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मंगलवार, 19 मई 2020

शूून्य की किताब–(Hsin Hsin Ming)-प्रवचन-06

लक्ष्य के लिए प्रयास न करे-(प्रवचन-छठवां)

Hsin Hsin Ming (शुन्य की किताब)--ओशो
(ओशो की अंग्रेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद) 
सूत्र:
महापथ में जीना न तो सरल है न कठिन,
लेकिन वे जिनके विचार सीमित हैं वे भयभीत और संकल्पहीन हैं।
जितनी तीव्रता से वे शीघ्रता करते हैं उतना ही वे धीमे जाते हैं
और पकड़ सीमित नहीं हो सकती,
संबोधि के विचार से आसक्त हो जाना भी भटक जाना है।
बस वस्तुओं को अपने ढंग से होने दो और फिर न आना होगा, न जाना।

वस्तुओं के स्वभाव (तुम्हारे अपने स्वभाव) के अनुसार चलो;
और तुम मुक्त भाव से और अविचलित रह कर चलोगे।
जब विचार बंधन में होता है सत्य छिपा रहता है
क्योंकि सभी कुछ धुंधला और अस्पष्ट होता है
और निर्णय करने का बोझिल अभ्यास कष्ट और थकान लाता है।
भेदभावों और विभाजनों से क्या लाभ हो सकता है?


अगर तुम उस एक 'पथ' पर चलना चाहते हो,
तो इंद्रियों और विचारों के जगत से भी घृणा मत करो।
वास्तव में उन्हें पूर्ण रूप से स्वीकार करना वास्तविक संबोधि के समान है।
बुद्धिमान व्यक्ति किसी लक्ष्य के लिए प्रयास नहीं करता,
परंतु मूर्ख व्यक्ति स्वयं को ही बेड़ियां डाल लेता है।
धर्म सत्य, नियम एक है अनेक नहीं।
भेदभाव अज्ञानी व्यक्ति की पकड़ लेने की आवश्यकताओं के
कारण उत्पन्न होता है।
भेदभाव करने वाले मन के द्वारा 'मन' की
खोज सभी गलतियों में सबसे बडी है।


इस सूत्र में अनेक सुंदर बातें हैं। और सत्य के खोजी के लिए सुंदर ही नहीं बल्कि मूलभूत और अनिवार्य भी- क्योंकि सोसान कवि नहीं है वह द्रष्टा है। जो भी वह कहता है वह अनंत का काव्य है लेकिन बात वह नहीं है। जब भी कोई बुद्धपुरुष बोलता है, वह जो भी बोलता है वह काव्य, एक सुंदर काव्य है जो कुछ भी उससे प्रस्फुटित होता है उसमें उसकी ही प्रतिध्वनि होती है उसे साथ लेकर आता है उसकी ही सुगंध होती है। लेकिन वह इतनी अर्थपूर्ण बात नहीं है। उसके काव्य में मत खो जाना, क्योंकि काव्य साकार का है और सत्य निराकार है। सोसान जिस ढंग से बातें कहता है वह सुंदर और काव्यमय है लेकिन याद रहे, उसके काव्य में ही मत खो जाना। उपनिषदों के गीता के जीसस के वचनों के काव्य में मत खो जाना! रूप अपने में सुंदर है, लेकिन वह असली बात नहीं है। पात्र में निहित वास्तविकता को समझो पात्र को नहीं।
खोजी के लिए पात्र में रखी हुई वस्तु महत्वपूर्ण है, और वास्तविकता को समझ लेना वही हो जाना है- क्योंकि कोई सत्य समझ के पार नहीं है। वास्तव में समझ ही सत्य है। यह कहना कि तुम समझ के द्वारा सत्य तक पहुंच जाओगे गलत है क्योंकि समझ से और पृथक कोई सत्य नहीं है।
समझ ही सत्य है। तुमने समझा तुम सत्य हो गए। सत्य कहीं और तुम्हारी प्रतीक्षा नहीं कर रहा है वह तुम्हारी समझ के द्वारा प्रकट होगा- तुम्हारे भीतर प्रकट होगा।
सोसान के ये निर्देश खोजी के लिए हैं और एक-एक शब्द बहुत ही अर्थपूर्ण है:

महापथ में जीना न तो सरल है न कठिन,

जब भी कोई मंजिल होती है, वह या तो सरल होती है या कठिन। यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम कहां हो तुम्हारे और मंजिल के बीच कितनी दूरी है, क्या वहां राजमार्ग है या तुम्हें पर्वतीय मार्ग पर चलना होगा। क्या सड़क का मानचित्र है, सड़क पर निशान बने हुए हैं या फिर तुम्हें अपना मार्ग स्वयं खोजना होगा।
अगर लक्ष्य है तो वह सरल या कठिन होगा। वह निर्भर करता है कि क्या तुमने पहले भी इस मार्ग से यात्रा की है। क्या रास्ता जाना-पहचाना है? -फिर वह सरल होगा। अगर रास्ता अनजाना है तो वह कठिन होगा। क्या तुम अच्छे यात्री हो? – तुम्हारी शारीरिक अवस्था, तुम्हारी मानसिक स्थिति, या तो उसे आसान बना देगी या मुश्किल।
लेकिन सत्य लक्ष्य बिलकुल नहीं है इसलिए वह कैसे सरल या कठिन हो सकता है?
ऐसे लोग हैं जो कहते हैं कि सत्य बहुत, बहुत कठिन है। वे जो कह रहे हैं वह बिलकुल ही अज्ञानता है। लेकिन एक विपरीत मत है जो कहता है, ' सत्य सहज है- कोई समस्या नहीं है। सिर्फ उसे समझो और वह सहज है।वे भी कुछ ऐसा कह रहे हैं जो ठीक नहीं है। दोनों ही बातें मन के द्वारा समझी जा सकती हैं। कठिन? - मन तरकीबें, रास्ते और साधन ढूंढ सकता है और उसे सरल बनाया जा सकता है।
तीन हजार वर्ष पहले यात्रा करना कठिन था। अब वह बहुत ही सुगम हो गया है तुम सिर्फ हवाई जहाज में प्रवेश करो और कुछ नहीं करना बस आराम करना है। और जितने समय में तुमने चाय का प्याला खत्म किया और उतने समय में तुम पहुंच गए। मंजिल कठिन है उसे सरल बनाया जा सकता है।
महर्षि महेश योगी पश्चिमी देशों में यही सिखाए चले जाते हैं कि उन्होंने जेट-स्पीड वाली एक विधि खोज ली है। अगर मंजिल मुश्किल है। निस्संदेह अगर तुम बैलगाड़ी से यात्रा करोगे तो वह बहुत ही कठिन होगी और अगर तुम जेट से यात्रा करोगे तो सुगम हो जाएगी।
लेकिन क्या मंजिल है? यही मूल प्रश्न है। अगर कहीं वह मंजिल है, कहीं दूर तब उसे सुगम बनाने के साधनों की संभावनाएं हैं- वाहन हैं। लेकिन क्या वह मंजिल है? सोसान कहता है वह लक्ष्य नहीं है इसलिए वह कैसे कठिन या सरल हो सकता है? और अगर वह लक्ष्य नहीं है तो उसका मार्ग कैसे हो सकता है? और अगर वह लक्ष्य नहीं है तो उस तक पहुंचने के उपाय और विधियां कैसे हो सकती हैं? असंभव! वह कहता है वह न तो सरल है न कठिन क्योंकि वह लक्ष्य बिलकुल नहीं है।

महापथ में जीना न तो सरल है न कठिन,

फिर वह महापथ क्या है? महापथ तुम्हारा स्वभाव है- तुम पहले से ही वही हो! इसीलिए वह लक्ष्य नहीं है। वह कुछ ऐसा नहीं है जो भविष्य में होगा। उसके घटित होने के लिए समय की जरूरत नहीं है। तुम सदा से उसमें ही हो पहले से ऐसा ही है। तुम लक्ष्य पर हो तुम लक्ष्य में स्थित हो। तुम उसके बाहर जीवित नहीं रह सकते उससे बाहर जाने की कोई संभावना नहीं है। तुम चाहे कितना भटको तुम इसके बाहर नहीं जा सकते। तुम कहीं भी जाओ अपना स्वभाव अपने भीतर लिए चलोगे। वह तुम्हारा अंतर्निहित स्वभाव है। वह अपरिहार्य है तुम उसे कहीं रख कर भूल नहीं सकते। तुम पहले से वहीं हो क्योंकि वह यहीं है। तुम्हें भविष्य में देखने की जरूरत नहीं है तुम सिर्फ यहां होओ और तुम उसे पा लोगे।
खोजो और तुम चूक जाओगे। खोजो मत सिर्फ होओ और वह वहां है। तुम हंसोगे क्योंकि वह सदा वहां था- केवल खोजने के कारण तुम उसे चूक रहे थे। केवल इस कारण कि तुम इतनी जल्दी में थे कि तुम भीतर देख नहीं सके।

महापथ में जीना न तो सरल है न कठिन,
लेकिन वे जिनके विचार सीमित हैं वे भयभीत और संकल्पहीन है जितनी तीव्रता से वे शीघ्रता करते हैं उतना ही वे धीमे जाते हैं
और पकड़ सीमित नहीं हो सकती;

संबोधि के विचार से आसक्त हो जाना भी भटक जाना है।
बस वस्तुओं को अपने ढंग से होने दो और फिर न आना होगा,

तुम ही मार्ग हो और तुम ही मंजिल हो और तुम्हारे और मंजिल के बीच कोई दूरी नहीं है। तुम्हीं खोजी हो और तुम्हीं खोजे जाने वाले हो, खोजी और खोजे जाने वाले में कोई दूरी नहीं है; तुम्हीं उपासक हो और तुम्हीं उपास्य हो। तुम्हीं शिष्य हो और तुम्हीं गुरु हो। तुम्हीं साधन हो और तुम्हीं साध्य हो यही महापथ है।
वह सदा तुम्हें उपलब्ध था। इस क्षण भी तुम उसी में हो। जागे हुए तुम उसमें हो। सो जाओ तुम उसी में रहते हो, क्योंकि तुम नींद में हो इसलिए उसे देख नहीं सकते, और फिर तुम खोजना शुरू कर देते हो।
तुम उस शराबी की भांति हो जो अपना ही घर खोज रहा है किसी ऐसी चीज के बारे में पूछ रहे हो जो तुम्हारी आंखों के सामने है। लेकिन आंखें साफ नहीं हैं- वे मतों भेदभावों से भरी हैं वे शब्दों और सिद्धांतों से भरी हैं। इसीलिए तुम्हारी दृष्टि धुंधली है वैसे जिसको तुम खोज रहे हो वह तुम्हारी आंखों के ठीक सामने है।
हिंदुओं के पास नाक के अग्रभाग को देखने की एक विधि है. बस शांत बैठ जाओ और नाक के अग्रभाग को देखो और कुछ मत करो। लोग हंसेंगे कि क्या मूर्खता है! इससे क्या होगा? लेकिन मतलब से चूक गए। हिंदू कहते हैं कि वह ठीक तुम्हारे सामने है नाक के अग्रभाग की भांति। शांत बैठ जाओ और केवल नाक के अग्रभाग को देखो और किसी प्रकार के सोच-विचार में मत उलझों। और अचानक वह वहां है- नाक के अग्रभाग की भांति सदा तुम्हारे सामने।
और नाक के अग्रभाग का यही सौंदर्य है तुम कहीं भी जाओ वह हमेशा तुम्हारे सामने है। तुम ठीक चलो वह वहां है तुम गलत चलो वह वहां है। पापी हो जाओ वह सामने है, महात्मा हो जाओ वह सामने है। तुम जो कुछ भी करो- उलटे खड़े हो जाओ शीर्षासन में वह तुम्हारे सामने है। सो जाओ वह वहां है जाग जाओ वह वहां है। नाक के अग्रभाग को देखने का यही अर्थ है क्योंकि तुम जो कुछ भी करो तुम उसे सामने के सिवाय और कहीं नहीं रख सकते। जिस क्षण तुम चलते हो यह भी चल चुका होता है। केवल नाक के अग्रभाग को देखते रहने से ही तुम समझ जाओगे कि सत्य सदा तुम्हारे सामने है। तुम जहां भी गति करते हो यह तुम्हारे साथ गति करता है; जहां भी तुम जाते हो यह तुम्हारे साथ ही जाता है। तुम उसे खो नहीं सकते इसलिए खोजने का प्रश्न ही नहीं उठता। समझने के लिए तुमने उसे खोया नहीं है... लेकिन देखो आमतौर से तुम नाक के अग्रभाग को देखते नहीं हो, क्योंकि तुम दूसरी वस्तुओं को देख रहे हो तुम्हारी रुचि दूसरी चीजों में है। तुम नाक के अग्रभाग को कभी नहीं देखते।
हिंदुओं का एक और सुंदर सिद्धांत है। उनका कहना है कि जब कोई व्यक्ति अपनी नाक के अग्रभाग को देखने लगता है तो उसकी मृत्यु निकट है छह महीने के भीतर उसकी मृत्यु हो जाएगी। जब व्यक्ति देखने का प्रयत्न किए बिना ही इसको देखने लगता है- कुछ भी करते हुए वह उस नाक के अग्रभाग को ही देखता रहता है- छह महीने के भीतर उसकी मृत्यु हो जाएगी।
इसमें कोई बात है, क्योंकि तुम तभी नासाग्र भाग के प्रति सजग होते हो जब तुम्हारी सारी इच्छाएं, सभी वस्तुओं की कामनाएं व्यर्थ हो जाती हैं। इच्छाओं में गति करने के लिए तुम्हारे पास कोई ऊर्जा नहीं है मौत समीप आ रही है। तुम इतने ऊजाविहीन हो कि तुम्हारी सारी जीवंतता खतम हो चुकी है। तुम अपनी आंखें भी नहीं झपका सकते तुम वासनाओं और मंजिलों के पीछे नहीं भाग सकते, जीवन समाप्त हो रहा है। अंतिम घड़ी में नाक के अग्रभाग को देखने के सिवाय और कुछ शेष नहीं बचता। एक अर्थ यह है।
दूसरा अर्थ है, जो उससे भी अधिक महत्व का है, और वह है : जब कोई व्यक्ति अपने नाक के अग्रभाग को देखने में समर्थ होता है, तब वह इस जगत के प्रति मर जाएगा। एक नया जन्म होगा, क्योंकि उसने अपने ही सामने स्पष्ट रूप से देख लिया है। यह जगत मिट जाता है, यह जीवन विलीन हो जाता है। जहां तक उसके पुराने होने का संबंध था वह मर गया है। अब वह नया है, यह पुनर्जन्म है। अब आवागमन समाप्त हो गया है।
वह उपलब्ध हो गया है-क्या केवल नाक के अग्रभाग को देखने से? हां क्योंकि सारा सवाल ही यही है; कैसे इधर-उधर नहीं सामने देखना है। क्योंकि सत्य तुम्हारे सामने है वह अन्यथा नहीं हो सकता। वह न तो सरल है, न ही कठिन है।
यह प्रयत्न का प्रश्न नहीं है इसलिए यह कैसे सरल या कठिन हो सकता है? यह जागृति का प्रश्न है प्रयत्न का नहीं। यह कुछ करने का प्रश्न नहीं है। करने से तुम उसे खो दोगे क्योंकि तुम करने में तल्लीन हो जाओगे अगर तुम कुछ करते हो तो वह सरल या कठिन हो जाता है।
यह न करने का प्रश्न है। निष्कियता कैसे सरल या कठिन हो सकती है? अक्रिया कर्म के जगत से सर्वथा पार की बात है। वह सिर्फ होना है! होना कैसे कठिन या सरल हो सकता है? सिर्फ होना! वह ही महापथ है। सारा प्रयत्न जानने के लिए है और नासाग्र भाग को देखने के लिए है स्वच्छ आंखों से केवल अपने सामने देखने के लिए है।

... लेकिन वे जिनके विचार सीमित हैं वे भयभीत और संकल्पहीन हैं
जितनी तीव्रता से वे शीघ्रता करते हैं उतना ही वे धीमे जाते हैं

यह विरोधाभासी प्रतीत होता है लेकिन ऐसा सबके साथ घटता है। यही तुम्हारे साथ हुआ है। जितना तुम तेजी से जाते हो उतने ही तुम धीमे हो जाते हो। क्यों? क्योंकि तुम बिना सामने देखे आगे बढ़ते हो और लक्ष्य वहीं है! जितनी तेजी से तुम आगे बढ़ते हो, उतनी ही तेजी से तुम भटक जाते हो।
अगर कोई तुम्हारी गति को देखे तो तुम तेज हो लेकिन अगर कोई इस दृष्टि से देखे कि तुम क्या चूक रहे हो तो तुम धीमे हो। जितना तुम तेजी से जाते हो उतने ही तुम धीमे हो। कहीं मत जाओ! बस यहीं रहो- और तुम तुरंत पहुंच जाते हो। किसी स्थान की यात्रा नहीं करनी किसी समय के पार नहीं जाना है। बस यहीं होना है अभी और यहीं को मंत्र बना लो तुम्हें और कुछ नहीं चाहिए। अभी और यहीं होओ। कहीं मत जाओ, धीमे या तेज।
ऐसा हुआ, एक छोटा सा बच्चा स्कूल बहुत देर से पहुंचा। वह हमेशा ही देर से आता था। अध्यापिका बहुत नाराज थी और उसने कहा फिर? तुम फिर देर से आए हो और कल से भी देर से आए हो! और मैं तुम्हें बार-बार कहती रही हूं। तुम सुनते ही नहीं! लड़के ने कहा लेकिन बड़ी मुश्किल हो गई थी। आप देख रही हैं बाहर वर्षा हो रही है, और कीचड़ के कारण सड़क पर बहुत फिसलन हो गई है। मैं एक कदम स्कूल की ओर चलता था, दो कदम पीछे सरकता था। सड़क इतनी फिसलन भरी है कि जितना मैं तेजी से चलने का प्रयत्न करता उतना ही मैं धीरे पहुंच रहा था। वास्तव में मैं उलटी दिशा में जा रहा था एक कदम आगे चलता और दो कदम पीछे सरका जा रहा था।
अध्यापिका ने कहा तुम बहुत होशियार हो लेकिन तुम पहुंचे कैसे?
लड़के ने कहा तब मैंने घर की तरफ चलना शुरू किया, इस तरह मैं पहुंचा हूं। तुम भी फिसलन भरी सड़क पर हो जहां तुम जितनी तीव्रता से चलते हो उतनी ही गति धीमी हो जाती है- क्योंकि तुम दूर जा रहे हो। अगर तुम्हारी दृष्टि लक्ष्य पर है तो तुम भटक रहे हो। तुम्हारी तीव्र गति खतरनाक है, वह लक्ष्य के विपरीत है, क्योंकि अ-गति की आवश्यकता है। तुम्हें केवल रुक जाना है और देखना है।
लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं, हम बुद्धत्व को कब प्राप्त करेंगे? कब? अगर मैं कहता हूं अभी तो वे मुझ पर विश्वास नहीं कर पाते। और मैं तुमसे कहता हूं अभी। तुम इस अभी को चूक जाते हो, फिर दूसरा अभी- लेकिन हमेशा अभी। दूसरा और कोई समय नहीं है।
यह जब भी घटित होता है, यह अभी में घटित होगा, और जब भी यह घटित होता है यह यहीं में घटित होगा। अभी और यहीं दो शब्द नहीं हैं जैसे कि समय और स्थान दो शब्द नहीं हैं। आइंस्टीन ने एक नये शब्द का ' स्पेसियो-टाइम ' का उपयोग किया। उन्होंने दो शब्दों को मिला कर एक शब्द बना दिया, स्पेसियो-टाइम। क्योंकि वैज्ञानिक रूप से उन्होंने पाया कि समय और कुछ नहीं बल्कि स्थान का चौथा आयाम है इसलिए दो शब्दों का प्रयोग करने की कोई जरूरत नहीं है।
और उसी प्रकार ' हियर ' और ' नाउ ' भी दो शब्द नहीं हैं। आइंस्टीन से हजारों वर्ष पूर्व सोसान जैसे रहस्पदर्शियों को इस बात का बोध था कि यह नाउ-हियर अभी-यहीं है। इन शब्दों को इकट्ठा कर देना चाहिए वे एक हैं, क्योंकि अभी यहीं का चौथा आयाम है- नाउ-हियर एक शब्द है।
जब भी यह घटित होता है यह अभी-यहीं में घटित होगा। यह बस अभी घटित हो सकता है प्रतीक्षा करने की जरूरत नहीं! लेकिन तुम डांवाडोल और भयभीत हो- वही समस्या खडी कर देता है। भयभीत होने का क्या अर्थ है? जब तुम भयभीत होते हो तब आंतरिक स्थिति क्या होती है? तुम उसे चाहते भी हो और नहीं भी चाहते। यह एक भयभीत मन की स्थिति है वह जाना भी चाहता है और जाना नहीं भी चाहता, क्योंकि वह भयभीत है। वह चाहता भी है लेकिन वह निश्चित नहीं है डांवाडोल है।
जीसस ने हमेशा ' भय ' शब्द का प्रयोग किया कई बार विश्वास के विपरीत भय शब्द का प्रयोग किया। जीसस ने विश्वास के विरुद्ध अविश्वास अश्रद्धा शब्द का प्रयोग नहीं किया उन्होंने विश्वास के विरुद्ध हमेशा ' भय ' शब्द का ही प्रयोग किया। उन्होंने कहा जो भयभीत नहीं हैं वे विश्वास करने वाले हो जाते हैं क्योंकि विश्वास संकल्प है। विश्वास एक निश्चय है एक पूर्ण निश्चय। तुम समग्र रूप से उसमें जाते हो यह श्रद्धा है, बिना कुछ पीछे छोड़े बिना किसी शर्त के। उसे वापस नहीं लिया जा सकता। अगर तुम पूरी तरह आगे जा चुके हो तो कौन उसे वापस लेगा?
विश्वास आत्यंतिक है। अगर तुम उसमें चले जाते हो तो चले जाते हो। तुम उसमें से बाहर नहीं निकल सकते। कौन उसमें से वापस लौटेगा? कोई पीछे नहीं खड़ा है, जो तुम्हें पीछे खींच सके। यह गहरी खाई में छलांग है! और जीसस का भय को विश्वास का विपरीतार्थक शब्द बनाना बिलकुल उचित है। पहले किसी ने ऐसा नहीं किया। लेकिन वे बिलकुल ठीक हैं क्योंकि बाहर की भाषा से उनका कोई संबंध नहीं है उनका संबंध भीतर की भाषा से है।
यह भय है जो तुम्हें विश्वास नहीं करने देता। यह अविश्वास नहीं है याद रहे यह अविश्वास नहीं जो तुम्हारे विश्वास में बाधा बनता है यह भय है।
निस्संदेह तुम अपने अविश्वास अपने भय को तर्कसंगत बना लेते हो। तुम उसे शब्दों में छिपा लेते हो और कहते हो ' मैं शक्की हूं मुझे संदेह है। जब तक मुझे पूरा विश्वास न हो जाए मैं कैसे आगे बढ सकता हूं?' लेकिन अपने भीतर गहरे में झांको और तुम वहां भय को पाओगे।
भय का अर्थ है तुम्हारा आधा भाग जाना नाहता है और आधा जाना नहीं चाहता। आधा अज्ञात से आकर्षित है उसने पुकार को सुन लिया है और आधा अज्ञात से भयभीत है ज्ञात से चिपका है। क्योंकि ज्ञात तो ज्ञात है उसमें भय की कोई बात नहीं है।
तुम कुछ करते हो वह कुछ ज्ञात हो जाता है। अब अगर तुम कुछ नया काम करना चाहते हो, जीवन के नए ढांचे को, नई आदतों को, नई शैली को अपनाना चाहते हो तुम्हारा आधा भाग ज्ञात को पकड़े रखता है कहता है ' आगे मत बढ़ो कौन जानता है कि वह इससे भी बुरा हो। और एक बार तुम आगे बढ़ गए तो पीछे लौट नहीं सकते।इसलिए आधा कहता है 'चिपके रहो।'
यह आधा अतीत से संबंधित है क्योंकि अतीत ज्ञात है स्मृति है। और दूसरा आधा हमेशा उत्सुक है। उस अज्ञात पथ पर चलने की पुकार को अनुभव करता है जिसका कोई नामोंनिशान भी नहीं है क्योंकि कुछ नया आह्वादपूर्ण होगा।
यही भय है। तुम खंडित हो। भय तुम्हें खंडित कर देता है और अगर तुम खंडित हो तो अनिश्चय वहां होगा। तुम एक कदम अज्ञात की ओर उठाते हो, दूसरा कदम अतीत में अतीत की कब्र में ही रह जाता है। और फिर तुम अटक जाते हो क्योंकि कोई एक कदम एक टांग एक पैर के साथ आगे नहीं बढ़ सकता- तुम्हें भी दोनों पंखों से काम लेना होगा दोनों अंगों को इनमें लगाना होगा। केवल तभी तुम चल सकते हो।
अनिश्चय में और तुम अटक गए- और हर कोई अटक गया है। यही समस्या है यही चिंता है। अटक गए हो और तुम आगे नहीं बढ़ सकते और जीवन बहता रहता है, और तुम चट्टान की भांति हो गए हो अवरुद्ध अतीत के काराग्रह के कैदी।

.. लेकिन वे जिनके विचार सीमित हैं वे भयभीत और संकल्पहीन हैं
जितनी तीव्रता से वे शीघ्रता करते है उतना ही वे धीमे जाते हैं

उनका पूरा जीवन परस्पर विरोधी हो जाता है। वे एक हाथ से कुछ करते हैं और शीघ्र ही दूसरे हाथ से मिटा देते हैं- अनिश्चय में। एक तरफ तुम किसी को प्रेम करते हो और दूसरी तरफ घृणा करते हो। एक तरफ प्रेम का सृजन करते हो और दूसरी तरफ घृणा के बीज बीते हो। और कभी नहीं देखते कि तुम कर क्या रहे हो।
अभी कल रात ही मैं किसी से बुखारा में एक गुप्त मठ के विषय में बात कर रहा था। गुरुजिएफ उस मठ में कम से कम छह वर्ष रहा। उसने सूफियों की कई विधियां सीखीं। उनमें से एक विधि का प्रयोग अब भी उस मठ में किया जाता है।
विधि बहुत सुंदर है। जब भी कोई व्यक्ति मठ में प्रवेश करता है, शिष्य बन जाता है उसे एक तख्ती दी जाती है एक साइनबोर्ड। उसके एक तरफ लिखा होता है ' मैं नकारात्मक हूं कृपया मुझे गंभीरतापूर्वक न लें- यदि मैं कुछ गलत कहता हूं तो मैं वास्तव में आपसे नहीं कह रहा हूं। क्योंकि मैं नकारात्मक हूं और मैं घृणा, क्रोध और अवसाद से भरा हूं। और अगर मैं कुछ करता हूं तो वह मेरी नकारात्मकता के कारण है, आपकी किसी गलती के कारण नहीं है।
तख्ती के दूसरी ओर लिखा होता है ' मैं सकारात्मक हूं मैं प्रेमपूर्ण हूं मैं प्रेममय हूं? कृपया मुझे गंभीरतापूर्वक न लें- अगर मैं कहूं कि आप सुंदर हैं मैं आपके संबंध में कुछ नहीं कह रहा हूं- मैं बहुत आनंदित हूं।
और जब भी व्यक्ति अनुभव करता है कि मनोदशा बदल रही है वह तख्ती का रुख बदल देता है, वह जिस अवस्था में होता है वह ठीक हिस्से को ऊपर की ओर कर देता है। और बहुत सी बातें इससे घट जाती हैं क्योंकि कोई भी उसे गंभीरतापूर्वक नहीं लेता। लोग उस पर हंसते हैं कि वह नकारात्मक मनोदशा में है।
अगर किसी को मितली हो रही है और वह उलटी कर देता है ठीक! वह तुम पर नहीं निकाल रहा वह तुम पर कुछ नहीं फेंक रहा है। वह कुछ ऐसा फेंक रहा है जो उसे तंग कर रहा है। और सिर्फ तब जब यह विभाजन समाप्त हो जाता है शिष्य गुरु के पास आता है और कहता है ' मैं दोनों नहीं हूं। अब मैं न तो नकारात्मक हूं न ही सकारात्मक हूं सब शांत हो गया है और मेरे दोनों पंख एक हो गए हैं अब मैं एक हूं ' सिर्फ तभी वह तख्ती ले ली जाती है।
जिस क्षण वह तख्ती ले ली जाती है वही क्षण संबोधि का होता है। तब तुम पूर्ण हो। अन्यथा तुम सदा स्वयं का विरोध करते रहते हो और तब दुख और पीड़ा अनुभव करते हो और सोचते हो 'मुझे क्या हो रहा है?' तुम्हें कुछ नहीं हो रहा है! एक हाथ से तुम कुछ अच्छा करते हो और दूसरे हाथ से तुरंत कुछ बुरा कर देते हो, दूसरे पक्ष को नष्ट करने के लिए जो आगे जा चुका है क्योंकि तुम अनिश्चयी हो तुम खंडित हो।
एक भाग पुरानी आदतों से चिपका रहता है और दूसरा भाग अज्ञात में जाना चाहता है। एक भाग संसार को पकड़े रहना चाहता है और दूसरा पक्षी हो जाना चाहता है और देवत्व के अज्ञात आकाश में या अस्तित्व की परम दिव्यता में उड़ जाना चाहता है। तुम फिर अटक गए।
इसे देखने का प्रयत्न करो। यह कठिन है क्योंकि तुमने उसे देखने की कभी चेष्टा नहीं की है वैसे वह बिलकुल कठिन नहीं है। वह न तो कठिन है न सरल है। सिर्फ यह देखो कि तुम अपने साथ और दूसरों के साथ क्या कर रहे हो।
तुम जो भी आधे मन से करते हो वह तुम्हारे लिए दुख ही लाएगा। अटके, तो गिरे, नरक में गिरोगे। नरक वह जगह है जहां लोग रुक गए हैं, स्वर्ग वह जगह है जहां लोग गतिमान हैं, जम नहीं गए हैं। नरक वह जगह है जहां कोई स्वतंत्रता नहीं, स्वर्ग स्वतंत्रता है। हिंदुओं ने परम अवस्था को ' मोक्ष ' कहा है- परम स्वतंत्रता। कोई कहीं रुका हुआ नहीं है मुक्त नदी की भांति बहता हुआ है पक्षी की भांति पंखों से उड़ान भर रहा है चारों ओर असीम आकाश है किसी खूंटे से बंधा नहीं है।

लेकिन वे जिनके विचार सीमित है वे भयभीत और संकल्पहीन हैं
जितनी तीव्रता से वे शीघ्रता करते हैं उतना ही वे धीमे जाते है
और पकड सीमित नहीं हो सकती.

और स्मरण रहे जब भी तुम पकड़े रहते हो वह पकड़ ही समस्या है प्रश्न यह नहीं है कि तुम किसको पकड़े हो। इसलिए सोसान कहता है ' पकड़ की कोई सीमा नहीं ' - यह पकड़ इस संसार इस शरीर इन इंद्रियों इन मजों तक ही सीमित नहीं है। तुम्हारी पकड़ बुद्धत्व पर हो सकती है परमात्मा पर हो सकती है। तुम्हारी पकड़ प्रेम पर हो सकती है ध्यान और प्रार्थना पर हो सकती है। और पकड़ कर तुम अटक गए।
किसी को भी पकड़ो मत मुक्त और गतिमान बने रहो। जितना अधिक गतिमान उतना ही अधिक तुम स्वयं के निकट हो। जब तुम पूर्ण रूप से गतिमान हो तुम्हारी ऊर्जा कहीं अटकी नहीं है सत्य तुम्हारे द्वार पर दस्तक देता है। वह सदा से ही दस्तक दे रहा है लेकिन तुम अटके हुए थे और तुम सुन नहीं पाए। वह ठीक तुम्हारे सामने है ठीक तुम्हारे नासाग्र भाग पर।


संबोधि के विचार से आसक्त हो जाना भी भटक जाना है।

फिर वह समस्या बन जाता है। अगर तुम बहुत आसक्त हो जाते हो कि ' मुझे बुद्धत्व को प्राप्त करना ही है ' - तब यह भी तुम्हारी समस्या बन जाएगी। बुद्धत्व को कभी प्राप्त नहीं किया जाता है, वह घटित होता है। वह उपलब्धि नहीं है, और प्राप्त करने वाला मन उसे कभी उपलब्ध नहीं कर सकता है।
हो सकता है तुम इस संसार में शक्ति प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे होओ, फिर तुम उस संसार में शक्ति प्राप्त करने का प्रयत्न करना शुरू कर देते हो। पहले तुम इस संसार में धन पाना चाहते हो, फिर तुम उस जगत में धन पाने की चेष्टा करते हों-लेकिन तुम वही बने रहते हो, और मन और काम करने की प्रक्रिया और सारी योजना वही बनी रहती है। पाओ! पहुंचो! - यह अहंकार की यात्रा है। उपलब्धि को चाहने वाला मन ही अहंकार है। और जो पहुंचता है वह वही है जो उपलब्धि की चेष्टा नहीं कर रहा है जो बस प्रसन्न है जहां भी है जो बस आनंदित है जैसा भी वह है। उसका कोई लक्ष्य नहीं है। वह कहीं जा नहीं रहा है। वह चलता है लेकिन उसका चलना किसी लक्ष्य के लिए नहीं है। वह चलता है अपनी ऊर्जा के कारण, किसी लक्ष्य के लिए नहीं- उसका चलना किसी उद्देश्य से प्रेरित नहीं है।
निस्संदेह वह लक्ष्य पर पहुंच जाता है- वह दूसरी बात है, एक अलग मामला है। एक नदी हिमालय से निकलती है, वह सागर की ओर नहीं जा रही है उसे सागर का कुछ पता नहीं कि वह कहां है उसे सागर से कुछ लेना-देना नहीं है। हिमालय में गति करने का गीत इतना सुंदर है घाटियों से गुजरना चोटियों से बह कर पेड़ों से गुजरना फिर मैदानों में आना लोगों के पास.. यही गति सुंदर है। और हर क्षण यह गति सुंदर है क्योंकि यह जीवन है।
नदी को पता भी नहीं कि मंजिल है या सागर है उससे कोई संबंध नहीं हैं। अगर नदी इस बात का खयाल करने लगे तो तुम्हारी तरह झंझट में पड जाएगी। फिर वह सब जगह रुक कर पूछेगी कि कहा जाना है ' कौन सा ठीक मार्ग है?' और फिर उसे डर होगा कि उत्तर या दक्षिण पूरब या पश्चिम- कौन सी दिशा से वह पहुंच पाएगी- कहां जाए? और स्मरण रहे, सागर सब तरफ है। चाहे तुम उत्तर या पूरब या पश्चिम जाओ इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता है। सागर सब जगह है चारों ओर सागर है। वह सदा तुम्हारे सामने है तुम कहीं भी जाओ इससे कोई अंतर नहीं पड़ता।
मार्ग मत पूछो पूछो कैसे और गतिमान होना है। लक्ष्य के लिए मत पूछो वह कहीं निर्धारित नहीं है। जहां भी तुम जाते हो, नाचते हुए जाओ। तुम सागर तक पहुंच जाओगे- वह घटित हो जाता है। वह छोटी नदियों के साथ घटित होता है बड़ी नदियों के साथ घटित होता है वे सभी पहुंच जाती हैं। एक छोटी सी जलधारा- तुम सोच भी नहीं सकते कि यह छोटी सी जलधारा कैसे सागर तक पहुंच पाएगी लेकिन यह पहुंचेगी।
छोटे या बड़े की समस्या नहीं है। अस्तित्व की सब पर असीम कृपा है; छोटे या बड़े होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। छोटे पेड़ों पर फूल लगते हैं बड़े पेड़ों पर फूल लगते हैं। फूल लगने की बात है! और जब किसी छोटे पेड़ पर फूल आते हैं तो वह किसी बड़े पुष्पित वृक्ष से कम प्रसन्न नहीं होता प्रसन्नता वैसी ही होती है। प्रसन्नता का संबंध माप से नहीं होता, यह मात्रा का प्रश्न नहीं है। यह तुम्हारे होने की गुणवत्ता है। एक छोटी सी नदी भी नाचती है और पहुंच जाती है बड़ी नदी भी नाचती है और पहुंच जाती है।
तुम सब नदियों की भांति हो तुम सब सागर तक पहुंच जाओगे। लेकिन उसे लक्ष्य मत बनाओ नहीं तो वरना जितना तीव्र गति से जाओगे उतनी ही तुम्हारी गति मंद होगी। और जितना तुम पहुंचना चाहते हो उतना ही तुम अटक जाते हो, क्योंकि तुम और अधिक भयभीत हो जाते हो। लक्ष्य को चूक जाने का भय तुम्हें पकड़ लेता है न पहुंचने का भय तुम्हें अपंग कर देता है गलत हो जाने का भय तुम्हें अशक्त कर देता है। अगर कोई लक्ष्य नहीं है तो कोई भय नहीं है।
याद रखो, भय लक्ष्य निर्धारण के कारण है। अगर तुम कहीं जा नहीं रहे तो क्या भय? तुम चूक नहीं सकते तुम विफल नहीं हो सकते, इसलिए कैसा भय? भय का अर्थ है, असफल होने की संभावना। यह असफल होने की संभावना कहां से प्रवेश कर जाती है? यह लक्ष्य निर्धारण के रास्ते से प्रविष्ट होती है- तुम्हारी दृष्टि सदा लक्ष्य पर लगी है।
लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं ' हम तीन महीने से ध्यान कर रहे हैं। कुछ भी नहीं हुआ।कुछ होने वाला नहीं क्योंकि तुम उसकी प्रतीक्षा कर रहे हो। तुम घटना की प्रतीक्षा भी नहीं कर सकते क्योंकि प्रतीक्षा करना भी एक तरिक चेष्टा बन जाती है। तुम देख रहे हो...
तुम विश्राम में जाओ। जब तुम वहां मौजूद नहीं होते वह घटना घट जाती है। वह तुम्हें कभी नहीं होगी वह केवल तभी होगी जब नौका खाली है जब घर खाली है। जब तुम नृत्य करते हो लेकिन कोई नर्तक वहां नहीं होता जब तुम देखते हो लेकिन कोई देखने वाला वहां नहीं होता जब तुम प्रेम करते हो और प्रेम करने वाला कोई वहां नहीं होता वह घटित होता है। जब तुम चलते हो और भीतर चलने वाला कोई नहीं होता वह घटना घटती है।
प्रतीक्षा मत करो, कोई चेष्टा मत करो, लक्ष्य निर्धारित मत करो बुद्धत्व भी बंधन बन जाएगा। पूरब में बहुत से लोगों के साथ ऐसा हुआ है। लाखों लोग संन्यास लेते हैं- वे बौद्ध भिक्षु बन जाते हैं हिंदू संन्यासी बन जाते हैं- वे मठों में चले जाते हैं और वे वहीं अटक जाते हैं।
वे मेरे पास आते हैं और वे संसार के दूसरे लोगों जैसे ही हैं। कोई बाजार में अटका है, और वे मठ में अटके हैं, बस इतना ही फर्क है। कोई बाजार में असफल है, वे मठ में असफल हैं। लेकिन वे कभी नहीं देखते। तुम असफल क्यों हो? तुमने खुद ही अपनी असफलता को बनाया है अगर तुम लक्ष्य की आकांक्षा करते हो तो तुम असफल होओगे। परमात्मा में लक्ष्य को निर्धारित करने वाला मन एक बाधा है सबसे बड़ी बाधा है। तुम सिर्फ होओ परमात्मा आएगा! इसे परमात्मा का निर्णय और समस्या रहने दो तुम्हारी नहीं। तुम उस पर छोड़ दो वह ज्यादा जानता है। इसे परमात्मा की समस्या रहने दो, उसे इसकी चिंता करने दो। तुम चिंता मत करो- तुम जीवन का आनंद लो जैसे चलता है, जब तक चलता है। तुम नार्चो और गाओ और आनंद मनाओ और परमात्मा को चिंता
करने दो। तुम क्यों चिंता करते हो?
तुम बस निश्चित हो जाओ। और उपलब्ध करने वाले मत बनो, क्योंकि उपलब्ध करने वाले का मतलब ही है, इतना अधिक तनाव पैदा कर लेना जितना आदमी का मन कर सकता है। फिर तुम यहीं और अभी नहीं देख सकते हो फिर तुम दूर, बहुत दूर भविष्य में देख रहे हो लक्ष्य तो वहां है तुम्हारी कल्पना का आदर्श राज्य, स्वर्ण-नगरी, शंबाला तो वहां हैं। और तुम्हें पहुंचना ही है, इसलिए तुम दौड़ते हो। तुम कहां जा रहे हो? तुम किससे भाग रहे हो? तुम किसके लिए भाग रहे हो? बाला यहीं और अभी है, तुम्हारी कल्पना का आदर्श राज्य पहले से ही घटित हो चुका है।
जीसस ने अपने शिष्यों से कहा था ' तुम किसकी प्रतीक्षा कर रहे हो? मैं तो यहां हूं।बल्कि उसके शिष्य भी पूछ रहे थे ' मसीहा कब आएगा? कब?' क्योंकि यहूदी शताब्दियों से मसीहा के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे और जब वह आया, वे उसका स्वागत करने को तैयार नहीं थे। वे अब भी प्रतीक्षा कर रहे हैं। और जीसस आ चुके हैं और वे अब भी प्रतीक्षा कर रहे हैं। और जब जीसस भी वहां नहीं थे तब कई अन्य जीसस वहां थे और वे सदा आते रहे हैं।
परमात्मा सदा अभिव्यक्त होता रहा है। कभी वह मोहम्मद है, कभी वह जीसस है कभी वह बुद्ध है कभी वह सोसान है नागर है। वह लबालब भरा है, वह छलक रहा है वह लगातार अतिरेक में है वह इस बारे में कुछ नहीं कर सकता। वह कृपण नहीं है। लेकिन ईसाई कहते हैं उसका एक ही बेटा है। क्या वह नपुंसक है? क्या वह जीसस के जन्म के पश्चात नपुंसक हो गया? यह बात असंगत प्रतीत होती है- केवल वही इकलोता पुत्र। ऐसा संभव नहीं है नहीं तो तुम्हारा परमेश्वर ईश्वर नहीं है- उसका कोई मूल्य नहीं।
मुसलमान कहते हैं कि एक ही पैगंबर है। मोहम्मद अंतिम हैं अंतिम पैगंबर। अंतिम क्यों? क्या तुम्हारा ईश्वर मर गया है? क्या वह उससे अच्छा कोई संदेश नहीं भेज सकता? क्या वह सुधार नहीं कर सकता? क्या वह अब सष्टा नहीं रहा? क्योंकि सृजनात्मकता का सदा यही अर्थ है स्वयं से श्रेष्ठ होते रहना, सदा अपने से आगे बढ़ना। एक चित्रकार चित्र बनाता चला जाता है और हमेशा अपने से आगे बढ़ता रहता है।
किसी ने वानगॉग से पूछा तुम्हारा चित्रों में से कौन सा चित्र सबसे अच्छा है?
उसने कहा वह जो मैं अभी बना रहा हूं।
कुछ दिनों के पश्चात उसने फिर पूछा। वानगॉग ने कहा मैंने तुम्हें बताया है। यह!
और वह कोई और चित्र बना रहा था।यह जो मैं अब बना रहा हूं सबसे अच्छा है।
परमात्मा अतिरेक है अनंत अतिरेक है। जब मोहम्मद आते हैं, मोहम्मद सर्वोत्तम हैं; जब बुद्ध आते हैं बुद्ध सर्वश्रेष्ठ हैं। वास्तव में, वह कभी कुछ दूसरी बार नहीं बनाता। वह हमेशा सर्वश्रेष्ठ, अतुलनीय का सृजन करता है।
लेकिन लोग प्रतीक्षा करते रहते हैं। वे द्वार पर खड़े संदेशवाहक को चूक जाते हैं क्योंकि उनकी नजर वहां नहीं है उनकी आंखें उनकी कल्पना के किसी आदर्श राज्य को ढूंढ रही हैं कहीं और। वे वहां नहीं हैं वै घर पर नहीं हैं। परमात्मा कई बार तुम्हारे पास आता है और वह लौट जाता है क्योंकि तुम वहां नहीं होते। तुम वहां कभी नहीं होते जहां तुम हो। और वह वहां दस्तक देता है लेकिन तुम वहां नहीं होते।
उसे इसकी चिंता करने दो तुम चिंता मत करो- तुम बस शांत रहो। और यही दो स्थितियां हैं या तो तुम चिंतित हो या आनंदित हो और ये दोनों एक साथ नहीं हो सकतीं। अगर तुम प्रसन्न हो तो पागलों की तरह प्रसन्न हो। अगर तुम चिंतित हो तो पागलों की तरह चिंतित हो। पागल दो तरह के होते हैं एक पागलपन जो चिंता से आता है और एक पागलपन जो होने से होने के अतिरेक से आता है।
चुनाव तुम्हारा है। या तो तुम चिंतित पागल की तरह किसी मनोचिकित्सक के सोफे पर होओगे या तुम परमात्मा के पागल हो सकते हो किसी सेंट फ्रांसिस या सोसान की तरह। तब तुम्हारा सारा जीवन एक नृत्य हो जाता है, एक असीम आनंद, एक सतत आशीर्वाद हो जाता है और वह बढ़ता जाता है बढ़ता जाता है, बढ़ता ही चला जाता है। उसका कोई अंत नहीं है। यह आरंभ होता है लेकिन इसका अंत कभी नहीं होता।

बस वस्तुओं को अपने ढंग से होने दो
और फिर न आना होगा, न जाना।

असीम कृपा है न आना न जाना। अनंत मौन; न आना, न जाना। लेकिन सिर्फ चीजों को अपने ही ढंग से होने दो- तुम बीच में मत आओ, तुम कुछ भी बदलने का प्रयास मत करो।
इस बात को समझना मन के लिए बहुत कठिन है क्योंकि मन का परिवर्तन में रस है अगर तुम पापी हो तो कैसे पुण्यात्मा बनो अगर तुम बदसूरत हो, तो कैसे खूबसूरत बनो अगर तुम बुरे हो तो कैसे अच्छे बनो।
मन बदलता रहता है बदलने का प्रयत्न कर रहा है और मन अच्छा लगता है क्योंकि ऐसा लगता है ' हां तुम बेहतर हो सकते हो इसलिए बदलने की चेष्टा करो।और फिर तुम बेहतर नहीं हो सकते फिर तुम अटक गए- क्योंकि तुम पहले ही बेहतर हो! बात सिर्फ इतनी है कि चिंता करना कैसे छोड़े और जीना शुरू करें। ऐसे व्यक्ति बनो जो जीवंत हो बस चीजों को अपने ढंग से होने दो।
स्वीकार करो! चिंता करने वाले तुम कौन होते हो? तुम पैदा हुए- तुमसे किसी ने नहीं पूछा कि तुम पैदा होना चाहते थे या नहीं। नहीं तो तुम वहीं रुक गए होते, क्योंकि तुम किसी बात का निर्णय नहीं कर सकते। तुम अनिश्चय में हो।

लक्ष्य के लिए प्रयास न करो

अगर तुमसे पूछा गया होता, अगर वहां परमात्मा होता तुमसे पूछने के लिए- उसने वह गलती कभी नहीं की क्योंकि वह जानता है कि तुम वहीं अटक जाओगे- अनंतकाल तक तुम यह निर्णय ही नहीं कर पाओगे कि तुम जन्म लो या न लो। उसने तुम्हारी अनुमति लिए बिना ही तुम्हें अचानक संसार में फेंक दिया। अन्यथा तुम यहां न होते। और अगर वह फिर तुम्हारी मृत्यु के बारे में पूछे, तुम अटक जाओगे। वह कभी नहीं पूछता वह सिर्फ तुम्हें ले जाता है। वह तुम्हें भलीभांति जानता है तुम फैसला नहीं कर सकते।
अगर वह आए और पूछे, ' तुम कब मरना चाहते हो?' क्या तुम निर्णय कर पाओगे? शनिवार की सुबह? रविवार? नहीं! केवल सात ही दिन हैं तुम निर्णय नहीं कर पाओगे। उसे तुम से पूछे बिना ही आना पड़ता है।
जब जीवन तुम्हारे बिना ही होता है- जन्म होता है मृत्यु घटती है प्रेम होता है बिना तुम्हारे- फिर तुम्हें चिंता करने की क्या आवश्यकता है? स्रोत कोई भी हो, अगर वह तुम्हें जन्म दे सकता है अगर वह तुम्हें मृत्यु दे सकता है अगर वह तुम्हारा सृजन और विनाश कर सकता है, फिर सारी चिंताएं उसे करने दो। तुम जब तक हो, आनंद मनाओ। और अगर तुम जब तक हो आनंद ले सकते हो तो अचानक तुम्हें पता चलता है यह है स्रोत। तुमने अनंत जीवन को छू लिया है।
जीसस कहते हैं ' मैं यहां तुम्हें भरपूर जीवन सिखाने को हूं, असीम समृद्ध।और इसका उपाय है बस चीजों को होने दो। तुम बीच में मत आओ तुम अपने ढंग से बीच में न आओ। अपने ताओ को प्रवाहित होने दो तुम्हारी प्रकृति को गति करने दो जहां भी यह जाती है।

वस्तुओं के स्वभाव (तुम्हारे अपने स्वभाव) के अनुसार चलो;
और तुम मुक्त भाव से और अविचलित रह कर चलोगे।
जब विचार बंधन में होता है सत्य छिपा रहता है
क्योंकि सभी कुछ धुंधला और अस्पष्ट होता है
और निर्णय करने का बोझिल अभ्यास कष्ट और थकान लाता है।
भेदभावों और विभाजनों से क्या लाभ हो सकता है?

जब तुम विचारों से भरे हो तुम्हारा मन धुंधला हो जाता है तुम्हारी दृष्टि स्वच्छ नहीं होती। लेकिन क्या किया जाए? विचार वहां हैं। उन्हें वहां होने दो। तुम निश्चित रहो। उन्हें वहां रहने दो- तुम उनमें मत उलझो। वे अपने आप से चलते रहते हैं, उन्हें चलते रहने दो। तुम उनमें क्यों उलझो और क्यों उन्हें परेशान करो? वे जलधारा की तरह बहते हैं- उन्हें बहने दो। तुम किनारे पर बैठ जाओ और विश्राम करो।
तुम अपने विचारों से कहो, ' ठीक है, अगर आकाश में बादल हैं और धरती पर वृक्ष और नदियां और सागर हैं तब मन में विचार क्यों न हों?' उन्हें स्वीकार करो! ठीक है! अगर तुम स्वीकार करते हो और कहते हो, ठीक है तो तुम अचानक एक परिवर्तन अनुभव करोगे क्योंकि उन्हें गति करने के लिए तुम्हारी ऊर्जा चाहिए।
अगर तुम उनके प्रति उदासीन हो तो धीरे- धीरे ऊर्जा स्वयं ही पीछे हट जाती है। वे और-और कम होते चले जाते हैं। फिर एक घड़ी आती है जब विचार केवल तभी आते हैं जब उनकी आवश्यकता होती है। विचार कोई बोझ नहीं हैं। अनावश्यक विचार बोझ हैं वे तुम्हारी दृष्टि को धुंधला कर देते हैं। धुंधलापन अनावश्यक विचारों के कारण आ जाता है। जब तुम चलना चाहते हो तुम अपनी टांगों का इस्तेमाल करते हो जब तुम सोचना चाहते हो तुम अपने विचारों का उपयोग करते हो जब तुम कुछ संवाद करना चाहते हो तुम अपने मन का उपयोग करते हो। लेकिन जब तुम पेड़ के नीचे बैठे हो तो अपनी टांगों को क्यों हिलाते हो? तुम पागल लगोगे। लेकिन तुम्हारा मन चलता रहता है।
मन एक क्रियाकलाप है और क्रियाकलाप उचित समय पर ही उपयोगी है। जब उसकी जरूरत होती है मन कार्य करना शुरू कर देता है। मैं तुम से बात कर रहा हूं मन कार्य कर रहा है वरना मैं तुमसे कैसे बात कर सकता हूं? सोसान कुछ कह रहा है अगर मन न हो तो वह कैसे कह सकता है? लेकिन जैसे ही मैंने बात करना समाप्त किया क्रिया बंद हो गई तब वहां मन नहीं है- ऐसे जैसे कि टाँगें नहीं हैं क्योंकि जब वे चल नहीं रहीं हैं तो वे नहीं हैं।
जब तुम्हें भूख लगती है तुम खाते हो। जब तुम कुछ संवाद करना चाहते हो तुम विचारों का उपयोग करते हो। जब तुम्हें भूख नहीं होती तुम खाते नहीं रहते। लेकिन ऐसे लोग हैं जो च्यूइंगम चबाते रहते हैं, जो सिगरेट पीते रहते हैं ये च्यूइंगम और सिगरेट भोजन के परिपूरक हैं। वे निरंतर खाते रहना चाहते हैं लेकिन यह असंभव है क्योंकि शरीर यह सहन नहीं कर पाएगा इसलिए उन्हें अपने मुंह के साथ कुछ करना पड़ता है। वे ज्यूइंगम खाएंगे पान चबाएंगे, सिगरेट पीएंगे या कुछ करेंगे!
या, अगर वे कुछ न कर पाएं- उदाहरण के लिए, अतीत में सारी दुनिया में औरतों को उन मुड़ता को करने की इजाजत नहीं थी जो पुरुषों को करने दी जाती हैं। उन्हें धूम्रपान करने की अनुमति न थी, उन्हें ज्यूइंगम या वैसी चीजें चबाने की अनुमति न थी; वे चीजें गरिमापूर्ण नहीं थीं। फिर वे क्या करती थीं? उन्होंने बातें करना शुरू कर दिया। इसीलिए लड़कियां ज्यादा बातें करती हैं क्योंकि किसी परिपूरक की जरूरत है। मुंह को हमेशा चलते रहना चाहिए वे बोलना शुरू कर देती हैं।
तुम कभी ऐसा नहीं पाओगे कि दो महिलाएं बैठी हों और एक-दूसरे से बात न कर रही हों- अगर वे अंग्रेज महिलाएं न हों जो कि महिलाएं बिलकुल नहीं होतीं। उनमें बहुत कुछ दमित है वे जिंदा लाश के समान हो गई हैं। अन्यथा महिलाएं निरंतर बोलती रहती हैं; पेड़ों पर पक्षियों की भांति वे लगातार बोलती रहती हैं। अभी उस दिन यहां कुछ महिलाएं बगीचे में काम कर रही थीं। सारा दिन वे बातें करती रहीं- पूरा दिन! वे बातें उपयोगी हो नहीं सकतीं क्योंकि वहां कुछ है नहीं, लेकिन वे लगातार बोलती रहीं-मुंह केवल लगातार खाते रहना चाहता है।
तुम थियेटर में बैठे लोगों को देखते हो। वे लगातार टांगे हिलाते रहते हैं। वे वहां क्यों बैठे हैं? उन्हें बाहर जाकर सैर करनी चाहिए। वे दोनों ही कर रहे हैं। वे शांत बैठ ही नहीं सकते। और यही तुम्हारे मन के साथ हो रहा है।
मन अपने में अच्छा है। हर चीज अपने आप में अपनी जगह पर अच्छी है। फिर हर चीज उचित होती है। जब सब चीजें अपनी जगह हैं तो जूता बिलकुल ठीक फिट हो जाता है। जब मन की आवश्यकता हो, इस्तेमाल करो जब उसकी आवश्यकता न हो, उसे एक तरफ रख दो। तुम मालिक बने रहो और सभी कुछ एक किया-कलाप है।
लेकिन मन ने कब्जा कर लिया है। तुम जो कुछ भी कर रहे हो यह चलता ही रहता है-जैसे कि तुम रेडियो बंद ही नहीं कर सकते उसका बटन ही टूट गया है। वह बजता ही रहता है। तुम सो रहे हो और रेडियो बजता ही चला जाता है। तुम विश्राम कर रहे हो भोजन कर रहे हो, प्रेम कर रहे हो, और रेडियो बजता जा रहा है। और तुम्हें लगातार उसे सहन करना पड़ता है। धीरे- धीरे तुम यह भूल ही जाते हो कि रेडियो बजता रहता है तुम सुनते ही नहीं।
यही तुम्हारे मन के साथ भी हुआ है। वह चलता रहता है, चलता ही रहता है तुम्हें
पता नहीं है कि उसे बंद करने का बटन कहां है, जिसे घुमा दो। इसलिए तुम सुनते ही नहीं
तुम सिर्फ सहन कर लेते हो उसकी उपेक्षा कर देते हो। तुमने मान ही लिया है जैसे कि यह
ऐसा ही होता रहने वाला है।
यह ऐसा नहीं है अन्यथा कोई बुद्ध नहीं हो सकता। और जब मैं यह कहता हूं तो
यह मैं अपने अनुभव से कहता हूं ऐसा नहीं है। बटन बदला जा सकता है। सभी ध्यान-
विधियां यही तो करती हैं। वे तुम्हें संबोधि की ओर नहीं ले जातीं, वे केवल एक बटन
बदल देती हैं जो वहां नहीं है या टूट गया है या अटक गया है या यह अभी भी वहीं है
लेकिन तुम जानते नहीं कि उसका उपयोग कैसे किया जाए।
ध्यान एक विधि है और विधि किसी क्रियाकलाप को कुछ सहायता दे सकती है,
तुम्हारे होने को नहीं। इसलिए कोई ध्यान तुण्डें सीधा तुम्हारी अंतर-सत्ता तक नहीं ले जाता,
वह केवल तुम्हारी क्रियाकलापों को ठीक करता है, जूता पैर में ठीक बैठ जाता है और तुम
बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाते हो।
नांगर ठीक कहता है जब जूता पैर में ठीक बैठ जाता है पैर भूल जाता है। जब
प्रत्येक क्रियाकलाप ठीक से चलता है, शरीर भूल जाता है; जब प्रत्येक क्रिया उचित ढंग
से होने लगती है आभासों का यह संसार मिट जाता है। तुम बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाते
हो! अचानक सभी कुछ जैसा है वैसा ही आलोकित हो जाता है।

अगर तुम उस एक ' पथ ' पर चलना चाहते हो,
तो इंद्रियों और विचारों के जगत से भी घृणा मत करो।

यह सुंदर है! वह कहता है 'इंद्रियों और विचारों के जगत से भी घृणा मत करो।' दो प्रकार के लोग होते हैं। एक प्रकार के लोग अपनी इंद्रियों से लड़ते रहते हैं शरीर की हत्या कैसे कर दें शरीर के माध्यम से कैसे सुखों को न भोगें, प्रेम में न पड़े, भोजन का स्वाद न लें। वे अपनी इंद्रियों से लड़ते रहते हैं बहुत बड़े तपस्वी बन जाते हैं। मूल रूप से वे आत्मपीड़क हैं, वे स्वयं को अपंग बनाने का मजा लेते हैं। लेकिन समाज उन्हें आदर देता है और यह आदर उनका लोभ बन जाता है।
उन्हें महान व्यक्ति समझा जाता है क्योंकि उन्हें अपनी इंद्रियों की कोई परवाह नहीं है। और वे महान नहीं हो सकते हैं क्योंकि इंद्रियां उस असीम से मिलन का द्वार हैं जिसने तुम्हें चारों ओर से घेरा हुआ है। इंद्रियां द्वार हैं उन्हीं द्वारों से असीम तुममें प्रवेश करता है और तुम असीम में प्रवेश करते हो।
वे अपने द्वार बंद करते चले जाते हैं। फिर उनके घर, उनके शरीर काराग्रह बन जाते हैं और वे कष्ट पाते हैं। और जितना अधिक वे कष्ट पाते हैं उतना ही उन्हें आदर मिलता है और उन्हें पूजा जाता है क्योंकि लोग सोचते हैं कि उन्होंने कुछ चमत्कार कर दिखाया है, वे शरीर के पार उठ गए हैं।
शरीर से पार जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। बात केवल इतनी है शरीर अपना कार्य ठीक ढंग से करे पर्णू रूप से करे। वह एक कला है तपश्चर्या नहीं है। वह तपस्या नहीं है, तुम्हें उससे लड़ना नहीं है तुम्हें केवल उसे समझना है। और शरीर बहुत बुद्धिमान है तुम्हारे मन से अधिक स्मरण रहे क्योंकि शरीर मन से बहुत पहले अस्तित्व में आया। मन का आगमन नई घटना है मन अभी बच्चा है।
शरीर बहुत पुराना है बहुत-बहुत पुरातन। क्योंकि कभी तुम चट्टान के रूप में रहे शरीर तब भी था मन गहरी नींद में था। फिर तुम वृक्ष हो गए, शरीर था, अपनी सारी हरियाली और फूलों सहित। तब भी मन गहरी नींद में था, उतनी गहरी नींद में नहीं जितना चट्टान में था लेकिन अब भी सोया हुआ था। तुम एक पशु हो गए एक शेर शरीर बहुत सजीव और ऊर्जावान था लेकिन मन कार्य नहीं कर रहा था। तुम पक्षी हो गए तुम मनुष्य बन गए... शरीर लाखों वर्षों से काम कर रहा है।
शरीर ने कहीं अधिक बुद्धिमत्ता संगृहीत कर ली है शरीर बहुत बुद्धिमान है। इसलिए अगर तुम बहुत खाते हो तो शरीर कहता है ' बस करो!' मन इतना बुद्धिमान नहीं है। मन कहता है, ' स्वाद बहुत अच्छा है- थोड़ा सा और।और अगर तुम मन की सुनते हो तो वह इस तरह से या उस तरह से शरीर के लिए विनाशकारी हो जाता है। अगर तुम मन की सुनो तो पहले कहेगा ' खाते जाओ।क्योंकि मन मूर्ख है बच्चा है उसे नहीं मालूम कि वह क्या कह रहा है। वह नया-नया आया है उसने कुछ सीखा नहीं है। वह बुद्धिमान नहीं है वह अभी भी मूर्ख है। शरीर की सुनो। जब शरीर कहता है ' भूख लगी है तब खाओ। जब शरीर कहे ' रुक जाओ तब रुक जाओ।
अगर तुम मन की सुनते हो तो ऐसा होगा जैसे कि एक बच्चा बूढ़े का मार्ग-दर्शन कर रहा हो- वे दोनों गड्डे में गिरेंगे। और अगर तुम मन की सुनते हो तो पहले तुम बहुत ही इंद्रियों के अधीन हो जाओगे और फिर ऊब जाओगे। प्रत्येक इंद्रिय तुम्हारे लिए दुख लाएगी, और प्रत्येक इंद्रिय तुम्हारे लिए और अधिक चिंता, संघर्ष, पीड़ा लाएगी।
अगर तुम अत्यधिक भोजन कर लेते हो तो पीड़ा होगी उलटियां हो जाएंगी सारा शरीर गड़बड़ा जाएगा। फिर मन कहता है 'भोजन करना बुरा है इसलिए उपवास रखो।और उपवास भी हानिकारक है। अगर तुम शरीर की सुनते हो तो वह कभी ज्यादा नहीं खाएगा, वह कम भी नहीं खाएगा- वह ताओ का अनुसरण करेगा।
कुछ वैज्ञानिक इस समस्या पर काम करते रहे हैं और उन्होंने एक बहुत ही सुंदर घटना खोजी है छोटे बच्चे तभी खाते हैं जब उन्हें भूख लगती है, वे तभी सोते हैं जब उन्हें महसूस होता है कि नींद आ रही है- वे अपने शरीर की सुनते हैं। लेकिन माता-पिता उन्हें तंग करते हैं, वे जबरदस्ती करते हैं यह रात्रि- भोजन का समय है, यह दोपहर के भोजन का समय है, या यह और वह या सोने का समय है- जाओ! वे उन्हें शरीर की बात सुनने नहीं देते।
इसलिए एक प्रयोगकर्ता ने यह प्रयत्न किया कि बच्चों को उन पर ही छोड़ दिया जाए। उसने पच्चीस बच्चों के साथ कार्य किया। उनके साथ कोई जबरदस्ती नहीं की गई कि वे कब सोएं, उन पर कोई जोर जबरदस्ती नहीं की गई कि वे कब जागें। छह महीने उनसे बलपूर्वक कुछ भी नहीं करवाया गया। और एक बहुत गहरी समझ आई।
वे अच्छी तरह सोए। उन्होंने कम सपने देखे, कोई दुःस्वप्न नहीं आए, क्योंकि दुःस्वप्न उन माता-पिता के कारण आ रहे थे जो उनसे जबरदस्ती कर रहे थे। उन्होंने अच्छे से भोजन किया लेकिन कभी अधिक नहीं खाया- जितना चाहिए उससे कम भी नहीं खाया, उससे ज्यादा भी नहीं खाया। उन्होंने भोजन का आनंद लिया और कभी-कभी उन्होंने कुछ भी नहीं खाया। जब शरीर नहीं चाह रहा था, उन्होंने कुछ नहीं खाया, और भोजन की वजह से वे कभी बीमार नहीं हुए।
और एक बात जिसके बारे में कभी कोई संदेह नहीं हुआ था वह भी समझ आई और वह चमत्कारपूर्ण थी। केवल सोसान या लाओत्सु या नागर समझ सकते हैं क्योंकि वे ताओ के सदगुरु हैं। वह गजब की खोज थी। उन्हें यह बात समझ आई कि अगर कोई बच्चा बीमार होता, तो वह किसी विशेष प्रकार का भोजन नहीं करता था। फिर उन्होंने यह समझने की चेष्टा की कि वे उन भोज्य पदार्थों को क्यों नहीं खाता। उन भोज्य पदार्थों का विश्लेषण किया गया और पता चला कि वे भोज्य पदार्थ उस रोग के लिए खतरनाक हैं। बच्चा यह निर्णय कैसे करता था? बस, केवल शरीर।
और जब बच्चा विकसित हो रहा था उसके विकास के लिए जो भी आवश्यक था वह उसे अधिक खा रहा था। तब उन्होंने विश्लेषण किया और पाया कि भोजन के वे पदार्थ उपयोगी थे। और भोजन बदल जाता क्योंकि जरूरतें बदल जातीं। किसी दिन बच्चा कुछ खाता और वही बच्चा दूसरे दिन उसे न खाता। और वैज्ञानिकों को पता लगा कि एक देह की बुद्धिमत्ता होती है।
अगर तुम शरीर को अपनी सुनने देते हो तो तुम ठीक राह पर महापथ पर हो। और ऐसा केवल भोजन के साथ ही नहीं है, पूरे जीवन के साथ है। तुम्हारी कामवासना मन के कारण गलत हो जाती है तुम्हारा पेट मन के कारण खराब हो जाता है। तुम शरीर के कामों में हस्तक्षेप करते हो। हस्तक्षेप मत करो! अगर तुम ऐसा तीन महीने भी कर सको, हस्तक्षेप मत करो। और अचानक तुम स्वस्थ हो जाओगे और एक अच्छापन तुम पर अवतरित होगा सभी कुछ अच्छा लगता है जूता ठीक बैठ जाता है। लेकिन मन ही समस्या है।
मन का अपना काम है वह है दूसरों के साथ कैसे संबंधित होना है संसार में कैसे व्यवहार करना जहां इतने सारे लोग रह रहे हों, कार कैसे चलानी है, यातायात के नियमों का कैसे पालन करना है दूसरों के लिए या अपने लिए कैसे खतरा पैदा नहीं करना है कैसे आगे देखना है और योजनाएं बनानी हैं। मन ठीक राडार की भांति है, वह आगे देखता है-कहां जाना है कैसे जाना है- लेकिन आधार शरीर ही बना रहता है।
जो लोग शरीर के विरोध में हैं और अपनी इंद्रियों को पंगु बना देते हैं। उनको बुद्धत्व प्राप्त करने में उन लोगों से अधिक समय लग जाता है जो अपनी इंद्रियों की सुनते हैं और उनकी सलाह को मान कर चलते हैं।
अगर तुम इंद्रियों की सुनते हो तो तुम सरल हो जाते हो। निस्संदेह तुम्हें कोई आदर नहीं देने वाला बल्कि वे लोग कहेंगे यह व्यक्ति विषयासक्त है भोगविलासी है। और एक भोगी व्यक्ति त्यागी से अधिक जीवंत होता है। लेकिन जीवन में किसी को रुचि नहीं है सब मृत वस्तु की पूजा करना पसंद करते हैं।
लोगों से आदर मत मांगो अन्यथा तुम मार्ग से भटक जाओगे। और एक घड़ी आती है जब हर कोई तुम्हारा आदर कर सकता है लेकिन तुम स्वयं का आदर नहीं कर पाते क्योंकि तुम पूरी तरह से भटक गए हो। कुछ भी ठीक नहीं बैठता, सभी कुछ गलत ह जाता है।
शरीर की सुनो- क्योंकि यह पल जो तुम्हें दिया गया है, जो आशीषपूर्ण है, जो सुंदर पल तुम पर घटित हुआ है तुम उसका आनंद उठाने के लिए यहां हो। तुम जीवंत हो, चेतन हो और यह संसार इतना विस्तृत है।
इस छोटे से ग्रह पर मानव जीवन एक चमत्कार है- छोटा सा, बहुत छोटा सा ग्रह! सूर्य इस धरती से साठ हजार गुना बड़ा है, और यह सूर्य मध्यम आकार का है। और इस सूर्य से लाखों गुना बड़े सूर्य हैं और लाखों सूर्य और लाखों जगत और लाखों ब्रह्मांड हैं। और अभी तक ऐसा लगता है- जहां तक विज्ञान पहुंचता है- कि जीवन और चेतना केवल इसी धरती पर घटित हुए हैं। यह धरती धन्य है।
तुम्हें पता नहीं है कि तुम्हें क्या उपलब्ध है। अगर तुम्हें अनुभव हो कि तुमने क्या पाया है तो तुम सिर्फ कृतश होओगे, कुछ और नहीं मांगोगे। तुम चट्टान हो सकते थे और तुम इस बारे में कुछ नहीं कर सकते थे। तुम मनुष्य हो- और तुम दुखी हो, और तुम चिंतित हो और तुम सारी बात से ही चूक रहे हो। इस क्षण का आनंद मनाओ, क्योंकि हो सकता है वह फिर न आए।
हिंदुओं का यही अभिप्राय है वे कहते हैं कि तुम फिर से चट्टान बन सकते हो। अगर तुम इसका आनंद नहीं लेते, तुम इसमें विकास नहीं करते तुम्हारा पतन हो जाएगा। तुम फिर एक पशु हो सकते हो। यही अर्थ है हमेशा याद रखो कि चेतना की यह पराकाष्ठा एक ऐसा शिखर है- अगर तुम आनंदित नहीं होते और इसके साथ एक नहीं हो जाते तुम्हारा पतन हो जाएगा।
गुरजिएफ कहा करता था कि अभी तुम्हारे पास आत्मा नहीं है जीवन केवल एक अवसर है उसे उपलब्ध करने का आत्मवान होने का। समय और शक्ति को व्यर्थ मत गंवाते जाओ, क्योंकि अगर तुम अनक्रिस्टलाइव्ह बिना एकीकृत हुए मर गए तो तुम बस खो जाओगे। और कौन जानता है, ऐसा अवसर फिर कब आए- या न आए? कोई नहीं जान सकता, कोई नहीं है जो इस विषय में कुछ कह सकता हो।
इतना कहा जा सकता है कि यह क्षण तुम्हारे लिए अवसर है। अगर तुम आनंदित हो तो वह और भी एकीकृत हो जाता है- अगर तुम इसके प्रति आनंद और कृतज्ञता अनुभव करते हो। स्मरण रहे धन्यभागी अनुभव करने के लिए कुछ और नहीं चाहिए। जो भी तुम्हारे पास है वह बहुत अधिक है, धन्यभागी और कृतज्ञ होने के लिए यह बहुत अधिक है। अस्तित्व से और की मांग मत करो। जो भी तुम्हें मिला है उस का आनंद लो। और जितना तुम आनंद लोगे उतना ही अधिक तुम्हें दिया जाएगा।
जीसस एक बहुत ही विरोधाभासी बात कहते हैं ' अगर तुम्हारे पास अधिक है तो तुम्हें और अधिक दिया जाएगा, अगर तुम्हारे पास कुछ नहीं है तो जो भी तुम्हारे पास है वह भी ले लिया जाएगा।यह बात बहुत ही साम्यवाद विरोधी प्रतीत होती है। बहुत ही असंगत लगती है। यह किस प्रकार का गणित है? ' जितना अधिक तुम्हारे पास है, उतना अधिक तुम्हें दिया जाएगा; और अगर तुम्हारे पास कुछ नहीं है तब जो भी तुम्हारे पास है वह भी ले लिया जाएगा।यह बात धनवानों के पक्ष में और निर्धनों के विपक्ष में प्रतीत होती है। इसका संबंध साधारण अर्थशास्त्र से नहीं है- यह जीवन का परम अर्थशास्त्र है। केवल वे ही और अधिक पाएंगे जिनके पास है क्योंकि जितना वे आनंदित होते हैं उतना
ही वह बढ़ता जाता है। जीवन आनंद द्वारा ही विकसित होता है। आनंद सूत्र है।
आनंदित होओ जो भी तुम्हारे पास है उसके लिए कृतज्ञ होओ। जो कुछ भी! उसके लिए आनंदित होओ उसके लिए और खुल जाओ। और जितना अधिक तुम पर बरसता है उतना ही तुम और आशीष पाने के योग्य हो जाते हो। जो कृतज्ञ नहीं है वह उसे भी गंवा देता है जो उसके पास है। जो कृतज्ञ है, उसको विकसित होने में पूरा अस्तित्व सहयोग देता है क्योंकि वह योग्य पात्र है और वह स्पष्ट रूप से समझ रहा है कि उसके पास क्या है।
और अधिक प्रेममय होओ, और तुम्हारे पास और अधिक प्रेम आएगा। और अधिक शांतिपूर्ण होओ, और तुम्हें और अधिक शांति मिलेगी। और अधिक दो, तुम्हें देने के लिए और अधिक मिलेगा। बांटो, और तुम्हारा होना और बढ जाता है।
लेकिन तुम कभी देते नहीं, तुम कभी प्रेम नहीं करते तुम कभी बांटते नहीं। वास्तव में तुम्हें पता ही नहीं है कि तुम्हारे पास कुछ है। तुम केवल प्रतीक्षा कर रहे हो कि कहीं कुछ होगा। यह पहले से ही घटित हो चुका है! केवल इसे देखो- खजाना तुम्हारे भीतर है। और तुम कभी नहीं देते क्योंकि तुम नहीं जानते कि यह घटित हो चुका है और तुम नहीं जानते कि देने से वृद्धि होती है।
यहूदियों के समाज में ऐसा हुआ एक संत मर रहा था, वह गरीब आदमी था, लेकिन आत्मिक रूप से बहुत बहुत अमीर था, आनंद का धनी था। वह एक रहस्यदर्शी था।
और पूरे समाज को उसकी चिंता थी। सब तरह के चिकित्सक बुलाए गए लेकिन कुछ नहीं हो सका हर घड़ी मौत निकट आ रही थी। तब सारा समुदाय अंतिम काम के लिए प्रार्थना करने के लिए एकत्रित हो गया। लेकिन ऐसा लगा कि वह भी काम नहीं आ रही।
तो रबाई ने कहा. अब अंत में हम एक काम कर सकते हैं और जब तक हम वह नहीं करेंगे परमात्मा भी सहायता नहीं करेगा। हमें अपना जीवन उसके साथ बांट लेना चाहिए। इसलिए तुम अपने जीवन से कुछ दिन, कुछ वर्ष इस मरणासन्न व्यक्ति को दान कर दो। तो सभी लोग आगे आ गए; लोगों को उससे प्रेम था।
एक आदमी ने कहा ' पांच वर्ष।दूसरे ने कहा ' एक वर्ष।किसी ने कहा ' एक महीना।किसी ने यह भी कहा ' एक दिन।एक कृपण व्यक्ति ने कहा ' एक मिनट।लेकिन वह भी - वह भी सोचो हंसो मत- जीवन का एक मिनट भी छोटी चीज नहीं है तुच्छ वस्तु नहीं है। जब तुम मर रहे होते हो तो वह एक मिनट भी तुम्हें नहीं मिलता।
फिर मुल्ला नसरुद्दीन भी जो वहां था आगे आया। वह यहूदी तो नहीं था लेकिन वह भी उस रहस्यदर्शी से प्रेम करता था। और उसने कहा ' बीस वर्ष।
कोई विश्वास न कर सका। एक यहूदी ने जो ठीक उसके पीछे बैठा था उसकी टांग खींची और कहा तुम क्या कर रहे हो, नसरुद्दीन? क्या तुम पागल हो गए हो? बीस वर्ष! तुम्हारा क्या मतलब है? बहुत अधिक हैं। क्या तुम पागल हो गए हो? और तुम तो यहूदी भी नहीं हो?
नसरुद्दीन ने कहा अपनी पत्नी के जीवन से।
कोई भी कुछ भी बांटने को तैयार नहीं है। और जब तक तुम बांटोगे नहीं तुम्हें और नहीं मिलेगा क्योंकि तुम उसके योग्य नहीं बनते हो। तुम्हारी पात्रता नहीं है। मांगो, और तुम खो दोगे दो और तुम पा लोगे।
यह जीवन जैसा है वह बहुत ही अधिक है। इसके प्रति आनंदित हो जाओ छोटी- छोटी चीजों का रस लो। भोजन भी पवित्र प्रसाद बन जाना चाहिए। हाथों को मिलाना एक प्रार्थना बन जानी चाहिए एक अर्पण बन जाना चाहिए। लोगों के साथ होना भी एक गहरा आनंद बन जाना चाहिए- क्योंकि जो तुम्हारे साथ घटा है वह और कहीं नहीं घटा।
सोसान कहता है:

अगर तुम उस एक 'पथ' पर चलना चाहते हो,
तो इंद्रियों और विचारों के जगत से भी घृणा मत करो।

इंद्रियों के जगत से घृणा मत करो विचारों के जगत से घृणा मत करो, क्योंकि वे भी अपने में सुंदर हैं। अगर तुम किसी विचार में उलझते नहीं हो तो उसमें क्या बुराई है? यह एक सुंदर फूल है। मन अच्छा है अगर वह अपनी जगह पर है।
गुरजिएफ की एक शिक्षा है- आधुनिक मनुष्य के लिए बहुत उचित है- कि तुम्हारे सारे केंद्र एक-दूसरे में मिल गए हैं। उनकी शुद्धता नष्ट हो गई है; वे एक-दूसरे में दखल दे रहे हैं। और वह ठीक कहता है। जब तुम प्रेम करते हो मन की कोई आवश्यकता नहीं है लेकिन मन निरंतर काम करता रहता है। वास्तव में तुम मन के केंद्र द्वारा प्रेम करते हो काम-केंद्र के द्वारा नहीं।
कामवासना बुरी नहीं है वह अपने स्थान पर ठीक है- एक खिलावट है, एक गहरी साझेदारी है दो व्यक्तियों का गहन मिलन है। लेकिन मन निरंतर दखलअंदाजी करता रहता है। फिर वह कुरूप हो जाता है क्योंकि मन एक उपद्रव है। फिर काम-केंद्र अपना बदला लेगा। तुम गीता कुरान बाइबिल पढ़ रहे हो और कामवासना मन में घूमती रहती है तुम कामवासना के संबंध में सोचते रहते हो। ऐसा होना ही है क्योंकि तुमने काम-केंद्र को विचलित कर दिया है तो बदला कब लिया जाएगा?
अपने विज्ञापनों को देखो। अगर तुम्हें कुछ भी बेचना है, तो पहले उसे यौन- आकर्षक बनाना पड़ेगा। चाहे तुम्हें कार बेचनी है- तुम्हें उसके साथ एक नग्न स्त्री खड़ी करनी पड़ेगी या टूथपेस्ट हो तुम्हें नग्न स्त्री खोजनी ही पड़ेगी। कुछ भी! मानो टूथपेस्ट असली चीज नहीं है असली चीज नग्न स्त्री है कामवासना है। तुम्हें साबुन बेचना है और तुम्हें सुंदर नग्न शरीर को साथ जोड़ना ही पड़ेगा।
मैंने सुना है इटली की एक मॉडल महिला जो वर्षों से साबुन के विज्ञापन के लिए मॉडल के तौर पर काम कर रही थी जब वह बूढ़ी हो गई किसी को भी उसका खयाल भी नहीं रहा किसी ने उससे पूछा. आप वास्तव में किस प्रकार का साबुन इस्तेमाल करती हैं? उसने कहा. कोई भी नहीं क्योंकि प्रत्येक साबुन त्वचा की कोमलता को नष्ट करता है। मैं अपने शरीर पर केवल गीली ऊन इस्तेमाल करती हूं,इसी कारण वह इतनी सुंदर है। लेकिन मैंने सभी प्रकार के साबुनों के विज्ञापन में सहायता की है और वे बिक रहे हैं।
जब मुल्ला नसरुद्दीन सौ साल का हो गया मैंने उससे पूछा. नसरुद्दीन, तुम्हारी लंबी उम्र का राज क्या है?
उसने कहा. प्रतीक्षा करो! सात दिनों के भीतर सब तय हो जाएगा तब मैं कुछ कह सकूंगा।
मैंने पूछा मामला क्या है? क्या तय हो जाएगा?
उसने कहा : बहुत सी कंपनियां मेरे पीछे पड़ी हैं इसलिए मेरा वकील सब तय कर रहा है- किस विटामिन ने किस भोजन ने मदद की। इस समय मैं कुछ नहीं जानता लेकिन एक सप्ताह में सब निश्चित हो जाएगा और तब सबको पता चल जाएगा।
विचार अपने में सुंदर हैं कुछ भी गलत नहीं है। प्रत्येक चीज ठीक है यदि वह अपनी ठीक जगह पर है प्रत्येक चीज गलत हो जाती है अगर वह गलत जगह पर रखी हो-तब वह कभी ठीक नहीं बैठती।
तुम्हारे साथ यही बात है हर चीज गलत है। जब तुम काम- भोग में होते हो, मन बीच में आ जाता है। जब तुम ध्यान करते हो कामवासना बीच में आ जाती है। जब तुम खाते हो मन बीच में आ जाता है। जब सोने जाते हो भोजन बीच में आ जाता है। सभी केंद्र अराजक होकर एक-दूसरे में मिल जाते हैं।
प्रत्येक केंद्र को शुद्ध रहने दो और प्रत्येक केंद्र को अपने ढंग से, अपने समय में कार्य करने दो। उसका अपना समय है और उसकी अपनी भावदशा है और अपनी ऋतु है उसे दूसरे केंद्रों में गति मत करने दो।
और मन से आरंभ करो क्योंकि वह बहुत उपद्रवी है, बहुत शोर मचाने वाला है, और वह सबकी सीमाओं में घुस जाता है और वह सब पर प्रभावी हो जाना चाहता है। उसकी मालकियत को हटाओ। प्रत्येक इंद्रिय शुद्ध होनी चाहिए और उसे अपने अधिकार क्षेत्र में आनंदित होना चाहिए। मन को बीच में आने की कोई आवश्यकता नहीं। फिर जब तुम मन का आनंद लोगे कोई केंद्र उसमें बाधा नहीं डालेगा। फिर कोई समस्या नहीं होगी क्योंकि दूसरे सभी केंद्र बहुत निर्दोष हैं। तुम्हारा मन चालाक है- और तुम चालाक मन की सुनते हो तुम निर्दोष इंद्रियों की कभी नहीं सुनते। मन चतुर है
हिसाबी-किताबी है। दूसरी सारी इंद्रियां सरल-सीधी हैं। वे मन के साथ लड़ नहीं सकतीं क्योंकि मन बहुत बड़ा राजनीतिज्ञ है और सारी इंद्रियां सामान्य जनता हैं। कामवासना सीधी-सरल है मन निरंतर उसकी निंदा करता है। काम-केंद्र इसके सिवाय और कुछ नहीं कर सकता है फिर ऊर्जा गलत रास्तों पर चली जाती है।
प्रत्येक इंद्रिय का उसके क्षेत्र में मजा लो। और जब तुम उसका भोग कर रहे हो, तो वही हो जाओ- ताकि कहीं और जाने के लिए ऊर्जा बचे ही नहीं। सारी ऊर्जा उसमें लग जाए। उस समय कोई मन नहीं होता, उस समय कोई शरीर नहीं होता; तुम काम-ऊर्जा हो जाते हो। जब तुम्हें भूख लगी है, भूख ही हो जाओ इस तरह से खाओ जैसे कि तुम्हारे शरीर की प्रत्येक कोशिका भूखी है और भोजन को ग्रहण कर रही है, और उसे रस लेने दो। और जब तुम विचार -करना चाहते हो तब एक पेड़ के नीचे बैठ जाओ, अपनी
आंखें बंद कर लो-विचारों का आनंद लो। विचारों के साथ कुछ भी गलत नहीं है। उनका फूलों की खिलावट सुंदर खिलावट की भांति, एक महाकाव्य की भांति रस लो। फिर एक स्पष्टता आती है, फिर तुम्हारा पानी गंदा नहीं है फिर मिट्टी बैठ जाती है और तुम चीजों के आर-पार देख सकते हो।

अगर तुम उस एक 'पथ' पर चलना चाहते हो,
तो इंद्रियों और विचारों के जगत से भी घृणा मत करो।
वास्तव में उन्हें पूर्ण रूप से स्वीकार करना वास्तविक संबोधि के

तुम जो कुछ भी हो अगर तुम उसे पूरी तरह से स्वीकार कर सको, तो यही संबोधि है। यह मत सोचो कि जब तुम बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाते हो तुम प्रकाश और रहस्यपूर्ण दृश्य देखोगे- सब व्यर्थ की बकवास है। वह मार्ग पर ही घटता है लेकिन वह मन का ही हिस्सा है परम सत्य का बिलकुल भी नहीं। तुम्हारे सारे प्रकाश और अनुभव मन से ही आते हैं।
ऊर्जा शरीर में गति करती है सूक्ष्म इंद्रियां वहां छिपी हैं। वे सक्रिय हो जाती हैं और तुम कई चीजों को अनुभव कर सकते हो। उनमें कुछ बुराई नहीं है, आनंद लो लेकिन ऐसा मत समझो कि वह बुद्धत्व है।
संबोधि केवल उस क्षण में घटित होती है जब तुम्हारे भीतर कोई शिकायत नहीं होती, जब तुम कहीं नहीं जा रहे हो, कोई वासना नहीं कोई निंदा नहीं, कोई मूल्यांकन नहीं। तुम सिर्फ होते हो और पूर्ण स्वीकृति के साथ होते हो। उसी क्षण बुद्धत्व वहां है।
बुद्धत्व बहुत साधारण बात है। यह कुछ असाधारण नहीं यह कुछ विशेष नहीं- क्योंकि विशेष तो अहंकार की खोज है। यह बिलकुल साधारण है। कोई मांग नहीं किसी चीज के लिए कोई ललक नहीं, कोई पकड़ नहीं। बस तुम हो और तुम प्रसन्न हो- अकारण प्रसन्न हो।
इसे याद रखो। प्रसन्नता और आनंद में यही अंतर है। तुम्हारी प्रसन्नता सकारण है। कभी कोई मित्र आ गया है और तुम प्रसन्न हो। मित्र के साथ तुम कितनी देर प्रसन्न रह सकते हो? कुछ घड़ियां। और फिर तुम तब प्रसन्न होओगे जब वह चला जाएगा। यह किस प्रकार की प्रसन्नता है? यह सकारण है और कारण समाप्त हो गया है। देर- अबेर तुम तंग हो जाते हो और प्रसन्नता गायब हो जाती है। आनंद अकारण प्रसन्नता है। बस तुम जैसे हो, तुम प्रसन्न हो। इस संबंध में कुछ कहने को नहीं है कि तुम क्यों प्रसन्न हो।
सारे मामले को देखो। तुम कभी नहीं सोचते कि तुम क्यों दुखी हो- तुम सिर्फ दुखी हो। जब भी तुम प्रसन्न होते हो तुम देखना शुरू कर देते हो, ' मैं प्रसन्न क्यों हूं?' दुख स्वाभाविक प्रतीत होता है सुख कुछ अस्वाभाविक सी बात लगती है कभी-कभार घटित होने वाली। दुख तुम्हारी स्थिति है और सुख तुम्हारी अभिलाषा है।
एक बुब्सरुष वैसे ही बस सुखी है जैसे तुम बस दुखी हो। बस प्रसन्न। और कभी दुखी नहीं होता। जब कभी जूता काटता है वह केवल उसे ठीक कर लेता है। यह दुख नहीं है, यह बस शारीरिक पीड़ा है- एक असुविधा लेकिन दुख नहीं। वह बस पैर को ठीक से रखता है- वह जूता बदलता है या वह जूते के बिना चलता है।
बुद्धपुरुष को भी असुविधा हो सकती है, लेकिन दुख कभी नहीं होता- क्योंकि दुख कैसे हो सकता है- जब उसके आनंद का कोई कारण नहीं है तो दुख असंभव है। अकारण, तुम उसे नष्ट नहीं कर सकते हो। अकारण, तुम उसे कैसे छीन सकते हो? अकारण, इसका कोई विपरीत नहीं है। यह आनंद है।
हिंदुओं के पास एक शब्द है, ' आनंद ' दिव्य आशीष अकारण आनंद। जिसका कोई कारण नहीं है, कोई आधार नहीं है। इसीलिए जब कोई आनंदित होगा दुनियावाले सोचेंगे कि वह पागल हो गया है। वे पूछेंगे ' तुम इतने आनंदित क्यों हो? तुम क्यों हंस रहे हो?' जैसे कि हंसना कोई अपराध हो। और अगर तुम कहते हो ' मैं ऐसे ही हंस रहा हूं। हंसना बहुत अच्छा है।वे समझ नहीं सकते। उनको हंसी के लिए भी तनाव चाहिए- और सभी चुटकुलों का यही आधार है।
जब कोई चुटकुला सुनाया जाता है तो तुम क्यों हंसते हो? तुम्हारे भीतर क्या घटित होता है? चुटकुला क्या करता है? वह एक तनाव पैदा करता है। कहानी आगे बढ़ती जाती है और तुम्हारे भीतर और तनाव बढ़ता जाता है और तुम कल्पना नहीं कर सकते कि क्या होने वाला है। फिर अचानक एक मोड़ आता है और बात ऐसी है कि तुमने कभी सोचा भी न था कि ऐसा घटित होगा।
अगर तुम अपेक्षा कर सकते हो इसका अर्थ है कि यदि तुम्हें चुटकुले का पता है, तब कोई हंसी नहीं आएगी। तुम बस कह दोगे कि चुटकुला कुछ भी नहीं है, क्योंकि तनाव बना ही नहीं। जब तुम्हें चुटकुला पता नहीं होता है तो एक तनाव बनता है तुम प्रतीक्षा कर रहे हो, तुम सावधान हो जाते हो- क्या होने वाला है? और फिर सारी बात इस ढंग से मोड़ लेती है कि जिसकी तुमने आशा नहीं की थी। तनाव समाप्त हो जाता है, तुम हंस पड़ते हो। यह हंसी तनाव निकल जाने के कारण आती है।
काम-कृत्य तुम्हें क्यों सुख देता है? क्योंकि यह एक तनाव है। तुम भोजन करते हो तुम श्वास लेते हो ऊर्जा निर्मित होती है और जीवन हमेशा तुम्हें तुम्हारी आवश्यकता से अधिक देता है। जीवन अतिशय है जीवन ऐश्वर्य है पूर्ण ऐश्वर्य है। तुम्हारी जरूरतों से इसका कोई संबंध नहीं यह हमेशा तुम्हें तुम्हारी जरूरत से ज्यादा देता है।
वह अतिरिक्त ऊर्जा शरीर में संचित हो जाती है-वही काम-ऊर्जा है। जब वह इकट्ठी हो जाती है तुम्हारे शरीर में एक तनाव पैदा हो जाता है। जब तनाव बनता है और तब तुम्हें उसे मुक्त करना पड़ता है। जब तनाव समाप्त हो जाता है तुम प्रसन्नता का, विश्राम का अनुभव करते हो, तुम सो पाते हो।
लेकिन युक्ति तनाव में है। इसलिए अगर तुम बहुत अधिक काम- भोग करते हो और तनाव निर्मित नहीं होता तो सब-कुछ फीका हो जाता है - चुटकुला नीरस हो जाता है - कोई प्रसन्नता नहीं होती। अगर तुम बहुत अधिक काम- भोग करोगे तो तुम उससे तंग आ जाओगे क्योंकि वह काम- भोग पर निर्भर नहीं है वह निर्मित तनाव पर निर्भर है।
अगर तुम काम- भोग को प्रतिदिन की बात बना लेते हो, और ऊर्जा का अतिरेक नहीं है तब काम- भोग के बाद तुम प्रसन्न होने के बजाय दुखी हो जाओगे, निराश हो जाओगे। काम- भोग का चरम उत्कर्ष नहीं हो सकता क्योंकि उसके लिए शरीर को जितनी ऊर्जा की आवश्यकता होती है, उससे अधिक ऊर्जा चाहिए। ऊर्जा का अतिरेक चाहिए ताकि सारा शरीर उस से आदोलित हो उठे।
स्मरण रहे दमित समाजों के लोग काम- भोग का बहुत रस लेते थे क्योंकि अपनी खुद की पत्नी से मिलना भी बहुत कठिन था। दूसरे की पत्नी से मिलना तो लगभग असंभव ही था- अपनी खुद की पत्नी को मिलने के लिए भी बहुत सी बाधाओं को पार करना पड़ता था।
भारत में तुम दिन के प्रकाश में अपनी पत्नी को देख नहीं सकते थे। इतना बड़ा परिवार, सौ लोगों का इकट्ठे रहना, इकट्ठे सोना। कभी-कभी तो अपनी पत्नी से प्रेम करने के लिए भी तुम्हें कई प्रबंध करने पड़ते थे। वह बात सुंदर थी एक प्रकार से सुंदर क्योंकि तनाव इतना होता था कि उत्तेजना शिखर पर होती थी और फिर एक विश्राम की घाटी आती थी।
पश्चिम में सेक्स बिलकुल नीरस हो गया है। अब पश्चिम में किसी का कामवासना में रस नहीं रहा- वहां यह बहुत अधिक है। संगृहीत होने से पहले ही तुम ऊर्जा को फेंक देते हो। तुम्हारे पूरे जीवन में इसी भांति सुख घटता है तनाव बनाओ फिर विश्राम में जाओ।
आनंद वैसा नहीं है। वह अकारण है। वह तनाव और उससे मुक्ति नहीं है उसका संबंध तनाव और उससे मुक्ति से बिलकुल नहीं है- वह बस प्रसन्नता है जो तब आती है जब तुम्हें अस्तित्व के साथ अच्छी अनुभूति होती है। जब तुम्हें लगता है कि तुम स्वीकार करते हो। जब तुम्हें लगता है कि तुम स्वीकार करते हो तब तुम अचानक पाते हो कि पूरा अस्तित्व तुम्हें स्वीकार करता है। तब तुम पूरे अस्तित्व को आशीष दे सकते हो और पूरा अस्तित्व तुम्हें आशीष देता है। वह अकारण है। वह छीना नहीं जा सकता। तुम मुझे दुखी नहीं कर सकते। तुम अधिक से अधिक मेरे लिए असुविधा पैदा कर सकते हो बस इतना ही।
' आनंद ' का कोई विपरीत नहीं है। वह बिलकुल अकारण है। इसी कारण यह शाश्वत हो सकता है। क्योंकि एक सकारण वस्तु शाश्वत नहीं हो सकती- जब कारण मिट जाता है, परिणाम भी मिट जाएगा।

वास्तव में उन्हें रूप से स्वीकार करना वास्तविक संबोधि के
उॅ व्यक्ति किसी लक्ष्य के लिए प्रयास नहीं करता,
परंतु व्यक्ति स्वयं को ही बेड़ियां डाल लेता है।

तुम्हारे सभी लक्ष्य तुम्हारे लिए बंधन बन जाते हैं- वे कारावास बन जाते हैं तुम उसके कटघरे में बंद हो जाते हो। और फिर तुम कष्ट भोगते हो, और फिर तुम पूछते हो 'मुक्त कैसे हों?' लक्ष्यों से मुक्ति पा लो और तुम मुक्त हो जाओगे! और कुछ भी नहीं करना। मंजिल मत बनाओ, तब कोई कारावास नहीं है।

धर्म सत्य, नियम एक है अनेक नहीं।
भेदभाव अज्ञानी व्यक्ति की पकड लेने की आवश्यकताओं के
कारण उत्पन्न होता है।
भेदभाव करने वाले मन के द्वारा ' मन ' की खोज सभी गलतियों में
सबसे बडी है।

जब तुम लक्ष्य बनाते हो तो तुम क्या कर रहे हो? कौन लक्ष्य बनाता है? मन इसे बनाता है और तब मन उस तक पहुंचने का मार्ग खोजता है। तब मन तरकीबों, विधियों, रास्तों को खोजता है। और फिर तुम उन रास्तों का विधियों का अनुसरण करते हो। तुम क्या कर रहे हो? तुम मन के पीछे चल रहे हो? तुम एक चक्र में घूम रहे हो।
लक्ष्य मन के द्वारा बनाया जाता है साधन मन द्वारा बनाए जाते हैं और मन ही तुम्हारा मार्गदर्शन करता है। तुम मन से अ-मन तक कैसे पहुंच सकते हो?
और मन तनावग्रस्त है क्योंकि मन विश्राम में हो नहीं सकता। यह विपरीत पर निर्भर है। यह अतियों में जाने के लिए बाध्य है। यह निंदा कर सकता है यह प्रशंसा कर सकता है लेकिन पूर्ण रूप से स्वीकार नहीं कर सकता है। और पूर्णता ही लक्ष्य है- यह केवल स्वीकार करने से ही आ सकती है।
मन स्वीकार नहीं कर सकता यह इनकार कर सकता है। और जब यह इनकार करता है, इसे बहुत अच्छा लगता है अहंकार के कारण तुम इनकार करने वाले हो। जब यह स्वीकार करता है अहंकार को बहुत बुरा लगता है-क्योंकि जब कोई इनकार नहीं, लड़ाई नहीं संघर्ष नहीं कहीं जाने को नहीं तब तुम करोगे क्या? जैसे कि केवल यहीं और अभी होना व्यर्थ है। आनंद कहीं और घटित हो रहा है और तुम यहां क्या कर रहे हो?
मैंने सुना है एक बार दो आलसी व्यक्ति एक पेड़ के नीचे आराम कर रहे थे। वातावरण शांत और रमणीय था। पास ही एक झरना बह रहा था और सुंदर शीतल हवा चल रही थी। एक् आलसी ने दूसरे से कहा ठीक इस समय अगर एक व्यक्ति के पास पचास हजार डॉलर होते मैं तब भी उसके साथ अपनी जगह न बदलता।
दूसरे ने कहा और अगर उसके पास एक लाख डॉलर हुए तब?
पहले ने कहा फिर भी नहीं।
दूसरा फिर भी बोलता चला -गया और उसने कहा माना अगर उसके पास दस लाख डॉलर हुए तो?
तब पहला उत्सुक हो गया। वह उठ कर बैठ गया और बोला अब बात अलग है। अब तुम असली रोटी की बात कर रहे हो।
मन का यही ढंग है कल्पना सपना और सपना असली रोटी बन जाता है। वहां कोई भी नहीं है लेकिन अब वहां उत्तेजना है।
किसी चीज के बारे में विचार करते हो और जल्दी ही तुम उत्तेजित हो जाते हो। नग्न स्त्री का एक चित्र और तुम उत्तेजित हो जाते हो इसीलिए दुनिया में इतना अश्लील साहित्य है। वह बस एक चित्र है- कागज पर कुछ रेखाएं और रंग, और कुछ नहीं है। वहां कोई नहीं है और तुम भलीभांति जानते हो लेकिन तुम उस चित्र को दूसरों से छिपाओगे, और जब तुम अकेले हो तो उस पर ध्यान लगाओगे। क्या कर रहे हो तुम? - असली रोटी।
मन बस कल्पना है, लेकिन तुम उत्तेजित हो जाते हो। और एक बार तुम उत्तेजित हो गए, तो मन ने तुम्हें कुछ बेच दिया। और फिर तुम दुखी रहोगे क्योंकि मन, खयाल बेच सकता है, लेकिन उसके पास देने के लिए माल नहीं है। यही समस्या है देने के लिए उसके पास सामग्री नहीं है वह तुम्हें खयाल बेच सकता है- एक अच्छा विक्रेता है, परंतु आपूर्ति के लिए उसके पास कुछ भी नहीं है। और जब तक तुम उसके पास पहुंचो और पूछो वह आपूर्ति के लिए तुम्हें कुछ और पकड़ा देगा।
मैंने सुना है एक विक्रेता अपने मालिक के पास वापस आया और बोला मैं मुश्किल में फंस गया हूं। वह जमीन जो हमने बेची थी अब वह एक समस्या बन गई है। वह आदमी मुझे फोन किए जा रहा है क्योंकि उस सारी जमीन पर छह फुट पानी भरा हुआ है और वह कहता है यह कैसी जमीन तुमने मुझे दी है? और उस पर इमारत कैसे बनाई जा सकती है? तो मुझे क्या करना चाहिए? क्या मैं उसके पैसे लौटा दूं और सारा सौदा रह कर दूं?
मालिक ने कहा तुम कैसे विक्रेता हो? दो मोटर-बोट ले जाओ और उस आदमी को बेच दो!
विक्रेता को तो चीजें बेचने से मतलब है। अगर इससे काम नहीं बना कुछ और सही और अगर व्यक्ति पहली बार उत्तेजित हो गया था तो दूसरी बार क्यों नहीं होगा? तुम्हें केवल तरकीबों की जरूरत है।
मन तुम्हें भविष्य की योजनाएं बेचता रहता है। वह तुम्हें आपूर्ति नहीं कर सकता क्योंकि भविष्य कभी आता नहीं है। और जब भी वह आता है, वह हमेशा वर्तमान होता है। अप्रिर्त वर्तमान में है और विक्रेता भविष्य की बात करता है। आपूर्ति यहां है, और मन आशा सपने, कल्पना के संदर्भ में सोचता है।
जैसे तुम हो और जैसा संसार है उस वास्तविकता को स्वीकार करो। कुछ भी बदलने की कोशिश मत करो- और वहीं बुद्धत्व है। और फिर सभी कुछ बदल जाता है, क्योंकि अब तुम वही नहीं रहे। अगर तुम कुछ बदलते हो तो कुछ नहीं बदलेगा। अगर तुम स्वीकार करते हो, तो सब रूपांतरित हो जाता है। वह अज्ञात प्रकाश से आलोकित हो उठता है। अचानक एक ऐसा संगीत सुनाई देता है जो तुमने पहले कभी नहीं सुना है जो सौंदर्य छिपा था वह प्रकट हो जाता है। एक द्वार खुलता है अंधकार विलीन हो जाता है एक सूर्य उदित हो गया है।
लेकिन वह तभी घटता है जब तुम अपने साथ सुखपूर्वक होते हो। वह एक घटना है वह तुम्हारे प्रयासों का परिणाम नहीं है। और अप्रसन्न मत होओ क्योंकि यह तुम्हारे प्रसासों का परिणाम नहीं है तब तुम क्या कर सकते हो? प्रसन्न होओ क्योंकि यह तुम्हारे प्रयत्नों का प्रश्न नहीं है। तुम इसी क्षण इसे प्राप्त कर सकते हो। इसे स्थगित करने की आवश्यकता नहीं है।
समझ ही स्वीकृति है। स्वीकृति ही बुद्धत्व है। बौद्ध- और यह सोसान बौद्ध है बुद्ध का अनुयायी है-उनके पास स्वीकृति के लिए एक विशेष शब्द है। वे इसे ' तथाता ' कहते हैं। इसका अर्थ है कोई शिकायत नहीं। इसका अर्थ है. कोई निंदा नहीं। इसका अर्थ है. कोई प्रशंसा नहीं। इसका अर्थ है चीजें जैसी हैं वैसी हैं। ऐसा है पथ- तथाता। और व्यक्ति तथाता में रहता है। जो भी होता है, वह इसे घटने देने के लिए तैयार है। जहां जीवन ले जाता है, वह इसके साथ जाता है। जो भी होता है ठीक ही होता है। तुम संघर्ष पैदा नहीं करते, तुम उसके साथ हो। तुम बहते हो, तैरते नहीं हो- और तुम धारा के
विपरीत कभी नहीं तैरते हो। तुम बस धारा के साथ बहते हो, और धीरे- धीरे तुम्हें यह भी पता नहीं रहता कि कौन कौन है, क्या क्या है, कौन धारा है और कौन है जो धारा का अंग हो गया है। तुम प्रवाह बन जाते हो। यही बुद्धत्व है।

आज इतना ही।







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