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गुरुवार, 28 मई 2020

शूून्य की किताब–(Hsin Hsin Ming)-प्रवचन-08

सच्ची श्रद्धा का जीवन-(प्रवचन-आठवां) ओशो

Hsin Hsin Ming (शुन्य की किताब)--ओशो
(ओशो की अंग्रेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद) 

सूत्र:

गति को स्थिरता और स्थिरता को गतिमय समझो,
और गति और स्थिरता की दशा दोनों विलीन हो जाती हैं।
जब द्वैत नहीं रहता, तो अद्वैत भी नहीं रह सकता।
इस परम अंत की अवस्था पर कोई नियम,
या कोई व्याख्या लागू नहीं होती।
मार्ग के अनुरूप हो चुके अखंड मन के लिए
सभी आत्म- केंद्रित प्रयास समाप्त हो जाते हैं।
संदेह और अस्थिरता तिरोहित हो जाते हैं
और सच्ची श्रद्धा का जीवन संभव हो जाता है।
एक ही प्रहार से हम बंधन से मुक्त हो जाते हैं;
न हमें कुछ पकड़ता है और न हम कुछ पकड़ते हैं।
मन की शक्ति के प्रयास के बिना,
सभी कुछ शून्य है स्पष्ट है स्व-प्रकाशित है।
यहां विचार, भाव, ज्ञान, और कल्पना का कोई मूल्य नही
गति को स्थिरता और स्थिरता को गतिमय समझो,
और गति और स्थिरता की दशा दोनों विलीन हो जाती हैं।


यह सर्वाधिक बुनियादी बातों में से एक है। इसे जितना संभव हो सके उतनी गहराई से समझने की चेष्टा करो। मन केवल एक ही छोर देख सकता है और वास्तविकता दो छोर हैं, दोनों विपरीत छोर एक साथ। मन एक अति देख सकता है एक अति में दूसरी अति छिपी है लेकिन मन इसे देख नहीं पाता है। जब तक तुम दोनों विपरीत पक्षों को एक साथ न देख सको तब तक तुम वह न देख पाओगे जो है और जो भी तुम देखोगे वह झूठा होगा क्योंकि वह आधा होगा।
स्मरण रहे सत्य केवल पूर्ण हो सकता है। यदि वह आधा है तो वह झूठ से भी अधिक खतरनाक है क्योंकि आधा सत्य-सत्य होने का भाव लिए होता है और वह सत्य नहीं है। तुम उससे धोखा खा जाते हो। सत्य को जानना सभी में पूर्ण को जान लेना है।
उदाहरण के लिए, तुम गति को देखते हो कोई चीज चल रही है- लेकिन क्या वह चलना उसके बिना संभव है जो उसके भीतर छिपा है, जो चल नहीं रहा है? गति उसके बिना असंभव है जो उसके भीतर स्थिर है।
एक पहिया घूमता है लेकिन पहिए का केंद्र स्थिर बना रहता है वह स्थिर केंद्र पर घूमता है। अगर तुम केवल पहिए को ही देखते हो तो तुमने आधा ही देखा है और आधा बहुत खतरनाक है। और अगर तुम अपने मन में आधे को पूरा बना लेते हो तो तुम भ्रांत धारणाओं के जगत में गिर चुके हो।
तुम एक व्यक्ति को प्रेम करते हो, तुम यह कभी नहीं देखते कि तुम्हारे प्रेम में घृणा छिपी है। वह वहां मौजूद है, तुम्हें वह पसंद है या नहीं इसका सवाल नहीं है। जब भी तुम प्रेम करते हो, घृणा वहां मौजूद रहती है- विपरीत ध्रुव- क्योंकि बिना घृणा के प्रेम का अस्तित्व हो नहीं सकता। वह तुम्हारी पसंद का प्रश्न नहीं है। वह ऐसा है।
प्रेम का अस्तित्व घृणा के बिना नहीं हो सकता। तुम एक व्यक्ति को प्रेम करते हो और उसी से घृणा भी करते हो लेकिन मन केवल एक को ही देख सकता है। जब मन प्रेम को देखता हैं तो वह घृणा को देखना बंद कर देता है जब घृणा ऊपर आती है जब मन घृणा को पकड़ लेता है तो वह प्रेम को देखना बंद कर देता है। और अगर तुम मन से पार जाना चाहते हो तो तुम्हें दोनों को एक साथ देखना होगा- दोनों अतियां दोनों विपरीतताएं।
यह बस घड़ी के पेंडुलम की भांति है। पेंडुलम दाएं जाता है जो दिखाई पड़ता है वह यह कि पेंडुलम दाईं ओर जा रहा है। लेकिन कुछ अदृश्य भी है और वह है कि जब पेंडुलम दाईं ओर जा रहा है तो वह बाईं ओर जाने के लिए बल प्राप्त कर रहा है। वह इतना स्पष्ट नहीं है लेकिन शीघ्र ही तुम देखोगे।
एक बार जब उसने एक अति को छू लिया तो पेंडुलम विपरीत छोर की ओर गति करना प्रारंभ कर देता है वह बाईं ओर चला जाता है। और वह बाईं ओर भी उसी सीमा तक जाता है जिस सीमा तक वह दाईं ओर गया था। जब वह बाईं ओर जाता है तुम फिर धोखा खा सकते हो। तुम देखोगे कि वह बाईं ओर जा रहा है लेकिन भीतर गहरे में वह दाईं ओर जाने की शक्ति भी एकत्रित कर रहा है।
जब तुम प्रेम करते हो तुम घृणा के लिए ऊर्जा इकट्ठी कर रहे हो जब तुम घृणा करते हो तुम प्रेम के लिए ऊर्जा इकट्ठी कर रहे हो। जब तुम जीवित हो तुम मरने के लिए ऊर्जा इकट्ठी कर रहे हो और जब तुम मर जाते हो तुम पुनर्जन्म के लिए ऊर्जा इकट्ठी कर रहे हो।
अगर तुम केवल जीवन को ही देखते हो तो तुम चूक जाओगे। जीवन में सर्वत्र छिपी मृत्यु को देखो। और अगर तुम यह देख पाओ कि जीवन में मृत्यु छिपी है, तो फिर तुम उलटा भी देख सकते हो कि मृत्यु में जीवन छिपा है। तब दोनों छोर समाप्त हो जाते हैं। जब तुम उन्हें इकट्ठे एक ही साथ देखते हो, तब उसके साथ ही तुम्हारा मन भी विदा हो जाता है। क्यों? --क्योंकि मन केवल आशिक हो सकता है, वह कभी पूर्ण नहीं हो सकता।
अगर तुम्हें प्रेम में छिपी घृणा दिखाई दे तो तुम क्या करोगे? अगर तुम्हें घृणा में छिपा प्रेम दिखाई तो तब तुम क्या चुनोगे चुनाव करना असंभव हो जाएगा, क्योंकि अगर तुम देखते हो ' मैं प्रेम को चुनता हूं ' तुम यह भी देखते हो कि तुम घृणा को भी चुन रहे हो। और एक प्रेमी घृणा का चुनाव कैसे कर सकता है?
तुम चुन पाते हो क्योंकि घृणा तुम्हें दिखाई नहीं देती। तुमने प्रेम को चुना था, और फिर तुम सोचते हो कि किसी दुर्घटनावश घृणा आ गई है। लेकिन जैसे ही तुम प्रेम को चुनते हो, तुमने घृणा को भी चुन लिया है। जैसे ही तुम जीवन को पकड़ते हो तुमने मृत्यु को भी पकड़ लिया है। कोई भी मरना नहीं चाहता- तब जीवन से न चिपको क्योंकि जीवन मृत्यु की ओर अग्रसर है।
जीवन का अस्तित्व ध्रुवीयता में है और मन ध्रुवीयता का एक अंश है इसीलिए मन असत्य है। और मन उस एक अंश को संपूर्ण बनाने की चेष्टा करता है। मन कहता है, 'मैं इस पुरुष या स्त्री से बस प्रेम करता हूं और मैं सिर्फ प्रेम करता हूं। मैं इस स्त्री से घृणा कैसे कर सकता हूं? जब मैं प्रेम करता हूं मैं प्रेम ही करता हूं; घृणा करना असंभव है। '
मन तर्कसंगत प्रतीत होता है लेकिन वह गलत है। अगर तुम प्रेम करते हो तो घृणा संभव है घृणा सिर्फ तभी संभव है जब तुम प्रेम करते हो। तुम किसी व्यक्ति को बिना प्रेम किए घृणा नहीं कर सकते तुम किसी को पहले अपना मित्र बनाए बिना शत्रु नहीं बना सकते। वे दोनों साथ-साथ चलते हैं वे एक ही सिक्के के दो पहलू जैसे हैं, तुम एक ही पक्ष को देखते हो दूसरा पीछे छिपा है- लेकिन दूसरा वहां है, हमेशा प्रतीक्षा करता हुआ। और जितना तुम बाईं ओर जाते हो उतनी ही तुम दाईं ओर जाने की तैयारी कर रहे हो।
क्या होगा अगर मन दोनों को एक साथ देख सके? मन का होना संभव नहीं है क्योंकि फिर सब असंगत अतर्क हो जाता है। मन केवल एक स्पष्ट तर्कसंगत ढांचे में ही जी सकता है, विपरीत अस्वीकृत होता है। तुम कहते हो ' यह मेरा मित्र है और वह मेरा शत्रु है। ' तुम ऐसा कभी नहीं कह सकते ' यह मेरा मित्र और मेरा शत्रु है। ' अगर तुम यह कहते हो तो बात तर्क के विरुद्ध हो जाती है। अगर तुम असंगत बातों को मन में प्रवेश करने देते हो तो वे मन को पूरी तरह चकनाचूर कर देती हैं- मन गिर जाता है।
जब तुम जीवन की असंगति को देखते हो जीवन किस तरह परस्पर विरोधों के बीच घूमता है जीवन कैसे विपरीतताओं में जीता है तो तुम्हें मन को छोड़ना ही पड़ता है। मन को स्पष्ट सीमा-रेखाएं चाहिए और जीवन में एक भी सीमा-रेखा नहीं है। तुम्हें जीवन से अस्तित्व से अधिक और कुछ भी इतना असंगत नहीं मिल सकता। ' असंगत ' ही इसके लिए शब्द है अगर तुम दोनों ध्रुवीयता को एक साथ देखते हो।
तुम मिलते हो- तुम केवल बिछुड़ने के लिए मिलते हो। तुम किसी व्यक्ति को चाहते हो- तुम किसी व्यक्ति को चाहते हो केवल ना चाहने के लिए। तुम प्रसन्न हो- तुम प्रसन्न हो केवल अप्रसन्नता के बीज बोने के लिए। क्या तुम इससे अधिक बेतुकी परिस्थिति की कल्पना कर सकते हो? अगर तुम्हें सुख चाहिए, तो तुमने पहले ही दुख की चाहना कर ली है अब तुम निरंतर दुखी रहोगे।
क्या किया जाए? मन के पास करने को कुछ बचा नहीं है। मन बस मिट जाता है। और जब मन मिट जाता है तब जीवन असंगत प्रतीत नहीं होता है, तब जीवन एक रहस्य बन जाता है।
इसे समझ लेना जरूरी है क्योंकि जीवन मन की अति तर्कसंगता के कारण असंगत दिखाई पड़ता है; जीवन जंगली प्रतीत होता है क्योंकि तुम बहुत लंबे समय से मानव-निर्मित उपवन में रहे हो। तुम जंगल में जाओ और वह जंगली दिखाई देता है, लेकिन वह तुलना के कारण जंगली प्रतीत होता है। एक बार जब तुम्हें यह समझ में आ जाता है कि जीवन ऐसा है जीवन ऐसा है कि विपरीत सदा साथ जुड़ा है...।
किसी व्यक्ति से प्रेम करो और घृणा आ जाएगी। एक मित्र बनाओ और एक शत्रु का जन्म हो जाता है। प्रसन्न होओ और कहीं से पिछले दरवाजे से अप्रसन्नता प्रवेश कर जाती है। इस क्षण का मजा लो और शीघ्र ही तुम रोओगे और चिल्लाओगे। हंसो, और हंसी के ठीक पीछे आसूर फूट कर बाहर आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। फिर क्या करें? कुछ भी करने को नहीं बचा। ऐसी ही हैं चीजें।
और सोसान कहता है:

गति को स्थिरता समझों.....

वह यही कह रहा है। वह कह रहा है जब तुम किसी चीज को चलते हुए देखते हो, तो याद रखो भीतर कुछ अचल है। और सारी गति स्थिर की ओर ले जाएगी। वह कहां जाएगी? तुम दौड़ते हो, चलते हो आगे बढ़ते हो। तुम कहां जा रहे हो? - बस कहीं विश्राम करने के लिए जरा कहीं बैठने के लिए। तुम बस कहीं आराम करने के लिए दौड़ रहे हो। इसलिए दौड़ विश्राम पर पहुंचती है गति स्थिर होने की अवस्था पर पहुंचती है। और वह स्थिरता पहले से ही वहां है। तुम दौड़ लगाओ और देखो- तुम्हारे भीतर कुछ है जो दौड़ नहीं रहा है वह दौड़ नहीं सकता। तुम्हारी चेतना अचल बनी रहती है। तुम चाहो तो सारी दुनिया में घूम लो तुम्हारे भीतर कुछ है जो कभी नहीं घूमता घूम ही नहीं
सकता- और सारी गति उस स्थिर केंद्र पर निर्भर है। तुम सब प्रकार की स्थितियों, भाव- दशाओं में उलझ जाते हो लेकिन तुम्हारे भीतर कुछ अनछुआ अलिप्त रह जाता है। और उलझनों का यह सारा जीवन उसी अलिप्त तत्त्व के कारण संभव है।
तुम एक व्यक्ति को प्रेम करते हो तुम जितना हो सके उतना प्रेम करते हो। लेकिन भीतर गहरे में कुछ ऐसा है जो अलग निर्लिप्त बना रहता है। उसे ऐसा होना ही चाहिए अन्यथा तुम खो जाओगे। कुछ है जो आसक्ति में भी अनासक्त बना रहता है। जितनी अधिक आसक्ति होगी उतनी ही अधिक विरक्ति की अनुभूति तुम्हारे भीतर होगी क्योंकि बिना विपरीत के किसी का अस्तित्व नहीं हो सकता। वस्तुओं की सत्ता विपरीत के कारण है।

गति को स्थिरता और स्थिरता को गतिमय समझो,..

और जब तुम कुछ स्थिर देखते हो, तो मूर्ख मत बनना- वह अचल है लेकिन कुछ पहले से ही चल रहा है। अब वैज्ञानिक कहते हैं कि सब-कुछ गतिमान है यह अचल दीवाल भी, चट्टान भी। वे इतनी तीव्र गति से चल रहे हैं उनके अणु इतनी तीव्रता से गति कर रहे हैं कि तुम गति को देख नहीं पाते। इसीलिए वे स्थिर दिखाई देते हैं।
गति बहुत तीव्र है उतनी ही तेज है जितनी तेज प्रकाश की किरण चलती है। प्रकाश की किरण एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेंड के वेग से गति करती है। यही एक अणु की गति है। वह एक वर्तुल में घूमता है। वह इतनी तीव्र गति से घूमता है कि स्थिर दिखाई देता है।
कुछ भी स्थिर नहीं है और कुछ भी पूरी तरह से गतिमान नहीं है। प्रत्येक दोनों है- कुछ गतिमान कुछ स्थिर और स्थिर सारी गति का आधार बना रहता है। जब तुम कुछ स्थिर देखो तो धोखा मत खाना भीतर देखना और तुम पाओगे कि कहीं पहले ही गति घटित हो रही है। अगर तुम कुछ गतिमान देखो तो स्थिर की खोज करना। तुम उसे सदा वहां पाओगे यह बिलकुल निश्चित है क्योंकि एक अति अकेली नहीं हो सकती।
अगर मैं तुम्हें एक छड़ी दूं और कहूं कि इस छड़ी का एक ही सिरा है, इसका दूसर।-
सिरा नहीं है तुम कहोगे कि यह असंभव है। अगर इसका एक सिरा है तो दूसरा भी होना
चाहिए हो सकता है वह छिपा हुआ हो लेकिन यह असंभव है कि छड़ी का एक ही सिरा
हो। दूसरा अवश्य होगा अगर आरंभ है तो अंत अवश्य होगा।
बुद्ध निरंतर यही कहते हैं अगर तुम्हारा जन्म हुआ है, तो मृत्यु भी अवश्य होगी। जो भी जन्मा है, वह मरेगा। क्योंकि एक छोर प्रारंभ है तो दूसरा छोर कहां है छड़ी का दूसरा सिरा? उसे वहां होना ही चाहिए। हर चीज जो जन्मी है, उसे मरना ही पड़ेगा, हर चीज जो बनी है वह मिटेगी हर चीज जो संयुक्त हुई है अलग हो जाएगी प्रत्येक मिलन वियोग है प्रत्येक आगमन प्रस्थान है।
दोनों को एक साथ देखो और मन तुरंत मिट जाएगा। हो सकता है तुम थोड़ा चकरा जाओ क्योंकि मन सदा तर्कसंगत सीमा-रेखाओं में, तर्कसंगत स्पष्टता में जीया है। जब सब विभेद मिट जाते हैं सबमें छिपा विपरीत भी तो मन चकरा जाता है।
उस व्याकुलता को होने दो उसे घटित होने दो। जल्दी ही वह व्याकुलता चली जाएगी और तुम एक नई बुद्धिमत्ता एक नई जानकारी सत्य की एक नई दृष्टि में स्थिर हो जाओगे।
सत्य की यह नई दृष्टि संपूर्ण है, और इस संपूर्ण के साथ तुम शून्य हो। अब इसके संबंध में कोई मत नहीं है अब तुम जानते हो कि प्रत्येक मत असत्य होने वाला है।
किसी ने महावीर से पूछा - क्या परमात्मा है?
और महावीर ने कहा हां न। ही और न दोनों।
आदमी उलझन में पड़ गया। उसने कहा मैं समझा नहीं। या तो आप हां कहें या न कहें, लेकिन दोनों एक साथ न कहें।
महावीर ने कहा ये तो केवल तीन ही दृष्टिकोण हैं। अगर तुम पूरी बात सुनना चाहते हो तो मेरे पास प्रत्येक बात के लिए सात दृष्टिकोण हैं।
और महावीर के पास हैं! पहले वे कहते हैं हां- यह पूरा सत्य नहीं है केवल एक दृष्टिकोण है। फिर वे कहते हैं नहीं- यह भी पूरा सत्य नहीं है- दूसरा दृष्टिकोण है। फिर वे कहते हैं ही और न दोनों- तीसरा दृष्टिकोण। फिर वे कहते हैं हां और न, दोनों नहीं- चौथा दृष्टिकोण। फिर वे कहते हैं, हां और हां, और न दोनों- पांचवां दृष्टिकोण। न और हां और दोनों नहीं- छठवां दृष्टिकोण। न और हां और साथ ही दोनों नहीं- सातवां दृष्टिकोण।
वे कहते हैं सात पक्ष हैं और तब वह बात पूरी है। और वे ठीक हैं, लेकिन मन चकरा जाता है। लेकिन वह तुम्हारी समस्या है उनकी नहीं। वे ठीक हैं, क्योंकि उनका कहना है कि जब भी तुम कहते हो ही वह आधा है। एक अर्थ में एक वस्तु है, लेकिन दूसरे अर्थ में वह न होने के मार्ग पर चल ही चुकी है।
तुम कहते हो यह बच्चा जीवित है या मृत? वह जीवित है ही। लेकिन महावीर कहते हैं वह मृत्यु के मार्ग पर चल चुका है। वह मरेगा और मृत्यु निश्चित है इसलिए वक्तव्य में इसे भी समाविष्ट कर लो; नहीं तो वक्तव्य आधा होगा, असत्य होगा।
इसलिए महावीर कहते हैं हां एक अर्थ में बच्चा जीवित है और एक अर्थ में नहीं, क्योंकि इस बच्चे की मृत्यु होगी- न केवल मृत्यु होगी वास्तव में वह मरा ही हुआ है क्योंकि वह जीवित है। मृत्यु वहां छिपी है, वह उसका एक हिस्सा है। और इसीलिए वे कहते हैं कि यह तीसरा कथन कहना बेहतर होगा? वह दोनों है।
लेकिन बच्चा जीवित और मृत दोनों कैसे हो सकता है?- क्योंकि मृत्यु जीवन को नकार देती है और जीवन मृत्यु को नकार देता है। इसीलिए महावीर कहते हैं कि चौथा दृष्टिकोण भी होने दो. वे दोनों ही नहीं है। इसी तरह वे कहे जाते हैं और जब तक वे अपना सात संभावनाओं वाला वक्तव्य समाप्त करते हैं तुम इतनी अधिक उलझन में पड़ जाते हो जितना तुम पूछने से पहले भी न थे। लेकिन वह तुम्हारी समस्या है। वे कहते हैं मन को छोड़ दो क्योंकि मन संपूर्ण को नहीं देख सकता वह केवल पहलुओं को ही देख सकता है।
क्या तुमने कभी गौर किया है? अगर मैं तुम्हें एक कंकड़ दूं क्या तुम पूरे कंकड़ को देख सकते हो? तुम जब भी देखते हो केवल एक ही तरफ को देखते हो दूसरा छिपा है। अगर तुम दूसरे को देखते हो तो फिर पहला हिस्सा छिपा है। एक छोटा सा कंकड जिसे तुम हथेली पर रख सकते हो उसे भी पूरा नहीं देख सकते।
मन किसी भी चीज को पूरा-पूरा नहीं देख सकता। मैं तुमको देख रहा हूं लेकिन तुम्हारी पीठ छिपी हुई है। तुम मुझको देख रहे हो मेरा चेहरा तुम्हें दिखाई देता है लेकिन मेरी पीठ नहीं। और तुमने मुझे कभी पूरा-पूरा नहीं देखा क्योंकि जब तुम मेरी पीठ देखते हो तो तुम मेरा चेहरा नहीं देखोगे।
किसी भी चीज को पूर्ण रूप में देख पाना मन की संभावना नहीं है। वह केवल आधा ही देख सकता है दूसरे आधे का अनुमान लगाया जाता है। वह अनुमान है, इसे मान लिया गया है कि वह वहां होगा ही क्योंकि यह कैसे हो सकता है कि चेहरा हो और पीठ न हो? इसलिए हम अनुमान लगाते हैं कि पीठ तो होगी, होनी ही चाहिए।
लेकिन अगर तुम दोनों को एक साथ देख सको तो घबड़ाहट होगी। अगर तुम उसे सहन कर सकते हो और उससे गुजर जाओ, तब स्पष्टता आती है तब सारे बादल विलीन हो जाते हैं। दरवेश नृत्य में सारा जोर इस बात पर है कि मन चक्कर में डाल दिया जाए। कई उपाय हैं महावीर ने एक बहुत ही तर्कपूर्ण युक्ति का उपयोग किया सप्त आयामी तर्क। वह बिलकुल दरवेश नृत्य की भांति है वह तुम्हें चक्कर में डाल देता है।
जो बहुत ही बौद्धिक हैं उनके लिए महावीर की विधि बहुत अच्छी है। वह चक्कर में डाल देती है और सब-कुछ उलटा-पुलटा हो जाता है और तुम सच में ही कुछ नहीं कह सकते-तुम्हें मौन हो जाना पड़ता है। तुम जो भी कहते हो वह असंगत प्रतीत होता है और तुम्हें तुरंत उसे अस्वीकार करते रहना पड़ता है। और जब तक तुमने सब कह दिया है, कुछ भी नहीं कहा गया, क्योंकि प्रत्येक वक्तव्य ने दूसरे का खंडन कर दिया।
महावीर का यह सप्त आयामी तर्क ठीक मन के दरवेश नृत्य के समान है। वह तुम्हें चक्कर में डाल देता है। दरवेश नृत्य मन को चकरा देने की शारीरिक विधि है और वह मन को चकरा देने की मानसिक विधि है।
अगर तुम तेजी से नृत्य करते हो तेजी से घूमते हो तो तुम्हें अचानक लगता है कि चक्कर आ रहे हैं मितली आ रही है ऐसे लगता है जैसे कि मन मिट रहा है। अगर तुम उसे कुछ दिन जारी रखो तो कुछ दिन चक्कर आएंगे और फिर सब व्यवस्थित हो जाएगा। जैसे ही चक्कर आने समाप्त हुए, तुम पाओगे कि मन भी विदा हो गया है, क्योंकि अब चक्करों को अनुभव करने वाला कोई नहीं बचा। और तब एक स्पष्टता आती है। फिर तुम मन के बिना चीजों को देखते हो। मन के बिना संपूर्ण प्रकट हो जाता है- और संपूर्ण के साथ रूपांतरण होता है।

जब द्वैत नहीं रहता, तो अद्वैत भी नहीं रह सकता।

और स्मरण रहे जब हम ' एकता ' शब्द का प्रयोग करते है; वह भी द्वैत का ही एक अंश है। अगर द्वैत नहीं है तो एकता कैसे हो सकती है? इसीलिए हिंदू ' एकता ' का प्रयोग नहीं करते। अगर तुम शंकराचार्य से पूछो अस्तित्व का क्या स्वभाव है? वे कहते हैं, अद्वैत दो नहीं।
वे कभी नहीं कहेंगे एक क्योंकि तुम एक कैसे कह सकते हो? अगर केवल एक है, तो तुम कैसे कह सकते हो एक? इसकी सार्थकता के लिए दो की आवश्यकता है। अगर दूसरे की, दो की कोई संभावना नहीं है, फिर यह कहने की क्या जरूरत है कि वह एक है? शंकर कहते हैं ' अधिक से अधिक मैं कह सकता हूं दो नहीं लेकिन मैं निश्चित रूप से एक नहीं कह सकता हूं। मैं वह कह सकता हूं जो सच्चाई नहीं है वह दो नहीं है। मैं नहीं कह सकता जो वह है क्योंकि अर्थ शब्द सब निरर्थक हो जाते हैं। '

जब द्वैत नहीं रहता,

जब तुम प्रेम को घृणा से अलग नहीं देख सकते, तब तुम प्रेम को क्या अर्थ दोगे? सोसान द्वारा शब्दकोश नहीं लिखे जा सकते। अगर कोई मुझसे शब्दकोश लिखने के लिए कहे तो मैं ऐसा नहीं कर सकता। वह असंभव है क्योंकि मैं प्रेम को क्या अर्थ दूंगा? शब्दकोशों की संभावना केवल तभी है अगर प्रेम और घृणा भिन्न हों केवल भिन्न ही नहीं बल्कि विपरीत हों। इसलिए तुम लिख सकते हो प्रेम घृणा नहीं है। जब तुम्हें घृणा की परिभाषा करनी ही पड़े तो तुम कह सकते हो प्रेम नहीं।
लेकिन सोसान क्या करेगा? अगर तुम उससे पूछते हो प्रेम क्या है? तो वह प्रेम की परिभाषा कैसे करे? क्योंकि प्रेम घृणा भी है। वह कैसे जीवन की परिभाषा देगा? - क्योंकि जीवन मृत्यु भी है। वह बच्चे की क्या परिभाषा करेगा? - क्योंकि बच्चा बूढ़ा भी है। वह सौंदर्य की क्या परिभाषा करेगा? -क्योंकि सौंदर्य कुरूपता भी है। जब सीमाएं मिट जाती हैं तब तुम किसी की परिभाषा नहीं कर सकते क्योंकि परिभाषा के लिए सीमाएं चाहिए, और परिभाषा विपरीत पर निर्भर है सभी परिभाषाएं विपरीत पर निर्भर हैं।
अगर हम कहें कि पुरुष क्या है, हम कह सकते हैं स्त्री नहीं- और वह परिभाषा हो गई। लेकिन अगर तुम सोसान को देखो और उसे समझो प्रत्येक पुरुष एक स्त्री है, प्रत्येक स्त्री एक पुरुष है। चीजें ऐसी ही हैं। अब मनोवैज्ञानिकों ने भी इस तथ्य की खोज कर ली है ' कि पुरुष और स्त्री द्विलिंगी हैं। प्रत्येक पुरुष के पास भीतर एक स्त्री छिपी है और प्रत्येक स्त्री के पास भीतर एक पुरुष छिपा है- वे वहां हैं। कोई स्त्री केवल स्त्री नहीं है हो नहीं सकती। इस अस्तित्व में बिना विपरीत के कुछ नहीं हो सकता। और कोई पुरुष स्त्री के बिना नहीं हो सकता स्त्री वहां मौजूद है।
तुम माता और पिता, दोनों से जन्मे हो एक पुरुष था, एक स्त्री थी। तुम अपने भीतर दोनों को आधा-आधा लिए हो। ऐसा होना ही चाहिए पैदा होने का और कोई रास्ता नहीं है। तुम केवल स्त्री से ही उत्पन्न नहीं हुए हो अन्यथा तुम केवल स्त्री ही होते। तुम केवल पिता से पैदा नहीं हुए अन्यथा तुम केवल पुरुष होते। तुम द्वैत से स्त्री और पुरुष से उत्पन्न हुए हो। उन दोनों का योगदान है तुम दोनों हो।
उसी से कठिनाई पैदा होती है क्योंकि जब मन स्त्री के विषय में सोचता है तो हमेशा नारी सुलभ गुणों के बारे में ही सोचता है। लेकिन तब तुम्हें पता नहीं है... अगर स्त्री उग्र रूप धारण करती है तो वह किसी भी पुरुष से कहीं अधिक उम्र हो सकती है; अगर वह क्रोधित होती है तो कोई पुरुष उसका मुकाबला नहीं कर सकता है अगर वह घृणा करती है कोई पुरुष उसके समान घृणा नहीं कर सकता है।
क्यों? - क्योंकि ऊपरी तल पर उसका स्त्री-पक्ष थक चुका है और उसका पुरुष- पक्ष हमेशा विश्राम में है और वह ऊर्जा से अधिक भरा है। इसलिए जब भी वह क्रोधित होती है वह बहुत अधिक क्रोधित होती है क्योंकि पुरुष काम करना शुरू कर देता है, और वह पुरुष विश्राम में है। और जब कभी पुरुष समर्पण करता है या अत्यधिक प्रेमपूर्ण होता है वह किसी भी स्त्री से अधिक स्त्रैण होता है क्योंकि तब वह स्त्री-पक्ष जो सदा विश्राम में है और पीछे छिपा है और सदा ताजा और युवा है, उभर आता है।
हिंदुओं के देवी-देवताओं को देखो। उन्होंने उचित बात को अपनाया है उन्होंने द्वैत को बहुत अच्छी तरह समझ लिया है। तुमने काली माता का चित्र देखा होगा। वह बहुत ही उग्र स्त्री है उसके गले में मुंडमाला है, एक हाथ में खून और कटा हुआ सिर है, और अनेक हाथों में शस्त्र पकड़े हैं। वह शिव की पत्नी है और शिव नीचे लेटे हुए हैं और वह उनकी छाती पर खड़ी है।
जब पहली बार पश्चिम वासियों ने इस प्रतीक के बारे में सोचना शुरू किया, तो वे
बहुत हैरान हुए ' क्यों? आप इस स्त्री को मां क्यों कहते हैं? वह मृत्यु जैसी दिखती है!' लेकिन हिंदू कहते हैं कि मां में मृत्यु भी है क्योंकि वह जन्म देती है फिर मृत्यु, विपरीत कौन देगा? मां तुम्हें जन्म देती है फिर वह तुम्हें मृत्यु भी देगी। ऐसा होना ही चाहिए।
काली मां दोनों है भयानक विनाशक और सर्जक। वह मा है सर्जनात्मक शक्ति और वह मृत्यु भी है, विध्वंसात्मक शक्ति। वह शिव से प्रेम करती है लेकिन उसकी छाती पर खड़ी है जैसे उसकी हत्या करने को तैयार हो।
लेकिन जीवन का यही स्वभाव है। प्रेम मारता है, जन्म मृत्यु बन जाता है सौंदर्य मिट जाता है कुरूपता आ जाती है। प्रत्येक वस्तु विपरीत में खो जाती है, विपरीत में मिल जाती है। सारा तर्क व्यर्थ दिखाई देता और बुद्धि चकरा जाती है।

जब द्वैत नहीं रहता,

और जब तुम सबके भीतर आर-पार देख लेते हो उनका अस्तित्व समाप्त हो जाता है- क्योंकि प्रेम घृणा है। उचित शब्द होगा ' प्रेम-घृणा ' एक शब्द दो शब्द नहीं। उचित होगा कहना ' जीवन-मृत्यु ' - एक शब्द, दो शब्द नहीं। उचित शब्द होगा ' पुरुष-स्त्री, ' ' स्त्री-पुरुष ' - दो शब्द नहीं एक शब्द इकट्ठे।
लेकिन फिर एकत्व भी विलीन हो जाता है उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। तब यह कहने का क्या अभिप्राय है कि जीवन एक है? दो विलीन हो गया उसी कम में एक भी विलीन हो जाता है।
इसीलिए सोसान और बुद्ध के अनुयायी इस पर बल देते हैं कि जब तुम्हें सत्य का बोध होता है वह न तो एक है न दो। वह शून्यता है। अब तुम समझ सकते हो कि वे क्यों कहते हैं शून्यता, खालीपन। सब विलीन हो जाता है, क्योंकि जब दो विलीन हो जाते है, एक भी विलीन हो जाता है- फिर क्या बचता है? कुछ भी नहीं बचता, या केवल ना- कुछ बचता है। यह ना-कुछ बुद्धत्व का चरम शिखर है जब तुम्हें सब-कुछ शून्य दिखाई देता है, जब सब-कुछ शून्य हो जाता है।

इस परम अंत की अवस्था पर कोई नियम,
या कोई व्याख्या लागू नहीं होती।
मार्ग के अनुरूप हो चुके अखंड मन के लिए,
सभी आत्म- केंद्रित प्रयास समाप्त हो जाते हैं।

तुम इस शून्यता से क्या प्राप्त करने की चेष्टा करोगे? कहां है मंजिल और कौन है खोज करने वाला और कौन है खोजा जाने वाला? पाने के लिए कोई लक्ष्य नहीं है, वहां कोई नहीं है जो प्राप्त कर सकता है। और सभी प्रयास समाप्त हो जाते हैं।
यही है बुद्ध की शांति पूर्ण मौन- क्योंकि न कुछ पाने को है, न ही कोई पाने वाला है, न कहीं जाना है, न कोई जाने वाला है। सभी कुछ शून्य है। अचानक सारा प्रयास विलीन हो जाता है। तुम कहीं नहीं जा रहे हो। तुम हंसना शुरू कर देते हो, तुम इस शून्यता का आनंद लेने लगते हो। तब तुम्हारे आनंद में कोई बाधा नहीं तब परमानंद तुम पर बरसने लगता है।
अगर अस्तित्व शून्य सा लगता है तब कोई तुम्हारे आनंद को आ नहीं कर सकता क्योंकि उसे भंग करने वाला कोई नहीं है। यह तुम हो- तुम अपने द्वैत के कारण अशांत होते हो। तुम प्रेम में पड़ते हो, और फिर घृणा आती है और घृणा परेशान करती है। तुम सुंदर होना चाहते हो और फिर कुरूपता प्रविष्ट हो जाती है और कुरूपता तुम्हें बेचैन करती है। तुम सदा-सदा के लिए जीवित रहना चाहते हो, और फिर मृत्यु दरवाजे पर दस्तक देती है और मृत्यु अशांत करती है।
अगर तुम देख सको कि विपरीत छिपा हुआ है, अचानक तुम कुछ चाहते नहीं, तुम कुछ खोजते नहीं, क्योंकि तुम जानते हो कि जो भी तुम मांगोगे विपरीत भी साथ आ जाएगा। अगर तुम मान-प्रतिष्ठा चाहते हो तो सब तरफ से अपमान आकर रहेगा अगर तुम फूलों की मांग करते हो, कांटे तुम पर बरसेंगे अगर तुम चाहो कि तुम्हें स्मरण रखा जाए, तुम भुला दिए जाओगे अगर तुम सिंहासन पर पहुंचना चाहते हो तुम पूरी तरह फेंक दिए जाओगे।
तुम जो भी मांगोगे, उसका विपरीत तुम्हें दे दिया जाएगा। तब मांगने से क्या प्रयोजन, फिर क्यों कुछ मांगना? इच्छाएं पूरी हो जाएंगी और जब तक वे पूरी होंगी तुम्हें
हैरानी होगी विपरीत तुम्हारे हाथ में आ गया है। तुम मंजिलें पा लोगे। लेकिन जब तुम पा
लोगे तुम रोओगे, चिल्लाओगे क्योंकि विपरीत मंजिल में छिपा है। तुम जहां चाहोगे
पहुंच जाओगे लेकिन वह पहुंचना ही निराशा बन जाएगी।
...' सभी आत्म-केंद्रित प्रयास समाप्त हो जाते हैं '... जब यह रिक्तता शून्य की भांति दिखाई देती है। प्रयास करने के लिए है क्या? उपलब्धि करने वाला मन गिर जाता है धूल में मिल जाता है।

संदेह और अस्थिरता तिरोहित हो जाते है
और सच्ची श्रद्धा का जीवन संभव हो जाता है।

यही अंतर है। सोसान के इन वचनों को चीनी भाषा में कहते हैं ' सच्ची श्रद्धा की किताब। ' ईसाइयों मुसलमानों, हिंदुओं के लिए इसे समझना बहुत कठिन है कि यह किस तरह की सच्ची श्रद्धा है। समझने की कोशिश करो यह श्रद्धा की गहनतम समझ है।
आमतौर से जो चर्चों में मंदिरों में सिखाया जाता है- जिसकी ईसाई मुसलमान, हिंदू चर्चा करते हैं- वह श्रद्धा नहीं बल्कि विश्वास है ईश्वर में विश्वास रखो! लेकिन तुम कैसे विश्वास कर सकते हो? - क्योंकि हर विश्वास का अपना संदेह है। इसीलिए तुम आग्रहपूर्वक कहते हो ' मैं पूरी तरह से विश्वास करता हूं। '
जब तुम कहते हो, ' मैं पूरी तरह से विश्वास करता हूं ' वास्तव में तुम क्या कह रहे हो? यह पूरे पर इतना जोर क्यों? इसका मतलब यह है कि कहीं संदेह छिपा है और तुम उसे ' पूरी तरह से ' और ' पूरे ' जैसे शब्दों से छिपा रहे हो- उस पर जोर देकर छिपा रहे हो। किसको तुम धोखा दे रहे हो? तुम अपने आप को धोखा दे रहे हो। वह जोर देकर कहना यही प्रकट करता है कि कहीं विपरीत छिपा है।
जब तुम किसी से कहते हो ' मैं तुम्हें प्यार करता हूं- और केवल तुम्हें कोई संदेह कहीं छिपा है। क्यों ' केवल तुम्हें?' तुम क्यों ऐसा कहते हो? तुम इस पर क्यों जोर देना चाहते हो? किसी दूसरे को प्यार करने की संभावना वहां छिपी है, इसलिए उस संभावना को छिपाने के लिए तुम जोर देते हो। अगर तुम छिपाते नहीं हो तो हो सकता है कि वह प्रकट हो जाए वह ऊपर आ जाए वह सतह पर उभर आए। फिर क्या किया जाए? सिर्फ उसे छिपाने के लिए हर प्रकार का प्रबंध किया जाए।
तुम क्यों कहते हो ' मैं सच्चा विश्वासी हूं?' क्या कोई झूठा विश्वासी भी हो सकता है? यह सच्चा विश्वास क्या है? सच्चे विश्वास का अर्थ है कि तुमने संदेह को पूरी तरह से ऐसे छिपाया हुआ है कि कोई भी जान न पाएगा, लेकिन तुम भलीभांति जानते हो। और इसीलिए विश्वास करने वाले उन बातों को सुनना पसंद नहीं करते जो उनके विश्वास के विरुद्ध हों। वे बहरे बन जाते हैं क्योंकि वे हमेशा भयभीत हैं। तुम दूसरे से डरे हुए हो कि वह क्या कहेगा, तुम भयभीत हो कि कहीं वह छिपे हुए संदेह को न छू ले और संदेह प्रकट हो जाए।
इसलिए साधारण धार्मिक व्यक्ति नास्तिक की बात नहीं सुनना चाहते। वे कहेंगे ' नहीं वह कहीं विश्वास को न तोड़ दे। ' लेकिन क्या विश्वास को नष्ट किया जा सकता है? और अगर विश्वास नष्ट किया जा सकता है तो क्या उससे चिपके रहना कोई मूल्य रखता है? अगर विश्वास भी नष्ट किया जा सकता है तो वह किस प्रकार का विश्वास है? लेकिन इसे नष्ट किया जा सकता है क्योंकि संदेह वहां है, संदेह पहले से ही उसको नष्ट कर रहा है।
प्रतिदिन ऐसा होता है। विश्वासी अविश्वासी हो जाते हैं अविश्वासी विश्वासी हो जाते हैं- वे बदल जाते हैं आसानी से बदल जाने वाले हैं। क्यों? क्योंकि दूसरा वहां छिपा है। विश्वास संदेह को लिए हुए है जैसे प्रेम घृणा लिए हुए है। जीवन मृत्यु को लिए हुए है विश्वास अपने में संदेह को लिए हुए है। फिर विश्वास क्या है?
सोसान के पास वास्तव में समझ है कि श्रद्धा क्या है। श्रद्धा केवल तभी घटित होती है जब द्वैत गिर जाता है; वह संदेह के विपरीत विश्वास नहीं है। जब विश्वास और संदेह दोनों मिट जाते हैं, तब कुछ ऐसा घटता है जो श्रद्धा है आस्था है। किसी परमात्मा में आस्था नहीं क्योंकि अब कोई द्वैत नहीं क्योंकि वहां दो नहीं तुम और परमात्मा। ऐसा नहीं कि तुम विश्वास करते हो क्योंकि अब तुम नहीं हो - क्योंकि अगर तुम हो तो दूसरे भी होने चाहिए। सभी कुछ खाली और आस्था खिलती है; शून्यता ही श्रद्धा की खिलावट बन जाती है।
बौद्धों का एक शब्द है ' श्रद्धा ' - फेथ ट्रस्ट- बहुत बहुत ही भिन्न है। ' विश्वास ' शब्द जो अर्थ रखता है उससे पूरी तरह से भिन्न। कोई विश्वास करने वाला नहीं है- कोई नहीं है जिसमें विश्वास किया जाए; सारे द्वैत समाप्त हो गए हैं फिर श्रद्धा। फिर तुम क्या कर सकते हो? तुम संदेह नहीं कर सकते तुम विश्वास नहीं कर सकते- तुम क्या कर सकते हो? तुम सिर्फ श्रद्धा रखो और प्रवाह में बहो। तुम जीवन के साथ चलो, जीवन के साथ विश्राम करो।
अगर जीवन जन्म लाता है तुम जन्म में श्रद्धा करते हो- तुम लालसा नहीं करते। अगर जीवन मृत्यु लाता है तुम मृत्यु में आस्था रखते हो- तुम यह नहीं कहते कि यह अच्छा नहीं है। अगर जीवन फूल लाता है ठीक अगर जीवन कांटे लाता है ठीक। अगर जीवन देता है ठीक अगर जीवन छीन लेता है ठीक।
यही आस्था है अपनी ओर से कोई चुनाव नहीं है सब जीवन पर छोड़ दिया है जो भी हो... कोई इच्छा नहीं कोई मांग नहीं। जहां कहीं भी जीवन ले जाए बस वहीं चले जाना क्योंकि अब तुम जानते हो कि जैसे ही तुम मांगते हो परिणाम उलटा होगा। इसलिए तुम मांगते नहीं ' हमें शाश्वत जीवन दो क्योंकि तुम जानते हो कि तुम्हें शाश्वत मृत्यु मिलेगी।
क्या तुमने कभी गौर किया है कि सारी दुनिया में केवल ईसाई ही शाश्वत जीवन के लिए प्रार्थना करते हैं? केवल ईसाई ही प्रार्थना करते हैं, ' हे ईश्वर हमें शाश्वत जीवन देना और केवल ईसाइयों का ही नरक ऐसा है जो शाश्वत है! उसे विपरीत होना ही चाहिए। और कोई धर्म नहीं है जिसका नरक शाश्वत है। उनके नरक हैं लेकिन अस्थायी हैं; तुम वहां कुछ दिनों कुछ महीनों कुछ वर्षों के लिए हो फिर तुम्हारा स्थानांतरण हो जाता है क्योंकि कोई भी दंड शाश्वत नहीं हो सकता। कैसे हो सकता है?
जब प्रत्येक सुख अस्थायी है दंड कैसे शाश्वत हो सकता है? जब पुरस्कार अस्थायी है तब दंड कैसे शाश्वत हो सकता है? जब तुम्हें जीवन में कभी कुछ शाश्वत प्राप्त नहीं होता तो फिर तुम उसके लिए अनंतकाल तक दंडित कैसे हो सकते हो? यह अन्यायपूर्ण लगता है।
लेकिन ईसाइयत मांगती है, शाश्वत जीवन के लिए प्रार्थना करती है। फिर तुम्हें संतुलन बनाना पड़ता है शाश्वत नरक। एक बार तुमने पाप किया और तुम नरक में फेंक दिए गए, फिर तुम उससे कभी बाहर न आ पाओगे। सदा-सदा के लिए तुम वहां रहोगे। ऐसा होगा ही, क्योंकि तुमने शाश्वत जीवन मांगा था।
बौद्धों की श्रद्धा का अर्थ है इस तथ्य की गहरी समझ कि तुम जो भी मांगोगे गलत हो जाएगा। इसे समझने की चेष्टा करो। मैं फिर दोहराता हूं : तुम जो भी इच्छा करोगे वह गलत हो जाएगी।
यह समझ लेने पर चाह समाप्त हो जाती है। जब चाह मिट जाती है, श्रद्धा वहां होती है! श्रद्धा का अर्थ है बिना अपनी अपेक्षाओं इच्छाओं, मांगों के जीवन के साथ चलना; कुछ न मांगना, कोई शिकायत न करना जो कुछ भी हो उसे स्वीकार करना।
और स्मरण रहे यह ऐसा कुछ नहीं है जो तुम कर रहे हो। अगर तुम कर रहे हो तो यह अस्वीकृति है। यदि तुम कहते हो ' हां मैं स्वीकार करूंगा तुमने अस्वीकार कर दिया है। तुम कहते हो ' जो भी होगा मैं स्वीकार करूंगा ' - इसके पीछे गहरी अस्वीकृति है। तुम वास्तव में स्वीकार नहीं करते हो। तुम केवल इस लिए स्वीकार कर रहे हो क्योंकि तुम असहाय अनुभव करते हो क्योंकि कुछ किया नहीं जा सकता है इसलिए क्या करें? - स्वीकार करो। लेकिन इस स्वीकार में एक गहरी निराशा एक अस्वीकृति है। अगर अस्वीकार करना संभव होता तो तुमने अस्वीकार को चुन लिया होता। तब यह श्रद्धा नहीं है।
केवल सच्चाई को देखने से कि विपरीत सब जगह समाविष्ट है सोसान कहता है, ' श्रद्धा घटित हो जाती है। ' ऐसा नहीं है कि तुम कहते हो, ' मैं स्वीकार करता हूं ' यह किसी असहाय अवस्था में स्वीकार करना नहीं है। यह तो जीवन का स्वभाव है कि विपरीत अंतर्निहित है। अपने भीतर गहरे में इस तथ्य इस सच्चाई को देखना ही तुम्हें श्रद्धा देता है। तथ्य को देखने से आस्था उत्पन्न होती है।
अगर मैं देखूं कि मेरा जन्म हुआ था तो यह भी तथ्य है कि मैं मरूंगा। वह सीधा सा तथ्य है। मैं इसे स्वीकार नहीं करता क्योंकि कोई अस्वीकार नहीं है मैं केवल श्रद्धा करता हूं। जब मैंने जन्म लेने में श्रद्धा की तो जीवन ने मुझे जन्म दिया और मैंने श्रद्धा की। जीवन मुझे मृत्यु देगा और मैं श्रद्धा करता हूं। अगर जन्म इतना सुंदर था तो मृत्यु सुंदर क्यों न होगी? और तुम कौन हो निर्णय करने वाले? अगर जन्म ने तुम्हें इतना दिया है, मृत्यु क्यों नहीं देगी?
अज्ञात सदा वहां है। श्रद्धा का अर्थ है अशात में जाना कोई मांग नहीं रखना। फिर तुम दुखी नहीं हो सकते तब परमानंद तुम पर बरसता रहता है। अगर तुम मांगते ही नहीं तो कैसे दुखी होओगे? अगर तुम मांगते नहीं तो कौन तुम्हें दुखी कर सकता है? जीवन दुखद प्रतीत होता है क्योंकि तुम जो कुछ भी मांग करते हो जीवन उससे विपरीत जाता हुआ दिखाई देता है। अगर तुम मांग न करो जीवन आशीष बन जाएगा; जो कुछ भी होता है सुंदर है। जो भी होता है सुंदर है- तुम बस इसके साथ चलते हो।
नागर ठीक कहता है, ' सरल ही ठीक है। ' और ' जब जूता ठीक .बैठ जाता है पैर भूल जाता है। ' और जब तुम जीवन के साथ गहराई तक ठीक बैठ जाते हो, संदेह, अविश्वास विलीन हो जाते हैं। जूते का ठीक बैठ जाना श्रद्धा है। एक आस्था पैदा होती है जो विश्वास नहीं है। एक आस्था उत्पन्न होती है, जिसको किसी परमात्मा में विश्वास करने की जरूरत नहीं होती।
इसलिए बौद्ध परमात्मा के विषय में बात ही नहीं करते हैं। बुद्ध धर्म वास्तव में धर्म के गहनतम अंतस तक पहुंचा, और सोसान जैसे व्यक्ति दुर्लभ होते हैं। उनकी समझ परिपूर्ण होती है। पूर्ण उनकी समझ में आ गया है। उन्हें परमात्मा की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वे कहते हैं ' परमात्मा क्यों? क्या अस्तित्व पर्याप्त नहीं है? उसका व्यक्तित्व का नाम क्यों दें? और तुम जो कुछ भी रचोगे, वह ठीक तुम्हारे जैसा होगा- वह प्रक्षेपण होगा। इसलिए सभी परमात्मा प्रक्षेपण हैं। '
हिंदू एक परमात्मा बनाते हैं उसे देखो वह ठीक उनकी भारतीय देह का मूर्तमान रूप है- नाक आंखें ऊंचाई सब-कुछ। जापानी परमात्मा को देखो नीग्रो परमात्मा को देखो और तुम पाओगे कि वे उनके मन के ही प्रक्षेपण हैं। अगर घोड़ों के परमात्मा होते तो वे आदमी नहीं, घोड़े होते। क्या तुम सोच सकते हो कि घोड़ों का परमात्मा एक आदमी हो? असंभव! घोड़ों का परमात्मा घोड़ा होगा। अगर पेड़ों का परमात्मा होगा तो वह पेड़ ही होगा।
तुम्हारे देवता क्या हैं? तुम्हारे प्रक्षेपण। और तुम क्यों प्रक्षेपित करते हो? क्योंकि तुम प्रक्षेपित होना चाहते हो। तुम बिना परमात्मा के अकेला, खाली अनुभव करते हो तुम्हें सहायता के लिए कोई चाहिए। इस सहायता मांगने के कारण तुम स्वयं के लिए दुख पैदा कर रहे हो। अब विपरीत आएगा। हर घड़ी तुम यही महसूस करोगे कि ईश्वर सुन नहीं रहा है, तुम प्रार्थना कर रहे हो और पुकार रहे हो और वह है कि सुन नहीं रहा है। और हर क्षण तुम्हें लगता है कि तुमने सब-कुछ किया है और तुम्हें वह सब नहीं मिला जिसके तुम अधिकारी हो।
संत-महात्मा, तथाकथित संत-महात्मा सदा शिकायत करते हैं क्योंकि उन्होंने संसार को त्याग दिया है और अभी तक उन्हें परमानंद प्राप्त नहीं हुआ है। वे ब्रह्मचारी हैं लेकिन फिर भी उन पर फूल नहीं बरसे हैं। उन्होंने यह किया है वह किया है उनके पास लंबी सूची है, और उन्होंने बहुत कुछ किया है, फिर भी परमात्मा उतना ही दूर है जितना हमेशा था। वे श्रद्धा नहीं करते वे अब भी जीवन से संघर्ष कर रहे हैं। वे जीवन को उसके अपने ढंग से होने नहीं देते। उनके पास जीवन पर लागू करने के लिए अपने ही विचार हैं- वही अश्रद्धा है।
अश्रद्धा का अर्थ है तुम्हारे पास लागू करने के लिए अपने विचार हैं। तुम अपने को जीवन से अधिक बुद्धिमान समझते हो। वह अश्रद्धा है, वह अविश्वास है। तुम स्वयं को थोपना चाहते हो। गिरजाघरों यहूदियों के पारसी सभा भवनों में भी जाओ और वहां ईश्वर से प्रार्थना करते हुए लोगों को देखो। वे क्या कह रहे हैं? वे सलाह दे रहे हैं। वे कह रहे हैं ' यह मत करो यह गलत है। मेरा बेटा बीमार है उसे स्वस्थ कर दो। '
पहली बात तो यह है अगर तुम सच में ही श्रद्धा करते हो तो फिर ' उसने ' ही तुम्हारे बेटे को बीमार किया है- इसलिए श्रद्धा रखो। क्यों शिकायत और प्रार्थना करते जाओ? क्या तुम सोचते हो कि तुम उससे ज्यादा सुधार कर सकते हो? सभी प्रार्थनाओं का अर्थ ईश्वर से विनती करना हैं कि कृपया दो और दो को चार न होने दो। जो भी हो रहा है जो भी प्राकृतिक है उसे न होने दो। कुछ उपदेश सुझाव देने के लिए तुम्हारे पास कुछ विचार हैं-यह श्रद्धा नहीं है।
श्रद्धा का अर्थ है ' मैं कोई नहीं हूं और मैं वहीं चला जाता हूं जहां जीवन ले जाता है जहां भी- अज्ञात में अंधकार में मृत्यु या जीवन में। जहां कहीं भी ले जाए मैं तैयार हूं। मैं हमेशा तैयार हूं और मैं ठीक फिट बैठ जाता हूं। ' लेकिन तुम कब फिट बैठते हो? तुम तभी फिट बैठते हो जब द्वैत समाप्त हो जाता है जब तुम देख पाते हो और वह देखना ही ठहराव बन जाता है- इच्छा की मांग की समाप्ति।

मार्ग के अनुरूप हो चुके अखंड मन के लिए
सभी आत्म- केंद्रित प्रयास समाप्त हो जाते हैं।
संदेह और अस्थिरता तिरोहित हो जाते है
और सच्ची श्रद्धा का जीवन संभव हो जाता है।
एक ही प्रहार से हम बंधन से मुक्त हो जाते हैं;

' एक ही प्रहार से हम बंधन से मुक्त हो जाते हैं'.? यह धीरे- धीरे नहीं होता है। ऐसा नहीं है कि तुम धीरे- धीरे सत्य तक पहुंचोगे यह कोई मात्रा डिग्री का प्रश्न नहीं है। एक ही प्रहार से, जब तुम सत्य को देखते हो, एक ही क्षण में तुम सभी बंधनों से मुक्त हो जाते हो। यह प्रयास करने का प्रश्न नहीं है क्योंकि तुम जो कुछ भी करोगे मन के द्वारा करोगे और मन सारे दुखों का कारण है। और मन के द्वारा जो कुछ भी करोगे वह मन को और शक्ति देगा। मन के द्वारा जो भी करोगे वह प्रयास होगा। और मन के द्वारा जो भी करोगे वह दो विपरीत ध्रुवों के बीच एक का चुनाव होगा। तुम और भी उलझते जाओगे। इसलिए प्रश्न यह नहीं है कि क्या करें, प्रश्न है कैसे देखें। प्रश्न तुम्हारे चरित्र को बदलने का नहीं है, प्रश्न और अच्छा बनने और अधिक संत बनने का, कम पापी हो जाने का
नहीं हैं-नहीं, यह सवाल नहीं है। सवाल है बिना मन के कैसे देखें, बिना चुनाव के कैसे देखें। प्रश्न करने और कृत्य से संबंधित नहीं है, प्रश्न सजगता की गुणवत्ता से संबंधित है। इसीलिए पूरब में हम ध्यान पर जोर देते रहे हैं और पश्चिम में उनका सारा जोर नैतिकता पर है। जब पहली बार उपनिषदों का अनुवाद पश्चिमी भाषाओं में हुआ, तो विद्वान लोग उलझन में पड़ गए, क्योंकि उपनिषदों में ' दस आशाओं ' जैसा कुछ भी नहीं है- ' यह मत करो वह करो ' - उनमें ऐसा कुछ भी नहीं था। वे उलझन में पड़ गए। ये उपनिषद कैसे धार्मिक ग्रंथ हैं? क्योंकि धर्म का अर्थ नैतिकता है धर्म का अर्थ है ' यह
मत करो, वह करो ' यह कृत्य है। और उपनिषद इस संबंध में कुछ नहीं कहते कि क्या करना है वे केवल यही बताते हैं कि कैसे होना है, क्या होना है।
कैसे अधिक सजग और सचेत हों यही एक मात्र सवाल है- कैसे इतना होशपूर्ण हो कि तुम भीतर तक देख सको और विपरीत एक हो जाएं और द्वैत समाप्त हो जाएं। सजगता में गहरे प्रवेश करने पर पापी विलीन हो जाते हैं संत भी, क्योंकि उन दोनों का संबंध द्वैत से है। ईश्वर मर जाता है तो शैतान भी मर जाता है क्योंकि वे भी द्वैत से संबंधित हैं- मन ने उनकी रचना की है।
और ईसाइयत लगातार एक गहरी उलझन में पड़ी रही, क्योंकि ईश्वर और शैतान दोनों के साथ कैसे व्यवस्था बैठाई जाए? यह वास्तव में एक समस्या है। पहली बात, यह शैतान बीच में कहां से आ गया? अगर तुम कहो कि परमात्मा ने उसे बनाया तो जिम्मेवारी खुद परमात्मा की हो जाती है। और अंत में क्या होगा? जीत किसकी होगी? अगर तुम कहते हो कि अंत में जीत परमात्मा की होगी तो फिर मार्ग में सड़क पर यह मूर्खता क्यों? अगर अंत में परमात्मा की जीत होने वाली है अभी क्यों नहीं?
और अगर तुम कहते हो कि कोई अंतिम जीत नहीं हो सकती, संघर्ष चलता रहेगा फिर शैतान उतना ही शक्तिशाली हो जाता है जितना परमात्मा। और कौन जानता हैहो सकता है अंत में वही जीत जाए। और अगर वह जीत जाता है, तो फिर तुम्हारे सारे संतों का क्या होगा? फिर पापी प्रसन्न होंगे और संत नरक में फेंक दिए जाएंगे। लेकिन सारी बात मन के द्वैत होने के कारण है।
मन यह नहीं देख सकता कि परमात्मा और शैतान एक हैं। वे हैं! शैतान सिर्फ विपरीत है दूसरी अति, घृणा, मृत्यु। इसलिए तुम कहते हो, परमात्मा प्रेम है और शैतान घृणा है परमात्मा करुणा है और शैतान हिंसा है, और परमात्मा प्रकाश है शैतान अंधकार है। कैसी मूर्खता है! क्योंकि अंधकार और प्रकाश एक ही ऊर्जा के दो पहलू हैं। अच्छा और बुरा भी, गलत और ठीक नैतिक और अनैतिक एक ही घटना की दो ध्रुवीयताएं हैं। और वह एक घटना है अस्तित्व।
सोसान उसे परमात्मा नहीं कहेगा, क्योंकि अगर तुम उसे परमात्मा कहते हो तो तुम शैतान को इनकार करते हो- वह परमात्मा और शैतान का जोड़ है। अस्तित्व दोनों है, रात और दिन, सुबह और शाम दोनों, प्रसन्नता, अप्रसन्नता- सब। वह सब एक साथ है। और जब तुम यह देखते हो, स्वर्ग और नरक दोनों साथ-साथ देखते हो, फिर कहां है चुनाव? और किसी चीज को चुनने या मांगने में क्या सार है?
सभी मांगें समाप्त हो जाती हैं। आस्था उत्पन्न होती है सत्य की शून्यता में- जहां द्वैत समाप्त हो जाता है, जहां तुम यह भी नहीं कह सकते कि एक है; एक अज्ञात अदभुत घटना का फूल खिलता है, जो श्रद्धा है। कुछ खिलता है जो अति सुंदर है, अत्यंत मूल्यवान है और वह है श्रद्धाकाफूल।

एक ही प्रहार से हम बंधन से मुक्त हो जाते हैं;
न हमें कुछ पकड़ता है और न हम कुछ पकड़ते है।
मन की शक्ति के प्रयास के बिना,
सभी कुछ शून्य है स्पष्ट है स्व-प्रकाशित है।
यहां विचार, भाव, ज्ञान, और कल्पना का कोई मूल्य नहीं है।

तब कोई जीता है सिर्फ जीता है। कोई श्वास लेता है सिर्फ श्वास लेता है। कोई कल्पना नहीं कोई विचार नहीं कोई मन नहीं -उन सबका कोई मूल्य नहीं है। तुम्हें अस्तित्व पर श्रद्धा है और जब तुम अस्तित्व पर श्रद्धा करते हो अस्तित्व तुम पर श्रद्धा करता है। श्रद्धा का यह मिलन परमानंद है समाधि है।
तो इसके लिए क्या करे इ करने का प्रश्न ही नहीं है कुछ भी नहीं किया जा सकता। तुम्हें देखना होगा जीवन को गौर से देखना होगा; द्रष्टा हो जाओ, सब चीजों को देखो। अगली बार जब तुम प्रेम का अनुभव करो तो इससे धोखा मत खाना। प्रेम करो लेकिन भीतर देखो - घृणा वहां प्रतीक्षा कर रही है। और ध्यानपूर्वक देखो। और अचानक वहाँ प्रकाश ही प्रकाश होगा। तुम यह देखने में समर्थ हो जाओगे कि प्रेम और कुछ नहीं है सिर्फ घृणा का पहला कदम है।
फिर किसे चुनें? फिर क्यों मांगें ' हे परमात्मा हमें और प्रेम दे?' क्योंकि और घृणा आ रही होगी- तुम प्रेम में बहोगे और तुम्हें ज्ञात होगा कि घृणा आ रही है। न तो तुम प्रेम को पकड़ोगे... क्योंकि पकड़ का अर्थ घृणा के विरुद्ध लड़ना है। और तुम्हें पता है, जैसे दिन के बाद रात आती है प्रेम के बाद घृणा आएगी। तब क्या होगा? न तो तुम प्रेम को पकड़ोगे और न घृणा से घृणा करोगे।
और जब तुम ऐसे संतुलन में होते हो ऐसी शांति में होते हो जहां तुम प्रेम की मांग नहीं करते जहां तुम घृणा से दूर नहीं होना चाहते जहां तुम किसी चीज को पकड़ते नहीं, कोई चीज तुम्हें नहीं पकड़ती अचानक -तुम न तो प्रेम करते हो न घृणा। अचानक एक ही चोट से द्वैत टूट जाता है। कहीं से भी...
गुरजिएफ अपने शिष्यों से कहा करता था ' तुम अपनी मुख्य विशिष्टता को खोजो। ' यह अच्छी बात है। खोजो तुम्हारी मुख्य विशिष्टता क्या है- भय? घृणा? प्रेम? लोभ? कामवासना? तुम्हारी मुख्य विशिष्टता क्या है? बस गौर से देखो, और उस मुख्य विशिष्टता पर काम करो और उसके विपरीत को एक साथ देखने की चेष्टा करो।
अगर वह प्रेम है तब प्रेम और घृणा को साथ-साथ देखो। अगर तुम देख सको तो वे एक-दूसरे को नकारते हैं। अचानक तुम खाली हो जाते हो - वहां न प्रेम है, न चुरणा है। एक समय में एक ही हो सकता है। दोनों एके साथ वे एक दूसरे को नकारते है।
अचानक वे दोनों ही नहीं होते- अपने समग्र एकांत में केवल तुम अकेले बचते हो। कुछ भी वहां नहीं होता किसी का चिह्न तक नहीं रहता। यही वह शून्यता है जिसकी सोसान बात कर रहा है।
और अगर तुम उसे एक द्वैत में देख सको, तो तुम उसे सबमें देख सकते हो- यह कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं है। एक बार तुमने उसे एक द्वैत में प्रेम-घृणा में देख लिया तुमने उसे सब जगह देख लिया। सब जगह पर वही है। एक बिलकुल अलग प्रकार की होने की गुणवत्ता उत्पन्न होगी।
श्रद्धा। यह कोई सिद्धांत नहीं है जिसमें विश्वास किया जाए उसका किसी परमात्मा से किसी जीसस कृष्ण मोहम्मद, किसी कुरान बाइबिल गीता से संबंध नहीं है। नहीं इसका तुम्हारी होशपूर्णता, सजगता से कुछ संबंध है। पूर्ण सचेत आर-पार देखते हुए, तुम मुक्त हो जाते हो- और एक ही प्रहार से।

एक ही प्रहार से हम बंधन से मुक्त हो जाते हैं;
न हमें कुछ पकड़ता है और न हम कुछ पकड़ते हैं।
मन की शक्ति के प्रयास के बिना,
सभी कुछ शून्य है स्पष्ट है स्व-प्रकाशित है।
यहां विचार, भाव, ज्ञान, और कल्पना का कोई मूल्य नहीं है।

इस पर विचार मत करो इसे जीवन में देखने की चेष्टा करो। ऐसा करना कष्टदायक होगा क्योंकि जब तुम प्रेम को अनुभव कर रहे हो, तुम घृणा के बारे में जरा भी सोचना नहीं चाहते। तुम सच में भयभीत हो कि अगर तुम घृणा की बात सोचते हो, तो प्रेम का सारा आनंद समाप्त हो जाएगा। जब तुम जीवित हो तुम मृत्यु के बारे में बिलकुल सोचना नहीं चाहते क्योंकि तुम डरते हो कि अगर तुम मृत्यु के विषय में अत्यधिक सोचते हो तो तुम जीवन का मजा नहीं ले सकोगे।
लेकिन तुम्हारा भय एक प्रकार से उचित है। अगर तुम सच में मृत्यु के प्रति सजग हो जाते हो, तुम जीवन का इस तरह से मजा न ले पाओगे जिस तरह से तुम इसका मजा ले रहे हो। वह सुख है भी नहीं। वह नहीं है- वह सिर्फ दुख है। तुम इस तरह उसका सुख न ले पाओगे। और इस तरह वह सुखमय बिलकुल नहीं है यह स्मरण रहे।
अगर तुम प्रेम करते समय घृणा के बारे में सोचते हो, तुम उसका सुख वैसे ही न ले पाओगे जैसे तुम ले रहे थे। लेकिन क्या वह वास्तव में सुख है या मन का आदत से ग्रस्त होना है? क्या तुमने वास्तव में प्रेम का आनंद लिया है? अगर तुमने वास्तव में उसका आनंद लिया था तो तुम्हारा फूल खिल गया होता, तब तुम्हारी अलग ही सुगंध होती- और वह नहीं
है। फिर तुम्हारे प्राणों में भिन्न प्रकार का प्रकाश होता और वह नहीं है। तुम खाली हो, निर्धन
हो- भीतर गहरे में अंधकार है-कोई ज्योति नहीं। फिर इस प्रेम में और जीवन में और प्रत्येक चीज में किस प्रकार का सुख है? नहीं, तुम स्वयं को सिर्फ धोखा देते आ रहे हो।
तुम्हारा प्रेम एक नशीले द्रव्य, मादक औषधि के सिवाय और कुछ नहीं है, कुछ क्षणों के लिए तुम इसके प्रभाव में सब भूल जाते हो। फिर आती है घृणा और तुम दुखी होते हो। और फिर दुबारा, क्योंकि तुम दुख में हो, तुम प्रेम खोजते हो, और तुम्हारा प्रेम फिर से गहरी नींद में डूब जाने के सिवाय और कुछ नहीं है। यही तुम्हारा ढंग रहा है। जिसे तुम सुख कहते हो वह नींद में खो जाने के सिवाय और कुछ नहीं है। जब भी तुम्हें अच्छी नींद आती है तुम उसे सुख की भांति लेते हो।
तुम्हारे मन में एक सुखी व्यक्ति कौन है? वह व्यक्ति जो चीजों से दुखी नहीं होता। इसीलिए नशीले द्रव्यों, मादक औषधियों में इतना आकर्षण है, क्योंकि तब सारी चिंताएं भूल जाती हैं। तुम्हारा प्रेम क्या है? ऐसा लगता है कि वह स्वयं को नशे में रखने के लिए भीतर बनी बनाई जैविक प्रक्रिया है। और वह रासायनिक है, शरीर के कुछ रसायन छूटते हैं, इसलिए रसायनों का संतुलन बदल जाता है। वह मारिजुआना या एल. एस. डी. से बहुत भिन्न नहीं है, क्योंकि बुनियादी बात है शरीर में रासायनिक बदलाहट।
प्रेम बदल देता है, उपवास भी बदल देता है, शरीर के रसायन अपने अनुपात की पुरानी व्यवस्था खो देते हैं, अपने नये ढांचे में, कुछ क्षणों के लिए तुम अच्छा अनुभव करते हो। फिर घृणा आती है, फिर संसार प्रवेश करता है, और चिंताएं आती हैं, और फिर तुम दुष्चक्र में फंस जाते हो। ऐसा तुम जन्मों-जन्मों से करते आ रहे हो।
अब उसे करके देखो जो सोसान कह रहा है, और यही सभी बुद्धों ने कहा है। जब तुम प्रेम में हो, देखो, जब तुम प्रेम कर रहे हो- डरो नहीं-- देखो, कैसे वह घृणा में परिवर्तित हो रहा है। जब तुम जीवित हो, देखो, वह कैसे मृत्यु में प्रवेश कर रहा है- प्रत्येक श्वास और तुम मृत्यु की ओर जा रहे हो। समय का हर पल खिसक रहा है, मृत्यु और-और निकट आ रही है। देखो, कैसे तुम्हारी जवानी बुढ़ापा बन रही है। विपरीत को देखो!
साहस की आवश्यकता है, क्योंकि पुराने ढांचे को सहयोग नहीं मिलेगा, इससे वह नष्ट हो जाएगा। लेकिन एक बार तुम प्रेम में घृणा को देख सको, तुम्हें ऐसी शांति मिलेगी जो दोनों के पार होगी। अगर तुम जीवन और मृत्यु दोनों को एक साथ देख सको, तो तुम पार हो जाते हो। एक ही प्रहार में तुम पार हो जाते हो। एक ही चोट में तुम बंधनों से बाहर हो जाते हो, तुम पहली बार तुम एक स्वतंत्र आत्मा हो- तुम स्वयं स्वतंत्रता हो। इसीलिए हम इस परम अवस्था को मोक्ष, स्वतंत्रता कहते हैं।
कुछ भी नहीं करना है। तुम्हें अपने कृत्यों के प्रति और भी होशपूर्ण होना है और ज्यादा सचेत होना है। केवल वही ध्यान है और अधिक सजग। तीक्षा सजगता के क्षण में सजगता एक शस्त्र बन जाती है, और एक ही प्रहार से सारे बंधन टूट जाते हैं।

आज इतना ही।





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