रहिमन धागा प्रेम का-(प्रश्नोत्तर)-ओशो
मैं मधुशाला हूं—सातवां प्रवचन
दिनांक ५ अप्रैल १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
1—जार्ज गुरजिएफ अपने शिशयों का अंतरतम जाने के लिए उन्हें
भरपूर शराब पिलाया करता था। और जब वे मदहोश हो जाते थे तो उनकी बातों को ध्यान से
सुनता था। आप भी ऐसा क्यों नहीं करते हैं?
2—एकटक आपकी ओर देखते हुए, अपलक आपके रूप को निहारते
हुए, जब आपके मुख से झरते हुए पुशपों को आंचल में भरती हूं,
तब एक प्रकार का नशा। जब नशे से बोझिल होती बंद आंखों में आपकी मधुर
वाणी के स्वर कानों में गुंजित होते हैं तो एक प्रकार का नशा! आप जो रस पिला रहे
हैं, उसको क्या नाम दूं?
3—आप क्या कर रहे हैं? क्या मुझे पागल बनाए दे रहे
हैं? अकारण हंसती हूं, अकारण रोती हूं।
हंसने में भी सजा है, रोने में भी सजा है। क्या कुक्कू ही
बना कर छोड़ेंगे?
4—इक्कीस मार्च उन्नीस सौ अस्सी को शाम करीब आठ बजे, बंबई में
ही था। ध्यान के समय शरीर गिर पड़ा, चश्मा और माला टूट गए। और
जब होश आया तो नौ बज रहे थे। इस बीच क्या हुआ, कैसे हुआ,
कुछ पता नहीं। प्रभु, मेरे मार्ग-दर्शन के लिए
कुछ कहने की अनुकंपा करें!
6—आप संन्यास में हो रहे दीक्षित व्यक्तियों को बस एक नजर देख
कर उनका कैसे चुन लेते हैं?
7—आपका मंत्र-शक्ति के संबंध में क्या कहना है?
8—आप मरे हुओं को इतना क्यों मारते हैं? आप क्या
मोरारजी भाई, जग्गू भैया और चरणसिंह में फिर प्राण फूंकने का
चमत्तकार मरना चाहते हैं, जैसे जीसस ने मुरदों को फिर से
जिला दिया था?
पहला प्रश्न: जार्ज गुरजिएफ अपने शिशयों का अंतरतम जानने के लिए
उन्हें भरपूर शराब पिलाया करता था। और जब वे मदहोश हो जाते थे तो उनकी बातों को
ध्यान से सुनता था। आप भी ऐसा क्यों नहीं करते हैं?
कृशणतीर्थ! तुम बुद्धू के बुद्धू रहे! और मैं क्या कर रहा हूं? रोज
पिलाता हूं, सुबह पिलाता हूं, सांझ
पिलाता हूं। गुरजिएफ जो पिलाता था वह स्थूल है। मैं जो पिला रहा हूं वह सूषम है।
और सूषम का नशा ज्यादा गहरे तक जाता है। स्थूल का नशा तो स्थूल तक ही जाएगा।
अंगूर
की शराब शरीर के पार नहीं जा सकती। लेकिन और भी शराबें हैं, जो देह के
पार जाती हैं। वही तुम्हें पिला रहा हूं। संगीत की भी शराब है, मौन की भी शराब है, ध्यान की भी। और जो श्रेशठतम है,
उसे वेदों ने सोमरस कहा है। सदियां हो गईं, न
मालूम कितने लोग सोमरस की तलाश में रहे हैं! वैज्ञानिक हिमालय की खाइयों में,
पहाड़ियों में, सोमरस किस पौधे से पैदा होता था,
उसकी अनथक अन्वेषणा करते रहे हैं। अब तक कोई जान नहीं पाया कि सोमरस
कैसे पैदा होता था? सोमरस क्या था?
वे
जान भी नहीं पाएंगे। सोमरस स्थूल बात नहीं है। सोमरस तो ऋषियों के पास, उनकी
सन्निधि में, उनके मौन में, उनके ध्यान
में लयबद्ध हो जाने से मिलता था। वह किन्हीं पौधों से नहीं मिलता। वह किन्हीं फलों
से नहीं मिलता। वह किन्हीं फूलों से नहीं मिलता। वह तो जिनकी चेतना का कमल खिला है,
उनसे जो उठती है सुवास, उनसे जो गंध उठती है,
उनसे जो आलोक बिखरता है, उससे मिलता है।
सोम
चंद्रमा का नाम है। साधारणतः व्यक्ति सूर्य का अंश होता है। साधारणतः सभी
सूर्यवंशी होते हैं,
सिर्फ बुद्धपुरुषों को छोड़ कर। सूर्यवंशी होने का अर्थ है कि
तुम्हारे भीतर ऊर्जा उत्तप्त है, जैसे बुखार में हो; विक्षिप्त है। इस सूर्य की उत्तप्त ऊर्जा को जब कोई व्यक्ति अपने भीतर
शांत कर लेता है, जब काम राम में रूपांतरित होता है, तब तुम चंद्रवंशी हो जाते हो। तब तुम सूर्य से हटते हो, चंद्रमा की तरफ तुम्हारी यात्रा शुरू होती है। और एक ऐसी पूर्ण घड़ी भी आती
है जीवन में, अपूर्व घड़ी भी आती है--रहस्य की, अनुपम अनुभव की--जब तुम चंद्र हो जाते हो।
इसी
बात को बुद्ध के जीवन में प्रतीक रूप से कहा गया है। गौतम बुद्ध का जन्म पूर्णिमा
की रात को हुआ। उन्हें बुद्धत्तव भी प्राप्त पूर्णिमा की रात्रि को हुआ--उसी
पूर्णिमा की रात्रि को। वही महीना, वही पूर्णिमा की रात्रि। और उनका
महापरिनिर्वाण, उनका देह-त्तयाग भी पूर्णिमा की रात्रि को ही
हुआ--उसी माह की पूर्णिमा, वही पूर्णिमा। जैसे जन्म, जीवन और मृत्तयु, सब एक बिंदु पर आगर मिल गए।
पूर्णिमा पर आकर मिल गए। जैसे चंद्र पूर्ण हुआ।
बुद्ध
के पास बैठ कर जिन्होंने पीया, उन्होंने जाना कि सोमरस क्या है। बुद्ध के कमल
से जो गंध उठी, उनके चंद्र से जो किरणें फैलीं, उसकी पीने की क्षमता जुटाने वालों को ही पता चलेगा।
और
तुम पूछते हो,
कृशणतीर्थ: "आप ऐसा क्यों नहीं करते?'
वही
कर रहा हूं। गुरजिएफ को स्थूल करना पड़ा, क्योंकि गुरजिएफ, जीवन-दर्शन तो पूरब का था उसके पास, लेकिन प्रचारित
कर रहा था उसे पश्चिम में। पश्चिम है नितांत भौतिक। पश्चिम की धारणा में शरीर के
अतिरिक्त कुछ भी नहीं है; शरीर के पार कुछ भी नहीं है;
बस शरीर सब कुछ है। आत्तमा का कोई अस्तित्तव नहीं है। पिछले तीन सौ
वर्षों की वैज्ञानिक चिंतना का यह परिणाम हुआ है कि मनुशय की अपने पर से ही आस्था
हट गई है, अपने ही अंतर पर अविश्वास हो गया है। भयंकर संदेह
का झंझावात उठा है, जो जीवन को जड़ों से झकझोरे दे रहा है।
पश्चिम में काम करना हो तो गुरजिएफ को स्थूल शराब का उपयोग करना पड़ा। लेकिन वह
उपयोग वह करता था केवल नवागंतुक शिशयों के लिए, नये-नये आए
शिशयों के लिए। जो थोड़े दिन उसके पास रह जाते थे, टिक जाते
थे, उसके रस में पक जाते थे, उनके लिए
नहीं। उनके लिए फिर धीरे-धीरे सूषम रसों की प्रक्रिया शुरू होती थी। वह भी सोमरस
पिलाता था। लेकिन सोमरस तभी पिलाया जा सकता है जब पात्र तैयार हो। सोमरस केवल
शिशयों को पिलाया जा सकता है।
पश्चिम
का एक दुर्भाग्य है,
वहां गुरु और शिशय की कोई परंपरा नहीं है। वहां शिक्षक और
विद्यार्थी की परंपरा है, लेकिन गुरु और शिशय की कोई परंपरा
नहीं है। शिक्षक और विद्यार्थी के बीच जो आदान-प्रदान होता है, वह होता है--ज्ञान का, सूचना का, शास्त्रीय; हार्दिक नहीं, बौद्धिक।
शिशय और गुरु के बीच जो आदान-प्रदान होता है वह बौद्धिक नहीं, हार्दिक--और अंततः आत्तिमक।
गुरजिएफ
को जो काम करना पड़ रहा था,
वैसा काम बुद्ध को नहीं करना पड़ा, कृशण को
नहीं करना पड़ा, कबीर को नहीं करना पड़ा। अलग तरह के लोग थे।
अलग तरह की उनकी पात्रता थी। सदियों-सदियों ने एक वातावरण निर्मित किया था,
एक मनो-आकाश निर्मित किया था।
इसलिए
मैंने पश्चिम जाना नहीं तय किया। जिनको आना है वे पश्चिम से मेरे पास आएं, मैं नहीं
जाऊंगा।
इस
देश में यद्यपि वेद खो गए हैं, उपनिषद खो गए हैं--पंडितों के शोरगुल में सब खो
गया है, पुरोहितों ने सभी चीजों को नशट कर दिया है--फिर भी,
थोड़ी सी ही तलाश से छुपे हुए स्रोत पुनः खोजे जा सकते हैं। थोड़ी सी
ही खुदाई से झरने फिर पाए जा सकते हैं। उन्हीं झरनों को खोद रहा हूं। जो भी शिशय
होने को तैयार हैं, वे उन झरनों से पीएंगे और पीकर अमृत को
उपलब्ध होंगे।
योग शुक्ला ने भी पूछा है: एकटक आपकी ओर देखते हुए, अपलक आपके
रूप को निहारते हुए जब आपके मुख से झरते हुए पुशपों को आंचल में भरती हूं, तब एक प्रकार का नशा। जब नशे से बोझिल होती बंद आंखों में आपकी मधुर वाणी
के स्वर कानों में गुंजित होते हैं, तो एक प्रकार का नशा। आप
जो रस पिला रहे हैं, उसको क्या नाम दूं?
शुक्ला! सोमरस से सुंदर और कोई नाम नहीं है। सोमरस पिला
रहा हूं। और मैंने जब कुछ दिनों पहले कहा कि शीला मेरी मधुबाला है, तो उसके
पास बहुत लोग गए कि मधुशाला कहां है? मधुबाला है तो मधुशाला
भी होगी। शीला ने भी पूछा है कि अब मैं क्या जवाब दूं? जवाब--मेरी
तरफ इशारा करो। मैं मधुशाला हूं। जो तुम्हें पिला रहा हूं, काश
तुम पी सको, घूंट भर भी पी सको, तो तुम
और ही हो जाओ, तुम्हारे जीवन में क्रांति घट जाए।
लेकिन
कृशणतीर्थ, अब तो भारतीयों की दृशिट भी स्थूल हो गई है। अब तो शायद भारत की दृशिट
जितनी स्थूल है, उतनी किसी और की नहीं। भारत जिस तरह भौतिक
हुआ है, शायद कोई और नहीं। अध्यात्तम का तो नाम ही रह गया
है। अध्यात्तम की तो बस बातचीत है; पकड़ भौतिक की है।
इसलिए
तुम पूछ सकते हो कि आप ऐसा क्यों नहीं करते?
वही
कर रहा हूं।
मुझसे
पूछा जाता है कि जीसस ने अपने शिशयों को शराब पिलाई!
निश्चित
पिलाई। और कोई रास्ता न था। जिन यहूदियों के बीच जीसस काम कर रहे थे, वे सोमरस
को नहीं समझ सकते थे। यहूदी अति भौतिकवादी लोग हैं। तो जहां लोग हैं वहीं से तो
सदगुरु को यात्रा शुरू करनी होगी। तुम जहां हो वहीं से तो तुम्हारा हाथ हाथ में
लेना होगा। अगर तुम गङ्ढे में गिर गए हो तो मुझे भी अपना हाथ तुम्हारे गङ्ढे में
ही उतारना होगा। अगर तुम कीचड़ में पड़े हो तो शायद यह भी जरूरी हो जाए कि मुझे भी
दो कदम कीचड़ में उतरने पड़ें।
जीसस
ने न केवल शराब पिलाई अपने शिशयों को, खुद भी उनके साथ पी। यह दो कदम
कीचड़ में उतरना हुआ। मगर जब कीचड़ में जीसस उनके साथ दो कदम उतरे, तो मैत्री बनी, तो अंतर-संबंध हुआ। जब जीसस को
उन्होंने अपने इतने निकट पाया, तब वे जीसस पर भरोसा कर सके,
तब वे जीसस के हाथ में अपना हाथ दे सके। जीसस उन्हें अपने मालूम हुए,
पराए नहीं, दूर नहीं; आकाश
की बातें करने वाले नहीं, पार्थिव। हम जैसे ही। जीसस
खाने-पीने में मजा लेते थे और शराब पीने में। रात देर तक शिशयों के साथ बैठ कर भोज
चलता था। यह हम सोच भी नहीं सकते बुद्ध के बाबत। जरूरत न थी। और ही तरह का भोज था।
इतने स्थूल आहार को देने की जरूरत न थी। यहां शिशय मौजूद थे।
जीसस
को विद्यार्थियों को पहले शिशय में परिवर्तित करना पड़ा। जीसस को छोटी कक्षा से
शुरू करना पड़ा। जीसस का काम ज्यादा कठिन है बुद्ध के काम से। जीसस की गरिमा भी
इसलिए महत्तवपूर्ण है। खींचा कीचड़ से लोगों को। और उनकी करुणा भी महान है कि अगर
लोग कीचड़ में थे तो वे कीचड़ में भी गए; उनका हाथ हाथ में लिया। और जब
लोगों ने देखा कि वे कीचड़ में हमारे साथ खड़े हैं, तो उन्हें
इतना भरोसा आया कि वे भी जीसस के साथ हो लिए कीचड़ से बाहर जाने को। एक दिन जीसस
उन्हें कीचड़ के बाहर भी ले गए। आवश्यक था यह।
एक
झेन फकीर के संबंध में प्रसिद्ध कहानी है कि वह जीवन में बहुत बार जेल गया। बुद्ध
की हैसियत का व्यक्ति,
परम ज्ञान को उपलब्ध--और जेल जाए बार-बार! और कारण भी
छोटे-छोटे--किसी का चाकू चुरा लिया, किसी के पैसे खीसे से
निकाल लिए। उसके शिशय कहते: आप भी ये क्या काम करते हो! क्यों करते हो? हमारे लिए पहेली है। मगर जिंदगी भर वह हंसता, सिर्फ
मरते वक्त उसने राज खोला। उसने कहा: ये छोटी-छोटी चोरियां मैं करता था, ताकि जेल चला जाऊं। क्योंकि जेल में जो लोग हैं, उनको
बाहर कौन लाएगा? उन्हें बाहर लाने को मुझे जेल के भीतर जाना
पड़ता है। ये भीतर जाने की विधियां हैं। थोड़ी सी चोरी कर ली, मजिस्ट्रेट
को जेल भेजना पड़े।
और
चोरी वह स्वीकार कर लेता था और सजा उसे देनी ही पड़ती। और जब बार-बार कोई चोरी करता
ही जाए तो सजा बढ़ती जाए। छोटी चोरी हो, लेकिन फिर भी सजा बढ़ती जाए। और यह
तो जिंदगी भर ही चोरी करता रहा। लेकिन जो लोग इसके साथ जेल में रहे, उनके जीवन में क्रांति हो गई। वे जब जेल के बाहर आए तो दुबारा भीतर नहीं
गए।
गुरजिएफ
को भी वैसा कुछ करना पड़ा जैसा जीसस को करना पड़ा, जैसा इस झेन फकीर को करना
पड़ा। मुझे करने की जरूरत नहीं है। मेरे पास जो लोग आ रहे हैं, उनमें इस पृथ्वी के श्रेशठतम लोग हैं। अब तो धर्म केवल श्रेशठतम को ही
आकर्षित कर सकता है। मेरे पास जो लोग आ रहे हैं, वे पृथ्वी
के नमक हैं। उन्हें सीधा सोमरस पिलाया जा सकता है। छोटी-मोटी बातें हैं उनकी
जिंदगी में, जो बदलनी हैं, कोई बहुत
बड़ी-बड़ी बातें नहीं हैं। उनकी बदलाहट में मैं लगा हूं, वे
बदल ली जाएंगी। वे बदली जा रही हैं। छोटी-मोटी अड़चनें हैं, वे
गिरती जाती हैं। विद्यार्थी शिशय में रूपांतरित हो रहे हैं। इसी रूपांतरण को मैंने
संन्यास नाम दिया है। संन्यास है तुम्हारी तैयारी सोमरस पीने की।
मुझसे
लोग पूछते हैं कि क्या बिना संन्यासी हुए
हमें आपका आशीष न मिलेगा?
मेरा
आशीष तो मिलेगा,
मगर तुम तक पहुंचेगा नहीं। तुम उसे झेल न सकोगे। तुम उसे पी न
सकोगे। मैं तो भर दूंगा तुम्हारा जाम, लेकिन तुम उसे ओंठों
से लगा न सकोगे। तुम्हें वह दिखाई भी न पड़ेगा, ओंठों से
लगाना तो बहुत दूर। मेरे आशीष में कोई अंतर नहीं पड़ेगा। तुम संन्यासी हो या नहीं,
इससे क्या फर्क पड़ता है? लेकिन फर्क तुम्हें
पड़ेगा। संन्यासी मेरे आशीष को लेने को तत्तपर होगा, आतुर
होगा, उन्मुख होगा। वह अपने हृदय के द्वार-दरवाजे खोज कर
बैठा है। उसने निमंत्रण भेज दिया है। उसने पाती लिख दी है। उसका नेह-निमंत्रण मुझ
तक आ गया है। उसने कहला भेजा है कि पलक-पांवड़े बिछाए बैठा हूं।
लेकिन
जो संन्यासी नहीं है,
वह बंद है। वह सुनने आता है विद्यार्थी की तरह, शायद कुछ सीखने को मिल जाए। यहां सीखने को कुछ भी नहीं है। यहां तो भूलने
को है। यहां तो मिटना है। यहां तो खोना है। इसलिए जो भी मैं तुम्हें दे रहा हूं,
वह शराब है। शराब इन अर्थों में जिन अर्थों में वेद सोमरस की चर्चा
करते हैं।
योग
प्रीतम ने मुझे ये दो गीत लिखे हैं। पहला गीत--
आपके
पावन चरण में खिल उठी है बंदगी
आप
हैं तो लग रही है जिंदगी यह जिंदगी
आपकी
आंधी बहा कर ले गई है गर्द सब
आपकी
बरसात में भीगी खड़ी है जिंदगी
आप
क्या हंसते, हजारों फूल खिल जाते यहां
आप
हैं तो हो गई फिर से हरी यह जिंदगी
आप
क्या आए, फिजां में घुल गया ऐसा नशा
आप
हैं तो लग रही है मदभरी यह जिंदगी
आपने
क्या गीत गाए,
जल उठे दिल के दिए
आज
तो फिर लग रही है रस भरी यह जिंदगी
आपसे
मिल कर हमारी हर खुशी आबाद है
लग
रही है फिर बहारों की झड़ी यह जिंदगी
पीयो
तो तुम्हें भी लगे। पीयो,
जी भर कर पीयो। इस सौभाग्य से वंचित मत रह जाना।
योग
प्रीतम का दूसरा गीत--
हृदय
से राग कोई गा रहा है
सुरों
से प्रेम-रस बरसा रहा है
अरे, हर बोल
में मस्ती घुली है
दिलों
में वह उतरता जा रहा है
नई
है तर्ज नित नूतन तराने
लगे
सब गुनगुनाने साथ उसके
सभी
अलमस्त दीवाने हुए हैं
वो
कुछ ऐसे पिलाए जा रहा है
बड़ी
रंगीन है उसकी तबीयत
बड़े
ही खूबसूरत हैं इशारे
कि
हम आकाश में उड़ने लगे हैं
हृदय
आनंद से सरसा रहा है
बड़ा
ही शोख अंदाजे-बयां है
बड़ी
ही भाव-भीनी है तरन्नुम
न
जाने खो गया हूं मैं कहां पर
नजर
केवल वही अब आ रहा है
पीयो, जी भर कर
पीयो। इसमें कंजूसी मत करना। लोग पीने तक में कंजूसी कर जाते हैं। लोग ऐसे कंजूस
हो गए हैं, लेने तक में कंजूसी कर जाते हैं! लेने तक में
झिझकते हैं! दूर-दूर खड़े रहते हैं। गंगा द्वार पर भी आ जाए तो शायद वे प्यासे ही
रहेंगे। कितनों के द्वार पर मैंने दस्तक नहीं दी है! मगर सौ में से एकाध ने द्वार
खोला है, निन्यानबे ने तो और जोर से द्वार के भीतर ताले डाल
लिए हैं, कि कहीं मैं द्वार तोड़ कर ही भीतर न आ जाऊं। हां,
जब तक बात डूबने की न थी, तब तक मुझे सुनते
थे। जब बात डूबने की आई तब भाग खड़े हुए।
और
बिना डूबे नहीं पा सकोगे कुछ भी। यह बात दीवानों की है।
रंजन ने पूछा है कि आप क्या कर रहे हैं? क्या मुझे
पागल बनाए दे रहे हैं? अकारण हंसती हूं, अकारण रोती हूं। हंसने में भी मजा है, रोने में भी
मजा है। क्या मुझे कुक्कू ही बना कर छोड़ेंगे?
रंजन! अब तो बहुत देर हो गई। कुक्कू तो तू हो गई। अब तो
लौटने का भी कोई उपाय न रहा। मैं तो सीढ़ियां गिरा देता हूं, इसलिए
पीछे जाने की कोई जगह नहीं बचती।
अंग्रेजी
में कुक्कू शब्द कोयल के लिए भी उपयोग होता है और झक्कियों के लिए भी, पागलों के
लिए भी। बड़ी प्यारी बात है। कोयल पागल ही है। नहीं तो ऐसे मदभरे गीत गाए? इस रसहीन जगत में, इस मरुस्थल जैसे जगत में, ऐसा रस बरसाए? पागल ही है। इस व्यर्थ के शोरगुल में
ऐसी मधुवाणी!
कोयल
के गीत निश्चित ही वैसे ही हैं, जैसे मीरा के, चैतन्य के,
कबीर के। मगर ये सब पागल हैं।
हिंदी
भाषा में तो कोयल शब्द का अर्थ पागल नहीं होता। वह हमारी भाषा की कमी है। अंग्रेजी
ने ठीक किया।
स्विटजरलैंड
में संन्यासियों ने एक प्रतियोगिता की। स्विटजरलैंड की प्रतियोगिता, तो घड़ियों
के बाबत हुई। तो लोगों ने बहुत तरह की घड़ियां बनाईं, अलग-अलग
संन्यासी अलग-अलग घड़ियां बना कर लाए। प्रथम पुरस्कार, द्वितीय
पुरस्कार और तृतीय पुरस्कार, तीन पुरस्कार घोषित किए गए।
तीसरा पुरस्कार उस घड़ी को मिला--बड़ी घड़ी, जिसमें हर घंटे पर
एक कोयल निकलती है और कहती है: भगवान! भगवान! दूसरा पुरस्कार उसे मिला जिसमें हर
आधा घंटे पर दो कोयलें निकलती हैं और कहती हैं: भगवान! भगवान! और दोनों कोयलें
गैरिक वस्त्रों में, माला पहने हुए। और प्रथम पुरस्कार उस
घड़ी को मिला जिसमें हर घंटे पर भगवान निकलते हैं और कहते हैं: कुक्कू! कुक्कू!
रंजन, तू तो
कुक्कू है ही। अब होने को कुछ बचा नहीं। जो हो गया, हो गया।
बीति ताहि बिसार दे, आगे की सुध लेहु। अब तो बात हो गई,
अब तो गाओ। अब तो कोयल के स्वर उठाओ। रोओ भी, हंसो
भी। मस्ती में सब होगा--आंसू भी होंगे, गीत भी होंगे।
दूसरा प्रश्न: इक्कीस मार्च उन्नीस सौ अस्सी को शाम करीब आठ बजे
मैं बंबई में ही था,
ध्यान के समय शरीर गिर पड़ा, चश्मा और माला टूट
गए, और जब होश आया तो नौ बज रहे थे। इस बीच क्या हुआ,
कैसे हुआ, कुछ पता नहीं है। प्रभु, मेरे मार्ग-दर्शन के लिए कुछ कहने की अनुकंपा करें।
सुरेंद्र सरस्वती! शुभ हुआ, सुंदर हुआ। उस संबंध में
विश्लेषण में न पड़ो कि क्या हुआ। कुछ बातें हैं जिनका विश्लेषण न करो तो अच्छा;
जिनको बौद्धिक न बनाओ तो अच्छा। क्योंकि उन्हें बौद्धिक बनाने से,
उनमें जो भी बहुमूल्य है, वह खो जाता है;
उनमें जो भी रहस्यपूर्ण है, वह तिरोहित हो
जाता है।
कुछ
बातें भूल कर भी बुद्धि के विषय न बनाना, हालांकि बुद्धि खुजलाती है। जब भी
कुछ अनूठा होगा, अज्ञात होगा, अभिनव
होगा, अपरिचित होगा, तो बुद्धि पूछेगी,
प्रश्न उठाएगी: क्या हुआ? क्यों हुआ? और जब तक बुद्धि को कोई उत्तर न मिल जाएं, तब तक वह
पूछती ही रहेगी। जैसे कोई दांत गिर जाता है न, तो जीभ
बार-बार उसी टूटे हुए दांत की तरफ जाती है। जब तक था, तब तक
कभी न गई; अब जब से गिर गया है, तब से
बार-बार वहीं जाती है, चौबीस घंटे। हालांकि तुम्हें मालूम है
कि गिर गया, अब बार-बार जीभ ले जाने से क्या फायदा है! मगर
जीभ भी एक दीवानी है; वह जो खाली जगह हो गई, फिर पहुंच जाती है वहीं, फिर पहुंच जाती है वहीं।
एक
घटना घटी। एक अपूर्व घटना घटी। अब बुद्धि में एक बेचैनी है। बुद्धि नहीं चाहती कि
कुछ ऐसा घटे जो उसकी क्षमता के बाहर है। वह हर चीज को अपनी क्षमता में ले आना
चाहती है। और अगर क्षमता में न आ सके तो इनकारना चाहती है, कि नहीं,
घटा ही नहीं, हुआ ही नहीं। अगर तुम बुद्धि से
पूछोगे तो बुद्धि तो कहेगी कि कुछ नहीं हुआ, तुम बेहोश हो
गए। वही बुद्धि कहना चाहती है। पूछ-पूछ कर जब तुम कोई उत्तर न पा सकोगे...और कोई
उत्तर पाया नहीं जा सकता। कोई उत्तर नहीं है। ये बातें उत्तर की नहीं हैं। ये
बातें ऐसी हैं जहां अनुत्तर भाव-दशा निर्मित होती है; जहां
सब शून्य हो जाता है; जहां कुछ खोजे से नहीं मिलता, कुछ पता नहीं चलता, सब लापता हो जाता है। जब बुद्धि
को कुछ पता नहीं चलेगा तो बुद्धि कहेगी: कुछ नहीं हुआ; जाहिर
है कि तुम बेहोश हो गए, मूर्च्छित हो गए। बेहतर है किसी
डाक्टर को दिखा लो। या बेहतर है कि ध्यान वगैरह बंद कर दो। यह खतरनाक बात है। आज
चश्मा टूटा, माला टूटी, अरे कल आंख फूट
जाए, हड्डी-पसली टूट जाए! अभी बात यहीं ठहरा लेनी उचित है।
और या फिर पता लगाओ कि यह क्यों हुआ।
इसलिए
बुद्धि तुम्हें बेचैन कर रही है सुरेंद्र सरस्वती। मगर मेरी सलाह है: बुद्धि को
कहो कि बहुत कुछ है जो तेरी समझ के पार है। बहुत कुछ है। जैसे प्रेम! बुद्धि नहीं
समझ पाती तो प्रेम को अंधा कह देती है, प्रेम को पागल कह देती है। जैसे
सौंदर्य! बुद्धि नहीं समझ पाती तो कह देती है कल्पना। और यह तो प्रेम और सौंदर्य
से भी आगे की बात है। यह तो समाधि की पहली झलक है। यह तो शून्य का पहला अवतरण है।
यह तो देह-भान छूट गया। इस एक घंटे तुम पृथ्वी के वासी नहीं थे, तुम किसी और लोक में, किसी और आयाम में प्रवेश कर
गए। घबड़ाओ मत। धीरे-धीरे जब दो-चार बार यह घटना घट चुकेगी, तो
तुम चकित होओगे: घटना भी घटेगी, और धीरे-धीरे होश भी सम्हला
रहेगा। पहली दफा घटा है, तो होश कैसे सम्हला रह सकता था?
बात इतनी नई थी, राह इतनी नई थी, मस्ती ने तुम्हें पूरा का पूरा आच्छादित कर लिया होगा।
बस
इतना ही करो अब,
जब दुबारा ऐसा घटे तो इतना ही खयाल रखना कि शांत भीतर थोड़ा सा जागरण
बना रहे--एक किरण भी जागरण की बनी रहे। बनी रहेगी। दो-चार दफे जब घटना घट जाएगी तो
तुम आश्वस्त हो जाओगे, तुम्हारा तालमेल बैठ जाएगा। तुम इस
मार्ग से परिचित हो जाओगे। यह बात जानी-मानी हो जाएगी। तब तुम्हें धीरे-धीरे कुछ
बातें दिखाई पड़नी शुरू हो जाएंगी। जैसे देह भूल जाएगी। जैसे देह है ही नहीं। मन
कहीं बहुत पीछे छूट गया। थोड़ी देर तक शोरगुल सुनाई पड़ता रहेगा, लेकिन ऐसे ही जैसे दूर होता जाता, दूर होता जाता,
दूर होता जाता। कोई ढोल बजता हो और दूर होता जाता है। और फिर एक
क्षण आता है कि जैसे मन नहीं है। न देह है, न मन है। बस एक
सन्नाटा रह गया। एक ऐसी अपूर्व शून्य की अवस्था, जहां कोई
तरंग विचार की नहीं, कल्पना की नहीं, वासना
की नहीं। यही तुम्हारा स्वभाव है। यही तुम्हारा स्वरूप है।
तो
पहले तो तुम्हें अनुभव होगा शरीर के छूटने का, फिर धीरे-धीरे अनुभव होगा मन के
छूटने का। फिर तीसरी अनुभूति होगी स्वरूप की। और फिर द्वार खुल जाएंगे रहस्य के।
उस रहस्य को जिन्होंने जाना है, काम चलाने के लिए नाम दिया
है--सच्चिदानंद। सत, चित और आनंद, इन
तीन चीजों का अनुभव होगा।
जो
है उस अवस्था में,
वही एकमात्र सत्तय है, शेष सब सपना है। जो है
उस अवस्था में, वही एकमात्र चैतन्य है, बाकी सब मूर्च्छा है। जो है उस क्षण में, वही
एकमात्र आनंद है, बाकी तुम्हारे सुख भी दुख के ही नाम हैं,
बस दुख की ही लीपापोती है, दुख को ही
अच्छे-अच्छे रंग-ढंग में पेश करना है। जैसे कांटों पर किसी ने रंग चढ़ा दिए हों। जैसे
मछली को पकड़ते हैं तो कांटों पर आटा लगा देते हैं। मछली तो आटे को निगल जाती है,
फंस जाती है कांटे में। ऐसे ही दुखों के कांटे पर सुखों का आटा लगा
है, बस मछलियां निगल रही हैं और फंस रही है।
तुम
सब भी ऐसे ही फंसे हो और तड़फ रहे हो।
मगर
विश्लेषण में मत पड़ो। जागरण की चिंता करो, विचार की नहीं। विचार छोटी बात है,
वहां तक नहीं जाएगी। होश जाएगा। होश अंत तक जाएगा। ऐसी कोई घटना
नहीं जो होश के बाहर है। ऐसी बहुत सी घटनाएं हैं जो विचार के बाहर हैं।
ऊंची-नीची-संकरी
पथरीली
राहों पर
चलना
है बहुत कठिन,
पिंडली भर आती है।
और
धौंकनी सी बन-बन जाती छाती है।
बाहर
आलोकित रवि है,
शशि है, तारे हैं
हम
अपने अंदर अंधियारे से हारे हैं!
मन
कितना भारी हो,
आंखें
कितनी नम हों
प्राणों
में कांटों से
चुभते
कितने भ्रम हों!
पर
हमको चलना है,
चलते ही रहना है
दूर
क्षितिज पर धुंधली
बन
कर जो खो जाती
अंतहीन, लषयहीन,
अनजानी राहों पर!
चलना
है बहुत कठिन
लेकिन
हम चलते हैं
ऊंची-नीची-संकरी
पथरीली
राहों पर!
वैसे
हम अक्सर इस सब पर हंस देते हैं,
व्यंग्य
से नहीं, हमको हंसने की आदत है!
लोग
फूट पड़ते हैं आंखों में,
ओंठों पर;
जाने
क्यों हमको रो देने से नफरत है!
लेकिन
इतना सच है--
बन
कर मिट जाना है।
फूलों
का खिलना ही
उनका
मुरझाना है
मिट
जाते दिन हैं औ,
मिट जाती रातें हैं।
मधुऋतु
जल जाती, गल जाती बरसातें हैं।
चलती
हैं सांसें, चलता रहता काल-समय!
और
चलती ही रहती सुख-दुख की बातें हैं!
लेकिन
हम कायम हैं
हमसे
जग कायम है
बनती-मिटती
बस कुछ इतनी-गिनी राहों पर!
चलना
है बहुत कठिन
लेकिन
हम चलते हैं
ऊंची-नीची-संकरी
पथरीली
राहों पर!
हमको
भी लगता, हम कुछ बहके-बहके हैं!
अपना
विश्वास शिथिल,
अपना स्वर धीमा है!
वरना
प्रति पग पर जो हमसे टकरा जाती
वह
तो बस अपने ही सपनों की सीमा है!
दिक्भ्रम
है उसका ही
जिसको
हो दिशा-ज्ञान!
गिरने
का भय उसको
ऊंची
जिसकी उड़ान!
अनजानी
दुनिया का हर कण अनजाना है,
जीवन
का हर क्षण उलझा सा अफसाना है,
इस
ससीम संसृति में किसका अस्तित्तव पृथक?
अपने
को खो देना अपने को पाना है।
हम
उड़ते रहते हैं!
हम
गिरते रहते हैं
प्रस्फुटित
उमंगो पर,
घुटती
आहों पर!
चलना
है बहुत कठिन
लेकिन
हम चलते हैं
ऊंची-नीची-संकरी
पथरीली
राहों पर!
एक
बात स्मरण रहे: अपने को खो देना, अपने को पाना है। रास्ता तो कठिन है, संकरा है, पथरीला है, दुर्गम
है, पर्वतीय है। और जैसे-जैसे ऊपर चढ़ोगे, वैसे-वैसे गिरने का डर है, गिरने का डर बढ़ता जाएगा।
क्योंकि जो ऊंचे चढ़ते हैं, वे ही गिर सकते हैं। जो समतल
रास्तों पर जीते हैं, उनके गिरने का कोई सवाल नहीं।
भोग
में कभी कोई भ्रशट नहीं होता। इसलिए भोग-भ्रशट जैसा कोई शब्द नहीं। योग-भ्रशट हो
सकता है कोई। योगी ही भ्रशट हो सकता है, क्योंकि ऊंची उड़ान भरता है। उसके
ही पंख कट सकते हैं, उसके ही पंख जल सकते हैं। सूरज के पार
जाने की जिसकी आकांक्षा है, अभीप्सा है, वह किसी दिन जल सकता है।
लेकिन
इतना साहस न हो तो सत्तय को कोई पा नहीं सकता। सत्तय कायरों के लिए नहीं है। और
आश्चर्यों का आश्चर्य तो यह है कि हमारे मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे
कायरों से भरे हैं। जो प्रार्थना कर रहे हैं घुटने टेक कर, वह
कायरों की जमात है, वह भयभीत है। इसलिए भगवान की बात कर रहे
हैं। उनका भगवान बस भय का ही एक विस्तार है। और भगवान--और भय का विस्तार? असंभव! भगवान तो साहस का अनुभव है--दुस्साहस का।
शुभ
हुआ। सुरेंद्र सरस्वती,
फिर-फिर होने देना। घबड़ाना मत। अरे टूट गया चश्मा तो टूट गया,
फिर बना लेना। और आगे से चश्मा उतार कर ही ध्यान करो न! ऐसे ही तो
रोज-रोज समझाता हूं कि सब चश्मे उतार दो, फिर भी तुम चश्मा
लगा कर ही ध्यान कर रहे हो! भीतर देखना है, वहां चश्मे की
क्या जरूरत है?
मुल्ला
नसरुद्दीन एक रात उठा और उसने अपनी पत्तनी को धक्का मारा, हुद्दा
मारा एकदम जोर से कि जल्दी चश्मा ला। वह तो कुछ समझी नहीं कि मामला क्या है! कोई
चोर आ गया घर में या क्या हुआ! भागी गई, चश्मा ले आई। मुल्ला
ने जल्दी से चश्मा चढ़ा लिया और लेट गया चित्त, आंख बंद करके।
पत्तनी ने कहा: मामला क्या है? माजरा क्या है? होश में हो? चश्मा किसलिए बुलाया आधी रात?
अरे, उसने कहा:
तू चुप रह, बीच में गड़बड़ न कर! एक बहुत सुंदर सपना देख रहा
हूं। जरा धुंधला-धुंधला मालूम पड़ रहा था, सो सोचा कि चश्मा
बुला लूं। मगर फिर धुंधला-धुंधला भी नहीं दिखाई पड़ा। बहुत आंखें भींचीं, करवट बदली। पत्तनी पर नाराज होने लगा कि दुशट ने बीच में गड़बड़ डाल दी!
चुपचाप रहती, तू बोली क्यों? सब खराब
कर दिया।
पत्तनी
का कोई कसूर नहीं। किसी का कोई कसूर नहीं। इस दुनिया में हम सब दूसरों पर कसूर थोप
देते हैं। सपने देखने के लिए चश्मों की जरूरत है? अंधे भी जी भर कर देखते
हैं। आंखों तक की जरूरत नहीं है, चश्मों की तो बात ही छोड़
दो।
चश्मा
उतार कर रख दो। माला भी उतार कर रख दो। सच तो यह है, अगर संभव हो, द्वार-दरवाजे बंद करके बिलकुल नग्न होकर ही ध्यान करो। वस्त्र भी हटा दो।
कोई बाधा न रह जाए। क्योंकि ये सब बाधाएं हैं।
अब
ऐसे लोग हैं,
पैंट-पतलून कसे हुए हैं और ध्यान कर रहे हैं! प्राण निकले जा रहे
हैं। पैंट इतना जोर से कसा हुआ है! कुछ नालायक तो ऐसे हैं कि टाई तक बांध कर ध्यान
करते हैं! जैसे भगवान के सामने भी बिना टाई के गए तो शायद जंचे नहीं, क्या सोचें कि अरे सज्जन पुरुष होकर बिना टाई के चले आ रहे हैं!
डाक्टर
रघुवीर ने और कुछ भी किया हो, और सब चीजों के लिए गलत-गलत अनुवाद किया हो,
मगर टाई के लिए बिलकुल ठीक किया--गलफांसी। और तो कोई उनका अनुवाद
जंचता नहीं, उलटे-सीधे अनुवाद हैं। रेलगाड़ी के लिए
लोहपथ-गामिनी। रेलगाड़ी ठीक-ठाक है। लोहपथ-गामिनी! मगर टाई का जंचता है--गलफांसी।
टाई से भी सुंदर है गलफांसी। टाई का मतलब तो कुल गांठ। मगर गलगांठ, लगी है फांसी! पता नहीं क्यों?
और
पश्चिम में जहां लोग सर्दी में जीते हैं, वहां गले को बांध लो, यह समझ में आता है, ताकि हवा अंदर न जाए। मगर यहां
पूरब में, जहां पसीने से लथपथ हैं, मरे
जा रहे हैं गर्मी में, हायत्तोबा कर रहे हैं--और गलफांसी
लगाए हैं! इस गर्म देश में मोजे पहने हुए हैं दिन-दिन भर, जूते
पहले हुए हैं। उतारते ही नहीं।
ध्यान
के समय सब अलग कर दो। सब फांसियां अलग कर दो। न मोजों की जरूरत है, न
पैंट-पतलून की जरूरत है, किसी चीज की कोई जरूरत नहीं। और जब
नंग-धड़ंग होओ तो कृपा करके माला भी अलग कर देना, नहीं तो बड़ी
अजीब सी लगेगी, नंग-धड़ंग खड़े हैं और माला पहने हुए हैं! अरे
कोई देख ही ले! क्योंकि लोग ऐसे हैं कि तुम द्वार-दरवाजे बंद करो, तो उत्तसुक हो जाते हैं कि मामला क्या है? तो कोई
चाबी के छेद में से ही झांक ले। तो तुम्हारे नंगेपन से उतना परेशान नहीं होगा,
जितना माला से परेशान होगा। सब अलग कर दो।
और
यह घटना बार-बार घटे,
इसके लिए तैयारी करो। और बौद्धिक विश्लेषण में मत पड़ना, सिर्फ होश रखना। अब की बार जब गिरो तो जरा सा होश रखना। बस थोड़ी सी होश की
फिक्र रखना। एक बार नहीं सधेगा, दो बार नहीं सधेगा, धीरे-धीरे सधेगा, निश्चित सधेगा। और जब होश सध जाएगा
तो तुम बड़ी अदभुत अनुभूतियों में से गुजरोगे। देह गिर जाती है, तुम नहीं गिरते। मन गिर जाता है, तुम नहीं गिरते। और
जब देह और मन गिर जाते हैं, तभी तो अनुभव होता है कि मैं कौन
हूं।
तीसरा प्रश्न: आपको लोग कब समझेंगे? आप गीत
देते हैं और लोग गालियां लौटाते हैं!
अनंत! जो जिसके पास है वही तो दे सकता है न! मैं गीत
देता हूं, इसमें कुछ खूबी की बात नहीं है। हृदय गीतों से भरा है। मजबूरी है। विवश
हूं। गीत देने ही पड़ेंगे। फूल खिलेगा तो गंध को उड़ना ही होगा। दीया जलेगा तो
किरणें फूटेंगी ही। सूरज निकलेगा तो सुबह होगी ही। सुबह होगी तो पक्षी गीत भी गाएंगे,
फूल भी खिलेंगे, हवाओं में ताजगी भी आएगी। यह
सब होगा। यह कोई सूरज करता नहीं है।
तुम
सब इतने अपूर्व प्रेम से मेरे पास इकट्ठे हो गए हो, कैसे? कोई सूरज तुम्हें दिखाई पड़ा, तुम्हारे भीतर भी कोई
गीत गूंज उठा, तुम्हारे भीतर भी कोई गंध उठने लगी। तुम्हें
किसी किरण ने छुआ। कोई रस तुम्हारे गले में आया। तुमने कुछ स्वाद पाया। तुम चले आए
हो खिंचे। मेरी मजबूरी है कि जो मेरे पास है, दूंगा।
और
लोग भी क्या करें?
उनके पास गालियां हैं। उनकी गालियों पर नाराज मत होना। उनकी गालियों
पर दया करना। वे कर भी क्या सकते हैं? उन्हीं शब्दों से गीत
बनते हैं, उन्हीं शब्दों से गालियां बनती हैं। शब्द तो वही
होते हैं। उनके भीतर कुछ इतना विषाद है, कुछ इतनी पीड़ा है।
उनके भीतर कुछ इतने घाव हैं। जिंदगी उनकी इतनी हताशा-निराशा से भरी है कि वहां से
गालियां ही उठ रही हैं। उनके भीतर गालियां उतनी ही स्वाभाविक हैं।
मेरे
गांव में मेरे सामने ही एक सज्जन रहते थे। आए दिन उनका झगड़ा किसी न किसी से हो ही
जाए, किसी न किसी बात पर हो ही जाए। मैं बैठा-बैठा यह बरसों देखता रहा।
धीरे-धीरे मुझे समझ में आया कि झगड़ा होना एक अनिवार्यता है, वे
बच नहीं सकते झगड़े से। उनके भीतर झगड़ा उबलता रहता है। वे सिर्फ बहाने की तलाश में
रहते हैं। तो कोई भी बहाना, कोई भी छोटी-मोटी बात--और
पर्याप्त है उनके लिए--जो किसी के लिए भी पर्याप्त न हो, जो
कोई सोच भी न सके कि यह कोई झगड़े की बात है! और भी एक मजा मैंने देखा कि वे इसको
झगड़ा नहीं मानते थे। वह तो एक दिन बीच में पुलिसवाला आ गया। उनकी और उनके सहयोगी
की...सुनार का काम करते हैं...उनकी और उनके सहयोगी की बातचीत हो गई। बातचीत बढ़ी,
एक-दूसरे के बाल एक-दूसरे ने पकड़ लिए, छीना-झपटी
हो रही, मार-पीट हो रही, भीड़ इकट्ठी हो
गई।
भीड़
तो ऐसी चीजें देखने में बड़ी उत्तसुक होती है। अब मु९ब०त में ही तमाशा देखने मिल
रहा हो, तो कौन सरकस जाए! कौन सिनेमा जाए! हजार काम छोड़ कर आदमी खड़े हो जाते हैं,
भूल ही जाते हैं। कितना ही जरूरी काम हो, पत्तनी
बीमार पड़ी हो, डाक्टर को बुलाने निकले थे, भूल ही गए। सब्जी लेने चले थे, भूल ही गए। घर में
चाहे मेहमान बैठे हों, मगर ऐसा मौका कोई नहीं छोड़ता। और छोटे
गांव में बस यही छोटी-मोटी घटनाएं तो घटती हैं मनोरंजन के लिए, और तो कुछ खास है नहीं। न टेलीविजन है, न बड़े-बड़े
होटल हैं जहां कैबरे नृत्तय होता हो, न मल्लयुद्ध होते हैं,
न मोहम्मद अली आते हैं, कुछ भी तो नहीं होता।
बस कभी-कभी ऐसी छोटी-मोटी बातें होती हैं, तो सारा मोहल्ला
इकट्ठा था। रास्ते का ट्रैफिक, छोटा सा रास्ता कि दो बैलगाड़ी
भी आ जाएं जो फंस जाएं, तो ट्रैफिक रुका हुआ है, तांगे वाले चिल्ला रहे हैं कि उनकी ट्रेन चूकी जा रही है, लोग रास्ता नहीं छोड़ रहे और वे दोनों बीच रास्ते पर एक-दूसरे की पिटाई कर
रहे हैं, एक-दूसरे के बाल पकड़े हुए हैं।
पुलिसवाला
बीच में आया और कहा कि लड़ क्यों रहे हो?
मैं
अपने दरवाजे पर बैठा देख रहा हूं। उन सज्जन ने कहा: लड़ कौन रहा है? अरे यह तो
बातचीत हो रही है। तब मैं समझा कि यह बातचीत है! पूछ लो इससे, उन्होंने अपने सहयोगी से कहा। उसने भी कहा: हां, बातचीत
ही हो रही है। ऐसी बातचीत तो होती ही रहती है, इसमें झगड़ा
क्या है!
एक
दिन बस में मुल्ला नसरुद्दीन किसी व्यक्ति से गाली-गलौज पर उतर आया और फिर उसकी
उससे हाथापाई भी होने लगी। लोगों ने बीच-बचाव करने की कोशिश की और कहा: यूं मत
लड़ो। और कम से कम ऐसी गंदी गालियां तो न दो। कम से कम मां-बहन की गालियां तो मत
दो। देखते नहीं,
बस में महिलाएं बैठी हैं?
मुल्ला
नसरुद्दीन ने कहा: महिलाएं बेशक उतर जाएं, लड़ाई बहुत जरूरी है। ऐसी की तैसी
इन महिलाओं की! न घर में शांति से जीने देती हैं, न बाहर कोई
काम शांति से करने देती हैं।
यह
काम शांति से कर रहे थे वे--यह जो मारपीट की नौबत आ रही थी, ये जो
मां-बहन की गालियां चल रही थीं!
लोगों
की अपनी समझ है।
तुम
पूछते हो: "आपको लोग कब समझेंगे? आप गीत देते हैं और लोग गलियां
लौटाते हैं!'
अनंत, यही
उन्होंने सदा किया है। वे अगर गालियां न लौटाएं तो मैं चौंकूंगा कि क्या हो गया?
मामला क्या है? क्या मेरे गीत उन्होंने सुने
नहीं? क्या उनको मेरे गीत जंचे नहीं, रुचे
नहीं, भाए नहीं? क्या मैं बहरों से बोल
रहा हूं? क्योंकि गालियां क्यों नहीं आईं? गालियां आनी ही चाहिए!
मुल्ला
नसरुद्दीन और उसकी पत्तनी,
दोनों स्टेशन गए थे। तीर्थयात्रा पर जा रहे थे। स्टेशन पर वजन नापने
वाली मशीन लगी थी, जिस पर खड़े हो जाओ, दस
पैसे का सिक्का डालो, टिकिट निकल आए। मुल्ला जल्दी से खड़ा हुआ,
टिकिट निकली। इसके पहले कि वह उठाए, पत्तनी ने
झपट कर टिकिट उठाई। टिकिट में लिखा हुआ था कि आप महान वीर पुरुष हैं। जीवन में
आपको कभी भय नहीं सताता। जीवन में आप टूट जाएं मगर झुकते नहीं। आप में महान आत्तमबल
है। संकल्प की संपदा परमात्तमा ने आपको दी है।
पत्तनी
ने कहा: हुं! और दूसरी तरफ टिकिट उलटी और उस तरफ आया था: एक सौ अस्सी पौंड वजन। पत्तनी
ने कहा: और वजन भी गलत है। वह जो कहा है पहले, वह तो गलत है ही, और वजन भी गलत है।
कुछ
लोग तो हर चीज में झगड़ा करने को तैयार हैं। अब पत्तनी इस टिकिट को भी बर्दाश्त
नहीं कर सकी। इसमें भी उसने एतराज उठा ही दिया, कि दोनों बातें गलत हैं। और मुल्ला
क्या कहे, पत्तनी से कुछ कहे तो वहीं अभी झगड़ा खड़ा होता है।
दस पैसे में महंगा पड़ जाए और बीच सड़क पर स्टेशन पर अभी भीड़-भाड़ इकट्ठी हो जाए।
इसलिए तो बेचारा कह रहा है कि ये महिलाएं न घर में शांति से रहने देती हैं,
न बाहर। अपनी हैं, वे भी सताती हैं; दूसरों की हैं, वे भी सताती हैं। जहां देखो वहीं डर
है कि महिलाओं की वजह से गाली तक नहीं बक सकते। तो आदमी को स्वतंत्रता है या नहीं?
वाणी का तो स्वातंद्रय बिलकुल विधान में लिखा हुआ है। तो गीत गाओ कि
गाली बको, यह तो स्वतंत्रता है, जन्मसिद्ध
अधिकार है आदमी का। इसमें कुछ नाराज होने की जरूरत नहीं है।
मैं
जो कह रहा हूं,
अगर तुमने उन्हें भाव से सुना तो गीत हैं, नहीं
तो उनमें बड़ी चोटें हैं, क्योंकि मैं परंपरा के विपरीत बोल
रहा हूं। मैं थोथे पांडित्तय के विपरीत बोल रहा हूं।
चंदूलाल
एक तोता खरीदने गए थे। बड़े फंस गए। इतना महंगा तोता पड़ेगा, ऐसा नहीं
सोचा था। लेकिन नीलामी हो रही थी और बोली बढ़ती ही गई। तीन सौ रुपये पर बोली खत्तम
हुई। छाती बैठ गई चंदूलाल की। तीन सौ रुपये देने ही पड़े। देते समय नीलाम करने वाले
से पूछा कि भई, एक बात तो और पूछ लूं, तीन
सौ रुपये तो ठुंक ही गए, अब जो हुआ सो हुआ, जोश-खरोश में बोल गया बोली, क्योंकि बोली बढ़ती गई,
मैं ऐसा कुछ हार जाने वाला नहीं, चाहे जान चली
जाए। मगर यह तोता बोलता करता है कि नहीं?
उसने
कहा: अरे आप भी क्या बातें कर रहा हो! बोली आपके खिलाफ कौन बोल रहा था? यही तोता!
आप कहो पच्चीस, यह कहे तीस। आप कहो पैंतीस, यह कहे चालीस। वह तो यह कहो कि इसको बस तीन सौ तक गिनती आती है, नहीं तो आज तुम्हारी फांसी लग जाती। इससे आगे इसको गिनती नहीं आती। अब तुम
सिखा लेना।
मैं
पंडितों को तोतों से ज्यादा नहीं समझता। उनको उतना ही आता है, जितना
किताब में लिखा हुआ है। और किताब में क्या खाक लिखा हुआ है! किताब में उतना ही
लिखा हुआ है, जितना बुद्धि पकड़ सकती है। और बुद्धि क्या पकड़
सकती है? जो असली है, वह तो छूट ही
जाता है।
परंपरा
के मैं विपरीत हूं,
शास्त्रों के मैं विपरीत हूं, संस्कारों के
मैं विपरीत हूं, तुम्हारी सामाजिक अंध-रूढ़ियों के मैं विपरीत
हूं। लोग नाराज न हों तो क्या हों? और जब नाराज हों तो उनसे
गालियां निकलें, स्वभावतः। मुझे वे पचा नहीं पाते। मुझे
पचाने के लिए भी थोड़ा उदार हृदय चाहिए, जरा छाती चाहिए।
पागलखाने
गए थे चंदूलाल--देखने। जैसे ही चंदूलाल को पागलों ने देखा, एक पागल
ने कहा: आइए! आइए! कहिए कैसा लगा यहां आपको?
चंदूलाल
ने कहा: बस कुछ न पूछिए,
मुझे देख कर आप सभी पागल इतने प्रसन्न हैं कि क्या कहूं! ऐसा मेरा
स्वागत जीवन में कभी कहीं हुआ ही नहीं। और बात बड़ी बेबूझ लगती है, क्योंकि मैंने तो सुना था कि यहां जो भी पागलों को देखने आता है, पागल उस काटने दौड़ते हैं।
वे
पागल हंसने लगे। चंदूलाल ने कहा कि समझाओ, क्या बात है? हंसते क्यों हो?
तो
एक पागल ने कहा कि भई,
बात यह है कि हम प्रसन्न क्यों न हों! आखिर हम ही जैसे, अपने ही जैसे आदमी कभी-कभी देखने को मिलते हैं। आपको देख कर आत्तमा को जो
शांति मिली, आपको देखते से ही हम पहचान गए कि है अपनी जाति
का, अपने वाला।
बहुत
कम लोग मेरी बात को पचा पाएंगे। मैं किसी की भी जाति का नहीं हूं--न हिंदू की, न मुसलमान
की, न जैन की, न ईसाई की, न बौद्ध की, न सिक्ख की, न
पारसी की--मैं किसी की जाति का नहीं हूं। ये सब जातियां पागलों की हैं। मैं किसी
तरह के पागलपन का सहयोगी नहीं हूं। मैं सब तरह के पागलपन के विरोध में हूं। इससे
अड़चन है।
फिर
मैं जो कह रहा हूं,
वह जो लोग ध्यान कर रहे हैं, केवल वे ही समझ
सकते हैं। क्योंकि यह बात सिर्फ ध्यान की भाषा में निशणात लोगों को ही समझ में आ
सकती है। मेरे गीत ध्यान के गीत हैं, ध्यान के फूल हैं। तुम
भी ध्यान में उतरोगे, नाचोगे, गाओगे,
तुम भी मस्त होओगे ध्यान में--तो ही मेरी बात तुम्हें तत्तक्षण समझ
में आ जाएगी, नहीं तो जमीन-आसमान का फासला रहेगा।
चंदूलाल
ने एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन से कहा: बड़े मियां, आपने जो नई भाषा सीखी, उसका कोई गीत सुनाइए।
आप
तो जानते ही हैं--नसरुद्दीन बोला--मुझे गाना-वाना नहीं आता। फिर भी आप मजबूर करते
हैं तो सुना देता हूं।
गीत
खत्तम होने पर चंदूलाल ने प्रशंसा की, और लोगों ने भी बड़ी प्रशंसा की।
लेकिन चंदूलाल आसानी से छोड़ने वाले नहीं थे। बड़ी जिज्ञासा से उन्होंने पूछा: बड़े
मियां, गीत का अर्थ बताएंगे क्या?
नसरुद्दीन
ने कहा: अर्थ आप न पूछें तो अच्छा।
नहीं-नहीं, इस करुण
गीत के अर्थों से हमें वंचित न रखिए। हमारी तो आंखों में आंसू आ गए। ऐसी हार्दिकता
से, ऐसे भाव से आपने गाया कि हमारे तो हृदय में हिंडोलें उठ
गईं। इस करुण गीत का अर्थ तो आप बताओ ही। बिना ही अर्थ समझे हम पर इतना प्रभाव हुआ
है! अर्थ समझ जाएं तो इस गीत की आत्तमा भी हमारी समझ में आ जाए।
नसरुद्दीन
ने कहा: फिर भी मैं कहता हूं भाई साहब, न पूछिए अर्थ तो अच्छा।
नहीं
माने चंदूलाल,
और भी लोग जिद पकड़ गए। तो नसरुद्दीन ने कहा: जैसी फिर आपकी मर्जी।
तो फिर सुनिए। मैंने चीनी भाषा में एक से लेकर सौ तक गिनती पढ़ी थी।
मैं
जो भाषा बोल रहा हूं,
वह ध्यान की भाषा है। जब तक तुम्हें भी ध्यान की थोड़ी सी अनुभूति न
हो, तब तक बहुत असंभव है कि तुम्हारा मेरे साथ तालमेल बैठ
सके। तुम मेरे साथ असुविधा अनुभव करोगे, बेचैनी अनुभव करोगे,
अशांति अनुभव करोगे। मेरी भाषा शिशयों के लिए है, विद्यार्थियों के लिए नहीं। संन्यासियों के लिए है, पृथक
जनों के लिए नहीं, सामान्य के लिए नहीं। और वह बड़ी मुश्किल
बात है।
लोग
कहते हैं: हम आपकी बात समझ लें तो फिर संन्यास लें। हम आपकी बात समझ लें तो ध्यान
भी करें। जब तक समझ में न आए, हम कैसे ध्यान करें और कैसे संन्यास लें?
और वे भी ठीक ही कहते हैं। तर्क दुरुस्त है। बात पते की है। और मेरी
मुश्किल भी समझो। मैं कहता हूं: मेरी बात समझ में ही तब आए जब तुम ध्यान करो। मेरी
बात गले ही तब उतरे जब तुम संन्यस्त हो जाओ।
मेरी
भी मजबूरी है,
उनकी भी मजबूरी है। उनका कहना ऐसा ही है, जैसे
कोई कहे कि जब तक मैं तैरना न सीख लूं, तब तक पानी में न
उतरूंगा। तैरना सिखाने वाला कहेगा: पानी में तो उतरना ही होगा। तैरना सीखने के लिए
भी पानी में उतरना ही होगा। उथले में सही, आज कोई तुम्हें
सागर में नहीं ले जात हूं, उथले में उतरो। आहिस्ता-आहिस्ता
उतरो, किनारे-किनारे रहो, रस्सी बांध
कर उतरो, तुंबियां बांध लो, मगर उतरो
तो! और फिर मैं हूं, डूबने लगोगे तो बचाऊंगा। घाट के पास ही
रहो, चिल्ला सको, भीड़-भाड़ है, कोई न कोई बचा लेगा। बहुत दूर न जाओ। मगर उतरना तो पड़ेगा ही।
लेकिन
तुम कहो कि नहीं,
मैं जब तक तैरना न सीख लूं, मैं पानी में
उतरने वाला नहीं।
मुल्ला
नसरुद्दीन सीखने गया था तैरना। संयोग की बात...और अक्सर ऐसा हो जाता है सिक्खड़ों
के लिए। सिक्खड़ों को बड़ी दिक्कतें आती हैं। साइकिल सीखी चलानी कभी? गिरोगे।
और बड़ी हैरानी होती है कि दूसरे लोग चले जा रहे हैं बैठे हुए--औरतें, बच्चे, बूढ़े। दो चकों पर चले जा रहे हैं, चमत्तकार कर रहे हैं बिलकुल। न कोई गिरता, न कुछ।
मजे से गपशप करते हुए, गाना गाते हुए, फिल्मी
धुन...और क्या मजे से चले जा रहे हैं! न कोई रास्ते का नियम मानते कि बाएं चलें,
कि दाएं चलें, कि बीच में चलें। साइकिल वाले
तो कोई नियम मानते ही नहीं। वे तो कहीं से भी निकल जाएं।
मगर
तुम जब चलाना सीखोगे तब पता चलेगा। गिरोगे। हड्डी-पसली टूटेगी। कम से कम घुटने तो
छिलेंगे ही, कपड़े तो फटेंगे ही। और तुम बड़े हैरान होओगे कि बात क्या है, लोग क्यों सधे चले जा हरे हैं? और एक दिन तुम भी सध
जाओगे। एक-दो-चार दफे गिरोगे। मगर शुरू-शुरू में गिरना जैसे जरूरी है, आवश्यक है। आदमी इसलिए नहीं गिरता कि साइकिल चलाना कोई कठिन कला है। आदमी
इसलिए गिरता है कि जो चलाना नहीं जानता वह घबड़ाया हुआ होता है। घबड़ाहट से गिरता है,
साइकिल चलाने से कोई गिरता है? साइकिल चलाने
में कोई राज नहीं है बड़ा। अगर बिना घबड़ाए तुम बैठ जाओ और चल पड़ो एकदम...मैंने ऐसे
ही साइकिल चलाई। जो मित्र मुझे सिखाने आए थे उन्होंने कहा कि मैं पकडूं? मैंने कहा कि नहीं। गिरना होगा तो भी मैं जिम्मेवारी अपनी ही रखूंगा। जब
इतने लोग चले जा रहे हैं तो मैं भी बैठ कर चला ही जाऊंगा।
उन्होंने
कहा: क्या कह रहे हो! बैठोगे तो बहुत बुरी तरह गिरोगे।
मैंने
कहा: अगर गिरे भी तो कम से कम यह तो सांत्तवना रहेगी कि अपना ही चुनाव था, अपने ही
हाथ से गिरे। तुम पर तो कोई कसूर न आएगा।
और
वे बड़े चौंके,
क्योंकि मैं बैठा सो बैठा ही। उतरते वक्त मुझे जरूर थोड़ी दिक्कत हुई,
सो एक झाड़ से मुझे साइकिल टकरानी पड़ी। क्योंकि मेरे गांव में जो
साइकिल मिलती थीं चलाने के लिए, उनमें न ब्रेक, कुछ ठिकाना नहीं, न मडगार्ड, न
चेन के ऊपर कोई कवर। सीखे-सिखाओं के लिए भी बड़ी मुश्किल की चीजें थीं वे, तो नये सिक्खड़ों के लिए तो कहना ही क्या! जो सज्जन मुझे सिखाने गए थे वे
तो बिलकुल सिर ठोंक कर रह गए। उन्होंने कहा: गजब कर दिया तुमने!
मैंने
कहा: गजब की क्या बात?
जब मैं इतने लोगों को चलते हुए देखता हूं तो मैंने सोचा कि हिम्मत
करके...गिरेंगे ही न बहुत से बहुत, और क्या होगा? तो धीरे मैंने नहीं चलाई।
उन्होंने
कहा: वही मैं देख रहा हूं कि तुम इतनी तेजी से गए, जैसे जन्मों-जन्मों से
साइकिल आती हो!
मैंने
कहा: एक बात मेरी समझ में आ गई लोगों को चलाते देख कर।
वही
मैंने तैरने के मामले में किया। मेरे गांव में एक प्यारे आदमी हैं। उनका काम ही है
सारे गांव के लोगों को तैरना सिखाना। नदी से उनको प्रेम है। शायद ही गांव में कोई
ऐसा आदमी हो जिसको उन्होंने तैरना नहीं सिखाया हो। जब मेरा भी वक्त आया उनसे तैरना
सीखने का, मैं रहा होऊंगा मुश्किल से कोई सात-आठ साल का, जब घर
के लोगों ने आज्ञा दे दी कि अब तैरना सीख सकते हो, तो मैं
उनसे पास गया। उन्होंने कहा कि ठीक है। मैंने उनसे पूछा कि कोई खतरा है अगर में
खुद ही तैरना सीखूं?
उन्होंने
कहा: खतरा तो है ही,
डुबकी खा जाओ!
मैंने
कहा: वह तो आप भी सिखाएं तो भी खा सकता हूं। थोड़ी डुबकी तो खानी ही पड़ती है।
तो
मैंने कहा: ज्यादा से ज्यादा जान सा सकती है न?
उन्होंने
कहा: अगर इतने तक के लिए राजी हो तो तुम्हारी मर्जी।
मैंने
कहा: आप तो सिर्फ किनारे पर बैठ कर देखें। मुझे जाने दें। जब इतने लोग चले जा रहे
हैं और कुछ खास दिक्कत नहीं मालूम हो रही, और मछलियां तक चल रही हैं जिनको
कोई तैरना सिखाने वाला नहीं है, तो मैं तो आदमी हूं! सात साल
का ही सही, मगर आदमी हूं। ये मछलियां तो सात साल की भी नहीं
हैं।
मैं
तो उतर ही पड़ा। थोड़ी झंझट हुई। मुंह में पानी चला गया, नाक में
पानी भर गया, बहुत बेतहाशा मुझे हाथ मारने पड़े। लगा कि अब
डूबा, तब डूबा। उन्होंने कहा भी कि बचाने आऊं? मैंने कहा: रुको। आखिरी दम तक मुझे कोशिश कर लेने दो। कोई जरूरत न पड़ी
उनके आने की। मैं खुद ही आ गया किनारे। और एक दफा मैं किनारे आ गया, तो फिर अड़चन खत्तम हो गई। उन्होंने कहा कि तुम्हें सिखाने की कोई जरूरत
नहीं। असल में सिखाने की जरूरत इसलिए पड़ती है कि लोग डरते हैं।
यह
मुल्ला नसरुद्दीन सीखने गया तो डरा हुआ होगा, सो पैर फिसल गया सीढ़ी पर ही। काई
जमी होगी। भड़ाम से गिरा और उठ कर एकदम घर की तरफ भागा। उस्ताद ने, जो सिखाने ले गए थे, कहा कि कहां जा रहे हो?
मुल्ला
ने कहा कि अब तो सीख लें तैरना, तब आएंगे।
मगर
तैरना कहां सीखोगे?
उस्ताद ने पूछा।
उसने
कहा: अपने कमरे में ही गद्दी बिछा कर। उसी पर हाथ-पैर पटकेंगे। जब तैरना सीख लेंगे, तब आ
जाएंगे।
अब
गद्दियों पर कोई हाथ-पैर पटक कर तैरना सीख सकता है? कितना ही हाथ-पैर पटके,
अगर थोड़ा-बहुत आता हो तो वह भी भूल जाएगा।
ध्यान
भी बस ऐसा ही है कि तुम करोगे तो जानोगे। कुछ बातें हैं जो करके ही जानी जाती हैं, और कोई
उपाय ही नहीं है। हां, नहीं कहता कि तुम एकदम से समाधि में
चले जाओ। इसलिए तो ध्यान के सरलतम प्रयोग खोजे हैं तुम्हारे लिए। आहिस्ता-आहिस्ता
चलो। एक-एक कदम उठाओ। धीरे-धीरे भय छूट जाएगा। बस भय ही छूटने की बात है। अपने ही
भीतर जाना है, भय क्या? तुम तो वहां हो
ही। नाहक भयभीत हो, इसलिए बाहर-बाहर घूम रहे हो। अपने से ही
भयभीत बाहर-बाहर घूम रहे हो।
लेकिन
आदमी यह भी मानने को राजी नहीं होना चाहता कि मैं अपने से भयभीत हूं। और सीखने में
लोग थोड़ी सी कठिनाई अनुभव करते हैं, उनके अहंकार को चोट लगती है। तो वे
चाहते हैं कि ऐसे ही किताब से सीख लें। न मालूम कितने लोग ध्यान करते हैं किताबों
से पढ़ कर! न मालूम कितने लोग आसन इत्तयादि सीखते हैं इस आशा में कि फिर ध्यान
करेंगे। आसन वगैरह से ध्यान का कोई लेना-देना नहीं है। ये सब बाह्य औपचारिकताएं
हैं। ध्यान का संबंध तो भीतर साक्षी होने से है।
तुम
भीतर साक्षी-भाव को जगाने लगो तो मेरी बातें तुम्हें समझ में आएं, मेरे गीत
तुम्हें समझ में आएं। और मेरे गीत तुम सुनो तो तुम्हारे भीतर से भी मेरे प्रति गीत
उठें। उठ रहे हैं! मेरे संन्यासियों के भीतर से गीत उठ रहे हैं। रोज-रोज उठ रहे
हैं। लेकिन जो नहीं हैं मेरे निकट, जो कभी यहां आए भी नहीं
हैं, जिन्होंने कभी मुझे जाना नहीं, समझा
नहीं, पहचाना नहीं--उनके भीतर से गालियां न उठें तो और क्या
हो?
एक
गांव में यह घटना घटी। गांव के लोहार ने अपने नये शिशय को समझाया: देखो, यह गरम
लोहा है। यह धौंकनी है। और यह रहा हथौड़ा। जैसे ही मैं सिर हिलाऊं, निशाना साध कर हथौड़ा पूरी तेजी से चलाना! समझे?
आज्ञाकारी
शिशय ने सब कुछ ध्यान से सुना और लोहार ने जैसे ही सिर हिलाया, हथौड़ा
उसके सिर पर चला दिया। अब शिशय गांव का नया लोहार है। कहां हथौड़ा चलाना था,
कहां हथौड़ा चला दिया!
मेरी
बातें लोग समझ नहीं रहे हैं। मैं कुछ कह रहा हूं, वे कुछ समझ रहे हैं। कुछ का
कुछ समझ रहे हैं!
एक
मिश्री ममी को मुल्ला नसरुद्दीन और चंदूलाल बड़े आश्चर्य से देख रहे थे। अजायबघर
में रखी थी बड़ी सुंदर पेटी में सजी हुई लाश। पेटी के ऊपर लिखा था, तषती लगी
थी: बी. सी. ग्यारह सौ सत्तयासी। चंदूलाल ने काफी सिर खुजलाया, काफी सोचा और कहा कि यह शायद उस मकान का नंबर है, जिसमें
यह व्यक्ति रहता रहा।
मुल्ला
ने कहा: अरे चंदूलाल,
अरे उल्लू के पट्ठे! उस जमाने में कहीं मकानों के नंबर हुआ करते थे?
न म्युनिसपिल कमेटी होती थी, न मकान के नंबर
होते थे। मैं तो समझाता हूं यह उस मोटर का नंबर है जिसके नीचे आकर इस बेचारे ने
अपनी जान गंवाई।
लोगों
का कोई कसूर नहीं है। लोग मेरी बातों का अनुमान लगा रहे हैं कि मैं क्या कह रहा
हूं। और अनुमान में उनकी अपनी धारणाएं समाविशट हो जाती हैं। अनुमान वे अपने ही
अनुसार लगाते हैं। इसलिए उनके मन से गालियां उठती हैं। उनको लगता है मैं नशट कर
रहा हूं उनके धर्म को;
जब कि मैं संभवतः धर्म को बचाने का एकमात्र उपाय कर रहा हूं। नशट तो
उन्होंने कर दिया है। नशट करने का काम तो वे कर चुके हैं। मगर उसको वे धर्म समझ
रहे हैं।
मैं
एक नई तरह की धार्मिकता को जगत में लाना चाहता हूं, जिसको पंडित और पुजारी नशट
न कर सकें। धर्मों को तो नशट कर दिया, अब धार्मिकता चाहिए।
मेरी इसकी चिंता नहीं है कि तुम ईसाई बनो, हिंदू बनो,
बौद्ध बनो। उनकी यही चिंता है। मेरी चिंता यही है कि तुम धार्मिक
बनो। और धार्मिक होना बड़ी और बात है। क्या लेना है ईसाई से? और
क्या लेना है बौद्ध से? धार्मिक व्यक्ति ध्यान सीखेगा,
प्रार्थना में डूबेगा, इस जगत के सौंदर्य में
नहाएगा, इस जगत के संगीत को अनुभव करेगा, इस जगत में जगह-जगह खोजेगा--और पाएगा अदृश्य परमात्तमा की उपस्थिति और
अपने भीतर अनुग्रह का भाव!
चौथा प्रश्न: आप संन्यास में दीक्षित हो रहे व्यक्तियों को बस
एक नजर देख कर उनका नाम कैसे चुन लेते हैं?
श्रद्धानंद! एक पुराना हिप्पी नाई से बाल कटवा रहा था। नाई ने
पूछा: क्या आप किसी समय नौसेना में थे?
हिप्पी
ने आश्चर्य से पूछा: तुमने कैसे जाना? क्या तुम भी...!
नहीं
साहब, नाई ने कहा, अभी-अभी मुझे आपके बालों के बीच यह टोपी
मिली।
कुछ
ज्यादा खोज-बीन थोड़े ही करनी पड़ती है। अब जैसे श्रद्धानंद तुम्हारी तरफ देखा--न
श्रद्धा, न आनंद--मैंने कहा कि ठीक, श्रद्धानंद! दो चीजों की
तुम्हें जरूरत है: श्रद्धा की और आनंद की। यह प्रिस्क्रिप्शन है भैया। यह तुम्हारा
नाम नहीं। यह तुम्हारे लिए दवाई का नुस्खा है कि ये दो चीजें तुम्हें चाहिए।
तुम्हारे चेहरे पर दिखा संदेह, तुम्हारी शक्ल मातमी, कि अब रोए, तब रोए, कि अब रोते
ही हो, सो मैंने जल्दी से कहा: श्रद्धानंद! भैया रोना मत! अब
जो हुआ, हुआ।
श्रद्धानंद
सुन कर तुम जरा प्रसन्न हुए थे, तुम्हें धीरज आया था, ढाढस
बंधा था। आनंद शब्द ने ही तुम्हें प्रफुल्लित कर दिया था, कि
अरे, मैं भी और आनंद! वाह!
अभी
होना है, अभी हो नहीं। और नाम इसलिए दे दिया कि जब भी तुम्हें देखूंगा और तुम्हारा
नाम, तो खयाल रखूंगा कि अभी हुआ मामला कि नहीं? जिस दिन हो जाएगा, उस दिन भी मैं समझ लूंगा कि बस अब
बात हो गई।
छठवां प्रश्न: आपका मंत्र-शक्ति के संबंध में क्या कहना है?
गीता! मंत्रों इत्तयादि में कोई शक्ति नहीं होती। शक्ति
तो तुम्हारी श्रद्धा में होती है। श्रद्धा तुम्हारी कुरान पर है तो कुरान में
शक्ति आ जाएगी। और श्रद्धा तुम्हारी गीता पर है तो गीता में शक्ति आ जाएगी।
श्रद्धा गायत्री पर तो गायत्री में और श्रद्धा नमोकार पर तो नमोकार में। मगर ध्यान
रखना, शक्ति है श्रद्धा में। न तो नमोकार में कोई शक्ति है। किसी हिंदू को तो
कहो कि दोहराओ नमोकार! वह दोहरा देगा, उसे कुछ अनुभव नहीं
होगा। मगर जैन जब दोहराता है तो गदगद हो जाता है। यह नमोकार नहीं है जो गदगद कर
रहा है, नहीं तो सारी दुनिया को गदगद कर देता। यह उसका भाव
है।
नास्तिक
को कहो कि गायत्री में बड़ी शक्ति है और तुम गायत्री उसके सामने कहो, कुछ असर न
होगा। तुम बजाते रहो बीन, भैंस पड़ी पगुराय!
गायत्री
में कोई शक्ति नहीं है। शब्दों में कहीं शक्ति हो सकती है? शक्ति
होती है तुम्हारे भाव में। तुम जहां अपना भाव उड़ेल देते हो, बस
वहीं शक्ति पैदा हो जाती है। मंत्रों में उड़ेल दोगे, मंत्रों
में पैदा हो जाएगी।
प्रसिद्ध
आंग्ल कवि टेनिसन ने लिखा है कि बचपन से ही उसे न मालूम किस आकस्मिक रूप से यह बात
पता चल गई। जब भी उसको नींद नहीं आती थी तो वह पड़ा-पड़ा करे क्या! छोटा बच्चा, नींद न
आए। और अंग्रेज तो अपने बच्चों को भी अलग सुलाते हैं, अलग
कमरे में सुलाते हैं। सो अंधेरा हो जाए कमरे में, मां बत्ती
बुझा कर चली जाए। और अकेले में डर भी लगे और कुछ सूझे भी नहीं। क्या करे क्या न
करे! तो अपना नाम ही दोहराए--टेनिसन, टेनिसन, टेनिसन। इससे थोड़ी हिम्मत आए, थोड़ी गर्मी आए। जैसे
कोई और भी है, जो टेनिसन-टेनिसन कह कर पुकार रहा है।
धीरे-धीरे उसे एक बात अनुभव में आई कि पंद्रह मिनट तक टेनिसन-टेनिसन कहते हुए बड़ी
गहरी नींद आ जाती है। उसे तो आविशकार हो गया। ट्रांसेनडेंटल मेडिटेशन! महर्षि महेश
योगी को बहुत बाद में पता चला, यह तो महर्षि टेनिसन पहले ही
खोज गया। अपना ही नाम! फिर तो धीरे-धीरे उसका अभ्यास इतना गहन हो गया कि दस-पंद्रह
मिनट की भी जरूरत न रहे, बस तीन दफा कहे--टेनिसन, टेनिसन, टेनिसन--और गहरी निद्रा में खो जाए। फिर तो
उसे यह भी राज हाथ लग गया कि बस में बैठा है या ट्रेन में सफर कर रहा है, कोई काम नहीं है, तो वह बैठा-बैठा टेनिसन का पाठ
करे। उसका पाठ करते ही चित्त शांत होने लगे। जैसे जागे-जागे सो जाए! आंख खुली रहे
और भीतर सन्नाटा हो जाए। यह टेनिसन शब्द में हो गया।
अब
टेनिसन शब्द कोई न तो संस्कृत भाषा का है, न अरबी का, न
किसी भगवान का नाम है। विशणु सहस्र नाम में यह नाम ही नहीं है टेनिसन। हजार नाम
हैं भगवान के, मगर टेनिसन नहीं है उसमें। अब देखते हो कितनी
कमी रह गई! नये संस्करण में एक हजार एक कर देना चाहिए। टेनिसन तो जोड़ ही देना
चाहिए। क्योंकि इसने जिंदगी भर इसका उपयोग किया। यह इसके लिए मंत्र बन गया।
मंत्र
शब्द को समझो। मंत्र का अर्थ होता है: जो मन को रुझा ले। मंत्र का अर्थ होता है:
जो मन को भा जाए,
जो मन को रंग ले, जो मन के लिए सूत्र बन जाए।
तो कोई भी चीज मंत्र हो सकती है। इसलिए मां अपने छोटे बच्चे को सुलाने के लिए लोरी
गाती है; वह भी मंत्र है। वह छोटे बच्चे को मंत्र की तरह काम
करता है। राजा बेटा सो जा! राजा बेटा सो जा! राजा बेटा सो जा! कोई ज्यादा बड़ा
मंत्र नहीं है, छोटा सा मंत्र है। गायत्री शायद पढ़ो तो राजा
बेटा न भी सोए, उठ कर बैठ जाए, कि यह
क्या कर रही है तू? उसकी समझ में न आए। नमोकार पढ़ो तो
उलटे-सीधे प्रश्न पूछने लगे कि इसका क्या अर्थ? उसका क्या
अर्थ? पाली, प्राकृत, संस्कृत, अरबी तुम बच्चे को पढ़ोगे तो बैठ जाएगा एकदम
उठ कर और हजार तरह के प्रश्न खड़े करने लगेगा। लेकिन राजा बेटा सो जा वह भी समझता
है। राजा बेटा का भी मतलब समझता है और सो जाने का मतलब भी समझता है। और सो जा शब्द
में, अगर इसे बार-बार दोहराया जाए--सो जा, सो जा, सो जा--तो नींद अपने आप आनी शुरू हो जाए। इस
शब्द में भी थोड़ा नींद का नशा है। यही मंत्र हो गया।
मंत्र
में कोई शक्ति नहीं होती। किसी मंत्र में कोई शक्ति नहीं होती। इसलिए तो एक धर्म
का मंत्र दूसरे धर्म के काम नहीं पड़ता। इसलिए तो एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के
मंत्रों पर हंसते हैं,
कि यह सब मूर्खतापूर्ण है। मगर अपने धर्म के मंत्र पर उनको बड़ी
श्रद्धा होती है। मतलब भी पता न हो, तब भी श्रद्धा होती है।
तुम्हें जो समझ में आ जाए, उससे तुम प्रभावित होओ, तब भी समझ में ही आ सकता है। लेकिन जो तुम्हें समझ में नहीं आता, उससे तुम क्या प्रभावित होते होओगे!
लेकिन
करीब-करीब दुनिया के पुरोहितों ने यह व्यवस्था कर रखी है कि पुरानी मुर्दा भाषाओं
को मरने नहीं देते। कम से कम मंदिरों में जिलाए रखते हैं। पुरानी मुर्दा भाषाओं की
एक खूबी है: तुम्हारी समझ में आती नहीं, तुम सोचते हो कि गजब की चीजें
होंगी!
तुम
कभी वेद को उठा कर देखो,
बड़े हैरान होओगे। निन्यानबे प्रतिशत कूड़ा-कर्कट--जो होना ही नहीं
चाहिए वेदों में, जिसको वेद कहना एकदम व्यर्थ की बात है! मगर
कौन पढ़ता है? किसको देखना है? बाइबिल
को उठा कर देखो, कचरा ही कचरा! जिसकी कोई जरूरत नहीं है। मगर
कौन ईसाई पढ़ता है बाइबिल को?
एक
डिक्शनरी बेचने वाला एक दरवाजे पर खड़ा था और कह रहा था कि नई डिक्शनरी निकली है और
हर बच्चे के काम की है। डिक्शनरी पर नीले रंग का पुट्ठा था। महिला टालना चाहती थी
इसको। उसने दूर रखी टेबल पर कहा कि देखो, हमारे पास तो यह डिक्शनरी है ही।
नीले रंग की, उतनी ही मोटी पुस्तक रखी थी।
वह
विक्रेता मुस्कुराया और उसने कहा कि देवी जी, आप किसी और को बुद्धू बनाना! वह
डिक्शनरी नहीं है, वह बाइबिल है।
इतने
दूर से उसने कैसे पहचाना?
उस महिला ने कहा: गजब कर दिया तुमने! इतने दूर से तुमने पहचाना कैसे
कि वह बाइबिल है?
उसने
कहा: जमी हुई धूल बता रही है कि कभी कोई उलटता भी नहीं, कभी कोई
छूता भी नहीं, सफाई भी कोई नहीं करता। डिक्शनरी को तो आदमी
उलटता है रोज, देखना पड़ता है आज इस शब्द का अर्थ, कल उस शब्द का अर्थ। इतनी धूल नहीं जम सकती। किसी और को आप बुद्धू बनाना।
और
वह बाइबिल ही थी। शास्त्रों पर तो धूल जम रही है। मगर वे ऐसी भाषाओं में लिखे हैं
कि पूजा के योग्य हैं। फूल चढ़ा दिए, चंदन लगा दिया, सिर झुका लिया, झंझट मिटाई। काश तुम्हें उनके अर्थ
समझ में आ जाएं तो शायद तुम सिर भी झुकाने में संकोच करो, कि
मैं किसको सिर झुका रहा हूं! क्या प्रयोजन है? क्या अर्थ है?
जो
तुम्हारे अर्थ समझ में आते हों और उनसे भाव पैदा होता हो, तो
निश्चित ही शक्ति आ जाती है मंत्र में। लेकिन वह शक्ति तुम्हीं डालते हो, तुम्हीं उसके डालने वाले हो। और यह अगर तुम्हारी समझ में आ जाए तो डालने
की जरूरत क्या है मंत्र में? वह शक्ति तो तुम्हारी ही है।
तुम उस शक्ति को बिना मंत्र के भी उपयोग में ला सकते हो--और वही ध्यान है। बिना
मंत्र के अपनी शक्तियों के प्रति सजग हो जाना ध्यान है।
मंत्र
तो बहाना है। जैसे कि कोई आईने में अपने चेहरे को देखे। आईने में थोड़े ही चेहरा
होता है। चेहरा तो तुम्हारे पास है। आईने में तो केवल तस्वीर होती है। और आईना अगर
इरछा-तिरछा होगा,
तस्वीर इरछी-तिरछी होगी। तुमने कई तरह के आईने देखे होंगे। किसी
आईने में बड़े दिखाई पड़ोगे, किसी आईने में पतले दिखाई पड़ोगे,
किसी में मोटे दिखाई पड़ोगे। किसी आईने में बिलकुल सींकिया पहलवान।
किसी आईने में भारी-भरकम। किसी आईने में बड़े कुरूप, कि खुद
को देख कर हंसी आ जाए। किसी आईने में बड़े सुंदर। ये आईने हैं, यह तुम नहीं हो।
मंत्र
तो आईने हैं,
तुम नहीं हो।
पहले
कभी शब्द-ध्वनि का प्रभाव हुआ करता था। इस युग में मंत्रों और शब्दों का कोई
प्रभाव नहीं होता। चंदूलाल ने एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन से कहा।
यदि
मैं कोई शब्द बोलूं और उस शब्द के प्रभाव से आप उठ कर खड़े हो जाएं, जोश आ जाए,
तब तो आप शब्दों का प्रभाव मानोगे? मुल्ला ने
पूछा।
फिर
तो शब्दों का प्रभाव मानना पड़ेगा। चंदूलाल ने स्वीकृति दी।
जो
शब्द-ध्वनि का प्रभाव नहीं समझते, वे बेअकल होते हैं, निरे
गधे! नसरुद्दीन बोला।
गाली
मत देना, नहीं तो देख लूंगा। चंदूलाल ने खड़े होते हुए कहा।
मुल्ला
ने कहा: देखा शब्द-शक्ति का प्रभाव! खड़े हो गए बैठे से। और मैंने कुल इतना ही कहा
है--निरे गधे!
समझ
में आए तो निरे गधे कोई कह दे तो बैठे होओगे तो खड़े हो जाओगे। इसको क्या तुम समझते
हो कि शब्द-शक्ति का प्रभाव है? अगर तुम्हें भाषा हिंदी न आती हो और कोई तुमसे
गधा कह दे, तो तुम बिलकुल परेशान न होओगे। तुम मुस्कुराते ही
रहोगे। तुम्हें पता ही नहीं चलेगा कि कोई अड़चन की बात हो रही है। कोई दूसरी भाषा
में तुम्हें गाली देता रहे...।
मेरी
इटैलियन संन्यासी है--काव्या। दो साल यहां थी। अब काव्या तो हमारी भाषा में
सुंदरतम शब्दों में एक है--कविता। कविता का शास्त्र। जब मैंने उसे काव्या नाम दिया
था, तब भी मैंने थोड़ी सी झिझक उसके चेहरे पर देखी थी। मगर मैं भी कुछ बोला
नहीं, वह भी कुछ बोली नहीं। बात आई-गई हो गई। दो साल यह यहां
थी, उसने कभी कुछ कहा नहीं। अभी इटली गई। वहां भी छह महीने
से है, छह महीने बाद अभी पत्र उसका चार दिन पहले आया। लिखा:
अब कहना ही पड़ेगा। पहले ही दिन कहना चाहती थी, लेकिन आपने
इतने प्रेम से नाम दिया, सो मैंने कुछ कहा नहीं। फिर मैंने
सोचा कि यहां किसको पता है! लेकिन जब से इटली में आई हूं तो बड़ी मुसीबत खड़ी हो गई,
जिसको भी मैं नाम बताती हूं वही हंस देता है एकदम से।
इटैलियन
भाषा में काव्या का अर्थ होता है--सुअर का बच्चा। तो उसने मुझे लिखा: मैं घर से
नहीं निकलती,
क्योंकि किसी ने पूछा कि तेरा नाम क्या है तो मैं अपना पुराना नाम
बताना नहीं चाहती; क्योंकि वह तो बात खत्तम हो गई, मेरा नया नाम तो काव्या है। और मैं किसी को अपना नया नाम बताऊं कि बस फौरन
लोग हंसने लगते हैं। वे कहते हैं, हद हो गई! अरे मूरख तो
तूने कहा क्यों नहीं? तो अब मैं हिम्मत जुटा रही हूं ढाई साल
के बाद कि कृपा करके मेरा नाम बदल दो।
यहां
तो हम सोच भी नहीं सकते थे: काव्या, सुअर का बच्चा, इनका कोई संबंध हो सकता। अगर मुझे जरा भी अंदाज होता तो मैंने कभी भूल कर
उसे यह नाम नहीं दिया होता।
समझ
में आ जाए तो तुम प्रभावित होते हो, नहीं समझ में आए तो तुम कैसे
प्रभावित होओगे? तुम्हारा प्रभाव तुम्हारे ही भीतर से आता
है। तुम शक्ति डालते हो।
मंत्रों
इत्तयादि में कोई शक्ति नहीं होती। शब्दों में कोई शक्ति नहीं होती। दुनिया में
कोई तीन हजार भाषाएं हैं,
शब्दों में क्या शक्ति होगी? गुलाब के फूल के
लिए तीन हजार नाम हैं दुनिया में। और गुलाब का फूल तो गुलाब का फूल है--चाहे इस
नाम से पुकारो, चाहे उस नाम से पुकारो। और परमात्तमा के
हजारों नाम हैं, चाहे इस नाम से पुकारो, चाहे उस नाम से पुकारो। कुछ फर्क नहीं पड़ता। लेकिन जिस नाम को तुम परमात्तमा
का नाम मान लेते हो, उसमें अर्थ आ जाता है, उसमें गहराई आ जाती है। वह गहराई तुम्हारी है, वह
अर्थ तुम्हारा है।
सदा
ध्यान रखो, श्रद्धा में शक्ति है। वह शक्ति तुम्हारी है। अपनी तुम शक्ति के अजस्र
स्रोत हो। शक्ति का स्मरण करो!
आखिरी प्रश्न: आप मरे हुओं को इतना क्यों मारते हैं? आप क्या
मोरारजी भाई, जग्गू भैया और चरणसिंह में फिर से प्राण फूंकने
का चमत्तकार करना चाहते हैं, जैसे जीसस ने मुर्दों को फिर से
जिला दिया था?
चैतन्य कीर्ति! जीसस भी यह चमत्तकार नहीं दिखा सकते थे। लजारस
बेचारा सीधा-सादा आदमी था,
उसको जीसस ने उठा दिया। लजारस अगर मोरारजी देसाई होते या चरणसिंह
होते या जग्गू भैया होते, जीसस ऐसे भागते उस जगह से कि लौट
कर ही न देखते।
और
तुम पूछते हो कि आप मरे हुओं को इतना क्या मारते हैं?
मैं
इसलिए मारता हूं कि कहीं कुछ बची-खुची जान न हो! बिलकुल ही निपटारा कर देना है।
क्योंकि राजनीतिज्ञ बड़ी मुश्किल से मरते हैं। और जरा सा बहाना मिल जाए तो जिंदा हो
जाते हैं। जरा ही बहाना मिल जाए, किसी को जरा सा पद दे दो, बस मुर्दे को बिठाल दो, वह फौरन अपनी शेरवानी वगैरह
ठीक-ठाक करके, गांधी टोपी लगा कर और बैठ जाएगा एकदम!
जब
कोई राजनेता मरे तो एकदम से उसको जलाया मत करना। पहले पूछना कि भैया, सुनते हो?
नेताजी, सुनते हो? आप
राशट्रपति हो गए! अगर वह कुछ न बोले तो समझना कि मर गया। अगर उठ कर बैठ जाए तो
समझना कि नहीं मरा। राजनेता की पहचान ही यह है कि वह मर गया कि नहीं मर गया,
इसकी जांच करने के लिए डाक्टरों के पास और कोई उपाय नहीं है--उसके
कान में इतना ही कह देना कि राशट्रपति हो गए, अब देर न करो,
उठ आओ! जहां तक तो उसकी आत्तमा वापस आ जाएगी। इधर ही थोड़ी-बहुत दूर
गई होगी, लौट आएगी, कि अरे, देर से हुए, मगर हो तो गए! देर है अंधेर नहीं!
एक
झूठा लतीफा--चंगू-मंगू का नहीं, जग्गू भैया का। जब से जग्गू भैया का पद छिना है,
उनके कुत्ते ने पूंछ हिलाना बंद कर दिया है। ऊंची नस्ल का समझदार
कुत्ता है। उसने देखा कि जब आदमी तक पूंछ नहीं हिलाते तो भला मैं क्यों हिलाऊं?
जग्गू भैया मन ही मन कुत्ते पर बड़े क्रोधित होते हैं, पर क्या करें, अब किसी और पर तो क्रोधित हो भी नहीं
सकते बेचारे! लेकिन कुत्ते से उन्हें प्रेम भी बहुत है। पुराना कुत्ता है, सुख-दुख में उसने साथ दिया है। अब पूंछ नहीं हिलाता, यह बात अलग है; मगर भौंकता नहीं है, काटने नहीं दौड़ता, यही क्या कम है!
अभी
जब जग्गू भैया ने गरमी में काश्मीर जाने का प्रोग्राम बनाया तो सोचा अपने कुत्ते
को भी साथ ले चलें। जाने के पहले उन्होंने श्रीनगर की होटल में एक कमरा बुक करा
लेना चाहा। पत्र डाल कर उन्होंने होटल मैनेजर से पूछा: मेरे साथ एक कुत्ता भी आएगा, क्या आप
इसे भी होटल में ठहरने की इजाजत देंगे?
होटल
मैनेजर का जवाब आया: महोदय जी, हमारी होटल में अब तक, आज
तक कई कुत्ते ठहर चुके हैं। हमें उनसे कोई शिकायत नहीं हुई, क्योंकि
न तो वे होटल के कप तोड़ते हैं, न फूटे हुए ग्लास पलंग के
नीचे छिपाते हैं, न तौलिया चुरा कर ले जाते हैं, न तकियों को रेजर से काटते हैं, न वेटर को गालियां
बकते हैं और न ही बिना बिल चुकाए भाग जाते हैं। इसके अलावा कुत्तों के ऊपर कोई
पथराव करने नहीं आता, कोई उनका घिराव नहीं करता। अतः हमारी
खिड़कियों के कांच नहीं टूटते और न अखबारों में होटल की बदनामी होती है। तात्तपर्य
यह है कि आप मजे से अपने कुत्ते को होटल में ठहरा सकते हैं, हमें
कतई आपत्ति नहीं होगी। पुनश्च: यदि कुत्ता आपकी सिफारिश करे तो आपकी भी हमारी होटल
में ठहरने की सुविधा हो सकती है।
जब
जग्गू भैया श्रीनगर पहुंचे तो होटल मैनेजर ने अभिवादन में मुस्कुरा कर हाथ जोड़ कर
कहा: बड़ा अच्छा हुआ जो आप इस हाथी के पिल्ले को भी साथ ले आए! मेरे बच्चों को बड़ी
उत्तसुकता थी इस हाथी के पिल्ले को देखने की।
जग्गू
भैया तो पहले से ही खफा थे,
अब एकदम उबल पड़े: क्यों रे मैनेजर, तेरा दिमाग
खराब है क्या, जो बेतुकी बातें करता है? तेरी आंखें हैं या बटन के छेद? दिखता नहीं यह अलशेसियन
कुत्ता है, हाथी का पिल्ला नहीं!
मैनेजर
बोला: मेरा दिमाग तो ठीक है, आपके दिमाग में जंग लग गई है। श्री जग्गू भैया
जी, तभी तो आप सीधी-सच्ची बात नहीं समझ पाते। आप इतने नाराज
क्यों हो रहे हैं? मैंने वह बात आपसे नहीं, इस कुत्ते से पूछी थी।
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें