रहिमन धागा प्रेम का-(प्रश्नोत्तर)-ओशो
दिनांक ७ अप्रैल, १९८०; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:
1—संन्यास का मार्ग अपरिचित है और भयभीत हूं।
क्या करूं?
2—आप कहते हैं, अनुभव से सीखो। लेकिन हम सोए-सोए बेहोश आदमियों के अनुभव का कितना मूल्य!
क्या झूठे आश्वासन दे रहे हैं? हम तो ऐसे गधे हैं जो बार-बार
उसी गङ्ढे में गिरते चले जाते हैं। कृपा करके कुछ सीधा मार्ग-दर्शन दें!
पहला प्रश्न: संन्यास का मार्ग अपरिचित है और मैं
भयभीत हूं। क्या करूं?
पुरुषोत्तमदास! जीवन को परिचित
में ही समाप्त कर देना--मृत्यु है। जीवन की नाव को अपरिचित में लेते जाना--जीवन
है। नितनूतन में जीवन है--प्रतिपल नये की चुनौती, अज्ञात का आह्वान,
अभिनंदन! जितना ही तुम अज्ञात में उतरोगे, उतने
ही जीवंत हो उठोगे। और जितने ज्ञात में बंद हो जाओगे, उतने
ही कब्र के भीतर समा गए।
बहुत लोग जीते ही नहीं; जीएं, इसके पहले ही मर जाते हैं। बहुत लोग पैदा ही नहीं होते, जीना तो बहुत दूर। और जो चीज सबसे बड़ी बाधा है, वह
है: अपरिचित का भय।
धर्म तो उनके लिए है जिनके भीतर साहस है--साहस ही नहीं, दुस्साहस! और आश्चर्य यह है कि धर्म पर अड्डा जमा कर बैठ गए हैं जमाने भर
के कायर लोग! मंदिरों-मस्जिदों में, गिरजों में, गुरुद्वारों में जो घुटने टेके तुम्हें प्रार्थना करते हुए लोग मिलेंगे,
वे कायर हैं। उनकी प्रार्थना भय से ही उठ रही है। और भय से कभी
प्रार्थना उठ सकती है? भय से कभी भगवान का संबंध हो सकता है?
भय में जिस भगवान को तुमने मान लिया है, वह
तुम्हारे भय का ही विस्तार है; वह तुम्हारी सुरक्षा का उपाय
है। तुम डरे हुए हो। तुम चारों तरफ शारीरिक व्यवस्था चाहते हो, मानसिक व्यवस्था चाहते हो, आध्या९ति०मक व्यवस्था
चाहते हो। तुम चाहते हो कि कहीं रंच मात्र भी कोई असुरक्षा न बचे--इस लोक में भी,
परलोक में भी। तुम चाहते हो सब भांति सुरक्षा हो। वही तुम्हारा धर्म
है। और जो तुम्हें सुरक्षा का आश्वासन देता है, तुम उसके ही
चरणों में गिरने को राजी हो।
मेरे पास सुरक्षा का कोई आश्वासन नहीं है। संन्यास तो असुरक्षा का वरण
है--स्वेच्छा से। क्योंकि जैसे ही यह बात समझ में आ जाए कि भय पर आधारित भगवान
झूठा होता है, भय से प्रेम जन्मता ही नहीं, तो
परमात्मा कैसे जन्मेगा? जिससे तुम भयभीत हो, उसे प्रेम कर सकते हो? दिखावा कर सकते हो; वह स्वीकार। ऊपर-ऊपर औपचारिक निभाव कर सकते हो; वह
स्वीकार। लेकिन तुम्हारे अंतरतम में, जिससे भय है उससे विरोध
होगा। उससे तुम बदला लेना चाहोगे। उससे मैत्री नहीं हो सकती। जो तुम्हें भयभीत कर
रहा है, वह मित्र है?
एक युवक विवाह करके लौट रहा था। नाव पर सवार हुआ। समुराई था। जापान
में योद्धाओं को समुराई कहते हैं। प्रसिद्ध समुराई था। उसकी तलवार की धाक थी, दूर-दूर तक धाक थी। उसकी तलवार की चोट जिस पर पड़ी, वह
बचा नहीं। और अब तक कोई उस पर चोट कर सका नहीं था। दोनों नाव से नदी पार कर रहे थे
कि अचानक तूफान आ गया। उसकी पत्नी तो घबड़ाने लगी, कंपने लगी,
भयभीत होने लगी; लेकिन समुराई वैसा ही अडिग,
वैसा ही निशकंप, वैसा ही निश्चिंत, जैसा पहले था! जैसे तूफान आया कि नहीं आया, सब बराबर
है! उसकी पत्नी तो बहुत हैरान हुई। उसने पूछा: यह तूफान तुम्हें डराता नहीं?
समुराई ने बजाय कुछ उत्तर देने के म्यान से निकाल ली। चमचमाती तलवार
सूरज की रोशनी में, उसने पत्नी की गर्दन के पास रख ली, इतनी पास कि जैसे बाल भर का फासला, जरा सा झटका लग
जाए, कि नाव हिल जाए, और तूफान है,
कि गर्दन कट जाए। लेकिन पत्नी मुस्कुराती रही। उस युवक ने पूछा: तू
घबड़ाती नहीं? तलवार इतनी निकट!
उस युवती ने कहा: तलवार तुम्हारे हाथ में है तो मुझे घबड़ाने का कोई
कारण नहीं। तलवार किसी दुश्मन के हाथ में तो नहीं। तलवार से थोड़े ही घबड़ाते हैं हम; किसके हाथ में है, इससे घबड़ाते हैं।
उस युवक ने तलवार वापस म्यान में रख ली और कहा कि परमात्मा के हाथ में
तूफान है, घबड़ाना क्या? जिससे हमारा प्रेम
है, उससे भय कैसा? तूफान है तो उसके
हाथ में है। जो होगा, ठीक होगा। गलत हो ही नहीं सकता। गलत
होना असंभव है।
प्रेम भयभीत नहीं होता। प्रेम को भयभीत किया नहीं जा सकता। तुम गर्दन
काट सकते हो प्रेमी की, लेकिन उसे कंपित नहीं कर सकते। और जो भयभीत है,
तुम लाख उपाय करो, कितनी ही प्रार्थनाएं,
कितनी ही पूजाएं--सब झूठी, सब थोथी।
जीना हो अगर तो भय पर आधारित धर्म को तो छोड़ ही देना होगा। तुलसीदास
ने कहा है: भय बिन होय न प्रीति। इससे झूठी बात कभी कही नहीं गई। कहते हैं कि बिना
भय के प्रेम नहीं होता। इससे ज्यादा अमनोवैज्ञानिक बात हो नहीं सकती। मैं तुमसे
कहता हूं: यह एक वचन ही पर्याप्त है यह बताने को कि तुलसीदास ने कुछ जाना नहीं। भय
के साथ प्रेम कभी हो नहीं सकता। और तुलसीदास कहते हैं कि भय के बिना प्रेम नहीं
होता।
मगर हमारी सबकी यही मान्यता है कि भय से ही प्रेम होता है। तो पति पत्नी
को डरवाता है। जितना डरवा सके उतना डरवाता है। क्योंकि सोचता है: नहीं डरवाऊंगा तो
प्रेम नहीं होगा। और पत्नी भी फिर जितना डरवा सकती है उतना पति को डरवाती है। वह
भी सोचती है कि नहीं डरवाऊंगी तो प्रेम नहीं होगा। मां-बाप बच्चों को डरवाते हैं।
और बच्चे भी कुछ कोर-कमी छोड़ते हैं! बच्चे भी डरवाते हैं मां-बाप को। उनके भी अपने
ढंग हैं, उनके भी नुस्खे हैं। ये सब बाबा तुलसीदास के भक्त
हैं। ये सब एक-दूसरे को डरवा रहे हैं। शिक्षक विद्यार्थियों को डरवा रहे हैं,
विद्यार्थी शिक्षकों को डरवा रहे हैं। सब तरफ डर व्याप्त है।
परमात्मा की हमारी धारणा कुछ ऐसी है, जैसे वह कोई
पुलिसवाला हो। हमारी धारणा ऐसी है कि वह चौबीस घंटे देख रहा है, तुम क्या कर रहे हो। तुम्हें बाथरूम में भी अकेला नहीं छोड़ता। बैठा है
वहीं जहां ताले में छेद है, उसी में से झांक रहा है।
मैंने सुना है, एक ईसाई साध्वी कपड़े पहने-पहने ही नहाती थी। आखिर
उसकी और संगिनें-साथिएं चिंतित हुईं। उन्होंने कहा: तू कैसी पागल है! बाथरूम में
दरवाजा बंद करके कपड़े क्यों नहीं उतारती? कपड़े पहने-पहने
कैसे नहाएगी? तेरे शरीर से बदबू आने लगी है।
उसने कहा: कपड़े कैसे उतारूं? नहीं लिखा है बाइबिल
में कि परमात्मा हर जगह तुम्हें देख रहा है? तो वह बाथरूम
में भी देख रहा है। अब परमात्मा के सामने नग्न होना उचित है?
अब कोई इस पागल को कहे कि जो बाथरूम में देख सकता है, वह कपड़े के भीतर नहीं देख सकता? इससे तो तुम कैसे
बचोगे? यह तो परमात्मा न हुआ, कोई खटमल
हुआ! कपड़ों के भीतर घुसा है! वहीं जांच-पड़ताल कर रहा है कि क्या हो रहा है,
क्या नहीं हो रहा है। यह तो परमात्मा न हुआ, कोई
जासूस है, जो तुम्हारे पीछे पड़ा है, हाथ
धो कर पीछे पड़ा है।
और सारे धर्मों ने तुम्हें डरवाया है, खूब डरवाया है। जरा
भूल-चूक की कि नरक। छोटी-छोटी चीजों में--और नरक! सिगरेट पी, गए नरक! पान खाया, गए नरक! रात पानी पी लिया,
गए नरक! अलग-अलग धर्म, अलग-अलग नरकों के भय।
ऐसे धर्म हैं, जैसे जैन धर्म, पर्युषण के
दिनों में अगर आलू खा लिए--गरीब आलू--गए नरक! टमाटर! इनसे ज्यादा भोले-भाले प्राणी
कहीं पा न सकोगे; न किसी को सताएं, न
किसी को परेशान करें, एकदम अहिंसक! मगर खा लिया कि गए नरक।
क्या-क्या डर! कैसे-कैसे डर! हर चीज में भयभीत कर रखा है तुम्हें।
यह पंडित-पुरोहितों का जाल है, इसका परमात्मा से कोई
संबंध नहीं है। पंडित-पुरोहित जीते हैं तुम्हारे भय पर, तुम्हारे
भय के शोषण पर। वे तुम्हें खूब भयभीत किए हुए हैं। वे तुम्हें ठहरने नहीं देते,
कंपाए रखते हैं। तुम जितने भयभीत रहो, उतना ही
उनका बल तुम्हारे ऊपर रहता है। भयभीत रहोगे तो तुम कभी अपनी मुक्ति की घोषणा न कर
सकोगे। भयभीत रहोगे तो हिंदू रहोगे, मुसलमान रहोगे, ईसाई रहोगे, जैन रहोगे। निर्भय हुए कि फिर
क्यों...फिर क्यों इन छोटी-छोटी सीमाओं में और दायरों में अपने को बंद करोगे?
फिर क्यों इन डबरों में अपने को बंद करोगे? निर्भय
हुए तो तुम छोड़ दोगे यह फिक्र, ये पागलपन की बातें कि कहीं
कोई नरक है, जहां लोग कड़ाहों में पकौड़ों की तरह जलाए जा रहे
हैं, चुड़ाए जा रहे हैं। और कहीं कोई स्वर्ग है, जहां हूरें ऋषि-मुनियों की सेवा कर रही हैं। फरिश्ते, अप्सराएं बैंड-बाजा बजा कर स्वागत कर रहे हैं। और जहां शराब के चश्मे बह
रहे हैं। और जहां कल्पवृक्ष हैं कि ऋषि-मुनि उनके नीचे बैठे हैं और जो भी इच्छा
करते हैं, तत्क्षण पूरी हो जाती है।
न कहीं कोई नरक है, न कहीं कोई स्वर्ग है। नरक है
तुम्हारे भय में और स्वर्ग है तुम्हारे निर्भय होने में। और निर्भयता का पाठ कहां
सीखोगे? यही जीवन पाठशाला है।
पुरुषोत्तमदास, तुम कहते हो: "संन्यास का मार्ग है अपरिचित।'
इसीलिए तो चलने योग्य है। इसीलिए! जब भी अपरिचित कोई मार्ग हो, चूकना मत। चलना। अपरिचित की पहचान करनी है। यह जीवन में जितना-जितना
अपरिचित है, उसको परिचित करना है। यही तो बोध की तरफ ले
जाएगा। जिस दिन कुछ भी अपरिचित न बचेगा, जिस दिन तुम सब जान
लोगे जो जानने योग्य है, उस दिन तुम प्रबुद्ध हो जाओगे।
अपरिचित से सिकुड़ते रहे और अपने ही घर की दीवाल के भीतर घुसे रहे डर के मारे--कि
बाहर निकले तो कहीं ऐसा न हो जाए, कि कहीं वैसा न हो जाए--तो
बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे।
मैं एक विश्वविद्यालय में प्रोफेसर था। मेरे जो वाइस-चांसलर थे, उन्होंने एक दिन मुझे बुलवाया। कमरे में कुछ लोग बैठ थे, उनसे कहा: आप लोग जाएं, मुझे कुछ निजी बात करनी है।
मैं थोड़ा हैरान था कि मुझसे उन्हें क्या निजी बात करनी होगी! फिर भी
मैं चुप रहा। फिर उन्होंने कहा: आपसे क्या छिपाना, अपनी सत्य बात आपसे
कहूं। अक्सर मुझे हवाई जहाज से यात्रा करनी पड़ती है और मैं बहुत घबड़ाता हूं। आप
हंसें न और और किसी को आप बताना भी मत। लोग क्या सोचेंगे कि इस उम्र में, वाइस-चांसलर होकर, और हवाई जहाज में बैठने में डरता
हूं! मगर मुझे डर लगा ही रहता है। मैं राम-राम, राम-राम जपता
ही रहता हूं। ऐसे मैं कभी राम-राम नहीं जपता। ऐसे मुझे भगवान की याद ही नहीं आती,
बस हवाई जहाज में ही आती है। बस मुझे लगा ही रहता है कि अब गिरा,
तब गिरा। किसी तरह राम-राम करते-करते पहुंच जाता हूं दूसरी जगह,
उतर जाता हूं हवाई जहाज से, तब कहीं मुझे चैन
आती है। और यह काम मेरा ऐसा है कि आए दिन जाना पड़ता है--यहां जाओ, वहां जाओ! क्या करूं?
मैंने कहा: इतना डरने की क्या बात है?
उन्होंने कहा: डरने की बात आप कहते हैं! अरे रोज अखबार में देखो कि
यहां हवाई जहाज गिर गया, पचास आदमी मर गए; वहां गिर गया,
सत्तर आदमी मर गए!
मैंने कहा: कितने हवाई जहाज उड़ते हैं और कितने गिरते हैं? आप तो गणित के प्रोफेसर थे, आप तो थोड़ा गणित भी
जानते हैं। कितना अनुपात है? सौ में से एक भी तो नहीं गिरता।
हजार में एकाध गिरता है।
उन्होंने कहा: यह बात तो ठीक है।
तो मैंने कहा: नौ सौ निन्यानबे दफे बेकार ही राम-राम, राम-राम कर रहे हो।
फिर मैंने उनसे पूछा कि रात खाट पर सोते हो कि नहीं?
उन्होंने कहा: बराबर सोता हूं।
डरते हो कि नहीं?
उन्होंने कहा: क्यों डरूंगा?
मैंने कहा: खाट पर कितने लोग मरते हैं, मालूम है? कस से कम सत्तानबे प्रतिशत लोग खाट पर मरते हैं। सौ में सत्तानबे मौके ये
हैं कि तुम भी खाट पर मरोगे। वहां राम-राम जपा करो रात भर! अगर डरना ही है तो खाट
से डरो, हवाई जहाज से क्या डरना? हजार
में एक मौका है मरने का। और खाट पर तो सौ में से सत्तानबे मौके हैं।
मैंने तो कहा कि तुम हवाई जहाज पर जाते ही रहो, मरना तो होगा ही। हवाई जहाज से मरोगे तो कम से कम अखबार में खबर भी छपेगी।
और खाट पर ही मरे तो कौन फिक्र करता है! खाट पर मरने वालों की कोई फिक्र करता है?
जहां मैं रहता था जबलपुर में, जहां वे वाइस-चांसलर
थे, वहां एक मुहावरा है। जब कोई पर जाता है, तो कहते हैं: उसकी खटिया खड़ी हो गई! गजब की बात है। आदमी तो सो गया,
खटिया खड़ी हो गई! खटिया खड़ी हो गई, मतलब अरथी
उठ गई। जैसे पंजाब में कहते हैं बारह बज गए, ऐसे जबलपुर में
कहते हैं खटिया खड़ी हो गई। जबलपुर में किसी से भूल कर मत कहना कि खटिया खड़ी हो गई।
झगड़ा हो जाए।
इसलिए तो सरदार नाराज हो जाता है, उससे कह दो कि सरदार
जी, कितने बजे हैं? बारह बजे पूछ लो तो
एकदम नाराज हो जाता है! और तुम सोचते हो कि बारह बजे की वजह से वह एकदम भन्ना रहा
है। वह बेचारा इसलिए भन्ना रहा है कि तुम्हें पता नहीं कि बारह बजे का मतलब पंजाब
में यह होता है, कि दो कांटों के बीच जो फासला था, खत्म। हो गए प्रभु के प्यारे! जो फासला था शरीर का, वह
गया। अब दोनों एक हो गए। गए काम से। बारह बज गए का मतलब यह होता है कि मातम छा
गया।
तो मैंने उनसे कहा कि डरो तो खटिया से डरो। किसी न किसी दिन खड़ी होगी!
राम-राम जपा करो रात भर।
पांच-सात दिन बाद उन्होंने मुझे फिर बुलवाया। उन्होंने कहा: आपने और
मेरी मुसीबत कर दी। मैं बुलवाया था कि मेरा कुछ हल होगा। अब मुझे खटिया पर भी डर
लगता है!
मैंने कहा: अब तुम धार्मिक हो जाओ। यही तो धार्मिक होने के उपाय हैं।
पहले तुम हवाई जहाज में धार्मिक होते थे सिर्फ, वह तो कभी-कभी होओगे;
ऐसे कभी-कभी से काम चलेगा? अरे अखंड होना
चाहिए आदमी को धार्मिक! अब अखंड पाठ करो। चार दिन की जिंदगी है, राम को याद कर लो। अब जिंदगी बची भी कितनी? चार दिन
भी जाने के करीब हैं, आखिरी घड़ी आ रही है। अब सोना इत्यादि
क्या? अब तो सोए तो खोए। अब तो राम-राम जपो। रात भर भी जपो,
दिन भर भी जपो।
लोग भय से ही जी रहे हैं। और भय से कहीं जी सकते हो? तब तो हर चीज में भय हो जाएगा। अपरिचित क्या नहीं है? इस जीवन में सभी कुछ तो अपरिचित है। जब बच्चा आता है...अगर पुरुषोत्तमदास,
तुममें जरा भी समझ होती तो तुम कभी मां का गर्भ ही न छोड़ते, क्योंकि कहां अपरिचित लोक में जाना! नौ महीने मां के गर्भ में रहे,
वह तो परिचित था। अब यह छोड़ना परिचित! और इससे ज्यादा सुरक्षित,
इससे ज्यादा आरामदेह स्थान फिर कभी दुबारा पा सकोगे? असंभव!
वैज्ञानिक कहते हैं कि आदमी के मन में जो सुख की खोज है, वह असल में गर्भ में उसे जो नौ महीने अनुभव हुआ है, उसकी
ही खोज है। अज्ञात रूप से कहीं भीतर यह गूंज उसके मन में बनी रहती है कि कहां गए
वे दिन, वे सुख के दिन! क्योंकि मां के गर्भ में बड़ी सुखद
अवस्था है। ठीक उतने ही तापमान पर मां के शरीर के भीतर जल भरा होता है जितना
तापमान तुम्हारे शरीर का है। उस तापमान में विश्राम करना सबसे ज्यादा सुखद घड़ी है।
जैसे कोई अपने बाथरूम में ठीक शरीर के तापमान पर टब में पानी भर कर लेटा हो। और
पानी ही नहीं है वहां, पानी में वे सारे रासायनिक (व्य हैं
जो सागर के पानी में होते हैं। इसलिए शरीर को बिलकुल ही शिथिल होने का मौका मिलता
है। तुम्हारे शरीर में भी अस्सी प्रतिशत सागर का पानी है। और बच्चा तैरता रहता है
उस पानी में। न भोजन की फिक्र। भोजन की तो बात छोड़ो, श्वास
लेने तक की फिक्र नहीं। न व्यायाम करना है, न घूमने-फिरने
जाना है; कि पांच मील चक्कर लगाओ रोज, नहीं
तो स्वास्थ्य खराब हो जाए; कि पालक की सब्जी खाओ, नहीं तो स्वास्थ्य खराब हो जाए!
एक छोटा बच्चा कह रहा था अपनी मां से कि परमात्मा भी अजीब किस्म का
आदमी है! विटामिन तो रख दिए पालक की सब्जी में और आइसक्रीम में कुछ भी नहीं! अरे
रखने ही थे विटामिन तो आइसक्रीम में रखता। लोग दिल खोल कर खाते। विटामिन रखने गया
तो पालक की भाजी में, कि जो खाई ही न जाए। मगर रोज खानी पड़े।
न पालक की सब्जी की जरूरत है, न चिंता है, न फिक्र है, न किराया चुकाना है, न बिजली का बिल भरना है, न इनकमटैक्स, कुछ भी नहीं। न कोई सरकार, न कोई पुलिसवाले, न कोई शिक्षक, न कोई स्कूल। बच्चा मस्त है। श्वास तक
खुद नहीं लेता। मां श्वास लेती है उसके लिए। मां से उसे सारा पोषण मिलता है। यह नौ
महीने वह स्वर्ग में रहता है।
फ्रायड ने यही खोज की कि यह जो बच्चा नौ महीने मां के गर्भ में अनुभव
करता है, इसी से मनुशय को सुख की खोज है। अज्ञात में यह बात
बैठ गई है उसके कि ऐसी सुख की अवस्था भी हो सकती है! फिर हम जो घर बनाते हैं,
वह भी हम इसी आधार पर बनाते हैं। हमारी सारी चेशटा यही होती है कि
हम किसी तरह वही सुखद अवस्था फिर बना लें। मगर उसको बनाने में बड़ी चिंताएं उठानी
पड़ती हैं। उन चिंताओं में, कुछ सुख थोड़ा-बहुत हो भी जीवन में,
वह भी खो जाता है।
तुम अगर डरते तो पैदा ही नहीं होते। लेकिन वह तो सौभाग्य की बात कि
तुम्हें कुछ होश नहीं था, बेहोशी में पैदा हो गए, नहीं तो
पैदा ही नहीं होते। समझदार तो पैदा ही नहीं होते। वे तो भीतर ही रुक जाते। वे तो
कहते: कहां जाना छोड़ कर अपना घर! हम भले, अपना घर भला!
अब तुम कहते हो कि संन्यास का मार्ग अपरिचित है।
जीवन के सभी मार्ग अपरिचित हैं। परिचित क्या है? प्रेम परिचित है? जब पहली दफा प्रेम किया था तो
परिचित था? जब किसी के प्रेम में पड़ गए थे और आह्लादित हुए
थे, आनंदित हुए थे और गीत झरने लगे थे और फूल खिलने लगे थे,
तब परिचित थे? लेकिन चल पड़े अपरिचित मार्ग पर।
फिर ले जाए कहीं! जब संगीत से प्रभावित हो गए थे और वीणा बजानी सीखनी शुरू कर दी
थी, तो परिचित था कि कितना अभ्यास करना होगा?
यहूदी मेनुहिन से किसी ने पूछा--प्रसिद्ध वायलिन वादक--कि आप कितना
अभ्यास करते हैं? आप जब बजाते हैं वायलिन तो ऐसा लगता है जैसे
स्वस्फूर्त! मेनुहिन हंसने लगा, उसने कहा, लगेगा क्यों नहीं! आठ घंटे रोज अभ्यास करता हूं। आठ घंटे अभ्यास करता हूं, तब
लगता है स्वस्फूर्त। अगर तीन दिन अभ्यास न करूं तो मुझे पता चलने लगता है कि चूकें
होनी शुरू हो गईं। अगर चार दिन अभ्यास न करूं तो जो आलोचक हैं उनको पता चलने लगता
है कि चूकें शुरू हो गईं। और अगर पांच दिन अभ्यास न करूं तो आम जनता को पता चलने
लगता है कि चूकें शुरू हो गईं।
वायलिन सुनते वक्त तुम्हें खयाल में भी नहीं आता, उसके पीछे कितना श्रम है, कितनी साधना है, कितनी तपश्चर्या है। तुम वायलिनवादक को देख कर तपश्चर्या का विचार ही नहीं
करते। तुम सितारवादक को देख कर कभी तप की बात सोचते हो? तप
की बात तो तुम सोचते हो किसी बुद्धू को धूनी रमाए बैठा दिखाई पड़ जाए तो। धूनी
रमाने में कोई तप है? राख वगैरह लपेट कर अंगीठी जला कर बैठ
गए, यह कोई तप है? अंगुलियां लहूलुहान
हो जाती हैं सितारवादक की। वर्षों की साधना के बाद तारों में से स्वर्गीय संगीत
उठना शुरू होता है। वर्षों छाती टूटने लगती है बांसुरी को फूंक-फूंक कर, श्वास उखड़ने लगती है, तब कहीं बांसुरी में प्राण आते
हैं। यह तपश्चर्या है।
लेकिन पहले कदम तो रखने होते हैं अज्ञात में ही। पहले से कहां पता
होता है कि क्या होंगी यात्रा की अड़चनें!
मैं यह नहीं कहता कि संन्यास का मार्ग कोई सुगम मार्ग है, भूल कर नहीं कहता। दुर्गम पथ पर चलने की आकांक्षा उठी है। अपरिचित तो है
ही।
बुद्ध ने कहा है: संन्यास तो ऐसे है जैसे आकाश में उड़ते हुए पक्षी।
उनके पैरों के चिह्न नहीं बनते। इसलिए कोई चाहे कि हम नकल करके और उनके पैरों के
चिह्नों पर चल-चल कर उड़ लेंगे, तो गलती में है। संन्यास की कोई बंधी
हुई लकीरें नहीं होतीं, कोई राजपथ नहीं होते, पगडंडियां भी नहीं होतीं। चलना पड़ता है खुद ही और जंगल में रास्ता बनाना
पड़ता है। हां, नकल करनी हो तो बात अलग। नकली संन्यास अपरिचित
नहीं होता; वह बिलकुल परिचित होता है।
मेरा संन्यास तो बिलकुल अपरिचित है और मैं उसे अपरिचित ही रखना चाहता
हूं। इसलिए मैं कोई बंधी-बंधाई धारणाएं नहीं देता। मैं अपने संन्यासी को नहीं
कहता--यह खाओ, यह न खाओ; यह पीओ, वह न पीओ; ऐसे बैठो, वैसे बैठो;
यह पहनो, वह न पहनो। मैं अपने संन्यासी को कोई
बंधी-बंधाई धारणाएं नहीं देता। अपने संन्यासी को केवल सजगता का संदेश देता हूं। और
फिर तुम्हारी सजगता तुम्हें जो करने को कहे, करो। मूर्च्छा
से मत करो, बस इतना सार-सूत्र है। जाग कर जीओ बस, बेहोशी में नहीं। फिर तुम्हारे जागरण में हो फलित हो, शुभ है। तुम्हारा जागरण तुम्हें जहां ले जाए, जाओ।
फिर कितना ही भय तुम्हें पीछे खींचे, मत खिंचना। जंजीरें
रोकेंगी पैरों को। और जंजीरें साधारण जंजीरें नहीं हैं, सूषम
हैं। और जंजीरें लोहे की भी नहीं हैं, सोने की हैं। इसलिए
उनसे मोह भी पैदा होता है। उन पर हीरे-जवाहरात भी जड़े हैं। लगता है आभूषण हैं,
कैसे छोड़ दें? कारागृह घर जैसे मालूम होने लगे
हैं; इतने समय से हम रह रहे हैं उनमें कि हम सोच ही नहीं
सकते कि इनके बिना भी हमारा जीवन हो सकता है। लेकिन जब तुम्हें अपरिचित और अज्ञात
की हवाएं छूने लगेंगी और जब तुम्हारे जीवन में एक नई पुलक का प्रवेश का होगा,
तब तुम जानोगे कि जीवन कुछ और था; हम किसी और
चीज को जीवन मान कर बैठ गए थे। मत घबड़ाओ।
पंथ होने दो अपरिचित, प्राण रहने दो अकेला!
घेर ले छाया अमा बन,
आज कज्जल-अश्रुओं में रिमझिमा ले यह घिरा घन;
और होंगे नयन सूखे
तिल बुझे औ पलक रूखे;
र्आ( चितवन में यहां
शत विद्युतों में दीप खेला!
अन्य होंगे चरण हारे
और हैं जो लौटते, दे शूल को संकल्प सारे;
दुखी व्रती निर्माण उन्मद,
यह अमरता नापते पद
बांध देंगे अंक-संसृति
से तिमिर में स्वर्ण बेला!
दूसरी होगी कहानी,
शून्य में जिसके मिटे स्वर, धूलि में खोई निशानी;
आज जिस पर प्रलय विस्मित--
मैं लगाती चल रही नित,
मोतियों का हाट औ
चिनगारियों का एक मेला!
हास का मधु-दूत भेजो,
रोष की भू्र-भंगिमा पतझार की चाहे सहे जो!
ले मिलेगा उर अचंचल,
वेदना-जल, स्वप्न-शतदल,
जान लो वह मिलन एकाकी
विरह में है दुकेला!
पंथ होने दो अपरिचित, प्राण रहने दो अकेला!
साहस जुटाओ!
पंथ होने दो अपरिचित, प्राण रहने दो अकेला!
है अपरिचित मार्ग और तुम अकेले हो और यह यात्रा एकाकी की है। यह
अंतर्यात्रा है। यहां दूसरा तुम्हारे साथ जा भी नहीं सकता। कोई तुम्हारे साथ नहीं
जा सकता। परमात्मा तक की उड़ान तुम्हें अकेले ही भरनी होगी।
और जब ऐसी आकांक्षा जगी हो--जगी होगी आकांक्षा तभी तो तुमने प्रश्न
पूछा है--तो भय को सरका कर रख दो। भय है, स्वीकार; लेकिन भय की सुनो क्यों? सुनना जरूरी नहीं। इस सत्य
को स्मरण रखो कि वीर पुरुषों में और कायरों में इस बाबत कुछ भेद नहीं होता,
दोनों को भय लगता है। ऐसा मत सोचना कि वीर पुरुष को भय नहीं लगता।
उसको उतना ही भय लगता है जितना कायर को। आखिर उसके पास भी हृदय है और उसके पास भी
मस्तिशक है और उसे भी अपने जीवन को बचाने की आकांक्षा है। वह भी जब अपरिचित मार्ग
पर जाता है तो उसका मन डांवाडोल होता है, झिझकता है। फिर
फर्क क्या है कायर में और बहादुर में? फर्क यह है कि कायर
अपने भय की सुनता है और बहादुर अपने भय की सुनता नहीं। बहादुर कहता है कि ठीक है,
रहने दो भय, पंथ होने दो अपरिचित, प्राण रहने दो अकेला, मैं तो जाता हूं! जितना ही
बहादुर अनुभव करता है भय, उतनी ही चुनौती बना लेता है उसको।
वह भय को भी सीढ़ी बना लेता है। वह कहता है: जब इतना भय है तो जाकर ही रहूंगा। जरूर
कुछ जानने योग्य छिपा होगा।
मुफत तो कुछ भी नहीं मिलता। और हम परमात्मा को मुफत पाना चाहते हैं।
और हमने कैसे-कैसे सस्ते परमात्मा बना रखे हैं! कहीं भी पत्थर पर सिंदूर लगा दिया, हनुमान जी हो गए! तुम जरा करके देखो, ले आओ एक पत्थर
उठा कर, लगा दो सिंदूर, दो फूल चढ़ा दो,
फिर बैठ कर देखते रहना। थोड़ी देर में तुम देखोगे कि लोग निकलने लगे,
कोई सिर झुका रहा है, कोई दो फूल चढ़ा जाएगा,
कोई दो पैसे चढ़ा जाएगा, कोई नारियल फोड़ जाएगा।
कितना सस्ता है सब! तुम्हारे मंदिर की मूर्तियां चाहे कितनी ही सुंदर क्यों न गढ़ी
गई हों, हैं तो पत्थर ही! और तुम्हारे मंदिर चाहे कितने ही
कलात्मक क्यों न हों, हैं तो आखिर आदमी के ही निर्माण! इनका
परमात्मा से क्या लेना-देना!
न परमात्मा मस्जिद में है, न मंदिर में; न काबा में, न कैलाश में। परमात्मा अगर है तो
दुस्साहसियों के प्राण में है। उस चुनौती में जब कोई उतर जाता है, समस्त भयों को काट कर, भय की भीड़ों को हटा कर और चल
पड़ता है एकाकी, छोड़ देता है अपनी छोटी सी डोंगी को अज्ञात के
सागर में। उस पार का कोई भरोसा नहीं है, कुछ पक्का नहीं है,
होगा भी वह पार कि नहीं होगा कौन जानने! कोई गारंटी नहीं। पहुंच
पाऊंगा या नहीं, यह भी कहां निश्चय है! और इस तूफान में,
इस आंधी में, इस झंझावात में यह छोटी नौका,
ये छोटे हाथ, ये छोटी पतवारें साथ दे सकेंगी!
कहां डूब जाऊंगा!
मगर धन्यभागी हैं वे जो इतना साहस कर लेते हैं, क्योंकि वे जहां डूबते हैं वहीं किनारा है। उनके लिए मझधार भी किनारा बन
जाती है। उनके लिए डूबना ही बचना हो जाता है। अभागे तो वे हैं जो इसी किनारे पर
अटके रहते हैं, ठिठके ही रहते हैं, सोचते
ही रहते हैं, बैठे रहते हैं और सोचते रहते हैं कि कब आए शुभ
घड़ी और हम नाव छोड़ें। वह शुभ घड़ी कभी नहीं आती। जिंदगी हाथ से खो जाती है, मौत आ जाती है, शुभ घड़ी कभी नहीं आती। अभी जब
अभीप्सा हो, अभी जब भीतर प्राणों में थोड़ी ऊर्जा है, आग है, तो कुछ करो। इस आग का उपयोग कर लो। फिर पीछे
राख ही रह जाएगी।
अंगुलियों से छिड़ते जिस काल,
सुधा की बूंदें पाते कान।
धुनें सुन सिर धुनते थे लोग,
तान में पड़ जाती थी जान।
रंगों में रम जाती थी रीझ,
कंठ का जब करते थे संग।
मीड़ जब बनते मिले मरोड़,
थिरकने लगते लोग-उमंग।
निकलते थे इनमें वे राग,
गलों के जो बनते थे हार।
सुरों में मिलती ऐसी लोच,
बरस जाती थी जो रस-धार
मनों को जो ले लेती मोल,
वह लहर इनसे पाती बीन।
सितारों में भरते वह गूंज,
दिलों को जो लेती थी छीन।
बोल थे इनके बड़े अमोल,
कभी इनमें भी थी झंकार,
करेगा प्यार इन्हें अब कौन
आज तो हैं ये टूटे तार।
इसके पहले कि वीणा के तार टूट जाएं, बजा लो। दो गीत गा
लो। तार तो टूटेंगे ही। नाव तो डूबेगी ही, किनारे पर भी बैठे
रहे तो भी डूबेगी। तो फिर मझधार में डूबने का मजा क्यों छोड़ा जाए? फिर मझधार की मौज क्यों छोड़ी जाए? जब मरना ही है,
मिटना ही है, तो एक बात निश्चित कि मौत से डर
का कोई कारण नहीं। जब मौत इतनी सुनिश्चित है कि उससे बचा ही नहीं जा सकता, तो मौत को हम गणित के बाहर छोड़ सकते हैं। जब कोई उपाय ही नहीं है मौत से
बचने का, जब सब मिट ही जाना है, तो फिर
क्या चिंता! फिर जब तक श्वासें हैं, दांव पर लगा लो। जब तक
बीन बज सकती है, बजा लो। क्योंकि वीणा तो टूटी रह जाएगी,
लेकिन उससे उठा हुआ संगीत परमात्मा तक पहुंच जाएगा। देह तो यहीं पड़
रह जाएगी हड्डी-मांस-मज्जा की, मगर उससे उठे गीत पहुंच
जाएंगे आकाश तक। तुम्हारा चाहे अंत हो जाए मझधार में, लेकिन
तुम्हारे भीतर वह जो खोज थी, अभीप्सा थी, वह जो प्रार्थना थी, वह पहुंच जाएगी। वही तुम्हारी आत्मा
है।
अब तुम पूछते हो पुरुषोत्तमदास: "क्या करूं?'
अज्ञात का वरण करो! अज्ञात से विवाह रचाओ! इसके सिवाय जीने का न कभी
कोई ढंग था, न है, न कोई ढंग कभी हो सकता
है।
दूसरा प्रश्न: आप कहते हैं अनुभव से सीखो। लेकिन
हम सोए-सोए बेहोश आदमियों के अनुभव का कितना मूल्य! क्यों झूठे आश्वासन दे रहे हैं? हम तो ऐसे गधे हैं, जो बार-बार उसी गङ्ढे में गिरते
चले जाते हैं। कृपा करके कुछ सीधा मार्गदर्शन दें!
चैतन्य सागर उर्फ लहरू।
लहरू! इससे ज्यादा सीधा और कोई मार्गदर्शन
नहीं हो सकता है। गधे भी अनुभव से सीख लेते हैं। वैज्ञानिकों से पूछो।
एक वैज्ञानिक जांच कर रहा था कि बंदरों में कितनी प्रतिभा होती है। तो
उसने एक केला छप्पर से बांध कर लटका दिया। बंदर बैठा देख रहा है। अब केले को बंदर
अनासक्त भाव से नहीं देख सकता। कोई बंदर वीतराग नहीं है। बांछें खिल गई होंगी बंदर
की, लार टपक गई होगी बंदर की। मगर केला बहुत ऊंचा लटका है, उतनी छलांग नहीं। अब वैज्ञानिक देखता है कि कितनी इसमें अकल है। वह भीतर
से लकड़ी के डब्बे लाता है। बगल में दीवाल के पास लकड़ी के डब्बे रखने लगता है। बंदर
डब्बे भी देख रहा है। उसकी आंखों में चमक है। वैज्ञानिक सोच रहा है कि शायद वह
हिसाब लगा रहा है कि डब्बे के ऊपर डब्बा रख कर, डब्बे के ऊपर
डब्बा रख कर उसके ऊपर खड़ा हो जाऊंगा, तो केले तक पहुंच
जाऊंगा। जब आखिरी डब्बा रख कर वैज्ञानिक लौटने लगा, जैसे ही
वह केले के नीचे आया, बंदर झपटा, उसके
सिर पर सवार हो गया और उसने केला तोड़ लिया!
यह वैज्ञानिक ने भी नहीं सोचा था। बंदरों में भी अकल होती है! कौन
डब्बे उठाए! यह गधा खुद ही ला रहा है, ढो रहा है। वह इसको
देख रहा है कि अच्छा! उसने राज निकाल लिया। उसने कहा: अब यह आखिरी डब्बा ले आया,
अब यह जाने के करीब हैं बच्चू, अब इनका उपयोग
कर लो, नहीं तो फिर डब्बे उठाना पड़ेंगे।
गधे भी सीख लेते हैं। सीखता ही आदमी ऐसे है--भूल-चूक करके, अनुभव से। अनुभव का क्या अर्थ? अनुभव का अर्थ होता
है: भूल-चूक करना, भटकना। भटक कर पीड़ा उठानी। गलत करना,
कांटों से चुभ जाना। ठीक करना, फूलों की वर्षा
हो जाना। ऐसे धीरे-धीरे गणित बैठता जाता है। दिखने लगता है कि क्या करने से आनंद
होता है, क्या करने से दुख होता है। और तो सीखने का कोई उपाय
ही नहीं है--भूल-चूक। इससे ज्यादा सीधा कोई उपाय नहीं। इससे बचने की लोग कोशिश
करते हैं और उस कोशिश में ही झूठे हो जाते हैं। फिर एक ही रास्ता है: दूसरे जो
कहें, वह मान लो। वही लोगों ने किया है। तो लोग गीता पढ़ रहे
हैं, सोच रहे हैं कि गीता में तो सब बातें कृशण महाराज कह ही
गए, अब अपने को अलग से क्या सीखनी! मगर परिस्थिति बदल गई,
समय बदल गया, सब कुछ बदल गया। अब कृशण भी लौटें
तो गीता नहीं दोहराएंगे। कोई हिज़ मास्टर्स वायस के ग्रामोफोन रिकार्ड थोड़े ही हैं
कृशण। लौटेंगे तो देखेंगे कि सब बदल गया। अब उस बात को कहने का कोई अर्थ नहीं
होगा।
लेकिन कल ही मैंने पढ़ा कि मोरारजी देसाई ने कहा कि गीता में तो हर चीज
का उत्तर है। तो तीन साल भैया क्या करते रहे? एकाध उत्तर का तो
उपयोग कर लेते! कम से कम जीवन-जल वाला उत्तर तो नहीं है। वही किया, और बाकी क्या किया? बस पिटी-पिटाई लकीरें पीट रहे
हैं लोग! गीता में सब उत्तर हैं! सुनने वाले भी प्रसन्न हो जाते हैं, उनके अहंकार को भी तृप्ति मिलती है कि हां, यही तो
हम मानते हैं कि गीता में सब उत्तर हैं। तो जब से वे प्रधानमंत्री नहीं रहे,
गीता-ज्ञान-मर्मज्ञ हो गए हैं! अब गीता पर प्रवचन देने लगे हैं!
गीता में हर चीज का समाधान है!
मुसलमान सोचते हैं कुरान में हर चीज का समाधान है। ईसाई सोचते हैं
बाइबिल में हर चीज का समाधान है। समाधान तो है, लेकिन समाधान हुआ
कहां? एक समस्या तो मिटी नहीं। कृशण की मौजूदगी में भी नहीं
मिटी थी तो अब क्या मिटेगी? और कृशण ने तो अपनी परिस्थिति के
लिए समाधान दिया था, वह तब भी काम नहीं पड़ा, तो अब तो क्या काम पड़ेगा पांच हजार साल बाद? अब तो
किस बात का उत्तर है वहां? लेकिन यह सस्ता रास्ता मालूम होता
है, सीधा, कि पढ़ ली किताब, बस बात खत्म हो गई, उसमें उत्तर लिखा ही हुआ है। मगर
यह वैसे ही है जैसे स्कूल के बच्चे करते हैं; उनको गणित करने
को दो, किताब उलट कर देखी, पीछे उत्तर
लिखे होते हैं! वे जल्दी से उत्तर देख लिए, उन्होंने समझा कि
बात खत्म हो गई, उत्तर तो हमें मालूम है।
मगर उत्तर मालूम होने से कुछ नहीं होता। प्रश्न और उत्तर के बीच, उत्तर तक पहुंचने की प्रक्रिया कहां है? विधि कहां
है? वह विधि अगर नहीं है तो तुम्हारा उत्तर थोथा रहेगा,
बासा रहेगा, उधार रहेगा; उसमें प्राण नहीं हो सकते। वह उत्तर है ही नहीं। तुम उस उत्तर तक स्वयं
नहीं पहुंचे हो। कृशण पहुंचे होंगे अपने अनुभव से, तो
उन्होंने कीमत चुकाई, पहुंचे। तुमने कीमत नहीं चुकाई और तुम
सोचते हो कि पहुंच जाएं! इस तरह के उधार उत्तरों से काम नहीं चल सकता।
मैं कल पढ़ रहा था कि दो दिन पहले वेटिकन में, पोप ने वेटिकन के पास की पहाड़ी पर अपने कंधे पर लकड़ी की सूली लेकर चढ़ाई
की। दो हजार साल पहले जैसे जीसस को अपने कंधों पर सूली लेकर पहाड़ पर चढ़ना पड़ा था।
लाखों लोग इकट्ठे हुए! तब भी हुए थे, अब भी हुए। लेकिन तब उन
लाखों लोगों ने जीसस पर पत्थर फेंके थे, सड़े टमाटर फेंके थे,
गालियां दी थीं, धक्के मारे थे। और अब?
फूल बरसाए! यह ढोंग था जो हो रहा था। और तब जीसस को ढोना पड़ा था एक
वजनी सूली को। तीन बार पहाड़ चढ़ते वक्त गिरे थे उसके वजन के नीचे दब कर, घुटने छिल गए थे, लहूलुहान हो गए थे। कोड़े पड़े
थे--कि उठो, सूली को ढोओ! ऐसा तो कुछ भी न हुआ। पोप के लिए
तो बिलकुल हलकी, कम वजनी लकड़ी का सुंदर नक्काशी से भरा हुआ
क्रॉस।...
लेकिन जीसस के ही वचन का पालन किया जा रहा है। जीसस ने कहा है: जो भी
मेरे मार्ग पर चलेगा, उसे अपने कंधों पर सूली ढोनी पड़ेगी। वाह! कितना
प्यारा अनुकरण! सो सूली ढो रहे हैं वे। और भी छुटभैये भी छोटी-छोटी सूलियां ले आए
थे। अरे जब पोप ढो रहे हैं तो बाकी लोग भी ले आए थे। सभी यात्री ले आए थे। जुलूस
रहा, शोभा-यात्रा रही। एक तरह की रामलीला हो रही है समझो।
पहाड़ी पर पहुंच गए। पिकनिक का सामान भी लाए होंगे लोग। अब पहाड़ी पर गए थे तो ऐसे
ही थोड़े चले जाएंगे। अपना भोजन वगैरह लाए होंगे, तो पिकनिक
हुआ। और फिर मस्त अपने घर लौटे होंगे। इसकी बड़ी चर्चा हुई कि महान कार्य हुआ!
मैंने कहा: महान ही कार्य करना था तो कम से कम इस पोप को सूली तो चढ़ा ही
देना था! इतनी तो झंझट मिटा आते! जब गए ही थे पहाड़ पर तो इतना तो करके लौटते!
पिकनिक मनानी थी मना लेते फिर पीछे, इसको तो निपटा आते!
इस बेचारे पर तो दया करते! इतनी दूरी तक सूली ढोई, सब किया!
मगर वह कुछ नहीं हुआ। पोप भी वापस आ गए! यह कैसी सूली ढोना हुई! इनको सूली पर लटका
देते और पास की किसी गुफा में इनको रख देते तीन दिन तक और फिर देखते कि
पुनरुज्जीवन होता है कि नहीं! तब ड्रामा पूरा होता। यह क्या रामलीला हुई!
मगर बस ऐसी ही रामलीलाएं हो रही हैं। हरेक आदमी इसी तरह की रामलीलाओं
में पड़ा हुआ है। सारी दुनिया रामलीला में उलझी हुई है। रामलीला का मतलब है:
अनुकरण। थोथे अनुकरण, बासे अनुकरण।
उत्तर सीधे मालूम पड़ते हैं, मगर वे सीधे नहीं
हैं। अगर किसी ने एक कोड़ा मार दिया होता बीच में पोप को, तो
पता चल जाता। सूली दे मारते उसको वहीं।
एक रामलीला में ऐसा हुआ। हनुमान जी गए संजीवनी बूटी लेने। आए फिर
रस्सी पर सरकते हुए। एक झूठा पुट्ठे का पहाड़...घिर्री में कहीं रस्सी अटक गई।
हनुमान जी अटके बीच में। पहाड़ भी लिए। लषमण जी नीचे पड़े बेहोश। वे भी बीच-बीच में
आंख खोल कर देखें कि बड़ी देर हो रही है। और रामचं( जी देख रहे हैं कि हनुमान जी
सामने अटके हैं, मगर वे यही कह रहे हैं कि हे हनुमान, तुम कहां हो? जल्दी आओ! और जनता हंस रही कि यह भी
खूब मजा हो रहा है!
मैनेजर की कुछ समझ में न आया कि अब करना क्या! इसका कोई ठीक-ठीक
निर्देश नहीं था रामलीला में कि अब इसका, ऐसी स्थिति आ जाए तो
क्या करना। बाबा तुलसीदास कुछ लिख नहीं गए। तो घबड़ाहट में वह चढ़ा कि कोई तरह से
रस्सी को सुलझा दे, मगर जब घबड़ाहट में सुलझाओ कुछ तो और उलझ
जाता है। सो सुलझाने में और उलझ गया। रस्सी की खींचातानी में हनुमान जी की टांग
खिंच गई, पूंछ टूट गई। पूंछ टपक कर गिर गई। और रामचं( जी वही
कहे चले जा रहे हैं कि हे हनुमान जी, तुम कहा हां?
कुछ सूझा नहीं मैनेजर को, सो उसने चाकू निकाल
कर रस्सी काट दी। हनुमान जी धड़ाम से गिरे मय पहाड़ के। लषमण जी तक उठ कर बैठ
गए--संजीवनी देने की जरूरत ही नहीं पड़ी। और रामचं( जी अपना पुराना ही रट लगाए हुए
हैं। वे कह रहे हैं कि भैया, संजीवनी ले आए?
हनुमान जी ने कहा: ऐसी की तैसी संजीवनी की! पहले यह बताओ, रस्सी किसने काटी?
रामलीला रामलीला है। उसका कोई मूल्य है? हनुमान जी तो एकदम
गुस्से में अपनी पूंछ उठा कर कि पहले इस मैनेजर के बच्चे को दिखाता हूं, फिर अभी लौट कर आता हूं!
अनुकरण करोगे--फिर चाहे वह गीता का हो, चाहे वेद का, चाहे धम्मपद का--कुछ लाभ नहीं। जीवन में शिक्षा तो अपने ही जीवन से लेनी
होती है। और जीवन में शिक्षा का एक ही उपाय है: जितनी भूलें कर सको, करो। हां, एक ही भूल दुबारा मत करना। नई-नई भूल करो
रोज-रोज। कम से कम भूलों की तो ईजाद करो, इतनी तो बुद्धि
दिखाओ! कम से कम नई-नई भूल तो करो। इतने तो आविशकारक होना ही चाहिए। लेकिन लोग
पिटी-पिटाई भूलें करते हैं। भूलें भी वही जो तुम्हारे बाप-दादे भी करते रहे,
तुम भी कर रहे हो। कुछ तो शर्म खाओ।
मैंने सुना है, एक आदमी टोपियां बेचने का काम करता था। इलेक्शन के
वक्त गांधी-टोपियां खूब बिकती हैं! तो काफी कमाई हो जाती थी। साल भर टोपियां ही
बनाता वह, इलेक्शन के वक्त गांधी-टोपी बेच लेता और बस साल भर
के लिए काफी हो जाता। क्योंकि एकदम इलेक्शन के वक्त गांधीवादी पैदा होते हैं। जो
देखो वही गांधीवादी! जिन्होंने गांधी को मारा, वे भी
गांधीवादी! वे भी गांधी-टोपी लगाते हैं। वह गांधी-टोपियां बेच कर बाजार से लौट रहा
था, रास्ते में थक गया था, एक वृक्ष के
नीच विश्राम करने लेटा। कुछ टोपियां बच गई थीं उसकी टोकरी में। सो गया, झपकी लग गई। बंदर वृक्ष पर थे, वे नीचे उतरे।
उन्होंने उस आदमी को टोपी लगाए देखा, उन्हें बात जंची।
उन्होंने सोचा: हम भी गांधीवादी हो जाएं! अरे जब सभी गांधीवादी हो रहे हैं! तो
पुराने समय में अपने पूर्वज रामजी के साथ रहे, तो हम भी
क्यों पीछे रहें!
सो उन्होंने टोकरी खोली, उसमें टोपियां मिल
गईं, तो सबने टोपियां लगा लीं और बैठ गए टोपियां लगा कर
वृक्ष के ऊपर। जब इस आदमी की नींद खुली, टोकरी का ढक्कन खुला
पड़ा था, टोपियां नदारद! यह बड़ा घबड़ाया। इसने कहा, टोपियां गईं कहां? कोई चुरा ले गया! तभी इसे
खिलखिलाहट की आवाज सुनाई पड़ी, बंदर हंस रहे थे। सब गांधीवादी
बने बैठे थे। एकदम दिल्ली का मजमा था। यूं समझो कि संसद हो। इसने कहा: अब करना
क्या, इनसे टोपियां कैसे लेना? और बंदर
खिल्ली उड़ा रहे उसकी, उसको अंगूठे दिखला रहे। उसको तत्काल
खयाल आया कि बंदर नकलची होते हैं; सो उसने अपनी टोपी,
जो एक ही टोपी उसके पास बची थी, जो वह खुद
लगाए था, वह निकाल कर एकदम फेंक दी। उसने निकाल कर फेंकी कि
बंदरों ने भी अपनी-अपनी टोपियां निकाल कर फेंक दीं; वे कोई
पीछे रह सकते हैं इस आदमी से। इसने समझा क्या है अपने को! इसने जल्दी से टोपियां
इकट्ठी कीं, अपनी टोकरी बंद की, भागा
घर की तरफ। अपने बेटे को जाकर समझाया कि देख खयाल रख, अब मैं
हो गया हूं बूढ़ा, कभी तेरी जिंदगी में ऐसा मौका आए तो खयाल
रखना कि बंदर होते हैं नकलची। टोपियां अगर चोरी ले जाएं, अपनी
टोपी फेंक देना, तो वे सब फेंक देंगे। घबड़ाना मत। मैं बहुत
घबड़ा गया था। वह तो यह कहो कि संयोग से एकदम मुझे यह याद आ गई कि बंदर नकलची होते
हैं, तो मैंने सोचा एक टोपी और दांव पर लगाने में हर्ज नहीं।
और सब टोपियां बचा कर आ गया हूं।
फिर कई वर्षों बाद बेटा टोपियां बेचने गया। लौटता था, उसी झाड़ के नीचे विश्राम करने रुका। बंदर उतरे, टोपियां
लगा कर झाड़ पर चढ़ गए। नींद खुली, मुस्कुराया। वे भी खिल्ली
उड़ा रहे थे, अंगूठे दिखा रहे थे। उसने भी कहा: करते रहो
खिल्ली, दिखाते रहो अंगूठा, अरे मुझे
तरकीब मालूम है! उसने अपनी टोपी निकाल कर फेंक दी। एक बंदर, जिसको
टोपी नहीं मिली थी, वह उतर कर वह टोपी भी लेकर चला गया। उन
बंदरों के बाप भी मर गए थे, वे भी सिखा गए थे कि बेटा,
आगे अगर कोई टोपियों का सौदागर इस तरह की हरकत करे तो टोपी उठा लाना,
अपनी टोपी मत फेंकना। बंदर सीख गए और आदमी ने नहीं सीखा।
तुम कहते हो लहरू कि हम ऐसे गधे हैं जो बार-बार उसी गङ्ढे में गिरते
चले जाते हैं।
तो उसका एक ही मतलब है कि और लोग कहते हैं उसको गङ्ढा, तुम उसे गङ्ढा नहीं मानते हो। तुम्हें तो लगता है--अहा, कितना प्यारा! और लोग कहते हैं। ये महात्मागण खड़े हैं गङ्ढे के बाहर और वे
कह रहे हैं: ये गङ्ढा है! और तुम्हें लगता है कि अहा, कितना
प्यारा! कितना मनोरम! एक दफा तो और गिर लें! एक दफा तो और गिर लेने दो! एक डुबकी
और मार लें! बहती गंगा, कौन हाथ न धो ले! और तुम कहते हो:
महात्मा जी, आप ठीक कह रहे हैं। पर एक डुबकी और। दिल नहीं
मानता। ये महात्मागण कहते हैं कि यह गङ्ढा है; यह तुम्हें
नहीं दिखाई पड़ता कि गङ्ढा है। जिस दिन तुम्हें दिखाई पड़ेगा कि गङ्ढा है, उसी दिन गिरना बंद हो जाएगा। और इनके कहने से तुम्हें दिखाई नहीं पड़ सकता।
इनके कहने से सिर्फ एक बात होगी--और वह यह होगी कि तुम गिरोगे तो ही गङ्ढे में,
सिर्फ अपराध-भाव और पैदा हो जाएगा--जो कि दोहरी महंगी बात हो गई।
गङ्ढे में गिरने में उतनी खराबी नहीं थी, जितनी अपराध-भाव
में खराबी है।
अब जैसे एक आदमी सिगरेट पी रहा है। मिल गए कोई महात्मा, उन्होंने कहा: शर्म नहीं आती सिगरेट पीते हुए! तुमने जल्दी से सिगरेट छिपा
ली। अब तुम्हें डर भी लगने लगा कि कहीं रास्ते में महात्मा जी न मिल जाएं कभी
सिगरेट पीते हुए! छिप कर पीने लगे। डर-डर कर! महात्माओं से बचो, पंडितों से बचो, पुरोहितों से बचो, शिक्षकों से बचो, मां-बाप से बचो, पत्नी से बचो...बचते ही रहो! लोग क्या-क्या, कितना
उपाय कर रहे हैं! कर क्या रहे हैं कुल जमा? धुआं भीतर ले गए,
बाहर लाए। इससे बचने के लिए कितने उपाय कर रहे हैं! और इस उपाय करने
में सिर्फ दो ही परिणाम हो रहे हैं। एक तो जिस चीज को तुम इतनी चोरी से करोगे,
उसमें रस आ जाता है, उसमें मजा ही आ जाता है।
कहते हैं: चुराए हुए चुंबन जितने मीठे होते हैं, दूसरे चुंबन
नहीं होते। बात में कुछ बात है। पते की बात है। बाजार से खरीद कर लाओ वे ही फल,
उनमें वह रस नहीं होता; पड़ोसी के झाड़ से तोड़
लो, फिर देखो कैसा मजा आता है! कच्चे भी हों तो भी स्वादिशट
मालूम होते हैं।
जिस चीज का निषेध हो, उस चीज में रस बढ़ जाता है। यही
तो ईसाइयों की प्राचीन कथा है कि ईश्वर ने कहा था अदम को और हव्वा को कि देखो,
इस वृक्ष के फल मत खाना; यह ज्ञान का वृक्ष है,
इसके फल खाओगे तो स्वर्ग से निशकासित कर दिए जाओगे। अब यह परमात्मा
भी खूब रहा! इसको मनोविज्ञान बिलकुल आता ही नहीं था। अ ब स नहीं आता था मनोविज्ञान
का। यह भी कोई कहने की बात थी! स्वर्ग में करोड़ों वृक्ष थे, अगर
यह आदम-हव्वा पर ही छोड़ देता तो अभी तक भी न खोज पाए होते यह कि कौन सा वृक्ष
ज्ञान का वृक्ष है! मगर इसने खुद ही बता दिया कि यह ज्ञान का वृक्ष है, इसके फल मत खाना। अब उनकी नींद हराम हो गई होगी। अब उनको चैन न पड़ती होगी।
जब भी उस वृक्ष के पास से निकलते होंगे, दिल कुलबुलाता होगा।
एकदम गुदगुदी होती होगी कि पता नहीं इसमें क्या राज है! तभी तो वह शैतान उनको भरमा
सका। शैतान सांप बन कर आया। अरे उसने कहा कि तुम्हें पता नहीं, परमात्मा रोक रहा है ईशर्या के कारण! क्योंकि तुम अगर इसके फल खा लोगे तो
तुम भी उतने ही ज्ञानी हो जाओगे जितना परमात्मा है। और वह नहीं चाहता कि कोई और
ज्ञानी हो। ईशर्यालु है। जलन से मरा जा रहा है। तुमको अज्ञानी रखना चाहता है।
यह बात जंच गई। उसने पहले पत्नी को जंचाई। इसलिए सभी विक्रेता पहले पत्नियों
के पास पहुंचते हैं--तभी से! तुम गए दफतर कि विक्रेता आए घर, कि यह मशीन खरीद लो, कि यह जूसर खरीद लो, कि यह सिलाई की मशीन बड़ी गजब की आई है, कि यह साड़ी,
इसके बिना तो जीवन व्यर्थ है, अकारथ है! तुम
जाओ दफतर और विक्रेता बाहर रास्ता देख रहे हैं कि तुम कब जाओ दफतर, क्योंकि पहले पत्नियों को समझाना पड़ता है। पत्नियां समझ में आ गईं,
तुम्हारा क्या बलबूता है!
वह पहला विक्रेता शैतान था। लेकिन ईश्वर खुद ही उसके हाथ में खेल गया।
उसने हवा को राजी कर लिया पत्नी को कहा कि तुम सब पागल हो, ये फल चख लो, ये बड़े स्वादिशट हैं! और इनके रस में
ऐसा गजब है कि तुम भी परमात्मा जैसे हो जाओगे। यह परमात्मा ईशर्यालु है। वह
तुम्हें अज्ञानी का अज्ञानी रखना चाहता है। तुम्हारी मर्जी! अज्ञानी रहना हो,
अज्ञानी रहो।
अब स्त्री को कोई विक्रेता समझाए, बस मामला मुश्किल हो
जाता है। उसने पति को राजी कर लिया। अदम पहला पति है, फिर
बाकी पति उसी के पीछे चल रहे हैं। हां-हूं की होगी थोड़ी, ना-नू
की होगी थोड़ी, लेकिन पत्नी फिर जिद पर अड़ गई होगी, बाल खींचने लगी होगी, रोने-गाने लगी होगी। उसने सोचा
कि चलो झंझट मिटाओ। और उसके मन में भी लगा होगा, हो न हो यह
बात सच हो। आखिर परमात्मा ने क्यों रोका?
जब तुम अपने बच्चे से कहते हो कि सिगरेट मत पीना, तो वह भी सोचता है कि क्यों, क्यों नहीं पीना?
सारी दुनिया पी रही है, इतने लोग पी रहे
हैं--और सिर्फ मैं न पीऊं? जरूर कुछ राज है। पीकर देखूं तो!
बस वही भूल हुई। वही भूल चलती चली जाती है।
दूसरे तुमसे कह रहे हैं कि यह गङ्ढा है। सब तुमसे कह रहे हैं कि यह
गङ्ढा है। तुम भी सिर हिलाते हो, क्योंकि इतनी बार कहा गया है कि
तुम्हारे मन में भी यह बात बैठ गई है कि यह गङ्ढा है। तुममें इतनी हिम्मत भी नहीं
रही है कि तुम यह कह सको कि मुझे यह गङ्ढा नहीं दिखाई पड़ता; मुझे
तो लगता है बड़ी प्यारी श्या है, मैं तो इस पर लेटूंगा!
तुममें इतना बल भी नहीं रहा कि तुम यह कह सको। बस और कहते हैं कि गङ्ढा है। और सभी
कहते हैं! और इतनी पुरानी परंपरा, इतने कहने वाले लोग,
उनके इतने तर्क!
मैं जब विश्वविद्यालय से पहली दफा घर आया तो स्वभावतः मेरे पिता, मेरी मां चाहते थे कि मेरा विवाह हो जाए। कौन माता-पिता न चाहे! लेकिन
मेरे पिता मेरी एक आदत से परिचित थे कि अगर मैंने एक दफा नहीं कह दिया तो फिर इस
दुनिया में कोई उपाय नहीं, जो मुझसे हां भरवाई जा सके। सो वे
सीधे मुझसे पूछना नहीं चाहते थे, क्योंकि एक दफा मैंने उनको
नहीं कह दिया तो बात खत्म हो गई। और हां मैं कहूंगा, इसकी
संभावना उन्हें कम लगती थी। सो अपने एक मित्र वकील को उन्होंने कहा--वकील थे--उनको
कहा कि भई तुम वकील भी हो, समझदार भी हो, तार्किक भी हो; तुम इसे अगर समझा दो तो अच्छा हो।
वकील को चुनौती मिली। उन्होंने कहा: मैं समझा दूंगा। यह छोकरा समझता क्या है अपने
को! मेरी जिंदगी अदालत में बीती। अरे बड़े-बड़े मुकदमे जीते। जिनमें हार निश्चित थी,
वे मुकदमे जीते। हत्यारों को छुड़ा लाया। तो इसको तो सिर्फ इस बात के
लिए राजी करना है शादी के लिए, कोई फिक्र की बात नहीं। यह
कितना ही तर्क करे, कोई फिक्र की बात नहीं।
वे आए। बड़ी बातें करने लगे। मैंने कहा कि आप सब ठीक कह रहे हैं, पहले एक बात तय हो जाए: निर्णायक कौन होगा? तो हम
निर्णायक भी तय कर लें। आप तो जानते ही हैं, वकील हैं,
एक मजिस्ट्रेट भी होना चाहिए। नहीं तो हम विवाद करते रहें, हल कौन करेगा?
तो उन्होंने कहा: यह बात तो ठीक है।
तो मैंने कहा: आप जिसको कहें, उसको मैं राजी हूं।
और दूसरी बात यह तय कर लें कि अगर आप जीत गए तो निश्चित मैं शादी करूंगा, लेकिन अगर मैं जीत गया तो? आपको तलाक देना पड़ेगा।
उन्होंने मुझे गौर से देखा कि यह...यह जरा झंझट की बात है। कहने लगे:
मैं बाल-बच्चे वाला आदमी हूं।
मैंने कहा: यह तुम जानो। मैं बाल-बच्चे वाला आदमी नहीं हूं। अगर तुम
बाल-बच्चे वाले आदमी हो तो सोच-समझ लो, विचार कर लो
बाल-बच्चों से, पत्नी से।
दोत्तीन दिन वे आए ही नहीं, तो मैं उनके घर
पहुंचा--कहां हैं वकील साहब? उनकी पत्नी ने कहा: वे घर पर
नहीं हैं। लेकिन जिस ढंग से कहा, मैं समझ गया कि वे घर पर
हैं। मैंने कहा कि यह नहीं चलेगा। मैं यहीं बैठा रहूंगा। कभी तो आएंगे! जब भी
आएंगे, यह निर्णय होना ही है। क्योंकि मेरी जिंदगी का सवाल
है।
उनकी पत्नी ने कहा कि तुम्हारी जिंदगी का सवाल है कि हमारी जिंदगी का
सवाल है? वे घर पर नहीं हैं, मैंने कह
दिया, वे बाहर गए हैं। वे दोत्तीन दिन नहीं लौटेंगे। मैंने
कहा: मैं दोत्तीन दिन यहां रुकूंगा। तब वकील साहब भी बाहर निकल आए, जब उन्होंने देखा कि दोत्तीन दिन तक रुकने की बात है, कब तक छिपे रहेंगे! वे बोले: भाई हम हाथ जोड़ते हैं। हमसे भूल हो गई जो
हमने तुमसे कहा।
मैंने कहा: आप क्या सोचते थे कि विवाद एकतरफा हो सकता है? आप तो बड़े-बड़े मुकदमे जीते, मैं तो जिंदगी में कोई
मुकदमा जीता ही नहीं, यही पहला मुकदमा था मेरा। और आप बिना
लड़े हारे जा रहे हो!
मैंने कहा: इतनी क्या घबड़ाहट? इतनी क्या परेशानी?
ऐसा लगता है कि तुम्हारा अनुभव भी यही कह रहा है कि अब हम तो फंस गए,
अब किससे क्या कहना! और तुम जानते हो कि तुम सिद्ध न कर सकोगे,
क्योंकि सारे महात्मा मेरे पक्ष में हैं। सदियों-सदियों से सारे महात्मा
मेरे पक्ष में हैं। उन सबको मैं गवाही में खड़ा करूंगा। और मैं ऐसे पीछा छोड़ने वाला
नहीं हूं। या तो तुम लिखित दो कि मैं हाथ जोड़ता हूं, मैं
क्षमा मांगता हूं कि कभी ऐसी भूल नहीं करूंगा, अब किसी को
विवाह के संबंध में नहीं समझाऊंगा। और या फिर मैं यहां रोज आकर बैठूंगा। और मैं
गांव भर में खबर कर रहा हूं कि यह आदमी भाग रहा है। इसी ने चुनौती दी है और यह
आदमी भाग रहा है!
वे कहने लगे मुझे बगल में ले जाकर कि भैया, मुझे भी मालूम है कि है तो गङ्ढा ही। वह तो तुम्हारे पिताजी ने मुझे कहा
तो मैंने सोचा, समझा दूंगा।
मैंने कहा: मुझे गङ्ढे में गिराने में तुम्हें शर्म न आई? और जब गङ्ढा है तो निकलते क्यों नहीं, जब मैं
निकालने को तैयार हूं?
मगर गङ्ढा और कहते हैं। तुमने मान लिया है; तुम्हारा अनुभव नहीं कहता। तुम्हारा अनुभव कहे तो तुम भाग खड़े होओ।
बुद्ध से किसी ने पूछा कि हम कैसे छूट जाएं गलतियों से?
बुद्ध ने कहा: गलतियों से छूट जाएं, यह सवाल उठता नहीं।
जिस दिन गलती दिखाई पड़ जाती है, तुम छूट जाते हो। जिसके घर
में आग लगी हो, वह यह नहीं पूछता कि मैं बाहर कैसे निकल आऊं;
वह तो कूद जाता है। अगर वह बाथरूम में नंगा भी नहा रहा हो, तो भी फिक्र नहीं करता कि टॉवल भी लपेट लूं। वह नंग-धड़ंग ही कूद जाता है,
दिगंबर ही। और लोग भी क्षमा कर देंगे कि भाई, घर
में आग लगी है, इस हालत में कोई शिशटाचार नियम इत्यादि का
पालन नहीं किया जा सकता। कोई भी यह नहीं कहेगा कि तुम्हें शर्म नहीं आती कि बाथरूम
की खिड़की में से कूद रहे! अरे बाहर के दरवाजे से निकलना चाहिए भले आदमी की तरह!
कोई तुम चोर-चपाटी हो? लेकिन घर में आग लगी है तो कोई
नियम-व्यवस्था मानी जाती है? जब घर में आग लगी है तो सब उचित
है।
जिस दिन तुम्हें दिखाई पड़ जाए--बुद्ध ने कहा--कि तुम्हारे घर में आग
लगी है, तुम छलांग लगा कर बाहर हो जाओगे।
लहरू, तुम कहते हो कि हम ऐसे गधे हैं जो बार-बार उसी गङ्ढे
में गिरते चले जाते हैं।
न तो तुम्हें पता है कि तुम गधे हो। कह रहे हो। क्योंकि गधे को भी यह
पता चल जाए कि वह गधा है तो वह गधा नहीं रहा। जिस गधे को यह पता चल गया कि मैं गधा
हूं, वह गधा नहीं रहा। उसका गधापन खत्म! जिसने जान लिया कि
मैं अज्ञानी हूं, उसमें ज्ञान की पहली किरण उतरी। और तुम्हें
अगर समझ में आ गया है कि यह गङ्ढा है...तुम्हें आना चाहिए समझ में! वही मेरा जोर
है--सतत! निरंतर! तुम्हें समझ में आना चाहिए। मैं कहूं, इससे
क्या होगा? दुनिया कहे, इससे क्या होगा?
सारी दुनिया के महात्मागण कहें, इससे क्या
होगा? तुम्हें समझ में आना चाहिए। तुम्हें समझ में न आए तो
कोई लाख उपाय करता रहे, तुम बचने के रास्ते निकालते रहोगे।
मैंने सुना है, चंदूलाल करीब एक माह से मुल्ला नसरुद्दीन के घर में
जमे हुए मेहमानबाजी का सुख भोग रहे थे। स्वभावतः, जब मेहमान
सुख भोगता है तो मेजबान दुख भोगता है। ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। शुरू
से ही मुल्ला नसरुद्दीन ने हटाने की कोशिश की, मगर कोई उपाय
काम ही न आए। जैसे ही पहले दिन ही आते देखा था कि तांगे से उतर रहे हैं चंदूलाल,
वह इतने जोर से अपनी पत्नी से लड़ने लगा। पत्नी को उसने कहा कि हो
जाने दे! जितना तेरे दिल में गुबार भरा हो जिंदगी का, इसी
वक्त निकाल दे! यह चंदूलाल अगर डर जाए कि ऐसे घर में क्या रहना, जहां ऐसी मारपीट चल रही है, कि कोई हत्या होगी,
कि पुलिस आएगी, कि क्या होगा, एकदम खून-खराबे की हालत कर दे खड़ी!
पत्नी ने भी कर दी खड़ी। और मुल्ला भी एकदम उठा कर डंडे और खाट पर
बजाने लगा। और पत्नी चिल्लाए कि अरे मार डाला! अरे मार डाला! मारी गई! अरे हत्यारे!
दस-पं(ह मिनट जब यह नाटक चला और बाहर सन्नाटा रहा, किसी ने द्वार पर भी
दस्तक न दी, सांझ का वक्त, तो मुल्ला
नसरुद्दीन ने झांक कर देखा--तांगा भी जा चुका है, चंदूलाल भी
नदारद हैं। बड़ा प्रसन्न हुआ। दोनों बाहर आए। सांझ का वक्त है। खाट बाहर पड़ी है,
दोनों खाट पर बैठ गए। नसरुद्दीन ने कहा कि देख, मैंने भी क्या पिटाई की! खाट तो टूट गई, मगर क्या
पिटाई की!
और पत्नी ने कहा: फिर मैंने भी क्या चीख-पुकार मचाई! हालांकि मेरा गला
लग गया।
और तभी चंदूलाल खाट के नीचे से निकले और उन्होंने कहा: मैं भी क्या
भागा!
तब से वे महीने भर से वहीं जमे थे। अब समझना ही न चाहे कोई...। जब
महीना भर पूरा हो गया और सब तरह के कशट झेल-झेल परेशान हो गए...और चंदूलाल हर चीज
में अड़ंगेबाजी भी लगाएं--आज यह सब्जी, कल वह सब्जी; आज यह बनाओ, कल वह बनाओ; आज
सिनेमा देखेने चलो, आज नाटक देखने चलो! मांग पर मांग! जीना दूभर
कर दिया। आखिर मुल्ला नसरुद्दीन ने एक दिन कहा कि भैया चंदूलाल, महीना भर हो गया, आखिर पति हो तुम, पत्नी की भी सोचो! पत्नी-बच्चे दुखी होते होंगे, परेशान
होते होंगे, राह देखते-देखते थक गए होंगे।
अरे--उन्होंने कहा--यह तुमने पहले क्यों नहीं कहा! कल ही तार कर देते
हैं।
नसरुद्दीन सोच रहे थे कि वे जाएंगे, उन्होंने तार करके पत्नी-बच्चों
को भी बुला लिया। और मुसीबत पर मुसीबत हो गई। अब तो वे ऐसे जमे जैसे घर उनका हो और
नसरुद्दीन वगैरह मेहमान! पत्नी से बात करने तक का मौका न मिले नसरुद्दीन को,
क्योंकि कभी चंदूलाल जमे हैं, कभी उसकी पत्नी
जमी है, कभी बच्चे खेल रहे हैं। और चंदूलाल के खिलाफ ही बात
करनी है दोनों को कि अब इनसे कैसे छुटकारा पाना। एक दिन मुल्ला ने कहा कि आज जरा
मैं बाहर जा रहा हूं, शायद रात लौटूंगा नहीं, इसलिए तुम सो जाना चंदूलाल। मेरी राह मत देखना। और पत्नी से कह गया कि मैं
बारह बजे के करीब आऊंगा, जब ये सब सो जाएंगे, धीरे से दरवाजा खटखटाऊंगा। तो तू दरवाजा खोल देना, तो
अपने को जो बात करनी है वह कर लेंगे। बारह बजे धीरे से दरवाजा खटखटाया। किसी ने
आहिस्ता से उठ कर दरवाजा खोला। देखा, चंदूलाल सामने खड़े हैं।
कहा कि आओ-आओ, अभी-अभी एक कविता लिखी है। बस तुम्हारी राह ही
देख रहा था। क्या मौके पर आ गए! सुनो।
उन्होंने अपना काव्य-पाठ शुरू कर दिया। उनकी कविता और जान लिए ले रही
थी। क ख ग कविता का आए नहीं, मगर कविताएं वे ऐसी लंबी करें!
पति-पत्नी ने किसी तरह उपाय निकाला कि अब कुछ और करो, किसी
भी बहाने को लेकर अब तो इनसे छुटकारा पाना ही होगा। दूसरे दिन सुबह भोजन करते वक्त
झगड़ा हो गया सूप के ऊपर। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा कि मैं तो कहूंगा कि यह बिलकुल
ठंडा सूप है, तू घर से निकल जा! एक मिनट इस घर में मत रुक।
तलाक देने को तैयार हो जाऊंगा। अगर चंदूलाल राजी हो जाए कि सूप ठंडा है तो मैं उसे
भी कहूंगा कि तू भी निकल बाहर हो! तू भी चला जा इसी के साथ! न मुझे यह पत्नी चाहिए,
न तू चाहिए, न तेरे पत्नी-बच्चे...सबको निकाल।
उस गुस्से में बात चल जाएगी। और तू कहना कि सूप गरम है। अगर चंदूलाल कहे कि गरम है
तो तू मुझ पर चिल्लाना कि निकल जा बाहर, हो जा घर के बाहर!
हमें नहीं रहना तेरे साथ! जब हमारी किसी बात में मेल ही नहीं खाता तो क्या सार है
साथ रहने से? क्यों जिंदगी खराब करना? अगर
चंदूलाल राजी हो कि सूप गरम है, तो तू उसको भी चिल्ला देना
कि तू भी निकल बाहर हो! तुझसे हमें क्या लेना-देना? इन्हीं
का दोस्त है, तू भी जा! न हमें दोस्त चाहिए, न यह नसरुद्दीन चाहिए। भाड़ में जाओ!
दोनों लड़े--सूप गरम कि ठंडा। और चंदूलाल आहिस्ता से सूप चम्मच-चम्मच
पीते रहे। बड़ी देर हो गई लड़ाई होते-होते, चंदूलाल कुछ बोलें ही
न। आखिर नसरुद्दीन ने कहा कि भाई तुम बोलते क्यों नहीं, तुम
तो कुछ कहो!
चंदूलाल ने कहा: मुझे कुछ नहीं कहना, मुझे अभी महीने भर और
रुकना है। जैसा भी है, सब प्रभु की कृपा है! जैसा भी है,
अच्छा है। अरे सब चीज में संतोष रखना चाहिए। संतोषी सदा सुखी। अब
क्या ठंडा-गरम।
अब जिद किए हो न समझने की तो बात अलग, अन्यथा जिंदगी सब
समझा देती है। जिंदगी से बड़ा पाठ क्या है लहरू? और तुम मुझसे
पूछ रहे हो कि आप सीधा मार्गदर्शन दें। जो भी मैं कह रहा हूं, सीधी-सादी बात कह रहा हूं। तुम कह रहे हो: हम सोए हुए हैं। वह तो मुझे पता
है। इसलिए तुम्हें झकझोर रहा हूं। तुम्हें हिला-डुला रहा हूं। तुम पर चोटें भी
करता हूं, बेरहमी से चोटें करता हूं! तुम्हारी धारणाओं को
तोड़ता हूं। तुम्हें नाराज भी कर देता हूं, तुम्हें क्रुद्ध
भी कर देता हूं, क्योंकि तुम्हारी धारणाएं तोड़ना तुम पसंद
नहीं करते। लेकिन यही एक उपाय दिखता है कि शायद तुम जाग जाओ।
जैसे कोई सुबह-सुबह अपने कंबल में छिपा दुबका पड़ा है, सुबह की मीठी-मीठी ठंड और वह मजा ले रहा है सुबह की नींद का। सुबह जो मजा
आता है नींद में, वह कभी भी नहीं आता। और तुम उसका कंबल छीनो
और तुम उसका हाथ खींच कर बाहर निकालो, तो वह नाराज तो होगा
ही, झगड़ा-झांसा खड़ा करेगा। चाहे उसने ही तुमसे कहा हो कि
सुबह मुझे उठा देना, तो भी वह कहेगा कि नहीं भाई, मुझे नहीं उठना, क्षमा करो, भूल
हो गई जो मैंने तुमसे कहा। अभी थोड़ी देर आराम कर लेने दो।
तुम सो रहे हो, वह मुझे पता है। सो रहे हो, इसीलिए
सारे उपाय कर रहा हूं कि किसी तरह तुम जग जाओ। तुम्हें झकझोर रहा हूं। तुम जग जाओ
तो तुम्हारे जीवन में चीजें दिखाई पड़ने लगें। अभी तो तुम सपने देख रहे हो।
तुम्हारा धार्मिक होना भी अभी एक सपना है। अभी तो तुम जो भी करोगे, वह सपना होगा। तुम जाकर साधु हो जाओ, सपना होगा। तुम
त्यागी-व्रती हो जाओ, सपना होगा। तुम यह छोड़ दो, वह छोड़ दो, घर-द्वार छोड़ दो, गुफा
में बैठ जाओ--क्या करोगे गुफा में बैठ कर? और-और सपने
देखोगे। और गहरी नींद में खो जाओगे। बाजार के शोरगुल में न जगे तो तुम गुफा में
जगोगे? बाजार का उप(व न जगा पाया, तो
तुम सोचते हो कि जाकर गुफा की शांति में तुम जग जाओगे? और
सुखद नींद आ जाएगी। कंबल और खींच कर, ओढ़ कर सो जाओगे। मैं
जानता हूं कि तुम सो रहे हो। लेकिन तुम जाग सकते हो, यह
तुम्हारे सोने में छिपा हुआ राज है। जो सोया है, वह जाग सकता
है। जो भटक गया है, वह मार्ग पर आ सकता है। जो गिर पड़ा है,
वह उठ सकता है। जो गिरने में समर्थ है, वह
उठने में समर्थ है। और जो सोने में समर्थ है, वह जागने में
समर्थ है। तुम्हारी नींद तुम्हारे जागने की क्षमता की घोषणा है।
इसलिए मैं तुम्हारी नींद की निंदा नहीं करता। तुम्हारी नींद को तोड़ना
तो चाहता हूं, लेकिन तुमसे यह भी कहना चाहता हूं कि तुम्हारी नींद
तुम्हारे जागने की क्षमता की सूचक है। घबड़ाओ मत। जिंदगी ही जगाएगी। ये जिंदगी के
कंटकाकीर्ण रास्ते ही तुम्हें जगाएंगे। इसलिए मैं तुम्हें जिंदगी से नहीं हटा लेना
चाहता हूं। मैं चाहता हूं: मेरे संन्यासी जीवन जीएं। क्योंकि मुझे नहीं लगता कि
जीवन के अतिरिक्त और कोई तपश्चर्या है। और सब नाटक है। जीवन तपश्चर्या है। पत्नी
के साथ रहना, पति के साथ रहना, बच्चों
के साथ रहना, मां-बाप के साथ रहना, सास-ससुर
के साथ रहना--तुम और बड़ी तपश्चर्या खोज सकते हो? तुम सोच रहे
हो कि जो एक दफा भोजन करते हैं, वे तपश्चर्या कर रहे हैं?
तुम सोचते हो जो नंगे खड़े हैं, वे तपश्चर्या
कर रहे हैं? वे छोटे से अभ्यास की बातें हैं, उनका कोई बड़ा मूल्य नहीं है। जो स्त्री अपनी सास को सह रही है, उससे पूछो तपश्चर्या क्या है!
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन अपने कुत्ते को लेकर--प्यारा कुत्ता, कीमती कुत्ता--डाक्टर के पास पहुंचा, कहा: इसकी पूंछ
काट दो!
डाक्टर ने कहा: तुम होश में हो? इतना प्यारा कुत्ता,
पूंछ काट दोगे, बेकार हो जाएगा, दो कौड़ी का हो जाएगा। और अभी-अभी तुमने दो हजार रुपये में खरीदा है।
मुल्ला ने कहा: तुम फिक्र छोड़ो जी, पूंछ काटो! जो
तुम्हारी फीस हो, तुम लो। तुम्हें इस सबमें पड़ने की जरूरत
नहीं है। राज में तुम्हें उलझने की जरूरत नहीं है। यह राज राज रहने दो। मगर इसकी
पूंछ जल्दी काटो!
डाक्टर ने कहा कि काट देता हूं भैया, तुम कहते हो तो मैं
पूंछ काट देता हूं। लेकिन मुझे बता तो दो, नहीं तो यह
जिज्ञासा मुझे रात भर जगाए रखेगी कि बात क्या थी! इतना सुंदर कुत्ता, पूंछ काट कर खराब क्यों कर रहे हो?
उसने कहा कि बात यह है कि मेरी सास आने वाली है और मैं घर में कोई ऐसा
चिह्न नहीं छोड़ना चाहता जिससे उसे स्वागत का पता चले। और यह दुशट पूंछ हिलाएगा!
इसको मैं समझा रहा हूं आज तीन दिन से कि बेटा पूंछ नहीं हिलानी। मैं कहता हूं पूंछ
नहीं हिलानी, वह मुझे ही पूंछ हिलाता है। यह मूरख है। यह सुनता ही
नहीं है। यह जब तक इसकी कटेगी नहीं, मानेगा नहीं। और इसने
अगर पूंछ हिलाई तो बस समझ लो कि सास टिक गई। इतना अभिनंदन काफी है। पहले मैं नरक
में विश्वास नहीं करता था, लेकिन मेरी पत्नी और मेरी सास,
दोनों ने मिल कर मुझे नरक में विश्वास करा दिया कि नरक है, स्वर्ग हो या न हो! दोनों के बीच में पिसा जा रहा हूं। पहले मैं कबीर के
वचन का अर्थ नहीं समझता था--दो पाटन के बीच साबित बचा न कोय। यह मेरी सास ने और
मेरी पत्नी ने मुझे समझाया कि इसका अर्थ बच्चू यह है! जब मैं ही साबित नहीं बचा,
मेरा कुत्ता कैसे बचेगा? तू भैया काट! इसकी
पूंछ काट! मुझ अभागे का कुत्ता है, यह कब तक पूंछ बचा सकता
है अपनी! मेरी कट गई, इसकी भी कटेगी।
तपश्चर्या! तुम जरा देखते हो, घर में दस-पं(ह
बच्चे--और तपश्चर्या क्या चाहते हो? जरा किसी महात्मा के
आसपास दस-पं(ह बच्चे बिठा दो, अगर दोत्तीन दिन में महात्मा
भाग न जाए तो तुम मुझसे कहना। महात्मा कहेगा: हम तो अपनी धूनी रमाएंगे। उसे में
ज्यादा शांति थी। ये दस-पं(ह बच्चे तो जान लिए ले रहे हैं। ये तो खा जाएंगे। कोई
इधर खींचता है, कोई उधर खींचता है।
मुल्ला नसरुद्दीन ट्रेन में जा रहा था--अपने सब एक दर्जन बच्चों को
साथ लिए। बार-बार चपत पर चपत लगा रहा था। एक औरत सामने ही बैठी थी। आखिर उसके बर्दाश्त
के बाहर हो गया। उसने कहा: सुनो जी, हालांकि मुझे क्या
लेना-देना, मगर मेरे देखने के बर्दाश्त के बाहर है। यह बच्चा
तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ रहा है और तुम उसे क्यों मार रहे हो? और तुम मारे ही चले जा रहे हो! अगर तुमने एक हाथ उसे और मारा तो मैं वह
मजा चखाऊंगी कि जिंदगी भर याद रहेगा।
उसने कहा: और सुन लो! तू भी मजा चखाएगी, जिससे मुझे कुछ
लेना-देना नहीं! अरे मैं वैसे ही कोई कम मजा चख रहा हूं, जो
तू मुझे मजा चखाएगी! तो सुन! मेरी पत्नी ड्राइवर के साथ भाग गई है और ये बारह
बच्चे मेरे लिए छोड़ गई है। बड़ी लड़की घर आई है, वह गर्भवती है
बिना विवाह के। उससे मैंने पूछा कि बाई कम से कम यह तो बता, यह
है कौन तेरे बच्चे का बाप? वह कहती है, मुझे कुछ पता नहीं। तो मैंने उससे कहा कि तुझे पढ़ाया-लिखाया, कम से कम इतना तो पूछ लेती कि भैया, तुम्हारा नाम
क्या है?...और यह छोटा बच्चा, जिसको
मैं पीट रहा हूं, यह टिकिट चबा गया। और अभी-अभी मुझे पता चला
है कि हम गलत गाड़ी में बैठे हुए हैं। और तू मुझे मजा चखाएगी! चखा ले बाई, तू भी चखा ले! अब और क्या बचा है मजा चखाने को! चली चल, तू मेरे संग चल! जो भी कर्म-फल हों, भोग लूं।
तपश्चर्या है जीवन! दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि तुम सब भोग
रहे हो इसलिए दिखाई नहीं पड़ता। मगर अगर गौर से देखोगे तो मेरे हिसाब में न तो
पहाड़ों पर, न आश्रमों में, न गुफाओं
में ऐसा तप है जैसा तप तुम कर रहे हो। चौबीस घंटे अंगारों पर बैठे हुए हो, अंगारों पर चल रहे हो। अगर यहां न जग सके लहरू, तो
कहां जगोगे? अगर इतनी चोटों में भी न जगे तो फिर कहीं न जग
सकोगे।
यह संसार परमात्मा की ईजाद है आदमी को जगाने के लिए। यहां सोए हुए
आदमी भेजे जाते हैं, ताकि जग जाएं। इसलिए मैं कहता हूं कि अनुभव से सीखो।
तुम्हारा अनुभव एकमात्र शिक्षक है। अप्प दीपो भव! उसे ही अपना दीया बनाओ। अपने
दीये खुद बनो!
सब आंखों के आंसू उजले, सबके सपनों में सत्य
पला!
जिसने उसको ज्वाला सौंपी
उसने इसमें मकरंद भरा,
आलोक लुटाता वह घुल-घुल
देता झर यह सौरभ बिखरा!
दोनों संगी, पथ एक किंतु कब दीप खिला? कब
फूल जला?
वह अचल धरा को भेंट रहा
शत-शत निर्झर में हो चंचल,
चिर परिधि बना भू को घेरे
इसका नित उर्मिल करुणा जल!
कब सागर उर पाषाण हुआ? कब गिरि ने निर्मम तन
बदला?
नभ तारक सा खंडित पुलकित
यह क्षुर-धारा को चूम रहा
वह अंगारों का मधु-रस पी
केशर-किरणों सा झूम रहा!
अनमोल बना रहने को कब टूटा कंचन हीरक पिघला?
नीलम मरकत के सम्पुट दो
जिनमें बनता जीवन-मोती,
इसमें ढलते सब रंग-रूप
उसकी आभा स्पंदित होती।
जो नभ में विद्युत-मेघ बना, वह रज में अंकुर हो
निकला!
संसृति के प्रति पग में मेरी
सांसों का नव अंकन चुन लो,
मेरे बनने, मिटने में नित
अपनी साधों के क्षण गिन लो।
जलते-खिलते बढ़ते जब में घुलमिल एकाकी प्राण चला!
सपने-सपने में सत्य ढला!
तुम्हारे स्वप्न में भी सत्य की छाया पड़ रही है और तुम्हारी नींद में
भी जागरण का बीज पड़ा है। वही से अंकुरित होगा। और जीवन ही एकमात्र अवसर है। भागो
मत। भागना आसान है।
लोग सोचते हैं कि मैंने संन्यास को आसान कर दिया है, क्योंकि मैं अपने संन्यासी को घर छोड़ने को नहीं कह रहा हूं। लोग गलत सोचते
हैं। मैंने अपने संन्यास को अति कठिन कर दिया। पुराना संन्यास बिलकुल सस्ता है,
दो कौड़ी का है। घर कौन कहीं छोड़ना चाहता? तुम
जरा खुद से ही पूछो। घर छोड़ने की बात तो कितनी बार मन में नहीं आ जाती! कितनी बार
घर छोड़ने की ही बात मन में नहीं आती, कितनी ही बार आत्महत्या
तक करने की बात आ जाती है। वहां तक जिंदगी आदमी को दुख दे देती है कि आदमी सोचता
है: मर ही जाऊं! खतम ही कर लूं अपने को! क्या सार है? क्यों
सहूं इतने धक्के? इतनी पीड़ाएं? क्यों
इतना परेशान होऊं? किसलिए? क्या मिल
जाएगा?
संसार से भागने की तो बहुत बार वृत्ति उठती है। और कम से कम इस देश
में, जहां की परंपरा भगोड़ों की है बड़ी आसानी से। यहां तो
हमने भगोड़ेपन को इतना सम्मान दिया है कि जिसका हिसाब नहीं। इसलिए हमारे देश में आत्महत्याएं
कम होती हैं, उसका कुल कारण हमारी पुरानी संन्यास की परंपरा
है। सारी दुनिया में आत्महत्याएं ज्यादा होती हैं, क्योंकि
वहां दूसरा कोई उपाय ही नहीं है। अगर बचना है तो मरो। हमने एक और तरकीब निकाल ली।
हम पुराने अनुभवी लोग हैं। हमने संन्यास निकाल लिया। हमने कहा कि मरने की क्या
जरूरत है? अरे भाग जाओ! और संन्यासी को हम भगोड़ा नहीं कहते,
पलायनवादी नहीं कहते--त्यागी! व्रती! उसको हम बड़ा सम्मान देते हैं,
बड़ा आदर देते हैं। अगर कोई युद्ध के मैदान से पीठ दिखा दे तो उसको
हम कहते हैं--कायर। मगर अगर हमें कायर न कहना हो और बात को सम्मान देना हो तो हम
कहते हैं--रणछोड़दास जी! कृशण ने पीठ दिखा दी तो रणछोड़दास जी और तुम पीठ दिखा दो तो
कायर। तुम भाग खड़े हो जंगल की तरफ तो कायर।
लेकिन हमने इस देश में कायरता को बड़ा सुंदर बाना पहना दिया। हमने खूब
फूलमालाएं चढ़ा दीं। चरणों में झुक-झुक हम नमस्कार करने लगे। हमने पलायनवाद को इतना
सम्मान दिया कि पलायनवाद धार्मिक होने का पर्यायवाची हो गया। यह सस्ता संन्यास इस
देश से धर्म को नशट किया।
मैं संन्यास को कठिन बना रहा हूं। मैं कह रहा हूं: दुकान पर बैठ कर, बाजार में रुक कर, घर में--जहां कि तपश्चर्या ही
तपश्चर्या है! कुछ और करना नहीं है, कुछ और धूनी वगैरह नहीं
रमानी है। धूनी तो रमी हुई है। कुछ और तुम्हें त्रिशूल वगैरह छेदने की जरूरत नहीं
है; छिदे हुए हैं। कुछ कांटे बिछा कर और श्या बनाने की
जरूरत नहीं है; कांटे की श्या पर तुम सो रहे हो। तुम्हारी
जिंदगी कांटों से भरी है, अब और क्या करना है?
इस जीवन को ही जीओ। और धीरे-धीरे समझपूर्वक जीओ--कि मैं क्या कर रहा
हूं? क्यों कर रहा हूं? और मुझे जीवन
से क्या मिल रहा है? अगर सुख मिल रहा है, तो खूब जीओ, जी भर कर जीओ! और अगर दुख मिल रहा है,
तो जिस-जिस चीज से दुख मिल रहा है, उसको
विसर्जित करो। अगर क्रोध दुख देता है, तो क्रोध को विसर्जित
करो। अगर ध्यान आनंद देता है, तो जितनी ऊर्जा क्रोध में
लगाते हो, उतनी ऊर्जा ध्यान में लगाओ। ऐसे रूपांतरण होगा।
गङ्ढे में ही गिरना है तो क्रोध के गङ्ढे में क्यों गिरना, ध्यान
के गङ्ढे में गिरो! अगर गङ्ढे में ही गिरना है तो पद-प्रतिशठा, महत्वाकांक्षा, अहंकार, इनके
गङ्ढों में क्यों गिरते हो? विनम्रता, सहृदयता,
सरलता, इनके गङ्ढों में गिरो। काश, तुम जरा चुनाव करने लगो!
और चुनाव तुम कर सकते हो। क्योंकि जब तुम्हें सिर-दर्द होता है तो पता
चलता है और तुम दवा ले लेते हो। और जब तुम्हारे पेट में दर्द होता है तो पता चलता
है।
मेरे एक शिक्षक थे स्कूल में। वे जब भी अपनी नई कक्षा शुरू करते थे, जब मैं पहली दफा उनकी कक्षा में गया, तो उन्होंने
पहला जो उपदेश दिया, वह यह था कि कुछ बातें खयाल कर लो। पहली
बात कि कुछ दर्दों में मैं मानता नहीं, जैसे सिर-दर्द,
पेट-दर्द।
मैंने उनसे पूछा: क्यों? उन्होंने कहा कि इनका
तुम कोई प्रमाण नहीं दे सकते। हां, बुखार हो तो मैं मानता
हूं। जब तक मेरे पास प्रमाण न हो, तब तक मैं नहीं मान सकता।
नहीं तो लोग...यही विद्यार्थी चालबाजी करते हैं। कहते हैं, हमारे
सिर में दर्द हो रहा है, घर जाना है। कोई कहता है, पेट में दर्द हो रहा है। ये दोनों दर्द तो मैं मानता ही नहीं।
मैंने कहा: फिर ठीक है।
दूसरे दिन सुबह, वे घूमने जाते थे रोज, दो मकरंद के वृक्ष थे हमारे स्कूल के पास ही। मैं उस पर चढ़ कर बैठ गया
ऊपर। और एक पत्थर उनके सिर पर गिरा दिया। खड़ाक से सिर में लगा, चौंक कर ऊपर देखा और कहा: मेरी खोपड़ी खोल दोगे! क्या करते हो? इतना दर्द हो रहा है!
मैंने कहा: सिर-दर्द में मैं भी नहीं मानता। आप जाइए घूमने। और अगर आप
इस तरह की बातें करेंगे...तो अपने शब्द आप वापस ले लेना, क्योंकि आज स्कूल में मुझे भी सिर-दर्द होने वाला है। अभी से कहे देता हूं,
पहले से ही कहे देता हूं, होने ही वाला है!
उन्होंने मुझे घर बुलाया। उन्होंने कहा: भैया, जब तुझे सिर-दर्द इत्यादि हो, सबके सामने कहने की कोई
जरूरत नहीं, ऐसा अंगुली से इशारा कर दिया कर। मैं तुझे
छुट्टी दे दूंगा, क्योंकि तेरे पीछे सब और बिगड़ेंगे। और यह
बात जो पत्थर की हुई, सो हुई, अब किसी
और को मत बताना। क्योंकि मेरी जिंदगी हो गई, इसी तरह मैंने
लोगों को रोका है, नहीं तो बस सिर-दर्द, पेट-दर्द।
मैंने कहा: आप कहो तो पेट-दर्द भी आपको करके दिखलाऊं।
उन्होंने कहा कि नहीं। सिर-दर्द काफी है। पेट-दर्द कैसे करके दिखलाओगे?
मैंने कहा: वह मैं रास्ता खोज लूंगा।
अकेले ही थे, शादी उन्होंने की नहीं थी। सो उनका रसोइया था। मैंने
कहा कि मैं रसोइए को मिला लूंगा। अरे रुपये, दो रुपये की बात
है, भोजन में कुछ ऐसा मिलवा दूंगा कि ऐसा दर्द होगा कि छठी
का दूध याद आ जाएगा। और प्रमाण तो कुछ है नहीं। तो आपको मेरे सिर-दर्द और मेरे
पेट-दर्द में तो मानना ही पड़ेगा।
उन्होंने कहा: मैं बिलकुल मान ही लिया! तुम सिर्फ अंगुली से इशारा कर
देना। एक अंगुली, यानी सिर-दर्द। दो अंगुली, यानी
पेट-दर्द।
तुम्हें सिर-दर्द पता चल जाता है, पेट-दर्द पता चल जाता
है और तुम्हें आत्मा में होते हुए दर्द पता नहीं चलते? इतने
सोए हो? इतना तो सोया हुआ कोई भी नहीं है। जब तुम क्रोध करते
हो तो पता चलता है, पीड़ा भी पता चलती है। जब ईशर्या से जलते
हो तब जलन भी मालूम होती है, अंगारे की तरह छाती में कुछ बैठ
जाता है।
नहीं लहरू, इतना सोया हुआ कोई भी नहीं है। हां, तुम देखना ही न चाहो तो बात और।
और संन्यास का अर्थ ही यही है कि देखो। जो भी तुम्हारे जीवन में घट
रहा है, उसे देखो-परखो, उसके कारण खोजो।
उसके कारण की खोज में ही, निदान में ही समाधान है। जैसे ही
तुम्हें दिखाई पड़ जाएगा कि इस कारण से मेरे जीवन में पीड़ा है, वह कारण हाथ से गिर जाएगा। जो तुमने समझ ली बात, उससे
तुम मुक्त हो जाओगे।
नहीं, तुम आदमी हो, गधे नहीं हो। तुम
महिमाशाली हो! तुम्हारे भीतर चैतन्य की अपूर्व क्षमता छिपी पड़ी है! तुम्हारे भीतर
परमात्मा विराजमान है। जरा उसे जगने का मौका दो। और वह तड़प रहा है जगने को। और जब
तक जग न जाएगा, तब तक तुम न पाओगे संतोष, न पाओगे आनंद। तब तक तुम्हारा जीवन बस कोरा ही रहेगा; उसमें न होगा कोई काव्य, न होगा कोई संगीत, न खिलेंगे समाधि के कमल, न उड़ेगी सुगंध। तुम यूं ही
आए, यूं ही चले जाओगे। जैसे हुए न हुए बराबर। मिट्टी ही रह
जाना है या मिट्टी से कमल को भी पैदा कर लेना है?
और मैं जो कह रहा हूं, इससे सीधी-सादी और
कोई बात नहीं है। मेरी बात सीधी-सादी है, इसीलिए तुम्हें
दिक्कत होती है समझने में। तुम चाहते हो कि मैं बंधी-बंधाई तुम्हें सूचनाएं दे
दूं। तुमसे कह दूं--टमाटर न खाना, सिगरेट न पीना, पानी छान कर पीना, रात भोजन न करना, शाकाहार करना, ऐसा करना, वैसा
करना--तुम इसको सीधी-सीधी मार्ग-निर्देश मानते हो। मगर इन सब बातों से कुछ नहीं
हुआ। ये तो लोग कर ही रहे हैं। जो आदमी पानी छान कर पीता है, वह खून बिना छाने पी जाता है। जो आदमी रात्रि-भोजन नहीं करता, वह दिन में इतना डट कर भोजन कर जाता है कि जिसका हिसाब नहीं।
तुम जाकर जांच-पड़ताल करो। तुम्हें जैनियों की जितनी तोंद बढ़ी हुई
दिखाई पड़ेगी, उतनी किसी की नहीं। रात भोजन करना नहीं, पानी तक नहीं पीना, सो वे शाम से ही इतना डट कर पीते
हैं, इतना करते हैं भोजन कि रात भर भी तो गुजारनी है,
आखिर उनको भी तो गुजारनी है! तो पेट बढ़ जाते हैं। जैन मुनियों के
पेट तो होने ही नहीं चाहिए--ऐसे उपवासी, ऐसे व्रती! मगर उनकी
भी तोंदें बढ़ी हुई हैं। नग्न खड़े हैं, बहुत भद्दा लगता है
उनकी तोंद को देख कर। मैं सिर्फ तोंद की वजह से एतराज करता हूं नग्न खड़े होने पर,
अन्यथा मेरा कोई एतराज नहीं है। अगर शरीर स्वस्थ हो, सानुपात हो--सुंदर बात है, नग्न खड़े हों। कम से कम
रख-रखाव तो हो थोड़ा! कम से कम दरस-परस में एकदम घबड़ाओ तो न लोगों को! कम से कम
लोगों के चित्त को थोड़ी शांति तो मिले देख कर! तुम्हें देख कर एकदम से विरक्ति तो
पैदा न हो, हताशा तो न आए। सारा शरीर दुबला-पतला और तोंद बड़ी,
क्योंकि एक ही बार भोजन करना है। तो एक ही बार भोजन करना है तो
चौबीस घंटे का इंतजाम कर लेना है। जैसे ऊंट करता है न, खूब
डट कर पानी पी लेता है ताकि रेगिस्तान में फिर पीना ही न पड़े। वही हालत है।
ये सब नियम काम नहीं आए। इन नियमों से लोगों ने तरकीबें निकाल लीं। एक
से एक तरकीबें निकाल लेते हैं लोग। और एक चीज छोड़ते हैं तो दूसरी पकड़ लेते हैं।
इसलिए मैं तुम्हें नियम नहीं देता; मैं तुम्हें सिर्फ
बोध देता हूं, स्मरण देता हूं। और फिर तुम्हारा बोध ही
तुम्हारे लिए नियम का निर्धारक होना चाहिए। तुम इतना श्रम नहीं करना चाहते। तुम
चाहते हो पचा-पचाया भोजन मिल जाए। लेकिन तुम बच्चे ही रह जाओगे, पचा-पचाया भोजन कब तक करोगे? कब प्रौढ़ बनोगे?
अब परिपक्व होने का क्षण है। आदमियत अब बचकानी नहीं है कि उनको
छोटी-छोटी बातें बताओ।
मैं भोपाल में एक घर में मेहमान था। मैं देख कर दंग हुआ। बड़े रईस का
घर और बैठकखाने में तषती लगी है: यहां थूकना मना है।
मैंने कहा: हद हो गई! यहां लोग थूकते भी हैं?
उन्होंने कहा: यह भोपाल है।
मैंने कहा: मैं समझा नहीं।
उन्होंने कहा कि यहां लोग जो न करें सो थोड़ा है। यह राजधानी है। यहां
लोग एकदम पान चबाते हैं और थूक देते हैं। जहां बैठे हैं वहीं थूक देते हैं। तो
यहां तषती लगानी पड़ती है कि यहां थूकना मना है।
अब जहां तषती लगानी पड़ती हो कि यहां थूकना मना है और बैठकखाने में...
तो मैंने कहा कि भैया, तुम तषती लगा लो कि
यहां पेशाब करना मना है। कि कहीं कोई मोरारजी देसाई या मोरारजी देसाई के भाई-बंधु
आ जाएं और एकदम करने लगें, फिर? राजधानी
है और यहां मोरारजी देसाई आते होंगे। फिर तो बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाएगी। ऐसी-ऐसी
तषितयां लगाओगे कि जिनको नहीं भी करनी हो, उनको भी लग आएगी।
अब तुम देख लो, बैठे-बैठे अगर कुर्सी पर बार-बार पढ़ना पड़े कि
यहां पेशाब करना मना है, तो तुम जल्दी से अपना जनेऊ कान पर
चढ़ाने लगोगे कि अब करना क्या है! तुम्हें और कोई बात ही न सूझेगी अब।
छोटी-छोटी बचकानी बातें सिर्फ आदमी के कच्चेपन का सबूत होती हैं। मैं
नहीं देता कोई इस तरह के नियम--क्या करो और क्या न करो। मैं तो इतना ही कहता हूं:
जो भी तुम कर रहे हो, जाग कर करो! जो भी तुम कर रहे हो! अगर तुम चोरी भी कर
रहे हो तो जाग करो। मैं यह भी नहीं कहता कि चोरी मत करो। जाग कर करो! अगर जाग कर
चोरी कर सके तो चोरी भी शुभ है। हालांकि मैं जानता हूं कि जाग कर कोई भी चोरी नहीं
कर सकता है। अगर तुम शराब पी रहे हो तो जाग कर पीओ। अगर पी सको जाग कर, शुभ है, पुण्य है। लेकिन मैं जानता हूं कि कोई जाग
कर शराब नहीं पी सकता। जागे, कि जो व्यर्थ है, अपने से छूट जाता है; जो सार्थक है, वही शेष रह जाता है।
आज इतना ही।
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