दिनांक 28 मार्च; 1980; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:
1—यह संसार माया है। यहां सब झूठ है। मुझे इसमें
डूबने से बचाएं!
2—मैं अज्ञान में बच्चे पैदा करता चला गया। दस
बच्चे हैं मेरे, अब क्या करूं?
3—वह पांचवां क क्या है? बहुत सोचा लेकिन नहीं सोच पाया। किसी और से पूछूं, हो
सकता था कोई बता देता। लेकिन फिर सोचा आप से ही क्यों न पूछूं?
पहला प्रश्न: यह संसार माया है। यहां सब झूठ है।
मुझे इसमें डूबने से बचाएं।
राधिका प्रसाद! माया में कोई डूब कैसे सकता है? झूठ में डूबने का कोई उपाय है? जो नहीं है, उसमें डूब सकोगे? चाहोगे तो भी नहीं डूब सकोगे। ऐसी
नदी में डूबो, जो है ही नहीं; ऐसे जाल
में फंसो, जो है ही नहीं--यह कैसे संभव हो सकता है?
इस माया शब्द ने तुम्हें बहुत भरमाया है। माया ने नहीं, माया शब्द ने बहुत भरमाया है। यह तुम्हारी जबान पर बैठ गया है। तुम्हारा
सारा धर्म इसी शब्द पर आधारित हो गया है--माया से बचना है। सोचते भी नहीं कि अगर
संसार झूठ है तो क्या बचना! और अगर संसार झूठ है तो तुम कैसे सच हो सकते हो?
और सब झूठ है, सिर्फ तुम सच हो? औरों के लिए तुम भी संसार हो। उनके लिए तुम भी झूठ हो। और यदि संसार झूठ
है तो संसार को बनाने वाला कैसे सच हो सकता है? वह तो महा
झूठ होगा। झूठ का जन्म झूठ से ही हो सकता है।
इसलिए मैं नहीं कहता कि संसार झूठ है। मैं तो कहता हूं: संसार बहुत सच
है। संसार तो परमा९त०मा की काया है। माया नहीं। उसकी देह है। उसकी अभिव्यक्ति है।
इस आकांक्षा में कि संसार से बचूं, तुम भगोड़े हो जाते
हो। और भाग कर जाओगे कहां? जहां जाओगे वहीं संसार है। तुम ही
संसार हो। तो कम से कम तुम तो होओगे ही जहां भी जाओगे। कुछ तो होगा ही। घर-द्वार न
होगा, आश्रम होगा, कुटी होगी, गुफा होगी। परिवार न होगा तो साधु-साध्वी होंगे। मित्र-प्रियजन न होंगे तो
शिशय-शिशयाएं होंगी। भागोगे कहां?
इसलिए कहता हूं: जागो!
यह संसार सत्य है। अगर कुछ असत्य
है तो वह है तुम्हारा मन। मन माया है, संसार नहीं। मन कल्पनाओं के जाल बुनता है। संसार का पर्दा तो सच है,
मन उस पर बड़े चित्र उभारता है--काल्पनिक, झूठे;
जैसे रस्सी में कोई सांप देख ले! सांप झूठ होगा, लेकिन रस्सी झूठ नहीं है। ये मायावादी सदियों से यह उदाहरण देते रहे हैं
कि संसार ऐसा है जैसे रस्सी में कोई सांप देख ले। लेकिन उनसे कोई पूछे कि चलो सांप
झूठ हुआ, मगर रस्सी का क्या? रस्सी तो
है न! और सांप का क्या कसूर है? सांप तो है ही नहीं। तुम्हें
दिखाई पड़ा है, तुम्हारी नजर की भूल है। दृशिट की भूल को
रस्सी पर थोप रहे हो? अपनी भ्रांति को संसार पर फैला रहे हो?
इसलिए मेरा जोर पलायन पर नहीं है, जागरण पर है। जागो!
रस्सी से भागो मत। दीया जलाओ! अगर रोशनी की कमी है तो रोशनी जगाओ, ताकि रस्सी रस्सी है, ऐसा दिखाई पड़ सके। जिस दिन
तुमने देख लिया--रस्सी रस्सी है--क्या तुम सोचते हो कि सांप मर गया? कि सांप कहीं चला गया? सांप तो था ही नहीं। क्या तुम
सोचते हो, तुम्हें जब सांप दिखाई पड़ रहा था तो रस्सी खो गई
थी, सांप हो गया था? क्या तुम सोचते हो,
तुम्हारे दिखाई पड़ने से सांप तुम्हें काट लेता?
अब कोई कहे कि मुझे मालूम है कि रस्सी सांप है, मगर मुझे बचाओ इस सांप से! तो क्या मतलब होगा? मतलब
यही होगा कि उसे तो सांप ही दिखाई पड़ रहा है; यह तो वह उधार
तोतों की तरह दोहरा रहा है कि सांप असत्य है। नहीं तो फिर बचाने की बात ही नहीं उठती।
जो लोग मानते हैं कि संसार माया है, उनके लिए तो संन्यास
की बात उठ ही नहीं सकती! ९त०याग किसका? जो नहीं है उसका?
९त०याग के लिए तो होना चाहिए। फिर तो भोग भी नहीं है और ९त०याग भी
नहीं है। फिर तो तुम जहां हो, जैसे हो, ठीक हो। कुछ करने को बचता नहीं।
इसलिए मैं अपने संन्यासी को नहीं कहता कि ९त०यागना। न कहता हूं भोगना, न कहता हूं ९त०यागना। कहता हूं: जाग कर जीना। संसार सत्य है। संसार परमा९त०मा की अनेक-अनेक रूपों में
अभिव्यक्ति है। वृक्षों में वही हरा है। फूलों में वही लाल है। सूरज की किरणों में
वही स्वर्ण की तरह बरस रहा है। तुम्हारे भीतर वही चैतन्य की तरह विराजमान है।
तुम्हारी देह में भी वही ठोस हुआ है। तुम्हारा बहिरंग भी वही है, तुम्हारा अंतरंग भी वही है। तुम्हारा कें( भी वही है, तुम्हारी परिधि भी वही है।
लेकिन हां, कें( और परिधि के बीच तुम्हें क्षमता है कल्पनाओं को
खड़ा कर लेने की। तुम रस्सी में सांप देखने में समर्थ हो। तुम इससे उलटा भी कर सकते
हो: तुम सांप में रस्सी भी देख सकते हो। हालांकि वैसा उदाहरण कोई शास्त्र नहीं
लेता। वैसा भी हो जाता है, सांप में भी रस्सी देख सकते हो।
आखिर बाबा तुलसीदास ने देखी ही थी! चढ़ गए थे लटके हुए सांप को रस्सी समझ कर।
प९त०नी से मिलने गए। आंखें भरी होंगी प९त०नी से मिलने की कामना से, वासना से। होश न रहा होगा, बेहोश रहे होंगे। कुछ का
कुछ दिखाई पड़ गया होगा। चढ़ गए सांप को पकड़ कर। रस्सी मान ली।
तुम्हारे मन की यह क्षमता है। इस मन को ही मिटा देना है, पोंछ देना है। पशु हैं, उनके पास मन नहीं है,
वे मनुशय से नीचे हैं। मनुशय के पास मन है। मनुशय शब्द ही मन से
बनता है। मनुशय की इतनी ही खूबी है कि उसके पास मन है। और जिस दिन मन मिट जाता है,
उस दिन तुम परमा९त०मा हो। मन के नीचे पशुओं का जगत है; मन के ऊपर बुद्धों का; और इन दोनों के बीच में मनुशय
है--त्रिशंकु की भांति।
यह मत पूछो राधिका प्रसाद, कि मुझे इसमें डूबने
से बचाएं! मैं तो देखता नहीं कि तुम कैसे डूब सकोगे। सदियां हो गईं, जन्म-जन्म बीत गए, कितने जन्म नहीं बीत गए, तुम्हें डुबा कहां पाया यह भवसागर जिसकी तुम बातें कर रहे हो! तुम अछूते
के अछूते हो। कौन डूबा है? कोई भी डूबा नहीं है। डूबने की
भ्रांति भला तुम्हें हो जाए। और भ्रांति के लिए तुम तर्क भी खोज ले सकते हो। जिसको
भ्रांति ही पकड़नी है, वह कोई भी तर्क खोज ले सकता है।
मुल्ला नसरुद्दीन को भ्रांति हो गई थी कि वह मर गया है। जहर खा लिया
था। अब भारत में कोई शुद्ध जहर मिलता है! जहर भी खा लिया, मरा भी नहीं। इस जगत में माया हो या न हो, मगर भारत
में तो बड़ी माया है! यहां तो माया ही माया है। दूध में पानी मिलाते थे लोग,
अब कलियुग आ गया, अब पानी में दूध मिलाते हैं।
जहर में पता नहीं क्या मिलाते हैं! जहर भी शुद्ध मिल सकता नहीं। जहर खाकर सो रहा।
सुबह उठा तो अपनी प९त०नी से बोला कि नाश्ता मेरे लिए मत बनाना, मैं तो मर चुका हूं।
प९त०नी ने कहा: होश में हो? जाग गए कि सपना देख
रहे हो?
अरे--उसने कहा--तू होश में है? अगर नहीं मरा तो पांच
रुपये बेकार गए। पांच रुपये का जहर खा गया हूं, मर चुका हूं।
पहले तो समझा कि मजाक कर रहा है, लेकिन जब वह माना ही
नहीं, भोजन न करे, नहाए नहीं--वह कहे
कि नहाना क्या! जब मर ही गए तो कौन नहाना, किसका नहाना,
कैसा नहाना! भोजन न किया, नहाया नहीं, बिस्तर पर ही पड़ा। उठे नहीं। घर के लोग घबड़ा गए; कहा
कि कुछ गड़बड़ हो गई है, दिमाग में खराबी आ गई है।
मनोवैज्ञानिक के पास ले गए। मनोवैज्ञानिक ने भी बहुत समझाया कि भई तुम जिंदा हो,
भले-चंगे हो। उठो, कुर्सी से चलो।
उठ कर चला। तो कहा: देखते नहीं, चल रहे हो!
उसने कहा कि भूत-प्रेत भी चलते हैं। देखते नहीं, मेरे पैर बिलकुल उलटे हो गए हैं। जैसे भूत-प्रेतों के होते हैं।
मनोवैज्ञानिक ने कहा, यह आदमी ऐसे मानने वाला नहीं है।
दलील पर दलील करे। अब जिंदा आदमी हो और अगर मरने की उसे भ्रांति हो जाए, तो दलीलें तो देगा ही। उसने कहा: एक काम कर। यह तू मानता है कि मुर्दा
आदमी में से खून नहीं निकल सकता?
उसने कहा: मानता हूं कि मुर्दे में से खून नहीं निकल सकता, कभी नहीं निकल सकता।
मनोवैज्ञानिक ने उठाया चक्कू और उसके हाथ में थोड़ा सा चीरा मारा, खून की धार फूट पड़ी। मनोवैज्ञानिक ने कहा: अब क्या कहते हो? बड़े मियां, अब क्या कहते हो?
मुल्ला नसरुद्दीन खिलखिला कर हंसा, उसने कहा कि इससे यही
सिद्ध होता है कि मुर्दे से भी खून निकल सकता है। वह धारणा गलत थी। बदल दो वह
सिद्धांत। वे जो लोग अब तक मानते रहे, बिना प्रयोग किए मानते
रहे, किसी मूरख ने कभी चक्कू से काट कर देखा नहीं! मुर्दे से
भी खून निकल सकता है, इससे यह सिद्ध हो गया।
तुम जो चाहो मान लो। सारी बात मान्यता की है। और इसलिए बदलाहट मान्यता
की करनी होती है। स्थान नहीं बदलना होता, मनःस्थिति बदलनी होती
है। और लोग स्थान बदल रहे हैं। कोई चला हिमालय, कोई चला काशी,
कोई चला काबा। स्थान बदल रहे हैं, परिस्थिति
बदल रहे हैं। घर छोड़ दिया, बाजार छोड़ दिया। कहां जाओगे?
जहां जाओगे, मन तुम्हारे साथ होगा--वही मन जो
बाजार में था। इसलिए तुम जहां रहोगे, वहीं फिर बाजार बन जाएगा।
तुम जहां बैठोगे, वहीं फिर वही सिलसिला शुरू हो जाएगा,
वही उप(व। बच न सकोगे।
ये तुम्हारे ऋषि-मुनियों को सताने जो उर्वशियां और मेनकाएं उतरती हैं, ये किसी आकाश से नहीं उतरतीं। ये ऋषि-मुनि छोड़ आए अपनी घर की मेनका को।
लेकिन मन तो नहीं छोड़ सकते। मन नहीं छूटा तो मेनका कैसे छूटेगी? अब ये बैठे हैं झाड़ के नीचे हिमालय में और मेनका इनके चारों तरफ नाचती है।
मेनका को पड़ी है कुछ कि इनके चारों तरफ नाचे? कुछ उसे और भी
काम होगा, कि इन धूनी रमाए हुए, राख
लपेटे हुए, भयानक दिखाई पड़ने वाले, जटा-जूट
बढ़ाए हुए इन ऋषि-मुनियों को सताए! और यह कोई सताना हुआ? यह
कोई दंड हुआ कि पुरस्कार? मगर नहीं, मेनका
सताती है, बड़े हाव-भाव करती है ऋषि-मुनियों के पास आकर। यह
मेनका नहीं है, यह मन है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि तुम जिस चीज की भी आकांक्षा करते हो, अगर तीन सप्ताह के लिए उस चीज से तुम्हें दूर रखा जाए तो तुम उसकी कल्पना
करने लगोगे--सिर्फ तीन सप्ताह के भीतर। और कल्पना इतनी प्रगाढ़ हो जाएगी धीरे-धीरे
कि तुम्हें वह चीज दिखाई पड़ने लगेगी। होगी नहीं, दिखाई पड़ने
लगेगी। भूखे आदमी को आकाश में चांद नहीं दिखता, चपाती तैरती
हुई दिखाई पड़ती है। भूखे आदमी को चांद कहां! हां, प्रेमी को
प्रेयसी का मुखड़ा दिखाई पड़ता है। मजनू से पूछो, वह कहेगा:
लैला दिखाई पड़ती है। शीरीं से पूछो, वह कहेगी: फरिहाद दिखाई
पड़ता है। किसी कंजूस से पूछो, वह कहेगा कि चांदी की तश्तरी
दिखाई पड़ती है। लोगों को अलग-अलग चीजें दिखाई पड़ेंगी, चांद बेचारे
का कोई कसूर नहीं। चांद का इसमें कुछ हाथ नहीं। तुम जो चाहो देखना, वही दिखाई पड़ेगा।
तुम्हें अपने मन के प्रतिबिंब दिखाई पड़ते हैं।
संसार नहीं छोड़ना है, राधिका प्रसाद। कुछ नहीं छोड़ना
है। मन से जागना है। मन नींद है और ध्यान जागरण है।
नजर तुम्हारी जाली है,
सिक्का तो टकसाली है!
इस सिक्के को गढ़ा प्रकृति ने है धरती की माटी से।
इस सिक्के को गढ़ा पुरुष ने अपनी ही परिपाटी से।
इस सिक्के पर अंक पड़े हैं स्वयं नियति के हाथों से,
यह सिक्का तो चलता आया जन्म-मरण की घाटी से!
इसे बजाओ, यह गाता है
गीत खुशी के, मातम के
इस सिक्के में दोष देखना
केवल खाम-खयाली है!
सिक्का तो टकसाली है!
माल तुम्हारा खोटा है
यह गाहक तो बहुत खरा!
यह गाहक मीठे बोलों पर मिसरी सा घुल जाता है!
थोड़ी सी ममता पाने को निज सर्वस्व लुटाता है!
जो छल-कपट देखते हो तुम वह तो सभी तुम्हारे हैं--
इस गाहक का सच्चाई से जन्म-जन्म का नाता है!
अपने अंदर की करुणा को
ला करके तो परखो तुम!
इस गाहक का हाथ खुला है
इस गाहक का हृदय भरा!
यह गाहक तो बहुत खरा!
तुम आए हो तो नये-नये
यह तो हाट पुरानी है!
सोना-चांदी, हीरा-मोती, कितने इसमें छले गए।
जीवन भर बटोरने वाले खाली हाथों चले गए!
सुख-दुख की यह हाट अनोखी, इसमें बिकता यश-अपयश
पीने वाले सदा पुराने, देने वाले नि९त०य
नये!
तुम तो अपने में ही उलझे,
आंख खोल के देखो तो!
जो निज को जितना दे सकता
वह उतना ही ज्ञानी है!
यह तो हाट पुरानी है!
तुम कितने चालाक बनो,
दुनिया भोली-भाली है!
पल में रोना, पल में हंसना, यह दुनिया तो
सहज-सरल,
उ९त०सुकता अस्ति९त०व यहां पर, जीवन तो है कौतूहल!
सत्य स्वप्न है, स्वप्न सत्य है--इन दोनों में
अंतर क्या?
इने-गिने विश्वासों पर ही इस दुनिया की चहल-पहल।
जो मिलता है लेना होगा
राजी से, नाराजी से!
अरे व्यर्थ की तीन-पांच यह
और व्यर्थ की गाली है!
दुनिया भोली-भाली है।
नजर तुम्हारी जाली है,
सिक्का तो टकसाली है।
नजर की भूल है, दृशिट का दोष है। दृशिट का रूपांतरण चाहिए। और जैसे
ही दृशिट बदलती है, वैसे ही संसार बदल जाता है। संसार तो
वैसा ही है, मगर तुम्हारी दृशिट बदल जाती है, तो तुम्हें वैसा दिखाई पड़ने लगता है जैसा है। अभी वैसा दिखाई पड़ता है,
जैसा तुम चाहते हो। अभी तुम्हारी कल्पना आच्छादित हो जाती है। और
तुम बड़ी जल्दी भूल में पड़ जाते हो।
लोग सिनेमागृह में बैठे तुम देखते हो। जानते हैं भलीभांति कि पर्दा
खाली है। आए थे तो देखा था कि सफेद पर्दा है। कुछ भी नहीं है, कोरा है। फिर फिल्म चली, धूप-छाया का खेल हुआ। रंगीन
तस्वीरें उतरीं। और देखो लोग कैसे मोहित हो जाते हैं! लोग रो लेते हैं, हंस लेते हैं, घबड़ा लेते हैं, परेशान
हो जाते हैं, पीड़ित हो जाते हैं--और जानते हैं भलीभांति,
मगर भूल गए, विस्मरण हो गया। एक दोत्तीन घंटे
के लिए सब भूल-भाल गए। फिर जैसे ही प्रकाश होगा, तब उन्हें
याद आएगी कि अरे, कुछ भी नहीं है। मगर फिर-फिर जाकर बैठेंगे
और फिर-फिर भूलेंगे। लोगों के रूमाल गीले हो जाते हैं। अगर कोई दुखांत कथा है,
कथानक है, तो आंखें उनकी आंसू टपकाती हैं। अगर
कोई सुखांत दृश्य आता है तो हंसी के फव्वारे छूट जाते हैं। चाहे रोते आए हों,
चाहे घर में मातम मना रहे हों, लेकिन भूल गए
सब।
आदमी अपने को भुलाने में बड़ा कुशल है।
राधिका प्रसाद, माया का कोई कसूर नहीं है। तुम कहते हो: "यह
संसार सब झूठ है।'
यह संसार जरा भी झूठ नहीं। झूठ अगर कुछ है, तो तुमने इस संसार के ऊपर जो सपनों की, कल्पनाओं की
छाप डाल रखी है। तुम इस संसार को ऐसा चाहते हो जो तुम्हारे अनुकूल हो। वैसा यह
नहीं हो पाता । इससे तुम कशट पाते हो। या कभी-कभी संयोग से हो जाता है। संयोगवशात!
तो तुम सुख पाते हो। तुम्हारा सुख क्या? तुम्हारा दुख क्या?
तुम्हारा दुख यह है कि तुम जैसा चाहते हो, संसार
वैसा नहीं हो पाता। संसार बड़ी चीज है, तुम छोटे, तुम्हारी औकात छोटी, तुम्हारे हाथ छोटे। संसार विराट
है। तुम चाहते हो कि तुम्हारे रंग में रंग जाए। यह नहीं हो पाता। यह नहीं हो सकता।
लेकिन कभी-कभी संयोगवशात बिल्ली के भाग्य से छींका टूट जाता है। संयोगवशात ही,
कोई तुम्हारे लिए नहीं टूटता। कोई छींका यह देख कर नहीं टूटता कि
बिल्ली गुजर रही है, टूट जाऊं। छींके को टूटना ही था,
बिल्ली गुजरती कि न गुजरती। यह संयोग की बात थी कि बिल्ली गुजरती थी
और छींका टूटा। बिल्ली सोचेगी कि मेरी प्रार्थनाएं सुन ली गईं, कि मेरी प्रार्थनाएं देखो पूरी हो गईं। बिल्ली कहेगी कि है भगवान, निश्चित है! मैंने जो पूजा की, जो सत्य नारायण की
कथा पढ़ी, जो जपुजी का पाठ किया--देखो पूरा हो गया! छींका
टूटा। अरे कोशिश करते रहो, पुकारते रहो, पुकारते रहो--पुकार सुनी जाएगी! देर है, अंधेर नहीं!
आज देख लो, प्रमाण मिल गया!
कभी संयोग से जगत तुम्हारे अनुकूल पड़ जाता है, तब तुम्हें सुख मिलता है। और अधिकतर तो अनुकूल नहीं पड़ता। सौ में
निन्यानबे मौकों पर तो अनुकूल नहीं पड़ता। छींके रोज नहीं टूटते। जब-जब बिल्ली
गुजरे, तबत्तब नहीं टूटते। कभी-कभार यह होता है। तो सुख
कभी-कभार, क्षणभंगुर। और दुख बहुत। इसी दुख से पीड़ित होकर
तुम कहते हो कि संसार से मुझे बचा लो, डूबने से मुझे बचा लो।
लेकिन मैं कैसे बचाऊंगा? तुम्हें सम्हलना
होगा। गिरो तुम और बचाऊं मैं? और गिर रहे हो तुम ऐसी चीजों
में, जो तुम्हारी कल्पना के जाल हैं! सच्ची भी हों तो कोई
बचा ले। तुम्हारी कल्पनाओं के जाल से तुम्हीं अपने को बचा सकते हो, और कोई भी नहीं बचा सकता। क्योंकि जाल ही कल्पना के हैं, तुम्हीं उनके निर्माता हो, तुम्हीं चाहो तो उनको
वापस खींच लो। मकड़ी के जाल, जैसे मकड़ी अपने भीतर से बुनती है,
ऐसे ही तुम भी अपनी कल्पना के जाल अपने भीतर से बुनते हो। बस
तुम्हारे लिए ही हैं वे।
संसार कभी तुम्हारे अनुकूल पड़ जाए तो तुम गदगद हो जाते हो। और अनुकूल
अधिकतर नहीं पड़ेगा। इस सत्य को समझो। और
इतने लोग हैं इस जगत में, सब के अनुकूल पड़े भी तो कैसे पड़े? सबकी आकांक्षाएं अलग हैं। कोई प्रार्थना करता है: आज पानी गिरा दो भगवान,
क्योंकि मैंने बीज बोए हैं। और कोई प्रार्थना करता है: आज पानी न
गिराना, धूप चाहिए; मैंने कपड़े रंगे
हैं और सुखा रहा हूं। अब परमा९त०मा क्या करे? फि९ब०टी-फि९ब०टी
करे? कुछ पानी बरसा दे, कुछ पानी न
बरसाए? दोनों नाराज हो जाएं।
अस्ति९त०व निरपेक्ष रहता है। अस्ति९त०व तुम्हारी बातें नहीं
सुनता--सुन नहीं सकता।
एक बिल्ली एक वृक्ष की शाखा पर बैठी हुई बड़ी मग्न हो रही थी, बड़ी मस्त हो रही थी, डोल रही थी, बड़ी भक्ति-भाव में थी। एक कुत्ता नीचे से गुजर रहा था, उसने बिल्ली को देखा! लार तो उसकी टपक गई बिल्ली को देख कर, मगर बिल्ली ऊपर बैठी थी झाड़ की शाखा पर, वहां तक
कुत्ता पहुंच सकता नहीं था। और ऐसी मग्न हो रही थी, जैसे
बैकुंठ की यात्रा पर हो! आंखें बंद, आह्लाद के आंसू टपके जा
रहे और डोल रही! कुत्ता थोड़ी देर खड़ा रहा कि शायद ज्यादा डोले और गिर पड़े। मगर
इतनी डोली भी नहीं कि गिर पड़े। कस कर पकड़े हुई थी शाखा को। आखिर कुत्ते ने कहा:
बात क्या है? ऐसा क्या मजा आ रहा है?
बिल्ली ने आंख खोली। उसने कहा कि सब खराब कर दिया। अरे मैं एक सपना
देख रही थी कि आकाश से चूहों की वर्षा हो रही है! मूसलाधार वर्षा हो रही है! चूहे
ही चूहे गिर रहे हैं!
कुत्ते ने कहा: अरे मूरख, शास्त्र का ज्ञान है?
शास्त्रों में साफ लिखा है कि कभी-कभी चम९त०कार होते हैं, और जब चम९त०कार होते हैं तो आकाश से हड्डियों की वर्षा होती है, चूहों की नहीं। चूहों का शास्त्रों में उल्लेख ही नहीं है। मूरख कहीं की!
शास्त्रज्ञान है नहीं, कौड़ी भर संस्कृत जानती नहीं। चली है
सपना देखने!
कुत्तों के शास्त्र में स्वभावतः चूहों की वर्षा नहीं हो सकती।
बिल्लियों के शास्त्र में चूहों की ही वर्षा होगी। हड्डियों की वर्षा बिल्लियां
क्या करेंगी! और आदमियों के शास्त्र में न चूहे बरसेंगे, न हड्डियां बरसेंगी। आदमियों के शास्त्र में तो हीरे-जवाहरात बरसेंगे,
सोना-चांदी बरसेगा। इतनी कल्पनाएं हैं सारे जगत में। जितनी चेतनाएं
हैं, उतने मन हैं, उतने माया के
विस्तार हैं। जगत तो कोरा पर्दा है। यह पर्दा तुम्हें नहीं डुबा सकता। हां,
तुम अपनी कल्पना में जितना चाहो डुबकी खाना, खाओ,
मजे से खाओ। फिर भी डूबोगे करोगे नहीं, यह
खयाल रखना। कोई कभी डूबा ही नहीं।
मैं इस झंझट में भी नहीं पडूंगा। तुमको डूबता भी देखूं तो भी किनारे
पर बैठा रहूंगा। तो भी दौड़ कर तुमको बचाने वाला नहीं। क्योंकि मैं जानता हूं कि
नदी है ही नहीं, तुम सिर्फ खाम-खयाली में हो। सो तुम्हारी मौज है। तुम
लाख चिल्लाओ कि बचाओ-बचाओ! कोई बुद्धू दौड़े, मैं दौड़ने वाला
नहीं। बचाने की बात ही फिजूल है। बचाना किससे है?
तुम्हें होश की जरूरत है। नदी वगैरह नहीं है जो तुम्हें डुबा रही है।
लोग कहते हैं: भवसागर में डूबे जा रहे हैं। लोग अपने सब दोष बाहर थोप देते हैं। और
सब दोष भीतर हैं। कहां का भवसागर? कहां की माया? मगर इससे राहत मिलती है कि हम क्या करें, यह माया का
जाल ऐसा है! हम करें भी तो क्या करें? अवश हैं, परवश हैं। यह परमा९त०मा ने माया ऐसी बनाई--महाठगिनी!
माया पर दोष दे रहे हैं! कहां माया है? कभी मिले हो माया से?
कोई मिला है कभी माया से? लेकिन तुम्हारे
महा९त०मा भी माया को गाली दे रहे हैं। सबको गाली देने के लिए कोई बहाना चाहिए।
सबको गाली टांगने के लिए कोई खूंटी चाहिए। फिक्र इस बात की करो कि क्या है
तुम्हारा उलझाव। तुम इस जगत से कुछ भी मांगोगे तो उलझे रहोगे। मांगो मत। इसलिए
बुद्धपुरुषों ने कहा है: तृशणा से मुक्त हो जाओ। माया से नहीं, तृशणा से, आकांक्षा से, वासना
से। संसार से मुक्त नहीं होना है। मुक्त होना है, संसार के
सामने तुम जो भिखारी बन कर खड़े हो, भिक्षापात्र लिए खड़े
हो--इस भिखमंगेपन से मुक्त होना है। जो है उससे राजी हो जाओ। और-और की मांग छोड़ो।
और-और की दौड़ छोड़ो। फिर कौन तुम्हें डुबा सकता है? तुम त९त०क्षण
पाओगे कि जिससे तुम भयभीत हो रहे थे, वह भवसागर कहीं भी नहीं
है; मृगमरीचिका थी। तुमने देखा जरूर था। जैसे कि रात के
अंधेरे में लोग भूत-प्रेत देख लेते हैं; घबड़ाहट हो, भय हो, तो दिखाई पड़ जाते हैं। तुम्हारे भय पर ही सब
निर्भर है।
जापान की प्रसिद्ध कहानी है। एक आदमी की प९त०नी मरी।
प९ति०नयां, पहली तो बात, आसानी से मरतीं
नहीं; अक्सर तो पतियों को मार कर मरती हैं। स्त्रियां ज्यादा
जीती हैं, यह खयाल रखना--पांच साल औसत ज्यादा जीती हैं। आदमी
को यह भ्रम है कि हम मजबूत हैं। ऐसी कुछ खास मजबूती नहीं। स्त्रियां ज्यादा मजबूत
हैं। उनकी सहने की क्षमता, सहनशीलता आदमी से बहुत ज्यादा है।
स्त्रियां कम बीमार पड़ती हैं; आदमी ज्यादा बीमार पड़ता है।
स्त्रियां हर बीमारी को पार करके गुजर जाती हैं; आदमी हर
बीमारी में टूट जाता है, कोई भी बीमारी तोड़ देती है उसे। और
सारी दुनिया में स्त्रियां पांच साल आदमियों से ज्यादा जीती हैं--औसत। और फिर
आदमियों को और एक अहंकार है कि समान उम्र की स्त्री से विवाह नहीं करते; पच्चीस साल का जवान हो तो उसे बीस साल की लड़की चाहिए। तो पांच साल का और
फर्क हो गया। सो ये भैया दस साल पहले मरेंगे। इसलिए दुनिया में तुम्हें विधवाएं
बहुत दिखाई पड़ेंगी, विधुर इतने दिखाई नहीं पड़ेंगे।
मगर कभी-कभी चम९त०कार भी होता है, वह स्त्री मर गई। मगर
मरते-मरते अपने पति को कह गई कि सुन लो, लफंगेबाजी नहीं
चलेगी। पति ने कहा: क्या मतलब? पति तो दिल ही दिल में खुश हो
रहा था कि यह झंझट कटी। अभी दो दिन पहले ही डाक्टर ने उससे कहा था कि मैं बहुत
दुखी हूं, लेकिन प९त०नी दो दिन से ज्यादा नहीं बचेगी। तो
उसने डाक्टर को कहा था कि नाहक दुखी न हों। अरे जब मैंने तीस साल कशट झेल लिया तो
दो दिन और सही। इसमें दुखी होने की क्या बात है? तीस साल
गुजर गए तो दो दिन और सही।
प९त०नी कहने लगी कि अब मैं मरने के करीब हूं, तुम्हें बताए जा रही हूं कि मैं मर कर भूत-प्रेत होऊंगी और तुम्हारा पीछा
करूंगी। और ध्यान रखना, भूल कर भी किसी और स्त्री के साथ
संबंध मत बनाना, नहीं तो मैं तुम्हें सताऊंगी, मैं रोज आऊंगी रात।
पति डरा तो बहुत, कर भी कुछ नहीं सकता, अब करे भी क्या! प९त०नी मर गई। पहली रात बहुत घबड़ाया हुआ घर आया। डरा हुआ
था। जंतर-मंतर पढ़ रहा था। मगर ठीक वक्त पर कोई बारह बजे प९त०नी ने दरवाजे पर दस्तक
दी। दरवाजा खोला तो वह सामने खड़ी थी। पसीना-पसीना हो गया, पैर
कंप गए, गिरते-गिरते बचा। प९त०नी ने कहा कि यह तो तुमने हरकत
शुरू कर दी। तुम शराब पीकर आए हो और मैंने लाख दफे समझाया कि शराब पीना बंद करो।
और तब तो मैं घर में रहती थी, तो मुझे बैठ कर अंतर्दृशिट से
पता लगाना पड़ता था--तुम कहां गए, क्या कर रहे हो? अब नहीं चलेगा। अब तो तुम जहां जाओगे वहां मैं देख सकती हूं, वहां मैं आ सकती हूं। तुम शराबघर से आ रहे हो। तुमने इतनी शराब पी। और तुम
उस स्त्री को घूर-घूर कर देख रहे थे!
बात बिलकुल सच थी। इतनी उसने शराब पी थी। और शराब पीकर जब बाहर निकला
था तो एक सुंदर स्त्री को घूर-घूर कर भी देखा था। और उसने कहा कि सावधान रहो, आज तो पहला दिन है, क्षमा कर देती हूं, कल से खयाल रखना।
उस आदमी की तो जान मुश्किल में पड़ गई। जिंदा थी, वही बेहतर था। कुछ बहाने भी खोज लेता था। कह देता था कि द९ब०तर में ज्यादा
काम है।...द९ब०तर में काम ज्यादा निकलता है, हरेक को ज्यादा
निकलता है। द९ब०तर में दिन भर लोग काम करते ही नहीं--और ज्यादा काम निकलता है!
ओवरटाइम! द९ब०तर से फोन करते हैं कि आज नहीं आ सकेंगे, आज
बहुत काम है। घर से बचते हैं जितना बच सकें। जमाने भर में भटकेंगे, घर भर नहीं आएंगे। घर तो आते ही तब हैं जब सब होटलें और सब शराबघर,
सब रेस्तरां बंद हो जाते हैं, और जब कहीं इनको
जगह नहीं मिलती तब घर आते है। क्योंकि घर तो हमेशा खुला हुआ है। प९त०नी बैठी होगी
तैयार।
अब तो इसकी बड़ी मुश्किल हो गई। कोई बहाना न चले। जो भी बहाना लेकर आए, वह कहे कि तुम मुझे बना रहे हो? मैं वहां मौजूद थी।
तुम द९ब०तर गए? झूठ बोल रहे हो। तुम आज दिन भर द९ब०तर नहीं
गए। तुम कहां थे, मुझे रत्ती-रत्ती पता है।
उस आदमी की तो हालत हड्डी-हड्डी हो गई। यह स्त्री क्या मरी, जिंदा थी वही अच्छा था। सोचता था कि मर जाएगी तो बड़ा सुख मिलेगा, यह तो महा कशट हो गया। किसी ने सुझाव दिया कि गांव में एक फकीर आया हुआ है,
तू उसके पास जा, शायद वह कुछ कर सके। फकीर के
पास गया। फकीर को सारी बात बताई। फकीर ने कहा: एक काम कर। मुट्ठी खोल। और फकीर ने
मुट्ठी भरी, पास में ही चावल रखे थे, मुट्ठी
भर कर उसके हाथ में दे दिए। और कहा कि मुट्ठी बंद कर ले, अब
खोलना मत, घर जा। और जब वह आए तो उससे कहना कि अगर तू सच में
है, तो मेरी मुट्ठी में कितने चावल हैं, इनकी गिनती करके बता दे!
उसने कहा कि वह बता देगी। वह एक-एक चीज गिन कर बता रही है--कहां जाता
हूं, किससे बात करता हूं, क्या कहता
हूं। वह यह भी बताएगी कि अच्छा तो तुम उस फकीर के पास गए थे! वह फकीर मेरा बाल
बांका नहीं कर सकता, वह कहेगी।
उसने कहा: वह सब कहे, मगर ये चावल के दाने जब तक गिन
कर न बताए। कल तू मुझे आकर खबर करना।
वह घर गया, वह प९त०नी मौजूद थी। उसने कहा: तो गए थे उस फकीर के
पास? वह क्या जानता है! उसकी हैसियत क्या है! इस-इस ढंग के
कपड़े पहने हुए था? ऐसे-ऐसे मकान में बैठा हुआ था? पास में चावल रखे हुए थे? मुट्ठी भर कर उसने तेरी
मुट्ठी में चावल दिए हैं और कहा है कि उससे कहना कि गिनती करके बता। बोल, इसमें कुछ झूठ है?
वह घबड़ा गया। उसने कहा कि फकीर का भी कुछ वश चलेगा नहीं इस पर, यह तो इसको सब पता है। पर उसने कहा, अब आखिरी कोशिश
कर ही लो। उसने कहा कि हां, यह सब ठीक है। मगर चावल कितने
हैं? उनकी गिनती करके बता!
जैसे ही उसने यह कहा, वह स्त्री एकदम नदारद हो गई। वह
चावल की गिनती न कर सकी। चारों तरफ खोजा, घर भर में खोजा,
चिल्लाता फिरा कि भई कहां गई तू? चावल की
गिनती बता! मगर कोई उत्तर नहीं, कोई पता नहीं। दूसरे दिन
सुबह आया, फकीर से बोला कि चम९त०कार कर दिया! ये चावल क्या
हैं, गजब हैं! इनको मैं क्या सदा हाथ में ही रखे रहूं?
रात भर इनको हाथ में ही रखे रहा, कपड़ा बांध
लिया, कि इनमें कोई चम९त०कार है।
उसने कहा: कोई चम९त०कार नहीं है। जो बातें तू जानता है, बस वही तेरी प९त०नी कह सकती है। जो तू ही नहीं जानता, वह तेरी प९त०नी नहीं कह सकती। वह प९त०नी वगैरह कुछ नहीं है, कोई भूत-प्रेत नहीं, तेरा मन है। तू इतना जानता था
कि फकीर के यहां गया, वह कैसा बैठा था, उसने चावल भर कर दिए। तेरे को भी पता नहीं कि संषया कितनी है। अगर तुझे
पता होती तो उसको भी पता होती। वह है नहीं। वह कोई भी नहीं है, तेरे मन का ही फैलाव है। चावल वगैरह का कोई जादू नहीं है। अब चावल में न
बंध। ला चावल वापस कर। चावल छोड़ दे वापस अपनी जगह, जहां से
उठाए थे। अगर तुझे चावलों की गिनती मालूम हो गई तो वह औरत तुझे फिर सताएगी। उसको
भी मालूम हो जाएगी। वह स्त्री कुछ भी नहीं, तेरे मन का
प्रतिफलन है, तेरे मन का ही साकार रूप है।
ऐसे ही राधिका प्रसाद, तुम्हारे मन की ही
सारी लीला है, कोई और लीला नहीं है। तुम्हारा ही सब खेल है,
कोई और खेल नहीं है। माया से नहीं छूटना है, मन
से छूटना है। और छूटने के लिए कहीं नहीं जाना--ध्यान में जागना है। मैं तुम्हें
नहीं बचा सकता। और तुम यह आशा छोड़ दो कि कोई तुम्हें बचा सकेगा। इस आशा में ही तो
तुम भटकते रहते हो कि कोई तुम्हें बचा लेगा, कोई उद्धारक मिल
जाएगा। बस इसी आशा में तुम अपने को नहीं बचा पा रहे। यह आशा तुम्हारी टूट जानी
चाहिए। कोई उद्धारक नहीं है; प्र९त०येक व्यक्ति अपना उद्धारक
है।
बुद्ध ने कहा है: अप्प दीपो भव। अपने दीये खुद बनो! कोई दूसरा
तुम्हारा दीया नहीं बन सकता। तुम्हारे पास आंखें होंगी तो तुम देख सकोगे; और तुम्हारे पास कान होंगे तो तुम सुन सकोगे। यह भीतर की बात भी तुम्हारे
पास ध्यान होगा तो ही घटित होगी। न तुम्हें जीसस बचा सकते हैं, न तुम्हें कृशण, न तुम्हें बुद्ध, न महावीर।
लेकिन हम इतने बेईमान हैं कि हम अपने को बचा लेते हैं इनके बहाने! यह
कह कर कि बचाएंगे ये, लोग बैठे सोच रहे हैं कि कृशण का अवतार होगा और वे सब
को बचाएंगे। जब धर्म की ग्लानि हो जाती है...! और अब धर्म की ग्लानि काफी हो गई है,
अब और क्या ग्लानि होने में बची है? संभवामि
युगे युगे! अब आते ही होंगे। बस अब देर नहीं है, आएंगे जल्दी
और बचाएंगे।
उप(व तुम करो और कृशण उसका फल भोगें! बचाएं वे! और बचा सकते होते तो
तभी न बचा लिया होता जब आए थे? तब क्या खाक बचा पाए! किसको बचा
पाए? क्या बचा पाए?
जीसस किसको बचा पाए? महावीर किसको बचा पाए? बुद्ध किसको बचा पाए? लेकिन हम बेईमान हैं। हम यह
बात भी दूसरों पर टाल देना चाहते हैं कि कोई बचाए। क्यों कोई बचाए? यह पर-निर्भरता क्यों?
मैं तुम्हें मेरे ऊपर निर्भर नहीं होने देना चाहता। मैं तुम्हारी
जिम्मेवारी नहीं लेना चाहता। मैं तुम्हें इशारे दे सकता हूं। कैसे तुम अपने को बचा
सकते हो, इसके इंगित कर सकता हूं। लेकिन मैं तुम्हें बचा नहीं
सकता। बचाना तो तुम्हें स्वयं को होगा। तुमने ही उलझाया है, तुम्हीं
सुलझाओ। तुम्हीं गिरे हो गङ्ढे में, तुम्हीं निकलो। लेकिन
तुम गङ्ढे से न निकलना चाहो तो यह तरकीब अच्छी है कि आएगा उद्धारक और बचाएगा। न
आएगा उद्धारक, न कोई बचाएगा। गङ्ढे में तुम पड़े रहना। पड़े ही
हो सदियों से।
अभी ईसाई रास्ता देख रहे हैं कि जीसस का आगमन होगा और वे सारी
मनुशय-जाति का उद्धार करेंगे।
पहले नहीं कर पाए, अब कैसे करेंगे? पहले ही कर लेते न! कर सकते होते तो पहले ही कर लेते। कितने लोगों का
उद्धार कर पाए? हां, इशारे दिए। जो समझ
गए उन्होंने अपना उद्धार कर लिया। इंगित दिए। लेकिन जो मूढ़ थे, वे राह देखते रहे कि तुम्हीं दवा बनाओ, तुम्हीं
घोंटो, घुटी तैयार करो, और तुम्हीं
पीओ--और बचें हम! कोई चिकि९त०सक भी ऐसे तुम्हें नहीं बचा सकता कि खुद दवाई पीए और
बचाए तुम्हें; इसमें तो खुद भी मरेगा। दवा तुम्हीं को पीनी
पड़ेगी।
मैं तुम्हें मार्ग दे सकता हूं, लेकिन चलना तुम्हें
है।
दूसरा प्रश्न: मैं अज्ञान में बच्चे पैदा करता
चला गया। दस बच्चे हैं मेरे, अब क्या करूं?
वीरचंद! अब तो बहुत देर
हो चुकी। अब क्या करोगे? वीर आदमी हो, अब तो बढ़े चलो।
चढ़े चलो! अब क्या रुकना! अरे जब मंजिल अब दो ही कदम रह गई, अब
हताश होते हो? वीरों के नाम को बदनाम करोगे? वीर पुरुष पीछे लौट कर नहीं देखते। गिनती भी न करो।
तुमने भी खूब किया। जगह-जगह लिखा हुआ है: दो या तीन बस! तब तुम न
रुके। इश्तहार वगैरह पढ़ते हो कि नहीं? मगर दो या तीन बस में
शायद तुम पर प्रभाव नहीं पड़ा, क्योंकि उसमें तुक नहीं है।
तुमने सोचा: दस और बस! दो या तीन बस--अतुकांत कविता है। दस और बस--तुकांत कविता
है। कवि मालूम होते हो। अब तुम्हें होश आया!
लेकिन ऐसा मत करना। यही तो भारत का गौरव है। इस पुण्य-भूमि में देवता
जन्मने को तरसते हैं। दस देवताओं को तुमने जन्म दे दिया और बाकी देवता अभी और तरस
रहे होंगे, उनका क्या होगा? देवताओं का भी
तो कुछ खयाल करो! उन पर भी तो कुछ दया रखो!
एक धर्म-सम्मेलन में मैं बोलने गया था, वहां करपात्री महाराज
भी बोल रहे थे। वे समझा रहे थे लोगों को संतति-नियमन के विपरीत, विरोध में, कि ऐसा कभी मत करना, क्योंकि पता नहीं कौन सी आ९त०मा पैदा होने को आतुर हो और तुम रुकावट डाल
दो! कौन देवता तुममें पैदा होने को उ९त०सुक हो, क्या पता!
रवीं(नाथ--उदाहरण के लिए वे कह रहे थे--अपने बाप की पहली संतान नहीं थे, बहुत से बच्चों के बाद पैदा हुए। अगर उसके पहले उन्होंने "दो या तीन
बस' कर दिया होता तो दुनिया रवीं(नाथ से वंचित रह जाती।
बात बड़ी पते की कह रहे थे! अब क्या पता ग्यारहवां बेटा तुम्हारा
रवीं(नाथ हो, शेक्सपियर हो, कालिदास हो,
पता नहीं। यह तो अज्ञात का खेल है। और यह तो परमा९त०मा की लीला है!
इसमें तुम कौन हो बीच में बाधा डालने वाले? जो उसकी मर्जी,
होने दो! इसी को तो समर्पण कहते हैं! तुम कहां संकल्प का अड़ंगा लगा
रहे हो! परमा९त०मा कभी क्षमा न करेगा, अगर तुमने इस तरह के अड़ंगे
डाले। उसकी मर्जी है कि हों बच्चे। नहीं होगी मर्जी तो नहीं होंगे। अरे जिनको नहीं
देना है, वे मर जाते हैं प्रार्थना कर-करके, पूजा कर-करके, मंदिरों जा-जा कर, कब्रों पर बैठ-बैठ कर, चढ़ावा चढ़ा-चढ़ा कर, मनौतियां मना-मना कर...जिनको नहीं देना है, उनको
नहीं देता। तुमको देना है, तुम पर खुश है। पिछले जन्मों का
पुण्यकर्म है। आ रहे हैं देवी-देवता, आने दो!
मैंने सुना है, जब पहली दफा चांद पर अमरीकी यात्री पहुंचे तो बड़े
हैरान हुए। वे अपना झंडा गाड़ ही रहे थे कि पं(ह-बीस बच्चे एकदम भागते हुए, और उनकी माताराम भी उनके पीछे, और उनके पिताराम भी
उनके पीछे आकर खड़े हो गए भीड़ लगा कर। वे तो बड़े दंग रह गए। वे तो सोच रहे थे कि हम
ही पहली दफा चांद पर आए हैं, इधर तो लोग पहले से ही मौजूद
हैं! देखा तो हिंदुस्तानी थे। पूछा कि भई, आप कैसे आए?
उन्होंने कहा: हम तो पिकनिक मनाने ऋषि-मुनियों के जमाने से आते रहे!
चं(-यात्रा कोई नई चीज है? शास्त्रों में उल्लेख है, वर्णन
है।
उनको तो भरोसा ही नहीं आया। उन्होंने कहा: तुम आए कैसे? तुम्हारे पास साधन कहां हैं? राकेट कहां हैं?
चं( की यात्रा करने के लिए तुम्हारे पास ऐसे विमान कहां हैं?
अरे, उन्होंने कहा, कहां के विमान!
फिजूल की बातों में पड़े हो! हम तो स्वदेशी चीजों में विश्वास करते हैं। हम तो
एक-दूसरे के कंधे पर खड़े हो जाते हैं। अरे चांद क्या, हम
तारों पर पहुंच जाएं! इधर तो हम अक्सर आते हैं।
अब तुम क्या भारत की प्रतिशठा खराब करवाने पर उतारू हो? नहीं-नहीं, ऐसा मत करना। देखो धृतराशट्र अंधे थे,
मगर सौ बेटे! इसको कहते हैं: अंधे को अंधेरे में दूर की सूझी! तुम
तो आंख वाले हो वीरचंद! धृतराशट्र से मात खा जाओगे? ऐसे नहीं
हारते। धृतराशट्र को तो मात देकर रहो। अंधों से आंख वाले हारने लगे तो जगत का क्या
हाल हो जाएगा! और कहते हैं, धृतराशट्र की प९त०नी ने भी पति
को अंधा देख कर अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली थी। क्योंकि जब पति अंधा हो तो प९त०नी
कैसे देखे? प९त०नी तो पति की छाया है; उसका
कोई अपना व्यक्ति९त०व तो नहीं, कोई आ९त०मा तो नहीं। सो उसने
आंख पर पट्टी बांध ली थी। सती-साध्वी थी।
अब जरा देखो, एक अंधे थे पति, और प९त०नी ने
आंख पर पट्टी बांध ली थी। फिर भी एक-दूसरे को खोजते रहे, सौ
बच्चे पैदा कर लिए! टटोलते फिरते होंगे कि कहां है। और सौ बच्चों की भीड़-भाड़ में
खोजबीन करना बड़ा मुश्किल काम रहा होगा।
तुम तो आंख वाले हो, इतने जल्दी हार गए! नहीं,
यह भारतीय परंपरा नहीं। क्या परंपरा को नशट करोगे? बाप-दादों ने ऐसा नहीं किया, तुम ऐसा करोगे? रघुकुल रीति सदा चलि आई! यह तो चलता ही रहा। जरा पुराणों में तो देखो,
कितने-कितने बेटे पैदा किए लोगों ने! वे थे वीरपुरुष! और तुम्हारा
नाम वीरचंद है और तुम दस पर ही बस हुए जा रहे हो!
निराशा छोड़ो, हताशा ९त०यागो! फिर से झंडा ऊंचा करो। झंडा ऊंचा रहे
हमारा! ऐसे कहीं झंडा नीचा करते हैं!
और तुमने अगर बच्चे ज्यादा पैदा नहीं किए तो कितना अहित करोगे, इसका भी तो सोचो। अगर तुम बच्चे पैदा न करोगे, समाज-सेवकों
का क्या होगा? अनाथालयों का क्या होगा? मदर टेरेसा को नोबल प्राइज कैसे मिलेगी? अरे वीरचंद,
सब तुम्हारे जैसे महापुरुषों पर निर्भर है। असल में तुमको मिलनी
चाहिए नोबल प्राइज, मिल रही है मदर टेरेसा को। एक बच्चा पैदा
किया नहीं। दूसरों के बच्चों पर, उधार, अनाथालय चला रही हैं। नोबल प्राइज! भारत-र९त०न! भारत-र९त०न तुम्हें होना
चाहिए। और सेवा का अवसर छीन लोगे क्या? ऐसे बच्चे पैदा करोगे
तो देश गरीब रहेगा, दुखी रहेगा, तो
इससे लोगों को सेवा का अवसर मिलता है। भूदान यज्ञ चलेगा, सर्वोदय
होगा। नहीं तो विनोबा भावे संत कैसे होंगे? संतों का संत९त०व
छीन लोगे, नोबल प्राइज वालों को नोबल प्राइज न मिलेगी। तुम
भी कैसे खतरनाक विचारों में उलझे हो!
और अब मैं तुम्हें सलाह दूं तो फिर गालियां मुझको पड़ती हैं कि मैंने
भारत का सारा गौरव नशट करवा दिया! भारत की प्रतिमा ही खंडित करवा दी! जब तक सेवा
का अवसर न मिले तो लोग स्वर्ग जाकर मेवा कैसे पाएंगे? तुम तो सेवा का अवसर दो, पाने दो लोगों को स्वर्ग,
मिलने दो उनको मेवा। इतने ईसाई मिशनरी बेचारे एकदम खाली हो जाएंगे,
एकदम बेकार। ये क्या करेंगे? किसके लिए
अस्पताल खोलेंगे? किसके लिए स्कूल खोलेंगे? किसके लिए अनाथालय? और तुम अगर बच्चे पैदा करना बंद
कर दोगे तो फिर वृद्धाश्रम में कौन भरती होगा? फिर
विधवा-आश्रम में कौन भरती होगा? तुम तो बच्चे पैदा करते जाओ,
करते जाओ, सो तुम जल्दी मरोगे। सो प९त०नी होगी
विधवा, विधवा-आश्रम चलेगा। अगर तुम जी गए तो समय के पहले
बूढ़े हो जाओगे, तो वृद्धाश्रम चलेगा। और बच्चे हैं, सो वे अनाथ-आश्रम चलवाएंगे। इस तरह समाज-सेवा चलती है, सर्वोदय होता है, अं९त०योदय होता है, क्या-क्या नहीं होता! नहीं, इस तरह के खतरनाक विचार
मत करो।
मैंने सुना है--
प्रदर्शनी में,
एक तंबू के सामने
एक जोकर लगा था चिल्लाने में--
"आइए, बीस फुट लंबा सांप
देखिए
केवल एक आने में।'
तभी एक सज्जन पधारे
आधे पके थे, आधे कच्चे
साथ में थे बीस बच्चे
जोकर बोला--
"बाहर क्यों खड़े हैं आप?
भीतर देखिए बीस फुट लंबा सांप!
गधैया गाती है अंग्रेजी गाना।
टिकिट सिर्फ एक आना।'
सज्जन बोले--
"मेरे साथ तो बीस बच्चे हैं।'
जोकर बोला--
"जी, बहुत अच्छे हैं।
ये सब क्या आपके हैं?'
सज्जन दहाड़े--
"नहीं तो क्या आपके बाप के हैं?'
जोकर हंस कर बोला--
"अच्छा आइए-आइए
लाइन में लगा कर बच्चों को अंदर ले आइए।'
सज्जन के भीतर जाते ही
जोकर नाचने-गाने लगा
जोरों से चिल्लाने लगा--
"आइए-आइए
केवल दो आने में
तमाशे का मजा उठाइए
बीस फुट लंबा सांप देखिए
और साथ में
बीस बच्चों वाला बाप देखिए।'
कम से कम बीस का लषय तो वीरचंद रखो ही। अब इतनी भूल की, थोड़ी और सही। अब इतने गिरे, थोड़े और।
हमें समझ ही नहीं है कि हम क्या कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं। यंत्रवत जीए चले जाते हैं, पशुवत
जीए चले जाते हैं। जैसे पशु बच्चे पैदा करते हैं--एक प्राकृतिक परवशता है--वैसे ही
आदमी बच्चे पैदा किए जाता है। और अब जब कि कोई प्राकृतिक परवशता नहीं है, अब तुम्हारे हाथ में है। लेकिन बहाने खोजता है नये-नये, कि फिर उन आ९त०माओं का क्या होगा? जैसे तुमने सारी
दुनिया की आ९त०माओं का ठेका लिया है! एक तुम अपनी आ९त०मा की तो फिकर नहीं कर पा
रहे और सारी दुनिया की आ९त०माओं की चिंता में लगे रहते हो, कि
सारी आ९त०माओं का क्या होगा? कहीं हिंसा तो नहीं हो जाएगी,
अगर बच्चे पैदा नहीं हुए?
मुझसे लोग प्रश्न पूछते हैं: इसमें हिंसा तो नहीं हो जाएगी?
हिंसा इसमें होगी कि तुम जितने बच्चे छोड़ जाओगे उतनी इस जमीन पर हिंसा
होने वाली है। उतनी इस जमीन पर उप(व की स्थिति घनी होती चली जाएगी। महामारियां
फैलेंगी, युद्ध होंगे, भूकंप आएंगे;
क्योंकि सिवाय उसके प्रकृति को संतुलन बिठाने का कोई उपाय नहीं रह
गया। दरि(ता रहेगी। लोग जीएंगे, अधमरे जीएंगे। जीने का कोई
अर्थ नहीं रह जाएगा। नहीं रह गया है।
मगर इससे महा९त०मागण प्रसन्न होते हैं, वे कहते हैं कि हम तो
पहले से ही कहते हैं कि जीवन दुख है। अरे यह सब माया है! देख लो तुम, अपने अनुभव से देख लो! भारतीयों को यह बात जंचती है। जंचने का कारण यह है
कि सच में ही जीवन यहां इतना दुख है कि महा९त०मा ठीक ही कहते होंगे कि जीवन दुख
है। जीवन इतना दुख इस कारण नहीं है कि जीवन दुख है; जीवन दुख
इसलिए हो गया है कि हम सजग नहीं हैं, सावधान नहीं हैं। नहीं
तो जीवन काफी आनंदपूर्ण हो सकता है, उ९त०सवपूर्ण हो सकता है।
होना चाहिए! थोड़ी सूझ-बूझ, थोड़े विचार की जरूरत है। घर क्या
हैं, कबूतरखाने हो गए हैं! भरे हैं बच्चे-कच्चे। न चैन है,
न शांति है। न तुम उनको भोजन जुटा सकते हो, न
कपड़े जुटा सकते हो, न शिक्षा दे सकते हो। उनके मस्तिशक
अविकसित रह जाएंगे। उनके शरीर अविकसित रह जाएंगे।
मगर तुम बहाने खोज रहे हो। और बाप-दादों ने नहीं किया ऐसा। बाप-दादे
करते भी कैसे? उनको पता भी नहीं था। वे करना भी चाहते तो नहीं कर
सकते थे। तुम्हें पता है और पता होते हुए तुम न करो तो पाप है।
रोको! अब भी तुम पूछते हो कि क्या करूं? जैसे अभी भी तुम्हें
होश नहीं है! अभी भी पूछने को कुछ बचा है कि क्या करूं? बात
सीधी-साफ है। तुम्हारे जीवन ने ही साफ कर दी है, कि अब यह
पागलपन छोड़ो। जिंदगी में कुछ और करना है कि सिर्फ बच्चे ही पैदा करना है? और फिर बच्चे बच्चे पैदा करेंगे, क्योंकि उनके बाप
यह कर गए सो वे भी करेंगे। इस सिलसिले का अंत कहां होगा?
बुद्ध के जमाने में इस देश की आबादी दो करोड़ थी, आज सत्तर करोड़ है। और अगर हम पाकिस्तान को भी जोड़ लें--जो कि जोड़ना चाहिए,
क्योंकि इस दो करोड़ में वह भी जुड़ा था--तब तो नब्बे करोड़ से ऊपर
पहुंच गई आबादी। एक अरब आबादी हुई जा रही है जल्दी। और फिर भी तुम चाहते हो कि
जीवन की सुविधाएं मिलनी चाहिए, गरीबी मिटनी चाहिए, दारि(य मिटना चाहिए। तुम्हारा काम है कि दरि(ता पैदा करवाओ और किसी और का
काम है कि दरि(ता मिटाए! यह खूब मजे की रही!
फिर तुम्हारी हर सरकार असफल होगी। और असफलता का कारण तुम हो। मगर
जिम्मा यह है कि सरकार असफल होती है। सरकार के बलबूते के बाहर है मामला।
इस देश में लोकतंत्र असफल होने को आबद्ध है, क्योंकि तुम लंगोटी कस कर लोकतंत्र को हराने में लगे हुए हो। इस देश में
लोकतंत्र जीत नहीं सकता, लोकतंत्र की मौत होकर रहेगी। कारण
साफ है: क्योंकि अगर लोकतंत्र चलता है तो तुम्हारा यह उप(व जारी रहता है। इस देश
को जरूरत है कि तुम्हें सषती से रोका जाए, तुम अपने आप नहीं
रुकने वाले हो। इस देश को जरूरत है कि जैसे कोई युद्ध के पैमाने पर तैयारी करता है,
उस पैमाने पर हमें बच्चों से सावधानी बरतनी होगी। इस देश की संषया
को जहां है वहां तो रोकना ही है, उससे नीचे वापस लाना है!
यह देश सुखी हो सकता है, अगर इसकी आबादी
बीस-पच्चीस करोड़ के करीब हो। नहीं तो यह देश कभी सुखी नहीं हो सकता। अमरीका इतना
प्रसन्न है, आबादी बीस करोड़ है। जमीन तुमसे कई गुनी ज्यादा,
आबादी तुमसे कई गुनी कम। रूस खुश है, आबादी
बीस करोड़ है और जमीन तुमसे बहुत ज्यादा। वैज्ञानिक सुविधाएं तुमसे बहुत ज्यादा।
तुम्हारे पास जमीन कम, वैज्ञानिक सुविधाएं नहीं और आबादी
बढ़ती चली जाती है। अब तुम्हारी हालत ऐसी हो गई है कि सिर ढांको तो पैर उघड़ जाते
हैं, पैर ढांको तो सिर उघड़ जाता है। चादर छोटी होती जाती है,
तुम बड़े होते चले जाते हो। और अगर चादर नहीं ढांक पाती तो तुम बड़े
नाराज हो, तुम एकदम क्रोधित हो उठते हो। तुम पूर्ण क्रांति
करने को तैयार हो जाते हो--बिना यह सोचे-समझे कि जो लोग पूर्ण क्रांति करने की बात
कर रहे हैं, उनके पास क्या आयोजन है? क्या
योजना है? कुछ भी नहीं!
जयप्रकाश नारायण ने तीन साल के लिए इस देश को और गङ्ढे में डाल दिया, क्योंकि इस देश की बागडोर बिलकुल ही गलत हाथों के लोगों में सौंप दी,
जिन्होंने तीन साल में कुछ भी नहीं किया, जो
कुछ कर सकते नहीं थे--निपट नपुंसक साबित हुए! तीन साल यूं हाथ से बह गए। और तीन
साल में तुम्हारी आबादी खूब बढ़ती चली गई। क्योंकि आबादी के मामले को ही लेकर
इंदिरा को हारना पड़ा था। आबादी के मामले में ही इंदिरा ने सषती बरती थी। बरतनी
चाहिए। ठीक किया था। सषती और भी बरतनी चाहिए।
लेकिन लोग ऐसे हैं--ऐसे मूढ़, ऐसे मूर्च्छित--कि
मुझे पता है, संतति-निग्रह से बचने के लिए कुछ लोग अपने गांव
छोड़ कर भाग गए थे, वे अभी तक नहीं लौटे। भागे सो भागे!
यह तो जब तक इस देश को संतति-निग्रह का काम सेना के हाथ में न सौंप
दिया जाए, तब तक कोई उपाय नहीं है।
इंदिरा से तुमने इस देश की सत्ता हाथ से छीन ली थी उसके--सिर्फ एक
कारण से कि उसने तुम्हें बच्चे पैदा करने की जो तुम्हारी जन्मजात स्वतंत्रता है, स्वरूप-सिद्ध अधिकार है, उस पर बाधा डाल दी थी।
तुम्हारी स्वतंत्रता मर गई। एक ही स्वतंत्रता तुम चाहते हो--बस बच्चे पैदा करने की
स्वतंत्रता! एक ही आजादी से तुम्हें मतलब है--भीड़-भाड़ बढ़ाने की आजादी! कीड़े-मकोड़ों
की तरह बच्चे पैदा करने की तुम्हारी आकांक्षा है। उसने उसमें बाधा डाली, तो तुमने उसे सत्ता से अलग कर दिया।
और जो लोग तुमने चुन कर भेजे, स्वभावतः वे इसी
आश्वासन पर गए थे कि हम ज्यादती नहीं करेंगे। सो तीन साल में आबादी दस करोड़ बढ़ गई,
क्योंकि उन्होंने फिर कोई बाधा ही नहीं डाली। "दो या तीन बस'
की बात ही ख९त०म हो गई। संतति-निग्रह का मामला ही हटा दिया गया।
अब पुनः इंदिरा के हाथ में सत्ता है। अब उसके सामने सवाल है, स्वाभाविक: अगर सत्ता में रहना है तो तुम्हारी मूढ़ता को जारी रखना चाहिए।
अगर तुम्हारी मूढ़ता में बाधा डाली जाए, सत्ता खो जाएगी। मैं
तो सलाह दूंगा: सत्ता बचे कि जाए, लेकिन तुम्हारी मूढ़ता तोड़ी
ही जानी चाहिए।
इंदिरा को फिक्र होती है कि उसकी प्रतिमा सारी दुनिया में खंडित होती
है कि वह लोकतांत्रिक नहीं है। मैं तो कहूंगा: सारी दुनिया में बदनामी भी उठानी
पड़े, सारी दुनिया यह कहे कि अधिनायक हो गई है इंदिरा,
कोई फिकर नहीं है। देश के लिए इतना ९त०याग तो कम से कम करो कि खंडित
हो जाने दो अपनी प्रतिमा को, कहने दो सारी दुनिया को कि
अधिनायकवाद है।
यह देश अभी लोकतंत्र के लिए तैयार नहीं है। लोकतंत्र के लिए तैयार
होने का अर्थ होता है--खुद की सूझ-बूझ इतनी होनी चाहिए कि प्र९त०येक व्यक्ति अपने
पर नियंत्रण खुद कर ले। फ्रांस में संषया गिर रही है, ये लोकतांत्रिक देशों के लक्षण हैं। संषया गिर रही है, बढ़ नहीं रही। क्योंकि फ्रांस का प्र९त०येक व्यक्ति समझ रहा है कि संषया
जितनी कम होगी, देश उतना सुखी होगा; उतने
हम सुखी होंगे; उतने हमारे बच्चे सुखी होंगे।
वीरचंद, बिलकुल रुक जाओ। पूर्ण विराम लगा दो! और धोखे की
बातों में मत पड़ना कि ब्रह्मचर्य साधेंगे। साध लिया ब्रह्मचर्य तुमने काफी,
तीन-चार हजार साल से साध रहा है यह देश ब्रह्मचर्य। और क्या
ब्रह्मचर्य का परिणाम है? यह बकवास नहीं चलेगी।
महा९त०मा गांधी ब्रह्मचर्य सधवाने की बात करते थे। खुद पांच बच्चे
पैदा कर लिए, फिर इसके बाद ब्रह्मचर्य! जैसे तुमने दस पैदा कर लिए,
अब तुम भी सोचो कि ब्रह्मचर्य! ऐसे हरेक अगर दस-पांच पैदा करने के
बाद सोचे कि ब्रह्मचर्य, तो कोई हल नहीं होगा। और कितने लोग
ब्रह्मचर्य साध सकते हैं? व्यावहारिक होना आवश्यक है। और
ब्रह्मचर्य जबरदस्ती साधोगे तो उसके घातक परिणाम होंगे।
महा९त०मा गांधी को मरते दम तक सपनों में कामवासना सताती रही।
आखिरी-आखिरी दिनों में तो वे एक नग्न स्त्री को लेकर साथ बिस्तर पर सोने लगे। कहते
तो थे कि तांत्रिक प्रयोग कर रहे हैं। इस बात को छिपाने की कोशिश की गई। उनके शिशयों
ने ही छिपाया। उनके शिशय ही इस बात को प्रकट नहीं होना देना चाहते थे, कि कहीं यह बात प्रकट हो जाए, आम जनता में जाहिर हो
जाए, तो महा९त०मा गांधी के महा९त०मा होने का क्या होगा! सो
इसको छिपा कर रखो। इस बात को प्रकट मत होने दो। मगर यह बात इस बात का सबूत है कि
जिंदगी भर जबरदस्ती थोपा गया ब्रह्मचर्य काम नहीं आया। महा९त०मा गांधी के काम नहीं
आया, तो तुम्हारे क्या काम आएगा!
तो मैं यह नहीं कहता कि कोई ब्रह्मचर्य से इस देश का मसला हल होने
वाला है। ब्रह्मचर्य अदभुत बात है, लेकिन ध्यान से सधती
है। कोई बहुत गहरे ध्यान को उपलब्ध होता है तो ब्रह्मचर्य सधता है। ब्रह्मचर्य का
अर्थ समझो। ब्रह्मचर्य का अर्थ होता है: ब्रह्म जैसी चर्या, ईश्वरीय
चर्या। उसका कुछ कामवासना से छूट जाना ही, इतना ही अर्थ नहीं
है, उसका बड़ा अर्थ है। राम जैसे हो जाना उसका अर्थ है। काम
से मुक्त हो जाना ही उसका अर्थ नहीं है। काम से मुक्त होना तो उसका एक छोटा सा
हिस्सा है। जब तुम ब्रह्म को जानोगे तो ब्रह्मचर्य पैदा होगा, उसके पहले नहीं।
अभी तो विज्ञान ने साधन दे दिए हैं, उनका उपयोग करो। और
व्यर्थ की पिटी-पिटाई बातों को मत दोहराए रखना। पंडित वही दोहराए रहते हैं। और यह
देश इतना मूढ़ है कि उनकी बातें जंचती हैं। करपात्री लोगों को समझा रहे थे तो लोग
सिर हिला रहे थे, ताली बजा रहे थे कि यह बात बिलकुल सच है कि
देवी-देवताओं को पैदा होना है। और बच्चे...पता नहीं कौन सा बच्चा मेधावी पैदा हो,
उसको रोकना उचित नहीं है।
मैं बस्तर गया। जिस गांव में ठहरा हुआ था, उस गांव के लोगों ने कहा: आपका क्या खयाल है? बस्तर
में एक बांध बना, बांध से बिजली पैदा हुई। बस्तर के लोग उस
बांध को लेने को राजी नहीं हैं, क्योंकि महा९त०मागणों ने यह
खबर उड़ा दी वहां, साधु-संन्यासियों ने, कि इस बिजली में से तो ताकत निकल ही गई। इस पानी में से बिजली तो निकल गई,
तो ताकत निकल गई। अब यह पानी बिलकुल बेकार है। फु९ब०फस! इसमें कुछ
है ही नहीं।
गांव के लोगों को यह बात जंची कि बात तो सच्ची है। अरे ताकत ही निकल
गई...ताकत तो यानी बिजली...तो बिजली तो निकल चुकी। यह तो ऐसे ही समझो कि जैसे दूध
में से घी निकाल लिया, अब पी रहे हैं छाछ और समझ रहे हैं कि इससे मुस्तंड हो
जाएंगे। कुछ भी नहीं होगा। और पेचिश वगैरह की बीमारी हो जाए। वह खेतों में
उन्होंने पानी देना बंद कर दिया कि यह पानी हम क्या करेंगे? और
हमारे गेहूं खराब हो जाएं! यह पानी भी नपुंसक हो गया!
इतने मूढ़ देश में बड़ी कठिनाई है। लोकतंत्र अभी इस देश के योग्य नहीं
था। जिन लोगों ने, पंडित जवाहर लाल नेहरू और उनके साथियों ने, इस देश को लोकतंत्र देने की कोशिश की, उन्होंने इसका
जरा भी विचार नहीं किया कि इसकी पात्रता भी है या नहीं? अनुकरण
कर लिया पश्चिम का, कि लोकतंत्र थोप दो ऊपर से। ऊपर से चीजें
थोपी नहीं जातीं। पश्चिम में लोकतंत्र धीरे-धीरे विकसित हुआ है और हम पर ऊपर से
थोप दिया गया है।
एक तो होता है गुलाब का फूल जो गुलाब में से आता है और एक होता है
प्लास्टिक का फूल जो ऊपर से लटका दो। हमारा लोकतंत्र प्लास्टिक का फूल है। इस देश
को तय करना होगा। लोकतंत्र चाहिए तो यह देश मरेगा, बरबाद होगा। अभी इस
देश को कम से कम बीस वर्ष, यह आने वाली सदी का अंतिम हिस्सा,
बीस वर्ष, एक उदार अधिनायकशाही चाहिए, एक करुणापूर्ण अधिनायकशाही चाहिए--जो सषती से इस देश की जड़ धारणाओं को तोड़
दे, बदल दे। फिर इसके बाद लोकतंत्र की संभावना पैदा हो सकती
है, उसके पहले पैदा नहीं हो सकती।
मैं तो इंदिरा को कहूंगा कि होती हो बदनामी दुनिया में, फिकर मत करो। एक बीस साल सब कुर्बानी कर दो। लोकतंत्र की भी कुर्बानी कर
दो! यह थोथी स्वतंत्रता की भी कुर्बानी कर दो। इस देश को बीस साल अनुशासन
चाहिए--ऐसा अनुशासन कि इस देश का प्र९त०येक व्यक्ति इस योग्य हो जाए कि खुद सोच
सके, विचार कर सके और निर्णय ले सके, और
निर्णय के अनुसार जी सके। यह न हुआ तो यह देश बचेगा नहीं; इसका
भविशय बहुत अंधकारपूर्ण है।
तीसरा प्रश्न: वह पांचवां क क्या है? बहुत सोचा, लेकिन नहीं सोच पाया। किसी और से पूछूं,
हो सकता था कोई बता देता, लेकिन फिर सोचा आप
से ही क्यों न पूछूं!
प्रकाश! पांचवां क कोई
बहुत कठिन नहीं है; किसी भी पंजाबी से पूछते तो पता चल जाता। पांचवां क
अर्थात कच्छा। कच्छा यानी बजरंगबली जिसको पहले से ही पहनते रहे। जांघिया। ये पांच
चीजें आदमी को पंजाबी से सिक्ख बना देती हैं, सरदार बना देती
हैं--ये पांच क। बड़ी गजब की चीजें हैं--कंघा, केश, कृपाण, कड़ा और कच्छा। इनमें सबसे गजब का कच्छा।
मैंने सुना है, पंडित जवाहरलाल नेहरू के मंत्रिमंडल में सरदार बलदेव
सिंह थे। उनके संबंध में तो बहुत कहानियां थीं, एक कहानी
कच्छे की भी थी। एक सभा में सरदार बलदेव सिंह तो अध्यक्षता करने वाले थे और
जवाहरलाल नेहरू उदघाटन करने वाले थे। तो उन्होंने कहा कि सरदार जी, एक कृपा करना! आप नहाने-धोने में तो विश्वास करते ही नहीं। आपके कच्छे से
ऐसी बदबू आती है कि अब हम तो किसी तरह आदी हो गए हैं, गुजार
लेते हैं, सह लेते हैं; मगर और नये-नये
लोग वहां होंगे सभा में, उनको क्यों कशट देना! और उन सबका
ध्यान आपके कच्छे पर ही जाएगा।
नहाना-धोना वे मानते नहीं थे, क्योंकि नहाने-धोने
से शरीर घिसता है। और शरीर घिस जाए तो इसी में तो आदमी दुबला-पतला हो जाता है। सो
उन्होंने कहा: अच्छी बात, मैं अभी जाकर कच्छा बदल आता हूं।
सभा में पहुंचे। जवाहरलाल ने देखा कि बास और भी ज्यादा आ रही है।
उन्होंने कहा कि बलदेव सिंह...कान में फुसफुसाए कि मैंने तुमसे कहा था कि कच्छा
बदल कर आओ, तुमने बदला नहीं मालूम होता है, क्योंकि बास और भी ज्यादा आ रही है।
बलदेव सिंह ने जल्दी से खीसे में से कच्छा निकाल कर बताया कि इसीलिए
कि आप मानोगे नहीं, मैं पुराना कच्छा भी साथ में ले आया हूं, ये देखो!
अब बास और ज्यादा आएगी ही, खीसे में रखे हो। और
निकाल कर बता दिया आम जनता में, सो गंध फैल गई होगी। और
जवाहरलाल ने सिर ठोंक लिया होगा।
मगर पता नहीं, एक सरदार का मंत्रिमंडल में होना जरूरी है! बिलकुल
जरूरी है। पुराने राजा-महाराजा भी ऐसा करते थे। सरदार तो उस समय नहीं थे, मगर सरदारों जैसे लोग तो थे ही सदा से। हर राजा-महाराजा अपने नवर९त०नों के
साथ-साथ एकाध पहुंचे हुए बुद्धू को भी मंत्रिमंडल में रख लेता था, दरबार में रखता था--संतुलन के लिए। क्योंकि सभी बुद्धिमान हों तो अति हो
जाती है बुद्धिमानी की। तो दूसरे तराजू पर बिठा दिया एक बुद्धू को, नवर९त०नों को रास्ते पर लगा देता, एक बुद्धू काफी।
नवर९त०न एक तरफ और एक बुद्धू एक तरफ। और कभी-कभी बुद्धू बड़े पते की बात कह देते
हैं। क्योंकि नवर९त०न तो होशियार हैं, ऐसी बात कहेंगे जो
राजा को अच्छी लगे, फिर चाहे वह हित की हो कि अहित की हो। वे
तो सब खुशामदी और चापलूस होंगे। बुद्धू सच्ची बात कह देगा, बिलकुल
सच्ची बात कह देगा। उसको पता ही नहीं कि वह सच्ची बात कह रहा है; यह राजा के खिलाफ जा रही है या क्या हो रहा है। और अक्सर उन बुद्धुओं ने
राजाओं को बड़े कशटों से बचा लिया। तो यह रिवाज था--सारी दुनिया में; भारत में ही नहीं, सारी दुनिया में--एक महामूढ़
राजदरबार में रखा ही जाता था। क्योंकि बाकी जो समझदार हैं, वे
तो झूठ बोलने में कुशल हो जाते है; वे तो चमचे हो जाते हैं।
सरदार बलदेव सिंह को भी शायद पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संतुलन के लिए
ही रख छोड़ा था।
लेकिन खयाल रखना, सरदार सब में छिपा बैठा हुआ है।
अगर कमी है तो वही पांच क की है। वह कोई खास कमी है? जब तक
तुम होशपूर्ण नहीं हो, तब तक तुम मूढ़ हो ही। पृथ्वी मूढ़ों से
भरी है। कुछ सरदार प्रकट हैं, कुछ अप्रकट; कुछ जाहिर, कुछ गैरजाहिर; कुछ
घोषणा कर दिए हैं, कुछ ने घोषणा नहीं की है। मगर सच पूछो तो
सारी दुनिया उसी अवस्था में है, कुछ भेद नहीं है। इसलिए
हंसना मत। यह मत सोचना कि मैं सरदारों के खिलाफ कुछ कह रहा हूं। सरदार तो मूढ़ों की
बस एक जाति समझो । सारी मनुशयता मूढ़ है। जब तक मूर्च्छा है, तब
तक मूढ़ता है।
चंदूलाल, ढब्बूजी व मुल्ला नसरुद्दीन सैर को निकले थे। चांदनी
रात। मस्त थे। भांग चढ़ा रखी थी। उन्होंने देखा कि सामने से ही एक गधा चला आ रहा
है। तीनों में शर्त लग गई कि देखें कौन गधे को मजबूर कर सकता है--न में सिर हिलाने
को। गधा करीब आया, तीनों ने अपनी-अपनी तरकीब आजमाई। चंदूलाल
और ढब्बूजी तो असफल रहे। मगर जैसे ही मुल्ला ने गधे के कान में कुछ कहा कि वह तो
सिर हिलाने लगा, जोर-जोर से, एकदम सिर
हिलाने लगा। कहने लगा: नहीं! नहीं! चंदूलाल, ढब्बूजी चकित रह
गए। उन्होंने पूछा: मुल्ला, तुमने ऐसा क्या कहा कि एकदम गधा
सिर हिलाने लगा? कहने लगा: नहीं-नहीं!
मुल्ला ने कहा कि पहले तुम लोग बताओ कि तुमने क्या कहा था?
चंदूलाल ने कहा कि मैंने तो बड़ी पुरानी तरकीब आजमाई, लेकिन असफल हुआ। मैंने उससे पूछा कि भैया, शादी
करवानी है? अब कौन गधा होगा जो सिर न हिला दे! अरे गधे से
गधा भी होगा तो भी कह देगा कि नहीं। मगर वह नालायक मुस्कुराने लगा! वह तो एकदम खुश
हो गया! जैसे वर बनने को ही निकला हो!
ढब्बूजी ने बताया कि मैं तो अपने बच्चों के अनुभव से कहता हूं कि सबसे
बड़ी कठिन चीज यह है कि सुबह उनको स्कूल भेजना। कोई पाखाने में छिप जाता है, कोई बाथरूम से ही नहीं निकलता, कोई बिस्तर से ही
नहीं उठता कि बुखार चढ़ा हुआ है, किसी के पेट में दर्द है,
किसी के सिर में दर्द है। सो मैंने गधे से पूछा कि भैया, स्कूल में भरती होना है? मैंने सोचा था कि जरूर सिर
हिला देगा कि नहीं-नहीं! कितना ही गधा हो, स्कूल में कौन
भरती होना चाहेगा! गधे से गधे भी स्कूल में नहीं जाना चाहते। स्कूल का नाम सुन कर
ही एकदम फुरफुरी छूट जाती है, एकदम रोमांच हो जाता है। मगर
गधा बिलकुल शांत बना रहा, अविचल, बिलकुल
स्थितिप्रज्ञ। न हां, न न। जैसे सफलता-असफलता में समभाव रखो,
सुख-दुख में समभाव रखो! अरे स्कूल जाना हो कि मधुशाला जाना हो,
समभाव रखा उसने। अब तुम बोलो, तुमने क्या कहा?
तो मुल्ला नसरुद्दीन बोला कि मैंने पूछा: भैया, सरदार जी बनना है? बस एकदम सिर हिलाने लगा कि नहीं।
लेकिन मेरे देखे, जब तक तुम्हारे भीतर मूर्च्छा है,
तब तक मूढ़ता है। ध्यान का दीया न जले तो तुम सभी सरदार हो। ध्यान का
दीया जले तो ही तुम्हारे जीवन में थोड़ी बुद्धिमत्ता फैलनी शुरू होती है। थोड़ा
प्रकाश चाहिए--चाहिए ही चाहिए! और तुम्हारे अतिरिक्त यह प्रकाश कोई पैदा नहीं कर
सकता।
दूसरों पर हंस कर मत रह जाना। सरदारों की कहानियां तुम सुन लेते हो, सुन कर हंस लेते हो--यह सोच कर कि औरों के बाबत बात हो रही है। मारवाड़ियों
की कहानियां सुन लेते हो--सुन कर हंस लेते हो कि मारवाड़ियों के बाबत बात हो रही
है। मारवाड़ी की बात हो, सरदार हंस लेता है; सरदार की बात हो, मारवाड़ी हंस लेता है।
लेकिन ध्यान रखना, मैं सिर्फ तुम्हारी ही बात कर
रहा हूं, क्योंकि तुम्हारे भीतर सब तरह के सांप-बिच्छू छिपे
हैं। मारवाड़ी तुम्हारे भीतर बैठा है, सरदार तुम्हारे भीतर
बैठा है, सिंधी तुम्हारे भीतर बैठा है। अरे कौन है जो
तुम्हारे भीतर नहीं बैठा है!
पश्चिम में एक कहावत है कि रूसी इटैलियन को धोखा दे सकते हैं, फ्रेंच को धोखा दे सकते हैं, अंग्रेज की जेब काट
सकते हैं, स्पेनी को दगा दे सकते हैं, पुर्तगाली
का गला घोंट सकते हैं; सिर्फ उनकी मुसीबत अगर कोई कर सकता है
तो वह एक है--वे हैं जिप्सी। वे रूसियों के छक्के छुड़ा देते हैं। और जिप्सियों की
भी अगर कोई पत्ती काट सकता है तो वे हैं यहूदी। वे उनको भी रास्ते पर लगा देते
हैं। और यहूदियों की भी अगर कोई जेब काट सकता है तो वे हैं यूनानी। और कहावत कहती
है कि यूनानियों को अगर कोई धोखा दे सकता है तो वह केवल शैतान। वह बात गलत है;
उनको मारवाड़ियों का कोई पता नहीं। मारवाड़ी किसी को भी चकमा दे सकता
है। चकमा उसकी कला है। उसने उस कला को खूब निखारा है, सदियों
से संवारा है। वह खुद को ही धोखा देने तक में कुशल हो गया है, दूसरों की तो बात और।
मैं कलकत्ता में एक मारवाड़ी मित्र के घर मेहमान था। मैं बड़ा हैरान
हुआ। उनके बाथरूम में नहाने गया। संगमरमर का तो बाथरूम, मगर संगमरमर पर न मालूम कितने आंकड़े लिखे, जगह-जगह
आंकड़े! दो-दो फोन तो बाथरूम में भी लगे। मैंने उनसे पूछा कि मामला क्या है?
सुंदर बाथरूम बनाया है, दीवालें सब गंदी कर
रखी हैं! क्या लिख रखा है?
उन्होंने कहा: अरे खाते-बही कौन रखे! मैं हूं सटोरिया, खाते-वही रखो तो न मालूम कितना टैक्स लग जाए। सो मैं तो बाथरूम की दीवालों
पर ही लिख कर काम चला लेता हूं। तुमने देखा होगा, इसीलिए
बाथरूम में मैंने टेलीफोन लगा रखे हैं। सब सट्टा वहीं से करता हूं। यह जो टेलीफोन
लगा रखा है आफिस में, यह तो ऐसे ही कुशल-समाचार पूछने को,
इससे सट्टा करता ही नहीं। सट्टे का सारा काम बाथरूम से।
तभी मैंने कहा कि तभी मैं सोचता था कि आप बाथरूम में जाते हैं तो
तीनत्तीन घंटे, चार-चार घंटे...! तो मैं भी सोचता था कि गजब कर दिया!
मारवाड़ देश के वासी, चार-चार घंटे नहाते हो! मारवाड़ में लोटा
भर पानी मिलना मुश्किल होता है। तुम्हें यह नहाना कहां से आ गया!
अरे! उन्होंने कहा: नहाने की फुर्सत किसको! महीने में एकाध-दो बार नहा
लिया तो बहुत। क्योंकि टेलीफोन की घंटी बजती ही रहती है।
वे काफी बड़े दानी थे। उन्होंने बहुत दान किया, मगर टैक्स कभी नहीं दिया। उन्होंने कांग्रेस को भी बहुत दान दिया। और जब
पंडित जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री हुए तो उनसे उन्होंने कहा कि अब आप कुछ टैक्स
वगैरह का भी इंतजाम करें। उन्होंने कहा कि टैक्स वगैरह की बात ही न करना आप। दान
जितना चाहिए वह मैं दे सकता हूं। जो मांगो वह दान दे सकता हूं। टैक्स-वैक्स का कोई
हिसाब हमारे पास नहीं है। खाते-बही ही नहीं रखते, हम कोई
धंधा ही नहीं करते।
उनका धंधा ही टेलीफोन था और दीवाल पर उनके खाते-बही थे।
मारवाड़ी को तो शायद शैतान भी धोखा न दे पाए, शैतान की भी जेब काट ले! मगर ये सब तुम्हारे भीतर बैठे हैं। जिप्सी भी
तुम्हारे भीतर बैठा है, और मारवाड़ी भी तुम्हारे भीतर बैठा है,
और सरदार भी तुम्हारे भीतर बैठा है। मैं ये बातें किन्हीं बाहर के
लोगों के संबंध में नहीं कर रहा हूं, इस भ्रांति में मत
पड़ना। नहीं तो लोग नाराज हो जाते हैं, मुकदमे चल जाते हैं।
मोरारजी देसाई मुझ पर कम से कम एक सौ दो मुकदमे चला गए हैं, थोड़े-बहुत नहीं। मैं तो उनकी गिनती नहीं रख पाता, मैं
तो कभी जाता नहीं अदालत। मैं सोचता था तीस-पैंतीस। तो एक दिन मैंने प्रवचन में कहा
कि तीस-पैंतीस मुकदमे चला गए हैं। लषमी ने बताया कि आपको उन मुकदमों की संषया भी
नहीं मालूम। पूरे एक सौ दो मुकदमे हैं--छोटे-बड़े, प्र९त०यक्ष-परोक्ष।
अब वे चला गए हैं तो वे चलेंगे कुछ देर, घसिटेंगे कुछ देर।
जरा-जरा सी बात में। अगर मैंने कुछ कह दिया तो किसी हिंदू की धार्मिक भावना को चोट
पहुंच गई, बस मुकदमा। ऐसी छुई-मुई धार्मिक भावना कोई धार्मिक
भावना है! कि मुसलमान की धार्मिक भावना को चोट पहुंच गई, कि
मैंने कह दिया काबा जाने से कुछ भी नहीं होगा, बस धार्मिक
भावना को चोट पहुंच गई! तब तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। वह तो कबीर भी कह गए हैं। और
नानक का क्या करोगे? नानक मिल जाएं तब तो उनको तुम जेलखाने
में ही बंद करवा दो, क्योंकि वे तो काबे की तरफ पैर करके सो
गए थे। और इतना ही नहीं, उनके पैर जब घुमाए गए तो जिस तरफ
घुमाए पैर, उसी तरफ काबा घूम गया। यह काबा भी अपराधी है। इस
पर भी धार्मिक भावना को चोट पहुंचाने की अदालत में घसीटन होनी चाहिए। क्योंकि काबा
होकर कम से कम इतना तो खयाल रखना था मुसलमानों का, कि एक
हिंदू के पैरों की तरफ घूम रहे हो, अरे शर्म नहीं आती! काबा
होकर और यह काम करते हो!
किसी के संबंध में कुछ कह दो और बस धार्मिक भावना को चोट पहुंच गई, मुकदमा शुरू! धार्मिक भावना का अर्थ भी समझते हो? और
अगर ऐसी चोट पहुंचने लगी तो ये धार्मिक आदमी न हुए, ये तो
बहुत छुई-मुई हो गए; ये तो बहुत कमजोर और दीन-हीन हो गए।
जवाब दो! उत्तर दो! अगर तुम्हारी बात का खंडन हुआ है तो अपनी बात के समर्थन में
कुछ कहो! कुछ नहीं बनता। बस धार्मिक बात को चोट पहुंच गई, अदालत
में चले। अदालत क्या कर लेगी?
मैं फिर कहता हूं: काबा जाने से कुछ भी होने वाला नहीं है। क्योंकि
अगर काबा जाने से कुछ होता होता तो इतने लोग तो हर वर्ष काबा जाते हैं, क्या हो जाता है? और काशी जाने से भी कुछ नहीं होता।
अरे कितने गधे तो काशी में बसे हैं, क्या होता है? और गिरनार और शिखरजी जाने से भी कुछ नहीं होता। चले जा रहे हैं जैन
तीर्थयात्री। लौट कर वैसे के वैसे घर आ जाते हैं। जान बची और लाखों पाए, लौट कर बुद्धू घर को आए! कुछ मिलता नहीं, कुछ पाते
नहीं।
भीतर जाने से कुछ मिलेगा। वहीं है काबा, वहीं काशी, वहीं गिरनार, वहीं शिखरजी, वहीं
जेरुसलम--भीतर! और तुम्हारा चैतन्य ध्यान में जगे तो सरदार भी मिट जाएगा, मारवाड़ी भी मिट जाएगा, जिप्सी भी मिट जाएगा। शैतान
ही मिट जाएगा! अंधकार ही मिट जाएगा!
मैं जो भी बातें कर रहा हूं, वे प्रतीक हैं। इसलिए
कोई बुरा न माने, कोई नाहक कशट न ले। समझने की फिक्र करो।
लेकिन समझ तो जैसे खो गई है! नासमझी का हमने ठेका ले लिया है। हम
व्यंग्य भी नहीं समझ सकते, मजाक भी नहीं समझ सकते। हंसना ही भूल गए हैं। हंसते
भी हैं तो औरों पर हंसते हैं। और जब तक हम अपने पर हंसना न सीखें, तब तक जानना--हंसना हमें आया नहीं।
मैं जो भी तुमसे कह रहा हूं, तुम्हारे बाबत
है--सिर्फ तुम्हारे बाबत। और जब तुम हंसो तो खयाल रखना, तुम
अपने पर हंसो, किसी और पर नहीं। तुम अपने पर हंस सको तो समझो
कि एक बड़ी घटना की शुरुआत हुई। तुम अपने पर हंस सको तो एक बड़े रूपांतरण का प्रारंभ
है, एक बड़ी क्रांति की पहली किरण फूटनी शुरू हो गई। सुबह हुई,
भोर हुई, रात गई! तुम अपने पर हंस सको तो समझो
कि तुम अपने भी साक्षी होने लगे। तुम अपने पर हंस सको तो उसका अर्थ हुआ, अपने अहंकार से तुमने अपने को अलग करना शुरू कर दिया; तुम जानने लगे कि यह मैं नहीं हूं। इसलिए तो हंस सकते हो।
ये सारे व्यंग्य, जो मैं कभी उपयोग करता हूं,
तुम्हारे संबंध में हैं। इतना सदा स्मरण रखना है। तो तुम्हें लाभ
होगा। यहां जो भी मैं कह रहा हूं, वह किसी का मनोरंजन नहीं
है; जो भी मैं कह रहा हूं, वह मनोभंजन
है।
आज इतना ही।
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