कुल पेज दृश्य

रविवार, 4 जून 2017

प्रेम—पंथ ऐसो कठिन-(प्रश्नोत्तर)-प्रवचन-07

प्रेम—पंथ ऐसो कठिन-(प्रश्नोत्तर)-ओशो

प्रवचन—सातवां  
दिनांक 02 अप्रेल सन् 1979,
ओशो आश्रम, कोरेगांव पार्क पूना।

प्रश्न-सार

1—संन्यास देकर आपने एक नया ही जीवन प्रदान किया है। सिर्फ एक ही कांटा चुभता है--इतनी सुविधा और सामीप्य होने पर भी मैं आपको पूरा का पूरा नहीं पी पा रहा हूं। अब दुई खलती है। अब मिटा ही डालें।
2—आश्रम में रह कर बहुत आनंदित हूं; पर कभी-कभी अचानक उदास हो जाती हूं।
यह उदासी क्या है, जो आती है और जाती है?
3—मैं मृत्यु से बहुत डरता हूं। क्या करूं?
4—आपने भीतर के सदगुरु की बात कही। उसका क्या अर्थ है?
वे सदगुरु कब और कैसे जाग्रत होते हैं?
5—आपका संदेश?


पहला प्रश्न: संन्यास लिए आज छह साल पूरे हुए। संन्यास देकर आपने एक नया ही जीवन प्रदान किया है। जो आनंद मिल रहा है, उसके लिए आपके प्रति कैसे धन्यवाद प्रकट करूं? सिर्फ एक ही कांटा चुभता है--इतनी सुविधा और सामीप्य होने पर भी मैं आपको पूरा का पूरा नहीं पी पा रहा हूं। क्या रुकावट है, यह भी साफ नहीं। अब जी चाहता है, समीप ही नहीं, आपके उत्सव में पूरा ही डूब जाऊं। अब दुई खलती है। अब मिटा ही डालें।

अजित सरस्वती! मैं साक्षी हूं कि बहुत कुछ हुआ है। लेकिन बहुत कुछ अभी होने को शेष भी है। जितना हुआ है, उससे बहुत ज्यादा होने को शेष है। यह यात्रा समाप्त होने वाली यात्रा नहीं है।
संन्यास साधन नहीं है कि किसी साध्य को पाकर और पूर्ण हो जाएगा। संन्यास साधन भी है और साध्य भी। संन्यास मंजिल नहीं है, यात्रा है--तीर्थयात्रा है। इस यात्रा का कोई अंत नहीं। यह शुरू तो होती है, लेकिन समाप्त नहीं होती। इसका प्रारंभ है, इसकी पूर्णता नहीं है।
और यही इसका सौंदर्य है। कि रोज नई चुनौती, कि रोज नये शिखर आह्वान करते हैं। कि रोज नये मार्ग निकल आते हैं। कि रोज-रोज नई अनुभूतियां द्वार पर दस्तक देती हैं। कि एक आनंद चुका नहीं कि कतारबद्ध आनंद खड़े हो जाते हैं। यह कोई एक दीया नहीं है, पूरी दीपमालिका है, पूरी दीपावली है।
इस सत्य को ठीक से समझ लेना जरूरी है। नहीं तो बहुत बार अकारण ही पीड़ा होगी।
मन की आकांक्षा होती है कि जो शुरू हुआ, वह पूरा हो जाए। यह मन का स्वभाव है। अधूरी चीज मन को जमती नहीं। वह उसे पूरा करना चाहता है। इसलिए किसी चीज को अधूरा छोड़ दो, तो मन वापस वहीं-वहीं लौटता है--कब पूरा कर लूं, कैसे पूरा कर लूं। मन पूर्णता का प्रेमी है। उसी प्रेम में मन जीता है।
संन्यास की यात्रा में भी मन छाया की तरह पीछे चलेगा और कहेगा: कब सब पूरा हो जाए! कब परिपूर्णता आ जाए! कब वह आखिरी घड़ी आ जाए कि जिसके आगे फिर कुछ शेष न रहे!
अगर मन की इस आकांक्षा के मनोविज्ञान में उतरो, तो बहुत महत्वपूर्ण बातें हाथ लगेंगी। जरा गहरा गोता मारो, तो बड़े मोती हाथ लगेंगे। पूर्णता की आकांक्षा आत्मघात की आकांक्षा है। यह ऊपर से दिखाई नहीं पड़ता। जब तुम किसी चीज को पूरा करना चाहते हो, तो उसका अर्थ है कि तुम उस संबंध में मर जाना चाहते हो। क्योंकि पूर्णता के बाद कोई जीवन नहीं बचता। जीवन तो अपूर्णता में है। जैसे ही कोई फूल पूरा खिल गया कि फिर गिरने का वक्त आ गया। और जैसे ही नदी सागर पहुंच गई कि समाप्त हो गई। जब तक सागर दूर है और सागर का आवाहन पुकार रहा है और नदी दौड़ी जा रही है पहाड़ों, पर्वतों, कंदराओं, खाइयों-खड्डों को पार करती, तब तक नदी का जीवन है। गीत जो पूरा हुआ, वह समाप्त भी हुआ। गीत जो अधूरा है, अभी झनकेगा, अभी नाचेगा, अभी गुनगुनाएगा। अभी पूर्ण होने की चेष्टा जारी रहेगी।
जीवन में कुछ चीजें हैं जो कभी पूरी होती नहीं। क्योंकि वे शाश्वत हैं, उनकी मृत्यु नहीं है, इसलिए पूरी नहीं होतीं। जीवन में प्रेम कभी पूरा नहीं होता। क्योंकि प्रेम पूरा हो जाए तो मर जाए। और प्रेम मरना जानता ही नहीं। जीवन में संन्यास कभी पूरा नहीं होता। पूरा हो जाए तो व्यर्थ हो जाए। कितना ही पूरा करो, कुछ शेष रह जाता है, शेष रह ही जाता है। ईशावास्य ठीक कहता है: उस पूर्ण से हम पूर्ण को भी निकाल लें, तो भी पीछे पूर्ण ही शेष रह जाता है।
और जैसे-जैसे संन्यास की गहराई बढ़ेगी, आनंद के नये-नये द्वार खुलेंगे, अमृत की बूंदाबांदी होगी, वैसे-वैसे ही अभीप्सा प्रबल होगी कि कब सब पूरा हो जाए! बूंद-बूंद से मन कैसे भरे? सागर, पूरा का पूरा सागर कैसे मिल जाए! लेकिन मैं तुमसे कहना चाहता हूं, अजित सरस्वती, सागर भी मिलेगा तो भी बूंद ही सिद्ध होगा। क्योंकि सागरों के आगे महासागर हैं। उस पूर्ण से हम पूर्ण को भी निकाल लें, तो भी पीछे पूर्ण शेष रह जाएगा। यह यात्रा अंत होने वाली नहीं है। इसीलिए इसे मैं तीर्थयात्रा कहता हूं। जो यात्रा अंत हो जाए, वह तीर्थयात्रा नहीं है। जो यात्रा अनंत है, वही तीर्थयात्रा है।
तुम्हारा प्रश्न सार्थक है। तुम कहते हो: "संन्यास लिए छह वर्ष पूरे हुए। संन्यास देकर आपने एक नया जीवन प्रदान किया है।'
मैंने नया जीवन प्रदान नहीं किया। संन्यास लेकर तुमने नया जीवन स्वीकार किया। मैं देना चाहूं तो दे नहीं सकता। तुम लेना चाहो तो ले सकते हो। मैं लाख देना चाहूं और तुम द्वार-दरवाजे बंद किए रहो, तो मेरे किए कुछ भी न होगा। मैं कितना ही थपथपाऊं तुम्हारे द्वार पर और तुम वज्र-बधिर बने रहो; मैं कितना ही पुकारूं, तुम सुनो और अनसुना कर दो...। वैसे भी मित्र हैं, जो सुनते हैं और अनसुना कर देते हैं। जिनके द्वार पर मैं दस्तक दिए जाता हूं और जिनके कान पर जूं भी नहीं रेंगती। जो जैसे हैं वैसे ही हैं। संन्यास बस ऊपर-ऊपर घटा है। वस्त्र उन्होंने रंग लिए हैं, आत्मा को रंगने से बचा रहे हैं। सोचते हैं, वस्त्र को रंग लिया तो काम पूरा हो गया। वस्त्र को रंगने से तो केवल तुम्हारी तरफ से इस बात की घोषणा होती है कि अब मैं अपनी आत्मा को रंगवाने को भी तैयार हूं। कि मैं छोड़ता हूं रंगरेज के हाथों में अपने को। कपड़े तुमने रंगे, आत्मा भी मेरी रंग दो!
मैं देना चाहूं तो नया जीवन तुम्हें नहीं दे सकता। कोई किसी को नया जीवन नहीं दे सकता। हां, लेना चाहो तो तुम ले सकते हो। कहावत है न, घोड़े को हम नदी तक ले जा सकते हैं, लेकिन पानी पीने को मजबूर नहीं कर सकते। खींच-खांच कर तुम्हें मैं नदी तक भी ले आऊं, मगर तुम अगर अंजुलि न बनाओ, तुम अगर झुको न, तुम अगर पानी अंजुलि में न भरो, तुम अगर पीओ न--कंठ तक आया हुआ पानी भी वापस लौटाया जा सकता है।
और ऐसा ही दुर्भाग्य है बहुत लोगों का। कंठ तक आए पानी को भी वापस लौटा देते हैं। होने-होने को बात थी और चूक जाते हैं। इंच का फासला था, शायद इंच का भी फासला नहीं था, और चूक जाते हैं। एक कदम और, और मंजिल पूरी हो जाती, मगर वह एक कदम ही नहीं उठ पाता। अटके रह जाते हैं।
तुमने साहस किया, मेरे इशारों को तुमने अंगीकार किया--तुमने श्रद्धा की--उस श्रद्धा से तुम्हें नया जीवन मिला। धन्यवाद देना हो, अपने को ही देना। अपना सम्मान करना। अपना आदर करना। क्योंकि उस आदर से और साहस बढ़ेगा, और स्वीकृति बढ़ेगी, और श्रद्धा बढ़ेगी।
कहा है तुमने कि जो आनंद मिल रहा है, उसके लिए कैसे आपके प्रति धन्यवाद करूं?
जब धन्यवाद नहीं किया जा सकता, तभी समझना कि धन्यवाद करने योग्य कुछ बात मिली। जिन बातों के लिए धन्यवाद दिया जा सकता है, उन बातों का कोई मूल्य नहीं। मूल्य तो उन्हीं बातों का है, जहां धन्यवाद देने में जबान लड़खड़ा जाए, वाणी मौन हो जाए, शब्द खोजे न मिलें, कुछ भी कहो तो छोटा मालूम पड़े। न कहो तो बेचैनी हो, कहो तो सार्थक न मालूम पड़े। जब ऐसा कुछ घटता है, तभी जानना कि कुछ घटा। आभार प्रकट किया नहीं जा सकता। क्योंकि आभार की सीमा है, और आनंद की कोई सीमा नहीं है।
लेकिन मैं साक्षी हूं कि आनंद घट रहा है। और जब आनंद घटेगा तो आनंद की और भी अभीप्सा पैदा होगी। क्योंकि जितना स्वाद लगेगा, उतनी अभीप्सा जगेगी। जितनी ज्योति दिखाई पड़ेगी, उतनी ही--और ज्योतिर्मय हो जाऊं--ऐसी प्रार्थना उठेगी। तमसो मा ज्योतिर्गमय! जरा सी झलक मिलेगी, तो फिर पूरा जीवन मेरा ज्योति से भर जाए--ऐसी प्रार्थना, ऐसा गीत स्वाभाविक है कि उठे। वही गीत उठ रहा है। उसे कांटा मत कहो। उसे भी सौभाग्य समझो। एक घूंट उतर गई है, स्वाद आ गया है, अब पूरे सागर को पीने का मन हो रहा है--वह भी स्वाभाविक है।
तुम कहते हो: "सिर्फ एक कांटा चुभता है--इतनी सुविधा और सामीप्य होने पर भी मैं आपको पूरा का पूरा नहीं पी पा रहा हूं।'
जितने करीब आओगे, उतनी ही यह पीड़ा होगी। क्योंकि जितने करीब आओगे, उतनी और करीब आने की आकांक्षा जगेगी। और जितने समीप आओगे, उतने और समीप हो सकते हो, यह बोध स्पष्ट होगा। और तब जरा सी दूरी भी खलेगी।
दूरियां भी मिटेंगी। अगर खलती हैं, तो उन्हें मिटना ही होगा। अगर उनकी पीड़ा हो रही है, तो वे ज्यादा दिन तक टिक नहीं सकती हैं। लेकिन यह पीड़ा भी मधुर है। यह पीड़ा भी सौभाग्य है। बड़भागियों को ही होती है। रुकावट कुछ भी नहीं है।
तुम पूछते हो: "रुकावट क्या है, साफ नहीं होता।'
रुकावट कुछ भी नहीं है। यह जीवन का सहज विकास है। हर चीज एक विशिष्ट गति से बढ़ती है। मौसमी फूल जल्दी बढ़ जाते हैं। लेकिन जल्दी ही समाप्त भी हो जाते हैं। आकाश को छूने वाले देवदार बहुत धीरे-धीरे बढ़ते हैं। प्रत्येक अनुभव की अपनी गति है। और हम लाख चाहें कि जल्दी हो जाए, हमारे चाहने से जल्दी नहीं होगी। हमारी चाह से हो सकता है देर हो जाए, और देर लग जाए। क्योंकि जो ऊर्जा विकास में लगती, वह चाह में लग जाएगी। उतनी ऊर्जा विकास को नहीं मिलेगी।
प्रेम का पौधा तो इस जगत में सबसे ऊंचा है, आकाश को छूता है। संन्यास प्रेम के पौधे को पैदा करने की भूमिका है, भूमि है। संन्यास की भूमि में प्रेम का पौधा पैदा हो जाए, तो परमात्मा से नाता जुड़े। प्रेम के फूल जब खिलेंगे आकाश में, तो वह खिलना ही प्रार्थना है। वही उस परमात्मा के चरणों में हमारी अर्चना है। देर लगेगी। कोई रुकावट नहीं है। प्रत्येक वस्तु के विकास का अपना क्रम है।
मां के पेट में बच्चा नौ महीने में योग्य होगा जन्म पाने के। कोई रुकावट नहीं है। कोई ऐसा नहीं है कि मां सोचे कि बड़ी देर लग रही है; कि तीन महीने हो गए, अभी तक बच्चा पैदा नहीं हुआ; चार महीने हो गए, बच्चा अभी तक पैदा नहीं हुआ--इतनी देर क्यों लग रही है? नौ महीने लगेंगे।
बड़ी प्यारी कहानी है लाओत्सु के संबंध में कि वह अपनी मां के पेट में बयासी वर्ष रहा। ऐसा हो तो नहीं सकता; इतिहास तो नहीं है यह, पुराण है; लेकिन बहुमूल्य है। और पुराण सदा इतिहास से ज्यादा मूल्यवान होता है--इसे याद रखना। इसे कभी भूलना ही मत। इतिहास तथ्य होता है, पुराण सत्य होता है। इतिहास तो क्षुद्र घटनाओं को इकट्ठा करता है। समय की रेत पर जो चिह्न छूट जाते हैं, उनको इतिहास इकट्ठा करता है। और शाश्वत में जो स्वर गूंजते हैं, पुराण उनको इकट्ठा करता है।
लाओत्सु जैसा बेटा पैदा हो, इतना परिपक्व, तो बयासी साल भी कम हैं मां के पेट में रहना--यह अर्थ है कथा का। नौ महीने में तो साधारण बच्चे पकते हैं, नौ महीने में तो कोई भी पकता है, लाओत्सु जैसा बच्चा पैदा हो तो बयासी वर्ष भी कम हैं। जरूर लाओत्सु बयासी वर्ष मां के गर्भ में रहा होगा, तब इतना परिपक्व पैदा हुआ।
कहते हैं कि लोग रोते पैदा होते हैं। जरथुस्त्र के संबंध में कहानी है कि जरथुस्त्र अकेला बच्चा है जो हंसता पैदा हुआ। रोते हुए पैदा होना बिलकुल स्वाभाविक है। रोते हुए मरना भी बिलकुल स्वाभाविक है। हंसते हुए पैदा होना और हंसते हुए मरना बड़ी अनूठी घटना है। अब जरथुस्त्र जैसे बच्चे को, जो हंसता हुआ पैदा हुआ, इतना बोध लेकर पैदा हुआ कि जिंदगी उसे हंसने योग्य मालूम पड़ी, अगर मां के पेट में लंबे दिन तक रहना पड़े तो आश्चर्य नहीं है।
लाओत्सु के संबंध की कहानी यह भी कहती है कि लाओत्सु जब पैदा हुआ, उसके सारे बाल सफेद थे। बयासी साल मां के पेट में रहा, तो सारे बाल सफेद हो ही गए होंगे।
सफेद बाल प्रज्ञा के प्रतीक हैं, प्रौढ़ता के प्रतीक हैं। इतनी प्रज्ञा, इतनी गहन अनुभूति, इतना बोध, कि जैसे हिमालय के शिखर बर्फ से ढंके हों, ऐसे शुभ्र बालों से ढंका हुआ लाओत्सु पैदा हुआ।
हर चीज का समय है। हर चीज के विकास की अपनी गति है। हर चीज का अपना छंद है।
अजित, कोई कांटा नहीं है। पीड़ा तो है, लेकिन कांटे की पीड़ा नहीं है। पीड़ा इसी बात की है कि और हो सकता है, क्यों नहीं हो रहा है? पीड़ा यह दरिद्र की नहीं है, समृद्ध की है। यह पीड़ा दीन की नहीं है, दुखी की नहीं है, यह पीड़ा सुखी की है। आनंद हो रहा है, और भी तो हो सकता है! और क्यों नहीं हो रहा है? यह पीड़ा कांटे जैसी नहीं है, यह पीड़ा फूल जैसी है। यह फूल जैसी सुंदर है।
और रुकावट कोई भी नहीं है। सहज छंद है विकास का। एक-एक कदम ही उठना चाहिए। बहुत जल्दी कदम उठ जाएं तो कच्चे रह जाते हैं। जीवन की प्रक्रियाएं पूरी होनी चाहिए। जल्दबाजी, अधैर्य घातक हो सकता है।
स्कूल में बच्चे परीक्षा देते हैं, तो चोरी भी कर सकते हैं, दूसरे की कापी में उत्तर देख सकते हैं; तो उत्तर तो लिख देंगे ठीक, लेकिन विधि नहीं होगी। और बिना विधि के उत्तर अर्थहीन है; पकड़े जाएंगे। गणित की किताब में गणित दिया होता है, किताब के पीछे उत्तर दिए होते हैं। गणित पढ़ लिया, किताब के पीछे उत्तर देख लिया, इससे तुम गणितज्ञ न हो जाओगे। विधि का क्या होगा? विधि समय लेती है। निष्कर्ष तक पहुंचना है तो प्रक्रिया से गुजरना होगा।
कोई रुकावट नहीं है। लेकिन गंगा चलेगी गंगोत्री से, कोई रुकावट न हो तो भी तो गंगासागर तक पहुंचने में समय लगेगा न! और जिनको हम रुकावटों की तरह देखते हैं, वे रुकावटें हैं? नहीं, रुकावटें नहीं हैं। अगर उन सबको हम हटा लें, तो गंगा का सारा सौंदर्य भी खो जाएगा। न हों बीच में पहाड़, न हों कंदराएं, न हों खड्ड, न हों चट्टानें, सपाट रास्ता हो गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक, राजपथ हो, न ऊंचाइयां हों, न नीचाइयां हों, न चक्करदार घुमाव हों, सीधा रेखा में बंधा हुआ रास्ता हो, तो नहर होगी, गंगा नहीं बचेगी।
और नहर और नदी में तुमने फर्क देखा?
नहर में वह सौंदर्य नहीं होता। क्योंकि नहर तो रेल की पटरियों पर दौड़ती हुई रेलगाड़ी जैसी है। उसमें निसर्ग नहीं है, कृत्रिमता है। गंगा का आनंद ही यही है कि कभी उतरती है ऊंचे पहाड़ों से, गिरती है गहरे खड्डों में, कभी मैदानों में दौड़ती है, कभी बाएं, कभी दाएं, कभी नीचे, कभी ऊपर...उन सारी अनुभूतियों से गुजर कर ही तो गंगा की पवित्रता है, उसका सौंदर्य है; उसकी विशिष्टता है; उसकी निजता है, उसकी आत्मा है। नहरों की कोई आत्मा नहीं होती। सब नहरें एक जैसी होती हैं। नदियों की आत्माएं होती हैं। सब नदियां एक जैसी नहीं होती हैं।
मैं यहां तुम्हें अगर चरित्र सिखा रहा होता, तो तुम नहरों जैसे लोग होते। मैं तुम्हें चरित्र नहीं सिखा रहा हूं, मैं तुम्हें निसर्ग का सम्मान सिखा रहा हूं। मैं तुम्हें ऊपर से कोई आचरण नहीं दे रहा हूं, पुकार दे रहा हूं तुम्हारे अंतस को--कि खोजो अपना मार्ग, उतरो पहाड़ों से, चलो सागर की तलाश में। मगर तुम्हारा मार्ग तुम्हारा हो। तुम किसी का अनुकरण न करना। तुम किसी के पीछे मत चलना। पीछे चलने वाले कहीं पहुंचते ही नहीं। पीछे चलने वाले अंधे होते हैं और अंधे ही रह जाते हैं।
रुकावट कोई भी नहीं है, अजित! जो हो रहा है, जिस गति से हो रहा है, सम्यक है। मगर तुम्हारी तकलीफ भी मैं समझता हूं। आकांक्षा तो होती है, अभीप्सा होती है कि जल्दी हो जाए। कल का क्या भरोसा? जीवन हाथ रहे न रहे!
और तुम्हारी पीड़ा उन सभी की पीड़ा है, जिनको आनंद का स्वाद मिलेगा। जब स्वाद मिलता है, तो कोई पूरा-पूरा ही डूब जाना चाहता है--समीप ही नहीं आना चाहता, पूरा डूब जाना चाहता है। लेकिन पूरे डूबने की घटना एक विशिष्ट परिपक्वता के क्षण में घटेगी। हम उसे ला नहीं सकते। आएगी, अपने से आएगी। कब आ जाएगी, बिना खबर दिए, आकस्मिक द्वार पर खड़ी हो जाएगी कि तुम भौचक्क, अवाक रह जाओगे। तुम्हारी अपेक्षा से आने वाली नहीं है।
अक्सर तो ऐसा होता है, जब तुम्हें बिलकुल भी अपेक्षा न होगी, जब तुम्हें बिलकुल भी सुध न होगी, तब अचानक मेहमान आ जाएगा। क्योंकि जब कोई अपेक्षा नहीं होती, कोई आकांक्षा नहीं होती, तब तुम्हारा हृदय अपनी परिपूर्णता में खुला होता है। अपेक्षा में थोड़ा बंद हो जाता है। जितनी तेज अपेक्षा होती है, उतना संकीर्ण हो जाता है। तनाव पैदा हो जाता है। द्वंद्व बन जाता है। जब तुम निर्द्वंद्व होओगे, जब तुम जीवन को जैसा जितना मिल रहा है उतने को ही धन्यवाद देकर अनुगृहीत होओगे, परितृप्त, उतने से ही जितना परमात्मा दे आज, और ज्यादा की मांग न करोगे, उस दिन ज्यादा भी होगा।
इस गणित को ठीक से याद रख लेना। मांग मत करना, तो ज्यादा रोज-रोज होगा। मांग करोगे, अड़चन पड़ जाएगी, बाधा बन जाएगी।
तुम कहते हो: "अब जी चाहता है, समीप ही नहीं, आपके उत्सव में पूरा ही डूब जाऊं।'
डूब ही रहे हो। डूबते ही जा रहे हो। घटना इतनी स्वाभाविक रूप से घट रही है कि पता नहीं चल रहा है। रोज-रोज वृक्ष बड़े होते हैं, पता नहीं चलता। अभी हम यहां बैठे बात कर रहे हैं, वृक्ष बड़े हो रहे हैं। तुम जब आए थे तब और अब--फर्क पड़ गया। कुछ कलियां खिल गई होंगी, कुछ अंकुर फूट गए होंगे, कुछ पल्लव बाहर निकल आए होंगे, कुछ पुराने पत्ते गिर गए होंगे। प्रतिपल बड़े हो रहे हैं। मगर पहचान में नहीं आएंगे। हां, अगर दो-चार वर्ष बाद आओ यहां, तब चकित रह जाओगे देख कर--इतने बड़े हो गए वृक्ष!
बच्चा रोज बढ़ता है, मां को पता नहीं चलता। मेहमान वर्ष, दो वर्ष बाद जब घर में आते हैं, तब वे कहते हैं कि बेटा बहुत बड़ा हो गया। मां रोज-रोज देखती थी।
ऐसी ही प्रत्येक साधक की दशा है। तुम अपने को रोज-रोज देखते हो। लगता है, कुछ नहीं हो रहा है, जल्दी नहीं हो रहा है। सब हो रहा है! मगर शनैः-शनैः। दूसरे पहचानेंगे, तुम न पहचान पाओगे। बहुत बार ऐसा होगा कि जो क्रांति तुममें घटेगी, उसे तुम न पहचान पाओगे पहले, दूसरे पहले पहचानेंगे। क्योंकि दूसरों के सामने तुम पूरे प्रकट नहीं होते, सदा उपलब्ध नहीं होते, वे कभी-कभी तुम्हें देखते हैं।
लेकिन मैं बारीकी से देख रहा हूं। मैं संन्यास देता हूं तो उसका अर्थ ही यही है कि तब मैं तुम्हारा पीछा करूंगा। छाया की तरह तुम्हारा साक्षी रहूंगा। शुभ हो रहा है। उत्सव में डूबना भी हो रहा है। यह आकांक्षा भी उसी डूबने का एक हिस्सा है। दुई खल रही है--मिटने की तैयारी हो रही है। मिटना है। डूबना भी है उस उत्सव में, जो यहां निर्मित हो रहा है। इसमें और तुममें रंचमात्र भेद न रह जाए। यह तुम्हारा ही नृत्य हो, तुम्हारा ही उत्सव हो, तुम्हारा ही गीत हो। और तभी तो तुम इस योग्य बन सकोगे कि और जो प्यासे हैं बहुत, उनको भी निमंत्रण दे आओ।
मेरे प्रत्येक संन्यासी को न केवल खुद डूबना है, बल्कि एक दिन अपनी मस्ती के कारण और अनेकों को निमंत्रण भी दे आना है। उसकी मस्ती निमंत्रण दे आएगी।
यह दुनिया एक नये मनुष्य की प्रतीक्षा कर रही है। तुम सौभाग्यशाली हो, क्योंकि तुम्हारे हाथ में एक ऐसा अवसर है जो कभी-कभी मनुष्य-जाति के हाथ में होता है। हर पच्चीस सौ साल में सिर्फ एक बार ऐसा अवसर मनुष्य-जाति के हाथ में होता है, जब मनुष्यता एक नया कदम लेती है, एक नया सोपान चढ़ती है। वे पच्चीस सौ वर्ष पूरे हो रहे हैं। जो सौभाग्य बुद्ध के समय के लोगों को था, जो बुद्ध के संघ में बैठ कर लोगों ने आनंद अनुभव किया था, वैसे आनंद-अनुभव की तुम्हारी भी अनायास क्षमता है। अनअर्जित तुम्हारा सौभाग्य है। बुद्ध के पास बैठे थे जो, उन्हें भी पता नहीं था कि वे किस महाक्रांति में सम्मिलित हो रहे हैं। तुम्हें भी ठीक-ठीक पता नहीं है। जागोगे तो धीरे-धीरे पता चलेगा कि तुम सिर्फ किसी पिटी-पिटाई परंपरा के हिस्से नहीं हो। न तुम हिंदू हो, न मुसलमान, न ईसाई। तुम्हारा अतीत से कोई संबंध नहीं है। तुम तो एक भविष्य के उदघोषक हो। एक नये मनुष्य के। एक नई धार्मिकता के। डूबोगे तो औरों को भी डुबा सकोगे।
और अजित के मन में वह भी पीड़ा है। इस प्रश्न में तो नहीं लिखा है, लेकिन और-और प्रश्नों में बहुत बार लिखते हैं--कि कैसे आपकी बात दूसरों तक पहुंचाऊं? कैसे औरों को भी कह दूं कि संपदा लुट रही है और तुम क्यों वंचित हो?
डूबोगे उत्सव में भी! औरों से कहा भी जाएगा! औरों को डुबाओगे भी!
पसे-हिजाब अभी तक हैं कितने नज्जारे,
उफक के पार हैं रक्सां हजार सय्यारे।
पर्दे के पीछे अभी बहुत सी बातें छिपी हैं।
पसे-हिजाब अभी तक हैं कितने नज्जारे,
उफक के पार हैं रक्सां हजार सय्यारे।
क्षितिज के पार हजारों नक्षत्र नाच रहे हैं और पर्दे के पीछे बड़े रहस्य छिपे हुए हैं। पर्दा उठाना है। क्षितिज के पार लोग देख सकें, ऐसी आंखें पैदा करवानी हैं। तुम थोड़े से संन्यासियों के पास आंखें पैदा हो जाएं, तो फिर हम संक्रामक बीमारी की तरह फैलना शुरू हों।
जैसे बीमारियां संक्रामक होती हैं, वैसे ही स्वास्थ्य भी संक्रामक होता है। बीमारियों से भी ज्यादा संक्रामक होता है। नहीं तो बुद्ध के समय में न तो प्रचार के साधन थे, न माध्यम थे, तो भी बुद्ध ने सारे एशिया को छा लिया। जीसस के समय में कोई साधन न थे, लेकिन सारी पृथ्वी जीसस की वाणी से गूंज उठी। आज तो पृथ्वी बड़ी छोटी हो गई है--एक छोटा सा गांव। प्रचार के साधन हैं, माध्यम हैं। आज तो हम प्रत्येक प्राण का तार छू सकते हैं; पर्दे उठाए जा सकते हैं, क्षितिज हटाया जा सकता है।
पसे-हिजाब अभी तक हैं कितने नज्जारे,
उफक के पार हैं रक्सां हजार सय्यारे।
कदम बढ़ा जरा जल्दी कदम बढ़ा हमदम,
कि कारवानेत्तमन्ना है सुस्तगाम अभी।
आदमी बहुत धीमे-धीमे सरक रहा है, मुर्दे की तरह चल रहा है। इसलिए मित्रो, जरा जल्दी कदम बढ़ाओ!
कदम बढ़ा जरा जल्दी कदम बढ़ा हमदम,
कि कारवानेत्तमन्ना है सुस्तगाम अभी।
जबीने-मेह पे छाई है जुल्मतों की गर्द,
निगारे-सुबह में गलतां है रंगे-शाम अभी।
सूरज पर धूल जमी है सदियों की। और सुबह भी कैसी सुबह है कि इसमें शाम अभी तक मिश्रित है।
जबीने-मेह पे छाई है जुल्मतों की गर्द,
निगारे-सुबह में गलतां है रंगे-शाम अभी।
बहारे-लाला-ओ-गुल है खिजांबदोश हनोज,
मजाके-बालो-परी है असीरे-दाम अभी।
दुनिया बदलनी है! अभी पतझड़ वसंत के कंधे पर सवार है। दुनिया बदलनी है! जिनके पास पंख हैं, उन्हें पंखों की याद नहीं है, वे पिंजड़ों में सिकुड़ कर बैठे हैं। जो आकाश में उड़ सकते हैं, भूल ही गए हैं कि उड़ने की उनकी क्षमता है।
बहारे-लाला-ओ-गुल है खिजांबदोश हनोज,
मजाके-बालो-परी है असीरे-दाम अभी।
हयात आज भी है जहमतकशे-हुदूदो-कुयूद,
खिरद भी खाम अभी है जुनूं भी खाम अभी।
जीवन बहुत सी सीमाओं में आबद्ध है--हिंदू की, मुसलमान की, जैन की, बौद्ध की; ब्राह्मण की, क्षत्रिय की, शूद्र की; भारतीय की, चीनी की, जापानी की--जीवन बहुत सी सीमाओं में बंद है। बुद्धि भी कच्ची है अभी आदमी की और हृदय तो और भी कच्चा है।
हयात आज भी है जहमतकशे-हुदूदो-कुयूद,
खिरद भी खाम अभी है जुनूं भी खाम अभी।
बुद्धि भी कच्ची है और पागलपन भी कच्चा है, प्रेम भी कच्चा है। इन्हें पकाना है। ये सीमाएं तोड़नी हैं।
हजार सदियों ने छोड़े हैं रंगारंग नुकूश,
मगर फसाना-ए-हस्ती है नातमाम अभी।
और सदियों-सदियों में अदभुत लोग हुए। कभी कोई बुद्ध, कभी कोई जरथुस्त्र, कभी कोई मोहम्मद, कभी कोई कबीर, कभी कोई नानक। सदियों ने बहुत अदभुत रंग उड़ाए, बहुत ज्योतियां जलाईं। मगर कुछ अजीब सी बात है कि आदमी, दीये जब जलते हैं तो उनकी तरफ पीठ किए रहता है और दीये जब बुझ जाते हैं तो उनकी पूजा करता है।
हजार सदियों ने छोड़े हैं रंगारंग नुकूश,
मगर फसाना-ए-हस्ती है नातमाम अभी।
लेकिन आदमी वैसा का वैसा अपूर्ण, अधूरा, अधकचरा।
नया जहान, नई जिंदगी, नया इन्सान,
जमीं पे करना है जन्नत का एहतिमाम अभी।
स्वर्ग को उतारना है अभी पृथ्वी पर। उतारा नहीं जा सका। बातें चलती रहीं, उतारा नहीं जा सका। बड़ा काम है। और बड़ा काम है, इसलिए बड़े आनंद से भरो। छोटे काम तुम्हें विराट नहीं कर सकते। इस जगत में बड़े से बड़ा काम होने को शेष है। जमीन पर स्वर्ग को उतारना है। आदमी को प्रेम के पाठ, आनंद के पाठ सिखाने हैं। मगर वे ही सिखा सकेंगे ये पाठ, जो प्रेम में और आनंद में डूबेंगे।
तुम्हारी आकांक्षा, अजित, सुंदर है। लेकिन आकांक्षा को मांग मत बनाना। आकांक्षा को अपेक्षा मत बनाना। जीवन जिस गति से बढ़ रहा है तुम्हारा, उसे जबरदस्ती त्वरा मत देना। पकने दो। अपने आप परिपक्व होने दो।
मैं खुश हूं। मैं प्रसन्न हूं। मैं तुम्हारी गति से आनंदित हूं।


दूसरा प्रश्न: आश्रम में रह कर बहुत आनंदित हूं; पर कभी-कभी अचानक उदास हो जाती हूं। यह उदासी क्या है, जो आती है और चली जाती है? कृपया समझाएं।

रंजन भारती! जीवन का सबसे बड़ा पाठ जीवन के द्वंद्व को समझने में छिपा है। यहां दिन है तो रात है। और यहां जन्म है तो मृत्यु है। और यहां सफलता है तो असफलता है। और यहां दोनों साथ ही हो सकते हैं। जो भी चाहेगा कि एक को चुन लूं और दूसरे को छोड़ दूं, वह व्यर्थ की मुसीबत में पड़ जाएगा। उसकी जिंदगी चिंताओं से घिर जाएगी। चिंताओं से मुक्त होने का एक ही उपाय है: दोनों को अंगीकार कर लो। दोनों हैं। दोनों साथ-साथ हैं।
गुलाब में फूल भी लगे हैं और कांटे भी। हमारा मन तो कहता है, फूल ही फूल हों। हमारा मन तो कहता है, दिन ही दिन हो। हमारा मन तो कहता है कि सुख ही सुख हो। मगर हमारे मन से अस्तित्व के नियम नहीं चलते। अस्तित्व के नियम तो जैसे हैं वैसे हैं। हमारे मन से अस्तित्व के नियम नहीं चल सकते, लेकिन हम अपने मन को अस्तित्व के नियमों के अनुसार चला सकते हैं। जो हो सकता है वह यह कि हम अस्तित्व के नियम को समझें और उसके अनुसार चलें। बस इस अनुसार चलने को ही मैं संन्यास कहता हूं।
अस्तित्व के नियम से जो लड़ रहा है, अज्ञानी है। क्योंकि हारेगा। अस्तित्व से जीता नहीं जा सकता। अस्तित्व से जीतना तो वैसे ही असंभव है जैसे कोई लहर सागर से जीतना चाहे, कि कोई पत्ता वृक्ष से जीतना चाहे, कि तुम्हारा बाल तुमसे जीतना चाहे। अस्तित्व को जीता नहीं जा सकता।
लेकिन अस्तित्व के साथ दो विकल्प हैं।
हम अस्तित्व के विपरीत हो सकते हैं या अस्तित्व के साथ हो सकते हैं। लड़ सकते हैं, जीत तो नहीं सकेंगे। लड़ने में खुद ही टूटेंगे और मिटेंगे। और अगर अस्तित्व के साथ हो लें तो बिना जीते जीत हो जाती है। समर्पण में जीत है। अस्तित्व का नियम है कि जहां सुख है वहां दुख है। इस नियम को हम स्वीकार नहीं करना चाहते। हम कहते हैं: सुख-सुख तो हम चुनने को राजी हैं, दुख हम चुनने को राजी नहीं हैं। हम सिक्के का एक पहलू चुनना चाहते हैं, दूसरे पहलू को नहीं चुनना चाहते। दूसरा पहलू कहां जाए? एक पहलू तुमने चुना, दूसरा भी साथ आ गया।
तो पहली बात, रंजन, तू कहती है: "आश्रम में रह कर बहुत आनंदित हूं; पर कभी-कभी अचानक उदास हो जाती हूं। यह उदासी क्या है, जो आती है और चली जाती है?'
उस आनंद की छाया है। उस आनंद का दूसरा पहलू है। आनंद को भी स्वीकार करो और उदासी को भी स्वीकार करो। तुम्हारी स्वीकृति में जरा भी भेद न हो। तुम चुनावरहित स्वीकार करो। आनंद आए तो आनंद और उदासी आए तो उदासी। तुम यह मत कहना कि आनंद आए तो रुके, जाए न; और तुम यह मत कहना कि उदासी आई है तो चली जाए, रुके न। आनंद आए तो आनंद मेहमान बने। स्वागत करना। और उदासी आए तो उदासी का स्वागत करना--उतना ही जितना आनंद का किया है। तब तुम्हारे जीवन में एक क्रांति घट जाएगी।
कैसी क्रांति? कौन सी क्रांति?
तुम्हारे जीवन में सबसे महत्वपूर्ण घटना घटेगी! और वह घटना यह है कि तुम्हारे भीतर साक्षी का जन्म हो जाएगा। तुम आनंद को भी आते देखोगी, उदासी को भी आते देखोगी; आनंद को जाते देखोगी, उदासी को जाते देखोगी। और तुम्हारे भीतर एक बात स्पष्ट हो जाएगी कि मैं न तो आनंद हूं और न उदासी। मैं दोनों का द्रष्टा, साक्षी। मेरे सामने दोनों आते हैं, नाचते हैं, विदा हो जाते हैं। मैं अछूता, दर्पण की भांति। इस साक्षीभाव को अनुभव कर लेना ही समस्त धर्मों का सार है।
रंजन, तेरी तकलीफ यह है कि आनंद आता है, तो तू छाती लगा लेती होगी। कस कर पकड़ लेती होगी। छूट न जाए! फिर न चला जाए। पहले भी आया था और चला गया, अब न चला जाए! इस बार तो नहीं जाने देंगे! तू घेरा बांधती होगी। तू गठबंधन बांधती होगी। तू भांवर डालती होगी। तू लक्ष्मण-रेखा खींचती होगी कि बस इसके बाहर मत जाना। और उसी सब में आनंद नष्ट हो जाएगा। आनंद को भोगने का समय भी कब मिलेगा तुझे? बचाने में ही समय व्यतीत हो जाएगा।
और फिर उदासी आती है, तो मन खिन्न होता है कि फिर आ गई उदासी। नहीं चाहते, वह आ गया। उदासी उतना उदास नहीं करती, जितना उदासी आ गई, यह बात उदास करती है।
उदासी की तो अपनी कुछ खूबियां हैं, अपने कुछ रहस्य हैं। अगर उदासी स्वीकार हो तो उदासी का भी अपना मजा है। मुझे कहने दो इसी तरह, कि उदासी का भी अपना मजा है। क्योंकि उदासी में एक शांति है, एक शून्यता है। उदासी में एक गहराई है। आनंद तो छिछला होता है। आनंद तो ऊपर-ऊपर होता है। आनंद तो ऐसा होता है जैसे नदी भागी जाती है और उसके ऊपर पानी का झाग। उदासी ऐसी होती है जैसी नदी की गहराई--अंधेरी और काली। आनंद तो प्रकाश जैसा है। उदासी अंधेरे जैसी है। अंधेरी रात का मजा देखा? अमावस की रात का मजा देखा? अमावस की रात का रहस्य देखा? अमावस की रात की गहराई देखी?
मगर जो अंधेरे से डरता है, वह तो आंख ही बंद करके बैठ जाता है, अमावस को देखना ही नहीं चाहता। जो अंधेरे से डरता है, वह तो अपने द्वार-दरवाजे बंद करके खूब रोशनी जला लेता है। वह अंधेरे को झुठला देता है। अमावस की रात आकाश में चमकते तारे देखे? दिन में वे तारे नहीं होते। दिन में वे तारे नहीं हो सकते। दिन की वह क्षमता नहीं है। वे तारे तो रात के अंधेरे में, रात के सन्नाटे में ही प्रकट होते हैं। वे तो रात की पृष्ठभूमि में ही आकाश में उभरते हैं और नाचते हैं।
ऐसे ही उदासी के भी अपने मजे हैं, अपने स्वाद हैं, अपने रस हैं। आनंद में ही आनंद नहीं है, रंजन, उदासी में भी आनंद है। मगर साक्षी को मिलता है। साक्षी हर चीज में से रस निचोड़ लेता है। कांटों में से फूल निचोड़ लेता है। पत्थरों को हीरे बना लेता है। साक्षी का जादू बड़ा है। इस एक शब्द में, साक्षी में, जादुओं का जादू है। तो तू साक्षी बन। जब आनंद आए, तो भी देखना: आया। और जो आता है वह जाएगा, इसे भी स्मरण रखना। इसलिए पकड़ने की कोई जरूरत नहीं है। आओ तो ठीक, सिर आंखों, जाओ तो ठीक। आए तो स्वागत कर लेना, जाए तो अलविदा कह देना। न तो आते समय लगाव बनाना, न जाते समय मोह से पीड़ित होना। और ऐसा ही स्वागत करना उदासी का भी। आए तो स्वागत, जाए तो अलविदा।
उदासी में और आनंद में भेद छोड़ो। चुनाव छोड़ो। निर्विकल्प भाव से, अचुनाव, थिर भाव से दोनों को देखो। और तब आश्चर्यों का आश्चर्य घटित होता है। आनंद में तो आनंद होता ही है, उदासी में भी आनंद के नये-नये झरने फूट पड़ते हैं। आनंद में तो आनंद होता ही है, उदासी भी नये ढंग का आनंद प्रतीत होने लगती है। क्योंकि है तो आनंद का ही पहलू; है तो उसका ही दूसरा पहलू। तब फिर तुम्हें कोई पीड़ित नहीं कर पाएगा।
और इस चिंता में न पड़ो कि ऐसा क्यों होता है? यह स्वाभाविक है। जैसे दिन के पीछे रात, रात के पीछे दिन। कारण नहीं है। यह जीवन का नियम है। जीवन का नियम है द्वंद्व। और तुम्हारे भीतर का नियम है निर्द्वंद्व। जीवन के द्वंद्व को निर्द्वंद्व साक्षी से देखो।
फिर रंजन, घर-द्वार छोड़ कर तू यहां आ गई है। पति को छोड़ आई है, बेटे को छोड़ आई है। यहां आई तो थी थोड़े दिन के लिए, फिर तेरा जाना संभव नहीं हो सका। तू डूबी सो डूबी। पति तेरे प्रतीक्षा कर रहे हैं लॉस एंजिल्स में, दूर अमरीका में। तुझे पता नहीं होगा, मुझे चिट्ठियां लिखते हैं! और उन चिट्ठियों में लिख देते हैं, रंजन को मत बताना। याद आती होगी तुझे घर की भी। माना कि अब यह तेरा घर है, फिर भी अतीत एकदम से तो नहीं पुंछ जाता। पुंछते-पुंछते ही पुंछता है। तू सब छोड़ आई है। उन सबकी रेखाएं रह गई होंगी। सब सुविधाएं छोड़ कर यहां आश्रम की सारी असुविधाओं में तू जी रही है। प्रेम है तेरा गहरा मुझसे। और सत्य की तेरी खोज गहन है। इसलिए यह तू सब कर सकी है। मगर कभी न कभी किसी क्षण में घर की याद आती होगी, गृहस्थी की याद आती होगी। तूने सब घर बसाया होगा, सुंदर-सुंदर फर्नीचर लाया होगा, चित्र टांगे होंगे, पर्दे लटकाए होंगे--बड़ी भावनाओं से, बड़े प्रेम से। पति को छोड़ आई, बेटे को छोड़ आई। स्वाभाविक है कि कभी-कभी तरंग आ जाती होगी, उदास करती होगी। जाना भी संभव नहीं है।
लेकिन ये घाव भीतर धीरे-धीरे भरेंगे। समय लगेगा। और समय हमें देना चाहिए। माना कि जो तू छोड़ आई है, सब सपना था। लेकिन सपने भी तो बड़े प्यारे होते हैं। सभी सपने दुखांत तो नहीं होते।

रात सपनों में ढली थी,
रात सपनों में पली थी,
हो गया जब प्रात देखा:
रात सपनों ने छली थी,
हो गई जिससे उनींदी रात सारी,
स्वप्न वह भी रह गया आखिर अधूरा!

स्वप्न जो था स्वप्न ही है,
स्वप्न ही वह चिर रहेगा,
विवश मानव मूक स्वर में,
युग-युगों तक यह कहेगा:
हो गई जिससे उनींदी रात सारी,
स्वप्न वह भी रह गया आखिर अधूरा!

रैन भी है चिर उनींदी,
हैं नयन भी चिर उनींदे!
ये विकल से कह रहे
अरमान युग-युग के उनींदे:
हो गई जिससे उनींदी रात सारी,
स्वप्न वह भी रह गया आखिर अधूरा!

एक अधूरा सपना पीछे छोड़ आई है। सपना ही था, इसलिए छोड़ भी सकी है। मगर सपना इतने दिन देखा था कि करीब-करीब सत्य मालूम होने लगा था। पति-पत्नी साथ रहते-रहते कितने सत्य हो जाते हैं! नाता सब नदी-नाव संयोग। कौन किसका है यहां? लेकिन कितने अपने मालूम होने लगते हैं! कभी-कभी तो टे्रन में यात्रा करते वक्त भी दस-पांच घंटे में किसी से ऐसी मैत्री बन जाती है कि जब तुम्हारा स्टेशन आ जाता है और उतरने की घड़ी आती है तो पीड़ा होती है। घड़ी दो घड़ी का साथ था, फिर भी नाता बन गया, आसक्ति बन गई। रास्ते में मिले यात्री भी एक-दूसरे को पत्र लिखने लगते हैं, एक-दूसरे का पता लिख लेते हैं!
यह जिंदगी भी रास्ते पर चलते हुए राहगीरों का कारवां है। कोई साथ हो लिया, पति हो गया; कोई साथ हो लिया, पुत्र हो गया; कोई साथ हो लिया, मित्र हो गया। और इन सपनों में बड़ी मिठास है। नहीं तो इतने लोग सपने न देखते रहें। माना कि झूठ हैं, मगर मन को उलझाए रखते हैं, मन को भरमाए रखते हैं।
तुझे यादें आ जाती होंगी पुरानी। यह बिलकुल स्वाभाविक है। साक्षीभाव से उन्हें देखना। जब छोड़ चुकी है परिवार को, तो परिवार की याद भी धीरे-धीरे छूट जाएगी।
मैं किसी को छोड़ने को कहता नहीं, यह खयाल रखना। मैं किसी को शिक्षा नहीं देता कि परिवार को छोड़ दो। लेकिन तेरे बस के बाहर था। यह अन्याय हुआ होता कि तुझे मैं जबरदस्ती वापस भेजता। इसलिए तुझे रहने की स्वीकृति दे दी। नियम मेरे जड़ नहीं हैं। प्रत्येक व्यक्ति के साथ मेरा नियम रूपांतरित हो सकता है। मेरे पास कोई बंधे हुए हिसाब नहीं हैं। किसी को मैं कहता हूं: जाओ, लौट जाओ घर, परिवार की फिक्र करो। क्योंकि देखता हूं अभी लगाव और रस इतना है कि यहां रहोगे तो सिर्फ कष्ट ही कष्ट पाओगे। फिर किसी को मैं देखता हूं: जैसे जन्मजात संन्यासी। जैसे कि घर पीछे है या नहीं है, कोई भेद ही नहीं पड़ता। उसे अगर भेजूं जबरदस्ती, तो ज्यादती हो जाएगी, हिंसा हो जाएगी।
रंजन में ऐसा ही भाव मैंने देखा। आई थी दो-चार-दस दिन को; सिर्फ देखने आई थी। इसीलिए पति मुझे उसके बार-बार लिखते हैं कि यह मामला क्या है? वह सिर्फ दो-चार-दस दिन के लिए गई थी, अब दस महीने हो गए हैं। अब लौटना है कि नहीं? लेकिन रंजन की आंख में देखता हूं तो लगता है: निन्यानबे प्रतिशत उसका कोई लगाव नहीं है। निन्यानबे प्रतिशत वह मुक्त है। तो अब एक प्रतिशत के लिए निन्यानबे प्रतिशत का बलिदान नहीं दिया जा सकता। हां, अगर इससे उलटा होता कि देखता एक प्रतिशत यहां रहना चाहती है, निन्यानबे प्रतिशत घर, तो मैं उसे समझा-बुझा कर भेज देता, जरूर भेज देता। क्योंकि मेरे संन्यास को इस तरह की क्षुद्र सीमाओं में मैंने आबद्ध नहीं किया है। मेरा संन्यासी घर में रह सकता है, परिवार में रह सकता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि मेरे संन्यासी को घर में रहना ही पड़ेगा। अगर किसी के भीतर ऐसा भाव उठे कि घर छूट ही जाए, तो उसे मैं जरूर आज्ञा दूंगा कि वह घर से मुक्त हो जाए।
पति भी कुछ परेशान हैं, ऐसा नहीं है। क्योंकि पत्रों से ऐसा नहीं लगता कि कोई हार्दिक पीड़ा है। नहीं तो दस महीने पत्नी न लौटी हो, आ गए होते। कुछ हार्दिक पीड़ा नहीं है। व्यवस्थागत पीड़ा है--कि कौन घर की सम्हाल करे? जो पत्र मुझे लिखते हैं, उनमें भाव ऐसा नहीं है कि मैं बिना पत्नी के कैसे रहूं? कि उसके बिना मुझे खल रहा है। कि उसके बिना मैं न सो सकता हूं, न भोजन कर सकता हूं। ऐसा कुछ नहीं है। कौन घर की फिक्र करे? कौन घर की चिंता करे? यह घर-गृहस्थी को कौन सम्हाले? इस सब में प्रेम का कोई नाता नहीं है, व्यवस्था की बात है। पत्नी एक व्यवस्थापक थी। शायद दोनों के बीच, जिसको नेह का नाता कहें, वह नहीं है। एक सामाजिक औपचारिक नाता है। नहीं तो दस महीने...पति को भागे आ जाना था! बेटे में उन्हें ज्यादा रस था, तो बेटे को वापस बुला लिया है। बेटा वापस चला भी गया।
लेकिन फिर भी रंजन को कभी-कभी याद आ जाती होगी। पति को शायद याद न भी आती हो। अमरीका में कोई पति हो और पत्नी हिंदुस्तान चली आए--उसको कहीं याद आने वाली पत्नी की! यह तो बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा! स्वतंत्रता अनुभव कर रहे होंगे। लेकिन रंजन को, स्त्री का हृदय है, कभी-कभी चिंता आती होगी, उदासी पकड़ लेती होगी। उस उदासी को साक्षीभाव से देखना। धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी।
और अगर कभी जाना भी हो तुझे वापस घर अपने, तो साक्षी होकर ही जाना। उसके पहले जाना नहीं। ताकि वहां भी देख सके कि सब सपना है--अच्छा हो तो, बुरा हो तो। इस जगत में जो भी बाहर हो रहा है, उसका कोई भी मूल्य नहीं है। जो भीतर हो रहा है, वही एकमात्र मूल्यवान है। रंजन, भीतर की सुध ले!

मुकुल दल खोलो सुरभित द्वार।

दूर क्षितिज की लघु शय्या पर,
ऊषा जागी, विहंसा अंबर।
बिखरा वैभव उदयाचल का,
सरिता के ढुलमुल जल कन पर
उज्ज्वल जग का कोना-कोना, ओ मेरे सुकुमार।
मुकुल दल खोलो सुरभित द्वार।

अलसित निशि को बांध पाश में,
सिक्त कुमुद डोले लहरों पर।
आकुल अलिनि मलिन सी बैठी,
प्यास लिए अपने अधरों पर।
निज नूतन मकरंद बिंदु से, प्लावित कर संसार।
मुकुल दल खोलो सुरभित द्वार।

घड़ी आ गई है कि हृदय का कमल खोलो। सुबह हो गई है कि हृदय का कमल खोलो। और हृदय का कमल खुलता है सिर्फ एक ही शर्त पूरी हो जाए तो। जैसे सूरज ऊगे तो झील पर कमल खिलता है, ऐसे ही साक्षी का तुम्हारे भीतर जन्म हो तो तुम्हारा हृदय-कमल खिलता है। आनंद को भी देखो, दुख को भी देखो; सफलता को भी, असफलता को भी; प्रेम को भी, क्रोध को भी। जो भी घटता है तुम्हारे चारों तरफ, देखते रहो। एक मेला भरा है, मन के न मालूम कितने भावों की पर्तें हैं, न मालूम कितने रूप हैं; मन कितने रंग रखता है, मन बहुरूपिया है, बहुत-बहुत रूपों में आता है, सबको देखते रहो, देखते रहो, देखते रहो।
एक बात में थिरता बैठ जाए कि मैं द्रष्टा हूं, मैं साक्षी हूं। बस उसी भाव से मोक्ष का द्वार खुलता है। उसी भाव से हृदय का कमल खुलता है। उसी भाव की उपलब्धि का नाम बुद्धत्व है, संबोधि है, समाधि है।


तीसरा प्रश्न: मैं मृत्यु से बहुत डरता हूं। क्या करूं?

रामदास! मृत्यु तो सुनिश्चित है, डरो या न डरो। डरने से इतना ही होगा कि ठीक से जी न पाओगे। मरने के पहले मर जाओगे। बहादुर तो एक बार मरता है, कहावत कहती है, कायर रोज-रोज मरता है, हजार बार मरता है। मृत्यु तो स्वाभाविक घटना है, जैसे जन्म। जब शुरुआत हुई है तो अंत होगा। और भय क्या है? क्या खो जाएगा? तुम्हारे पास है क्या जो मौत तुमसे छीन लेगी? ऐसा तुमने जीवन में पाया भी क्या है जो मौत लूट लेगी? ऐसा तुम कर भी क्या रहे हो जो मौत बीच में आकर बाधा डाल देगी?
उठे सुबह, रोटी-रोजी कमा ली, सांझ लौट आए, सो गए, फिर उठे सुबह--इस कोल्हू के बैल की तरह घूमने को तुम जिंदगी समझते हो? और इसी कोल्हू के बैल को मौत आकर रोक देगी, तो इतने डरे क्या हो? सच तो यह है, अगर तुम अपनी जिंदगी को गौर से देखो, तो तुम कहोगे: धन्यवाद मौत तेरा, कि तू आ गई! तू न आती तो बस हम पिरते ही रहते, पिरते ही रहते। यह कोल्हू का बैल चलता ही रहता, चलता ही रहता, न मालूम कितना तेल पेरना पड़ता, परिणाम तो कुछ भी न था। हाथ तो कुछ भी न लगता।
कहानी है प्रसिद्ध कि सिकंदर जब भारत की यात्रा पर आया तो यूनान के बहुत बड़े-बड़े मनीषियों ने उससे कहा कि हमने सुना है कि कहीं भारत के पहाड़ों में, छिपी हुई किसी कंदरा में एक झरना है जो अमृत का है, जो उसे पी लेता है वह अमर हो जाता है।
कौन अमर न होना चाहे? अगर मैं तुमसे कहूं कि हां, यह झरना है। तो कल तुम यहां कोई भी दिखाई न पड़ोगे! सब निकल पड़ोगे झरने की तलाश में।
सिकंदर ने बड़ी तलाश की, अंततः उस झरने पर पहुंच गया। अपने सैनिकों को, अपने सेनापतियों को उसने बाहर छोड़ दिया। उसने कहा, तुम बाहर रुको। एकर् ईष्या उसके मन में पकड़ी कि ये सभी पी लें, तो फिर मेरे अमर होने की कोई खास विशिष्टता न रही। मैं ही पीऊंगा।
तलवारों से, नंगी तलवारों से गुहा का द्वार रोक दिया गया। सिकंदर अकेला भीतर गया। झरना था! ऐसी सुवास उठ रही थी उस जल से, ऐसा स्फटिक मणि जैसा स्वच्छ जल उसने कभी देखा नहीं था, जैसे चांदत्तारों से पिघल कर रोशनी आ गई हो! ठिठका, अवाक, अंजुलि भरने को ही था, तभी चट्टान के पास बैठे एक कौए ने कहा, रुक! रुक! एक मिनट रुक!
एक तो कौआ बोले! मगर चलेगा, सिकंदर ने सोचा, क्योंकि जहां अमृत का झरना हो, वहां और सब कुछ भी हो सकता है। कौए भी बोल सकते हैं। लेकिन कौए ने रोका तो ठिठक गया। पूछा, क्या कारण है? किसलिए रोकना चाहते हो?
कौए ने कहा कि इसलिए रोकना चाहता हूं कि मैंने इस झरने का पानी पीया। आज सदियां-सदियां हो गईं, मैं मर नहीं पाता। चट्टानों से गिरता हूं, गले में फांसी लगाता हूं, जहर पीता हूं, छुरी छाती में भोंकता हूं, मगर मौत नहीं घटती। और मैं थक गया हूं। मैं बहुत थक गया हूं। वही काम रोज...वही कांव-कांव, वही कांव-कांव, वही कांव-कांव...रोआं-रोआं थक गया है मेरा, मैं मरना चाहता हूं। तुम तो बड़े यात्री हो, तुम्हें कहीं रास्ते में कोई ऐसी जगह पता है जहां इस अमृत का एंटीडोट, कहीं कोई ऐसा झरना है जहर का, जो अमृत का असर समाप्त कर दे? मुझे उसका पता दे दो! फिर तुम्हें जो करना हो करो; पीना हो पीओ, न पीना हो न पीओ। मगर अगर मेरी मानते हो तो सोच लो! जल्दी न करो, बैठ जाओ, विचार कर लो! क्योंकि एक दफा पीने के बाद फिर छुटकारा नहीं है।
और कहानी कहती है कि सिकंदर ने थोड़ी देर खड़े होकर वहां सोचा और तेजी से गुफा के बाहर भागा। कौए ने कहा, भागते क्यों हो?
उसने कहा कि मुझे डर लगता है कि कहीं किसी उत्तेजनावश पी ही न लूं। तेरी बात मेरी समझ में आ गई। कांव-कांव, कांव-कांव...फिर कब तक यह चलेगा? फिर कोई अंत ही नहीं है।
तुम जरा सोचो, रामदास, अगर तुम अमर हो जाओ...तो कब तक कांव-कांव करनी है? क्यों इतने घबड़ाए हुए हो? मौत तो विश्राम है। मौत तो सिर्फ व्यर्थ की दौड़धाप से छुटकारा है। मौत को दुश्मन की तरह क्यों देखते हो? यहां दुश्मन तो कोई भी नहीं है। यह सारा अस्तित्व हमारा है, हम इसके हैं। इसी ने जन्म दिया, इसी ने मौत दी। जिसने जन्म दिया है, वह दुश्मन तो नहीं हो सकता। और जिसने जन्म दिया है, वहीं से मौत आती है। तो मौत भी जरूर मंगल लाती होगी, मंगलदायी होगी।
यह अस्तित्व मंगल से परिपूर्ण है। यहां अशुभ तो घटता ही नहीं। हां, तुम मान लेते हो किसी चीज को अशुभ तो बस अड़चन शुरू हो जाती है। सब मान्यता की बात है।
तुम कहते हो: "मैं मौत से डरता हूं।'

ये मयेत्तल्ख भी पीना ही पड़ेगी इक दिन।
कड़वी शराब है मौत की, माना, मगर एक दिन पीनी पड़ेगी।
ये मयेत्तल्ख भी पीना ही पड़ेगी इक दिन।
मौत बरहक सही पर जीस्त का हासिल तो नहीं,
कारवानेत्तलबी-ए-शौक की मंजिल तो नहीं,
कितनी उलझी हुई राहों से गुजरना है अभी,
जिंदगानी की मुहिम सर हमें करना है अभी,
जिंदगी मौत से तारीक भयानक पुरहौल,
एक गिरांबार तअंतुल का फुसुर्दा माहौल,
इस सियहखाने में इक शमअ जला लें ऐ दोस्त,
बज्मे-आजादी-ए-जमहूर सजा लें ऐ दोस्त,
खूने-महताब से तामीरे-सहर करना है,
कस्रे-जुलमत को अभी जेरो-जबर करना है,
आलमेत्ताजा की तशकील का सामान करें,
जब तलक जिंदा हैं क्यों मौत का अरमान करें,
मौत तो आएगी, आकर ही रहेगी इक दिन।

तो न तो मौत से डरो और न मौत की आकांक्षा करो।
मौत तो आएगी, आकर ही रहेगी इक दिन।
मौत तो उसी दिन आ गई जिस दिन तुम जन्मे। उसी दिन सब घट गया। आधी बात घट गई, आधी घटने को रह गई है, वह घटेगी, घट कर ही रहेगी। उससे बचने का कोई उपाय नहीं। तो न तो मौत से बचने की चिंता करो; और न मौत को बुला लो जल्दी, इसकी आकांक्षा करो! ये जो जिंदगी के चार दिन मिले हैं, इनका कुछ उपयोग करो! इस जिंदगी को कुछ रोशनी बना लो! इस जिंदगी को उसकी तलाश में लगा दो जो कभी नहीं मरता। तुम्हारे भीतर वह तत्व भी मौजूद है।
इस सियहखाने में इक शमअ जला लें ऐ दोस्त,
अंधेरा है, माना; अंधेरा घर है, माना; मगर इसमें एक शमा जलाई जा सकती है।
इस सियहखाने में इक शमअ जला लें ऐ दोस्त,
बज्मे-आजादी-ए-जमहूर सजा लें ऐ दोस्त,
यहां बंधन ही बंधन हैं--जन्म का, मृत्यु का; इसका, उसका--लेकिन इन सारे बंधनों के बीच भी स्वतंत्रता का आविर्भाव हो सकता है। जन्म और मृत्यु के बीच में जो अवसर मिला है, अगर तुम उसमें अपनी तलाश कर लो, तो न जन्म बचेगा, न मृत्यु बचेगी। क्योंकि अपनी तलाश करके तुम उसे पा लोगे जो जन्म के पहले था और मौत के बाद भी रहेगा।
यह खयाल रखना कि जिसे तुम पाओगे, वह तुम नहीं हो, वह परमात्मा है। तुम तो जन्मे हो और तुम तो मरोगे; लेकिन तुम्हारे भीतर तुमसे ज्यादा कुछ मौजूद है। तुम्हारे भीतर तुम ही नहीं हो, तुमसे विराट मौजूद है।
उस विराट की अनुभूति हो तो ही मृत्यु का भय जाएगा। उस शाश्वत की थोड़ी सी छाया भी पड़ जाए तुम्हारे ऊपर, तो फिर कैसी मृत्यु?
एक दिन तारीख की जुलमत में खो जाऊंगा मैं,
जिंदगी की राह में पामाल हो जाऊंगा मैं,
ये शफक आलूद शामें, नर्मो-नाजुक सी फिजा,
ढल गई रानाइए-फितरत मेरे अशआर में;
गा चुका हूं कितने रंगीं गीत साजे-इश्क पर
पढ़ चुका कितने कसीदे हुस्न की सरकार में;
अहले-गुलशन से कहा अफसाना-ए-बर्को-शरार
किस्सा-ए-मुफलिस सुनाया महफिले-जरदार में;
दी बशारत सुबह की जुलमतजदा इन्सान को
कल्बे-अस्रे-नौ की धड़कन है मेरे अफकार में,
महरमे-असरारे-फितरत है मेरी फिक्रे-रसा
बारहा पहुंचा सवादे-साबितो-सय्यार में।
मेरे मरने से मेरे अशआर मर सकते नहीं,
मेरी तस्नीफें, मेरे अफकार मर सकते नहीं।

तुम तो मरोगे। तुम जैसा अपने को अभी मानते हो, वैसे तो तुम मरोगे। लेकिन तुम्हारे भीतर एक ऐसा गीत पैदा हो सकता है, जो बुद्ध के भीतर पैदा हुआ, जो कृष्ण के भीतर पैदा हुआ। वह गीत तुम्हारे भीतर भी पड़ा है। वीणा मौजूद है, तार छेड़ने की बात है। वह गीत कभी नहीं मरता। तुम्हारे भीतर कुरान पैदा हो सकती है, भगवद्गीता पैदा हो सकती है। वह कभी नहीं मरती। तुम्हारे भीतर संभावना है शाश्वत को पहचान लेने की।
रामदास, मौत से ही डरते रहे तो जिंदगी गंवा बैठोगे! ऐसे ही लोग जिंदगी गंवा रहे हैं। मौत से डर-डर कर! कोई धन कमाने में लगा है कि मौत से शायद धन होगा तो बचाव हो जाएगा। कोई बड़े पद पर पहुंचने में लगा है कि अगर राष्ट्रपति रहा तो मौत कोई ऐसी आसानी से नहीं ले जा सकेगी। हजार उपाय कर रहे हैं लोग। लेकिन मौत तो आएगी ही आएगी। मौत से बचा नहीं जा सकता। मौत जीवन का अनिवार्य हिस्सा है। मगर फिर भी मैं तुमसे कह दूं, तुम नहीं मरते हो। तुम मरते हो और फिर भी तुम नहीं मरते हो। तुम्हारे भीतर दो हैं। एक तो वह है जिसको तुमने अपना समझ रखा है कि मैं हूं--अहंकार। और एक वह है जो तुम्हारी आत्मा। काश, तुम अपने अहंकार से मुक्त होकर अपनी आत्मा को देख लो एक क्षण को भी! और ध्यान इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। अहंकार को विसर्जित करके एक क्षण आत्मा की झलक मिल जाए कि मौत गई। मौत ही नहीं, जन्म भी गया।
यह जो इस देश में सदियों-सदियों से ऋषियों ने प्रार्थना की है कि हमें आवागमन से मुक्ति दिलाओ, उसमें खयाल रखना, सिर्फ मृत्यु से ही मुक्ति नहीं मांगी है, जन्म से भी मुक्ति मांगी है--आवागमन से! न तो आएं, न जाएं। दोनों से छुटकारा चाहिए। न तो हमारा फिर जन्म हो, न फिर मृत्यु हो। असल में तो जन्म न होगा तो मृत्यु तो होगी कैसे?
तुम जीवन को तो जोर से पकड़ते हो और मरना नहीं चाहते। और जीवन को जो जोर से पकड़ता है, उसे तो बुरी तरह मरना पड़ेगा। तुम जन्म तो चाहते हो, रामदास...
अभी कुछ ही दिन पहले एक व्यक्ति कैंसर का बीमार मेरे पास लाया गया। बस आखिरी दिन हैं। चिकित्सकों ने कह दिया है कि महीना--या दो महीना ज्यादा से ज्यादा...। वह आदमी मुझे कम से कम दस वर्षों से जानता है। दस वर्षों से सुनता भी है। अनेक बार तय करके भी आया कि संन्यास ले लूं। लेकिन फिर संदेह उठ आते हैं, चिंताएं उठ आती हैं, संसार के खयाल उठ आते हैं--और लौट जाता है। अब की बार आया, कहने लगा, एक ही प्रार्थना है आपसे। चिकित्सक कहते हैं, मौत तो निश्चित है। अब महीने, दो महीने में मैं गया। बस एक ही प्रार्थना है कि अगला जन्म आपके किसी संन्यासी के घर में हो।
अभी मरे नहीं हैं, अगले जन्म का इंतजाम कर रहे हैं। खुद संन्यास नहीं ले पाए, किसी संन्यासी के घर में जन्म लेने का विचार रख रहे हैं।
मैंने उनसे कहा, महाराज, आप तो कम से कम संन्यास ले लो! और अब तो ज्यादा देर भी नहीं बची।
कहने लगे, मैं सोचूंगा।
मैंने कहा, तुम सोच रहे हो दस वर्षों से। अब कैंसर द्वार पर आकर खड़ा हो गया है, अब ज्यादा सोचने के लिए भी स्थान नहीं है, विचारों को दौड़ाने की भी सुविधा नहीं है।
नहीं, उन्होंने कहा, ऐसा कुछ पक्का नहीं; कुछ डाक्टर कहते हैं, शायद बच ही जाऊं। फिर चमत्कार भी होते हैं। अब मैं आशीर्वाद लेता फिर रहा हूं साधु-संन्यासियों के। इसी आशा में आपके पास आया हूं। तो या तो आशीर्वाद दें कि मरूं न, अभी यह बीमारी टल जाए। और अगर यह बीमारी होनी ही है, अगर आपको ऐसा दिखाई पड़ता है कि यह टल ही नहीं सकती, तो इतना तो आशीर्वाद दे ही दें कि अगला जन्म किसी संन्यासी के घर में हो।
मौत से तो बचना चाहते हो, जन्म की आकांक्षा करते हो! यह तो कैसे होगा? यह तो गणित बैठेगा नहीं। जन्म तो मौत की शुरुआत है। अगर मौत से बचना है, सच में बचना है, तो जन्म की आकांक्षा छोड़ दो। जन्म की तृष्णा छोड़ दो। जीवन का मोह छोड़ दो। अपने भीतर उसको खोजो जो जीवन का द्रष्टा है, जो जीवन का साक्षी है। वह तुम हो एक अर्थ में और एक अर्थ में तुम नहीं हो। अहंकार वहां नहीं है, वहां शुद्ध चैतन्य है। उस चैतन्य को ही ऋषियों ने कहा: तत्वमसि! वह तू ही है। वह परमात्मा ही है। उस अनुभव के बाद ही उदघोषणा की ऋषियों ने: अहं ब्रह्मास्मि! मैं ब्रह्म हूं। मैं नहीं हूं, ब्रह्म है। ऐसा उस उदघोषणा का वास्तविक अर्थ है।
मृत्यु का डर वस्तुतः किस बात का डर है? रामदास, तुमने मृत्यु देखी? तुम मृत्यु को पहचानते हो? जिसको देखा नहीं, जिसको पहचाना नहीं, उससे डरते क्यों हो? उससे डरोगे कैसे? अज्ञात से तो कोई भी नहीं डरता। तुमने दूसरों को मरते देखा होगा। लेकिन दूसरों को मरते देखना, मृत्यु को देखना नहीं है, यह खयाल रखना। क्योंकि दूसरे आदमी में तुम क्या देखते हो? इतना ही देखते हो न कि अभी सांस चलती थी, अब सांस नहीं चलती। तो सांस के न चलने में ऐसी क्या घबड़ाहट है? रात सो जाते हो और तुम्हें पता भी नहीं रहता कि सांस चलती है कि नहीं चलती।
और अभी चिकित्सकों ने यह खोजबीन की है कि पुरुषों की सांस रात में कई दफे बंद हो जाती है। अब रामदास और दिक्कत में पड़ेंगे। इसीलिए पुरुष रात में अधिक मरते हैं हृदय के दौरे से स्त्रियों की बजाय। स्त्रियों की बंद नहीं होती, स्त्रियां मजबूत हैं। स्त्रियां रात में भी सांस व्यवस्था से लेती हैं। पुरुषों की कभी-कभी चूक हो जाती है। पुरुष रात में एकाध-दो दफे भूल जाते हैं। मिनट, आधा मिनट को डगमगा जाते हैं। इसलिए ज्यादा पुरुष मरते हैं रात में हृदय के दौरे से। स्त्रियां नहीं मरतीं।
रात तो सांस भूल ही जाती है तुम्हें, चलती है कि नहीं चलती--क्या पता?
किसी को तुमने मरते देखा तो इतना ही देखा न कि सांस बंद हो गई? और यह भी हो सकता है कि वे सज्जन योग साधे पड़े हों! शवासन साध लिया हो। बोलना बंद हो गया। तुमने ये ऊपर की घटनाएं देखी हैं, मगर भीतर उस आदमी को क्या हो रहा है, यह तो तुम कैसे देखोगे? भीतर तो हो सकता है कि वह आदमी परम आनंद में प्रवेश कर रहा हो।
और ऐसा कुछ तो होता ही है। जो लोग थोड़े ध्यान में पारंगत हो गए हैं, मृत्यु उनके लिए परम आनंद की तरह आती है। क्योंकि मृत्यु के क्षण में वे ध्यान में डूबने लगते हैं। शरीर छूट रहा है, इससे ज्यादा शुभ घड़ी ध्यान की और क्या होगी? विचार छूट रहे हैं, मन दूर जा रहा है, इससे ज्यादा अपूर्व घड़ी ध्यान की और क्या होगी?
जब बुद्ध मरने को हुए तो उन्होंने जो बात अपने शिष्यों से कही वह यही थी। उन्होंने कहा कि तुम्हें कुछ पूछना हो तो पूछ लो, अन्यथा मैं मृत्यु की तैयारी करूं।
आनंद ने पूछा, मृत्यु की तैयारी! क्या आप चिता पर चढ़ना चाहते हैं? क्या आप अपने हाथ से मरना चाहते हैं?
नहीं, बुद्ध ने कहा कि मरने की तैयारी का अर्थ है कि मैं क्रमशः जैसे-जैसे मौत आए वैसे-वैसे ध्यान में उतरता जाऊं। मौत शरीर को पकड़ ले, तो मैं ध्यान से शरीर को छोड़ दूं। मौत मुझसे छीन न पाए शरीर को, उसके पहले मैं छोड़ दूं। इधर मौत छीनने को हो, उधर मैं पहले ही छोड़ दूं। मौत मन को छीनना चाहे, उसके पहले मैं मन को छोड़ दूं। मौत को कहने को यह न हो कि उसे मेहनत करनी पड़ी। मेरे साथ मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। मैं जीने की भी कला जानता हूं और मरने की भी कला जानता हूं। क्योंकि मैं जीवन के भी पार हूं और मृत्यु के भी पार हूं।
और उन्होंने यही किया। आंख बंद कर ली, शरीर छोड़ दिया। मौत को इतना भी अवसर न दिया। इतना भी श्रम करना पड़े मौत को। मन छोड़ दिया, भाव छोड़ दिया। तीनों तलों पर छोड़ दिया। और चौथे तल पर, अस्मिता के तल पर आखिरी छोड़ छोड़ दी। "मैं हूं', यह बात भी छोड़ दी। शून्य हो गए।
मौत क्या छीनेगी अगर तुम शून्य होना जानते हो? अगर तुम शून्य होना जानते हो तो पूर्ण उतर आएगा तुम में। मौत तुमसे कुछ भी न छीन सकेगी।
हां, लेकिन अगर रामदास, धन इकट्ठा किया, तिजोड़ी इकट्ठी की, मकान बनाया, और इसी में सब नियोजन कर दिया, तो जरूर डर लगेगा कि मौत आती है, धन भी छीन लेगी, मकान भी छीन लेगी। अगर देह को ही सजाते रहे, तो घबड़ाहट होगी कि मौत आती है, देह छीन लेगी, सब किया-कराया मिट्टी हो जाएगा।
कुछ ऐसा करो जो मौत न छीन सके! शून्य को मौत नहीं छीन सकती। ध्यान को मौत नहीं छीन सकती। तो जो ध्यान को कमा लेता है, वह मृत्यु के पार हो जाता है।

आखिरी प्रश्न: आपने भीतर के सदगुरु की बात कही। उसका क्या अर्थ होता है, इस पर प्रकाश डालने की कृपा करें। और वे सदगुरु कब और कैसे जाग्रत होते हैं, बताने की अनुकंपा करें।

समाधि! सदगुरु तो प्रतीक है। तुम्हारे भीतर ध्यान जग जाए, होश जग जाए, तुम मूर्च्छित न जीओ, बस इतना ही अर्थ है। तुम्हारे उठने में, बैठने में, चलने में जागृति हो, विवेक हो। तुम्हारे भीतर एक दीया जलता रहे होश का। तुम जो भी करो वह होश से हो। अगर कोई गाली दे, तो क्रोध बेहोशी में न हो जाए। ऐसा न हो कि पीछे पछताना पड़े--कि अरे, यह मैंने क्या किया? कि अरे, मुझे याद क्यों न आया? अगर कोई गाली दे, तो यह भी उत्तर होश से देना। शांत, शीतल, भीतर उतर कर, अपने अंतस्तल में बैठ कर उत्तर देना।
और तुम हैरान होओगी, गाली का उत्तर तब क्रोध नहीं हो सकता, करुणा होगी। जहां होश आया, वहां क्रोध के अंगार बुझ जाते हैं। क्रोध के अंगार ही करुणा के फूल बन जाते हैं।
अभी तो ऐसा है कि तुम जो भी कर रहे हो, या कर रही हो, सब बेहोशी में है। चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं--सब यंत्रवत।
इस सारी यांत्रिकता को तोड़ देने का नाम भीतर के सदगुरु को पाना है। चलते समय खयाल रहे चलने का। बोलते समय खयाल रहे बोलने का। सुनते समय खयाल रहे सुनने का। तुम जो भी करो, जो भी कृत्य हो, उस कृत्य के पीछे होश तो खड़ा ही रहना चाहिए। छोटे-छोटे काम में भी। क्योंकि सवाल काम का नहीं है, सवाल होश का है। तब एक दिन ऐसी घड़ी आ जाती है कि दिन में तो होश रहता ही रहता है, रात नींद में भी होश की धारा बहने लगती है। एक होश की रोशनी बनी ही रहती है। सपने में भी होश रहता है कि यह सपना है। और जैसे ही तुम्हें यह होश आया कि यह सपना है, सपना समाप्त हो जाता है। फिर तो नींद में भी--कितनी ही गहरी नींद हो--तुम अपनी सुषुप्ति के भी साक्षी होते हो कि शरीर सोया हुआ है।
इसलिए कृष्ण ने कहा है: या निशा सर्वभूतानाम् तस्याम् जागर्ति संयमी। जो सबके लिए गहरी नींद है, जो सबके लिए निशा है, जो भोगी के लिए बिलकुल बेहोशी है, वहां भी योगी जागा हुआ है।
पहले तो जागे में जागो, फिर सोने में जागना। मगर चौबीस घंटे का स्वाद धीरे-धीरे जागरण का हो जाए--तो सदगुरु!
समाधि समझी कि भीतर कोई सदगुरु बैठे हुए हैं!
भीतर संभावना है होश की। तुम्हारे भीतर अंतरात्मा है। मगर अंतरात्मा दबी है बाहर से डाले गए विचारों से। न मालूम कितने विचार थोप दिए गए हैं। मां-बाप ने थोपे हैं, शिक्षकों ने थोपे हैं, समाज ने थोपे हैं, पंडित-पुरोहित-राजनेताओं ने थोपे हैं--न मालूम कितने विचार थोप दिए गए हैं! तुम्हारे भीतर कौन है, इसकी तो पहचान ही नहीं रह गई है--इतने पर्दे हैं, पर्दों पर पर्दे हैं, कि पर्दे उठाते-उठाते थक जाओ। चेहरों पर चेहरे हैं, मुखौटे हैं, कि मुखौटे उतारते-उतारते थक जाओ, तुम्हें पता ही न चले कि असली चेहरा कहां है! तुम इस तरह हो जैसे प्याज की गांठ। उतारते जाओ पर्त पर पर्त और नई पर्त निकल आती है। और ध्यानी को यही करना होता है। प्याज की गांठ की तरह अपने को छीलना होता है। उतारते जाओ पर्त पर पर्त, जब तक कि शून्य हाथ में न रह जाए।
जिस दिन शून्य हाथ में रह जाएगा, सब पर्तें उतर गईं, उस दिन तुम्हारा सदगुरु जाग गया। और उस दिन वह भीतर का सदगुरु वही बोलेगा जो बाहर के सदगुरु सदा बोले हैं। क्योंकि बाहर और भीतर का भेद ही नहीं है सदगुरु में। बुद्ध जैसा बोलते हैं वैसा ही तुम्हारे भीतर का जाग्रत स्वरूप बोलेगा--वही, ठीक वही। बुद्ध ने कहा है: मुझे तुम कहीं से भी चखो, मेरा स्वाद एक है। जैसे सागर को कहीं से भी चखो, खारा है। जहां भी तुम जागृति को चखोगे, उसका स्वाद एक है।

हे मेरे अंतर के वासी,
कुछ तो बोलो!
दो क्षण को ही आ पाया हूं
कोलाहल से दूर
जगत के, अपने मन के!
सदा न ऐसा हो पाता
कुछ अपनी कह लो
मेरी सुन लो!
अंतर के वासी बोलो तो!
चलता-चलता थक जाता हूं
जग की राहें,
सुनता-सुनता थक जाता हूं
जग की बातें
कहता-कहता थक जाता हूं
जग से बातें,
आज मिला अवसर कुछ अपनी
तुम से कह लूं,
बात तुम्हारी भी मैं सुन लूं,
हे मेरे अंतर के वासी,
कुछ तो बोलो!
साथ तुम्हारा थकन मिटाता,
साथ तुम्हारा राह सुझाता,
फिर भी साथ न रहने पाता,
ऐसा क्यों है?
हे मेरे अंतर के वासी
कुछ तो बोलो!
मुझको खींच रहा है फिर
जग का कोलाहल,
मुझको खींच रहा है फिर
मन का कोलाहल,
मुझको खींच रही हैं फिर
जगती की राहें!
अनबोले भी शक्ति नई
तुमने दी मुझको,
चिर कृतज्ञ मैं,
लो मेरा नतशिर प्रणाम
अंतर के वासी!

वह जो भीतर का सदगुरु है, कुछ बोलता नहीं। वहां तो मौन में ही बोध का आविर्भाव होता है। वहां शब्दों की गति नहीं है, वहां तो निःशब्द है, शाश्वत निःशब्द है।
तुम मन का कोलाहल समाप्त करो। मन का शोरगुल समाप्त करो।
पहले मन से उतरो भाव में, फिर भाव से उतर जाओ अस्तित्व में। और फिर अस्तित्व से उतर जाओ अनस्तित्व में। ये चार चरण हैं। उस अनस्तित्व को बुद्ध ने अनत्ता कहा है। नागार्जुन ने शून्य कहा है। पतंजलि ने समाधि कहा है। उस समाधि में तुम्हारे भीतर जो छिपा हुआ परमात्मा है, वह प्रकट होगा। जैसे हजार-हजार सूर्य ऊग आएं एक साथ; कि करोड़-करोड़ कमल खिल जाएं एक साथ; अनाहत का नाद हो; कि ओंकार गूंजने लगे तुम्हारे भीतर।
भीतर का सदगुरु तो केवल प्रतीक है। तुम जो हो, उसे जान लेना भीतर के सदगुरु को जान लेना है। मैं कौन हूं, इसका उत्तर पा लेना भीतर के सदगुरु को जान लेना है।


अंतिम प्रश्न: आपका संदेश?

रोशनलाल! रोशनी फैलाओ, यही मेरा संदेश। खुद रोशन बनो, औरों को रोशन करो! खुद का दीया जलाओ, बुझे दीयों को अपनी ज्योति बांटो!

फैलाओ जीवंत
एक ही शब्द
इतना काफी से ज्यादा है
सार्थक होने के लिए
जीवंत शब्द वह
तुमको ही नहीं जिलाएगा
आस-पास जिंदगी भर देगा
मुरझाए हुए
सारे परिवेश को
हरियाला कर देगा

शब्द वह
"प्यार' है
भीतर की अपनी
गहराई के भी भीतर
जाओ और फिर
जीवंत इस शब्द की
मुक्ता को ऊपर लाओ
और खोलो उस
लब-बस्ता सदफ के ओंठ
"प्यार' का मोती निकलेगा
जोती जिसकी
सूरज से ज्यादा है
बेशक तुम्हारा अपना
अपने बारे में
बड़े होने का खयाल
इस जीवंत शब्द को
पाने और फैलाने में
बाधा है
छोटा करो अपने को
बड़ा करो जिंदा इस शब्द को
और फैलाओ इसे
मिल-जुल कर
आसमान की तरह
खुल कर
हवा और पानी की तरह
बह कर
किरन की तरह रह कर!

एक शब्द है मेरा: प्रेम! उसे फैलाओ! लेकिन प्रेम को तुम तभी फैला सकते हो, जब तुम प्रेमपूर्ण हो जाओ। और प्रेम को ही मैं ज्योति कहता हूं। क्योंकि प्रेम के अतिरिक्त और कोई प्रकाश नहीं है। और सब प्रकाश तो बाह्य हैं, प्रेम अंतर का प्रकाश है--बिन बाती बिन तेल। लेकिन उसमें बाधा है। प्यार का सूरज निकले, तो बड़ा प्रगाढ़ है, उसकी रोशनी अपूर्व है।
"प्यार' का मोती निकलेगा
जोती जिसकी
सूरज से ज्यादा है
बेशक तुम्हारा अपना
अपने बारे में
बड़े होने का खयाल
इस जीवंत शब्द को
पाने और फैलाने में
बाधा है
मगर एक ही बाधा है: जब तक अहंकार है, तब तक प्रेम नहीं। जब तक मैं-भाव है, तब तक प्रेम नहीं। और जब तक प्रेम नहीं, तब तक प्रकाश नहीं।
तुम पूछते हो मेरा संदेश क्या है?
संदेश मेरा छोटा है: प्रेम को फैलाओ, प्रकाश को फैलाओ।

मेरे कुछ करने से
अगर एक भी मन खिला,
तो मुझे कितना मिला।

मेरे कुछ कहने से
एक भी आंख अगर
खुशी से भर आई,
तो मैंने कैसी
एक संपन्न घड़ी बिताई।

अगर पानी की धार में
बहते किसी कीड़े को
मैंने तिनके का सहारा दिया,
तो उस तिनके से
मैंने कितना और कैसा
सहारा लिया।

घड़ी दिन में एक भी
ऐसी बीते,
तो दिन न लगें फिर
रीते-रीते।
मैं इसी सबको
करता हुआ
सार्थक हूं अपने होने में,
चारों तरफ
छोटी-छोटी खुशियां
छोटे-छोटे सहारे
बोने में।

ऐसा ही तुम भी करो। छोटी-छोटी खुशियां बोओ अपने चारों तरफ। एक भी घड़ी ऐसी हो जीवन में, तो जीवन रीता न रह जाए।
घड़ी दिन में एक भी
ऐसी बीते,
तो दिन न लगें फिर
रीते-रीते।
मैं इसी सबको
करता हुआ
सार्थक हूं अपने होने में,
चारों तरफ
छोटी-छोटी खुशियां
छोटे-छोटे सहारे
बोने में।
रोशन बनो, और रोशनी के लिए छोटे-छोटे सहारे बोओ--छोटे-छोटे तिनके सही! और तुम्हारी जिंदगी अपूर्व कृतार्थता से भर जाएगी। तुम धन्यभागी हो जाओगे! बांटोगे जितना, उतना पाओगे। परमात्मा का यह शाश्वत नियम है। जो देगा, उसे मिलेगा। जितना देगा, उससे करोड़ गुना मिलेगा। दो! और प्रेम तुम्हारे पास इतना है कि कितना ही दो, चुकेगा नहीं।
कृपणता न रखो। कंजूस न रहो। प्रेम को बांटो। प्रकाश को बांटो। दुनिया को बहुत जरूरत है। लोगों के हृदय प्रेम से रीते हैं। प्रकाश का अनुभव उनकी आंखों को होना ही बंद हो गया है।
मगर यह तुम तभी कर सकोगे...यह मेरा संदेश कुछ ऐसा नहीं है कि मैंने तुमसे कह दिया और तुमने किसी और को कह दिया...यह तुम तभी कर सकोगे, जब तुम मेरा संदेश बन सकोगे।
मेरा संदेश मेरा संदेश बन कर ही पहुंचाया जा सकता है।

आज इतना ही।



1 टिप्पणी: