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शुक्रवार, 1 सितंबर 2017

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-22

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

बाईसवां प्रवचन
विचार-क्रांति की भूमिका

प्रश्न: पिछली बार जब अहमदाबाद आए थे तो आपको सुनने के लिए बड़ी संख्या में लोग उपस्थित हुए थे। तथा आपकी विचारधारा समाचारपत्रों में भी प्रकाशित हुई थी। उनमें से कुछ लोगों का कहना है कि आपके विचार कम्युनिस्ट विचारधारा से बहुत मेल खाते हैं और उसके बहुत समीप हैं। कृपया इस संबंध में आप अधिक प्रकाश डालें।

पहली बात तो यह है कि मेरी दृष्टि में कोई भी विचारशील आदमी किसी न किसी रूप में कम्युनिज्म के निकट होगा ही। यह असंभव है, इससे उलटा होना। और अगर हो तो यह तो वह आदमी विचारशील न होगा, या बेईमान होगा।
उसके कुछ कारण हैं।
जैसे, यह बात अब स्वीकार करनी असंभव है कि दुनिया में किसी तरह की आर्थिक असमानता चलनी चाहिए। यह बात भी स्वीकार करनी असंभव है कि दुनिया किसी तरह के वर्गों में विभक्त रहे। प्रत्येक मनुष्य को किसी न किसी रूप में जीवन में विकास का समान अवसर मिले, इसके लिए भी अब कोई विरोध नहीं होता। और मेरी समझ में, आज ही नहीं, मैं तो बुद्ध को, महावीर को, क्राइस्ट को, सबको कम्युनिस्ट कहता हूं। उन्हें कोई पता नहीं था।

लेकिन मनुष्य की समानता के लिए जिन लोगों ने भी जिस दिशा में कोशिश की है, उन सभी दिशाओं से एक धारणा विकसित होनी शुरू हुई है कि मनुष्य समान है।
इसलिए वह गलत नहीं कहता है--अगर कोई कहता हो मेरे बाबत तो वह गलत नहीं कहता है, वह ठीक ही कहता है। उसके कहने में बात तो ठीक ही है लेकिन उसके कहने का कारण और नीयत बहुत दूसरी है। उसकी नीयत गलत है। कम्युनिज्म या कम्युनिस्ट एक तरह की गाली बन गई है; और बनना स्वाभाविक था। क्योंकि जितने न्यस्त स्वार्थ हैं, उनको चोट पहुंचाने वाली कोई भी बात लोकमानस में ऐसी बिठाई जानी चाहिए कि भय पैदा हो जाए। साम्यवादी दृष्टि के खिलाफ लड़ने के लिए एक भी दलील पूंजीवाद के पास नहीं है। तो आखिरी दलील एक ही रह जाती है कि गाली दो, भयभीत करो, हौवा खड़ा कर दो; वही उपाय किए जा रहे हैं। यह पूंजीवाद के हार जाने का सबूत है।
इतना जरूर मेरा मानना है कि जिन देशों में भी हिंसा के द्वारा कम्युनिज्म आया है, वहां पूरा कम्युनिज्म नहीं आ सका है। और हिंसा के द्वारा कभी पूरा कम्युनिज्म आ भी नहीं सकता। क्योंकि हिंसा जिन लोगों के हाथ में ताकत दे देती है, फिर एक नया वर्ग बनना शुरू हो जाता है जो और भी खतरनाक सिद्ध हो सकता है--लंबे अर्सों में। क्योंकि धनपति का वर्ग तो था, लेकिन धनपति के पास कोई सत्ता नहीं थी, धन ही था। और धनपति का वर्ग फैला हुआ वर्ग था, सत्ताधिकारी का वर्ग इकट्ठा और संगठित वर्ग है। तो धनपति की दुनिया में तो क्रांति की संभावना है।
 रूस में चीन में माक्र्स के पैदा होने की अब कोई संभावना नहीं है। पैदा होते ही गला घोंट दिया जाएगा। सिर्फ आर्थिक वर्ग मिट जाएं इतनी ही दूर तक मेरा कम्युनिज्म नहीं जाता। मेरे कम्युनिज्म की धारणा वहां तक जाती है जहां किसी तरह का वर्ग न रह जाए। और इसलिए हिंसा के द्वारा ऐसी वर्गहीन व्यवस्था नहीं आ सकती। इसलिए मैं कम्युनिज्म से सहमत हूं, जहां तक मनुष्य की समानता और वर्गहीन समाज का संबंध है। और जहां तक हिंसक रुख का संबंध है, मैं बिलकुल विरोध में हूं। इसलिए मेरी बड़ी मुसीबत है। कम्युनिस्ट मुझे समझते हैं कि मैं दुश्मन हूं उनका और दूसरे मुझे समझते हैं कि मैं कम्युनिस्ट हूं।
मेरी दृष्टि में साम्यवाद लाने का एक ही उपाय हो सकता है, और वह है वैचारिक क्रांति। लोगों के मन को समझाने-बुझाएं, बदलें। किसी भी तरह के दबाव के मैं पक्ष में नहीं हूं। मैं तो गांधीजी के दबाव तक को हिंसा मानता हूं, तो स्टैलिन का दबाव तो हिंसा रहेगा ही। मैं तो इस बात को कि आपकी छाती के सामने छुरा रख कर आपको बदलने की कोशिश करूं, गलत मानता हूं। मेरा मानना है कि जब भी मैं फोर्स करता हूं किसी भी तरह से किसी आदमी को दबाता हूं तभी मैं उस आदमी की आत्मा का हनन करता हूं और उसको समानता कर हक नहीं देता। मेरा हक इतना है कि मैं अपनी बात आपको समझाऊं; पूरी कोशिश करूं समझाने की और आपको खुला छोडूं कि आपकी समझ में आए तो ठीक है, नहीं आए तो भी ठीक है। लंबा लगेगा वक्त, लेकिन कोई उपाय नहीं है। अगर हमने समझाने के अतिरिक्त कोई भी उपाय किया तो वर्ग मिटने असंभव हैं।
गांधीजी भी कोएर्सन में विश्वास करते हैं, दबाने में विश्वास करते हैं। दबाने को वह अहिंसक रास्ता अख्तियार करते हैं, दबाने का। गांधीजी में और लेनिन में बुनियादी फर्क नहीं है, एक बात पर--और वह यह कि दूसरे को दबा कर बदलना है। दबाने की प्रक्रिया में फर्क है, प्रोसेस में फर्क है। मैं आपके सामने छुरा लेकर डराऊं कि आप नहीं मानेंगे तो मार डालूंगा, यह भी दबाना है। और मैं अपनी छाती पर छुरा रख लूं कि आपने नहीं माना तो मैं मर जाऊंगा, यह भी दबाना है। उपवास उसी तरह का दबाने का एक उपाय है। यानी मेरा कहना यह है कि वाइलेंट नॉन-वाइलेंस हो सकती है।

प्रश्न: अभी क्रांति से आप जो समानता लाने की बात करते हैं तो ऐसा क्या हो सकता है कि विनोबाजी ने भी शांति से भूदान मूवमेंट चलाई। आपके इर्दगिर्द में जो लोग हैं, वे भी आपके विचार को कहां तक मानते हैं, यह हमको पता नहीं है, लेकिन आपका स्वागत करते हैं, आपका सम्मान करते हैं। फिर आप विचार-क्रांति से जो आर्थिक समानता लाना चाहते हैं, उसमें वे शामिल नहीं हो सकते। फिर आपकी बातें बातें ही रह जाएंगी और एक्शन कुछ भी नहीं होगा, ऐसा क्या आपको नहीं लगता है?

इस बात का डर हमेशा ही है कि बातें बातें रह जाएं। यह डर मान कर ही चलना पड़ेगा। लेकिन फिर भी मैं मानता हूं कि विचार आपके सामने रखना, आपको समझाना--आपके सामने पूरा मन मैं अपना खोलूं और आपको पूरा मौका दूं सोचने-समझने का। इसके अतिरिक्त यह कितना ही लंबा हो, और कितनी ही बार खो जाएं, इसके अतिरिक्त जब भी हम जल्दी का कोई उपाय करेंगे और आपको दबाने का मैं उपाय करूं आपको जबरदस्ती बदलने का उपाय करूं तब ज्यादा सेज्यादा इतना होगा कि पुराना वर्ग टूट जाएगा और नये वर्ग निर्मित हो जाएंगे। अब तक की जो क्रांति असफल होती रही है--क्रांति तो रोज-रोज हो जाती है, लेकिन असफल हो जाती है आखिर में--उसका कारण यह है कि हमारी विचार की प्रक्रिया पर बहुत धैर्यपूर्ण आस्था नहीं है।
डर तो है ही। डर तो इस बात का पूरा है कि मैं बात करूं और वह खो जाए। लेकिन हिम्मत से धैर्य रखना पड़ेगा कि बात खो जाए तो खो जाए, लेकिन कुछ लोगों को विचार के माध्यम से बदलने की प्रक्रिया की बात जारी रखनी पड़ेगी।  और मैं मानता हूं, चूंकि क्रांतियां असफल हो रही हैं--जैसे कि रूस में हुआ है। रूस में एक वर्ग तो मिट गया तेजी से लेकिन कोई एक करोड़ लोगों की हत्या करनी पड़ी। इससे कम हत्या नहीं हुई क्रांति के बाद। क्रांति में तो रूस में कोई बड़ी हत्या ही नहीं, लेकिन क्रांति के बाद अंदाजन अस्सी लाख से लेकर एक करोड़ लोगों की हत्या हुई। इतनी हत्या के बाद, इतनी जोर-जबरदस्ती के बाद जो व्यवस्था बनी उस व्यवस्था में पूंजीपति-मजदूर तो चला गया, लेकिन सत्ताधिकारी ब्यूरोक्रेट और सत्ताहीन आदमी खड़ा हो गया। और इस वर्ग के बीच फासले पुराने वर्ग के फासले से ज्यादा बढ़े हैं।
और एक खतरा जो अब दुनिया में आ रहा है, जो पहले कभी भी नहीं था--न माक्र्स को पता था, न लेनिन को खयाल था, न गांधी को अंदाज था--एक नया खतरा जो आया है वह यह आया है कि अब सत्ता के पास विज्ञान ने इतनी शक्ति दे दी है कि अगर कोई सत्ता चाहे तो उस देश में कभी कोई क्रांति न हो, इसका उपाय है। उस देश में विद्रोह का कभी कोई स्वर पैदा न हो सके, इसका अब उपाय है। अब जरूरत नहीं है कि हम किसी का फांसी दें। हम माइंड-वॉश कर सकते हैं। जो बड़ा सरल है। भगत सिंह को मारने की कोई जरूरत नहीं है, माइंड वॉश कर दो। भगत सिंह बिलकुल जैसे क ख ग बच्चा नहीं जानता, वैसा बच्चा हो जाएगा। और अ ब स से सीखना शुरू करेगा। एकदम निरीह हो जाएगा। हत्या करनी इतनी बुरी नहीं थी। हत्या करने में वह आदमी अपनी डिग्निटी और अपनी इज्जत और अपना गौरव पूरा बचा लेता है। तो मारते हों, तब भी कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन अब उसका माइंड वॉश कर सकते हो। आज साइकोडेलिक ड्रग विकसित हो गए हैं, जो आप ड्रग दे दो एक आदमी को तो उसके भीतर जितनी बगावत है वह सब खतम हो जाएगी। वह कभी विद्रोह की बात ही नहीं कर सकता। एक कुत्ता है, कितना ही भौंकता हो, साइकोडेलिक ड्रग देने पर आप उसको कोड़े मारो तो नहीं भौंकेगा, फिर पूंछ हिलाएगा।
तो आज केमिस्ट्री ने इतनी ताकत दे दी है सत्ताओं के हाथ में कि कोई विद्रोह की संभावना नहीं है। तो मेरा कहना यह है कि अब सत्ता हाथ में डिक्टेटोरियल फोर्स देना बहुत खतरनाक हो जाएगा। आज चीन में वे यह कर रहे हैं। माइंड वॉश कर रहे हैं, केमिकल ड्रग का उपयोग कर रहे हैं। रूस में भी उसकी संभावना हैं पूरी कि वह चल रहा है। और यह डर है कि अगर कोई हुकूमत अब तय कर ले तो अब कोई उपाय नहीं है आपके पास बगावत का। तो आदमी की सारी संभावना क्रांति की खतम हो जाए, इतनी बड़ी ताकत अब सत्ता के हाथ में नहीं होनी चाहिए। मजदूर के, गरीब के और अमीर के फासले को मिटाने के लिए हम एक दूसरा खतरा मोल ले लें, तो मैं इसको मानता हूं कि वह ज्यादा महंगा पड़ेगा लंबे अर्से में।
मनुष्य के व्यक्तित्व को बचाया जाना जरूरी है। उसके व्यक्तित्व को चोट नहीं पहुंचनी चाहिए। मेरी मान्यता यह है कि चाहे गरीबी थोड़े दिन ज्यादा चले तो हर्ज नहीं है, क्योंकि गरीबी सिर्फ आदमी के पेट को, शरीर को तकलीफ दे सकती है लेकिन आत्मा फिर भी सुरक्षित है। लेकिन अब हो गई है संभावना इस बात की कि आपका पेट पूरा भर दिया जाए, आपके कपड़े अच्छे दे दिए जाएं, लेकिन आपके व्यक्तित्व को पूरा मार डाला जाए। पैदा ही न हो सके। तो सौ या हजार साल बाद बच्चे हमारे सोचेंगे कि हमारे मां-बाप ने हमें बहुत उपद्रव में डाल दिया है। गरीबी इतना बड़ा खतरा नहीं है जितना बड़ा खतरा उसके विकल्प में हम ले रहे हैं।
तो मेरे सामने जो सवाल है वह यह है, यह मैं मानता हूं...आप जो कहते हैं, बिलकुल ही ठीक कहते हैं, इस बात का पूरा डर है कि मेरा विचार खो जाए। उसकी मेरी तैयारी है। लेकिन फिर भी मैं मानता हूं कि मनुष्य को वैचारिक रूप से समझाने, और जब तक कि बहुमत राजी न हो जाए किसी विचार के लिए पूर्णरूप से, तब तक हिंसा जरूरी है। बिना हिंसा के तो नहीं हो सकता, जब तक बहुमत राजी न हो जाए। और हिंसा एक दफा आपने की, वह कहां रुकेगी, यह बिलकुल नहीं कहा जा सकता। और जिसके हाथ में आपने हिंसा की ताकत दे दी, वह आदमी क्या करेगा, यह भी नहीं कहा जा सकता। बिलकुल असंभव है इसका कहा जाना।
तो इसलिए अब यह विकल्प मेरे सामने नहीं दिखाई पड़ता है। एक ही विकल्प है--रूस की और चीन की क्रांतियों से जो नतीजे मिले हैं वे ये हैं कि गरीबी तो मिट सकती है लेकिन आदमी खो जाएगा। अब सोचना यह है कि आदमी को बचाना है और गरीबी को मिटाना है। तो मुझे यह लगता है कि चाहे पच्चीस वर्ष की जगह पांच सौ वर्ष लग जाएं लेकिन मनुष्य के विचार को आहिस्ता-आहिस्ता समझाने की...और मुझे ऐसा नहीं लगता है कि अब कोई भी आदमी ऐसा है जो समानता के विचार के बुनियादी रूप से विरोध में हो।

प्रश्न: आप जो विचार-क्रांति की बात करते हैं और जो बड़ा आर्ग्युमेंट है, वह कहता है कि विचार-क्रांति वाले लोग और अहिंसा वाले लोग कुछ भी नहीं हैं, ये पूंजीपतियों के एजेंट हैं।

मैं भी यही कहता हूं। मैं भी यही कहता हूं कि पूंजीवाद का एजेंट हुआ जा सकता है बड़ी सरलता से, और पूंजीवाद सब तरह से एजेंट्स खोजेगा। मजा तो यह है कि वह आखिर में इस तरह के एजेंट खोजेगा तो समाजवाद की बातें करेंगे। जैसे मैं मानता हूं कि इंदिरा इस समय सबसे बड़ी एजेंट है पूंजीवाद की। अगर मोरारजी के हाथ में ताकत जाए तो कांग्रेस मर जाए। दस साल से भी ज्यादा नहीं जिंदा रह सकती। मोरारजी स्युसाइडल साबित होंगे। और मैं मानता हूं, मोरारजी को देनी चाहिए, ताकि कांग्रेस की हत्या हो जाए। इंदिरा दस साल की उम्र और बढ़ा देगी। नेहरूजी पूरी जिंदगी समाजवाद का नाम लेकर जो काम करते रहे, वह इंदिरा ने फिर शुरू कर दिया है। वह ट्रिक पुरानी है, वह उनके पिता की है। और अब ऐसा लग रहा है, जैसे समाजवाद आ जाएगा। कोई बैंक का राष्ट्रीयकरण होने से समाजवाद आ जाएगा, कि सब पूंजीवाद मिट जाएगा, ऐसा मालूम होता है। यह सब बिलकुल बेमानी बातें हैं, इससे कुछ मिलने वाला नहीं है। पूंजीवाद का एजेंट तो--समाजवाद की बात भी हो सकती है, और अहिंसा की बात भी हो सकती है, और सर्वोदय भी हो सकता है।
ये खतरे हैं।
लेकिन मेरा कहना यह है कि इन सारे खतरों को समझाया जाना चाहिए। वही मैं करना चाहता हूं। मैं यह कहता हूं, मैं भी खतरा हो सकता हूं। इसलिए मेरा आग्रह नहीं है कि मेरी बात को ही मानें। मेरा आग्रह कुल इतना है कि मैं कहता हूं, उसे सोचें, समझें। मुल्क में एक विचार की हवा पैदा हो। मुल्क के पास विचार करने की क्षमता आए। मुल्क सोचे, चर्चा करे। मुल्क सोच ही नहीं रहा है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

आएगा, लेकिन जब मुल्क विचार से राजी हो जाए, तब पीछे से आए। तब फिर वह वाइलेंट नहीं रह जाएगा और तब वह डेमोक्रेटिक होगा। तब वह लोकतांत्रिक होगा।

जिनके पास पैसा नहीं है वे ही लोग विचार करते हैं और जिनके पास पैसा है, वे सोचते ही नहीं हैं। तो फिर बिना पैसा वाले विचार करके क्या करेंगे?

यह भी गलत खयाल है। आप जान कर हैरान होंगे कि जिसके पास पैसा नहीं है, वह तो बेचारा विचार की नहीं कर सकता। यह तो बात ही गलत है। दुनिया में समाजवाद की भी जो बात है वह भी पूंजीवाद के ही परिवार से निकली हुई बात है। दुनिया में जिनके पास सुविधा है वे ही विचार कर सकते हैं। अगर शूद्रों को उठाने की बात है, वह भी ब्राह्मणों की ही बात है अंततः। शूद्र की बात नहीं है वह। शूद्र को तो इतना हीन कर दिया गया है, उसमें यह खयाल भी उठने का उपाय नहीं है कि मैं समान हो जाऊं। मजदूर नहीं है माक्र्स, और न एंजिल्स मजदूर है, न लेनिन मजदूर है। पूंजीवाद ने कुछ लोगों को सुविधा दी है सोचने की और उस सोचने में उनको कंट्राडिक्शन दिखाई पड़ने शुरू हुए हैं।
आप यह जान कर हैरान होंगे कि हिंदुस्तान में आजादी का खयाल भी अंग्रेजों से आया हुआ खयाल है। हिंदुस्तान का खयाल नहीं है। आजादी की जो मौलिक धारणा है वह हिंदुस्तान में अंग्रेजों से आनी शुरू हुई है। और पहला, जिन लोगों ने इस मुल्क में आजादी की बात चलानी शुरू की, वह अंग्रेज है। और जिन लोगों ने हिंदुस्तान में आजादी की बात की वे सब यूरोप से शिक्षित होकर लौटे हैं। यह जान कर हैरानी होगी कि हमेशा क्रांति उसी गढ़ से आती है जो क्रांति को रोकता है। क्रांति भी उसी घर से आती है। पूंजीवाद ही अपनी पूरी अंर्तव्यथा और अपने पूरे इनर कंट्राडिक्शंस को देख कर सजग होता है। उसके भीतर से ही कुछ लोग पैदा होते हैं जो कहना शुरू करते हैं, यह व्यवस्था गलत है। यह व्यवस्था गलत है। यह वहीं से आना शुरू होता है, यह नीचे से आना शुरू नहीं होता।
हिंदुस्तान में अगर विचार की एक हवा पैदा हो तो मैं मानता हूं, हिंदुस्तान का जिसको हम...मेरी दृष्टि यह नहीं है कि पूंजीपति कोई बुरा आदमी होता है। यह मैं नहीं कहता हूं कि पूंजीपति कुछ बुरा आदमी है। या मजदूर कोई बहुत अच्छा आदमी है। कि शोषित हो जाना कोई गुण है। और शोषक हो जाना कोई दुर्गुण है, यह मैं नहीं कहता हूं। मेरा कुल मानना इतना है कि समाज की एक व्यवस्था है, उस व्यवस्था में एक आदमी धन को इकट्ठा कर लिया है। निश्चित ही वह ज्यादा कुशल है, ज्यादा होशियार है। वह समाज की सारी की सारी बेईमानी और सारी व्यवस्था का पूरा उपयोग कर रहा है। जो शोषित है उसमें, वह कोई बहुत गुणवान है, ऐसी बात नहीं है। उसको भी अगर इतनी ही बुद्धि और इतनी शोषण की कला सब समझ में आ जाए तो वह भी कल इसकी जगह बैठ जाएगा। इसमें कोई आदमी आदमी में फर्क नहीं है। लेकिन फिर भी मैं मानता हूं कि पूंजीपति के घर से ही, पूंजीवाद के गढ़ से ही वह विचार पैदा होना शुरू होता है जो पूंजी की असंगति देखना शुरू करता है।
और इसलिए घबड़ाने की जरूरत नहीं है, विचार को फैलाने की जरूरत है। और उसे जाने दें सबके भीतर। यानी यह भी मेरा मानना नहीं है कि पूंजीवाद का मिट जाना मजदूर के हित में है, यह भी मेरा मानना है कि पूंजीवाद के ही हित में हैं। पूंजीवाद एक अंतर-कलह से परेशान होता है। लेकिन इतनी मेरी समझ है कि मैं जब तक विचार न फैल जाए और जब तक उनके प्राण मांग न करने लगें लोकतांत्रिक जीवन के बदल जाने के लिए, तब तक किसी बदलाहट के मैं पक्ष में नहीं हूं। यानी बदलाहट ऊपर से थोपी हुई नहीं होनी चाहिए। वह लोकमानस से आनी चाहिए।

प्रश्न: क्या संगठन आवश्यक है?

संगठन आवश्यक होगा? मैं संगठन आवश्यक नहीं मानता। मेरे लिए...क्योंकि मेरा मानना है कि अगर मैं संगठन आवश्यक मानूं तो मैं विचार की जो क्रांति लाना चाहता हूं, नहीं ला सकता। विचार की क्रांति लाने वाले लोगों को संगठन से बचना चाहिए। क्योंकि संगठन के अपने स्वार्थ होने शुरू हो जाते हैं। और संगठन के जैसे ही स्वार्थ होने शुरू हुए, वह एक विचार के पक्ष में इस दृष्टि से होता है कि हमारे हित में है या नहीं। तो मैं किसी संगठन को अपनी तरफ से खड़ा करने के पक्ष में नहीं हूं। लेकिन मेरी बात किसी को ठीक लगे और वह संगठन करना चाहे तो मैं विरोध में नहीं हूं।

प्रश्न: बिना संगठन के आपके विचार में बल कैसे हो सकता है?

अब तक दुनिया में विचार में बल होना चाहिए, तो एक व्यक्ति ही सारी पृथ्वी तक विचार पहुंचाने में समर्थ हो जाता है--विचार पहुंचाने में, विचार से बदलाहट लाने में नहीं। जीसस नाम का आदमी ढाई हजार, दो हजार साल पहले अकेला आदमी है और उसके पास जो आदमी इकट्ठे हुए, आठ-दस आदमी हैं; इससे ज्यादा आदमी नहीं हैं। और जो आदमी इकट्ठे हुए हैं, कोई मछुआ है, कोई गांव का किसान है। और इस आदमी को सूली पर लटका दिया। और जेरुसलम के आसपास से ज्यादा उसकी खबर नहीं है। लेकिन बात में कोई बल था। वह धीरे-धीरे गई।
बुद्ध या महावीर बिहार में पैदा हुए, बिहार के बाहर कभी नहीं गए, कोई कम्युनिकेशन का साधन नहीं था। लेकिन बात में कोई बल था, वह चली गई। माक्र्स के पास कोई साधन नहीं था। लेकिन बात में कोई बल था, वह गई। मेरा मानना है, विचार अपने बल से जाता है--आंतरिक बल से, संगठन के बल से नहीं। बल्कि विचार अगर कमजोर हो तो संगठन के बल से पहुंचाया जा सकता है। मेरा मानना ही यह है कि मनुष्य की चेतना का विकास ही लांग प्रोसेस हो, और जल्दबाजी न करें।

प्रश्न: विचार कम्फर्ट और फैसिलिटी नहीं देता है। विचार तो बहुत हैं लेकिन किसी विचार ने भी कम्फर्ट, संतोष नहीं दिया है। इसीलिए कम्युनिस्ट और आर्थिक सब बातें हो रही हैं। विचार तो बहुत हैं, लेकिन विचार में किसी को फल नहीं मिलता है उसका।

आप हैरान होंगे कि अगर बुद्ध और क्राइस्ट न पैदा हुए हों तो माक्र्स कभी पैदा नहीं हो सकता था। यह हमारी जो धारणाएं हैं न, यह तो बड़ा इंटरलिंक है मामला। हम समझते हैं कि माक्र्स कम्युनिज्म दे रहा है। माक्र्स क्या कम्युनिज्म...अगर बुद्ध न हों इतिहास में, क्राइस्ट न हों इतिहास में तो माक्र्स के पैदा होने की संभावना नहीं। और अगर माक्र्स न हो पैदा तो लेनिन के पैदा होने की, माओ के पैदा होने की कोई संभावना नहीं है। इतिहास एक लंबी शृंखला है जिसमें वे भी जुड़े हुए हैं जो हमारे विरोधी भी हों। यानी मेरा मानना है कि जीसस को जिन लोगों ने सूली दी उन्होंने भी उतना ही काम किया है--ज्यादा शायद--जितना जीसस के मानने वालों ने काम किया है, इतिहास एक लंबा छोर है। मैं जल्दी में विश्वास नहीं करता, क्योंकि मैं मानता हूं कि जल्दी वाला आदमी हमेशा हिंसा में विश्वास करने लगेगा। क्योंकि हिंसा जितनी जल्दी काम कर सकती है, उसका कोई हिसाब लगाना मुश्किल है।

प्रश्न: आपने बताया कि दिल्ली में जो संघर्ष चल रहा है, राज्य संघर्ष कांग्रेस में--इंदिराजी को भी आपने पूंजीवाद का एजेंट बताया और मोरारजी को भी बताया। तो क्या आपका कहने का इरादा यह है कि वह पोलिटिकल संघर्ष चल रहा है?

बिलकुल पोलिटिकल है। और क्रांग्रेस को बचाने की जो भीतरी चेष्टा चल रही है--क्योंकि कांग्रेस अब बच नहीं सकती है बिना समाजवाद का वस्त्र ओढ़े। इंदिरा कांग्रेस को बचा सकेंगी। मोरारजी के साथ कांग्रेस डूब जाएगी, खतम हो जाएगी। और इसलिए इंदिरा मजबूत होती चली जा रही है क्योंकि कांग्रेस का बचाव शरीर से भी यही लग रहा है कि वह उनके साथ हो सकता है। लेकिन मुल्क धोखे में आ सकता है, और मुल्क के समाजवादी भी धोखे में आ सकते हैं। और वह धोखा फिर दस साल के लिए मुल्क को नुकसान में डालेगा। नेहरू के साथ वही हुआ। मुल्क के समाजवादी चिंतन को ऐसा लगा कि ठीक है, नेहरू काम करेंगे। वह काम नहीं हो सका।
उसका कारण यह है--उसका कारण मैं यह नहीं मानता कि नेहरू की भूल है या इंदिरा की भूल है। उसका सबसे बड़ा कारण यह है कि मुल्क का मानस ही समाजवाद के लिए तैयार नहीं है। मानस ही तैयार नहीं है। तो फिर दूसरी छोटी बातें हो सकती हैं। तो मैं जो कहना चाहता हूं वह यह है कि मुल्क का मानस तैयार हो। अभी सत्ता बदलने का उतना सवाल नहीं है, न वह रोज बदलने का उसमें सवाल है। जिस दिन मानस तैयार होगा मुल्क का उस दिन कोई भी काम कर देगा ऊपर। लेकिन मुल्क का मानस ही अगर तैयार न हो तो सिर्फ हम बातचीत कर सकते हैं, और बातचीत चलती रहेगी।
कोई बैंक के राष्ट्रीयकरण से समाजवाद नहीं आ जाता, न रेलवे के राष्ट्रीयकरण से समाजवाद आ जाता है। समाजवाद की दृष्टि ही नहीं है। उसकी स्वीकृति नहीं है बहुत गहरे में कि वह कैसे आए? मनुष्य की समानता का भाव ही स्वीकार नहीं है। हिंदुस्तान में और कठिनाई है। हिंदुस्तान की कठिनाइयां बहुत गहरी हैं। हिंदुस्तान में मनुष्य की असमानता का भाव बहुत पुराना है, परंपरागत है। हमने कभी अपने इतिहास में यह स्वीकार नहीं किया कि दो मनुष्य समान हैं, कभी स्वीकार नहीं किया। तो हिंदुस्तान के मानस में समाजवाद बिलकुल एक तरह से फॉरेन है, एकदम विदेशी भाव है हिंदुस्तान के मन में। प्रजातंत्र भी एकदम विदेशी चीज है हिंदुस्तान के लिए और समाजवाद भी बिलकुल विदेशी चीज है। न तो हम कभी प्रजातांत्रिक रहे हैं, और न कभी समाजवादी की हमारी धारणा कभी रही है।
तो इस मुल्क के मानस को तैयार करने की जरूरत है, तो इस मुल्क के मानस के गहरे में समाजवाद जाए कहीं। वह जाएगा तो ऊपर से बदलाहट बहुत आसान होगी। नहीं तो ऊपर बातचीत चलेगी। और बातचीत धोखे की होगी। और जिन लोगों को थोड़ा सोच-विचार उठता है, वह फौरन उस बातचीत के धोखे में आ जाते हैं। दस-पंद्रह साल के लिए फिर बातचीत लंबी होती है।
कांग्रेस मरने के करीब है क्योंकि उसकी योजना खो गई है। उसका काम भी खो गया है। वह जिस उद्देश्य के केंद्र पर बनी थी वह भी खो गया, वह सब खतम हो गया। उसके पास दूसरा कोई उद्देश्य नहीं है। आजादी की बात थी, वह पूरी हो गई। अब उसके पास कुछ भी नहीं है। अब वह सिर्फ एक घोस्ट एग्झिसटेंस है, प्रेत-अस्तित्व है। उसका कोई अर्थ नहीं रह गया है कहीं। तो अब उसको नये-नये अर्थ देकर जिलाने की बात है। उसको फिर आक्सीजन देने की जरूरत पड़ती है।

क्या कोई पार्टी आपकी नजर में है, जो काम कर सकती है?

पार्टी में मेरा मानना बहुत नहीं है। नहीं, कोई पार्टी मुल्क के पास नहीं है। कांग्रेस एक पार्टी है जो बिलकुल बेमानी हो गई है। और कोई पार्टी मुल्क के पास नहीं है। क्योंकि मुल्क के पास वह चित्त नहीं है जो सोचे, आइडियालॉजी को सोचे, मुल्क को बदलने की योजना सोचे, वह चित्त ही नहीं है। बाकी जितनी पार्टियां है, उनके पास कोई योजना नहीं है--जिसको योजना हम कहें। बस, कामचलाऊ, इमिजिएट प्रॉब्लम है उनके सामने। आज कैसे ताकत में कोई पहुंच जाए, यह बड़ा सवाल है। पचास साल बाद मुल्क की क्या स्थिति बनेगी, यह किसी के सामने सवाल नहीं है।
मैं दिल्ली में एक बड़े नेता से बात कर रहा था। एक किताब किसी युवक ने लिखी है--"नाइनटीन सेवंटी फाइव'। किताब का नाम है "उन्नीस सौ पचहत्तर'। और उसमें उसने घोषणा की है बहुत बड़े वैज्ञानिक दलीलों पर कि उन्नीस सौ पचहत्तर में भारत में इतना बड़ा अकाल पड़ेगा कि दस करोड़ लोग मर सकते हैं। तो मैंने किसी को कहा, तो उन्होंने कहा, उन्नीस सौ पचहत्तर बहुत दूर है। हिंदुस्तान के किसी नेता के मन में उन्नीस सौ पचहत्तर बहुत दूर है। सभी के मन में, उन्नीस सौ पचहत्तर से कोई मतलब नहीं है, उन्नीस सौ बहत्तर ही काफी है। एलेक्शन पर्याप्त है।
तो हिंदुस्तान में न पोलिटिकल कांशसनेस है, न कोई पोलिटिकल पार्टी है। कांग्रेस कोई पोलिटिकल पार्टी नहीं है। एक स्ट्रगल से पैदा हो गया एक जमघट था। जो एक स्ट्रगल थी वह पूरी हो गई, वह खतम हो गई। एक मोर्चा था कांग्रेस, एक पार्टी नहीं थी। और कांग्रेस पार्टी बन गई। मोर्चा पार्टी बन जाए, उसमें हजार तरह के लोग थे, वे छाती पर सवार हो गए। अब वे हजार तरह की बातें करते हैं। वे मुल्क को कंफ्यूज करते हैं, वे मुल्क को कुछ होने भी नहीं देते। अगर कांग्रेस स्पष्ट रूप से कुछ एक योजना हो तो दूसरी पार्टी भी खड़ी हो जाए। कोई योजना नहीं है। समाजवाद भी उसमें समाविष्ट हो जाता है और उसमें सब समाविष्ट हो जाता है।
उसका परिणाम यह है कि मुल्क में पार्टी भी पैदा हो रही है। होगी भी नहीं, क्योंकि पार्टी तभी पैदा होती है जब मुल्क विचार करना शुरू करता है। और पच्चीस विचार मुल्क के चित्त में घूमना शुरू होते हैं। और पच्चीस विचार लोगों को पकड़ना शुरू करते हैं तब पार्टियां बनती हैं। मुल्क के पास विचार नहीं है। जिसको राजनीतिक चेतना कहें, वह नहीं है।
तो मेरी नजर में, जो बड़ा काम है, सब समझदार लोगों को--चाहे वह पत्रकार हों, राजनीतिज्ञ हो, विद्यार्थी हों, शिक्षक हों, कोई भी हों--वह यही है कि मुल्क एक जोर से चिंतन की प्रक्रिया में कैसे लग जाए! तो पच्चीस पार्टी पैदा हो जाएंगी। एक पोलिटिकल कांशसनेस पैदा होगी। आज जो समाजवादी है, उसको भी इतना मतलब है कि उसकी तनख्वाह थोड़ी बढ़ जाए। उसको समाजवाद से कोई मतलब नहीं है। आज आदमी कम्युनिस्ट है, उसको कम्युनिस्ट यूनियन में इसलिए खड़ा किया हुआ है कि उसके थोड़े वेजेज बढ़ जाएं, उसका कुछ बढ़ जाए, लेकिन कोई कम्युनिज्म की पूरी धारणा उसके सामने नहीं है।

प्रश्न: आप आज प्रगति में क्या-क्या दे रहे हैं और विचार-क्रांति में। लेकिन प्रगति भी होनी चाहिए, वरन ऐसा विचार, और विचार की बातों से ज्यादा पार्टियां होती हैं जिससे कि डेवलपमेंट कुछ नहीं होती।

नहीं-नहीं, यह आप गलत खयाल में हैं। जितनी ज्यादा पार्टी होंगी, जितना ज्यादा डिस्कशन होगा, उतनी पोलेरिटी पैदा होगी, नहीं तो पोलेरिटी पैदा नहीं होगी। डिस्कशन से पैदा होगी। अगर हम पच्चीस लोग विचार करते हैं--विचार करना एक अलग बात है, लड़ना बिलकुल अलग बात है। अगर हम विचार करते हैं तो विचार की अपनी ताकत होती है। विचार धीरे-धीरे निष्कर्षों पर पहुंचता है। विचार रुक नहीं सकता। जैसा कि अगर दस वैज्ञानिक लड़ते हों गणित के किसी सवाल पर, दस घंटे बाद उस कमरे में एक नतीजा हो जाएगा। कठिनाई नहीं है बहुत। जिंदगी के दूसरे मसलों के संबंध में गणित के सवाल के समान नहीं हो सकता है, क्योंकि गणित बहुत सरल चीज है। जिंदगी के मसले उलझी हुई चीज है। लेकिन फिर भी मैं मानता हूं कि अगर मुल्क में विचार चले, विवाद चले तो तीन या चार पार्टी मुल्क में पैदा हो जाएंगी। और बहुत गहरे में तो दो ही पार्टी पैदा होंगी, क्योंकि अंततः पार्टी वर्ग से निर्मित होती है। अंततः वर्ग से निर्मित होती है।

ममत्व रोकता है विचार की प्रगति को?

हां, विचार को रोकता है ममत्व। और इसीलिए मैं कहता हूं, मेरा अभी कोई आग्रह संगठन, किसी पार्टी पर नहीं है, क्योंकि वह जैसे हुआ कि यहां पर विचार की बात आई। कुछ अमल तो नहीं हो सकता है, बातें बातें ही रहती हैं और आदमी जिंदा मर जाता है; जेनरेशन जेनरेशन चली जाती है।

यह भी खयाल गलत है कि अमल नहीं होता है। होता क्या है, जो अमल हो जाता है वह हमारे खयाल में मिट जाता है। जो अमल में नहीं आता है वही खयाल में रहता। बुद्ध और क्राइस्ट की बातों का कितना परिणाम हुआ है मनुष्य पर, इसको सोचना ही मुश्किल है। आप जान कर हैरान होंगे, कि इधर इन बीस वर्षों में युद्ध के विरोध में जो चेतना जगी है सारी दुनिया में, यह कभी थी ही नहीं। कृष्ण जैसा अच्छा आदमी युद्ध के पक्ष में था। हां, विज्ञान तो कुछ भी नहीं बताता। विज्ञान तो केवल साधन दे देता है। जो चाहो, करो।
मनुष्य की चेतना निरंतर विचार करने से इस जगह पहुंची है कि युद्ध बेमानी हो गया है। विचार इस जगह ले आया। नेशन बेमानी हो गया, राष्ट्र बेमानी हो गए। जो लोग जितना सोच रहे हैं, वहां राष्ट्र उतना व्यर्थ हुआ जा रहा है। नहीं सोचेंगे तो राष्ट्र बड़ा सार्थक लगेगा। और हम जो कम सोचने वाले हैं, हमें तो यह भी सार्थक लगता है कि एक जिला महाराष्ट्र में रहे कि मैसूर में रहे, कि नर्मदा का जल गुजरात का है कि मध्य प्रदेश का। हम कम विचार करने की वजह से इन बेवकूफियों में बंधते हैं।
विचार जितना विकसित होगा उतनी मुल्क की इंटेलिजेंस, चेतना विकसित होगी। उतने हम नतीजों पर करीब आ सकेंगे, निकट आ सकेंगे। और इतना तय है कि अगर तेजी से विचार चले तो पोलेरिटी हो ही जाएगी, क्योंकि आखिर दो ही विचार हैं बहुत गहरे में। तो विचार है जो पुरानी व्यवस्था को बनाए रखना चाहेगा। उसका हित उसमें रहेगा। लेकिन वह विचार रोज कमजोर पड़ता चला जाएगा, क्योंकि पुरानी व्यवस्था को बनाए रखना चाहेगा। उसका हित उसमें रहेगा। लेकिन वह विचार रोज कमजोर पड़ता चला जाएगा, क्योंकि पुरानी व्यवस्था सड़ गई है। उसे बचाया जा नहीं सकता, सिर्फ लंबाया जा सकता है। यह हो सकता है, दस की जगह बीस साल, पच्चीस साल, चालीस साल उसको बचा लिया जाए, बचाया नहीं जा सकता। इसलिए भीतर से उसका गढ़ कमजोर होता चला जाएगा, उसके भीतर से बगावती पैदा होते चले जाएंगे। दूसरा विचार होगा जो नई व्यवस्था लाना चाहता है। अंततः तो दो पोलेरिटी पैदा हो जाएंगी। और किसी भी मुल्क में अगर विचार चले तो दो पार्टी खड़ी हो जाएंगी।

प्रश्न: (प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

मैं जो कह रहा हूं, मैं जो कह रहा हूं--साइंस ने वह अपरच्युनिटी पैदा कर दी है, जो नहीं पैदा हुई थी। जो मैं कहा हूं, इसमें उसमें कोई फर्क नहीं है। मैं सिर्फ कह इतना रहा हूं कि बुद्ध और क्राइस्ट ने जो विचार दिया है शांति का, वह कभी हमें इतना सार्थक नहीं लगा था क्योंकि अशांति कभी इतनी खतरनाक नहीं थी। अशांति पहली दफा इतनी खतरनाक हो गई कि स्युसाइडल हो गई है। और अशांति को खतरनाक विज्ञान ने कर दिया है। इसलिए पहली दफा बुद्ध की और क्राइस्ट की बात सार्थक मालूम पड़ती है कि शांति से जीना पड़ेगा। बुद्ध की और क्राइस्ट की बात समय की प्रतीक्षा कर रही थी। जैसे हम एक बीज को डाल दें और प्रतीक्षा करे वर्षा आने की, तो वर्षा बीज में अंकुर नहीं लाएगी, अंकुर बीज से ही आएगा, लेकिन वर्षा सिर्फ प्रतीक्षा और अवसर बना देगी। विज्ञान ने एक अवसर बना दिया है कि अब अगर हम हिंसा को मानें तो हम दुनिया को खतम कर सकते हैं। हिंसा इतनी खतरनाक कभी भी नहीं थी इसलिए हमने अहिंसा की बात कभी सुनी नहीं थी। आज पहली दफा हिंसा इतनी खतरनाक है कि हमें अहिंसा की बात सुननी पड़ेगी। यानी मेरा मानना है कि बुद्ध और महावीर ने या क्राइस्ट ने जो बात कही, वह आज सार्थक होने के करीब पहुंच रही है। वर्षा आई है और उस बीज पर अब पानी पड़ी है।

प्रश्न: हिंसा बहुत है, इसलिए हम अहिंसा को मानते हैं। हम सहन करना पड़ा है, इसलिए हम सोचते हैं कि शांति सी जीया जाए।

असल में कभी भी अवसर उपस्थित हो--जैसे समझ लें, एक आदमी ने एक दवाई बनाई जो टी.बी. पर काम पड़ेगी। लेकिन आप तभी तो नहीं खा लेंगे। आप जब बीमार पड़ेंगे, तभी न! आप कहेंगे, दवा बनाने वाले का क्या मतलब है? वह तो हम टी.बी. से बीमार पड़ते हैं, इसलिए दवा खाते हैं। आप ठीक कह रहे हैं। आप दवा तब खाते हैं जब टी.बी. से बीमार पड़ते हैं। यह बिलकुल ठीक है। बिना टी.बी. के बीमार पड़े दवा खानी भी नहीं चाहिए। लेकिन जिसने बनाई है, इससे उसका महत्व कम नहीं हो जाता। अहिंसा का जो विचार है वह मनुष्य के लिए अदभुत जीवन दे सकता है। यह खयाल जिन लोगों ने दिया है, वह खयाल पड़ा हुआ है मनुष्य की चेतना में लेकिन अशांति जब इतनी खतरनाक हो जाएगी कि हमें पहली दफा अशांति से छूटने का सवाल उठेगा। बीमारी बन जाएगी तभी हम उस दवा का उपयोग करेंगे। दुनिया का सारा विकास जो है वह बहुत अंतर्गुंफित, इंटरडिपेंडेंट है। उसमें हजारों लोग दान कर रहे हैं। उसमें विज्ञान ने अभी एक स्थिति पैदा कर दी है, जो स्थिति हमको पहली दफा कहती है कि जब शांति सोचनी पड़ेगी। शांति पहली दफा विचारणीय है। इसके पहले इतनी विचारणीय नहीं थी। आप छुरा मार सकते थे, दस पचास आदमी मार सकते थे। उससे कोई मनुष्यता नहीं मरती। अब मनुष्यता मर सकती है।

प्रश्न: आदमी ने सोचना तो छोड़ दिया है अभी। आदमी सोच भी नहीं सकता है, ऐसा आपने कहा। सोचता भी नहीं है। क्या आप सोचते हैं कि आपकी विचारधारा सफल होगी, जब कि क्राइस्ट और जीसस की बातें आदमी समझने में असफल रहा है?

यह सवाल नहीं है। एक आदमी और दूसरे आदमी के सफल और असफल होने का सवाल ही नहीं है। यह बहुत बड़ा सवाल ही नहीं है। मैं सफल होता हूं, आप सफल होते हैं, वह सफल होता है, यह सवाल नहीं है। यह भी हमारे सोचने का ढंग एकदम ही गलत है कि फला आदमी सफल हुआ कि नहीं हुआ। बड़ा सवाल यह है कि मनुष्यता के हित में कोई चीज सफल होती है या अहित में कोई चीज सफल होती है। बड़ा सवाल यह है। आदमियों का सवाल नहीं है। हित में जो लड़ने वाले लोग हैं वे सफल होते हैं कि अहित में ले जाने वाले लोग सफल होते हैं, यह सवाल है।
अब जैसे, मेरा कहना यह है कि जो लोग भी मनुष्य को विचार करने से रोकते हैं, वे सफल होते रहे हैं। विचार करने से रोकने वाले लोग सफल होते रहे हैं। विचार की प्रक्रिया में ले जाने वाले लोग असफल होते रहे हैं। इससे हमने बहुत नुकसान झेला, बहुत तकलीफ झेली, बहुत कष्ट झेला। आज भी वही सवाल है। मैं विचार की प्रक्रिया को फैलाना चाहता हूं।

प्रश्न: आप इंदिरा गांधी की बात कर रहे थे। सवाल यह है कि आज देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं जिनके पास खाने को भी नहीं है तो वे लोग आपके विचार कैसे अपनाएंगे? जिनके पास रोजी-रोटी का प्रश्न जहां तक है, वे क्या करेंगे?

वे नहीं अपनाएंगे। उनके अपनाने का बड़ा सवाल भी नहीं है। उनके अपनाने का बड़ा सवाल भी मैं नहीं मानता हूं। वे अगर हम ठीक से समझें तो समाज के उस तल पर जीते हैं, जहां कि समाज प्रभावित नहीं होता। यानी मेरा मानना ही यह है कि समाज में जो भी चलता है वह समाज का बुद्धशाली वर्ग, सपंत्तिशाली वर्ग, संपन्न वर्ग, सुविधापूर्ण...क्रांति भी उसी से चलती है और क्रांति की रुकावट भी उसी से चलती है। अगर क्रांति रुकेगी तो वह जो भूखा आदमी है, भूखा रह जाएगा। अगर क्रांति सफल होगी तो भूखे आदमी का पेट भर जाएगा। लेकिन भूखा आदमी कुछ नहीं कर सकता।
भूखा आदमी हमेशा समाज के किनारे की परिधि पर जीता है। वह समाज का केंद्र नहीं है। उसके हित में समाज सोच सकता है, अहित में सोच सकता है। लेकिन वह खुद सोचने की हालत में नहीं है। यह मामला ऐसा ही है जैसे कि एक आदमी बीमार पड़ा हुआ है और बीमार मर रहा है। हम जो करेंगे उससे वह बच भी सकता है, मर भी सकता है। उसके खुद के सोचने का बड़ा सवाल यह नहीं है। मैं नहीं मानता कि गरीबों से कोई क्रांति होती है दुनिया में। गरीबों के लिए क्रांति होती है, गरीबों के विरोध में क्रांति होती है। उसको मैं मानता नहीं कि उससे कुछ हो सकता है। वह जो खाने की हालत ही नहीं जुटा पा रहा है, गरीबों के विरोध में क्रांति होती है। उसको मैं मानता हूं नहीं कि उससे कुछ हो सकता है। वह जो खाने की हालत ही नहीं जुटा पा रहा है, वह कुछ और करेगा, वह सवाल नहीं है।

प्रश्न: इंदिरा गांधी का कार्यक्रम क्या है, सिवाय भाषण के अलावा! क्या इससे विचार-क्रांति हो सकती है?

यही तो हमारी जो जल्दी है, वह हमारी जल्दी ऐसी है कि हममें से कोई विचार को मानता ही नहीं है असल में। एक्शन को ही मानने वाले लोग हैं। विचार को हम मानते ही नहीं। हम यह जानते नहीं कि सारा एक्शन विचार से आता है। कोई एक्शन विचार के बिना पैदा नहीं होता है। मेरा कहना यह है कि विचार की नहीं है मुल्क में, विचार ही आ जाए तो काफी काम हो गया, एक्शन पीछे फालो करेगा। मेरी आप बात ही नहीं समझ रहे हैं। मैं यह कह रहा हूं , अगर एक्शन ही पैदा करना हो--एक्शन भी विचार से पैदा होते हैं।
हम यहां बैठे हुए हैं और मैं आपसे चिल्ला कर कहूं कि कमरे में आग लगी हुई है और आप कहें कि आप सिर्फ चिल्ला कर बोले चले जा रहे हैं कि कमरे में आग लगी है। आप कुछ करके बताइए। आपको किसी को आग नहीं दिखाई पड़ रही है और मुझे लगता है, इस वक्त कुछ और करने का सवाल नहीं है। अभी तो बड़ा सवाल यह है कि आपको दिखाई पड़ जाए कि आग लगी है, यह दिखाई पड़ जाए तो एक्शन पैदा होने वाला है। आप कमरे के बाहर निकलना शुरू करेंगे। मुझे कुछ करने का सवाल नहीं है। बड़ा सवाल यह है कि आग दिखाई पड़ जाए। मेरे लिए एक्शन कोई मूल्य की नहीं रखता बहुत।
मैं मानता हूं कि एक्शन जो है वह बिलकुल ही शैडो है थॉट की। विचार आता है, उसकी छाया की तरह एक्शन आता है। इस मुल्क में हजारों साल से सारी दुनिया में हमको एक्शन बड़ा कीमती बताया जाता था। समझा जाता है कि एक्शन ही बड़ी चीज है। मैं मानता नहीं हूं। मैं मानता हूं कि एक्शन तो होता है, विचार आ जाना चाहिए। विचार नहीं है। इसलिए मेरी सारी चेष्टा जोर से चिल्ला कर आपसे बात करने की है कि विचार वह कैसे पैदा हो। वह हो जाए, एक्शन आपमें पैदा होगा। वह मैं नहीं करना चाहता, उससे मुझे कोई संबंध नहीं है। यानी मैं उसे इररिलेवेंट मानता हूं, वह हो ही जाएगा। उससे कोई मतलब नहीं है।
आप जब कहते हैं न, पुट इन एक्शन, तो आप यह समझते हैं कि थॉट को एक्शन में रखना भी पड़ता है। नहीं, मैं यह कहता हूं, थॉट कम्स इन एक्शन। थॉट होना चाहिए। एक्शन को मैं मानता ही नहीं कुछ, क्योंकि आप जब आएंगे इस कमरे में तो मैं यह नहीं कहता कि आप अपनी छाया भी ले आना। मैं यह कहता ही नहीं। मैं कहता हूं, आप आ जाना। और आप कहेंगे कि मैं अपनी छाया को लाऊं या नहीं? तो मैं कहूंगा कि उसकी बात ही करनी फिजूल है। मेरा मानना यह है कि एक दफा विचार का बीज आपके मन में बैठ जाए कि इट इज़ बाउंड टू कम इन एक्शन। आपको लाना पड़े तो फिर विचार बैठा नहीं। फिर आप दूसरे का विचार पकड़ कर लाने की कोशिश कर रहे हैं। दुनिया में हमेशा यह होता है कि अगर मेरा विचार है तो मैं आपसे कहूंगा कि इसको कोशिश करिए, प्रयत्न करिए कर्म में लाने की, आचरण में उतारिए। दूसरे के विचार को आचरण में उतारने की कोशिश करनी पड़ती है। आपमें विचार पैदा हो जाए तो वह आचरण में आता है। उसे करना नहीं पड़ता।

आपके विचार से यह हुआ कि जब आग लगेगी तो उसमें कोई पानी लाएगा। बुझाने के लिए और कोई ऐसा आदमी होगा तो प्रेट्रोल लाएगा। क्योंकि एक्शन जब आप का नियत नहीं होगा तो प्रेट्रोल ही लाएगा।

यह बिलकुल ठीक है, यह संभावना है। और मैं चाहता हूं, यह संभावना पैदा हो। इसका मतलब यह है सिर्फ कि यहां इस कमरे में हम बैठे हुए हैं, और आग लगे और जल रहे हैं तो आप प्रेट्रोल लाने वाले नहीं हैं। अगर कोई और जल रहा है, और ऐसा कोई जल रहा है कि जिसके जलने से आप बच सकें तो आप प्रेट्रोल लाएंगे--तो ही लाएंगे; नहीं तो आप नहीं लाने वाले हैं प्रेट्रोल। तो अगर समाज को यह पूरा बोध हो जाए कि किस आग से हम जल रहे हैं तो दस-पच्चीस लोगों की चलेगी कि चालीस करोड़ लोगों की चलेगी? यह विचार करने की हमें कोशिश करनी चाहिए कि चालीस करोड़ लोग कहीं दस-पच्चीस लोगों के पीछे खड़े होकर कहीं प्रेट्रोल लाने का काम न करें, जिसमें वे खुद ही जलेंगे। वे अभी कर रहे हैं।
जिन लोगों के हाथ में भी पुरानी सत्ता है, जिनके हाथ में भी धन है, जिनके हाथ में भी हुकूमत है, जो पुरानी व्यवस्था के साथ ही बच सकते हैं। पुरानी व्यवस्था गई कि वे भी गए, वे बराबर कोशिश करेंगे प्रेट्रोल लाने की। और वह आपको भी यह समझाने की कोशिश करेंगे कि प्रेट्रोल नहीं है, पानी है। वे यह भी समझाने की कोशिश करेंगे कि इससे आग जलेगी नहीं, बुझेगी। यह सब चलेगा। इसका मतलब यह है कि हमें दूसरा विचार खड़ा करने की कोशिश करनी चाहिए। इसके सिवाय उपाय नहीं है कोई।

प्रश्न: क्या उनके लिए प्रेट्रोल आवश्यक रहेगा?

बिलकुल आवश्यक रहेगा, हमेशा आवश्यक रहेगा। लेकिन हिंसा तभी तक होगी जब तक दस-पच्चीस को ऐसा लगता है कि वे दस-पच्चीस करोड़ को अपने साथ खड़ा कर सकते हैं। जिस दिन दस-पच्चीस को ऐसा लगे कि चालीस करोड़ उस तरफ हो गए, वे एकदम इंपोटेंट हो जाते हैं। कुछ करने का सवाल नहीं है। मामला खतम हो जाता है। यह कांशसनेस साफ हो जानी चाहिए। वे मर गए, अपने आप मर गए। वे कुछ नहीं करेंगे। वे विदा हो गए। बल्कि वे बहुत जल्दी आग के साथ पानी लाने की कोशिश करेंगे। जैसा कि अंग्रेजों ने किया है इस मुल्क में। अंग्रेजों को यह साफ हो गई बात कि यहां से उखड़ जाना पड़ेगा और उखड़ना फिर बहुत महंगा पड़ेगा। तो समझौते से चले जाना बहुत अच्छा है। इसमें पैर जमे रहेंगे, कुछ पैर जमे रहेंगे, मित्रता बनी रहेगी। यह दुश्मनी शांति से हल हो सकती है। यह साफ हो गई है बात, तो हट जाना पड़ता है।
यह कोई हिंदुस्तान में, जिन लोगों के हाथ में शोषण की सारी व्यवस्था है, वे एकदम हट जाएं अगर चेतना पूरी तरह जाग जाए। चेतना न जगे तो उनको हटाने में हिंसा करनी पड़ेगी। और मजा यह है कि हिंसा में आप बिड़ला को थोड़े ही मारेंगे! बिड़ला के पीछे जो गरीब खड़ा है, वही मरेगा। यह आप भूल कर भी मत करना। रूस में भी जो लोग मरे वे गरीब मरे। वह जो एक करोड़ लोगों की हत्या हुई, वह कोई एक करोड़ लोग अमीर लोग नहीं थे। एक करोड़ लोग अमीर होते तो फिर कहना ही क्या! वे सब गरीब लोग थे जिनको अमीरों ने यह समझाया था कि पुरानी व्यवस्था तुम्हारे हित में है। वे मरे, और अमीर तो बच गया। अमीर तो होशियार है, उसके पास बुद्धि भी है, सुविधा भी है, संपन्नता भी है, वह तो बच गया, वह तो नहीं मरा। वह तो कल बिड़ला मरने लगे तो उसका बैंक इंग्लैंड में भी होगा, अमरीका में होगा, वे जो बच जाएंगे। लेकिन बिड़ला के पीछे जो नासमझ गरीब खड़ा होकर लड़ता रहेगा वह मर जाएगा। उसकी मौत हो जाएगी। मजा यह है, हिंसा भी होगी। अगर कम्युनिज्म आए तो भी जो हिंसा होगी वह भी गरीब की होगी। अमीर की हिंसा होने का कोई मतलब नहीं, वह हो नहीं सकती।

आप जो वैचारिक क्रांति के लिए कह रहे हैं और जो सलाह दे रहे हैं तो उससे एक्शन कैसे आएगा?

मेरा तो कहना यह है कि हमारी जो सारी चेष्टा होती है न, वह मेरी चेष्टा नहीं है। हमारी चेष्टा यह होती है आमतौर से कि मैं आपको एक विचार दूं और एक निर्णय करूं कि यह कर्म उससे पैदा होना चाहिए। एक कमरे में हम बैठे हैं, जैसा मैंने आपसे कहा, आग लगी है, आपको दिखाई नहीं पड़ रही है। मैं सिर्फ इतना ही कहता हूं कि आपको दिखाई पड़ जाए कि आग लगी है। इतना दिखाई पड़ जाना पर्याप्त है। और हमारी चेतना पकड़ लेगी उस एक्शन को जो होना चाहिए। इस आग को बुझाने का क्या उपाय है, वह रास्ता हम पकड़ लेंगे। मैं उसमें उत्सुक नहीं हूं, क्योंकि मेरा मानना यह है कि मेरी जैसे ही उसमें उत्सुकता हो जाती है, फिर मैं आपको विचार नहीं देना चाहता, फिर एक्शन ही देना चाहता हूं। फिर फिक्र होती है कि विचार की झंझट में कौन पड़े!
मैं आपको कहता हूं कि यह करिए। और मेरा मानना है, जो लोग भी आपको यह बताते हैं कि यह करिए, वे आपके विचार को नुकसान पहुंचाते हैं। मैं यह कहता हूं कि आप देखिए कि आग लगी है कि नहीं इसलिए मैं यह भी नहीं कहना चाहता कि आग लगी ही है। मैं इतना ही कहना चाहता हूं, आप उठिए, देखिए, सोचिए, हो सकता है आग लगी हो। और इसलिए मैं यह भी नहीं कहना चाहता कि आग लगी ही है। वह भी कहूं तो मैंने आपको नुकसान पहुंचाया। बस इतना कि आप देख सकें। आप सोच सकें। हो सकता है, आग न लगी हो, मैं गलती में होऊं तो आप मुझे दिखा सकें कि आप गलती में हैं, फिजूल परेशान हो रहे हैं, आग नहीं लगी है। तो मैं शांत हो जाऊं। यह सवाल बहुत गहरे में मुल्क चिंतन कर सके--यह सवाल ही नहीं कि क्या चिंतन करे, मुल्क चिंतन कर ही नहीं रहा है किसी मसले पर। और एक बार मुल्क चिंतन करने लगे तो ऐसा कोई मसला नहीं कि जिस पर चिंतन नहीं होगा।
अभी फ्रांस में जो बच्चों का विद्रोह चला तो फ्रांस का एजुकेशन मिनिस्टर सोरबान यूनिवर्सिटी में बोलने गया। तो उसने उसी के पहले शिक्षा पर छह सौ पृष्ठों की किताब लिखी थी। तो बेंगेट नाम के लड़के ने खड़े होकर उससे कहा कि हमने आपका घंटे भर भाषण सुना और हम आपकी छह सौ पृष्ठों का किताब भी पढ़ गए, लेकिन हमारे एक भी मसले पर उसमें विचार नहीं है। तो दूसरे लड़के ने खड़े होकर कहा कि तुम्हारा सवाल ही गलत है। यह आदमी विचार करना ही नहीं जानता। यह सवाल ही नहीं है कि किसी मसले पर विचार करे।
ये विचार से बचने की कोशिश में लगे हुए लोग हैं। विचार करना ही नहीं चाहते। क्योंकि विचार करना खतरनाक है कुछ लोगों के लिए। विचार करने सारी जगह के लूप-होल खुल जाने वाले हैं। जहां हमने थेगड़े लगा रखे हैं और जहां-जहां जिंदगी को हमने कन्वीनियंट बना रखा है, सब जगह से खुल जाने वाले हैं। क्योंकि विचार करने की आग में न मालूम हमारी कितनी धारणाएं, कितनी आस्थाएं, कितने मंदिर, कितनी मूर्तियां, कितने गुरु, कितने शास्त्र विदा हो जाएंगे। कोई पक्ष में नहीं है विचार के। वह कहता है, विचार मत करना। गीता में सब कहा हुआ है, वह मान लो। गांधीजी जो कहते हैं, वह मान लो।
नहीं, मेरी आप बात नहीं समझे। मैं इसीलिए तो आपको कोई पाजिटिव प्रोग्राम भी नहीं देना चाहता हूं। हमारा मन तो फौरन चाहता है कि पाजिटिव कुछ नहीं? मेरी तो पूरी प्रोसेस निगेटिव है। मैं तो आपको चिंतन में डाल देना चाहता हूं। मैं तो चाहता हूं, हिंदुस्तान में कोई पचास की, पच्चीस की जरूरत है जो गांव-गांव में एक-एक आदमी की पुरानी धारणाओं को हिला दें। सब तरफ--राजनीति हो, धर्म हो, साहित्य हो, शिक्षा हो, सब तरफ हिला दें। और पूरा मुल्क खड़ा हो जाए, क्वेश्चनिंग हो जाए! और पूरे मुल्क के सामने प्रश्न खड़ा हो जाए, हर चीज के पीछे प्रश्न लग जाए!

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

आप सोचें इस पर। मैं यह तो नहीं कहता कि आप मेरी बात मान लें और कर जाएं, लेकिन आपने सोचा कि क्रांति हो गई। मेरा मतलब आप नहीं समझे। इस पर ही आप सोचें। यानी दिस टू।

प्रश्न: कहां-कहां आग है?

सब जगह आग है। लेकिन कहीं आग को देखने की क्षमता थोड़ी कम है, कहीं थोड़ी ज्यादा है। बंगाल में ज्यादा दिखती है और गुजरात में कम दिखती है। वह जरा गुजराती की देखने की क्षमता कम है। उसका कारण है।

प्रश्न: कोई प्रोग्राम आपके पास है। उसी समय में सिर्फ मानव के मन को खोखला बना देना है।

खोखला नहीं; पाजिटिव प्रोग्राम से खोखला बनता है मानवीय मन।

प्रश्न: तो क्या जो पुराने मूल्य हैं, उनको तोड़-फोड़ दिया जाए?

मैं यह भी नहीं कह रहा हूं। मैं कह रहा हूं--क्वेश्चन मार्क! अगर वह आपको ठीक लगें तो उनको बचाइए, गलत लगें तो जाने दीजिए। मेरा प्रयत्न है कि सब संदिग्ध हो जाए। कोई भी चीज असंदिग्ध न रह जाए। क्योंकि जिस देश के पास जितनी ज्यादा असंदिग्ध चीजें होंगी, उस देश की प्रतिभा उतनी जंग खा जाएगी। जिस मुल्क के पास जितना डाउट होगा, उतना उसकी चेतना विकसित होगी, तर्क विकसित होगा, विज्ञान विकसित होगा, चिंतन विकसित होगा, फिलासफी विकसित होगी, आइडियोलॉजी विकसित होगी।
निगेटिव प्रोग्राम ही आपको खोखला होने से बचा सकता है। पाजिटिव प्रोग्राम खोखला करता है। क्योंकि वह आपको मौका ही नहीं देता है सोचने का। वह कहता है, यह रहा भगवान, इसकी तुम पूजा करो, सब हो जाएगा, मामला खतम! तुम्हें कुछ होने की जरूरत नहीं है। तुम्हें सोचना नहीं है। और ब्रेन-वॉश से मेरी बात बिलकुल उलटी है। ब्रेन-वॉश आपको पाजिटिव देता है, निगेटिव बिलकुल नहीं देता। ब्रेन-वॉश कहता है, कैपिटल ही सत्य है। बस इसको ही रिपीट किए चला जाता है। गीता ही सत्य है, ये सब ब्रेन-वॉश के तरीके हैं। वह कभी नहीं कहता है कि सोचो।

प्रश्न: वे कहते हैं, ये ही सच हैं, ये ही सच हैं। आप कहते हैं, ये ही झूठे हैं, ये ही झूठ हैं।

नहीं, मैं यह नहीं कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं, क्या झूठ है, क्या सच है, यह तय नहीं है, यह सोचो। यह मैं नहीं कह रहा। अगर मैं यह कहूं, यह झूठ है, तब तो वह ब्रेन-वॉश ही है। मैं यह कह रहा हूं कि कोई चीज, जो हम अब तक मानते चले आए हैं कि सच ही है, या मानते चले आए हैं कि झूठ ही है, इतना निश्चित कुछ भी नहीं है। और इस निश्चय के कारण समाज जंग खा गया। जिंदगी अनिश्चित हैअनसर्टेन है। और डाउटिंग है, पूछने जैसी है, और पूछना चाहिए। जो ठीक लगे मानना चाहिए; लेकिन जो हम मान लें वह भी कभी ऐसा नहीं हो जाना चाहिए कि पूछना बंद कर दें। उस पर भी पूछना चाहिए। जो ठीक लगे मानना चाहिए, तो विकास होगा। नहीं तो डाउटिंग सोसाइटी और स्टैटिक सोसाइटी का इतना ही फर्क है कि जो जितनी सोसाइटी स्टैटिक होगी, वह उतना ही मानती है कि सब निश्चित हो गया है, सब ज्ञात हो गया है, अब कुछ जानना नहीं है। अब कुछ पूछना नहीं है, कुछ खोजना नहीं है। विकसित समाज पूछता है, खोजता है, पूछता ही चला जाता है।
आइंस्टीन से किसी ने पूछा मरने के कोई पांच-सात दिन पहले कि आप एक साइंटिफिक माइंड में और एक नॉन-साइंटिफिक माइंड में फर्क क्या करते हैं? तो आइंस्टीन ने कहा कि अगर नॉन-साइंटिफिक माइंड से आप सौ सवाल पूछो तो वह सौ के ही उत्तर देने को राजी है। वह एक सवाल पर भी यह नहीं कहेगा कि मैं नहीं जानता हूं। अवैज्ञानिक चित्त कभी कहने की हिम्मत ही नहीं जुटाता कि मैं नहीं जानता हूं। वह सब जानता है, वह सर्वज्ञ है। साइंटिफिक से पूछो तो वह सौ में से निन्यानबे प्रश्नों को तो कहेगा कि हम कुछ भी नहीं जानते। एक के बाबत कहेगा, कुछ जानते हैं। वह भी पक्का निश्चित नहीं है। वह भी कल बदल सकता है। इतनी ह्यूमिलिटी, इतना डाउट, इतनी इग्नोरेंस की स्वीकृति पैदा हो तो मुल्क विकास करता है।
तो मैं कोई ज्ञान देने को उत्सुक ही नहीं हूं जरा भी कि मैं आपको कोई ज्ञान दूं; तो ब्रेन-वॉश हो जाएगा। सब ज्ञानी ब्रेन-वॉश करते हैं। क्योंकि वह आपको ज्ञान दे देते हैं पाजिटिव। वे कहते हैं, आपको सोचने की जरूरत नहीं है। यह रेडीमेड नालेज हम आपको देते हैं। आप इस पर एक्शन करो, बस, मामला, खतम होता है। मेरा वह बिलकुल ही उलटा है।

आपके कहा कि इंदिराजी कांग्रेस को चलाती रहेंगी और मोरारजी कांग्रेस को खतम कर देंगे। तो मोरारजी कैसे खतम कर देंगे, इस विषय में कुछ कहें।

मोरारजी साफ हैं। उनका सब कुछ स्पष्ट हैं। समाजवाद की कोई बात उनके मन में नहीं है। न बात मन में है, न समाजवाद का धोखा खड़ा करने की बात है। इसलिए मोरारजी को साथ तो कांग्रेस जल्दी मर जाएगी। क्योंकि मोरारजी के साथ कांग्रेस सीधी पूंजीवादी हो जाएगी। इंदिरा के साथ धोखा फिर जारी रहता है। कांग्रेस तय नहीं हो पाई कि क्या है? वह नेहरूजी के साथ भी धोखा जारी रहा। कांग्रेस तय नहीं हो पाई कि कांग्रेस क्या है? वल्लभ भाई के साथ तय हो जाती और मर जाती। तो मुल्क का छुटकारा हो जाता। मोरारजी अच्छे हैं, क्योंकि स्युसाइडल हैं कांग्रेस के। वह जहर साबित होंगे, बिलकुल जहर साबित होंगे।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

मैं यह मानता हूं, मुल्क में भीतर बहुत अशांति है, बहुत पीड़ा है। वह प्रकट होनी चाहिए। प्रॉब्लम साल्व उनसे नहीं होगा, लेकिन वह इतने उपद्रव में खुद टूट जाएं और मर जाएं, तो प्रॉब्लम साल्व उनसे नहीं होगा, लेकिन वह इतने उपद्रव में खुद टूट जाएं और मर जाएं, तो प्रॉब्लम साल्व करने वाले लोग मुल्क में पैदा हो सकते हैं। वह कठिनाई नहीं है। यानी मेरा मानना है कि कांग्रेस की मृत्यु मुल्क के हित में होगी। कांग्रेस जब तक नहीं मरती तब तक मुल्क में नई पार्टी के खड़े होने का बड़ा मुश्किल मामला है। इसको बिलकुल मर जाना चाहिए। मोरारजी आए तो जल्दी मरती है। इंदिरा रहें तो थोड़ी देर लगती है। बहत्तर में तो नहीं मरती है, अगर इंदिरा सम्हल जाती हैं तो बहत्तर में नहीं मरती है। इंदिरा बहत्तर में जिता ले जाएगी।

प्रश्न: क्या कम्युनिज्म के आने की संभावना भारत में है?

है तो संभावना, लेकिन ऐसे गलत लोगों के हाथ में है कम्युनिज्म भारत का कि उससे बहुत ही फर्क है।

प्रश्न: आपके विचार में और हिप्पी के विचार में क्या फर्क है?

बड़ा मेल है, बड़ा मेल है। थोड़ा से फर्क है। मैं धार्मिक हिप्पी हूं, बस इतना ही फर्क है।

प्रश्न: जब कांग्रेस मर जाएगी--चाहे मोरारजी आएं तो दो साल में मरे और इंदिरा आएं तो दस साल बाद मरे--तो जिस दिन कांग्रेस मर जाएगी तो क्या आपका खयाल है कि यहां डेमोक्रेसी चालू रहेगी या विकृत हो जाएगी?

कुछ भी हो, वह बेहतर होगा--पहली बात। क्योंकि इतने मरे हुए होने से कुछ भी होना बेहतर है। कुछ भी होना बेहतर है। मुल्क में कुछ भी तो हो। कुछ भी नहीं हो रहा है। बीस साल से ऐसा जड़ हो गया है कि हम एक कोल्हू के बैल की तरह चक्कर लगा रहे हैं। कुछ भी नहीं हो रहा है। बीस साल से ऐसा जड़ हो गया है कि हम एक कोल्हू के बैल की तरह चक्कर लगा रहे हैं। कुछ भी नहीं हो रहा है और होने का धोखा पैदा हुआ जा रहा है। लेकिन मेरा मानना है कि कांग्रेस का विघटन इस मुल्क में डेमोक्रेसी ला सकता है। कांग्रेस बचने की आखिरी कोशिश में डिक्टेटोरियल हो सकती है--आखिरी कोशिश में। जो आखिरी कोशिश होगी कांग्रेस की, वह डेमोक्रेसी का भ्रम छोड़ देना होगा। आखिरी बचने की जो कोशिश होगी। अभी तो वह समाजवाद का नाम लेकर बचने की कोशिश करेगी, लेकिन कितनी देर! इसके बाद आखिरी जो उपाय होगा वह यह होगा कि कांग्रेस अपने बचने की अंतिम चेष्टा में तानाशाही पैदा कर दे मुल्क में। हिंदुस्तान की कोई दूसरी पार्टी अभी तानाशाही की हैसियत में नहीं है। सिर्फ कांग्रेस हो सकती है। यह डर पैदा हो सकता है कांग्रेस से।
कांग्रेस के विघटन से हिंदुस्तान में डेमोक्रेसी की संभावना बहुत बढ़ जाएगी, क्योंकि बहुत बड़ी, मेजर पार्टी नहीं होगी। सब पार्टियां बंटी हुई ताकत में होंगी। हिंदुस्तान में कभी कोई डिक्टेटरशिप की संभावना फिर नहीं है। कांग्रेस के साथ, एक तो नेहरू के साथ थी वह नेहरू के मरने के साथ खतम हो गई। अब कांग्रेस के साथ है, वह कांग्रेस के मरने के साथ खतम हो जाएगी। डिक्टेटरशिप की संभावना नहीं है क्योंकि जितनी पार्टी होंगी, छोटी होंगी। ये थोड़े बहुत दिन चला सकें। और इनको मोलत्तोल से ही चलना पड़ेगा। ये ज्यादा दिन, इनको कोई ताकत इकट्ठी नहीं हासिल कर सकता। कुछ भी हो, मैं यह मानता हूं कि ना कुछ होने की हालत से कुछ भी होना बेहतर होगा।

प्रश्न: हमारी जो आज की स्थिति है मुल्क की, उसे देखते हुए आपको लगता है कि भारत के लोग डेमोक्रेसी के योग्य हो सकेंगे?

सवाल तो यह है--यह तो प्रत्येक आदमी को हम है डेमोक्रेसी का। वह कितना ही बुरा आदमी हो, कैसा ही अज्ञानी हो, कितना ही नासमझ हो, उसको व्यक्ति होने का हक है। डेमोक्रेसी इतना ही कहती है कि हम तुम्हें स्वीकार करते हैं। उतना ही मूल्य देते हैं जितना किसी को देते हैं। और अगर हम हक पूछने जाएं तो शायद कभी दुनिया ऐसी नहीं होगी कि हम मान सकें कि अब सब लोग लोकतंत्र के योग्य हो गए हैं। ऐसे तो प्रत्येक हकदार है। लेकिन योग्यता तो कभी नहीं होगी पूरी। पूरी योग्यता तो तब हो जब कि जीसस क्राइस्ट जैसे सारे लो हों। वह तो कभी नहीं होगा। इसलिए हमें बीच में ही चलना पड़ेगा। लोग अयोग्य होंगे और लोकतंत्र की चेष्टा जारी रखनी पड़ेगी।
आज इतना ही।



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