प्रेम—पंथ ऐसो कठिन-(प्रश्नोत्तर)-ओशो
दिनांक 07 अप्रेल सन् 1979,
ओशो आश्रम, कोरेगांव पार्क पूना।
प्रश्न-सार:
1—संन्यास का जन्म इस देश में हुआ, उसे गौरीशंकर जैसी गरिमा मिली,
पर आज उसका सम्मान बस ऊपरी रह गया है।
संन्यास और संन्यासी की अर्थवत्ता क्यों कर खो गई, कृपा करके समझाएं!
2—मैं क्या करूं? मेरो मन बड़ो हरामी!
पहला प्रश्न: संन्यास का जन्म इस देश में हुआ, उसे गौरीशंकर जैसी गरिमा मिली। पर आज उसका सम्मान बस ऊपरी रह गया है। भीतर
से व्यक्ति और समाज, सभी उससे भयभीत हैं। संन्यास और
संन्यासी की अर्थवत्ता क्यों कर खो गई, कृपा करके समझाएं।
नरेन्द्र! संन्यास
निश्चित ही जीवन की सर्वाधिक ऊंची अनुभूति है। वह गौरीशंकर का शिखर है।
लेकिन शिखरों के साथ एक खतरा है। उनसे गिरे तो बचना मुश्किल हो जाता
है। उनसे गिरे तो बहुत गहरे खाई-खड्डों में गिरोगे। समतल जमीन पर कोई गिरे तो खतरा
नहीं है। लेकिन गौरीशंकर से गिरेगा तो खतरा ही खतरा है। ऊंचाइयों पर जो उड़ते हैं, वे खतरा मोल लेते हैं। इसलिए भारत जैसा पतित हुआ वैसा दुनिया में कोई देश
पतित नहीं हुआ। और कारण? क्योंकि भारत ने ऊंचाई पर उड़ने की
चुनौती स्वीकार की! अदभुत ऊंचाइयां पाने का अभियान किया!
संन्यास का अर्थ है: इस जगत में पदार्थ की तरह नहीं, आत्मा की तरह जीना। संन्यास का अर्थ है: दृश्य में ही उलझे न रह जाना,
अदृश्य को खोज लेना। रूप पर ही पकड़ न रहे, अरूप
के साथ प्राणों का संबंध जुड़ जाए। जो समय की धारा में क्षणभंगुर बबूले उठते हैं
जीवन के, उतना ही जीवन नहीं है, इसकी
उदघोषणा संन्यास है। जीवन शाश्वत है, जन्म और मृत्यु के बीच
आबद्ध नहीं है; जन्म के भी पूर्व है, मृत्यु
के भी पश्चात है; हजारों जन्म, हजारों
मृत्युएं घटती हैं, लेकिन जीवन की धारा अनवरत, अविच्छिन्न बहती रहती है। उस अविच्छिन्न, शाश्वत,
कालातीत को जान लेने का नाम संन्यास है। इससे ऊपर और कुछ हो नहीं
सकता। इसके ऊपर होने का उपाय ही नहीं है। जहां न काल है, न
क्षेत्र है; जहां न गुण हैं, न रूप है;
जहां सारे द्वंद्व पीछे टूट गए और मनुष्य ने अद्वैत का स्वाद चखा,
वहां संन्यास है। मगर इतनी ऊंचाइयों पर जो उड़ेगा, खतरा मोल लेता है।
इसलिए भारत ने अदभुत साहस किया। पंख फैलाए, चांदत्तारों को छूने की चेष्टा की। और कुछ सौभाग्यशाली पक्षी चांदत्तारों
को छू भी लिए--कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई
कबीर, कोई नानक, कोई फरीद। लेकिन जो
नहीं छू पाए, जो अधूरे-अधूरे मन से गए, जो उड़े भी और पृथ्वी से बंधे भी रहे; जो उड़े भी और
उड़े भी नहीं; जिनकी उड़ान केवल बौद्धिक रही, वास्तविक न हुई, अस्तित्वगत न हुई, वे बुरी तरह गिरे। उनकी हड्डियां चकनाचूर हो गईं।
इसलिए संन्यास का इतिहास एक अपूर्व चुनौती को स्वीकार करने का इतिहास
भी है और साथ ही साथ एक दुर्भाग्य का इतिहास भी है।
दुनिया में कोई देश इस तरह पतित नहीं हुआ--हो नहीं सकता, क्योंकि इतनी ऊंची आकांक्षा ही नहीं की। हमारे पास एक शब्द है: योगभ्रष्ट।
तुमने कभी इसके समतुल दूसरा शब्द सुना: भोगभ्रष्ट? भोगभ्रष्ट
जैसा कोई शब्द ही नहीं है। इसका क्या अर्थ हुआ कि भोगी भ्रष्ट नहीं होता? भोगी भ्रष्ट हो कैसे, समतल भूमि पर चलता है। योगी ही
भ्रष्ट हो सकता है; क्योंकि योगी ही पहुंच सकता है। जो पहुंच
सकता है, वही भटक सकता है। जो चलता ही नहीं, पहुंचेगा भी नहीं, भटकेगा भी नहीं। जो अपने घर के
द्वार से ही कभी बाहर नहीं निकला, उसका मार्गच्युत हो जाना
असंभव है।
इसलिए दुनिया में बहुत से लोग चुनौतियों को स्वीकार नहीं करते हैं।
क्योंकि चुनौतियों को स्वीकार न करने में एक सुविधा है--तुम कभी गिरोगे नहीं, तुम कभी भटकोगे नहीं, तुमसे कभी कोई भूल नहीं होगी।
कायर हैं ऐसे लोग, नपुंसक हैं ऐसे लोग, जो इस डर से कि कहीं कोई भूल न हो जाए, कुछ करते ही
नहीं। कुछ करोगे तो भूल की संभावना है। स्वाभाविक है। कुछ करोगे तो शुरू में तो
भूलें होंगी ही। भूल कर-कर के ही तो कोई सीखता है।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं: खूब भूलें करो! बस, एक ही भूल दुबारा मत करना! क्योंकि जो दुबारा करता है, उसने सीखा नहीं। और गिरने से मत डरना! गिरना और उठना। जो गिरता है,
उठ सकता है। गिर-गिर कर उठने की क्षमता है तुम्हारे भीतर।। गिरने के
डर से बैठे ही मत रह जाना, नहीं तो पंगु हो जाओगे, अपंग हो जाओगे। अगर कोई पक्षी उड़े ही न इस डर से कि कहीं आकाश में खो न
जाए, तो बस फिर अपने घोंसले में ही बंद रह जाएगा।
भारत ने चुनौती स्वीकार की--इस जगत की सबसे बड़ी चुनौती--ईश्वर को
खोजने की चुनौती। भारत की अंतरात्मा ईश्वर की खोज से ही निर्मित हुई है। भारत के
प्राणों में एक ही पुकार है कि उस परम सत्ता को, उस परम सत्य को हम
कैसे जान लें? लेकिन साथ ही आता है खतरा--बड़ी चुनौती के साथ
बड़ा खतरा। कुछ तो उड़े और पहुंचे। लेकिन बहुतों ने क्या किया? वे उड़े ही नहीं। उन्होंने केवल उड़ने की बातें सीख लीं। उड़ने की बातों में
ही मजा लेने लगे। उड़ने की बातें सस्ती हैं। प्रज्ञावान तो थोड़े से हुए, पंडित बहुत हो गए।
भारत का दुर्भाग्य भारत के पंडित हैं। पंडित यानी तोते। पंडित यानी जो
आकाश की बातें करते हैं। आकाश का जिन्हें कोई अनुभव नहीं है। आकाश का जिन्हें कोई
स्वाद नहीं मिला। जिन्होंने कभी पंख ही नहीं फैलाए, जिन्होंने कभी छलांग
ही नहीं ली, अज्ञात में जो कभी उतरे ही नहीं। हां, उनके पास नक्शे हैं। उन नक्शों में स्वर्ग और नरक का सब वर्णन है। मगर न
उन्हें स्वर्ग का कुछ पता है, न नरक का कोई पता है। हां,
उनके पास शब्द हैं, प्यारे शब्द हैं, कुशल शब्द हैं, सदियों-सदियों में निखारे गए शब्द
हैं। अनेक-अनेक लोगों ने अपने खून से उन शब्दों को धोया है। उन शब्दों की व्याख्या
है उनके पास। बारीक व्याख्या है। बाल की खाल निकाल सकें, ऐसी
उनके पास तर्क-प्रक्रिया है। मगर, अपने-अपने घोंसलों में
बंद। उड़ते नहीं। उनके शब्द उनको खुद ही प्रभावित नहीं करते। भारत में संन्यास का
पतन हुआ पांडित्य के कारण।
तो पहला पतन का कारण है: पांडित्य। जीवन अनुभव से निखरता है, सुघड़ता है। बातचीत में भटक जाता है। बातचीत में तुम तो कहीं जाते ही नहीं,
जहां बैठे हो वहीं बैठे रहते हो; तुम तो जैसे
हो वैसे ही रहते हो। तुम्हारी बातों से थोड़े ही तुम्हारे जीवन में क्रांति हो
जाएगी!
संन्यास की महिमा केवल वे ही लोग थिर रख सकते हैं जो स्मरण रखें कि
शब्दों में भटक नहीं जाना है, शून्य को शब्दों में अटक नहीं
जाने देना है; शून्य को रखना है खाली, क्योंकि
उस खाली में ही परमात्मा उतरता है। तुम्हारे हृदय की शून्यता मांगता है परमात्मा।
क्योंकि वही शून्यता उसका सिंहासन है। और तुम्हारे हृदय में शास्त्र भरे पड़े हैं।
राम को जगह नहीं है, रामायण इतनी भरी है। कृष्ण को स्थान
नहीं है, तोतों की तरह गीता रटे जा रहे हो। ईश्वर आए तो आए
कैसे? तुम्हारे भीतर कुरान का शोर मचा हुआ है, कि बाइबिल का शोर मचा हुआ है, कि वेदों का उच्चार हो
रहा है।
ईश्वर तो आता है जब सब सन्नाटा होता है। ऐसा सन्नाटा कि एक जरा सी भी
तरंग तुम्हारे भीतर शब्द की, स्वर की, ध्वनि
की नहीं रह जाती। जिस दिन तुम्हारे भीतर शून्य का संगीत बजता है, उस दिन वह प्यारा आता है। आना ही पड़ता है उसे! उस संगीत को सुन कर जीवन की
परम गहराइयां तुम्हारी तरफ दौड़ पड़ती हैं। उस परम संगीत में ऐसा आकर्षण है, ऐसा गुरुत्वाकर्षण है! जैसे संगीत को सुन कर सांप नाचने लगता है, बीनवादक बजाता है बीन और सांप मस्त हो जाता है, ऐसे
ही जब तुम्हारे भीतर शून्य का वादन होता है तो परमात्मा भी तुम्हारे चारों तरफ नाचने
लगता है।
वैज्ञानिक तो पहले-पहले बहुत हैरान हुए सांपों को बीन का स्वर सुन कर
नाचते देख कर। क्यों? क्योंकि वैज्ञानिक चकित थे, सांप
के पास कान तो होते ही नहीं! यह जान कर तुम हैरान होओगे कि सांप के पास कान होते
ही नहीं। इसलिए बीन को सांप सुनता कैसे है? तो बहुत से
सिद्धांत खोजे गए कि शायद बीनवादक को हिलता देख कर सांप भी हिलने लगता है। शायद
हिलता देख कर। बीनवादक बीन बजाता है, तुमने देखा होगा,
तो बीन के साथ खुद भी डोलता है। तो वैज्ञानिकों ने सोचा कि शायद
उसके डोलने को देख कर सांप डोलता है, क्योंकि सांप के पास
कान तो हैं नहीं, बीन तो वह सुन नहीं सकता। लेकिन तब
बीनवादकों को बिना डोले बीन बजाने को कहा गया, तब भी सांप
नाचा। बीनवादकों को बिना बीन के सिर्फ डोलने को कहा गया, तब
सांप नहीं नाचा।
बहुत खोज के बाद एक अनूठी बात पता चली कि सांप के पास कान तो नहीं हैं, लेकिन उसका रोआं-रोआं सुनता है, उसका कण-कण सुनता है,
उसकी पूरी देह सुनती है। उसकी पूरी देह संगीत की स्वर-लहरियों से
कंपित होती है। उसका कान उसकी पूरी देह पर फैला हुआ है, इसलिए
हम कान को नहीं खोज पाते थे। उसकी पूरी देह ही कान है।
जिस दिन तुम्हारे भीतर शून्य का संगीत बजेगा, यह पूरा अस्तित्व कान हो जाता है। वृक्ष सुनेंगे, चांदत्तारे
सुनेंगे, पहाड़-पर्वत सुनेंगे। यह सारा अस्तित्व तुम्हारे
आस-पास डोलने लगेगा। रोआं-रोआं, कण-कण अस्तित्व का तुम्हारे
पास नाचने लगेगा। जरा सोचो उस अदभुत क्षण को, जब सारा
अस्तित्व तुम्हारे पास नाचे! तुम्हारे पास रास होने लगे! तुम्हारे ऊपर अमृत बरसे
और परमात्मा तुम्हारे शून्य में विराजमान हो जाए! उस घड़ी का नाम संन्यास है।
संन्यास का अर्थ संसार को छोड़ देना नहीं है; संन्यास का अर्थ परमात्मा को पा लेना है। इस मेरी बुनियादी व्याख्या के
भेद को समझ लेना। जो लोग छोड़ने से चलते हैं, संकुचित हो जाते
हैं। निषेध में जीना खतरनाक है, नकार में जीना घातक है,
आत्मघातक है। "नहीं' में कोई भी नहीं जी
सकता। जो नहीं, नहीं, नहीं, में जीएगा, वह धीरे-धीरे पाएगा उसका जीवन सिकुड़ता
गया, सिकुड़ता गया--हर नहीं जीवन को सिकोड़ देती है। यह भी
नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं; नेति-नेति, न यह, न वह। तुम
सिकुड़ते जाओगे। यह त्याग की तो परिभाषा है, लेकिन संन्यास की
नहीं। संन्यास को तो मैं कहता हूं: इति-इति। यह भी, यह भी।
हां में जीओ। जीवन को स्वीकार में जीओ।
तो पहला तो खतरा हुआ पांडित्य से। पंडितों ने संन्यास की गरिमा को
नष्ट कर दिया। संन्यास का कोरा, क्वांरा सूनापन थोथे शब्दों के
जाल और सिद्धांतों और शास्त्रों से भर गया।
हर दावा-ए-इर्तिका को माना मैंने
हर गोशा-ए-कायनात को छाना मैंने
सब कुछ जान चुका तो ऐ हरीफे-दमसाज
मैं कुछ नहीं जानता, ये जाना मैंने
संन्यास तो उनके जीवन में उतरता है जो यह कहने की हिम्मत कर सकते हैं
कि मैं अज्ञानी हूं, मैं कुछ भी नहीं जानता हूं।
मैं कुछ नहीं जानता, ये जाना मैंने
यह परम ज्ञान है। जब तक तुम कुछ जानते हो, तब तक क्षुद्र ज्ञान। तब तक सांसारिक ज्ञान। ऐसा ज्ञान जो स्कूलों में,
कालेजों और विश्वविद्यालयों में मिलता है। जिस दिन तुम कह सकते हो,
मैं कुछ भी नहीं जानता, उस दिन परम ज्ञान।
क्योंकि तुम हुए परम निर्दोष। ज्ञान का बोझ गया, शब्द की भीड़
गई, मन का कोलाहल गया, भीतर आया
क्वांरा सन्नाटा, शून्य। शून्य की छाया है संन्यास! शून्य का
अतिथि है संन्यास!
तो पहले तो पंडित ने मारा। फिर दूसरी जो दुर्घटना घटी, वह थी नकार की; इनकार।
ब्रह्म शब्द का अर्थ होता है: विस्तार। तो संन्यास का अर्थ इनकार नहीं
हो सकता। क्योंकि संन्यास ब्रह्म की तलाश है। जरा सोचो! विस्तार शब्द उसी धातु से बना
है जिससे ब्रह्म। हमारे पास अनूठा शब्द है ब्रह्म। हमने आज से कोई दस हजार साल
पहले अस्तित्व की मूल सत्ता को ब्रह्म कहा। और अस्तित्व को ब्रह्मांड कहा। ब्रह्म
का अर्थ होता है: जो फैलता ही चला गया है; जिसके फैलाव का कहीं
ओर-छोर नहीं; न कोई आदि है, न कोई अंत;
जिसकी कोई सीमा नहीं, जो असीम है। और
ब्रह्मांड का अर्थ होता है: उसी फैले हुए का प्रकट रूप। ब्रह्म है अप्रकट, ब्रह्मांड है प्रकट, मगर दोनों ही फैलते चले गए हैं।
विज्ञान को तो दस हजार साल लग गए इस सत्य को खोजने में। जो रहस्यवादी संतों ने
अपने ध्यान में अनुभव किया था, उस बात की घोषणा करने को दस
हजार साल लगे विज्ञान को।
अलबर्ट आइंस्टीन ने आकर घोषणा की। घोषणा बहुत महत्वपूर्ण है। अब तक उस
पर ठीक-ठीक विचार नहीं किया गया कि संतों की घोषणा से हम उसकी तुलना करें, मिलान करें। अलबर्ट आइंस्टीन ने एक बहुत अनूठी बात कही, कि वैज्ञानिक चौंके। पहले तो कोई राजी नहीं हुआ मानने को। अलबर्ट आइंस्टीन
ने कहा कि यह जो विश्व है, यह उतना का ही उतना नहीं रहता,
यह रोज बढ़ रहा है, फैल रहा है। एक्सपैंडिंग
यूनिवर्स। इसके पहले तक विज्ञान की यह धारणा थी कि ब्रह्म, ब्रह्मांड,
विश्व उतना ही है जितना है। आइंस्टीन ने एक नई धारणा दी कि फैल रहा
है। यह ऐसे फैल रहा है जैसे कोई छोटा बच्चा अपने फुग्गे में हवा भर रहा हो और
फुग्गा बड़ा होता जा रहा हो, और बड़ा होता जा रहा हो, और बड़ा होता जा रहा हो। यह अस्तित्व बड़ी तीव्रगति से बड़ा हो रहा है,
फैलता ही जा रहा है।
जो फिजिक्स ने आज कहा है, वह अध्यात्म ने बहुत
पहले कहा था। इसलिए हमने नाम ही परमात्मा को ब्रह्म का दिया था। ऐसा नाम दुनिया
में किसी और जाति ने नहीं दिया। परमात्मा को बहुत नाम दिए गए हैं। सूफियों के पास
सौ नाम हैं। प्यारे नाम हैं, एक से एक सुंदर गुण हैं उनमें।
रहीम है वह, अर्थात करुणावान; रहमान है
वह, अर्थात दयावान। लेकिन उन सौ नामों में एक भी नाम ब्रह्म
के मुकाबले नहीं है। ब्रह्म का अर्थ है: विस्तारवान है वह। उसका विस्तीर्ण होना
रुकता ही नहीं। उसका विस्तीर्ण होना उसका स्वभाव है। वह बढ़ता ही जा रहा है,
बढ़ता ही जा रहा है।
अगर ब्रह्म बढ़ता ही जा रहा है, तो संन्यास सिकुड़ना
नहीं हो सकता। ब्रह्म से संबंध जोड़ना है तो कुछ तो ब्रह्म जैसे होना पड़ेगा! तुम भी
फैलो।
लेकिन इस देश के दुर्भाग्य की कथा यह है कि संन्यास सिकुड़ने लगा।
संन्यास की धारणा यह बन गई कि कितना छोड़ते हो, उतने बड़े संन्यासी
हो! नहीं कि कितना पाते हो। हम संन्यासियों की प्रशंसा करने लगे--इतना धन छोड़ा,
इतने घोड़े छोड़े, इतने हाथी छोड़े, इतने राजमहल छोड़े, इतनी अशर्फियां छोड़ीं। यह तो गलत
सोच हो गया। क्या पाया? कितना ध्यान पाया? कितना धन छोड़ा, यह नहीं; कितना
ध्यान पाया, यह होनी चाहिए तौल। कितना पद छोड़ा, यह नहीं; कितना प्रेम पाया, यह।
कितना संसार छोड़ा, यह नहीं; कितना
परमात्मा पाया, यह।
तो दूसरी बुनियादी भूल हो गई: संन्यास के गले में नकार की फांसी लग
गई। संन्यास का अर्थ ही हो गया--छोड़ना, छोड़ना, छोड़ना।
और ध्यान रखना, यह मैं नहीं कह रहा हूं कि संन्यास में चीजें नहीं
छूटती हैं। मेरी बातों को जरा गौर से समझना। छोड़नी नहीं पड़ती हैं। छूटती तो बहुत
चीजें हैं। छूटता तो बहुत कुछ है, लेकिन छोड़ने की दृष्टि
नहीं होती, छोड़ने का आग्रह नहीं होता। हाथ में तुम एक पत्थर
लिए चलते थे और सोचते थे हीरा है। फिर एक दिन पता चला, किसी
पारखी से मिलना हो गया, कहीं सत्संग बैठ गया, कहीं जौहरी मिल गए और उन्होंने कहा, पागल, यह हीरा नहीं है, पत्थर है! और तुमने भी परखा और
तुमने भी पहचाना और तुम्हारी भी समझ में बात उतर गई, गहरी
उतर गई। तो क्या उसे छोड़ना पड़ेगा? छूट जाएगा! क्या तुम
शोरगुल मचाओगे, बैंडबाजे बजाओगे, शोभायात्रा
निकलवाओगे, कि देखो मैं आज हीरा छोड़ रहा हूं?
अगर तुमने यह शोभायात्रा निकलवाई कि मैं हीरा छोड़ रहा हूं, तो एक बात पक्की है कि हीरा तुम्हें अब भी हीरा दिखाई पड़ रहा है। अभी भी
हीरा तुम्हें पत्थर नहीं दिखाई पड़ रहा है। और जब तक हीरा हीरा दिखाई पड़ रहा है तब
तक कैसा छोड़ना? छोड़ कर भी चले जाओगे तो तुम्हारे सपनों में
हीरा तैरेगा। तुम्हारे अहंकार का हीरा हिस्सा रहेगा। पहले तुम्हारी तिजोड़ी में था,
तब तुम दावा करते थे कि मेरे पास हीरा है। अब तुम दावा करोगे कि
मैंने हीरे को लात मार दी। और यह दूसरा दावा पहले दावे से ज्यादा खतरनाक है,
ज्यादा सूक्ष्म है, क्योंकि ज्यादा
अहंकारपूर्ण है।
नहीं, संन्यास में चीजें छूटती हैं, छोड़ी
नहीं जातीं। जैसे तुमने दीया जलाया, तो अंधेरा छोड़ना थोड़े ही
पड़ता है, अंधेरा बस छूट जाता है। ऐसे ही ध्यान की ज्योति
जगती है तो जो-जो व्यर्थ है तुम्हारे जीवन में, उस पर पकड़
छूट जाती है, हाथ ढीले हो जाते हैं, अपने
से हो जाते हैं, सहज हो जाते हैं। लेकिन मेरा जोर ध्यान को
पाने के लिए है, धन को छोड़ने के लिए नहीं।
इसलिए कभी ऐसा भी हुआ कि ध्यान मिल गया और जनक राजमहल में थे, राजमहल में ही रहे। सिंहासन पर थे, सिंहासन पर ही
रहे। क्या तुम सोचते हो जनक ने सिंहासन नहीं छोड़ा, सिर्फ
महावीर ने सिंहासन छोड़ा? तो तुम अंधे हो। तुम्हारे पास आंखें
नहीं हैं फिर। जनक ने भी सिंहासन छोड़ा। लेकिन छोड़ने की घोषणा करने से क्या प्रयोजन?
देख लिया, जान लिया कि व्यर्थ है, बात खत्म हो गई। भागना कहां है? जाना कहां है?
जहां थे वहीं रहे, जैसे थे वहीं रहे। भ्रम टूट
गए, आसक्ति टूट गई, मोह टूट गया,
पकड़ टूट गई; महल अपनी जगह था, अपनी जगह रहा; सिंहासन अपनी जगह था, अपनी जगह रहा; तिजोड़ी अपनी जगह थी, अपनी जगह रही; राज्य अपनी जगह चलता था, चलता रहा; जनक जल में कमलवत हो गए। सब जैसा था वैसा
ही रहा, सेतु टूट गए, बीच के लगाव टूट
गए, आसक्तियां टूट गईं।
जनक ने सिंहासन उतना ही छोड़ा जितना महावीर ने। महावीर ने स्थूल रूप से
छोड़ा, जनक ने सूक्ष्म रूप से छोड़ा। और मैं तुमसे कहूंगा:
महावीर के अनुसरण में चल कर संन्यास अपनी गरिमा खो दिया। काश, इसने जनक को आधारशिला बनाया होता, तो संन्यास की
गरिमा आज भी होती, अब भी होती। संन्यास छोड़ना बन गया।
और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि महावीर ने गलती की। महावीर के लिए यह
स्वाभाविक था। जो उनके लिए स्वाभाविक था, उन्होंने किया। लेकिन
जिन्होंने महावीर के आधार पर अनुकरण करके--जो उनके लिए स्वाभाविक नहीं था, न उनके बोध का हिस्सा था--महावीर के पीछे चल पड़े, बुद्ध
के पीछे चल पड़े, उन्होंने संन्यास को भ्रष्ट कर दिया।
तो दूसरी बात: नकार। और नकार का अर्थ होता है: जीवन-विरोधी। और जो भी
चीज जीवन-विरोधी होती है, वह मृत्यु की पक्षपाती हो जाती है। तो संन्यास अपने
आप ही अपना आत्मघात कर लिया, अपनी आत्महत्या कर लिया।
धरती से बढ़ कर और नहीं धन कोई।
जिंदगी यहीं पर उगी, फली, रस-धोई।
नक्षत्र, चांद, सूरज में घूम थकी जब,
ईश्वर की काया पाषाणों में सोई।
इस पृथ्वी से भाग नहीं जाना है, यह पृथ्वी बड़ी प्यारी
है, इस पृथ्वी के पत्थर-पत्थर में परमात्मा सोया है।
नक्षत्र, चांद, सूरज में घूम थकी जब,
ईश्वर की काया पाषाणों में सोई।
इस प्यारी पृथ्वी की निंदा करना, उस पृथ्वी की निंदा
करना जिससे हम रस लेते हैं, जीवन लेते हैं, उस धरती की निंदा करना जो हमारी मां है; तो फिर हम
उन वृक्षों जैसे हो जाएंगे जिनकी जड़ें जमीन से उखाड़ ली गईं। और अगर जमीन से उखाड़े
गए वृक्ष मर जाएं तो आश्चर्य क्या?
संन्यास ने यही चेष्टा की कि बिना जड़ों के जी लेगा, पृथ्वी से जड़ें उखाड़ कर जी लेगा। यह असंभव चेष्टा थी। पृथ्वी का कुछ भी न
बिगड़ा--वृक्ष के उखाड़ने से पृथ्वी का क्या बिगड़ता है--लेकिन वृक्ष मर गया। संन्यास
ऐसा होना चाहिए जो पृथ्वी में पैर जमा कर खड़ा हो सके और फिर भी अपने सिर को उठाए
और आकाश से गुफ्तगू करे। पैर जमीन में गड़े हों और पंख आकाश में उड़े हों, तब संन्यास पूरा-पूरा होता है, समग्र होता है,
अखंड होता है। यह पृथ्वी भी उसकी है, यह आकाश
भी उसका है। ये दोनों उसके हैं।
ये दोनों हमारे भी हैं। पृथ्वी का निषेध नहीं। आकाश के विधेय के लिए
पृथ्वी के निषेध की आवश्यकता नहीं। पृथ्वी और आकाश दो नहीं हैं, एक साथ हैं, संयुक्त हैं; एक
ही गीत की दो कड़ियां हैं; एक ही सितार के दो तार हैं;
इनमें से एक भी टूट जाएगा तो जीवन अधूरा हो जाता है।
संन्यासी ने यह भूल की। पृथ्वी से अपने को तोड़ने की कोशिश की। पृथ्वी
की निंदा की। पृथ्वी को गर्हित कहा। पृथ्वी को पाप कहा। और पृथ्वी को पाप कहने में
अपने ही हाथों अपनी जड़ें काट लीं। तब हाथ में रह गए केवल अंधविश्वास। जिन
जीवन-सिद्धांतों में पृथ्वी का रस नहीं बहता, उनमें फूल नहीं
खिलते। उनमें अगर फूल खिलते दिखाई पड़ें तो समझना कि भ्रम हो रहा है, कि आंखें धोखा खा रही हैं, कि तुम कोई सपना देख रहे
हो।
इक उम्र तसव्वुफ ने मुझे चकराया
इस बहर में एक भी न मोती पाया
हर मर्तबा जब कि जाल खैंचा मैंने
तो इक न इक वहम अटक कर आया
तो असली रहस्यवाद तो खो गया और एक झूठा रहस्यवाद जगत में प्रचलित हुआ।
और ऐसा अक्सर होता है। जहां असली सिक्के चलते हैं, वहां नकली सिक्के
जल्दी चल जाते हैं। जहां भी असली सिक्के होंगे, वहां नकली
सिक्के पैदा होंगे ही। क्योंकि आदमी बेईमान है।
और एक मजे की बात है, अर्थशास्त्र का एक नियम है--जो
बहुत महत्वपूर्ण नियम है, जो जीवन के बहुत-बहुत आयामों में
काम का है--अर्थशास्त्र का एक नियम है कि झूठे सिक्के असली सिक्कों को चलन के बाहर
कर देते हैं। सीधा-साफ सिद्धांत है; कुछ गूढ़ नहीं। अगर
तुम्हारी जेब में एक नकली दस रुपये का नोट है और एक असली दस रुपये का नोट है,
तो तुम पहले किसे चलाओगे? पहले तुम नकली दस
रुपये के नोट को चलाने की हर कोशिश करोगे। स्वभावतः। कि इससे जितनी जल्दी छुटकारा
हो जाए, उतना अच्छा। और यह जितनी जल्दी चल जाए, उतना अच्छा। असली तो कभी भी चल जाएगा। तो तुम पान वाले की दुकान पर चलाओगे,
मिठाई वाले की दुकान पर चलाओगे, तुम हर चेष्टा
करोगे नकली को चलाने की। इसका मतलब क्या हुआ? जिन-जिन के पास
नकली नोट हैं, वे सभी नकली नोट चलाएंगे और असली को बचाएंगे।
तो सिद्धांत कहता है कि नकली सिक्के असली सिक्कों को चलन के बाहर कर
देते हैं। नकली तो चलने लगते हैं, असली तिजोड़ियों में बंद हो जाते
हैं।
और यह जीवन के सब पहलुओं पर लागू होता है। क्योंकि नकली सिक्के सस्ते
होते हैं, घर में ही उनकी टकसाल होती है, नकली
ही हैं, बनाने में अड़चन नहीं होती; अपना
ही छापाखाना है, खुद ही छाप लिए। असली सिक्के श्रम से कमाने
होते हैं।
असली संन्यास तो तपश्चर्या है। असली संन्यास तो साधना है। असली
संन्यास तो ऊर्ध्वगमन है। असली संन्यास तो जीवन के आमूल रूपांतरण का नाम है, काम को राम बनाना है, क्रोध को करुणा बनाना है। यह
महत कार्य है। पहाड़ों की चढ़ाइयां चढ़नी हैं। बहुत ऊंचे जाना है। रसायन सीखना होगा।
क्योंकि रसायन से ही ये परिवर्तन होंगे। यह एक क्षण में नहीं हो जाएगा। वर्षों
लगेंगे। जनम-जनम भी लग सकते हैं। असली सिक्के तो मुश्किल से मिलते हैं। नकली
सिक्के आसान। नकली संन्यास आसान। किसी की पत्नी मर गई, चित्त
उदास है, संन्यासी हो गए। किसी का दिवाला निकल गया, संन्यासी हो गए। किसी को नौकरी न मिली, चाकरी न मिली,
संन्यासी हो गए।
इस देश में कोई पचास लाख संन्यासी हैं, उनमें से निन्यानबे
प्रतिशत इस तरह के लोग हैं--काहिल, सुस्त, निकम्मे। जिनको कभी कचरे के ढेर पर फेंक दिया जाना चाहिए था। लेकिन वे
परम-पूज्य होकर बैठे हैं। और तुम उनको पूजते हो, क्योंकि
तुम्हारी पूजा की धारणा भी उन्होंने ही तय करवाई है। उन्होंने ही तय करवाया है:
कौन कितना उपवास करता है, उसकी पूजा करो। कौन नग्न खड़ा है
धूप में, उसकी पूजा करो।
अब धूप में नग्न खड़ा होना कोई गुणवत्ता नहीं है। क्योंकि इससे कुछ
सृजन ही नहीं होता, तुम कितने ही धूप में नग्न खड़े रहो। यह तो बिलकुल ही
गैर-सृजनात्मक बात हुई। धूप में नंगा खड़ा होने के लिए कोई बुद्धि चाहिए? कोई भी बुद्धू कर सकता है। बुद्धू ही करेंगे! बुद्धिमान क्यों धूप में
नंगा खड़ा होगा? बुद्धिमत्ता तो कहेगी, धूप
ज्यादा है, छाया में बैठो। और जब छाया बहुत हो जाए और सर्दी
लगने लगे, धूप में आ जाओ। और बुद्धू कहेगा कि जब ठंड लगे तो
सर्दी में बैठना, और जब गर्मी लगे तो धूप में खड़े हो जाना।
बुद्धू उलटा चलेगा।
मगर उलटों की तुम पूजा करते हो। उलटी खोपड़ियां बड़ी समादृत हैं। उलटी
खोपड़ियां महात्माओं की खोपड़ियां समझी जाती हैं।
भूख लगे तो भोजन करना, यह बुद्धिमत्ता का
लक्षण है; और प्यास लगे तो पानी पीना। लेकिन प्यास लगे तो
पानी मत पीना, और तुम्हें लोग मिल जाएंगे चरण छूने वाले। और
भूख लगे तो भोजन मत करना, और तुम्हारा आदर करने वाले न मालूम
कितने अंधे इकट्ठे हो जाएंगे!
असली रहस्यवाद तो खो गया, नकली उसकी जगह आ गया।
इक उम्र तसव्वुफ ने मुझे चकराया
इस बहर में एक भी न मोती पाया
इस तथाकथित रहस्यवाद में मैंने पूरी उम्र गंवा दी, इधर से उधर चक्कर काटता रहा, लेकिन इस तथाकथित
रहस्यवाद के सागर में एक भी मोती न मिला।
हर मर्तबा जब कि जाल खैंचा मैंने
तो इक न इक वहम अटक कर आया
और जब भी जाल खींचा, तो कोई अंधविश्वास, कोई वहम, कोई
भ्रांति, कोई भ्रम...और कितने भ्रम हैं? कितनी भ्रांतियां हैं--हिंदुओं की, और मुसलमानों की,
और ईसाइयों की, और जैनों की! और भ्रमों पर
भ्रम हैं। एक के ऊपर एक लदे, एक के ऊपर एक चढ़े, ढेर लग गए हैं भ्रमों के। और तुम उनके नीचे दबे पड़े हो!
संन्यास मरा, संन्यास हारा, संन्यास पराजित
हुआ, संन्यास धूल-धूसरित हुआ, क्योंकि
इसने प्रामाणिकता से संबंध तोड़ दिया, इसने व्यक्ति की निजता
से संबंध तोड़ दिया और दूसरों के अनुकरण पर बल दिया।
पहली बात: संन्यास पांडित्य के कारण मरा।
दूसरी बात: संन्यास निषेध के कारण मरा।
तीसरी बात: संन्यास अनुकरण के कारण मरा।
संन्यास तो निजता की घोषणा है। मेरा संन्यास मेरा होगा, तुम्हारा संन्यास तुम्हारा होगा। इस जगत में दो व्यक्ति एक जैसे न पैदा
हुए हैं, न कभी होंगे। परमात्मा पुनरुक्ति करता ही नहीं।
परमात्मा कार्बन-कापी बनाता ही नहीं, परमात्मा की दुनिया में
कार्बन होता ही नहीं। परमात्मा तो प्रत्येक को अनूठा बनाता है, अद्वितीय बनाता है, अतुलनीय बनाता है। एक व्यक्ति बस
एक ही जैसा बनाता है। तुम जैसा व्यक्ति सदियां-सदियां बीत गईं तब से नहीं हुआ। और
सदियां बीतेंगी, तब भी नहीं होगा। अनंतकाल में तुम बिलकुल
अकेले हो। जैसे तुम्हारे अंगूठे की छाप बस तुम्हारी है और दुनिया में किसी की भी
नहीं, ऐसे ही तुम्हारी आत्मा की छाप भी बस तुम्हारी है।
अंगूठा तक जब तुम्हारा अलग है तो आत्मा का तो कहना ही क्या!
तो तीसरी बात: संन्यास मरा अनुकरण से।
अनुकरण का अर्थ होता है: जैसा दूसरा कर रहा है, वैसा करो। चाहे तुम्हारी आत्मा को रुचे, चाहे न
रुचे। चाहे तुम्हारी आत्मा गवाही दे, चाहे न गवाही दे। और यह
हो सकता है कि दूसरा जो कर रहा है, ठीक कर रहा हो, अपने लिए।
महावीर नग्न खड़े हुए, कृष्ण तो नग्न खड़े नहीं हुए।
इसीलिए जैन कृष्ण को भगवान मानने को राजी नहीं हैं। भगवान मानना तो दूर, जैन शास्त्रों ने कृष्ण को नरक में डाल दिया है। क्योंकि महावीर से अगर
तौलोगे तो बात अड़चन की हो ही जाएगी। अगर महावीर ही तुम्हारे मापदंड हैं, तो कृष्ण को नरक में डालना ही पड़ेगा। करोगे भी क्या? सीधा गणित का हिसाब हो गया। महावीर ने सब छोड़ा और कृष्ण ने कुछ भी नहीं
छोड़ा। महावीर नग्न खड़े हो गए और कृष्ण हैं कि रेशमी पीतांबर वस्त्र पहने हुए और
मोरमुकुट बांधे खड़े हैं। और महावीर सब छोड़ कर चले गए और कृष्ण के आस-पास सोलह हजार
पत्नियां! महावीर सब छोड़ कर चले गए और कृष्ण बांसुरी बजा रहे हैं और स्त्रियां नाच
रही हैं, रास चल रहा है, पूर्णिमा की
रात और यमुना का तट। कैसे तालमेल बिठाओगे?
महावीर ने कहा है, पैर भी फूंक-फूंक कर रखना कि
चींटी न मर जाए, पानी भी छान-छान कर पीना कि कोई सूक्ष्म
कीटाणु न मर जाए, रात चलना मत, अंधेरे
में उठना-बैठना मत। और एक कृष्ण हैं कि अर्जुन को कहते हैं कि डर मत, युद्ध में जूझ जा! क्योंकि सब कुछ करने वाला परमात्मा है, वही मारता है, वही जिलाता है। हम तो निमित्त मात्र
हैं। तू बेधड़क काट। न हन्यते हन्यमाने शरीरे! शरीरों के काटने से कोई आत्मा नहीं
मरती।
जरा फर्क देखो! एक महावीर, कि चींटी पर भी कहीं
चोट न लग जाए, तो पैर फूंक कर रखो, सम्हल
कर चलो; किसी की हत्या, हिंसा न हो जाए,
क्योंकि हिंसा पाप है। और दूसरी तरफ कृष्ण, जो
कहते हैं: जूझ जा! अर्जुन तो जैन होने की तैयारी कर रहा था। अर्जुन तो महावीर की
तलाश में लगता। अर्जुन तो कह रहा था, इस पाप में कहां उलझा
रहे हो? अपनों को मारना, काटना,
पीटना! इस राज्य को पाकर मैं क्या करूंगा? इतनी
हिंसा, इतने खून के बाद मेरे हाथों पर लहू के निशान धोए न
धुलेंगे। मुझे जाने दो। उसके हाथ से गांडीव छूट गया था। वह उदास, हताशमना अपने रथ में बैठ गया था। और एक कृष्ण हैं, जो
उससे कहते हैं: तू जूझ! अरे कायर, यह तुझे शोभा नहीं देता।
क्या तू क्लीव हुआ जा रहा है? यह वीरों की शोभा नहीं है। तू
क्षत्रिय है, क्षत्रिय होना तेरा स्वभाव है। स्वधर्मे निधनं
श्रेयः। अपने स्वभाव में मर भी जाना श्रेयस्कर है। परधर्मो भयावहः। यह तू संन्यास
इत्यादि की जो बातें कर रहा है, तुझे रुचती नहीं, ये तेरे स्वभाव के प्रतिकूल हैं।
तुम यह मत समझना कि जब कृष्ण ने कहा: स्वधर्मे निधनं श्रेयः, तो उनका मतलब हिंदू धर्म में पैदा हुए तो हिंदू धर्म में मरना। तब तो कोई
हिंदू, मुसलमान, ईसाई का सवाल ही नहीं
था। तब तो एक ही धर्म था। कृष्ण के जमाने तक तो जैन भी हिंदुओं से अलग नहीं हुए थे;
अभी हिंदुओं का ही एक अंग थे। बुद्ध का तो अभी जन्म ही नहीं हुआ था।
और ईसा को तो और बहुत देर थी। और मोहम्मद का तो कोई पता ही नहीं था। इसलिए यह तो
कृष्ण कह ही नहीं सकते--स्वधर्मे निधनं श्रेयः--कि अपने ही धर्म में मरना, उसका अर्थ हिंदू होगा।
सच तो यह है कि हिंदू शब्द भी नहीं था। हिंदू शब्द तो मुसलमानों की
ईजाद है। हिंदू शब्द तो हिंदुओं की ईजाद नहीं है। हिंदू शब्द तो बहुत बाद में आया।
हिंदू शब्द तो इस देश के रहने वालों ने खुद ने नहीं खोजा है। यह तो परायों ने दे
दिया है। पराए अक्सर दे देते हैं। जापानी अपने देश को जापान नहीं कहते। सारी
दुनिया जापान कहती है। जर्मन अपने देश को जर्मन नहीं कहते, सारी दुनिया जर्मन कहती है। ऐसे ही हिंदू धर्म और हिंदू शब्द का जन्म हुआ।
जब पहली दफा पारसी भारत आए, तो उनकी भाषा में
"स' का उच्चारण "ह' होता है,
उससे अड़चन हो गई। सिंधु नदी को उन्होंने हिंदू नदी कहा। और जब हिंदू
नदी कहा, तो सिंधु नदी के पास जो लोग बसते थे, उनको उन्होंने हिंदू कहा। फिर हिंदू से बड़ी कहानी लंबी हुई। हिंदू शब्द
चला। फिर किन्हीं भाषाओं में हिंदू "ह' के लिए कोई शब्द
नहीं था, "ह' "इ' की तरह उच्चारण होता था, तो इंदू हो गया। फिर इंडस
हो गया, फिर इंडिया हो गया। और ये सब एक भूल से कि पारसियों
के पास "स' के लिए कोई शब्द नहीं था। जो निकटतम शब्द था
"स' के लिए, वह "ह' था। "स' के लिए कोई शब्द नहीं था।
तो तब तक तो कोई हिंदू शब्द भी नहीं था, हिंदू जाति भी नहीं
थी, हिंदू धर्म भी नहीं था। फिर कृष्ण किस धर्म की बात कर
रहे हैं? कृष्ण कह रहे हैं, तुम्हारी
निजता का धर्म। वे अर्जुन से कह रहे हैं, अर्जुन, तुझे मैं जानता हूं। तू क्षत्रिय है, तू पोर-पोर
क्षत्रिय है, रोआं-रोआं क्षत्रिय है, कण-कण
क्षत्रिय है। तेरी आत्मा तलवार जैसी है, तेरे भीतर एक धार
है। युद्धों के लिए ही तू पैदा हुआ है, युद्धों में ही तेरा
निखार है, युद्धों में ही तू अपनी परिपूर्णता को पाएगा।
युद्ध की भूमिका में ही तू पूरी तरह निखरेगा, तेरा फूल
खिलेगा। भगोड़ा मत बन! यह तेरे काम की बात नहीं है।
जैन नाराज हैं। यह महाभारत अर्जुन ने तो नहीं किया होता। यह कृष्ण की
ही जालसाजी है। यह कृष्ण ने ही समझा दिया इस अर्जुन को। अर्जुन ने बहुत जद्दोजहद
भी की, जल्दी मान भी नहीं गया। नहीं तो इतनी बड़ी गीता कैसे
पैदा हो? पूछता ही जाता है, संदेह करता
जाता है। मगर किसी न किसी तरह, मार-ठोंक कर, यहां से वहां से समझा कर कृष्ण ने उसे राजी कर लिया युद्ध को। तो जैनों ने
कृष्ण को नरक में डाल दिया है। सातवें नरक में। आखिरी नरक में। और जल्दी छुटकारा
भी नहीं माना है उन्होंने। अगले कल्प में छुटकारा होगा। कल्प का अर्थ होता है: एक
सृष्टि और एक प्रलय के बीच जो समय बीतता है, उसे कल्प कहते
हैं। जब यह सृष्टि नष्ट होगी और नई सृष्टि का प्रारंभ होगा, तब
कृष्ण छूट पाएंगे। और इधर हिंदू हैं जो कृष्ण को पूर्ण अवतार कहते हैं।
और तुम्हें पता है कि हिंदुओं ने महावीर का अपने शास्त्रों में उल्लेख
भी नहीं किया! इस योग्य भी नहीं माना कि उल्लेख करें। अगर जैनों के शास्त्र न होते
तो शायद महावीर का कोई उल्लेख भी न मिलता। जैन शास्त्रों में उल्लेख है और
कहीं-कहीं बौद्ध शास्त्रों में उल्लेख है। जैन शास्त्रों में उल्लेख है प्रशंसा के
लिए और बौद्ध-शास्त्रों में उल्लेख है निंदा के लिए। लेकिन हिंदू शास्त्रों ने तो
बिलकुल ही उपेक्षा कर दी। जिन्होंने कृष्ण को पूर्णावतार कहा, उनको यह नग्न महावीर इस योग्य भी मालूम नहीं हुआ कि इसका शास्त्रों में
उल्लेख करें।
लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, कृष्ण भी भगवत्ता को
उपलब्ध हुए हैं और महावीर भी। न तो महावीर उपेक्षा योग्य हैं और न कृष्ण नरक में
डालने योग्य। लेकिन हम एक बुनियादी बात नहीं समझ पाए अब तक, कि
महावीर महावीर हैं, कृष्ण कृष्ण हैं, उनकी
अपनी-अपनी निजता है। कमल कमल की तरह खिलेगा, गुलाब गुलाब की
तरह खिलेगा। और अगर तुमने यह नियम बना लिया कि जो कमल की तरह खिलता है, वही खिला, तो फिर बड़ी मुश्किल हो जाएगी। फिर गुलाब
खिला ही नहीं। फिर चमेली खिली ही नहीं। फिर जुही खिली ही नहीं। फिर केतकी खिली ही
नहीं। फिर चंपा खिली ही नहीं। और जिन्होंने तय कर लिया कि जो चंपा की तरह खिलता है
फूल, बस वही खिलना है, उनके लिए कमल
नहीं खिलेगा। मैं तुमसे कहना चाहता हूं, यह जगत अत्यंत
वैविध्यपूर्ण है। और प्यारा है, क्योंकि वैविध्यपूर्ण है। और
यहां प्रत्येक व्यक्ति की अपनी निजता है।
संन्यास मरा, क्योंकि हमने निजता को पोंछ डालने की कोशिश की। हमने
संन्यास के नाम पर सिपाही पैदा किए, संन्यासी नहीं। हमने
संन्यास के नाम पर झूठे, अनुकरण करने वाले, पीछे चलने वाले लोग पैदा किए, भेड़ें पैदा कीं,
सिंह पैदा नहीं किए। और संन्यास तो सिंह का ही हो सकता है; क्योंकि संन्यास तो सिंहनाद है। यह तो निजता की घोषणा है। यह तो निजता की,
स्वतंत्रता की परम घोषणा है।
तो नरेन्द्र, ठीक तुम पूछते हो कि संन्यास का जन्म इस देश में हुआ।
निश्चित ही, इस देश ने अगर दुनिया को कोई देन दी है, तो वह संन्यास है। इसने एक अपूर्व भेंट दी है दुनिया को; मनुष्य-जाति की चेतना के विकास में इस देश ने सबसे बहुमूल्य फूल भेंट में
चढ़ाया है, वह संन्यास है।
तुम पूछते हो: "संन्यास का जन्म इस देश में हुआ, उसे गौरीशंकर जैसी महिमा मिली।'
निश्चित। हमने बुद्धों को, महावीरों को, कृष्णों को अपूर्व ऊंचाई पर रखा। रखना ही पड़ा। मजबूरी थी, विवशता थी। हम चाहते भी कि न रखें, तो भी यह नहीं हो
सकता था। रखना ही पड़ा। हमें श्रद्धा से उनके चरणों में झुकना ही पड़ा। वे चरण ऐसे
थे! वह आभा ऐसी थी! वह जादू ऐसा था!
और तुम पूछते हो: "पर आज उसका सम्मान बस ऊपरी रह गया है।'
यह भी सच है। आज संन्यास के नाम पर थोथे लोगों की भीड़ है, झूठे लोगों की भीड़ है, अनुकरण करने वाली कार्बन
कापियां हैं। आखिर तुम कैसे इन्हें सम्मान दो वही? देते हो,
क्योंकि परंपरागत आदत तुम्हारी हो गई है सम्मान देने की। देते हो,
क्योंकि बाप-दादों से दिया जाता रहा। संन्यासी आ जाए, तुम्हें पता ही नहीं चलता, तुम मूर्च्छित खड़े हो
जाते हो। संन्यासी आ जाए, तो तुम्हें पता ही नहीं चलता कब
तुम उसके पैरों में झुक गए। यह तुम बोधपूर्वक नहीं करते हो, यह
यांत्रिक आदत हो गई है। इस यांत्रिक आदत के कारण दो काम हो रहे हैं। एक, सम्मान भी दे रहे हो; और दूसरा, भीतर सम्मान है भी नहीं। अच्छा हो तुम सम्मान देना बंद कर दो। क्योंकि
तुम्हारे सम्मान बंद कर देने से तुम्हारे सौ संन्यासियों में से निन्यानबे तो तत्क्षण
संन्यास से विदा हो जाएंगे। वे तुम्हारे सम्मान के कारण ही टिके हैं। झूठा ही सही,
मिलता तो है। और इस जगत में आदमी की इच्छा, सम्मान
पाने से बड़ी और कोई इच्छा नहीं है। और मुफ्त मिल जाता है!
अगर पश्चिम में किसी को सम्मान चाहिए, तो उसे चित्रकार होना
पड़े, पिकासो की हैसियत पानी पड़े; कि
मूर्तिकार होना पड़े, कि रोडिन की हैसियत पानी पड़े; कि संगीतज्ञ होना पड़े, कि बीथोवन की हैसियत पानी
पड़े--उसे कुछ ऊंचाई पानी पड़े सृजनात्मकता की, तो पश्चिम में
सम्मान मिलेगा।
पूरब में सम्मान चाहिए, तो तुम बीथोवन हो जाओ,
कोई फिक्र न करेगा; कालिदास हो जाओ, कोई फिक्र न करेगा। ज्यादा से ज्यादा इतना ही हो सकता है कि जब कोई
राजनेता गांव में आए तो कालिदास से कहा जाए कि भाई, जरा इनकी
प्रशंसा में एक गीत लिख देना! टुटपुंजिए राजनेता की प्रशंसा में कालिदास गीत
लिखेंगे, और क्या करेंगे? और यह आज ही
नहीं हो रहा है, जब कालिदास थे तब उनसे भी यही काम लिया गया
है--राजाओं की प्रशंसा और प्रशस्तियां।
तुमने कवियों से काम लिया क्या है? दो कौड़ी के
राजनीतिज्ञों की प्रशंसाएं करवाई हैं, स्तुतियां करवाई हैं।
तुमने चित्रकारों से बनवाया क्या है? राजनेताओं के पोर्ट्रेट
बनवाए हैं। तुमने सृजनात्मक लोगों को सम्मान ही नहीं दिया। दुनिया के किसी भी कोने
में सम्मान मिलता है तो सृजन से मिलता है। कुछ निर्माण करो। कुछ नया इस जगत में
लाओ, जो नहीं था। फिर चाहे विज्ञान के द्वारा लाओ, चाहे संगीत के द्वारा, चाहे काव्य के द्वारा,
मगर कुछ इस जगत को सुंदर करो। इस जगत में कुछ एक नया फूल जोड़ो,
एक नया गीत गुनगुनाओ, इस जगत के सौंदर्य को
थोड़ा बढ़ाओ, एक लहर उठाओ आनंद की, तो
सम्मान मिलेगा।
भारत में इस तरह के लोगों को सम्मान नहीं मिलता। उपवास करो! भूखे मरो!
नंगे खड़े हो जाओ! शरीर को सुखा लो! धूप में खड़े रहो! बाल नोच डालो! तो सम्मान
मिलेगा।
एक गांव से मैं गुजर रहा था, बड़ी भीड़ थी चौराहे पर,
कि घंटे भर मुझे रुके ही रहना पड़ा; गाड़ी निकल
ही नहीं सकती थी। मैंने पूछा, मामला क्या है? तो पता चला कि एक दिगंबर जैन मुनि केश-लुंच कर रहे हैं। केश-लुंच! अब किसी
आदमी को अपने बाल उखाड़ने हैं तो उखाड़ने दो, मगर भीड़-भाड़
किसलिए लगाए हुए हो? मगर बड़ी भीड़! और लोगों की आंखों से आंसू
बह रहे हैं। कैसा महात्याग हो रहा है!
एक आदमी अपने बाल उखाड़ रहा है--एक तो वह पागल। अक्सर पागलों की एक
जाति होती है जो बाल उखाड़ती है। और तुम्हें भी पता होगा, जब तुम्हारी पत्नी पगला जाती है तो बाल नोचती है। हम कहते ही हैं अक्सर कि
वह अपने बाल नोचने लगी। एकदम बाल खींचने लगी। एक आदमी बाल नोच रहा है। और हो सकता
है कि पागल भी न हो; इसको अच्छा लगता हो, यह इसका स्वधर्म हो, यह जन्मजात नाई हो, इसको पैदाइशी यह गुणवत्ता हो कि बाल नोचेगा, यह इसकी
नियति हो। नोचने दो! मगर यह भीड़ किसलिए लगाई है? और मैं
तुमसे कहता हूं, अगर यह भीड़ लगना बंद हो जाए तो यह आदमी बाल
भी न नोचे। कोई पागल है? फायदा क्या? नाहक
कष्ट क्यों उठाए? दो पैसे में जाकर किसी भी नाई से मुंड़वा
ले।
लेकिन तुम्हारी भीड़ इसको मजबूर कर रही है। लोग फूल चढ़ा रहे हैं, पैरों में सिर झुका रहे हैं। लोग कह रहे हैं, अहा!
आंखों से आंसू झर रहे हैं! स्त्रियां तो धाड़ मार कर रो रही हैं! इस आदमी को मजा आ
रहा है। इस आदमी को तुम खूब तृप्ति दे रहे हो! और तृप्ति एक थोथी चीज के लिए दे
रहे हो, जिससे किसी का कोई लाभ नहीं। यह बाल उखाड़े तो,
यह बाल न उखाड़े तो, देश में न तो सौंदर्य
बढ़ेगा, न समृद्धि बढ़ेगी, न सुख बढ़ेगा;
देश तो जैसा है वैसा का वैसा रहेगा। हां, इसकी
मूढ़ता के कारण और कुछ मूढ़ों के द्वारा इसको सम्मान मिलने के कारण, कुछ दूसरे मूढ़ भी बाल नोचने को राजी हो जाएंगे। आदमी अहंकार की तृप्ति
पाने के लिए कुछ भी कर सकता है--कुछ भी! बाल नुचवा लो, भूखा
मरवा लो, सिर के बल खड़ा करवा लो।
एक गांव से मैं गुजरा। मित्रों ने कहा कि यहां एक परम साधु हैं, आप दोनों की मुलाकात होगी तो बहुत आनंद होगा। मैंने कहा, उनकी साधुता क्या है? बताया कि वे दस साल से खड़े हुए
हैं। उनका नाम ही हो गया है: खड़ेसरी बाबा। अब दस साल से कोई आदमी खड़ा है तो खड़ा
रहने दो! मैं यह भी नहीं कहता कि उसको बिठाओ। कि पुलिस के द्वारा उसको जबरदस्ती
बिठवाने की कोशिश करो। किसी को खड़ा रहना है तो उसको हक है कि वह खड़ा रहे। मगर
खड़ेसरी बाबा के आस-पास रुपयों के ढेर लग रहे हैं। पंडे-पुरोहित बैठ गए हैं। अब वे
पंडे-पुरोहित, अगर खड़ेसरी बाबा बैठना भी चाहें, तो उनको नहीं बैठने दे सकते, क्योंकि धंधा! तो उनके
दोनों हाथ बांध दिए हैं रस्सियों से, ताकि वे बैठना भी चाहें
तो बैठ न सकें। और खुद भी उनको डर होगा कि कभी किसी कमजोर क्षण में बैठ जाएं! तो
हाथ बंधे हैं, बैठ नहीं सकते। छप्पर से हाथ बांध दिए गए हैं,
हाथों के नीचे बैसाखियां लगा दी गई हैं; उनके
पैर हाथीपांव हो गए हैं, सारा खून पैरों में चला गया है!
अब यह आदमी रुग्ण-अवस्था में है। यह आदमी व्यर्थ का कष्ट झेल रहा है।
लेकिन कष्ट में एक ही सुख है कि सम्मान मिल रहा है। दिन-रात कीर्तन चलता है, भीड़ लगी है, धूनी रमी है, हजारों
लोगों का भोजन चल रहा है, दान-दक्षिणा हो रही है, पंडित-पुरोहितों ने बड़ा बाजार लगा रखा है।
इस आदमी के खड़े होने से किसका क्या लाभ है? इसका खुद का क्या लाभ है? इस आदमी की आंखें देखो तो
तुम्हें इतनी निरीह आंखें, जिनसे सिर्फ मूढ़ता झलकती है,
जिनसे कोई बुद्धिमत्ता का प्रमाण नहीं मिलता--क्योंकि ये बातें ही
बुद्धिमत्ता की नहीं हैं। मगर इस तरह की बातों को सम्मान मिलने लगा। व्यर्थ की
बातों को सम्मान मिलने लगा। तो लोग सम्मान देते भी हैं और भीतर उनकी आत्मा सम्मान
देना भी नहीं चाहती। इसलिए एक पाखंड का विस्तार हो गया है।
ठीक से समझ लेना, संन्यास सृजनात्मकता है। और
जिसको तुमने संन्यास मान रखा है अभी, वह एक तरह का विध्वंस
है, वह अपने को ही नष्ट करना है--आहिस्ता-आहिस्ता, शनैः-शनैः।
अब तो नूतन गीत पुराने से लगते हैं।
गीतों के स्वर नये-नये, पर छंद वही है।
छंदों में रागों का अंतर्द्वंद्व वही है।
चिंतन से अंकुरित विचारों की बगिया में,
नये-नये हैं फूल मगर मकरंद वही है।
जब आती कल्पना सत्य की तपोभूमि पर,
अपने ही सपने अनजाने से लगते हैं।
ध्वंस बहुत ही सहज, निर्माण कठिन है।
पतन बहुत आसान मगर उत्थान कठिन है।
समता और विषमता के कोलाहल में,
अपने और पराए की पहचान कठिन है।
दूर देश की पगडंडी पर मिलने वाले,
पूर्ण अपरिचित भी पहचाने से लगते हैं।
जो न समझ में आए, ऐसी बात नहीं हूं।
बातों में जो बीते, ऐसी रात नहीं हूं।
झंझा के झोंके मेरा क्या कर पाएंगे,
पर्वत सा हूं अडिग, कुसुम-अवदात नहीं हूं।
संदेहों के अंधकार से घिरी निशा में,
आश्वासन भी आज बहाने से लगते हैं।
अब तो नूतन गीत पुराने से लगते हैं!
इतना पिटा-पिटाया हो गया सब! समय है कि अब हम इससे छुटकारा पाएं।
ध्वंस बहुत ही सहज, निर्माण कठिन है।
पतन बहुत आसान मगर उत्थान कठिन है।
और तुम्हारा संन्यास पिटा-पिटाया, सड़ा-सड़ाया--चाहे
बोतलें बदल जाती हों, मगर भीतर का जहर वही। और इस जहर की जो
मौलिक बात समझ लेनी जरूरी है, मूलभूत, वह
है ध्वंसात्मकता।
संन्यास को सृजन दो। संन्यास को काव्य दो, संगीत दो, कला दो। संन्यासी से अपेक्षा करो कि कुछ
सृजन करे, कुछ निर्माण करे, जगत को कुछ
दान करे। संन्यासी से नकारात्मक अपेक्षा मत रखो, कुछ विधायक
अपेक्षा रखो।
ऐसे ही नये संन्यास को मैं जन्म दे रहा हूं।
मेरे संन्यास में न तो निषेध है कि कुछ छोड़ कर जाओ, कि कहीं छोड़ कर भागो। बोध काफी है। भागते कायर हैं। जिनको बोध हो जाता है,
वे जहां हैं वहीं रहते हैं और वहीं रहते मुक्त हो जाते हैं। मेरा
संन्यास पांडित्य नहीं देना चाहता, ज्ञान नहीं देना चाहता,
ध्यान देना चाहता है। ध्यान का अर्थ है: शून्यता। ध्यान का अर्थ है:
मुझे कुछ भी पता नहीं। जीवन ऐसा परम रहस्य है कि कुछ इसके संबंध में पता हो भी
नहीं सकता। और, मैं संन्यास को एक नई भावभंगिमा देना चाहता
हूं--सृजनात्मकता की। मैं उसे संन्यासी कहूंगा जिसने एक नया गीत गाया। मैं उसे
संन्यासी कहूंगा और सम्मान दूंगा जिसने वीणा पर एक नया संगीत छेड़ा। मैं उसे
संन्यासी कहूंगा और सम्मान दूंगा जिसने एक नया नृत्य नाचा, जिसने
इस जगत को थोड़ा सुंदर बनाया, जिसने इस पृथ्वी पर थोड़ा
सौभाग्य लाया।
फिर संन्यास गरिमा को पा सकता है।
और मैं चाहूंगा कि संन्यासी अनुकरण न करे। समझे, सुने, मनन करे, लेकिन जीए अपनी
निजता से। इसलिए मैं अपने संन्यासी को कोई आचरण के नियम नहीं दे रहा हूं, सिर्फ अंतस को जगाने की प्रक्रिया दे रहा हूं। फिर जागे हुए अंतस से
तुम्हें जैसा ठीक लगे, तुम जीना। किसी को कृष्ण जैसे जीना हो
तो कृष्ण जैसे जीना। और किसी को महावीर जैसे जीना हो तो महावीर जैसे जीना। और किसी
को बुद्ध बनना हो तो बुद्ध बनना। लेकिन आए आवाज तुम्हारी अंतरात्मा से। मैं न
कहूंगा। मैं कोई आदेश न दूंगा। मैं तो सिर्फ बोध दे सकता हूं!
मेरे पास जो लोग संन्यास के जगत में प्रवेश कर रहे हैं, उनकी सबसे बड़ी कठिनाई यही है। वे चाहते हैं कि मैं उन्हें आचरण दूं।
ठीक-ठीक आज्ञाएं दूं--कब उठें, कब सोएं, क्या खाएं, क्या पीएं, कैसे
चलें--वे चाहते हैं कि मैं उन्हें सारी शृंखला दे दूं।
उस शृंखला को देने के बाद वे संन्यासी नहीं होंगे, कैदी होंगे। मगर सदियों-सदियों से यही समझाया गया है कि गुरु वही जो
तुम्हें आचरण दे। और आचरण का अर्थ होता है: जो मेरा आचरण है, जो मेरा अनुभव है, वह मैं तुम पर थोप दूं। लेकिन यह
हो सकता है कि मुझे रात तीन बजे उठ आना आनंदपूर्ण है और तुम्हें दुखपूर्ण हो। और
तुम तीन बजे रात उठ आओ तो दिन भर उदास रहो; हारे-हारे,
विषाद से भरे, थके-थके, आंखों
में नींद झलकी-झलकी, तुम कुछ भी न कर पाओ, तुम्हारा सारा दिन खराब हो जाए।
तुम वैज्ञानिकों से पूछो! वैज्ञानिक कहते हैं, प्रत्येक व्यक्ति के उठने का समय अलग-अलग है। वैज्ञानिक कहते हैं कि चौबीस
घंटे में दो घंटे के लिए शरीर का तापमान नीचे गिरता है रात में, अलग-अलग समय पर। किसी का दो बजे से और चार बजे के बीच में गिरता है,
किसी का तीन और पांच के बीच में गिरता है, किसी
का पांच और सात के बीच में गिरता है। जब वे दो घंटे शरीर का तापमान नीचे गिरता है
तब सबसे गहरी नींद के क्षण होते हैं। और जो आदमी उन दो घंटों में नहीं सो पाएगा,
उसका पूरा दिन उदास हो जाएगा। इसलिए मैं तुम्हें कैसे नियम दूं?
मुझसे लोग पूछते हैं कि हमें आप ठीक-ठीक कह दें, कब हम सुबह उठें?
मैं उनसे कहता हूं, तुम अपनी तलाश करो। थोड़े से दिन
प्रयोग करो। तीन बजे उठ कर देखो, चार बजे उठ कर देखो,
पांच बजे उठ कर देखो, छह बजे उठ कर देखो,
सात बजे उठ कर देखो, आठ बजे उठ कर देखो। और जो
तुम्हारे भीतर सर्वाधिक संगीतपूर्ण मालूम पड़े, सर्वाधिक
लयबद्धता तुम्हें दे, वही तुम्हारा समय है, वही तुम्हारा ब्रह्ममुहूर्त है। ब्रह्ममुहूर्त कोई अडिग सिद्धांत नहीं है।
तुम जान कर यह हैरान होओगे कि वैज्ञानिकों की खोज यह कहती है कि
स्त्रियां देर से उठनी चाहिए, पुरुष थोड़े जल्दी उठना चाहिए।
इससे तो बड़ा उलटा हो जाएगा; भारतीय संस्कृति को तो बड़ा धक्का
पहुंच जाएगा। क्योंकि स्त्रियों का तापमान थोड़ी देर से गिरता है। पुरुषों का
तापमान अक्सर चार और छह के बीच गिरता है या तीन और पांच के बीच गिरता है।
स्त्रियों का तापमान अक्सर पांच और सात के बीच गिरता है। तो सुबह की पहली चाय पति
को तैयार करनी चाहिए, पत्नी को नहीं। और इसमें पति को कुछ
अपमानित अनुभव नहीं करना चाहिए, गौरवान्वित अनुभव करना
चाहिए।
मैं तुम्हें बंधे नियम नहीं दे सकता। मैं भोजन के संबंध में भी
तुम्हें बंधे नियम नहीं दे सकता, क्योंकि भोजन की भी जरूरतें
प्रत्येक की भिन्न-भिन्न हैं। हां, मैं तुम्हें बोध दे सकता
हूं। ध्यान की प्रक्रियाएं दे सकता हूं, जिनसे तुम्हारा बोध
निखर जाए। और उस बोध के आधार से तुम अपना चरित्र खोजना। उस बोध के आधार से खोजना
कि कब जागना। उस बोध के आधार से खोजना कि क्या भोजन करना, कितना
भोजन करना। उस बोध के आधार से खोजना कि तुम्हारी जीवनचर्या क्या हो।
इसलिए मेरे प्रत्येक संन्यासी की जीवनचर्या में उसकी निजता होगी, एक बंधी-बंधाई लीकबद्ध व्यवस्था नहीं होगी। मैं सैनिक नहीं बनाना चाहता।
मैं तुम्हें कवायद नहीं कराना चाहता। हालांकि तुम यही चाहते हो कि मैं तुम्हें
नियमबद्ध व्यवस्था दे दूं। क्योंकि तुम्हारी झंझट मिटे! तुम सोचना नहीं चाहते;
तुम चबाना नहीं चाहते, तुम चाहते हो कोई
चबा-चबाया तुम्हें दे दे। तुम जूठा निगल जाने को तैयार हो, मगर
चबाने की झंझट लेने को तैयार नहीं हो।
जीवन इतने सस्ते नहीं मिलता। ऐसे तो जीवन खो जाता है।
जीवन को खोजना हो तो बस एक मौलिक शस्त्र तुम्हारे हाथ में चाहिए, एक गांडीव तुम्हारे हाथ में हो बस। उस गांडीव को मैं ध्यान कहता हूं,
बोध कहता हूं, जागरूकता कहता हूं। उसके सहारे
तुम सब खोज लोगे। उस ध्यान के दीये की रोशनी में तुम्हें दरवाजे मिल जाएंगे,
कुर्सियों से न टकराओगे, दीवालों से सिर न
तोड़ोगे। मैं तुम्हें क्यों बताऊं कि कहां दीवाल है और कहां दरवाजे हैं, जब मैं तुम्हें दीया दे सकता हूं? और फिर हरेक के घर
में दरवाजे अलग स्थानों पर हैं और दीवालें अलग स्थानों पर हैं। घर-घर अलग है।
व्यक्ति-व्यक्ति अलग है।
अगर यह हो सके...हो रहा है, हो सकेगा। एक लाख
संन्यासी हैं आज पृथ्वी पर मेरे। आने वाले पांच वर्षों में वे दस लाख हो जाएंगे।
इन दस लाख में से अगर दस भी उस गौरवान्वित शिखर को पा सके जो बुद्धों को उपलब्ध
होता है, तो मेरा श्रम सफल हो गया। फिर से गरिमा मिल सकती है
संन्यास को। मिलनी ही चाहिए। उसी अथक प्रयास में मैं संलग्न हूं।
रात जंजीरे-कहकशां पहनाए,
सुबहे-नौ कैद हो नहीं सकती।
मौत सय्याद बन तो सकती है,
जिंदगी सैद हो नहीं सकती।
वक्त के तुंदोत्तेज धारे को,
कौन हां कौन मोड़ सकता है?
रहरवे-शौक और मंजिल के,
रब्त को कौन तोड़ सकता है?
रात जंजीरे-कहकशां पहनाए,
चाहे रात आकाश-गंगा की जंजीरें ही पहना दे।
सुबहे-नौ कैद हो नहीं सकती।
नव-प्रभात, नई आने वाली सुबह को कोई कैद नहीं कर सकता। सुबह होकर
रहेगी। रात तो जंजीरें पहनाने की पूरी कोशिश करेगी, रात तो
जाल फैलाएगी सब, रात तो अंधेरे को और गहन करेगी। लेकिन ध्यान
रखना--अंधेरा रात का जितना गहन हो जाता है, सुबह उतने करीब आ
जाती है।
रात जंजीरे-कहकशां पहनाए,
सुबहे-नौ कैद हो नहीं सकती।
मौत सय्याद बन तो सकती है,
जिंदगी सैद हो नहीं सकती।
मौत चाहे तो शिकारी बन जाए, मगर जिंदगी का शिकार
किया नहीं जा सकता। उभर-उभर कर जिंदगी लौट आती है। जीवन की ऊंचाइयां वापस फिर-फिर
प्रकट हो जाती हैं। जिन शिखरों को हमने एक बार छू लिया है, वे
शिखर हमारे अचेतन के गर्भ में छिपे हुए हमें पुकार देते ही रहते हैं।
वक्त के तुंदोत्तेज धारे को,
कौन हां कौन मोड़ सकता है?
और अब समय भी आ गया है कि संन्यास की पुनः उदघोषणा हो। मनुष्य बच नहीं
सकेगा बिना संन्यास की पुनरुदघोषणा के। क्योंकि मनुष्य बहुत दब गया है सांसारिक
वस्तुओं, सांसारिक परिग्रहों, संसार की
आपाधापी, उलझनों में। संसार मनुष्य की छाती पर बहुत भारी रूप
से सवार हो गया है। आदमी मरा जा रहा है, दबा जा रहा है।
संन्यास की जरूरत है कि कोई आदमी के भार को छीन ले; उसकी
छाती से पत्थरों को हटा दे।
वक्त के तुंदोत्तेज धारे को,
कौन हां कौन मोड़ सकता है?
समय खुद भी पक गया है कि संन्यास की उदघोषणा होनी चाहिए, कि धर्म फिर पुनर्अवतरित होना चाहिए। और धर्म अब हिंदू नहीं होगा, अब ईसाई नहीं होगा, अब मुसलमान नहीं होगा। अब धर्म
सिर्फ धार्मिकता होगा। गए वे पुराने विशेषण और उन विशेषणों के दिन। और उन विशेषणों
ने हमारा इतना अहित किया है कि अब कोई भी समझदार आदमी उन विशेषणों के साथ अपने
संबंध जोड़ कर नहीं रख सकता। गए मस्जिदों, मंदिरों, गिरजों के दिन। अब तो सब गिरजे हमारे हैं और सब मंदिर हमारे हैं। अब तो हम
पूरी पृथ्वी को मंदिर बनाएंगे। अब तो हम जहां बैठ कर प्रार्थना करेंगे वहीं मंदिर
बना लेंगे। गए दिन अब किताबों के, और किताबों के आधार पर
लोगों के बंटने के--कि कोई कुरान को माने, कोई वेद को माने।
वक्त आ गया कि हम पहचानें: जो गीत वेद में है, वही कुरान में
है--भाषा अलग होगी। और वक्त आ गया कि हम पहचानें कि जो गीत कुरान में है और वेद
में है, वह हमारे प्राणों में भी छिपा है--अभिव्यक्ति अलग
होगी। और जब तक हमारे प्राणों का गीत प्रकट न होगा, तब तक
वेद भी बेपढ़े रह जाएंगे और कुरान भी अनसुनी रह जाएगी। जिसने स्वयं के भीतर सत्य को
जाना है, वही वेद में पहचान पाएगा, वही
कुरान में, वही धम्मपद में, वही बाइबिल
में। अब किताबों के दिन गए। अब आत्मा की किताब खोलने का समय करीब आ गया है।
वक्त के तुंदोत्तेज धारे को,
कौन हां कौन मोड़ सकता है?
रहरवे-शौक और मंजिल के,
रब्त को कौन तोड़ सकता है?
प्रेम-मार्ग के पथिक की जो मंजिल की तलाश है, उसे कोई भी तोड़ नहीं सकता।
संन्यास मेरे लिए परमात्मा के प्रेम का दूसरा नाम है। तुमने सुनी है
परिभाषा कि संन्यास संसार को छोड़ने का नाम है। मैं कहता हूं: संन्यास परमात्मा के
प्रेम में पड़ने के नाम है। क्या छोटी बातें करते हो, संसार का छोड़ना!
और बड़ा मजा है! तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी एक तरफ तो कहते हैं, संसार माया है, और दूसरी तरफ कहते हैं, छोड़ो! जो माया ही है, है ही नहीं, उसको क्या खाक छोड़ोगे! एक तरफ कहते हैं, संसार सपना
है, और दूसरी तरफ कहते हैं, छोड़ो! एक
तरफ कहते हैं, संसार झूठ। और फिर उसको छोड़ कर बड़े अकड़ते हैं
कि हमने संसार को छोड़ दिया! झूठ को छोड़ कर कोई अकड़ने की बात है? आज तक तुमने दो और दो गलती से पांच जोड़े थे, आज
तुम्हें पता चला कि दो और दो चार होते हैं, तो क्या तुम अकड़े
फिरोगे कि सुनो जी, मैंने दो और दो पांच जोड़ना छोड़ दिया! अब
मैं दो और दो चार जोड़ता हूं। तुम तो किसी से यह कहोगे ही नहीं। क्योंकि लोग क्या
कहेंगे कि तुम दो और दो पांच जोड़ते थे? पागल थे? कितने दिन पागल रहे? तुम तो यह बात भुला ही दोगे,
रफा-दफा कर दोगे। कोई याद भी दिलाएगा तो याद न करना चाहोगे।
लेकिन तुम्हारा तथाकथित साधु-महात्मा घोषणा करता है: मैंने संसार छोड़
दिया। और कहता भी चला जाता है कि संसार माया है।
संसार अगर माया है तो उस पर इतना ध्यान मत दो। न पकड़ने में ध्यान दो, न छोड़ने में ध्यान दो। दोनों हालतों में तुम उसे बहुत ज्यादा मूल्य दे
देते हो। मैं कहता हूं, मूल्य तो परमात्मा का है।
संन्यास मेरे लिए परमात्म-प्रेम का नाम है। और परमात्मा का प्रेम बन
जाए संन्यास, तो फिर गौरीशंकर का शिखर उठे, फिर
हम बादलों के ऊपर उठें, फिर हम चांदत्तारों के पास पहुंचें।
यह हो सकता है। इसके होने का समय है। यह होना ही चाहिए।
रहरवे-शौक और मंजिल के,
रब्त को कौन तोड़ सकता है?
प्रेमी के संबंध को कोई भी नहीं तोड़ सकता।
ईश्वर के रंग में रंगो, ईश्वर के रंग में
बिको, मेरे संन्यास का यही अर्थ है।
तेरे रंग में रंग गए हम,
तेरे रूप बिकाए
दूध धुली शशि किरणों में
जब तेरे संग नहाए
नहीं मानते हैं ये लोचन,
बोलें तेरी बोली
जब से तुमने इनसे
छुप-छुप खेली आंखमिचौली
अंतर सुधि बिसराए
हृदय तेरा नाम पुकारे
दुलराया है जब से तुमने
बैठ सपन के द्वारे
जाने कैसा भरमा है
कवि गीत तुम्हारे रचता
कहता, तुम्हें छोड़ कर
जाएं और नहीं कुछ बचता
जब-जब इठलाती, मदमाती
पहन चुनरिया धानी
मौसम गा उठता अनगाई
कोई प्रेम कहानी
तेरे रंग में रंग गए हम
तेरे रूप बिकाए
दूध धुली शशि किरणों में
जब तेरे संग नहाए
दूसरा प्रश्न: मैं क्या करूं? मेरो मन बड़ो हरामी!
संत! तुम पुराने संतों जैसी ही बात कह रहे
हो। मेरो मन बड़ो हरामी!
मन को गाली न दो! मन का उपयोग करना सीखो। मन एक बहुमूल्य यंत्र है।
इससे अदभुत कोई यंत्र नहीं। मन परमात्मा की परम भेंट है तुम्हें। इसी मन से तुम
चाहो तो संसार में उलझ जाओ और इसी मन से तुम चाहो तो संसार से सुलझ जाओ। इसी मन से
तुम चाहो तो नरक की सीढ़ियों में उतर जाओ और इसी मन से तुम चाहो तो स्वर्ग तुम्हारा
है। इसको हरामी न कहो! मन तुम्हें नहीं भटकाता, तुम भटकना चाहते हो,
मन संगी-साथी हो जाता है। मन तुम्हारा नौकर है, तुम्हारा चाकर है। तुम चोरी करो तो मन चोरी के उपाय बताने लगता है और तुम
भजन गाओ तो मन भजन निर्माण करने लगता है। पूजा करो तो मन अर्चना बन जाता है,
पाप करो तो मन पाप बन जाता है। लेकिन मनुष्य की एक बहुत आधारभूत आदत
है: दोष किसी पर डालना; दोष अपने पर नहीं लेना।
अब देखो संत, तुम कहते हो: "मैं क्या करूं?'
तुमने अपने को अलग कर लिया।
"मेरो मन बड़ो हरामी!'
मन पर सब छोड़ दिया, कि मन है हरामी; मैं तो भला आदमी, मगर यह मन मुझे भटकाता है। तुमने
मन से अपने को तोड़ लिया। तुमने मन पर दायित्व छोड़ दिया। यह तो हमारी तरकीब है। और
इन्हीं तरकीबों के कारण तो हम उठ नहीं पाते, जग नहीं पाते।
आदमी की आदत है: किसी न किसी पर दोष दे दे। कोई कहता है, भाग्य ही ऐसा है, क्या करें? कोई
कहता है, परमात्मा ने ऐसा बनाया, हम
क्या करें? कोई कहता है, मनुष्य तो
प्रकृति के अधिकार में बंधा है। कार्ल माक्र्स कहता है कि मनुष्य तो समाज की
व्यवस्था में जकड़ा है, क्या कर सकता है? सिगमंड फ्रायड कहता है कि मनुष्य तो अचेतन वृत्तियों के जाल में उलझा है,
क्या कर सकता है? लेकिन सबकी बात का अर्थ एक
ही है कि तुम जैसे हो, बस ऐसे ही रहोगे, कुछ हो नहीं सकता। क्योंकि दोष तुम्हारा है ही नहीं, दोष किसी और का है। उसको तुम नाम कुछ भी दे दो--अ ब स, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता।
मैं तुम्हें याद दिलाना चाहता हूं: मन तुम्हें नहीं भटकाता; तुम भटकना चाहते हो तो मन तुम्हें साथ देता है। तुम न भटकना चाहो तो मन
तुम्हें उसमें साथ देगा। मन तो बड़ा प्यारा सेवक है। तुम क्रोध करना चाहो, मन क्रोध करता है। तुम करुणा करना चाहो, मन करुणा
करता है। मन तो तुम्हारे पीछे चलता है। तुम उलटी बातें कर रहे हो।
तुम कहते हो, मैं क्या करूं, यह छाया मुझे
गलत जगह ले जाती है। छाया तुम्हारी है। तुम जहां जाते हो, वहां
जाती है। लेकिन गाली तुम छाया को देते हो, कि मैं क्या करूं,
यह छाया मुझे कल वेश्यागृह ले गई। माने ही न! बस एकदम वेश्यागृह की
तरफ चलने लगी।
छाया तुम्हें वेश्यागृह ले जा सकती है? तुम गए वेश्यागृह,
तो छाया को जाना पड़ा। तुम मंदिर गए होते, तो
छाया मंदिर गई होती। मन तो तुम्हारी छाया है।
मैं तुम्हारी इस बात में सहयोग नहीं दे सकता। तुम अभी सोए हो, तुम अभी मूर्च्छित हो, इसलिए मन तुम्हें तुम्हारी
मूर्च्छा में सहयोग देता है। तुम जरा जागो! मेरे पास भी मन है, मैं उसका उतना ही उपयोग कर रहा हूं जितना तुम--शायद उससे ज्यादा। बुद्ध के
पास भी मन है। बुद्धत्व हो जाने के बाद, बयालीस साल तक
निरंतर बुद्ध बोलते रहे। बिना मन के कैसे बोलेंगे? बिना मन
के कौन बोलेगा? समझाते रहे; गांव-गांव,
गली-गली, द्वारे-द्वारे दस्तक देते रहे। बिना
मन के यह कौन करेगा? महावीर भी ज्ञानोपलब्धि के बाद चालीस
वर्ष तक पहुंचाते रहे संदेश। बिना मन के कौन यह करेगा?
मन गालियां ही नहीं देता, गीत भी गाता है। अगर
तुम गालियां ही गा रहे हो तो मन को गाली मत दो। मन तो अवश है। मन तो विवश है। मन
तो तुम्हारा है। लेकिन हम एक चालबाजी कर लेते हैं, हम अपने को
अलग कर लेते हैं। हम कहते हैं, हम तो अलग, हम तो बिलकुल दूध-धोए, और यह मन हरामी! यह कहता है
ऐसा करो, तो करना पड़ता है।
बात ऐसी नहीं है। जरा होश में आओ! जरा गौर से देखो! तुम मालिक हो, मन गुलाम है। तुम चूंकि मालिक की तरह सोए हुए हो, इसलिए
मन भी करे तो क्या करे, वह तुम्हारा मालिक बन बैठा है। तुमने
उसे मालिक बना दिया है। तुमने ही सोए रह कर उसे मालिक बना दिया है। तुम नौकर पर
इतने निर्भर हो गए हो कि तुम नौकर से ही पूछते हो कि कहां जाएं? क्या करें?
मुल्ला नसरुद्दीन कल मुझसे कह रहा था: चंद्रलोक से उतरी एक अनोखी चीज
मैंने आज शाम अपनी खिड़की से देखी। नीला और नारंगी रंग, धीमी चाल और उसके अंदर ढेरों छोटे-छोटे आदमी!
मैंने मुल्ला नसरुद्दीन से कहा कि बड़े मियां, सरे-शाम इतनी मत पी लिया करो। वह स्कूल के बच्चों की बस थी जिसे तुमने
देखा है। वह कोई चांद से उतरी हुई चीज नहीं थी, कोई
उड़नतश्तरी नहीं थी। और वे जो छोटे-छोटे आदमी तुमने देखे, वे
स्कूल के बच्चे थे।
लेकिन आदमी नशे में हो तो कुछ का कुछ दिखाई पड़ता है। आदमी नशे में हो
तो वही नहीं दिखाई पड़ता जैसा है। और गाली तुम शराब को दोगे! या कि तुमने पी? शराब अपने आप तुम्हारे कंठ में नहीं उतर जाती। कोई जबरदस्ती शराब तुम्हारे
कंठ में नहीं उतर जाती। शराब तुमसे कहती नहीं कि आओ और मुझे पीओ। तुम पीते हो,
तो बेहोश होते हो।
मुल्ला नसरुद्दीन एक रात पीकर लौटा है। एक बिजली के खंभे के नीचे खड़े
होकर खंभे को बजा रहा है। एक सिपाही देख रहा है। थोड़ी देर बाद उसे दया आई और उसने
कहा कि बड़े मियां, यह क्या कर रहे हो?
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, देखते नहीं क्या कर
रहा हूं? अपने घर के दरवाजे पर दस्तक कर रहा हूं। पत्नी उठ
आए, शायद सो गई हो, तो दरवाजा खोले।
सिपाही हंसा, उसने कहा कि बड़े मियां, यह घर
नहीं है, जरा गौर से तो देखो!
तो उसने कहा, तुम किसी और को बनाना। गौर से देख रहा हूं, ऊपर अभी मंजिल का दीया जल रहा है। पत्नी सो भला गई हो, मगर अभी दीया जला हुआ है।
एक और रात घर लौटा, ज्यादा पीए हुए। चाबी ताले में
डालना चाहता है, मगर हाथ कंप रहे हैं, चाबी
ताले में जाती नहीं। राहगीर कोई देखा, पास आया और कहा,
बड़े मियां, लाओ चाबी मुझे दो, मैं खोल दूं।
मुल्ला ने कहा कि चाबी तो मैं ही डाल दूंगा, तुम जरा इतना करो, यह कंपते हुए मकान को सम्हाल लो।
बेहोश आदमी की एक अलग दुनिया है। और हम सब बेहोश हैं तब तक जब तक
ध्यान का दीया न जले।
मन को गालियां मत दो, संत! मन वही कर रहा है जो तुम
करवाना चाहते हो। मन को गालियां देने में एक खतरा है, कि
कहीं तुम मन को बदलने में न लग जाओ। गाली देने का वही मतलब होता है। अगर बहुत
ज्यादा मन से परेशान हो गए, तो मन को बदलने में लग जाओगे। और
जो मन को बदलेगा, एक तरफ से बदलेगा और पाएगा कि जो एक दरवाजा
रोक दिया तो मन दूसरे दरवाजे से वही काम शुरू कर दिया है। सामने का दरवाजा बंद
किया तो पीछे के दरवाजे से। इस तरह पाखंड पैदा होता है। यह "मेरो मन बड़ो
हरामी', इसी तरह के लोगों ने ही कह-कह कर पाखंड पैदा करवा
दिया है। मन को समझना है, गाली नहीं देनी है! और समझ सको,
इस योग्य ध्यान को जगाना है। ताकि ध्यान की रोशनी में देख सको मन
को--कि क्या हो रहा है? क्या किया जा रहा है? फिर तुम कभी मन को गाली न दोगे। बल्कि धन्यवाद दोगे परमात्मा को कि तेरी
अपूर्व कृपा है कि तूने ऐसा अदभुत यंत्र दिया!
अभी वैज्ञानिकों ने बड़े से बड़े कंप्यूटर बना लिए हैं, जो मन का सारा काम कर सकते हैं। मगर एक मनुष्य का मन जितना काम कर सकता है,
उतना काम करने के लिए हजारों कंप्यूटर लगाने पड़ेंगे। फिर भी
कंप्यूटर अभी इतने सूक्ष्म नहीं हैं, जितना मनुष्य का मन है।
और हजारों कंप्यूटर बड़ी जगह घेरेंगे, और इस छोटे से सिर के
भीतर इतनी अदभुत प्रक्रिया चल रही है!
वैज्ञानिक कहते हैं कि एक आदमी के मस्तिष्क में इतनी संभावना है कि
सारे दुनिया के पुस्तकालय समा सकते हैं। जितनी सूचनाएं आज तक मनुष्य-जाति ने
इकट्ठी की हैं, वे सारी सूचनाएं एक मनुष्य के मन में समा सकती हैं।
इतना अदभुत यंत्र तुम्हारे पास है। इस छोटे से सिर के भीतर सात अरब सूक्ष्म तंतुओं
वाला मस्तिष्क तुम्हारे पास है। वे तंतु इतने सूक्ष्म हैं कि अगर एक तंतु के ऊपर
दूसरा तंतु, दूसरे के ऊपर तीसरा हम रखते चले जाएं, तो एक लाख तंतुओं की मोटाई तुम्हारे बाल के बराबर होगी। और एक-एक तंतु
करोड़ों सूचनाएं अपने में समाहित कर सकता है।
मन को समझोगे तो विस्मयविमुग्ध हो जाओगे! कोई फूल इतना अदभुत नहीं। इस
जगत में कोई चीज इतनी अदभुत नहीं जितना मनुष्य का मस्तिष्क है, जितना मनुष्य का मन है।
मगर तुम्हारे पोंगापंथी गालियां दिए जाते हैं। और उनकी गालियां
तुम्हें जंचती भी हैं, तर्कयुक्त भी मालूम होती हैं, क्योंकि
तुम्हारा अनुभव भी यही कहता है। और तुम्हें इसमें सुरक्षा भी मालूम होती है,
अपने अहंकार को बचा लिया, अलग कर लिया,
कि मैं तो कुछ गड़बड़ करता नहीं, यह मन हरामी है,
यह गड़बड़ करवाता है।
जरा सोचो तो तुम क्या कह रहे हो! यह तो ऐसे हुआ कि जैसे कोई कहे कि
मैं क्या करूं, यह साइकिल का हैंडल बस मुड़ जाता है और ले जाता है
जहां इसे मुझे ले जाना है। तो उतर पड़ो ऐसी साइकिल से। और कहीं साइकिल के हैंडल
कहीं ले जाते हैं! और अगर साइकिल के हैंडल कहीं ले जाते भी हों, तो भी उनकी गहराई, खोजबीन करना, तुम्हारे मन में होगी।
सम्मोहनविद, जो मनुष्य के मन पर काफी खोजबीन किए हैं, उनका कहना है कि अक्सर ऐसा हो जाता है। तुमने अगर नई-नई साइकिल चलानी सीखी
हो तो तुमको पता होगा। जब नया-नया आदमी साइकिल चलाता है तो बहुत डरता है। और
जिन-जिन चीजों से डरता है, वही होती हैं। जैसे कि सड़क खाली
है, साठ फीट चौड़ी सड़क, कोई नहीं
है--सीखने वाला तो ऐसे वक्त जाता है जब वहां कोई न हो--सन्नाटा है। और वह मील का
पत्थर लगा है दूर, और वह डरता है कि कहीं पत्थर से टकरा न
जाऊं! हाथ-पैर हिलते हैं, हैंडल थरथराता है, कि कहीं पत्थर से टकरा न जाऊं! साठ फीट चौड़ा रास्ता, अगर अंधा आदमी भी साइकिल चलाए तो बहुत कम संभावना है कि पत्थर से टकराए।
मगर यह आंख वाला आदमी पत्थर से टकराएगा। क्योंकि कहीं पत्थर से टकरा न जाऊं,
इस भय के कारण और कुछ उसे दिखाई ही नहीं पड़ता, वह लाल पत्थर, हनुमान जी, एकदम
दिखाई पड़ते हैं! और सब भूल जाता है, और सब भूल जाता है,
बस उतना पत्थर, और डर! और जिस तरफ डर है उस
तरफ खिंचाव है। जिस तरफ भय है उस तरफ आकर्षण है। चला! और जितना चला पत्थर की तरफ
उतने प्राण कंपे, उतने हाथ-पैर हिले, उतना
होश गंवाया उसने, और चला पत्थर की तरफ! और अब उसे लगता है कि
बचना मुश्किल है! अब यह होकर ही रहेगा। और यह होकर रहने वाला है। लेकिन तुम यह मत
सोचना कि पत्थर ने यह करवाया या साइकिल ने यह करवाया। यह तुम्हारे मन के भय ने,
तुम्हारे भय ने, तुम्हारे अचेतन आकर्षण ने ही
करवाया। तुम्हीं गए। कोई नहीं ले गया।
और जीवन में भी यह हो रहा है।
मुल्ला नसरुद्दीन ने तय किया कि बहुत कष्ट उठा चुका हूं, अब शराब नहीं पीऊंगा। कसम खा ली! कसमें वे ही लोग खाते हैं जो अपने से
डरते हैं। जो अपने से नहीं डरता वह कभी कसम नहीं खाता और व्रत नहीं लेता, ध्यान रखना। सिर्फ भयभीत लोग व्रत लेते हैं। सिर्फ कायर लोग व्रत लेते
हैं। तो उसने कसम खा ली, व्रत ले लिया कि अब शराब नहीं
पीऊंगा चाहे कुछ भी हो जाए।
अब यह चाहे कुछ भी हो जाए, जरा इसमें गौर से
देखो। वह जानता है कि खतरे तो हैं। चाहे कुछ भी हो जाए! कसम ली ही इसीलिए है कि
कसम के सहारे अपने को बचाएगा। मगर ऐसे कहीं कोई बचता है! निकला रास्ते से, आने लगा शराबघर करीब, हाथ-पैर कंपने लगे। मगर कसम खा
ली, अणुव्रत ले लिया कि नहीं पीएंगे, चाहे
कुछ भी हो जाए। जिद्द करके, देखा ही नहीं शराबघर की तरफ,
आंख को बिलकुल दूसरी तरफ रखा। मगर आंख कितनी ही दूसरी तरफ रखो,
आंख के कोने से तो शराबघर दिखाई पड़ ही रहा है; आंख कितने ही दूर रखो, कान तो खुले ही हैं; प्यालियों की खनकार आ रही है, मस्तियों की आवाजें आ
रही हैं; लोग पीकर मदमस्त हो रहे हैं, आवाजें
कस रहे हैं, सारा राग-रंग हो रहा है, सब
सुनाई पड़ रहा है। मगर जितना सुनाई पड़ रहा है उतना ही वह तेजी से भागा जा रहा है
आगे की तरफ कि कहीं ऐसा न हो कि किसी कमजोर क्षण में लौट जाऊं!
सौ कदम आगे निकल गया, बड़ा खुश हुआ, अपनी पीठ ठोंकी और कहा कि नसरुद्दीन, मान गए! तू भी
बहादुरों में एक बहादुर है! अब चल इस खुशी में तुझे पिलाएं! पहुंच गए वापस! और उस
दिन और भी ज्यादा पी, क्योंकि एक महान कार्य कर गुजरे थे। उस
खुशी में खुद भी पी, औरों को भी पिलाई। लोगों ने पूछा,
नसरुद्दीन, आज बड़े दरिया दिल!
उसने कहा, आज काम ही ऐसा किया है। सौ कदम तक चला गया; आंख भी नहीं उठाई; कानों में आवाजें आती रहीं,
मैंने कहा, आने दो! एक दृढ़ संकल्प किया था;
दिखा कर रहा आज कि अपना मालिक हूं।
मगर यह मालकियत! दूसरे दरवाजे से। पीठ ठोंक ली और कहा कि अब इस खुशी
में क्या करना है? चल कर पीऊं और पिलवा दूं लोगों को! कहा कि आज जितने
लोग हैं मधुशाला में, सब पीएं मेरी तरफ से, जी खोल कर पीएं। काम ही ऐसा किया है!
तुम एक तरफ से मन को दबाओगे, मन दूसरी तरफ से
रास्ते खोज लेगा। क्यों? क्योंकि तुम अभी बदले नहीं हो,
मन को कैसे बदलोगे? तुम तो वही हो। तुम कसमें
खाओ, व्रत लो, नियम लो, कुछ काम न आएंगे। मेरा जोर तुम्हारे आचरण बदलने पर नहीं है। मैं कहता हूं,
फिक्र ही मत करो, अगर शराब पीते हो तो ठीक है,
पीओ। जुआ खेलते हो, कोई फिक्र नहीं, खेलो। मैं कहता हूं, इसमें उलझो ही मत, नहीं तो जीवन खराब हो जाएगा। लेकिन ध्यान में डूबो! जुए से ध्यान में कोई
बाधा नहीं पड़ती। और अक्सर तो ऐसा होता है कि जो आदमी जीवन को सरलता से जीता है,
न जुए से परेशान है, न शराब से परेशान है,
न किसी चीज से परेशान है--जो चिंता ही नहीं लेता, जो इन सब चीजों को जीवन का सामान्य क्रम मान कर स्वीकार कर लेता है--वह
बड़ी सरलता से ध्यान में उतर जाता है। ऐसा हजारों लोगों को ध्यान में उतारने के बाद
मैं कह रहा हूं। यह मेरा अनुभव है कि व्रती और उपवासी ध्यान में नहीं उतर पाते। अब
जिसने व्रत किया है, उपवास किया है, वह
आंख बंद करके बैठता है तो रोटी ही रोटी याद आती है--भूखा बैठा है।
जर्मन कवि हेन ने लिखा है कि मैं जंगल में खो गया एक बार तीन दिन तक।
तीसरे दिन थका-मांदा, भूखा-प्यासा, आशा छूटी जाती है;
आकाश में पूरा चांद निकला। उसने लिखा है: मैं बहुत हैरान हुआ! मैं
कवि हूं और मैंने चांद पर बहुत कविताएं लिखी हैं, और हमेशा
चांद में मैंने अपनी प्रेयसी का चेहरा देखा है। और आज मुझे एक डबलरोटी आकाश में
तैरती हुई दिखाई पड़ी। मुझे तो भरोसा ही नहीं आया, आंखें मीड़
कर मैंने फिर देखा कि चांद को हो क्या गया है? डबलरोटी!
मगर तीन दिन के भूखे आदमी को चांद में डबलरोटी ही दिखाई पड़ सकती है।
प्रेयसी के चेहरे का क्या करोगे? भूखे भजन न होहिं गोपाला। अभी
प्रेयसी वगैरह याद नहीं आ सकती। अभी डबलरोटी ही याद आ सकती है। लार आ गई होगी मुंह
में डबलरोटी को तैरते देख कर, सुगंध आ गई होगी डबलरोटी की,
जैसे बेकरी के पास से निकलते हो तो गंध आ जाती है।
जो आदमी व्रत लिए बैठा है, वह तो ध्यान कर ही न
पाएगा। मैं चाहता हूं, तुम बिलकुल सामान्य और साधारण जीवन
जीओ। जरा भी अड़चन न डालो जीवन में। जैसा है जीवन, उसको वैसा
ही चलने दो और ध्यान में उतर जाओ। सुगमतम रास्ता है ध्यान में उतरने का: जीवन की
साधारणता को बिलकुल स्वीकार कर लो। यही है तुम्हारा जीवन। गालियां मत दो! जैसा है,
ठीक है। जैसा है, वैसा ही हो सकता है अभी। अभी
तुम्हारी उतनी ही क्षमता है, उतनी ही पात्रता है, उतनी ही तुम्हारी आत्मा है। मगर ध्यान में उतरो! अ
ौर जैसे-जैसे ध्यान में उतरोगे, तुम चमत्कृत होने
लगोगे। ध्यान में उतरते ही क्रांतियां शुरू हो जाती हैं। ध्यान में उतरते ही
मुश्किल हो जाएगा धूम्रपान करना। मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि धूम्रपान आदमी करता है
अपने मानसिक तनाव को भुलाने के लिए। इसलिए जब भी तुम मानसिक तनाव से भरते हो,
ज्यादा सिगरेट पीते हो। सिगरेट पीने में उलझ जाते हो, मन का तनाव थोड़ा सुलझता मालूम पड़ता है। सिगरेट से जाता हुआ निकोटीन
तुम्हारे मन के तनाव को थोड़ा सा हलकापन दे देता है। तुम शराब पीते हो, क्योंकि तुम्हारी जिंदगी याद रखने योग्य नहीं है, भुलाने
योग्य है। तुम शराब पीते हो, क्योंकि तुम विस्मरण करना चाहते
हो।
एक शराबी ने मुझसे संन्यास लिया। वह तो मान ही न सका कि मैं उसे
संन्यास दूंगा! वह तो आया था मुझसे कहने कि क्या आप मुझे स्वीकार करेंगे? उसने कहा, मैं पहले ही बता दूं कि मैं शराबी हूं।
मैंने कहा कि ठीक, मुझे सभी स्वीकार हैं। जब परमात्मा को तुम
स्वीकार हो और परमात्मा...तुम शराब कितने दिन से पी रहे हो? उसने
कहा, आज बारह साल से शराब पी रहा हूं। तो मैंने कहा, जब परमात्मा बारह साल से तुम्हें जिंदा रखे है और मार नहीं डालता, तो मैं कौन हूं बाधा डालने वाला? मेरी कसौटियां कोई
परमात्मा से बड़ी कसौटियां नहीं हो सकती हैं। तुम बेफिक्री से पीओ। मगर तुम ध्यान
शुरू करो! उसने कहा, क्या शराबी ध्यान कर सकता है? मैंने कहा, सच तो यह है कि शराब पीने की आकांक्षा
उनको ही पैदा होती है जिनके भीतर ध्यान की संभावना है। यह तुम हैरान होओगे सुन कर
बात! शराब थोड़ी देर के लिए विस्मरण लाती है संसार का और ध्यान सदा के लिए मुक्ति
लाता है। शराब क्षणभंगुर ध्यान है और ध्यान शाश्वत शराब है। शराब में जो लोग
उत्सुक हो जाते हैं, वे वे ही लोग हैं जो किसी तरह जिंदगी की
चिंताओं को भूलना चाहते हैं। और ध्यान में तो चिंताओं से मुक्ति हो जाती है,
भूलने की जरूरत नहीं रह जाती। मैंने कहा, तुम
ध्यान करो, शराब तुम पीते रहो।
कोई पांच-सात महीने बाद उसने आकर मुझे कहा, आपने मुझे बहुत धोखा दिया! अब ध्यान में रस लगने लगा है, शराब छूट गई। अब मैं पीना भी चाहूं तो नहीं पी सकता।
मैंने कहा, मुझे कारण बताओ, क्यों नहीं पी
सकते?
उसने जो बात कही, मौलिक है। उसने कहा कि मैं
जिंदगी को भुलाने के लिए शराब पीता था, क्योंकि जिंदगी मेरी
दुखपूर्ण थी। ध्यान ने मेरी जिंदगी में सुख की एक नई आभा दे दी है। सुबह उठता हूं,
तो इतनी प्यारी सुबह मैंने कभी जानी न थी! पक्षियों के गीत पहले भी
होते रहे होंगे, मैंने नहीं सुने थे। सूरज पहले भी निकलता था,
मैंने नहीं देखा था। वृक्ष पहले भी हरे रहे होंगे, मेरी आंखें उनकी हरियाली से नहीं भरी थीं। फूल पहले भी नाचते रहे होंगे
हवाओं में, लेकिन मैंने उन्हें पहचाना नहीं था। रात तारों से
भर जाती है और मेरा हृदय इतना आनंदमग्न हो रहा है! पहले मैं दुखी था, शराब पीता था तो दुख भूल जाता था। अब शराब पीता हूं तो यह सुख भूल जाता
है। और सुख को कौन भूलना चाहता है? इसलिए अब मैं शराब नहीं
पी सकता। असंभव है।
मैंने कहा, अब तुम जब समझ ही गए हो और बात हो ही गई है तो मैं
तुमसे कह ही दूं कि धोखा दिया। मुझे क्षमा करना!
संत, मन को गालियां मत दो! मन को समझो और जागो, ध्यान में लगो। और जैसे हो वैसे ही ध्यान को उपलब्ध हो सकते हो। ध्यान
बेशर्त है। कोई शर्त नहीं लगाता। ऐसी कोई शर्तें नहीं लगाता कि पहले सिगरेट छोड़ो,
शराब छोड़ो, पत्नी छोड़ो, बच्चे
छोड़ो, धन छोड़ो, तब ध्यान होगा। नहीं,
नहीं, बिलकुल उलटी बात है। पहले ध्यान हो,
फिर जो-जो व्यर्थ है, अपने आप छूट जाएगा। और
जो-जो सार्थक है, वह और भी गहराई से जुड़ जाएगा। ध्यान व्यर्थ
को जला कर राख कर देता है और सार्थक को निखार देता है।
ध्यान अग्नि है। उससे गुजर कर स्वर्ण शुद्ध होता है, कुंदन बनता है।
आज इतना ही।
thank you guruji
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