ी सुनने दे तब न!
और खोपड़ी बड़ी होशियार है। अपने को बचाने के बहुत उपाय करती है। अपने
को बचाने के बहुत तर्क खोजती है; सुरक्षाएं, सुविधाएं। और कहीं खोपड़ी से तुम्हारा साथ न छूट जाए, इसके इतने आयोजन करती है, इतनी खूंटियां गाड़ती है और
इतनी व्यवस्था से गाड़ती है कि धीरे-धीरे तुम्हें लगने लगता है: यही मैं हूं।
तुम्हारा तादात्म्य हो जाता है। और जिसका अपनी खोपड़ी से तादात्म्य हो गया, वह सदियों-सदियों के लिए भटक जाता है। खोपड़ी से संबंध तोड़ना है, ताकि हम उसे जान सकें जो हम हैं।
तो तरु, तू पूछती है: "एक कौतुक मैंने देखा: मेरी खोपड़ी
में खंजड़ी बजे रे लोल!'
कौतुक नहीं है। लेकिन कौतुक जैसा ही मालूम होगा। क्योंकि जिससे हमारा
सदा-सदा तादात्म्य रहा है, अचानक हमें पता चले कि अलग ही कोई चीज बज रही है,
मुझसे भिन्न कोई चीज बज रही है, यह मैं नहीं
हूं, तो आश्चर्यविमुग्ध हो जाना पड़ेगा। एक क्षण को सब ठिठक
जाएगा; एक सन्नाटा छा जाएगा। और एक क्षण को ऐसा लगेगा कि
कहीं मैं पागल तो नहीं हुआ जा रहा हूं। क्योंकि खोपड़ी ने दावा कर रखा है कि
बुद्धिमानी उसकी ठेकेदारी है। खोपड़ी ने तुम्हें समझाया है कि मैं हूं, तो तुम बुद्धिमान। मैं नहीं, तो तुम मूढ़। मैं हूं,
तो तुम समझदार। मैं नहीं, तो तुम विक्षिप्त।
खोपड़ी प्रेम की निंदा करती है। क्योंकि प्रेम तुम्हें वहां ले जाएगा जहां खोपड़ी की
गति नहीं है। खोपड़ी परमात्मा की निंदा करती है। क्योंकि परमात्मा तक जाने का मार्ग
पागलपन से होकर गुजरता है, दीवानगी से होकर गुजरता है। तो
पहले-पहले तो लगेगा कि यह कैसा चमत्कार हो रहा है! यह क्या अनहोना घट रहा है!
लेकिन कुछ अनहोना नहीं है।
जुनूं खुदनुमा खुदनिगर भी नहीं,
खिरद की तरह कमनजर भी नहीं।
एक ऐसा पागलपन भी है जो बुद्धि से बहुत बड़ा है और बुद्धि से कहीं
ज्यादा बुद्धिमान है। बुद्धि तो बड़ी संकीर्ण है। एक ऐसा पागलपन भी है, जो आकाश की तरह विस्तीर्ण है।
जुनूं खुदनुमा खुदनिगर भी नहीं,
खिरद की तरह कमनजर भी नहीं।
खिरद यानी बुद्धि। बुद्धि की तरह छोटी दृष्टि भी नहीं है, एक ऐसा जुनून भी है। उसी जुनून का नाम प्रेम है। और उसी जुनून की परम
अभिव्यक्ति भक्ति है। प्रेम-पंथ ऐसो कठिन! पागल होने की क्षमता हो तो ही कोई
प्रेमी हो सकता है। और उस उन्माद, उस परम उन्माद की खूबियां
हैं।
उस परम उन्माद की दो खूबी हैं। एक--
जुनूं खुदनुमा खुदनिगर भी नहीं,
एक तो जुनून अहंकारी नहीं होता। वहां कहां अहंकार? वहां पता कहां अपना? विराट में सब खो जाता है। लहरें
सागर के साथ एक हो जाती हैं।
जुनूं खुदनुमा खुदनिगर भी नहीं,
और विक्षिप्तता, वह परम विक्षिप्तता, जिसको भक्ति कहें, भाव कहें, वह
अपने पर आश्रित भी नहीं है। वह तो परमात्म-आश्रित है। उसका स्रोत तो परमात्मा में
है। हौज अपने पर आश्रित होती है। उसका पानी बस उसमें ही भरा है। कुआं अपने पर
आश्रित नहीं होता। उसके झरने सागर से जुड़े हैं।
जुनूं खुदनुमा खुदनिगर भी नहीं,
खिरद की तरह कमनजर भी नहीं।
कोई राहजन का खतर भी नहीं,
कि दामन में गर्दे-सफर भी नहीं।
और जो चल पड़े इस उन्माद के मार्ग पर, वे लूटे नहीं जा
सकते। उन्हें डाकुओं का खतरा भी नहीं है। प्रेम ही एक ऐसी संपदा है जिसे कोई चुरा
न सकेगा। प्रेम ही एक ऐसी संपदा है जिसे कोई छीन न सकेगा। गर्दन काटी जा सकती है,
प्राण लिए जा सकते हैं, मगर तुम्हारा प्रेम
नहीं छीना जा सकता।
कोई राहजन का खतर भी नहीं,
कि दामन में गर्दे-सफर भी नहीं।
अदभुत है यह उन्माद का मार्ग कि कोई इसे लूट नहीं सकता, कोई लुटेरा रास्ते में हमला नहीं कर सकता। और, इतनी
लंबी यात्रा है प्रेम की--पदार्थ से परमात्मा तक, इतनी बड़ी
यात्रा है--फिर भी दामन पर धूल इकट्ठी नहीं होती। ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं
चदरिया, खूब जतन से ओढ़ी रे कबीरा। जिन्होंने प्रेम का रास्ता
जाना है, वे तो रोज नहाए ही नहाए हैं, प्रतिपल
नहाए ही नहाए हैं। उनके ऊपर तो परमात्मा की वर्षा होती ही रहती है, अमृत झरता ही रहता है, धूल जमने नहीं पाती।
यहां होशो-ईमां सभी लुट गए,
मजा ये है उनको खबर भी नहीं।
और जो इस प्रेम के उन्मादपूर्ण पथ पर चले हैं, वहां होश भी लुट जाता है, तथाकथित धर्म-अधर्म,
पुण्य-पाप की धारणाएं भी लुट जाती हैं।
यहां होशो-ईमां सभी लुट गए,
मजा ये है उनको खबर भी नहीं।
पता ही नहीं चलता। बुद्धि को पता नहीं चलता कि कब बुद्धि विदा हो गई।
होश, समझदारियां कब विलीन हो गईं, कानों-कान
खबर नहीं होती। यह सब चुपचाप हो जाता है, यह मौन में हो जाता
है।
कूचा-ए-शौक रहे-फिक्रो-नजर से गुजरे,
जिन्होंने प्रेम की यह गली पकड़ ली, वे प्यारे की गली में
आ गए!
कूचा-ए-शौक रहे-फिक्रो-नजर से गुजरे,
फिर उनकी आंखों में बस एक प्यारे की गली ही दिखाई पड़ती है। फिर उनके
चिंतन-मनन-निदिध्यासन में बस एक प्यारे की गली ही दिखाई पड़ती है।
कूचा-ए-शौक रहे-फिक्रो-नजर से गुजरे,
नक्शे-पा छोड़ गए हम तो जिधर से गुजरे।
और प्रेमी जहां से गुजर जाते हैं, वहां मंदिर खड़े हो
जाते हैं। उनके पैरों के चिह्न जहां पड़ जाते हैं, वहां काबा
और कैलाश बन जाते हैं, वहां तीर्थों के निर्माण हो जाते हैं।
कूचा-ए-शौक रहे-फिक्रो-नजर से गुजरे,
नक्शे-पा छोड़ गए हम तो जिधर से गुजरे।
आज ऐ वहशते-दिल जाने किधर से गुजरे।
और फिर ऐसी भी घड़ी आती है--उस उन्माद की परम घड़ी--जब कुछ भी पता नहीं
चलता कि कहां से गुजर रहे हैं। क्योंकि प्रेमी और प्यारे में भी भेद नहीं रह जाता।
कौन मैं, कौन तू--कुछ अंतर नहीं रह जाता।
आज ऐ वहशते-दिल जाने किधर से गुजरे।
कितने दिलचस्प थे मंजर जो नजर से गुजरे।
और तभी जीवन के परम रहस्य अपने द्वार खोलते हैं।
कितने दिलचस्प थे मंजर जो नजर से गुजरे।
फिर जो आंखों में दिखाई पड़ता है, वही परमात्मा है। फिर
जिसकी प्रतीति होती है, वही सत्य है। फिर हृदय में जिसका
स्वाद उतरता है, उसकी ही तलाश थी, जन्मों-जन्मों
उसी की खोज थी।
आज ऐ वहशते-दिल जाने किधर से गुजरे।
कितने दिलचस्प थे मंजर जो नजर से गुजरे।
हम भी मस्जिद के इरादे से चले थे लेकिन,
मैकदे राह में हायल थे जिधर से गुजरे।
सोचा तो था कि मस्जिद से गुजरेंगे। विचारा तो था कि मस्जिद से
गुजरेंगे। चले तो थे शास्त्रों, सिद्धांतों, प्रश्नों के अंबार लेकर। सोचा तो था कि मंदिर रास्ते में पड़ेगा, मस्जिद रास्ते में पड़ेगी। सोचा तो था कि वेद और कुरान और बाइबिल रास्ते
में मिलेंगे। मगर कुछ और हुआ, कुछ और ही हुआ! और जब पहली दफा
होता है, तरु, तो कौतुक मालूम होता है।
हम भी मस्जिद के इरादे से चले थे लेकिन,
मैकदे राह में हायल थे जिधर से गुजरे।
लेकिन हुआ कुछ और। चले थे मस्जिद के इरादे से और पहुंच गए मधुशाला।
प्रेमी मधुशाला पहुंच ही जाते हैं। प्रेम मधुशाला पहुंचा ही देता है।
प्रेम कहीं और नहीं ले जा सकता। और मधुशाला का अर्थ होता है: कोई जीवित सत्संग।
मधुशाला का अर्थ होता है: जहां गर्दनें काटी जा रही हैं और जहां हृदय सींचे जा रहे
हैं। मधुशाला का अर्थ होता है: जहां विचार छोड़े जा रहे हैं और प्रेम के फूल खिलाए
जा रहे हैं। मधुशाला का अर्थ होता है: जहां शास्त्र जलाए जा रहे हैं और सत्यों की
अनुभूतियां उपलब्ध कराई जा रही हैं। मधुशाला का अर्थ होता है: जहां होश-हवास खोया
जा रहा है और एक नया होश, एक नया जागरण, एक नई चेतना का
सूत्रपात हो रहा है।
एक तो होश है खोपड़ी का, वह खंजड़ी की आवाज से
ज्यादा नहीं। और एक होश है हृदय का, जहां ओंकार का नाद बजता
है। कौतुक मालूम होगा। शुरू-शुरू कौतुक मालूम होना निश्चित है।
ये वो मंजिल है कि इलियास भी गुम खिज्र भी गुम, हाय आवारगी-ए-शौक किधर से गुजरे?
प्रेम का गंतव्य ऐसा है कि वहां बड़े-बड़े पैगंबर--इलियास और खिज्र भी
गुम हो जाते हैं। वहां बड़े-बड़े मार्गदर्शक भी किसी काम नहीं आते।
ये वो मंजिल है कि इलियास भी गुम खिज्र भी गुम, हाय आवारगी-ए-शौक किधर से गुजरे?
लेकिन प्रेम के दीवाने वहां भी पहुंच जाते हैं। जहां बड़े पैगंबर थक कर
गिर जाते हैं और गल जाते हैं, प्रेम के दीवाने वहां भी गति कर
जाते हैं।
कितनी अमवाजे-बला पाओं की जंजीर बनीं,
कितने तूफाने-हवादिस थे कि सर से गुजरे।
और कितनी मुसीबतों ने पैरों में जंजीरें डालीं, और कितने तूफान आए, और कितनी आंधियां उठीं, और कितने उपद्रव सिर से गुजरे।
जाहिदो-शैख में क्या-क्या न हुई सरगोशी,
और पंडित-पुरोहितों में, त्यागी-वैरागियों में
कैसी-कैसी अफवाहें न उड़ीं--प्रेमियों के प्रति सदा ही अफवाहें उड़ती हैं।
जाहिदो-शैख में क्या-क्या न हुई सरगोशी,
मैकदे जाते हुए हम जो उधर से गुजरे।
मधुशाला जाते वक्त, जब किसी प्रेम के सत्संग में
जाते वक्त, किसी बुद्ध, किसी महावीर,
किसी कृष्ण के पास जाते समय मंदिर-मस्जिद के पुजारी भी
देखेंगे--कहां जा रहे हो। और उनके मन में निंदाएं भी उठेंगी। और विरोध भी उठेंगे।
यह बिलकुल स्वाभाविक है। क्योंकि वे तो खोपड़ी को ही सब कुछ समझे बैठे हैं। खोपड़ी
की अभी उनकी खंजड़ी नहीं बनी। अभी तो खोपड़ी में ही विराजमान हैं। वही उनका सिंहासन
है।
फैजे-मैखाना अभी आम नहीं है वरना,
कौन है जिसने मये-नाब न चाही होगी?
मगर एक बात है, मधुशाला अभी तक भी पूरी पृथ्वी पर नहीं फैल पाई,
क्योंकि लोगों को मधुशाला का मजा ही पता नहीं है। उन्हें खबर ही
नहीं है।
फैजे-मैखाना अभी आम नहीं है वरना,
मधुशाला की उदारता का भी उन्हें पता नहीं है, कि वहां किस तरह ढाली जा रही है; किस तरह, पात्र हो कि अपात्र, सभी को ढाली जा रही है; कि न कोई छोटा है, न कोई बड़ा; न
कोई अच्छा है, न कोई बुरा; न कोई साधु,
न कोई असाधु; बेशर्त बांटी जा रही है।
फैजे-मैखाना अभी आम नहीं है वरना,
कौन है जिसने मये-नाब न चाही होगी?
ऐसा कौन है जो मस्त नहीं हो जाना चाहता? ऐसा कौन है जो प्रेम
को पीकर नाच नहीं उठना चाहता? लेकिन मधुशाला की उदारता लोगों
को पता नहीं है--कि मधुशाला तैयार है, भरो अंजुलि, पीओ जितना पीना हो।
मगर पंडित हैं, पुजारी हैं, त्यागी हैं,
व्रती हैं, रास्तों पर खड़े हैं, वे अटका रहे हैं। वे मंदिरों-मस्जिदों में भेज रहे हैं। वे वहां भेज रहे
हैं जहां शब्दों के जाल हैं केवल। वे वहां भेज रहे हैं जहां सिद्धांतों का बड़ा
ऊहापोह, बड़ा शोरगुल है। जहां एक ही खोपड़ी की खंजड़ी नहीं बज
रही है, बहुत खोपड़ियों की खंजड़ियां साथ-साथ बज रही हैं। जहां
बाजार भरा है।
जिसपे औहामो-जहालत के पड़े हों पर्दे,
मोतबर खाक वो महदूद निगाही होगी।
और जहां सिद्धांतों और शब्दों की संकीर्णताएं चित्त पर बैठी हों, वह आंख कैसे विस्तीर्ण हो सकती है? कैसे विस्तार को
अनुभव कर सकती है? सिद्धांत संकीर्ण करता है। हिंदू हुए,
संकीर्ण हुए; जैन हुए, संकीर्ण
हुए; मुसलमान हुए, संकीर्ण हुए।
सिद्धांत संकीर्ण करता है। सिद्धांत-मुक्त होते ही विस्तीर्ण होते हो तुम। और जहां
विस्तार सिखाया जाता हो, वहीं आकाश से संबंध भी जुड़ सकता है।
जिसपे औहामो-जहालत के पड़े हों पर्दे,
मोतबर खाक वो महदूद निगाही होगी।
इंकलाबात की मंजिल है खिजर से कह दो,
अब जुनूं राहनुमा जिंदगी राही होगी।
अब कह दो तुम्हारे पथ-प्रदर्शकों से एक बात, उनको साफ हो जाने दो एक बात--
इंकलाबात की मंजिल है खिजर से कह दो,
कि अब राह दिखाने वाला हमें मिल गया।
अब जुनूं राहनुमा जिंदगी राही होगी।
अब तो हमारा पागलपन ही हमारा पथ-प्रदर्शक होगा और जिंदगी ही हमारा
मार्ग होगी, अब तो हम जिंदगी के मार्ग से चलेंगे और दीवानों की
तरह डोलते हुए चलेंगे।
जो दीवानों की तरह डोलता हुआ चलता है, वह पहुंच जाता है।
धन्यभागी हैं वे, जो लड़खड़ा कर चलना सीख जाते हैं। उनकी मंजिल
दूर नहीं है। उनके लड़खड़ाने में मंजिल आ जाती है। उनका लड़खड़ाना मंजिल है।
इंकलाबात की मंजिल है खिजर से कह दो,
अब जुनूं राहनुमा जिंदगी राही होगी।
हमने हर हाल में उस दुश्मने-जां से "ताबां'
यूं निबाही कि किसी ने न निबाही होगी।
कठिन होता है निबाहना यह पागलपन। लेकिन निबाहना एक बार आ जाए, तो इसके मजे इतने हैं, इसके आनंद इतने हैं--इतने
अकूत, इतने असीम, इतने अतौल!
ठीक हुआ, तरु, जो तुझे लगा कि मेरी खोपड़ी
में खंजड़ी बजे रे लोल! खंजड़ी ही है। किसी काम की नहीं है। पुरानी आदत है बजने की
तो बजती रहती है।
धीरे-धीरे इससे संबंध छोड़ लो। धीरे-धीरे खंजड़ी को बजने दो और अपने बीच
और खंजड़ी के बीच दूरी बढ़ा लो। जितनी दूरी बढ़ जाए, उतना अच्छा। मस्तिष्क
से जितनी मुक्ति हो जाए, उतना शुभ; उतना
सुंदर, उतना सत्य, उतना शिव।
पूछा है तूने: "क्या भक्त को अहंकार होता है?'
असंभव। क्योंकि अहंकार हो तो भक्त भक्त ही नहीं हो सकता। त्यागी को
अहंकार हो सकता है, ज्ञानी को अहंकार हो सकता है, भक्त
को अहंकार नहीं हो सकता। क्योंकि भक्त होने की तो पहली शर्त वही है कि अहंकार न
हो। त्यागी होने की वह पहली शर्त नहीं है। त्यागी होने के लिए--धन छोड़ो, पद छोड़ो, संसार छोड़ो--ये शर्तें हैं। मगर तब छोड़ने
का अहंकार घना होगा कि मैंने इतना धन छोड़ा, मैंने इतनी
प्रतिष्ठा छोड़ी, प्यारी पत्नी छोड़ी, सुंदर
बच्चे छोड़े, भरा-पूरा घर छोड़ा, सुख-सुविधा
छोड़ी। त्यागी कहता है, चीजें छोड़ो! चीजें छोड़ने से अहंकार
मजबूत होगा। त्याग का अहंकार जन्मेगा। लेकिन भक्त तो चीजें छोड़ने को कहता नहीं।
भक्त तो कहता है, अहंकार छोड़ो। वह तो उसकी पहली शर्त है।
तो या तो वह भक्त ही नहीं है, अगर अहंकार हो। और
अगर भक्त है, तो अहंकार की कोई संभावना नहीं है। भक्त तो
पहली ही चोट में मामले को साफ कर लेता है।
ज्ञानी और त्यागी बड़ी देर लगा देते हैं। और-और चीजों को छुड़ाते रहते
हैं, धीरे-धीरे अभ्यास करवाते रहते हैं--पहले यह छोड़ो,
फिर वह छोड़ो, फिर वह छोड़ो। अंततः अहंकार छोड़ना
होगा, लेकिन अंततः। त्यागी के रास्ते पर अहंकार की मृत्यु
अंतिम घटना है, भक्त के रास्ते पर पहली घटना है। जो त्यागी
का अंतिम चरण है, वह भक्त का पहला चरण है। इसलिए त्यागी जहां
अंत में पहुंचता है, भक्त वहां पहले ही पहुंच जाता है।
और इसीलिए तो कहते हैं कि प्रेम का पंथ कठिन है। प्रेम-पंथ ऐसो कठिन!
क्योंकि त्यागी तो धीरे-धीरे, अभ्यास करते-करते-करते-करते,
एक दिन, आखिर में, जब
कुछ और न बचेगा सिर्फ अहंकार बचेगा, तो छोड़ेगा। भक्त तो एक
ही तलवार की चोट में रफा-दफा कर लेता है। निर्णय कर लेता है। इस पार या उस पार।
पूछा तूने: "क्या भक्त को अहंकार होता है?'
असंभव। भक्त को अहंकार नहीं हो सकता। अहंकार छोड़ कर ही तो भक्त भक्त
होता है।
और तू कहती है कि जहां ढूंढ़ा तो श्री हरि आपको ही पाया।
और पाने को कुछ है ही नहीं। परमात्मा ही है। अहंकार भर चला जाए, तो उसके सिवाय पाने को और कुछ भी नहीं है। यह तो अहंकार की ही आंख पर चढ़ी
हुई पट्टी है, जो न मालूम क्या-क्या दिखलाती है। ये तो
अहंकार के ही पर्दे हैं, जिनसे न मालूम कितने-कितने जाल,
झूठ, भ्रम, माया,
सपने पैदा होते हैं। अहंकार आंख से हटा, अहंकार
की जाली हटी, कि जो है वह प्रकट हो जाता है। और श्री हरि के
अतिरिक्त और कौन है!
दूसरा प्रश्न: ध्यान की गहराई जैसे-जैसे बढ़ रही
है, वैसे-वैसे प्राणों में जैसे अनेक गीत फूट पड़ने को मचल
उठे हों! क्या करूं?
चेतना! गाओ। गुनगुनाओ।
नाचो। इसमें प्रश्न कहां है? इसमें पूछने को क्या है?
ध्यान की गहराई बढ़ेगी तो झरने फूटेंगे। ध्यान की गहराई बढ़ाते ही
किसलिए हैं? इसीलिए कि झरने फूटें। ध्यान की गहराई की आकांक्षा ही
क्यों है? ताकि भीतर छिपा हुआ गीत प्रकट हो। ताकि पैरों में
अगर कोई नृत्य छिपा हो तो अभिव्यक्त हो जाए। ताकि प्राणों में अगर कोई सुवास सोई
पड़ी हो तो जाग जाए। ताकि तुम जो होने को हो, हो जाओ। ताकि
तुम ऐसे ही बीज की तरह बंद न रह जाओ, कमल की तरह खिल जाओ।
शुभ हो रहा है। अब यह मत पूछो कि क्या करूं? अब तो भीतर से ही आवाज आ रही है, तो गाओ, नाचो। जो भी रूप तुम्हारी सृजनात्मकता लेना चाहे, उसे
लेने दो।
मेरे हिसाब में सृजनात्मकता ही सेवा है। कुछ करो, कुछ ऐसा, जिसमें तुम्हारे प्राण तृप्त हों। और जरूर
तब औरों के भी प्राण तृप्त होंगे। अगर तुम्हारी परम संतुष्टि से कुछ निकलेगा,
बहेगा, तो दूसरे के जीवन में भी संतोष की झलक
आएगी, हवा आएगी, झोंका आएगा। तुम्हारे
भीतर दीया फूट पड़ने को तैयार है, रोशनी फैलने को उत्सुक है,
फैलने दो, कृपणता न करना, कंजूसी न करना!
चेतना, जरूर तेरे मन में कहीं कोई कंजूसी होगी!
हम जिंदगी भर कंजूसी सीखते हैं। कृपणता हमारे जीवन का अर्थशास्त्र है।
कुछ भी हो, छिपा लो। जल्दी से जमीन में गाड़ दो कि किसी को पता न
चल जाए, कि कोई चुरा न ले, कि कोई छीन
न ले, कि कोई मांगने ही न आ जाए, कि
संकोचवशात किसी को देना ही न पड़े। हमारी आदतें चोरी की हैं, और
हम चोरों के बीच रहते हैं। हमारी आदतें मांगने की हैं, और हम
मंगनों के बीच रहते हैं। और हमारी आदतें छिपाने की हैं, क्योंकि
चारों तरफ संकट ही संकट है। ये आदतें, जब भीतर के जगत का द्वार
खुलता है, तब भी एकदम से छूट नहीं जातीं, कई दिन तक पीछा करती हैं। भीतर के आनंद का अर्थशास्त्र अलग है--बांटो तो
बढ़ता है, रोको तो घटता है। लेकिन पुरानी आदतें ये हैं कि
रोको! बचाओ! सम्हाल कर रखो! कुछ बिखर न जाए, कुछ खो न जाए!
इसलिए प्रश्न उठा है कि क्या करूं? नहीं तो प्रश्न की
बात ही कहां? नाचने की मौज आ गई, नाचो!
वृक्ष तो नहीं पूछते। जब हवाएं आती हैं, वृक्ष नाचते हैं। और
फूल तो नहीं पूछते। जब खिलते हैं, तो सुवास उड़ती है। और तारे
तो नहीं पूछते। रात होती है और रोशनी बरसती है।
ध्यान की गहराई बढ़ेगी तो अभिव्यंजना की शक्ति भी बढ़ेगी। ध्यान की
गहराई का सबूत ही एक है कि तुम्हारे भीतर सृजनात्मकता पैदा हो। तुम्हारे भीतर कुछ
करने, कुछ प्रकट होने का एक प्रगाढ़ संकल्प उठे--ऐसा कि जिसे
तुम रोक भी न पाओ।
आज बरसों बाद पीतम मिल गए जीवन डगर में।
मृत मनोरथ के सुमन ये खिल गए जीवन डगर में।
वे धुएं के तूल से छाए हुए थे सजन बादल,
झर रहा था गगन के हिय से मगन यौवन-लगन-जल;
उन दुखद रिमझिम-क्षणों में
शून्य पंकिल पथ-कणों में
हार से, मनुहार से पिय मिल गए जीवन डगर में।
भर गया आकंठ हियत्तल, ललक उमड़ा नयन का जल
कर उठा नर्तन हृदय का कमल विकसित मुदित पल-पल
उस सिहरते नीम नीचे
झुक दृगों ने चरण सींचे
नेह-रस-वश अधर उनके हिल गए जीवन डगर में।
आज बरसों बाद पीतम मिल गए जीवन डगर में।
ध्यान गहरा होगा तो प्रीतम मिलेगा। ध्यान गहरा होगा तो प्यारा करीब
आएगा। नाचोगे नहीं! गीत न गाओगे! वंदनवार न सजाओगे! दीपमालिका न बनाओगे! पूछना
क्या है? ध्यान की गहराई प्यारे को करीब लाने लगी, उसकी पगध्वनि सुनाई पड़ने लगी, अब नाचे बिना न बनेगा!
नाचना ही होगा! और नाचना कुछ सीखना नहीं है। यह कोई नाच नर्तकी का नाच नहीं है कि
सीखने जाना पड़े। ये गीत जरूरी नहीं है कि मात्राओं और छंदों में आबद्ध हों। मैं
तुम्हें कोई कवि बनने को नहीं कह रहा हूं, मैं तुम्हें ऋषि
बनने को कह रहा हूं। फूटने दो गीतों को। जैसे फूटना चाहें--सहज, नैसर्गिक। जरूरी नहीं है कि तुम मात्रा, छंद और
व्याकरण बिठाओ, कि उसमें समय गंवाओ। उन व्यर्थ कामों में मत
उलझ जाना। जब गीत भीतर पैदा होता है, तो अपना रास्ता खुद बना
लेता है। तुम सिर्फ मार्ग दो, सहयोग दो, वह गा लेगा, वह अपने को गा लेगा। जब पानी खूब भर
जाता है सरोवर में, तो बहेगा, ऊपर से
बह लेगा और अपना रास्ता खोज लेगा सागर तक। किसी को रास्ता बनाना नहीं पड़ेगा।
तो तुम कुछ इस चिंता में मत पड़ना कि अब कैसे गीत गाया जाए? कैसे नाचा जाए? न मुझे संगीत आता, न कविता आती, न कभी छंद सीखे। फिकर छोड़ो! कोई पैरों
में घूंघर बांधने की भी जरूरत नहीं है, जब आत्मा में घूंघर
बंधे हों तो बिना पैरों में घूंघर बंधे नाच हो जाता है। और जब आत्मा गीतों से भरी
हो, तो मात्रा और छंद की कौन फिकर करता है?
लेकिन तुम्हारे प्राणों में कुछ भर रहा है, तो बहेगा।
आज मेरे प्राण में स्वर
भर गया कोई मनोहर!
क्षितिज के उस पार से वह मुस्कुराता पास आया
मधुर मोहक रूप में उस मूर्ति ने मुझको लुभाया
कौन सा संदेश लेकर सजनि, वह आया अवनि पर?
आज मेरे प्राण में स्वर
भर गया कोई मनोहर!
घुल गई थी प्राण में अपमान की भीषण व्यथा
ले गया वह साथ अपने दुख भरी बीती कथा
आंख में आया सजनि, वह आज मेरे अश्रु बन कर!
आज मेरे प्राण में स्वर
भर गया कोई मनोहर!
कर गया अनुरोध मुझसे गीत गाऊं मैं मधुर सा
भूल जाऊं जन्म का दुख, मृत्यु को समझूं
अमरता
यह अमर उपदेश उसका सजनि, कण-कण में गया भर!
आज मेरे प्राण में स्वर
भर गया कोई मनोहर!
स्वप्न से ही भर गया अलि, आज मेरा जीर्ण अंचल
वेदना की वह्नि में तप हो उठे हैं प्राण उज्ज्वल
दे गया वह सजनी मुझको जन्म का वरदान सुंदर!
आज मेरे प्राण में स्वर भर गया कोई मनोहर!
तुम तो बांस की पोंगरी हो जाओ, चेतना! गाना है उसे
तो गाएगा। नाचना है उसे तो नाचेगा। छोड़ दो उसकी मर्जी पर सब। मुझसे मत पूछो कि
क्या करूं? यह प्रश्न करने का नहीं है। तुम्हारे किए से तो
सब गड़बड़ हो जाएगा। तुमने कुछ किया, तो वह जो सहज स्वस्फूर्त
है, कृत्रिम हो जाएगा। तुमने उसे मार्ग दिया, तुमने उसे राह सुझाई, तुमने काट-पीट की, तुमने हिसाब-किताब बिठाया--सब सौंदर्य नष्ट हो जाएगा।
एक ईसाई पादरी अपना प्रवचन तैयार कर रहा था। कल आने वाला रविवार है और
कल रविवार को उसे प्रवचन देना है, बड़ा कोई धार्मिक उत्सव है,
वह अपना प्रवचन तैयार करने में लगा था। उसका छोटा बेटा पास ही बैठा
था। वह देख रहा था।
छोटे बच्चों के पास एक बुद्धिमत्ता होती है जो बूढ़ों के पास भी खो
जाती है। जिंदगी भर की धूल इतनी जम जाती है कि बुद्धिमत्ता खो जाती है। छोटे
बच्चों के पास एक निखार होता है, एक दृष्टि होती है, एक भोलापन होता है, एक सरलता होती है, एक निष्कपटता होती है।
उस छोटे बच्चे ने कहा, पिताजी, एक बात उठती है मेरे मन में। आप हमेशा कहते हैं--पिछले रविवार को भी आपने
कहा था चर्च में--कि मैं जो शब्द बोल रहा हूं ये मेरे नहीं हैं, ये परमात्मा के हैं।
तो पिता ने कहा, निश्चित। मैं उसके ही शब्द
दोहराता हूं।
तो उस बेटे ने कहा, फिर एक सवाल उठता है कि आप जो
प्रवचन लिख रहे हैं, इसमें इतनी काट-पीट क्यों कर रहे हैं?
अगर ये शब्द उसके हैं, तो आप कौन हैं काट-पीट
करने वाले? और अगर आप काट-पीट कर रहे हैं, तो ये शब्द उसके कैसे रहे?
यह बात मुझे प्रीतिकर लगी, उस छोटे से बच्चे ने
बड़ा महत्वपूर्ण सवाल उठाया: आप काट-पीट करने वाले कौन हैं? उतरने
दो उसे--जैसा उतरता हो, जिस भाव में, जिस
भंगिमा में, जिस मुद्रा में; जैसी उसकी
मर्जी।
चेतना, तू पूछती है: "मैं क्या करूं?'
तुझे कुछ नहीं करना है। तुझे बीच से हट जाना है। बस इतना ही करना है।
बिलकुल हट जाना है। ध्यान की गहराई बढ़ रही है, और गहराई बढ़ेगी,
तू बिलकुल बीच से हट जा! और जो होता हो, होने
दो।
मगर नहीं, खोपड़ी लौट-लौट कर कहती है: कुछ करो! ऐसे छोड़ मत देना,
उन्माद हो जाएगा, पागलपन हो जाएगा। बीच रास्ते
पर समझो कि गीत उठ आया, कि बीच रास्ते पर नाच शुरू हो
गया...वैसा हुआ है! तो बुद्धि कुछ एकदम गलत कहती है, ऐसा भी
नहीं। मीरा ऐसे ही तो नाच उठी बीच रास्तों पर। सब लोकलाज खोई रे। मीरा भी सोच सकती
थी कि कहां नाचना, कहां नहीं नाचना! बीच बाजारों में नहीं
नाचना। मगर नहीं, छोड़ दिया उसकी मर्जी पर! फिर जहां उसने
नचाया। फिर हम उसके हाथ की कठपुतली हो गए। अब वह बीच बाजार में नचाए, तो मीरा कैसे कहे नहीं? अब लोकलाज जाती हो तो जाए।
लोकलाज बच-बच कर भी क्या बचता है हाथ में? एक दिन मौत आती है,
मुंह में राख भरी रह जाती है, सब मिट्टी में
मिल जाता है। लोकलाज में रखा भी क्या है?
यह भी मत सोचना कि मेरे गीत पसंद किए जाएंगे कि नहीं किए जाएंगे? यह भी मत सोचना: प्रशंसा मिलेगी या नहीं मिलेगी?
ये सब बातें व्यर्थ हैं। ये संन्यासी के पूछने की बातें नहीं हैं।
प्रशंसा मिले कि अपमान, और सिंहासन मिले कि सूली, संन्यासी
का तो सीधा, साफ-सुथरा व्यवहार है। वह यह कि जो वह करवाएगा,
वही करेंगे। जहां ले जाएगा, वहीं जाएंगे।
दुनिया पागल समझे तो पागल समझे। दुनिया बुद्धिमान समझे तो बुद्धिमान समझे। न तो
दुनिया के बुद्धिमान समझने से तुम बुद्धिमान होते हो, न
दुनिया के पागल समझने से तुम पागल होते हो। तुम जो हो उसका निर्णय, परमात्मा क्या समझता है, इस पर आधारित है। तुम्हारा
अंतिम निर्णय उसके और तुम्हारे बीच होना है। वही होने दो निर्णय। उसी को निर्णायक
होने दो। वही एक मालिक निर्णय लेगा कि तुम्हारे गीत गाने योग्य थे या नहीं। और अगर
तुमने उसे ही गाने दिया, तो स्वभावतः वे गाने योग्य हैं ही।
ध्यान बढ़ता है तो सृजनात्मकता स्वभावतः बढ़ती है। मैं तो इसे कसौटी
मानता हूं। अगर ध्यान बढ़ने से कोई बिलकुल सुस्त, काहिल, निष्क्रिय, अकर्मण्य बैठ जाए, तो
समझना ध्यान नहीं बढ़ा। ध्यान के नाम से सिर्फ आलस्य को आरोपित कर लिया है। तो
समझना यह ध्यान नहीं है, सिर्फ काहिली है, सुस्ती है, तामस है।
ध्यान होगा तो ऊर्जा प्रकट होगी। किस रंग में, किस ढंग में, इसका कोई निर्णय बाहर से नहीं हो सकता।
मीरा नाचेगी, बुद्ध बोलेंगे, महावीर
चुप खड़े रहेंगे। क्या होगा, क्या रूप होगा--कोई भी नहीं
जानता। उस रूप की कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती है। पर एक बात सुनिश्चित है कि
ध्यान गहरा होगा तो कुछ होगा--कुछ अपूर्व, कुछ अद्वितीय।
तीसरा प्रश्न: क्या संकोच अहंकार को पुष्ट करता
है? कुछ करने को जी चाहता है, कुछ
देखने को जी चाहता है। किसी के चरणों में गिर जाने की चाह होते हुए भी संकोचवश
चरण-स्पर्श नहीं करता। संकोच में सोचता हूं कि लोग क्या कहेंगे?
रामछबि प्रसाद! संकोच अहंकार
को पुष्ट ही नहीं करता, संकोच अहंकार का ही छिपा हुआ रूप है। घूंघट में छिपा
हुआ चेहरा है। संकोच अहंकार की ही छबि है--सिर्फ घूंघट में। दिखाई नहीं पड़ता ऊपर
से कि भीतर अहंकार है। संकोच अहंकार है--शिष्ट आवरणों में, सुसंस्कृत
परिधानों में आच्छादित। मगर जरा तलाशोगे, जरा कुरेदोगे,
और भीतर अहंकार पाओगे। निर-अहंकारी व्यक्ति निःसंकोची होता है।
निर-अहंकारी व्यक्ति जैसा होता है वैसा ही होता है। किसी के पैर छूना है, तो पैर छूता है। और नहीं छूना है तो नहीं छूता। निर-अहंकारी व्यक्ति सहजता
से जीता है। उसके जीवन में ऊपर से आरोपित कुछ भी नहीं होता।
अहंकारी व्यक्ति प्रतिपल इसी हिसाब में लगा रहता है कि किस तरह से
मेरे अहंकार को ज्यादा सहारा मिलेगा? अकड़ कर खड़ा रहूं,
इससे मिलेगा? किसी के सामने न झुकूं, इससे मिलेगा? चेहरे को बिलकुल पत्थर की मूर्ति बना
लूं, इससे मिलेगा? कि लोग कहेंगे: यह
देखो, लौहपुरुष! और अहंकारी ऐसा भी सोच सकता है कि यहां पैर
छूने से लाभ होगा, लोग कहेंगे: देखो कैसा विनम्र, कैसा निर-अहंकारी, तो छू लूं पैर। वह पैर भी छुएगा
तो अहंकार के लिए, पैर नहीं भी छुएगा तो भी अहंकार के लिए।
उसकी सारी प्रक्रियाओं, क्रियाओं, व्यवहारों
का केंद्र अहंकार होगा।
तुम कहते हो: कुछ करने को जी चाहता है। नहीं करते, कि लोग पता नहीं क्या कहेंगे? कुछ देखने को जी चाहता
है। तुम नहीं देखते, कि पता नहीं लोग क्या कहेंगे? किसी के चरणों में गिर जाने की इच्छा होती है। फिर भी नहीं गिरते; पता नहीं लोग क्या कहेंगे?
तुम लोगों की ही सुनते रहोगे? तुम्हारी जिंदगी,
बस लोग क्या कहेंगे, इस हिसाब में ही बीत जानी
है? फिर तुम्हारी उपलब्धि क्या होगी? मरते
वक्त जब यही लोग तुम्हारी अरथी ले चलेंगे, ये कहेंगे कि यह
बेचारा ऐसे ही गया! यह यही सोचते-सोचते गया कि लोग क्या कहेंगे! तुम कुछ कर नहीं
पाओगे। तुम जी ही नहीं पाओगे।
तुमने प्रसिद्ध कहानी सुनी न पुरानी, कि एक बाप और उसका
बेटा अपने गधे को बेचने बाजार चले। रास्ते में कुछ लोग मिले, उन्होंने कहा, ये देखो बुद्धू! दोनों पैदल चल रहे
हैं और गधा साथ में है! जरा भी अकल हो तो गधे की सवारी करनी चाहिए। जब गधा पास है,
तो तुम पैदल क्यों चल रहे हो? बात तो जंची,
कि यह बात बुद्धूपन की मालूम पड़ती है कि हम दोनों पैदल चल रहे हैं
और गधा पास है। तो दोनों गधे पर सवार हो गए। फिर आगे थोड़े लोग मिले और उन्होंने
कहा, यह देखो! बेचारा गरीब गधा, दो-दो
चढ़े बैठे हैं! कुछ तो दया-भाव होना चाहिए। तो बाप ने कहा, यह
बात ठीक है। तो बाप उतर गया, बेटे को बिठा रखा। थोड़ी देर बाद
फिर लोग मिले और उन्होंने कहा, यह देखो! यह सुपुत्र देखो!
बाप तो पैदल चल रहा है, सुपुत्र गधे पर बैठे हुए हैं! यह
कलियुग आया! तो बेटा उतर गया, बाप को बिठा दिया। थोड़ी देर
बाद फिर लोग मिले, उन्होंने कहा, यह
देखो! बूढ़े हो गए मगर अकल न आई! बेटा तो पैदल घसिट रहा है, खुद
गधे पर चढ़े बैठे हैं! अब तो बड़ी मुश्किल हो गई। बाप-बेटा दोनों एक झाड़ के नीचे बैठ
कर सोचे: अब करना क्या? अब तो जो-जो किया जा सकता था,
सब कर चुके, सिर्फ एक ही बात बची है। तो एक
लकड़ी में गधे को बांध कर, उलटा लटका कर दोनों कंधे पर लेकर
चले। अब और तो कुछ बचा नहीं करने को! गुजरते थे पुल पर से, लोगों
की भीड़ लग गई, लोग खिलखिला कर हंसने लगे कि बहुत सवारियां
देखीं, आदमियों को गधों पर देखा, लेकिन
गधों को आदमियों पर नहीं देखा! लोगों का हंसना और मजाक करना और गधा वैसे ही मुसीबत
में था, उसने जोर से पैर फड़फड़ाए--गिर पड़ा नदी में! गिरे तो
बाप-बेटे भी, वह तो तैरना आता था सो किसी तरह किनारे लग गए,
गधा हाथ से गंवाया; गधा तो हाथ से गया,
मगर लौट कर घर आ गए किसी तरह--जान बची और लाखों पाए, लौट कर बुद्धू घर को आए।
तुम लोगों की ही सोचते रहोगे, रामछबि, कि लोग क्या कहते हैं! तो एक दिन तुम इसी हालत में पाओगे कि बांधे गधे को
चले जा रहे। और कौन लोग हैं ये? अक्सर तो गधे ही हैं।
कल ही मैं पढ़ रहा था। जब चीन ने भारत पर हमला किया, तो खच्चरों की कमी पड़ गई। और वहां तो हिमालय पर, पहाड़
में खच्चरों की बड़ी जरूरत है। तो खच्चर भारत के बाहर से मंगाने पड़े। तो पंडित
जवाहरलाल नेहरू ने, खच्चर बाहर से बुलाने चाहिए, इसका संसद में प्रस्ताव रखा। हजारों की संख्या में खच्चर खरीदने पड़ेंगे।
खच्चर के लिए अंग्रेजी में शब्द है: म्यूल। एक संसद-सदस्य म्यूल का मतलब नहीं
समझा। तो उसने अपने पड़ोसी से पूछा कि म्यूल यानी क्या? तो
पड़ोसी ने कहा, म्यूल यानी गधा। तो वह संसद-सदस्य एकदम रोष
में आ गया और खड़ा हो गया और उसने कहा, यह हद हो गई! कोई अपने
देश में गधों की कमी है जो बाहर से गधे बुलाए जा रहे हैं? तो
पंडित नेहरू ने कहा, आप जैसे लोग जब तक हैं तब तक गधों की
कोई कमी नहीं है! मगर गधे बुलाए नहीं जा रहे, खच्चर बुलाने
पड़ रहे हैं।
यहां तो हालत इतनी बिगड़ गई है, खच्चर खोजना मुश्किल
है, गधे ही गधे हैं। खच्चर तक भी नहीं हैं, घोड़ों की तो बात दूर!
तुम किनकी बातें मान रहे हो? किनके इशारों पर चल
रहे हो? और कभी तुमने यह सोचा कि वे तुमसे इतने ही डरे हुए
हैं जितने तुम उनसे डरे हुए हो? तुम सोच रहे हो कि ये क्या
सोचेंगे? वे सोच रहे हैं कि तुम क्या सोचोगे? एक-दूसरे के सोच में मरे जा रहे हो! थोड़ा अपने भीतर से जीना शुरू करो।
असली जीवन भीतर से जीया जाता है, बाहर के अनुकरण से नहीं। और
अगर बाहर का अनुकरण करोगे, तो तुम गंवा दोगे, सब कुछ गंवा दोगे। और बाहर इतने लोग हैं, किस-किस का
अनुकरण करोगे? कोई कहता ऐसा, कोई कहता
वैसा, कोई कहता वैसा।
मैं एक घर में मेहमान था। एक छोटे बच्चे से मैंने पूछा कि तू बड़ा होकर
क्या बनने का इरादा रखता है?
उसने कहा कि जहां तक तो मैं पागल हो जाऊंगा।
तू पागल हो जाएगा? मैंने बहुत बच्चों से यह पूछा,
मगर तेरे जैसा बुद्धिमान बच्चा नहीं मिला। तू बड़े मजे की बात कह रहा
है, मगर बड़े मतलब की भी, पते की भी। तू
पागल हो जाएगा? पागल होना चाहता है?
उसने कहा, होना नहीं चाहता, मगर हो
जाऊंगा। क्योंकि मेरी मां चाहती है कि मैं डाक्टर बनूं; मेरे
बाप चाहते हैं कि मैं इंजीनियर बनूं; मेरे काका चाहते हैं कि
मैं संगीतज्ञ बनूं, क्योंकि उनको हारमोनियम बजाना आता है;
मेरा बड़ा भाई है, वह कहता है कि तू तो क्रिकेट
का खिलाड़ी बन, क्योंकि उसको क्रिकेट का नशा है। और अगर सबकी
आपसे कहूं, तो इतने लोग हैं जितने घर में, सब चाहते हैं--यह बन, वह बन, वह
बन। मुझसे तो कोई पूछता ही नहीं कि तुझे क्या बनना है? तो
मुझे तो यही लगता है कि मैं पागल हो जाऊंगा। अगर ये सब लोग चेष्टा में लगे
रहे--कोई इंजीनियर बनाएगा, कोई डाक्टर बनाएगा, कोई क्रिकेट का खिलाड़ी, कोई हारमोनियम सिखाएगा,
कोई तबला बजवाएगा--अगर इन्हीं लोगों के हाथ में रहा तो बस एक बात
निश्चित है कि मैं पागल हो जाऊंगा।
और इसी तरह स्थिति है। यह तो दूर की बात हो गई, मैंने ऐसे तक लोग देखे हैं, ऐसे घरों में मैं मेहमान
हुआ हूं कि बच्चा अभी पैदा नहीं हुआ और पति-पत्नी में मैंने झगड़ा देखा है कि बच्चा
जब पैदा होगा तो उसको क्या बनाना है? डाक्टर बनाना, कि इंजीनियर बनाना, कि संगीतज्ञ बनाना, कि क्या बनाना? अभी बच्चा पैदा ही नहीं हुआ है!
एक अदालत में मुकदमा था दो आदमियों पर। हाथापाई हो गई, लट्ठ चल गए, खून बह गया। मजिस्ट्रेट ने पूछा,
लेकिन कारण तो बताओ! तो दोनों एक-दूसरे की तरफ देखें, कि तू बता दे। क्योंकि कारण ऐसा था कि जो बताए वही बुद्धू मालूम पड़े! कारण
कारण जैसा था ही नहीं। मजिस्ट्रेट ने कहा, बताते हो कि नहीं?
एक-दूसरे की तरफ क्या देखना? बोलो, क्या हुआ मामला?
तो उन्होंने कहा, अब आपसे क्या कहें, कहते संकोच लगता है। हम दोनों मित्र हैं असल में। नदी पर बैठे थे। रेत में
बैठे गपशप कर रहे थे। यह बोला कि भैंस खरीद रहा हूं। मैंने कहा, भई, भैंस मत खरीद तू! क्योंकि मैं खेत खरीद रहा हूं।
और तेरी भैंस खेत में घुस जाए, अपनी जिंदगी भर की दोस्ती एक
मिनट में खराब हो जाएगी। मैं बर्दाश्त नहीं कर सकूंगा। मेरे खेत में तेरी भैंस,
मैं बर्दाश्त बिलकुल कर ही नहीं सकूंगा। तू मुझे जानता ही है कि मैं
क्रोधी आदमी हूं। तेरी भैंस को भी ठिकाने लगा दूंगा, तुझे भी
ठिकाने लगा दूंगा। माना दोस्ती अपनी पुरानी है, छोटी सी बात
पर क्यों खराब करना! काहे को भैंस खरीदना! कुछ और खरीद ले, जिसमें
कोई झंझट न हो। मगर वह भी जिद्द पकड़ गया, उसने कहा, मैं भैंस खरीदूंगा, तू कौन है रोकने वाला? तुझे अगर बहुत डर है, तो खेत मत खरीद! और भैंस है तो
भैंस तो भैंस है। भैंस का क्या, कभी घुस भी जाए! अब कोई
चौबीस घंटे हम भैंस के पीछे थोड़े ही फिरते रहेंगे। और घुस गई तो क्या बिगड़ गया?
और मेरी भैंस पर हाथ मत उठाना! क्योंकि तू मुझे भी जानता है कि अगर
मुझे क्रोध आ जाए तो कुछ से कुछ हो जाएगा! भैंस तो एक तरफ रह जाएगी, आग लगा दूंगा खेत में! हड्डी-पसली तोड़ दूंगा तेरी! पुरानी दोस्ती है,
क्यों नाहक झंझट लेना! मैं तो भैंस खरीदना तय कर ही चुका हूं,
तू खेत मत खरीद!
बात बढ़ती चली गई। बात यहां तक बढ़ गई कि एक ने कहा कि मैंने वहीं रेत
में हाथ से लकीर खींच कर कहा कि यह रहा मेरा खेत, कोई घुसाए भैंस! और
इस नासमझ ने अपनी अंगुली से इशारा करके एक दूसरी लकीर खींच दी और कहा, यह घुस गई मेरी भैंस! कर ले कोई कुछ मेरा! और फिर अब आगे, बाकी हाल तो आपको पता ही है! यह सिर पर जो पट्टी बंधी है, अस्पताल में भरती होना पड़ा।
मगर अभी खेत खरीदा नहीं गया और भैंस अभी खरीदी नहीं गई है। यह तो
प्रतीकात्मक झगड़ा था। मगर असली सिर खुल गए।
तुम किन की सुन रहे हो? किन की आंखों की तरफ
देख रहे हो? किन को तुमने अपने जीवन का सारा का सारा अधिकार
दे दिया है निर्णय करने का? निर्णय भीतर से आने दो।
रामछबि, जो तुम करना चाहते हो, वह करो!
चाहे उसके लिए कोई भी कीमत चुकानी पड़े! चाहे प्राण ही क्यों न जाएं! तो भी जाते
वक्त प्राणों में कम से कम एक तो संतोष होगा कि मैं जो करना चाहता था वह किया;
मैंने अपने को बेचा नहीं, अपनी आत्मा को बाजार
में रखा नहीं; मैंने समझौते नहीं किए। मैं मर रहा हूं,
लेकिन वही करते मर रहा हूं जो मैं करना चाहता था। तुम्हारे प्राणों
में वैसा ही संतोष होगा जैसा सुकरात को रहा होगा जहर पीते वक्त, जैसा मंसूर को रहा होगा गर्दन कटते वक्त। जैसा जीसस को रहा होगा सूली पर
चढ़ते वक्त। संतोष, परम संतोष कि मैं जो करना चाहता था,
मैंने वही किया। मैंने किसी कीमत पर समझौते नहीं किए।
इस जगत में परम तृप्ति उनकी है, जो समझौते नहीं करते।
जो भीतर से बाहर की तरफ जीते हैं। और उनका जीवन तो नरक है, जो
बाहर से भीतर की तरफ जीते हैं। जो हर एक का इशारा पूरा करने में लगे हैं। जो सबको
राजी करने में लगे हैं। जो चाहते हैं कि सब हमसे प्रसन्न रहें। उनसे कोई प्रसन्न
भी नहीं रहता, यह भी खयाल रखना। और अपना जीवन वे गंवा बैठते
हैं। कूड़ा-करकट में गंवा बैठते हैं।
नहीं रामछबि, ऐसी भूल न करना। जो करना चाहते हो वही करो। और मैं
तुमसे यह भी नहीं कहता कि वह सही है या गलत। उसका निर्णय भी तुम्हारी अंतरात्मा को
ही करना है। उसका निर्णय भी बाहर से नहीं लेना है। कौन निर्णय करेगा--क्या सही है,
क्या गलत है?
बुद्ध ने घर छोड़ा। पिता समझते थे गलत है; पत्नी समझती थी गलत है; परिवार समझता था गलत है,
सब समझते थे गलत है। लेकिन आज पच्चीस सौ साल बाद क्या तुम यह कहोगे
कि बुद्ध ने घर छोड़ा तो बुरा किया? नहीं छोड़ते तो
मनुष्य-जाति वंचित रह जाती, सदा-सदा के लिए वंचित रह जाती।
एक अमृत की धार बही। मगर जब छोड़ा था तो कोई भी पक्ष में नहीं था--कोई भी! बुद्ध
अपना राज्य छोड़ कर चले गए थे, इसीलिए कि राज्य में जहां भी
जाते वहीं लोग समझाने आते। तो सीमा ही छोड़ दी। सीमा छोड़ दी, तो
पास-पड़ोस के राजा-महाराजा आने लगे। क्योंकि वे भी उनके पिता के मित्र थे। कोई बचपन
में साथ पढ़ा था; किसी की दोस्ती थी; किसी
का कोई नाता-रिश्ता था; वे समझाने आने लगे। जो आता वही बुद्ध
को कहता कि तुम क्या नासमझी कर रहे हो?
एक सम्राट ने तो यह भी कहा कि मेरा कोई बेटा नहीं है, अगर तू अपने बाप से नाराज है, फिकर छोड़, मेरा राज्य तेरा। चल, मेरी बेटी है, उससे तेरा विवाह किए देता हूं, तू इसको सम्हाल ले।
हो सकता है बाप-बेटे की न बनती हो, कोई फिकर नहीं। अक्सर
बाप-बेटों की नहीं बनती। तो यह तेरा घर है। और चिंता मत कर, तेरे
पिता के राज्य से मेरा राज्य बड़ा है। तो तू कोई नुकसान में नहीं रहेगा। और तू अपने
बाप का इकलौता बेटा है, आज नहीं कल बूढ़ा मर जाएगा, वह भी तेरा है। यह भी तेरा है। फायदा ही फायदा है। तू उठ!
जो आता, वही समझाता। आखिर बुद्ध को इतनी दूर निकल जाना पड़ा,
जहां कि कोई बाप को जानता ही न हो, पहचानता ही
न हो। अपने बाल काट डाले--सुंदर उनके बाल थे--ताकि कोई पहचान न सके, घुटमुंडे हो गए। वस्त्र पहन लिए दीन-हीन। भिखमंगे मालूम होने लगे। गांवों
में न जाते, जंगलों में विचरने लगे, ताकि
ये समझाने वालों से पीछा छूटे। क्योंकि अंतरात्मा से एक आवाज उठी थी कि सत्य को
खोजे बिना नहीं मरना है। और अगर इन्हीं बातों में उलझे रहे, तो
सत्य को खोजने का समय कहां? अवकाश कहां? सुविधा कहां?
आज तुम यह न कहोगे कि बुद्ध ने गलत किया। बुद्ध ने बड़ा उपकार किया, पूरी मनुष्य-जाति पर उपकार किया। ऐसा कल्याण किसी और दूसरे मनुष्य ने नहीं
किया है। हालांकि तुम भी अगर उस समय होते तो तुम भी बुद्ध को समझाते--कि भई,
यह तुम क्या कर रहे हो? पिता की सुनो, पिता बूढ़े हैं, उनको दुख मत दो। पत्नी जवान है,
उसको पीड़ा मत दो। बेटा अभी-अभी पैदा हुआ है, उसको
छोड़ कर भागे जा रहे हो! यह पलायनवाद है। सब कहा होता; और सब
कहा था। लेकिन बुद्ध भीतर से जीए। भीतर से जीए, इसलिए महिमा
प्रकट हुई, गरिमा प्रकट हुई।
सुकरात को समझदार लोगों ने समझाया था कि तू एथेंस छोड़ दे। क्योंकि
यहां तू रहेगा तो फांसी लगनी निश्चित है। तू कहीं और चला जा।
लेकिन सुकरात ने एथेंस नहीं छोड़ा। उसने कहा, जो मुझे कहना है, वह एथेंस जैसे ही सुसंस्कृत समाज में
कहा जा सकता है। और अगर यह सुसंस्कृत समाज मुझे मारने को तैयार है, तो फिर मैं किसी और दूसरे समाज में जाकर तो और भी मुश्किल में पड़ जाऊंगा।
वह तो और जंगली है। वह तो और भी अशिष्ट और असभ्य है। फिर मुझे जो कहना है, उसको समझने वाले थोड़े से लोग कम से कम यहां हैं; मौत
तो आनी है सो आएगी, मगर मैं अपनी बात कह कर जाऊंगा। कोई सुन
लेगा, समझ लेगा, मैं तृप्त हो जाऊंगा।
जीसस ने सूली पर चढ़ने में अड़चन अनुभव नहीं की।
जब भी कोई व्यक्ति अपने ढंग से जीता है, अपनी शैली से जीता है,
अपनी मौज से जीता है, तो मौत दो कौड़ी की होती
है। वह जानता है कि उसने जीया है, इस ढंग से जीया है,
इतनी परिपूर्णता से जीया है कि इस परिपूर्ण जीवन का कोई अंत नहीं हो
सकता। मौत आएगी और चली जाएगी, मैं रहूंगा।
लेकिन रामछबि, ऐसा तुम्हें न हो सकेगा। तुम तो अपने से जी ही नहीं
रहे। तुम्हें तो आत्मा का पता ही कैसे चलेगा? आत्मा के पता
करने का ढंग ही यही है--अपने ढंग से जीओ। जो देखना है, देखो;
जो करना है, करो; जैसा
जीना है, वैसा जीओ। किसी के चरणों में गिरना है, तो गिर जाओ। और किसी के चरणों में नहीं गिरना है, तो
चाहे गर्दन कट जाए, मत गिरना। मगर अपनी आत्मा को गौरव दो।
"लोग क्या कहेंगे?'
लोग हैं कौन? लोग यानी कौन? इनका मूल्य क्या
है? इनकी खुद की आत्मवत्ता क्या है? हजार
मूढ़ ताली पीट कर तुम्हारा स्वागत करें, तुम इसके लिए राजी
होओगे? कि एक बुद्धपुरुष तुम्हारे सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद
दे, तुम इसे चुनोगे? क्या करोगे?
संख्या गिनोगे हजार मूढ़ों की?
अगर संख्या से जीओगे, तो चूकोगे, बुरी तरह चूकोगे। जानने वाले एक आदमी की आंख का इशारा भी बहुत है। न जानने
वाले लोगों के फूलों के हार भी किसी काम के नहीं। और जरा सम्हल कर चलना। क्योंकि
जो फूलों के हार पहना रहे हैं, उन्हें कुछ पता नहीं है। एक
धुन है, आज फूलों के हार पहना रहे हैं, कल वे ही जूतों के हार लेकर आ जाएंगे। वही के वही लोग। उनके बदलने में देर
नहीं लगती। वे हैं ही नहीं। उनकी कोई आत्मा है? उनकी कोई
थिरता है? आज सम्मान देते हैं, कल गाली
देने लगते हैं, फिर सम्मान देने लगते हैं। उनकी बातों का कोई
भी मूल्य नहीं है।
अगर देखना ही हो किसी की गवाही, तो किसी जागे पुरुष
की गवाही मांगना, किसी सदगुरु की गवाही मांगना। उससे पूछना
कि क्या कहते आप? उससे लेना, अगर
स्वीकृति लेनी हो। लेकिन भीड़-भाड़ से, बाजार में लोगों से
पूछते फिर रहे हो और उनकी आंखों में देख कर चल रहे हो! उनको खुद अपना पता नहीं है।
वे खुद तुम्हारे जैसे ही भटके हुए हैं। शायद तुमसे भी ज्यादा गहरे गर्त में पड़े
हों। बीमारों से तुम अपनी चिकित्सा करवाने चले हो? पागलों के
साथ तुम सोच रहे हो कि तुम प्रज्ञा को उपलब्ध हो जाओगे?
छोड़ो ऐसी भूल भरी बातें! ऐसी ही भूल भरी बातों से दुनिया डूबी जाती
है। अनेक लोग आते और चले जाते--बिना जीए, बिना जाने, बिना भोगे।
और ध्यान रखना, इस सबके पीछे है अहंकार। लोग क्या कहेंगे? लोगों की प्रशंसा, लोग ध्यान दें, लोग सम्मान करें। और लोग मुफ्त सम्मान नहीं करते। मुफ्त करें भी क्यों?
आखिर सम्मान करते हैं तो बदले में कुछ चाहते हैं। तो एक समझौता है
समाज का। समाज कहता है, तुम हमारी मान कर चलो, हम तुम्हें सम्मान देंगे। ज्यादा सम्मान चाहिए, ज्यादा
हमारी मान कर चलो। अगर चाहते हो कि हम तुम्हें महात्मा कहें, तो बिलकुल रत्ती-रत्ती हमारी मान कर चलो।
तुम्हारे महात्मा तुम्हारे कारागृह में बंद कैदियों से बड़े कैदी हैं।
कारागृह में बंद कैदी तो कभी-कभी भाग भी खड़े होते हैं, कभी-कभी दीवाल भी छलांग लगा जाते हैं; कभी दरवाजा
खुला मिल जाता है तो निकल भागते हैं; या सींकचे काट लेते हैं;
या कुछ उपाय करते हैं--रिश्वत खिलाते हैं; या
नहीं कुछ हो पाता तो कम से कम आत्महत्या कर लेते हैं; कम से
कम आत्मा को ही छुट्टी हो जाती है, शरीर को नहीं होती तो।
मगर तुम्हारे महात्मा तो भाग ही नहीं सकते। उनके पास तो सोने की दीवालें हैं। उनके
आस-पास तो हीरे-जवाहरात जड़े हुए सींकचे हैं। उनके हाथ में जंजीरें नहीं हैं,
आभूषण हैं। सम्मान है, सत्कार है--हजारों
लोगों का सत्कार! वे उसी पर नजर लगाए रखते हैं। वह सत्कार इतना अहंकार को तृप्ति
देता है, उसको छोड़ नहीं सकते। इसलिए तुम जो चाहो, करेंगे। तुम कहो एक बार भोजन करो, तो एक बार भोजन
करेंगे। भूखे मरेंगे। तुम कहो सिर के बल खड़े होओ, तो सिर के
बल खड़े होंगे, शीर्षासन करेंगे। तुम जो कहो, करेंगे, मगर सम्मान दो।
तुम्हारे तथाकथित साधु-संत, तुम्हारे महात्मा और
क्या हैं? तुमसे समझौता किया है उन्होंने। और समझौता
सीधा-साफ है। तुम इतना करो, हम इतना सम्मान देंगे। तुम और
ज्यादा करते जाओ हमारी मानी हुई बातें, हम उतना सम्मान देते
चले जाएंगे।
और तुम जानते हो, दुनिया में अलग-अलग ढंगों के
समाज हैं और अलग-अलग बातों को सम्मान मिलता है!
अफ्रीका में एक कौम है, जिसमें महात्मा अपने
आधे बाल काटता है--सिर्फ सामने के आधे बाल काट लेता है--तो त्यागी। अभी तुम्हारे
यहां कोई काटेगा तो तुम समझोगे कि क्या सर्कस आया है? या
क्या बात है? लेकिन वहां वह समझा जाता है त्यागी। अफ्रीका
में एक और दूसरा समाज है जिसमें स्त्रियां सुंदर समझी जाती हैं, अगर उनके ओंठ बहुत चौड़े और बहुत बड़े हों। तो ओंठों को बड़ा करने के लिए
पत्थर लटकाते हैं ओंठों से बांध कर। भद्दे हो जाते ओंठ, बेहूदे
हो जाते ओंठ--मगर सौंदर्य! तो स्त्रियां राजी हैं वही करने को। इसमें ही सम्मान
मिलता है, अहंकार की तृप्ति मिलती है।
लोग चेहरे गूद लेते हैं गुदने से। बेहूदे हो जाते हैं। लेकिन अगर समाज
में सम्मान मिलता है, तो लोग गुदवाने को राजी हैं। पूरा शरीर गूद डालते
हैं।
समाज जिस चीज को सम्मान देता है, वही लोग करने को राजी
हैं।
चीन में हजारों साल तक स्त्रियां अपंग हालत में रहीं। छोटी सी
बच्चियों के पैरों में लोहे के जूते पहना दिए जाते थे, ताकि पैर बड़े न हों। पैर का छोटा होना कुलीनता का लक्षण था, सौंदर्य का लक्षण था। इतना छोटा कि जो सच में कुलीन स्त्रियां होती थीं,
उनको तो दो स्त्रियों का सहारा लेकर चलना पड़ता था। क्योंकि पैर इतने
सिकुड़े रह जाते, बड़े ही नहीं होते, तो
इतने बड़े शरीर को कैसे सम्हालेंगे? पूरा शरीर तो बड़ा हो जाता
और पैर रह जाते बहुत छोटे-छोटे। लेकिन स्त्रियां इसको सहने को राजी थीं, क्योंकि उनके पैरों की छोटाई प्रशंसा लाती थी।
यूरोप में स्त्रियां बड़े ऊंची एड़ी के जूते पहनती हैं। उतने ऊंचे एड़ी
के जूते पहन कर चलना सुविधापूर्ण नहीं है। जरा चल कर देखो तो पता चले! जरा कोशिश
करना। चारों खाने चित्त गिरोगे। मगर उसका अभ्यास कर लेती हैं। जितनी ऊंची एड़ी, उतना सौंदर्य समझा जाता है। तो उसको भी करने को तैयार हैं।
जैसे स्त्रियां सौंदर्य के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं! ओंठों पर
रंग पोते हुए हैं--भद्दे रंग, बेहूदे रंग। और जब दूसरों से लोग
सीखते हैं तो और भी भद्दापन, और भी बेहूदापन हो जाता है।
क्योंकि उनमें उतना सुसंस्कार भी नहीं होता। आंखों पर रंग चढ़ाए हुए हैं। आंखों की
पलकों को रंगे हुए हैं। झूठे आंखों पर बाल लगाए हुए हैं। जिस चीज को सुंदर समझा
जाता है, स्त्रियां वही करने को राजी हैं। उससे अहंकार की
तृप्ति मिलती है। और तुम्हारे महात्माओं में और तुम्हारी स्त्रियों में कुछ ज्यादा
फर्क नहीं है। मनोवैज्ञानिक तो जरा भी फर्क नहीं है।
कल मैं पढ़ रहा था कहीं, एक आदमी ने मुल्ला
नसरुद्दीन से पूछा कि अगर तुम अपनी पत्नी को सताना चाहो तो सबसे बड़ी तरकीब क्या
होगी?
उसने कहा, सबसे बड़ी तरकीब यह होगी कि पांच सौ नई साड़ी खरीद लाऊं,
कमरे में रख दूं और दर्पण हटा लूं। बस पगला जाएगी एकदम! दर्पण तो
चाहिए ही चाहिए। और जितनी ज्यादा साड़ियां हों, उतना दर्पण
साफ चाहिए। क्योंकि दर्पण में देख-देख कर तय करना है: कौन सी लोगों को रुचेगी,
कौन सी लोगों को जंचेगी।
घंटों स्त्रियां साड़ी पहनने में लगाती हैं। घंटों! किसी तरह शरीर को
सुंदर बना कर चारों तरफ घुमाना है। और तुम्हारे महात्मा, अगर तुम उनको देखो, तुम भी बहुत हैरान हो जाओगे।
घंटों लगते हैं किसी को शरीर पर भभूत रमाने में। घंटों लगते हैं तिलक इत्यादि
लगाने में। उसके लिए भी आईने की जरूरत पड़ती ही है। तिलक लगा रहे हैं। हाथ-पैर पर
तिलक लगाए जा रहे हैं। भभूत रमाई जा रही है। साज-शृंगार हो रहा है। क्योंकि इसको
सम्मान मिलता है। आदमी को सम्मान दो और कुछ भी करवा लो। जो चाहो वह करवा लो।
अप्राकृतिक चीजें लोगों से करवाई जा रही हैं। तुम्हारे महात्मा अप्राकृतिक ढंग जी
रहे हैं। मगर जो चाहो करवा लो, सम्मान भर देते रहो।
रामछबि, स्मरण रखो, ये सब अहंकार की
तृप्तियां हैं। मैं तुमसे यह नहीं कह रहा कि पैर छुओ किसी के। तुम्हारे प्राणों
में भाव उठे, तो जरूर! और तुम्हारे प्राणों में भाव न उठे,
सारी दुनिया कहती हो कि इनसे बड़ा कोई महात्मा नहीं है, तो भी पैर मत छूना। थोड़ी निजता को घोषणा दो। थोड़ी अपनी शैली अपनाओ। थोड़ा
अपनी जीवनचर्या बनाओ। थोड़ा अपने जीवन का ढंग सुनिश्चित करो। और निर्णायक तुम्हारी
अंतर्वाणी होनी चाहिए, कोई और नहीं। क्योंकि तुम्हारी
अंतर्वाणी से ही परमात्मा तुम्हें सूचनाएं देता है। तुम्हारा असली सदगुरु तुम्हारे
भीतर बैठा हुआ है।
बाहर हम उसी को सदगुरु कहते हैं, जो तुम्हारे भीतर के
सदगुरु को जगा दे। बाहर उसी को सदगुरु कहते हैं, जो तुम्हारे
भीतर के सदगुरु का प्रतिबिंब बन जाए, बस। और बाहर के सदगुरु
की तभी तक जरूरत है, जब तक कि भीतर का सदगुरु सक्रिय न हो
जाए। जैसे ही भीतर का सदगुरु सक्रिय हो गया, बाहर का सदगुरु
तुम्हें खुद ही कह देगा: अब जाओ, रामछबि, अब अपने काम में लगो। अब तुम्हारे भीतर की ज्योति जग गई, अब इस ज्योति के अनुसार जीओ, चलो। अब तुम्हारे पास
अपनी रोशनी है। अब तुम स्वयं के दीये बन गए हो।
लेकिन बड़ी कठिनाई है अहंकार छोड़ने में। और बड़ी कठिनाई है प्रतिष्ठा, सम्मान छोड़ने में। सब सपने हैं झूठे, लेकिन बड़ी
कठिनाई है।
तुम मुझसे मेरा स्वप्निल-संसार न छीन सकोगे!
पलकों पर अगणित बोझिल,
सपनों का भार उठाए!
बढ़ता है राही तम में,
आशा का दीप जगाए!
उसके पथ का यह अंतिम,
शृंगार न छीन सकोगे!
तुम मुझसे मेरा स्वप्निल-संसार न छीन सकोगे!
अस्तित्व दीप का क्या है,
ज्वाला की स्वर्णिम रेखा!
इस घोर व्यथा में भी पर,
उसको मुसकाते देखा!
यह जल-जल कर जीने का,
अधिकार न छीन सकोगे!
तुम मुझसे मेरा स्वप्निल-संसार न छीन सकोगे!
एकत्रित कर गाती हूं
बिखरे वीणा तारों को!
प्रतिबिंबित करती जाती,
जीवन की मनुहारों को!
तुम मेरी वीणा की यह,
झंकार न छीन सकोगे!
तुम मुझसे मेरा स्वप्निल-संसार न छीन सकोगे!
हंस-हंस के सह लेती हूं,
सुख-दुख की मैं मनमानी!
जीवन-आधार बनी है,
अनुभूति एक अनजानी!
तुम मेरे जीवन का यह,
आधार न छीन सकोगे!
तुम मुझसे मेरा स्वप्निल-संसार न छीन सकोगे!
सपने भी छोड़ने में बड़ी कठिनाई होती है। और मैं जानता हूं, क्यों होती है कठिनाई। क्योंकि सपनों के अतिरिक्त तुम्हारे पास कुछ और
नहीं। सपने ही सपने हैं। छोड़ने में डर लगता है, कि छोड़ा,
सपने भी छूट गए, तो फिर बिलकुल रिक्त हो
जाऊंगा। ना-कुछ से तो कुछ भला, ऐसी हमारी तर्कसरणी है। सपना
ही भला, कम से कम भरे तो रहते हैं, कम
से कम व्यस्त तो रहते हैं।
लेकिन मैं तुम्हें यह बात याद दिला दूं बार-बार कि जो शून्य नहीं होगा
सपनों से, वह परमात्मा से पूर्ण नहीं हो सकेगा। वह शर्त
अपरिहार्य रूप से भरनी पड़ती है, पूरी करनी पड़ती है। तुम्हें
सपने छोड़ने ही पड़ेंगे। लोग क्या कहते हैं, भूल ही जाना
पड़ेगा। न उनका सम्मान, न उनका अपमान। न उनकी प्रतिष्ठा,
न उनकी अप्रतिष्ठा। वे जैसे हैं ही नहीं। तुम ऐसे जीओ, जैसे तुम अकेले हो पृथ्वी पर। और पहले मनुष्य हो। और तुमसे पहले कोई हुआ
नहीं, तुम्हें कोई राह बताने वाला नहीं, तुम्हें अपने भीतर से ही अपना मार्ग खोजना है। तो धीरे-धीरे तुम्हारे भीतर
की धीमी-धीमी आवाज सुनाई पड़नी शुरू हो जाएगी। और उस आवाज को मान कर जो चल पड़ता है,
पहुंच जाता है।
सपने छोड़ो, ताकि सत्य पा सको। सपने छोड़ने में कुछ भी नहीं छूट
रहा है। सपने कुछ हैं ही नहीं। ना-कुछ छूटेगा, सब कुछ
मिलेगा।
मगर, अभी तो सब कुछ का कुछ पता नहीं है, अभी तो सपनों को ही सब कुछ मान रखा है हमने। कोई तुमसे कह देता है: अहा,
आप कितने सज्जन! और चित्त बाग-बाग हो जाता है। एकदम फूल खिल जाते
हैं। और कोई कह देता है कि जरा अपनी शक्ल तो आईने में देखो! क्या गंदगी ढोए फिर
रहे हो! कैसा रूप बना रखा है! कि बस, जैसे फुग्गे में किसी
ने सुई चुभा दी, निकल गई हवा, एकदम
पंक्चर हो गए।
तुम दूसरों के हाथों में इतने ज्यादा! कि कोई चाहे तो हवा भर दे और
कोई चाहे तो हवा निकाल दे। तुम अपने मालिक कब बनोगे?
संन्यास का अर्थ होता है: अपनी मालकियत की घोषणा।
परमात्मा ने प्रत्येक को अपना मालिक बनाया है। और जो लोग भी अपनी
मालकियत की घोषणा नहीं करते और दूसरों की गुलामी किए जाते हैं, वे परमात्मा का अपमान कर रहे हैं। उसकी सौगात का स्वीकार नहीं कर रहे।
उसकी भेंट का अस्वीकार कर रहे हैं। वे परमात्मा के प्रेमी नहीं हैं। परमात्मा का
प्रेमी अपने और परमात्मा के बीच निर्णय होने देता है।
और मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि समाज को नाहक कष्ट दो, कि लोगों को परेशान करो, कि जान-बूझ कर लोगों के
विपरीत जाओ--यह मैं नहीं कह रहा हूं। मेरी बातों को गलत मत समझ लेना। मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि समाज कहे कि बाएं चलो रास्ते पर, तो तुम दाएं
चलना। ये तो औपचारिक बातें हैं। इनका कोई मूल्य नहीं है। मैं तुमसे यह नहीं कह रहा
हूं कि समाज कहे कपड़े पहनो, तो तुम नंगे चलना। लेकिन मैं
तुमसे यह भी नहीं कह सकता कि अगर तुम्हारे मन में किसी दिन महावीर जैसे नग्न होने
की बात आ जाए, तो तुम नग्न मत हो जाना। वह भी नहीं कह सकता।
किसी दिन महावीर जैसी अंतर्भावना उठे और वस्त्र गिर जाएं, तो
गिर जाने देना! फिर जो हो परिणाम! पत्थर लोग मारेंगे; उन्होंने
महावीर को मारे थे तो तुम को भी मारेंगे; कुत्ते छोड़े थे
महावीर के पीछे जंगली, तो तुम्हारे पीछे भी छोड़ेंगे; गांव-गांव से तुम्हें भगाया जाएगा। वह स्वीकार करना। उसमें फिर रोना मत।
उसमें फिर यह मत कहना कि यह मेरे साथ क्या हो रहा है? यह
स्वाभाविक है।
लेकिन तुमसे मैं यह कह नहीं रहा हूं कि तुम नग्न हो जाओ। जहां तक बन
सके, समाज की व्यर्थ बातों में झंझट में पड़ना ही मत।
औपचारिक बातें निभा देना। ऊपर-ऊपर की बातें हैं, इनसे कुछ
हर्जा नहीं है। कपड़े पहन कर बाजार हो आना, लोगों से जयरामजी
कर लेना, बाएं रास्ते पर चल लेना, सामान्य
जीवन का जो उपक्रम है, उसको पूरा करते रहना। लेकिन अपनी
आत्मा को मत बेचना। और जहां सवाल उठता हो कि यहां आत्मा को बेचने की बात है,
वहां सब दांव पर लगा देना और अपनी आत्मा को बचा लेना। जिसने अपने को
बचा लिया, उसने सब बचा लिया। और जिसने अपने को खो दिया,
वह सब खो देता है।
चौथा प्रश्न: क्या आत्मोपलब्धि के लिए सांसारिक
जीवन जीना आवश्यक है?
राकेश! और तुम हो कहां? संसार में ही हो। कहीं भी रहो, संसार है। घर में भी
उतना ही संसार है जितना आश्रम में। संसार तो सारे अस्तित्व का नाम है। कोई गृहस्थ
होकर संसार जीता है, कोई संन्यासी होकर संसार जीता है। मगर
संसार जीने से कहां जाओगे? जीना ही संसार है।
लेकिन मैं तुम्हारे प्रश्न का अर्थ समझा। तुम्हारे भीतर कोई पुरानी
परंपरा की लीक पड़ी हुई है, जो तुम्हें सता रही है। जो तुमसे कह रही है कि
सांसारिक जीवन में मत उतरो। भाग जाओ, संन्यासी हो जाओ!
अगर तुम्हारे प्राणों में यह इतने जोर से उठ रही हो आवाज, अहर्निश सुनाई पड़ रही हो, और इसमें तुम्हें कोई
संदेह न हो कि यही तुम्हारा मार्ग है, तो जाओ! फिर मुझसे
पूछते क्यों हो? बुद्ध ने किसी से पूछा नहीं--कि संसार में
रह कर ही आत्मोपलब्धि करनी चाहिए कि छोड़ कर?
एक युवक मेरे पास आया और पूछने लगा कि मैं विवाह करूं या न करूं? मेरे माता-पिता मेरे पीछे पड़े हैं।
मैंने कहा, तू कर ही ले।
उसने कहा, आप ऐसी कैसी सलाह देते हैं? आपने
क्यों नहीं किया?
मैंने कहा, मैं किसी से पूछने भी नहीं गया! पूछने जाने का भी
सवाल मेरे मन में उठता तो मैंने विवाह किया होता। पूछने जाने की बात ही नहीं आती।
तू पूछने आया है, साफ है बात कि तू संदिग्ध है। और जहां भी
संदेह हो, वहां बेहतर है अनुभव कर लेना। नहीं तो संदेह जीवन
भर पीछे रहेगा। अगर मैं तुझसे कह दूं कि विवाह मत कर, और तू
न करे, तो जिंदगी भर तुझे एक खयाल बार-बार आएगा कि पता नहीं
करने वालों को क्या मिलता है? करके मुझे पता नहीं क्या मिलता?
तू जान कैसे सकेगा? तू तो वंचित रह जाएगा। और
तू मुझ पर नाराज भी रहेगा जिंदगी भर। तू मुझे उत्तरदायी ठहराएगा। मैं किसी का
उत्तरदायित्व नहीं लेता; क्योंकि मैं किसी का मालिक नहीं
होना चाहता। तू पूछने आया है, इसमें ही तेरी बेईमानी जाहिर
है।
मेरे साथ तो हालत उलटी थी। मैं तो किसी से पूछने गया नहीं। एक सज्जन
मुझे समझाने आते थे--वकील थे--कि विवाह करना चाहिए। तो मैंने उनसे कहा, ऐसा करो कि एक मजिस्ट्रेट को और ले आओ। उन्होंने कहा, क्यों? तो मैंने कहा, कोई
निर्णय करेगा न। हम दोनों ठीक से विवाद कर लें। मैं विवाह के विपक्ष में हूं,
आप पक्ष में हैं, हम दोनों विवाद कर लें। अगर
आप जीत जाएं विवाद में, मजिस्ट्रेट कह दे कि वकील जीत गया,
तो मैं विवाह कर लूंगा। और अगर मैं जीत गया, तो
आपको तलाक देना पड़ेगा। क्योंकि आपको भी तो कुछ दांव पर लगाना चाहिए। सिर्फ अकेला
मैं ही दांव पर लगाऊं, यह तो न्याययुक्त नहीं है।
फिर वे वकील आए ही नहीं। फिर मैं दो-चार दफे उनके घर भी गया, तो उनकी पत्नी कहे कि वे घर पर ही नहीं हैं। मैंने उनकी पत्नी से पूछा,
जब भी मैं आता हूं, तभी घर पर नहीं हैं,
बात क्या है? उनकी पत्नी ने कहा कि आपके आने
की जरूरत ही नहीं है। आप क्यों मेरे पीछे पड़े हो? मैंने कहा,
मैं तेरे पीछे नहीं पड़ा हूं, वे मेरे पीछे पड़े
हैं। उसने कहा कि उन्होंने मुझे सब कहा है। और वे आपसे थोड़े भयभीत हो गए हैं,
कि कौन यह झंझट मोल ले! इतनी झंझट मोल लेने की उनको इच्छा नहीं है।
और सच तो यह है कि विवाह के अनुभव के बाद कौन दलील दे सकेगा विवाह के पक्ष में?
विवाह के पक्ष में गैर-विवाहित दलील दे सकते हैं, क्योंकि उनको आशाएं होती हैं। विवाहित और विवाह के पक्ष में दलील दें!
बहुत मुश्किल है। बहुत असंभव है। उनका अनुभव ही उनकी दलीलों को झुठला देगा।
तुम मुझसे पूछते हो, राकेश, कि
क्या आत्मोपलब्धि के लिए सांसारिक जीवन जीना आवश्यक है?
परमात्मा की प्रक्रिया तो यही है। इसीलिए तुम्हें संसार दिया है, जीवन दिया है। जीवन पाठशाला है। इसे जीओ। भरपूर जीओ। जी भरके जीओ। ताकि
इसी जीने में से तुम्हें निष्कर्ष मिलें, निष्पत्तियां
मिलें। ताकि इसी जीने को जीकर तुम्हें अनुभव में आएं जीवन के दुख, जीवन के सुख, जीवन की क्षणभंगुरताएं, जीवन की व्यर्थताएं, दौड़धूप, आपाधापी,
महत्वाकांक्षाएं--और अंत में हाथ कुछ भी न लगना! इतनी आशाएं और
अंततः हाथ में सिर्फ राख ही राख!
ये सब बड़े महत्वपूर्ण अनुभव हैं। इनको जो चूक जाता है, उसकी आत्मा कच्ची रह जाएगी, पक नहीं पाएगी। वह कच्चा
घड़ा है, वह आग से गुजरा नहीं। तुम्हारा प्रश्न ऐसे है जैसे
कुम्हार पूछे कि क्या घड़े को पकाने के लिए आग से गुजारना जरूरी है?
और किस तरह से घड़ा पकेगा? कच्चा घड़ा घड़े जैसा
मालूम होता है, मगर घड़ा है नहीं। वर्षा का पहला झोंका आएगा
और मिट्टी बह जाएगी। आग से गुजरना होगा। आग ही पकाएगी, परिपक्व
करेगी।
संसार अग्नि है--जलता हुआ, विराट। तुम्हारे
चारों तरफ लपटें ही लपटें हैं। इन सारी लपटों से गुजरना जरूरी है। क्योंकि हर लपट
कुछ शिक्षण लिए हुए है। हर लपट की कुछ सीख है, सिखावन है। और
हर लपट तुम्हें मजबूत कर जाएगी। जान-जान कर, गिर-गिर कर,
उठ-उठ कर ही तो तुम पहचानोगे एक दिन कि यहां सब असार है। जिस दिन
तुम जानोगे, सब असार है, उस दिन
तुम्हारे जीवन में परम संन्यास का फूल खिलेगा।
मैं तो कह दूं कि सब असार है। मगर मेरे कहने से तुम्हें असार हो जाएगा? बिना भोगे नहीं होगा असार! मैं तो कहूं कि नीम कड़वी है। मगर तुमने न चखी
हो तो क्या तुम्हें नीम कड़वी हो जाएगी? भरोसा भी कर लो मुझ
पर, तो भी मन में कहीं संदेह तो सरकता ही रहेगा: कौन जाने
आदमी झूठ बोलता हो? कौन जाने खुद धोखा खा गया हो? कौन जाने इसकी जबान ही खराब हो कि इसको कड़वी लगी हो? अपने अनुभव के अतिरिक्त कोई मुक्ति नहीं है।
पी चुका हूं मये-इशरत के छलकते सागर
मैंने समझा था बहारों से बनी है दुनिया
फूल ही फूल हैं हस्ती के गुलिस्तानों में,
दिन बसर होते थे तफरीह में अहबाब के साथ
रातें कटती थीं हसीनों के शबिस्तानों में,
ऐशो-इशरत के लिए वक्फ था हर इक लम्हा
रक्सगाहों में, तमाशों में, खुमिस्तानों में।
और तलखाबे-अजीयत भी पिया है मैंने
मैंने फूलों को ही समझा था चमन का हासिल
हाय कांटों ने बहारों का फुसूं तोड़ दिया,
मेरे भबके हुए माहौले-गमी ने ऐ दोस्त
लेके हाथों से मेरा साजे-जुनूं तोड़ दिया,
और सोए हुए अहसास की बेदारी ने
रामशो-रंग का पिंदारे-जबूं तोड़ दिया।
ये दो रुख हैं। पहला रुख--
पी चुका हूं मये-इशरत के छलकते सागर
सुख-विलास की खूब शराब मैंने पी।
पी चुका हूं मये-इशरत के छलकते सागर
मैंने समझा था बहारों से बनी है दुनिया
सभी ऐसा मान कर चलते हैं; यही बचपन है सबका,
कि दुनिया में बहारें ही बहारें हैं, बसंत ही
बसंत हैं, फूल ही फूल हैं, कि रास्ते
फूलों से पटे हैं, कि जिंदगी फूलों की एक सेज है, कि यहां खुशियां ही खुशियां तुम्हारे लिए प्रतीक्षा कर रही हैं।
पी चुका हूं मये-इशरत के छलकते सागर
मैंने समझा था बहारों से बनी है दुनिया
फूल ही फूल हैं हस्ती के गुलिस्तानों में,
दिन बसर होते थे तफरीह में अहबाब के साथ
मित्रों के साथ मनोरंजन में समय बीतता था। संगीत में, सुरा में, वासनाओं में।
दिन बसर होते थे तफरीह में अहबाब के साथ
रातें कटती थीं हसीनों के शबिस्तानों में,
सुंदरियों के शयनगृहों में रातें कटती थीं, दिन मित्रों के साथ मनोरंजन में बीतते थे। पीना था, पिलाना
था; जिंदगी बस एक मनोरंजन थी।
ऐशो-इशरत के लिए वक्फ था हर इक लम्हा
और एक-एक क्षण बस भोग-विलास के लिए अर्पित किया हुआ था।
रक्सगाहों में...
नाचघरों में।
...तमाशों
में, खुमिस्तानों में।
या तो मधुशालाओं में बैठता था, या नाचघरों में बैठता
था, या तमाशे देखता था। जिंदगी बस एक मीठा सपना थी।
यह एक रुख। यह आधी जिंदगी। और जिसने नहीं जीयी, उसे बस यही एक रुख याद आता है। वह बचकाना रह जाता है। वह ऐसे ही सोचता
रहता है कि जिंदगी में बस फूल ही फूल हैं।
जिंदगी का एक दूसरा पहलू भी है। और उस दूसरे पहलू से ही परिपक्वता आती
है।
और तलखाबे-अजीयत भी पिया है मैंने
और मैंने यंत्रणा का, दुख का, पीड़ाओं
का, वेदनाओं का कड़वा जहर भी पीया है।
और तलखाबे-अजीयत भी पिया है मैंने
मैंने फूलों को ही समझा था चमन का हासिल
मैं तो सोचता था, बस फूल ही निष्पत्तियां हैं इस
जीवन की।
हाय कांटों ने बहारों का फुसूं तोड़ दिया,
लेकिन कांटे आए, खूब आए। और उन्होंने, वसंत ने जो जादू फैला रखा था, सब तोड़ दिया, सब उखाड़ दिया।
और तलखाबे-अजीयत भी पिया है मैंने
मैंने फूलों को ही समझा था चमन का हासिल
हाय कांटों ने बहारों का फुसूं तोड़ दिया,
मेरे भबके हुए माहौले-गमी ने ऐ दोस्त
और दुख भरे वातावरण ने...
लेके हाथों से मेरा साजे-जुनूं तोड़ दिया,
मैंने वह जो भोग-विलास का एक विक्षिप्त वाद्य बना रखा था; वह जो मैं वीणा बजा रहा था शौक की, संगीत की,
मस्ती की; वह जीवन के दुखों ने, जीवन के दुख भरे वातावरण ने अपने हाथ में लेकर वह वीणा तोड़ दी, तारत्तार तोड़ दिए।
मेरे भबके हुए माहौले-गमी ने ऐ दोस्त
लेके हाथों से मेरा साजे-जुनूं तोड़ दिया,
और सोए हुए अहसास की बेदारी ने
और अब एक जागरण आना शुरू हुआ है, एक होश आना शुरू हुआ
है।
रामशो-रंग का पिंदारे-जबूं तोड़ दिया।
संगीत, रंग, राग, वह सब जादू टूट चुका है। वह सब झूठा सिद्ध हो चुका है।
ये दो पहलू हैं जिंदगी के। जिसने जिंदगी पूरी जी है, उसके ही जीवन में वैराग्य का उदय होता है। राग की पीड़ा को जिसने झेला है,
वही वैराग्य को जानता है। और जिसने गृहस्थी को खूब घनेपन से जीया है,
उसके ही जीवन में संन्यास का फूल खिलता है।
नहीं, मैं तुम्हें सलाह न दूंगा कि संसार से भाग जाओ। मैं
तो तुम्हें सलाह दूंगा, जम कर खड़े हो जाओ, संसार को पूरा जी लो! ताकि संसार के दोनों पहलू तुम्हारे सामने आ जाएं,
पूरा सिक्का तुम पहचान लो। उस पहचान में ही सिक्का हाथ से छूट जाता
है। जादू के टूटने में देर नहीं लगती।
लेकिन अनुभव के बिना जादू टूटता नहीं। और एक बार जादू टूट जाए, तो तुम मुक्त हो।
हाय कांटों ने बहारों का फुसूं तोड़ दिया,
मैंने फूलों को ही समझा था चमन का हासिल
एक बार तुम्हारा जादू टूट जाए वासना का, कामना का! कैसे टूटेगा?
मेरे संबंध में इस सारे देश में, इस देश के बाहर भी
बड़ी भ्रांति है। लोग सोचते हैं, मैं लोगों को वासना सिखा रहा
हूं। इससे उलटी कोई बात नहीं हो सकती। मैं लोगों को वैराग्य सिखा रहा हूं।
लेकिन वैराग्य फलता ही तब है जब लोग वासना से परिचित हो जाते हैं। नहीं
तो वैराग्य फलता ही नहीं। जो वासना से अपरिचित विरागी हो जाते हैं, उनके भीतर राग सुलगता ही रहता है। छिपे-छिपे धुआं उठता ही रहता है। उनकी
छाती में राग का धुआं गूंजता ही रहेगा। और कहीं न कहीं वासना पंख फड़फड़ाती रहेगी।
और कहीं न कहीं आकांक्षाएं नये रास्ते खोजती रहेंगी। वे नये-नये जन्म लेंगे,
उन्हें फिर-फिर लौटना होगा। उन्हें बार-बार आना होगा। जो भाग गए हैं
संसार को बिना जीए, उन्हें संसार में वापस लौट ही आना होगा।
संसार को जीए बिना कोई भी भाग नहीं सकता। यह कसौटी, यह
परीक्षा देनी ही होगी।
जिसको मैं संन्यासी कह रहा हूं, अगर मेरी बात ठीक से
समझ कर चल सके, तो उसे इस दुनिया में दुबारा आने की कोई
जरूरत नहीं रह जाएगी। क्योंकि उसका वैराग्य राग की निष्पत्ति होगी। और उसका
संन्यास संसार की निष्पत्ति होगी। उसकी मुक्ति ऊपर से आरोपित नहीं होगी, उसके अपने अनुभव से सृजित होगी। उसका अनुभव ही उसे इतना परिपक्व करेगा;
उसकी पीड़ाएं जीवन की ही उसे जगाएंगी; उसके हाथ
से अपने आप ही ये ऐशो-इशरत के प्याले गिर जाएंगे और टूट जाएंगे; उसके हाथ से अपने आप ही ये जीवन के भोग के वाद्य टूट जाएंगे, इनके तार उखड़ जाएंगे। और यह इतने चुपचाप हो जाएगा--शोरगुल न मचाना होगा,
शोभायात्रा न निकालनी होगी, वैराग्य का कोई
प्रदर्शन न करना होगा--यह ऐसे चुप-चुप हो जाएगा, गुप-चुप हो
जाएगा, भीतर-भीतर हो जाएगा। पर दुबारा आने की फिर कोई जरूरत
न रह जाएगी।
मैं तुम्हें एक संन्यास दे रहा हूं जो संसार के बाहर होने के लिए
सर्वाधिक शक्तिशाली उपाय है। मगर बहुत थोड़े से समझदार लोग समझ सकेंगे। अधिक लोग तो
गलत ही समझेंगे। वह भी स्वाभाविक है। अधिक लोगों से ज्यादा समझदारी की आशा भी नहीं
है।
पूछा है तुमने: "क्या आत्मोपलब्धि के लिए सांसारिक जीवन जीना
आवश्यक है?'
नितांत आवश्यक है, राकेश! उसके बिना कोई संसार से न
कभी मुक्त हुआ है, न हो सकता है।
आज इतना ही।
thank you guruji
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