शुन्यता
ही एकात्मा है-(प्रवचन-चौथा)
Hsin Hsin Ming (शुन्य
की किताब)--ओशो
(ओशो की
अंग्रेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद)
सूत्र:
मूल की
ओर लौटना अर्थ को पा लेना है
लेकिन आभासों
के पीछे जाना स्रोत से चूक जाना है।
आंतरिक
बुद्धत्व के क्षण में दृश्य और खालीपन का अतिक्रमण होता है।
जो परिवर्तन
इस शून्य जगत में दिखाई देते हैं
उन्हें
हम अपने अज्ञान के कारण वास्तविक मानते हैं।
सत्य के
लिए खोज मत करो;
केवल धारणाओं
को पकडना छोडू दो।
द्वैत की
स्थिति में मत रहो;
ऐसे पथों
से सावधानीपूर्वक बचो।
यदि 'यह और वह:' उचित और अनुचित ' इसका थोड़ा सा निशान भी
रहे,
तो मन का
सार- तत्व उलझन में खो जाएगा।
यद्यपि
सभी द्वैत एक से ही आते है इस एक से भी आसक्त मत हो जाओ।
जब ध्यान
की राह पर मन विचलित नहीं होता,
तब संसार
में कुछ भी चोट नहीं पहुंचाता
और जब किसी
का भी चोट पहुंचाना समाप्त हो जाता है
तो मन का
पुराना रंग- ढंग समाप्त हो जाता है।
जब कोई
पक्षपातपूर्ण विचार नहीं उठते,
तो पुराना
मन समाप्त हो जाता है।
चैतन्य
का स्वभाव बस दर्पण हो जाना है। दर्पण का अपना स्वयं का कोई चुनाव नहीं है। जो भी इसके
सामने आता है वह प्रतिबिंबित हो जाता है अच्छा या बुरा सुंदर या कुरूप-
जो कोई भी। दर्पण की अपनी कोई पसंद नहीं है वह निर्णय नहीं करता वह निंदा नहीं
करता। स्रोत पर चैतन्य का स्वभाव बस दर्पण की भांति है।
एक बच्चा
पैदा होता है; जो भी उसके
सामने आता है उसे वह प्रतिबिंबित करता है। वह कुछ नहीं कहता कोई व्याख्या नहीं करता। जैसे
ही व्याख्या प्रवेश करती है, दर्पण अपने दर्पण जैसे गुण को खो देता है। अब वह शुद्ध
नहीं रहा। अब वह विचारों मतों से भरा हुआ, विचलित कई अंशों में बंटा हुआ विभाजित खंडित हो जाता
है। वह स्किजोफ्रेनिक
हो जाता है।
जब चेतना
विभाजित हो जाती है दर्पण की भांति नहीं होती, तब वह मन बन जाती है। मन टूटा हुआ दर्पण है।
मूल-स्रोत
में मन चैतन्य है। यदि तुम पक्षपात करना छोड़ देते हो यदि तुम द्वैत में बांटना
छोड़ देते हो- इसके विरुद्ध उसको चुनना; इसे पसंद करना उसे नापसंद करना- यदि तुम
इन विभाजनों से बाहर हो जाते हो मन फिर से एक दर्पण, एक शुद्ध चैतन्य बन जाता है।
इसलिए सत्य
के खोजी की सारी चेष्टा यही है कि किस तरह वह मतों दार्शनिक विचारों प्राथमिकताओं निर्णयों चुनावों से मुक्त
हो। और यह अपने में ही एक चुनाव न बन जाए- यही समस्या है।
इसलिए इस
मूलभूत समस्या को समझने की चेष्टा करो, वरना तुम इसको भी एक चुनाव बना सकते हो मैं चुनाव नहीं करूंगा, मैं चुनावरहित बना रहूंगा ' अब चुनाव मेरे लिए नहीं है, अब मैं चुनावरहित सजगता के पक्ष में हूं।’ अब यह फिर वही बात हो गई- तुमने चुनाव कर लिया। अब तुम चुनाव के विरुद्ध
और चुनावरहितता के पक्ष में हो गए। तुम चूक गए। कोई भी चुनावरहितता के पक्ष में
नहीं हो सकता क्योंकि ' पक्ष में होना
' ही चुनाव
है। तब क्या किया जाए? सिर्फ साधारण
समझ की जरूरत है कुछ भी करने
की जरूरत नहीं। वह परम प्रयास से नहीं समझ के द्वारा प्राप्त किया जाता है।
कोई प्रयास
तुम्हें उसकी ओर नहीं ले जाएगा क्योंकि प्रयास सदा दोहरे मन से आएगा। तब
तुम जगत को नापसंद करते हो और परमात्मा को चाहते हो तब बंधन तुम्हारी पसंद नहीं होता मुक्ति तुम्हारी पसंद होती
है तब तुम मोक्ष, परम मुक्ति
को खोजते हो। लेकिन
फिर मन प्रविष्ट हो गया और मन भीतर आता रहता है। और तुम कुछ नहीं कर
सकते- तुम्हें इस पूरी परिस्थिति के प्रति बस सजग रहना है।
अगर तुम
सजग हो तो आकस्मिक प्रकाश के क्षण में मन गिर जाता है। अचानक तुम दर्पण जैसे चैतन्य के साथ एक हो जाते हो तुम
अपने आधार अपने मूल-स्रोत में गिर जाते हो। और जब तुम मूलस्रोत में गहरे गिर जाते
हो तो सारा अस्तित्व मूल-स्रोत में गिर जाता है।
तुम जैसे
हो अस्तित्व तुम्हें वैसा ही दिखाई देता है। यह मूलभूत नियमों में से एक है। जो कुछ भी तुम देखते हो वह इस बात पर भी निर्भर
करता है कि तुम कहां से देखते हो। अगर तुम मन हो विभाजित हो तो सारा जीवन विभाजित हो
जाता है। अस्तित्व तुम्हारे अंतस तक पहुंचता है। यदि तुम्हारे पास खंडित मन है
तो सारा जगत खंडित दिखाई देगा, तब दिन रात के विरुद्ध है। वे हैं नहीं क्योंकि दिन
रात में बदल जाता है और रात दिन में- वे एक पूरा वर्तुल बनाते हैं। वे विरोधी नहीं
हैं, वे परिपूरक
हैं। बिना रात के दिन नहीं हो सकता और बिना दिन के रात नहीं हो सकती। इसलिए
वे विपरीत नहीं हो सकते हैं, भीतर गहरे में वे एक हैं।
जीवन और
मृत्यु विपरीत दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि तुम विभाजित हो। अन्यथा जीवन मृत्यु
हो जाता है और मृत्यु जीवन बन जाती है तुम पैदा हुए, और उसी दिन से तुमने मरना शुरू कर दिया है और जिस क्षण तुम मरते
हो एक नया जीवन अस्तित्व में आ गया है। यह एक वर्तुल है यिन और यांग चीनियों का
वर्तुल।
उस वर्तुल
को बार-बार स्मरण करना चाहिए। वह उन मूलभूत प्रतीकों में से एक है जिनकी
आज तक खोज हुई है। उसकी तुलना किसी अन्य प्रतीक से- क्रॉस से, स्वस्तिक से ओम से नहीं की जा सकती- चीनी यिन और
यांग की तुलना किसी से नहीं की जा सकती क्योंकि यिन और यांग अस्तित्व की सारी
विपरीतता का बोध कराता है अंधेरी रात और उज्जल दिन का, जीवन और मृत्यु का प्रेम और घृणा का।
अस्तित्व
में सभी विपरीत एक साथ हैं। भीतर तुम खंडित हो बाहर वे खंडित हैं। जब तुम
अपने स्रोत में गिरते हो और तुम एक हो जाते हो तो सारा अस्तित्व अकस्मात एक पंक्ति
में खड़ा हो जाता है और हो जाता है। जब तुम एक हो, ब्रह्म प्रकट होता है, परमात्मा प्रकट होता है क्योंकि केवल एक के लिए एक
प्रकट हो सकता है, दो के लिए दो अनेक
के लिए अनेक। और तुम अनेक हो तुम भीड़ हो- दो भी नहीं, तुम्हारे भीतर अनेक-अनेक स्व हैं।
गुरजिएफ
कहा करता था कि तुम एक वह घर हो जहां कोई नहीं जानता कि मेजबान कौन है। वहां बहुत से
लोग हैं हर कोई मेहमान है- लेकिन कोई नहीं जानता कि मेजबान कौन है, इसलिए हरेक सोचता है कि वही मेजबान है। इसलिए जो
भी जिस क्षण में शक्तिशाली हो जाता है मेजबान की भूमिका निभाता है।
जब क्रोध
शक्तिशाली हो जाता है क्रोध मेजबान बन जाता है। जब प्रेम शक्तिशाली होता है प्रेम मेजबान
हो जाता है। जब ईर्ष्या शक्तिशाली होती है ईर्ष्या मेजबान हो जाती है। लेकिन यह एक
सतत संघर्ष है, क्योंकि
मेहमान बहुत सारे हैं और उनमें से प्रत्येक मेजबान होना चाहेगा घर का मालिक होना चाहेगा।
और कोई भी नहीं जानता कि मालिक कौन है। या तो घर का मालिक किसी लंबी यात्रा पर गया
है और लौट कर नहीं आया, या फिर
वह गहरी निद्रा में सोया है।
तुम्हारा
स्व गहरी नींद में है। इसीलिए सभी जीसस कृष्ण बुद्ध इस बात पर बल देते हैं ' जागो!' जीसस अनेक बार ' जागो ' शब्द का प्रयोग करते हैं ' जागो देखो सजग रहो।’ बुद्ध कहे चले जाते हैं ' और चेतन बनो।’
अर्थ एक
ही है अगर तुम जागरूक हो जाओगे तो मेजबान प्रकट होगा। और जिस क्षण- और यही इसका सौंदर्य
है- मेजबान उपस्थित होता है मेहमान विलीन हो जाते हैं। जैसे ही स्वामी आता है सेवक
पंक्तिबद्ध हो जाते हैं और दास बन जाते हैं। वे यह दावा नहीं करते कि वे मालिक हैं।
इसलिए वास्तविक
समस्या क्रोध ईर्ष्या, घृणा से
संघर्ष करना नहीं है। वास्तविक समस्या है मालिक को लाना और उसे सचेत करना। एक बार जब
वह सजग हो जाता है तो सब ठीक हो जाता है। लेकिन यह सजगता तभी संभव है, जब तुम मूल-स्रोत में लौट जाते हो।
मन विभाजित
ही रहेगा। मन का स्वभाव ही यही है वह एक हो नहीं सकता। मन की प्रकृति को समझने का प्रयत्न
करो तभी सोसान के ये सूत्र स्पष्ट होंगे, पारदर्शी हो जाएंगे।
मन का स्वभाव
चीजों को इस ढंग से देखना है कि विपरीत को बीच में लाना ही पड़ता है। मन बिना विपरीत
के समझ ही नहीं सकता। यदि मैं कहता हूं ' प्रकाश क्या है?' मन इसे कैसे समझेगा? तत्काल अंधकार को बीच में लाना पड़ता है।
अगर तुम
शब्दकोश में देखो- शब्दकोश एक दुब्जक है- अगर तुम यह देखने के लिए जाते हो कि प्रकाश
क्या है तो शब्दकोश कहता है जो अंधकार नहीं है। प्रकाश को परिभाषित करने के लिए अंधकार को लाना पड़ता है। कैसी
मूढ़ता है। और जब तुम अंधकार
की परिभाषा देखने जाते हो- तो तुम चकित होओगे- तो प्रकाश को बीच में लाना पड़ता
है। अंधकार क्या है? तब वे कहते
हैं जो प्रकाश नहीं है।
तुमने दोनों
की ही परिभाषा नहीं की, क्योंकि
दोनों ही अपरिभाषित रह गए। और एक अपरिभाष्य से तुम दूसरे अपरिभाषित की कैसे परिभाषा
दोगे? शब्दकोश
का सारा यही खेल
है कि तुम कभी पूरी चीज को नहीं देखते।
यदि तुम
भाषाविदों से पूछो ' मन क्या
है?' वे कहेंगे
' जो पदार्थ
नहीं है।’ और पदार्थ
क्या है? वे कहते
हैं ' जो मन नहीं
है।’ दोनों की
परिभाषा नहीं दी गई। अपरिभाषित किसी चीज को कैसे परिभाषित कर सकता है? यदि मैं तुमसे पूछूं कि तुम कहां रहते हो तुम कहते
हो ' मैं अ का
पड़ोसी हूं।’ यदि मैं
तुमसे पूछता हूं कि यह अ कहां रहता है, तुम कहते हो? ' वह मेरा पड़ोसी है।’ मैं वह जगह कैसे खोजूं जहां तुम रहते हो? क्योंकि न तो अ की परिभाषा हुई और न तुम्हारी। अ ब के समीप रहता
है और ब अ के। लेकिन चीजें ऐसे ही चलती रहती हैं।
मन तब तक
कुछ समझ नहीं सकता जब तक विपरीत बीच में न लाया जाए क्योंकि मन विपरीत के माध्यम से देखने में समर्थ
होता है। जीवन को समझा नहीं जा सकता जब तक मृत्यु न हो। प्रसन्नता को अनुभव करना
असंभव है यदि अप्रसत्रता न हो। तुम स्वास्थ्य को कैसे अनुभव करोगे यदि तुमने
कभी रोग को नहीं जाना? तुम स्वस्थ
हो सकते हो लेकिन उसे अनुभव नहीं कर सकते। बिना रोग के स्वस्थ होना संभव है
लेकिन मन उसकी जांच नहीं कर सकता मन उसे जान नहीं सकता तुम्हें रोगी होना
ही पडता है।
मन के लिए
संत होने के लिए पहले पापी होना जरूरी है और स्वस्थ होने के लिए रोगी होना जरूरी है
प्रेम में होने से पहले घृणा करना आवश्यक है। यदि तुम प्रेम करते हो और वहां कोई घृणा
नहीं है तो तुम उसे जान नहीं सकोगे तुम्हारा मन किसी भी। तरह इसे पहचान नहीं पाएगा। और दूसरा कोई भी उसे नहीं
जान पाएगा।
किसी बुद्ध
की या किसी जीसस की यही कठिनाई है। बुद्ध प्रेम से परिपूर्ण हैं, लेकिन हम उनके प्रेम को पहचान नहीं पाते- उनके पास
विपरीत की कोई पृष्ठभूमि नहीं है घृणा नहीं है। हमने उनकी आंखों में कभी घृणा नहीं
देखी और हमने उनकी आंखों में कभी क्रोध नहीं देखा। हम कैसे पहचानें कि वे प्रेम
करते हैं? उनका प्रेम
समझ में नहीं आता है।
मन के लिए
तभी कुछ समझना संभव है जब उसका विपरीत लाया जाए। लेकिन जैसे ही तुम विपरीत को बीच में लाते हो तुम अस्तित्व
को झुठला देते हो, क्योंकि अस्तित्व
में विपरीत जैसा कुछ नहीं है।
मन विपरीत
के माध्यम से गति करता है और अस्तित्व एकात्मक है। अस्तित्व अद्वैत है अस्तित्व में द्वैत नहीं है- वहां कोई
समस्या नहीं है। कहां है दिन की सीमा? जब दिन समाप्त होता है उसका होना मिटता है और रात प्रारंभ
हो जाती है? क्या दोनों
में कोई अंतराल
है? यदि कोई
अंतराल है तो सीमा हो सकती है। लेकिन कोई सीमा नहीं है! दिन सिर्फ रात में विलीन हो जाता है यह रात से मिल कर
एक हो जाता है, और फिर
रात दिन में
विलीन हो जाती है। जीवन एक है अस्तित्व एक है- मन द्वैत है।
इसलिए अगर
तुम चुनाव करते रहोगे तो तुम कभी स्रोत तक नहीं पहुंचोगे। तब तुम जीवन से चिपकोगे और मृत्यु से भयभीत रहोगे। तब
तुम प्रेम से चिपकोगे और घृणा से भयभीत होओगे। तब तुम अच्छे के साथ चिपकोगे और
बुरे से भयभीत रहोगे। तब तुम परमात्मा से चिपकोगे और शैतान से डरोगे।
जीवन एक
है परमेश्वर, शैतान-
एक। ऐसा कोई विभाजन नहीं है जहां परमेश्वर समाप्त होता है और शैतान प्रारंभ होता है ऐसा हो
नहीं सकता। जीवन में राम और रावण एक हैं लेकिन मन के लिए वे शत्रु हैं, वे लड़ रहे हैं। मन के लिए सब संघर्ष है, युद्ध है। और यदि तुम चुनाव करते हो तो तुम इस खेल के हिस्से
बने रहते हो। और धर्म की
सारी कला यही है कि कैसे चुनाव न करें कैसे चुनावरहितता में हो जाएं।
लेकिन स्मरण
रहे चुनावरहितता का चुनाव मत करना। नहीं तो मुझे, या सोसान को या कृष्णमूर्ति को सुनकर तुम ' चुनावरहितता ' शब्द से प्रभावित हो जाओगे। तुम्हारा मन कहेगा ' यह तो बहुत अच्छी बात है। यदि मैं चुनावरहित हो जाऊं
तो समाधि संभव है और मुझे
अधिक आनंद घटित होगा। तब जीवन के रहस्यों के द्वार खुल जाएंगे।’ मन को लोभ पकड़ता है। मन कहता है ' ठीक है तो मैं चुनावरहितता को चुनता हूं।’ द्वार बंद हो गया। केवल लेबल बदल गया है लेकिन तुम पुरानी चाल के शिकार
हो गए।
अब इन सूत्रों
को समझने का प्रयत्न करो। ये सूत्र पूरी धरती पर किसी मनुष्य द्वारा
बोले गए सर्वश्रेष्ठ वचनों में से हैं।
बोले गए सर्वश्रेष्ठ वचनों में से हैं।
मूल
की ओर लौटना अर्थ को पा लेना है
लेकिन
आभासों के पीछे जाना स्रोत से चूक जाना है।
‘मूल की
और लौटना अर्थ को पा लेना है’….अस्तित्व की इस सारी लीला का क्या प्रयोजन है? इन सभी वृक्षों मनुष्यों, और पशुओं और पक्षियों का क्या प्रयोजन है? इस धरती और इस स्वर्ग की क्या सार्थकता है? इस संपूर्ण का क्या उद्देश्य है? तुम अर्थ को कहां पाओगे?
मन के लिए
अर्थ अंत में अवश्य होना चाहिए- यह अस्तित्व जिस और जा रहा है-वही अर्थ होगा- वही लक्ष्य होगा। मन के लिए अर्थ
कहीं मंजिल में होगा, जिसकी ओर हम जा
रहे हैं।
और सोसान
का यह सूत्र कहता है ' मूल की
ओर लौटना अर्थ को पा लेना है' - भविष्य में नहीं इच्छा में नहीं और लक्ष्य में नहीं
कहीं और नहीं बल्कि मूलस्रोत में। अंत में नहीं बल्कि आरंभ में।
समझने की
चेष्टा करो। बहुत सी बातें समझनी होंगी। पहली बात यदि कहीं कोई प्रयोजन
है तो वह बीज में होना चाहिए- हो सकता है छिपा हुआ हो, अदृश्य हो लेकिन यह बीज में अवश्य होना चाहिए, क्योंकि ऐसा कुछ जो बीज में नहीं है वह बाहर नहीं
आ सकता। ना-कुछ
से कुछ भी उत्पन्न नहीं हो सकता।
अगर कोई
लक्ष्य है तो उसे बीज में छिपा होना चाहिए जैसे फल बीज में छिपा रहता है-
फूल वृक्ष का प्रयोजन है। जब उस पर फूल खिलते हैं तो वह हर्षित होता है, जब उस पर बहार आती है वह गाता और नाचता है। उसे उपलब्धि
हो गई है वह प्रसन्न है आनंदित
है उसे अब किसी चीज का अभाव नहीं है। फूल वृक्ष का आनंद है वृक्ष का नृत्य है
कि ' मैंने पा
लिया है।’
लेकिन उन
फूलों को कहीं तो बीज में होना चाहिए अन्यथा वे कैसे हो सकते हैं? अंत को अवश्य ही आरंभ में होना चाहिए ओमेगा को अल्फा
में छिपा होना ही चाहिए। जीसस
कहते हैं ' मैं ही
आरंभ और अंत हूं। मैं ही अल्फा हूं और मैं ही ओमेगा हूं।’
आरंभ ही
अंत है क्योंकि हो सकता है अंत अभी प्रकट न हो परंतु वह वहां अवश्य होना चाहिए। और जब वह बीज में है तो तुम्हें
भविष्य के आने की फूलों के खिलने की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है। तुम
अभी इसी समय आरंभ को भीतर तक देख सकते हो क्योंकि वह यहीं है। स्मरण रहे बीज
अतीत में नहीं है। बीज सदा वर्तमान में यहीं और अभी होता है क्योंकि पूरा अतीत
वर्तमान में है।
निश्चित
ही पूरा भविष्य भी वर्तमान में है लेकिन भविष्य अभी हुआ नहीं और अतीत हो
चुका है आरंभ घटित हो चुका है। आरंभ में प्रवेश करो मूल की ओर स्रोत की ओर बढ़ो
और अर्थ प्रकट हो जाएगा।
और तुम
अब भी बीज को अपने भीतर लिए हो-बीज सभी अर्थों का सभी संभावनाओं का उन सभी द्वारों का जो खुल सकते हैं
सभी रहस्यों का जो उदघाटित हो सकते हैं। बीज तुम लिए हुए हो! लेकिन अगर तुमने भविष्य
की प्रतीक्षा की तो हो सकता है वह कभी न आए क्योंकि भविष्य अंतहीन है और प्रतीक्षा
करना जीवन, समय और
ऊर्जा को गंवाना
है।
और अगर
प्रतीक्षा की आदत हो जाती है तो हो सकता है फूल तो खिल जाए लेकिन तुम देखने के योग्य न रहो। क्योंकि तुम्हें
भविष्य में देखने की आदत हो गई है, तुम्हारी नजरें अटक गई हैं। वे निकट की चीजों को
और पास में नहीं देख पातीं, वे हमेशा दूर की
चीजों को देख सकती हैं।
अगर तुम
जन्म-जन्मांतरों से भविष्य में अर्थ को खोजते रहे हो और फूल खिलता है, तुम उसे देख न पाओगे- क्योंकि देखना फूल पर निर्भर
नहीं है देखना तुम्हारी पैनी दृष्टि पर निर्भर करता है। और तुम्हारे पास वह भेदक
दृष्टि नहीं है नहीं तो आरंभ सदा वहीं है बीज सदा वहीं है। तुमने उसे देख लिया होता।
अगर तुम
भविष्य की ओर देखते हो और अर्थ के कहीं और प्रकट होने की प्रतीक्षा करते हो
तो देर-अबेर तुम्हें लगेगा कि जीवन अर्थहीन है। पश्चिम में यही हो रहा है, क्योंकि दर्शनशास्त्र निरंतर यही सोचता रहा है कि
मंजिल कहीं भविष्य में है।
यह सोचना
कि लक्ष्य आरंभ में है बहुत असंगत प्रतीत होता है। यह बात विरोधाभासी प्रतीत होती है क्योंकि लक्ष्य आरंभ में
कैसे हो सकता है? इसलिए मन
कहता है लक्ष्य
निश्चित ही कहीं आगे होगा क्योंकि मन इच्छाओं के द्वारा जीता है, इच्छाओं के माध्यम से चलता है। प्रेरणा को कहीं भविष्य में होना
चाहिए। और दो हजार वर्षों से निरंतर भविष्य के संबंध में सोचने के कारण अब पश्चिमी चित्त
सोचता है कि कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि भविष्य नहीं आया है।
भविष्य
कभी नहीं आता! अपनी प्रकृति के कारण वह कभी आ नहीं सकता, वह सदा
अनागत रहता है। वह आ रहा है परंतु आता कभी नहीं। वह उस कल की तरह है जो कभी
नहीं आता। वह जब भी आता है सदा आज ही आता है जब भी आता है सदा वर्तमान
ही होता है।
भविष्य
कभी नहीं आता आ नहीं सकता। इसका मूल स्वभाव आशा, स्वप्न के समान है- भ्रमपूर्ण। ऐसा लगता है जैसे कि वह आ रहा
है ठीक क्षितिज की भांति, यह कभी आता
नहीं। फिर प्रतीक्षा करते-करते तुम निरर्थक अनुभव करने लगते हो। आज पश्चिम
का पूरा विचारशील चित्त अनुभव कर रहा है, कि जीवन निरर्थक है, असंगत है। और यदि तुम अनुभव करते हो कि जीवन असंगत अर्थहीन
है तो आत्महत्या ही इससे छुटकारा
पाने का एकमात्र उपाय रह जाता है।
इस सदी
के महान पश्चिमी विचारकों में एक मार्सल ने लिखा है कि आत्महत्या एक मात्र
समस्या है। अगर तुम्हें लगता है कि जीवन अर्थहीन है तब क्या शेष रह जाता है? फिर इसे क्यों खींचते जाना? फिर जीना ही क्यों?
अगर कोई
सार्थकता नहीं है और तुम कोल के बैल की तरह घूम रहे हो... प्रतिदिन तुम जागते हो काम पर जाते हो थोड़े से रुपये
कमाते हो, रात को
सो जाते हो, सपने देखते
हो, फिर सुबह.
चक्र घूमता रहता है और तुम कहीं नहीं पहुंचते। अंत में मौत है इसलिए प्रतीक्षा क्यों करें? क्यों न आत्महत्या कर लें? इस अर्थहीन जीवन को नष्ट क्यों न कर दें? और उसके लिए जो अर्थहीन है क्यों चिंता करें और क्यों
इतना बोझ उठाएं और क्यों
इतनी दुख-पीड़ा सहे? यह एक तार्किक
निष्पत्ति है।
अगर तुम
भविष्य में देखते हो तो तुम्हें समझ में आएगा कि कोई अर्थ नहीं है। लेकिन यदि
तुम सच में अर्थ चाहते हो तो इसका उपाय है- बीज में देखो और बीज अभी और यहीं
है। लेकिन मन को भविष्य में देखना अच्छा लगता है यह सरल है। बीज में देख
पाना कठिन है। यही तो सारी साधना है यही तो कठिन प्रयास है बीज में देखना-
क्योंकि यदि तुम बीज में देखना चाहते हो तो तुम्हें एक अलग प्रकार की गुणवत्ता वाली दृष्टि
की जरूरत होगी। तुम्हें तीसरी आंख की आवश्यकता होगी, क्योंकि ये साधारण आंखें केवल बाहरी खोल तक ही देख सकती हैं।
लेकिन उस अदृश्य को जो पीछे
छिपा है, जो रहस्य है- ये आंखें उतनी गहराई तक जाकर नहीं देख सकतीं।
छिपा है, जो रहस्य है- ये आंखें उतनी गहराई तक जाकर नहीं देख सकतीं।
आंखों की
एक भिन्न प्रकार की गुणवत्ता की आवश्यकता है जो अभी भीतर तक पहुंच कर देख सके कि बीज में क्या छिपा है। यदि तुम
बाहर-बाहर से देखते हो तो तुम्हारी नजर भीतर नहीं पहुंच सकती क्योंकि तुम्हारी निगाहें
शरीरों से बीजों के खोल से टकराएंगी। यदि तुम वास्तव में बीज के भीतर देखना
चाहते हो, तो अपने
भीतर झांको- क्योंकि
तब खोल से कोई अड़चन नहीं है- भीतर से तुम भी एक बीज हो।
तुम्हारा
संबंध इस अस्तित्व से है, तुम इससे
ही निकले हो। इस अस्तित्व का ब्लू- प्रिंट तुम्हारे भीतर है, यह अस्तित्व तुम्हारे माध्यम से किसी नियति को पूर्ण
करने की कोशिश कर
रहा है। भीतर देखो क्योंकि तब खोल से कोई समस्या नहीं है। तुम्हें खोल के भीतर घुस
कर देखने की जरूरत नहीं है तुम उसके भीतर ही हो। यही ध्यान है बीज के भीतर
देखना, स्वयं के
भीतर देखना। वहां अर्थ खिल उठता है वह तत्काल खिल जाता है। वह सदा से वहां था इसे बस तुम्हारे ध्यान की
आवश्यकता थी। तुमने उसकी उपेक्षा की थी तुम उसके प्रति उदासीन थे। तुम दूसरी चीजों
में उलझे हुए थे व्यस्त थे- और तुम स्वयं की ओर पीठ मोड़ कर खड़े थे।
और अर्थ
प्रतीक्षा करता है, और सारे
जीवन का प्रयोजन छिपा हुआ रहता है और आशीष और प्रसाद बस तुम्हारे वापस मुड़ने की प्रतीक्षा
करते रहते हैं।
ईसाई शब्द
' कनवर्जन
' का अर्थ
है वापस आना। उसका अर्थ किसी हिंदू को या मुसलमान को ईसाई बनाना नहीं है-उसका अर्थ है सजगतापूर्वक
अपने भीतर लौट आना।
मूल की
ओर लौटना अर्थ को पा लेना है
लेकिन आभासों
के पीछे जाना स्रोत से चूक जाना है।
बाहर केवल
आभास हैं। तुम नहीं जान सकते कि बाहर क्या है, क्योंकि इंद्रियों के द्वारा तुम केवल आभासों को छू सकते हो। मैं तुम्हें
देख नहीं सकता। मैं केवल तुम्हारा शरीर देख सकता हूं- पूरा शरीर भी नहीं बल्कि केवल
ऊपरी सतह केवल त्वचा की ऊपरी
परत ही दिखाई पड़ती है। मैं नहीं जानता कि तुम वहां हो या नहीं। हो सकता है तुम केवल एक
स्वचालित यंत्र एक रोबोट हो- कौन जानता है?
रोबोट संभव
है अब तो और अधिक। एक रोबोट बनाया जा सकता है। और अगर रोबोट है तो उसका बाहर से तुम्हें पता भी नहीं
चलेगा क्योंकि वह आंखें झपकाएगा
वह उत्तर भी देगा? यदि तुम
कहते हो ' हेलो!' वह कहेगा, ' हेलो, आप कैसे हैं?' तुम कैसे जानोगे कि वह रोबोट नहीं है? ऊपर से वह बिलकुल मनुष्य जैसा है, कोई अंतर नहीं है।
वह बात
करता है और वह बुद्धिमत्तापूर्वक बात करेगा- कभी-कभी वह तुमसे भी अधिक बुद्धिमत्तापूर्वक
क्योंकि उसमें सभी कुछ पूरी तरह से भर दिया गया है। उसकी जानकारी बिलकुल सही है वह बहुत कुछ जानता है वह तुमसे
अधिक जान सकता है। वे कहते
हैं कि एक छोटा सा कंप्यूटर इतना कुछ जान सकता हैं जितना पांच सौ वैज्ञानिक पांच सौ
जन्मों में जान सकते हैं। रोबोट के मस्तिष्क में एक कंप्यूटर रखा जा सकता है, निस्संदेह वह बैटरी द्वारा संचालित है। तुम पूछो
वह उत्तर देता है। और उसके उत्तर तुम्हारे उत्तरों की भांति गलती की संभावना वाले नहीं होते।
और वह कभी मूर्ख नहीं बनेगा, वह हमेशा एक बुद्धिमान व्यक्ति ही होगा।
कैसे निर्णय
करें कि भीतर कौन है? तुम्हारी
दृष्टि भीतर तक देख नहीं सकती। तुम सिर्फ बाहर घूम-घूम कर चारों ओर चक्कर लगा सकते हो।
तुम सतह को छू सकते हो। तुम
केवल अपने भीतर जा सकते हो। केवल वहीं तुम चेतना के संबंध में निश्चित हो सकते
हो- और कहीं नहीं। सारा संसार भले ही एक सपना हो कौन जानता है? मैं सपना देख सकता हूं कि तुम यहां बैठे हो और मैं तुम
से बात कर रहा हूं। तुम सपना देख सकते हो कि तुम यहां बैठे हो और मुझे सुन रहे हो।
क्या तुम्हारे पास प्रमाणित करने के लिए कोई कसौटी है कि यह सपना नहीं है? कोई उपाय नहीं है।
आज तक कोई
यह सिद्ध करने में समर्थ नहीं हुआ कि यह सपना नहीं है, क्योंकि सपने में भी चीजें इतनी वास्तविक लगती हैं- उससे
भी अधिक वास्तविक जब तुम जाग रहे होते हो- क्योंकि जाग्रतावस्था में कभी-कभी मन
में संदेह उत्पन्न हो जाता है कि यह सत्य है या नहीं। लेकिन स्वप्न में कभी मन में संदेह
नहीं उठता स्वप्न में तुम्हें चीजें ऐसे प्रतीत होती हैं जैसे कि वे यथार्थ हों।
च्यांगत्सु
के संबंध में कहा जाता है...
एक दिन
सुबह च्यांगत्सु ने रोना और चिल्लाना शुरू कर दिया। उसके शिष्य इकट्ठे हो गए और
उन्होंने पूछा गुरुदेव, आप क्या
कर रहे हैं? आपको क्या
हो गया है?
च्यांगत्सु
ने कहा मैं दुविधा में पड़ गया हूं। पिछली रात मैंने स्वप्न में देखा कि मैं तितली हो
गया हूं।
शिष्यों
ने कहा लेकिन इसमें रोने- धोने और उदास होने की क्या बात है? सभी लोग कई चीजों के सपने देखते हैं। सपने में तितली
बन जाना कोई अनुचित बात नहीं है।
नागर ने
कहा समस्या यह नहीं है। अब मैं चिंतित हूं अब मन में एक संदेह उठ
खड़ा हुआ है और मैं नहीं जानता कि निष्कर्ष पर कैसे पहुंचूं। रात को नांगर ने स्वप्न देखा कि
वह तितली हो गया है, अब संदेह
उत्पन्न हो गया है यह हो सकता है तितली अब स्वप्न देख रही हो कि वह नांगर हो गई है।
और कौन
है जो फैसला करे, और कैसे? यदि सपने में नांगर एक तितली बन सकता है
तो इससे उलटा क्यों नहीं हो सकता है कि एक तितली फूल पर बैठी सपना देख रही हो
कि वह एक बुद्ध बन गई है।
इसमें कोई
कठिनाई नहीं, बात सीधी
साफ है। नांगर ने एक सुंदर और मूलभूत समस्या को उठाया है तुम बाहर के संसार के संबंध में
कैसे निश्चित हो सकते हो कि यह एक सपना नहीं है? ऐसे कई दर्शनशास्त्र हुए हैं जिन्होने सिद्ध करने
की कोशिश की है कि यह सारा
जगत स्वप्न है। कोई भी उन सिद्धांतों में विश्वास नहीं करता, लेकिन कोई उनका खंडन भी नहीं कर सका।
पश्चिम
में, बर्कले
ने यह सिद्ध किया है कि संपूर्ण अस्तित्व एक स्वप्न है। कोई उसका विश्वास नहीं करता, वास्तव में, वह स्वयं भी उसमें विश्वास नहीं करता, क्योंकि उसका सारा जीवन यही दर्शाता है कि उसे भी
जगत के स्वप्न होने में विश्वास नहीं है। यदि तुम उसका अपमान करते हो तो वह क्रोधित हो जाता
है। यदि तुम उस पर पत्थर फेंकते
हो वह बचने की कोशिश करता है। यदि तुम उसे चोट मारते हो, वह डाक्टर के पास भागा जाता है क्योंकि खून बह रहा है।
डॉक्टर
जॉनसन ने इसी तरह बर्कले के सिद्धांत का खंडन करने का प्रयत्न किया है। वे दोनों
मित्र थे और एक दिन टहलते हुए बर्कले ने कहा अब मैंने सिद्ध कर दिया है
कि सारा जीवन सपना है, और मेरा
खयाल है कि अब कोई इसे असिद्ध नहीं कर सकता।
और हां, वह ठीक था। अब तक कोई भी उसका खंडन करने में समर्थ
नहीं हुआ था-खंडन
करना असंभव है! कैसे उसका खंडन करें?
डॉक्टर
जॉनसन नीचे झुका एक पत्थर उठाया और बर्कले के पैर पर दे मारा। वह चिल्लाया।
डॉक्टर जॉनसन ने कहा : यह पत्थर वास्तविक है।
बर्कले
हंसा और उसने कहा : यह मेरे दार्शनिक सिद्धांत का खंडन नहीं कर सकता क्योंकि
हो सकता है मेरी चीख केवल एक सपना हो जो तुमने देखा है। मेरे पैर से बहता हुआ खून, तुम कैसे सिद्ध कर सकते हो कि यह यथार्थ है, और एक सपना नहीं है।
क्योंकि
सपने में भी अगर तुम्हें चोट मारी जाती है तो खून बहेगा। और सपने में भी तुम बहुत
बार चीखे-चिल्लाए हो। सपने में भी, जब तुम दुःस्वप्न देखते हो तो पसीना आ जाता है
और तुम कांपने लगते हो और तुम्हारे हृदय की धड़कन तेज और अनियंत्रित हो जाती है, और सपने के टूट जाने पर भी सब शांत होने में कुछ
मिनट लग जाते हैं। तुम जानते हो कि सपना टूट गया है, तुम जाग गए हो, और तुम जानते हो कि वह सपना था, लेकिन फिर दिल धक-धक करता रहता है और भय बना रहता है और माथे पर
पसीना होता है।
ऐसा स्वप्न
में घट सकता है, इसे अप्रमाणित
करने का कोई उपाय नहीं है। बाहर ज्यादा से ज्यादा हम कह सकते हैं कि वहां प्रतीक
होते हैं। वस्तुओं को अपने आप में इस तरह से जाना नहीं जा सकता है।
केवल एक
सच्चाई है जिसके संबंध में तुम पूर्ण रूप से निश्चित हो सकते हो और वह सच्चाई
भीतर है। तुम भीतर जा सकते हो। तुम केवल स्वयं के बारे में निश्चित हो सकते हो
और किसी के बारे में नहीं। लेकिन एक बार अगर तुम भीतर गहरे में इस निश्चितता
को देख लेते हो कि तुम हो।
स्मरण रहे
स्वप्न में भी तुम होते हो। भले ही तुम तितली हो गए हो लेकिन तुम हो। स्वप्न
के अस्तित्व के लिए भी कम से कम तुम्हारा होना आवश्यक है। सभी कुछ स्वप्न
हो सकता है लेकिन तुम नहीं, क्योंकि
बिना तुम्हारे स्वप्न भी नहीं हो सकता। स्वप्न देखने के लिए भी चेतना की जरूरत है।
तुम सिद्ध
कर सकते हो कि सभी कुछ स्वप्न है लेकिन तुम यह सिद्ध नहीं कर सकते कि स्वप्न देखने वाला स्वप्न है क्योंकि स्वप्न
देखने वाला वास्तविक होना चाहिए अन्यथा स्वप्नों का अस्तित्व नहीं हो सकता। एक बात
निश्चित है और वह है तुम। केवल एक बात बिलकुल निश्चित है और वह है भीतर की तुम्हारी
वास्तविकता। कनवर्जन का अर्थ
है अनिश्चित जगत और आभासों के जगत से यथार्थ के जगत की ओर चले जाना। और एक बार
जब तुम्हें आंतरिक निश्चितता का बोध हो जाता है तब तुम्हारी जड़ें धरती में दृढ़ हो जाती हैं; एक बार जब तुम जान जाते हो कि तुम हो, फिर उस निश्चयात्मकता के कारण दृष्टिकोण बदल जाता है, गुणवत्ता बदल जाती है। फिर तुम बाहर के जगत
को देखते हो और एक भिन्न जगत प्रकट होता है-वह जगत ही परमात्मा है।
जब किसी
निश्चित यथार्थ बिलकुल निश्चित वास्तविकता में तुम्हारी जड़ें जम जाती हैं, तब तुम्हारी दृष्टि एक अलग गुणवत्ता ग्रहण कर लेती
है, तब एक श्रद्धा
होती है। अब तुम
देख पाते हो और सारा जगत बदल जाता है। फिर कोई प्रतीक नहीं होते, बल्कि यथार्थ होता है, जो वास्तव में वास्तविक है।
वह क्या
है जो वास्तव में वास्तविक है? वह ये आकार नहीं है। आकार परिवर्तित हो जाते
हैं, लेकिन जो
रूपों में गतिमान है वह अपरिवर्तनीय है।
तुम बच्चे
थे फिर तुम युवा हुए फिर तुम बूढ़े हो गए- रूप निरंतर परिवर्तित होता रहा। हर
पल तुम्हारा शरीर बदल रहा है तुम्हारा रूप आकार बदल रहा है, लेकिन अगर तुम अपने भीतर झांको तो पाओगे कि तुम वही हो।
मां के
गर्भ में तुम एक छोटी सी सूक्ष्म कोशिका थे, जिसे नग्न आंखों से देखा भी नहीं जा सकता
था; फिर एक
छोटे बच्चे थे, फिर एक
युवा हुए-कई सपनों और कामनाओं से भरे- और फिर एक निराश, हतोत्साहित, असफल वृद्ध हो गए। लेकिन अगर तुम भीतर देखो तो
पाते हो कि सभी कुछ वैसे का वैसा है। चेतना कभी नहीं बदलती।
अगर तुम
भीतर देखो तो हैरान हो जाओगे तुम्हें यह भी पता नहीं चलेगा कि तुम्हारी
आयु क्या है क्योंकि चेतना की आयु नहीं होती। यदि तुम आंखें बंद कर लो तो यह नहीं
कह सकते कि तुम्हारी आयु बीस वर्ष है या चालीस वर्ष या साठ वर्ष क्योंकि आयु का संबंध
शरीर से है ऊपरी खोल से है। तुम्हारा सत्य आयु-विहीन है, उसका कभी जन्म नहीं हुआ और उसकी मृत्यु भी नहीं होती है।
एक बार
तुम इस शाश्वत, अपरिवर्तनशील
अचल परमतत्व में केंद्रित हो जाते हो तो तुम्हारी गुणवत्ता बदल जाती है। तब तुम देख सकते
हो, तब तुम
एक दर्पण हो जाते हो। उस
दर्पण में सत्य प्रतिबिंबित होता है। लेकिन पहले तुम्हें दर्पण होना पड़ेगा। तुम इतने तरंगित
हो रहे हो इतने कंपित हो रहे हो कि तुम कुछ भी प्रतिबिंबित नहीं कर सकते- तुम सब विकृत
कर देते हो।
मन वास्तविकता
को विकृत करता है? और चेतना
इसे प्रकट करती है।
मूल की
ओर लौटना अर्थ को पा लेना है
लेकिन आभासों
के पीछे जाना स्रोत से चूक जाना है।
अगर तुम
आभासों के पीछे अपनी दौड़ जारी रखते हो तो स्रोत से चूक जाते हो क्योंकि
आभास बाहर हैं। कभी तुम धन के पीछे भागते हो कभी तुम स्त्री या पुरुष के पीछे, कभी तुम प्रतिष्ठा और सत्ता के पीछे और तुम आभासों
के पीछे भागते रहते हो। और
पूरा समय तुम अपने को चूक रहे हो और पूरा समय तुम स्वप्नों की दुनिया में जी रहे
हो।
अगर तुम
मूल-स्रोत को चूक जाते हो तो तुम सब चूक जाते हो। बाहर के जगत में भले
ही तुम बहुत कुछ पा लो, लेकिन अंत
में तुम पाओगे कि तुम्हें कुछ भी उपलब्ध नहीं हुआ। तुमने उस एक को खो दिया है जिसमें सारे
अर्थ समाए हुए हैं।
हो सकता
है मरते समय तुम एक धनी व्यक्ति की मौत मर रहे होओ लेकिन भीतर तुम एक
निर्धन व्यक्ति की, एक भिखारी
की मौत मरोगे। मरते समय हो सकता है तुम बहुत शक्तिशाली होओ, हो सकता है किसी देश के महान राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री
होओ, लेकिन भीतर कहीं
गहरे में तुम्हें मालूम होगा कि तुम नपुंसक हो। मृत्यु सिद्ध कर देगी कि तुम्हारी शक्ति बस
एक आभास थी मृत्यु के सामने तुम्हारी शक्ति निर्बल है, असहाय है। वास्तव में शक्ति वही है जो मृत्यु के भी पार जाती है- शेष
सब नपुंसकता है। कुछ समय तुम इसमें विश्वास कर लो लेकिन मृत्यु तुम्हारे सामने
सत्य को प्रकट कर देगी।
सदा स्मरण
रखो कि मृत्यु आ रही है मृत्यु ही कसौटी है मृत्यु जिसे असिद्ध कर देती है
वही अमान्य है और मृत्यु जो भी सिद्ध कर देती है वही मान्य है। जो भी मृत्यु का अतिक्रमण
कर सकता है, जो भी मृत्यु
से अधिक शक्तिशाली है, वही सत्य
है। सत्य कभी नहीं मरता; असत्य हजारों बार मरता है।
आंतरिक
बुद्धत्व के क्षण में दृश्य और खालीपन का अतिक्रम केवल तब जब बुद्धत्व घटित होता है, जब तुम अंतर-प्रकाश से भर जाते हो.. प्रकाश
तो वहां है लेकिन तुम उसे बाहर की ओर फेंकते रहते हो। वह तुम्हारी इच्छा से परिचालित
होता है। इच्छा अवधान का केंद्र बन जाती है, प्रकाश निरंतर गतिशील रहता है। यदि तुम्हारी
धन-संपदा में अधिक आसक्ति है तो तुम्हारे पूरे प्राण धन पर केंद्रित हो जाते हैं, फिर तुम केवल धन को देखते हो और कुछ भी नहीं। यदि
तुम किसी व्यक्ति से मिलते
भी हो तो उसे नहीं देखते तुम धन को देखते हो। यदि व्यक्ति निर्धन है तो उसकी कोई छाप
तुम्हारे मन पर नहीं छूटती यदि वह धनी है तो एक छाप छूट जाती है। यदि वह बहुत ही
धनी व्यक्ति है तब वह तुम्हें याद रहता है तब स्मृति बन जाती है।
यदि तुम
सत्ता के पीछे हो और तुम किसी हिटलर या स्टैलिन या माओ से मिलते हो तो तुम
एक व्यक्ति से मिल रहे हो लेकिन व्यक्ति गौण है। सत्ता.. .जब निक्सन प्रेसिडेंट नहीं रहा, तुम उसे नहीं देख पाओगे हो सकता वह तुम्हारे पास
से गुजर जाए, लेकिन अब वह वही
व्यक्ति नहीं रहा है।
तुम वही
देखते हो जो तुम्हारी इच्छा है, तुम्हारी इच्छा ही तुम्हारी दृष्टि है, और तुम्हारा प्रकाश सदा तुम्हारी इच्छा पर ही केंद्रित रहता है।
जब यह प्रकाश लौटता है, परावर्तित
होता है, भीतर की ओर वापस लौटता है। सब आलोकित हो जाता है।
तुम प्रकाश से भर जाते हो। तुम ऐसा घर हो जाते हो जिसमें दीया है, अब भीतर तुम अंधकार नहीं हो।
'आंतरिक बुद्धत्व के क्षण में दृश्य और खालीपन का अतिक्रमण
होता है ' और सहसा तुम
आभास और शून्यता के पार हो जाते हो। फिर कुछ भी केवल आभास नहीं है
कुछ भी शून्यता नहीं है- सभी कुछ दिव्यता से परिपूरित हो जाता है। सब-कुछ भरा हुआ है
उस दिव्य परमतत्व से छलकता हुआ- प्रत्येक वृक्ष प्रत्येक नदी प्रत्येक सागर-दिव्यता
से ओतप्रोत है। तब परमात्मा सर्वव्यापक है तुम उसे सत्य कहो या जो भी तुम्हें
अच्छा लगे लेकिन सत्य सर्वव्यापी है।
जब तुम
सत्य हो, तब जगत
भी सत्य है; जब तुम
झूठी इच्छाओं में जी रहे हो तो तुम आभासों का जगत निर्मित कर लेते हो। तुम जैसे हो तुम्हारा
संसार वैसा ही है। और यहां उतने ही संसार हैं जितने लोग हैं, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी ही दुनिया में जीता
है, प्रत्येक
व्यक्ति अपने चारों
ओर अपना ही जगत निर्मित कर लेता है। वह तुम्हारा प्रक्षेपण और सृजन है।
जो परिवर्तन
इस शून्य जगत में दिखाई देते है?
उन्हें
हम अपने अज्ञान के कारण वास्तविक मानते हैं।
जो परिवर्तन
इस शून्य जगत में घटित होते प्रतीत होते हैं उन्हें हम केवल अपने अज्ञान
के कारण वास्तविक कहते हैं। तुम कहते हो कि कोई बूढ़ा है, तुम बुढ़ापे को एक सच्चाई समझते हो, क्योंकि तुम नहीं जानते हो कि वास्तविक क्या है।
वरना कोई भी युवा नहीं, कोई भी वृद्ध नहीं और कोई भी बच्चा नहीं है। अंतस
आयुविहीन है, केवल बाहरी रूप ही
परिवर्तित होता है।
मेरे वस्त्र
पुराने हैं। क्या तुम मुझे इसलिए वृद्ध कहोगे क्योंकि मेरे वस्त्र पुराने हैं? मेरे वस्त्र नये हैं, बिलकुल नये, अभी-अभी दर्जी से आए हैं। क्या तुम इसलिए मुझे युवा कहोगे क्योंकि
मेरे वस्त्र नये हैं? शरीर कुछ
और नहीं सिर्फ कपड़े हैं। क्या तुम शरीर के कारण किसी को वृद्ध, किसी को युवा और किसी को बच्चा कहते हो? उस रूप-आकार के कारण जो सतत परिवर्तित हो रहा है? जिन्होंने जाना है वे कहते हैं, वास्तविक अचल है, अटल है अपरिवर्तनीय है। कपड़े बदलते रहते हैं।
रामकृष्ण
की मृत्यु हो गई। मृत्यु से ठीक पहले जब चिकित्सक ने कहा, अब वे बच नहीं सकते, रामकृष्ण की पत्नी शारदा रोने लगी। और ये रामकृष्ण
के अंतिम शब्द हैं उन्होंने
कहा ' रोओ मत।
मैं नहीं मर रहा हूं। चिकित्सक लोग जो कह रहे हैं वह कपड़ों पर लागू होता
है।’
उनकी की
मृत्यु कैंसर के कारण हुई थी। और रामकृष्ण ने कहा जहां तक मैं जानता हूं
मुझे कैंसर नहीं है। कैंसर केवल कपड़ों पर लागू होता है। इसलिए स्मरण रखना, जब चिकित्सक कहें कि मैं मर गया हूं उनका विश्वास
न करना मेरा विश्वास करना- मैं जीवित रहूंगा।
और शारदा, भारत के पूरे इतिहास में केवल वही एक ऐसी विधवा है
जो कभी विधवा नहीं
हुई- क्योंकि भारतीय विधवाओं को जब उनके पति मर जाते हैं अपना जीने का ढंग, अपना तौर-तरीका बदलना पड़ता है। वे रंगीन वस्त्र नहीं
पहन सकतीं क्योंकि उनके जीवन
से रंग विदा हो गया है। वे आभूषण नहीं पहन सकतीं क्योंकि अब वे किसके लिए
पहनें?
लेकिन शारदा
ने अपना जीवन वैसा ही रखा जैसे पहले था, जब रामकृष्ण जिंदा थे। और लोगों ने सोचा कि वह पागल हो गई है और वे
उसके पास आते और कहते, अपने आभूषण
उतार दो विशेष रूप से अपनी चूड़ियां उतार दो। उन्हें तोड़ डालो अब तुम विधवा हो।
और वह हंसती
और कहती, मैं तुम्हारा
विश्वास करूं या परमहंस रामकृष्ण का? क्योंकि उन्होंने स्वयं कहा था, केवल वस्त्र मरेंगे मैं नहीं। और मेरा विवाह उनसे
हुआ था, उनके वस्त्रों
से नहीं। तो क्या मैं आपकी बात सुनूं या परमहंस रामकृष्ण की?
उसने रामकृष्ण
की बात सुनी और अंत तक विवाहित ही बनी रही। और वह बहुत आनंद में जीती रही क्योंकि इस बात ने उसके जीवन को
रूपांतरित कर दिया। उसे एक तथ्य समझ में आ गया- कि शरीर वास्तविक नहीं है।
उसने अपने
जीवन का पुराना ढंग ही जारी रखा। यह पागलपन तो लगेगा ही क्योंकि पागलों की इस दुनिया में जहां कपड़ों को सच
समझा जाता है, वहां किसी
का इस प्रकार
का असंगत व्यवहार पागलपन लगेगा ही।
वह रोज
रात को बिस्तर तैयार करती और रामकृष्ण के कमरे में जाती और कहती : ' परमहंसदेव
आइए, आपके सोने
का समय हो गया है- और वहां कोई नहीं था। और वह हंसते-गाते प्रसन्नतापूर्वक उसी तरह भोजन पकाती
जैसे वह सदा पकाती थी। फिर वह जाकर रामकृष्ण को बुलाती आइए, परमहंसदेव आपका भोजन तैयार है।’
उसने अवश्य
कुछ जान लिया होगा। और ऐसा कोई एक दिन के लिए नहीं था, वर्षों ऐसा चलता रहा। रामकृष्ण के इस सीधे-सरल संदेश
ने केवल वस्त्र ही मृत्यु को प्राप्त होंगे मैं नहीं- उसके जीवन को रूपांतरित
करके पवित्र बना दिया। वह अपने स्वयं के अधिकार से बुद्धत्व को उपलब्ध हो गई।
जो परिवर्तन
इस शून्य जगत में दिखाई देते हैं
उन्हें हम अपने अज्ञान के कारण वास्तविक मानते हैं।
सत्य के लिए खोज मत करो;
सत्य के लिए खोज मत करो;
केवल धारणाओं
को पकडना छोड दो।
यह बीज-मंत्र
है, एक बहुत
ही गहरा संदेश:
सत्य के
लिए खोज मत करो,
केवल धारणाओं
को पकडना छोड दो।
तुम सत्य
की खोज कैसे कर सकते हो? तुम असत्य
हो! तुम दिव्यता की खोज कैसे
कर सकते हो? तुम सत्य
की खोज कैसे कर सकते हो? तुम खोज
कैसे कर सकते हो? तुम क्या करोगे? अधिक से अधिक तुम्हारा मन चालाकी कर सकता है। ज्यादा
से ज्यादा
तुम सत्य को प्रक्षेपित कर लोगे तुम सत्य की कल्पना कर लोगे तुम सत्य का स्वप्न
देख लोगे। इसी कारण हिंदू जब दिव्यता को उपलब्ध होते हैं तो उन्हें कृष्ण दिखाई देते हैं
और ईसाई जीसस को देखते हैं जब वे सत्य तक पहुंचते हैं।
लेकिन सत्य
न तो हिंदू है और न ईसाई सत्य न तो कुण है और न क्राइस्ट। ये रूप हैं कपड़े हैं। और यदि अब भी कपड़े ध्यान में आ
रहे हैं तो इससे यही प्रकट होता है कि तुम अपनी धारणाओं से भरे हो- ईसाई हिंदू- और तुम
प्रक्षेपित कर रहे हो।
सोसान कहता
है सत्य के लिए खोज मत करो... तुम खोज नहीं कर सकते। तुम खोज कैसे कर सकते हो? तुम तैयार नहीं हो क्योंकि मन वहां है। कौन खोज करेगा? सारी खोज मन की है प्रत्येक खोज मन से आती है। चेतना
कभी नहीं खोजती कभी तलाश
नहीं करती चेतना तो बस है। वह ' होना ' है वह इच्छा नहीं है।
खोज एक
इच्छा है। तुमने संसार में धन सत्ता प्रतिष्ठा को खोजा और तुम असफल हो
गए। अब तुम परमात्मा को और सत्य को खोजते हो लेकिन तुम वही बने रहते हो।
कुछ भी बदला नहीं केवल शब्द बदल गए हैं। पहले वह शक्ति था, अब यह परमात्मा है-लेकिन तुम वही खोजी बने रहते हो।
सत्य को
खोजा नहीं जा सकता। इसके विपरीत जब सारी खोज बंद हो जाती है सत्य तुम्हारा द्वार खटखटाता है जब खोजी नहीं बचता
सत्य तुम्हारे पास आता है। जब तुम सारी इच्छाएं छोड़ देते हो, जब कहीं जाने की कोई प्रेरणा नहीं, तब अचानक तुम पाते हो कि तुम आलोकित हो गए हो। अचानक तुम पाते हो कि
तुम ही वह मंदिर हो जिसे तुम खोज रहे थे। अचानक तुम्हें बोध होता है कि तुम ही
कृष्ण हो, तुम ही
जीसस हो। कोई रहस्य तुम्हें
उपलब्ध नहीं होता-तुमही सबके स्रोतहो, तुम ही परम वास्तविकता हो।
सत्य के
लिए खोज मत करो;
केवल धारणाओं
को पकड़ना छोड़ दो।
धारणाओं
को मत पकड़ो- ईसाई हिंदू मुसलमान, जैन किसी धारणा को मत पकड़ो। शास्त्रों को सिर पर मत ढोओ नहीं तो तुम ज्ञानी
हो सकते हो लेकिन विवेकशील कभी नहीं हो पाओगे। तुम बहुत ज्ञान और सूचनाओं से
भर जाओगे लेकिन सब-कुछ उधार
और मृत होगा। धारणा सत्य नहीं है हो ही नहीं सकता। धारणा मन से आती है और सत्य मन
से नहीं आता सत्य तब घटित होता है जब मन नहीं होता। धारणा ज्ञात है और सत्य
अज्ञात है। जब ज्ञात समाप्त हो जाता है तब अज्ञात तुम्हारे पास चला उगता है। जब ज्ञात
आस-पास नहीं होता तो अज्ञात वहां होता है।
मन को साथ
लिए तुम नहीं पहुंच सकते। केवल वही एक ही चीज त्यागने योग्य है मन धारणा, ईसाई हिंदू गीता बाइबिल, कुरान। तुम शान का बोझ नहीं ढो सकते क्योंकि
ज्ञान का संबंध मन से है चेतना से नहीं।
भेद को
देखो। मैंने तुम्हें बताया है कि चेतना बिलकुल दर्पण की भांति है जो कुछ भी उसके
सामने आ जाता है, उसे किसी
पूर्वाग्रह के बिना प्रतिबिंबित करती है। दर्पण नहीं कहेगा यह स्त्री सुंदर है मैं उसे प्रतिबिंबित करना
चाहूंगा। और यह स्त्री मुझे पसंद नहीं, इसे प्रतिबिंबित नहीं करूंगा, यह कुरूप है।
नहीं दर्पण
का अपना कोई मत नहीं है। दर्पण केवल प्रतिबिंबित करता है-वह उसका स्वभाव है।
लेकिन एक
फोटो प्लेट भी है। वह भी प्रतिबिंब ग्रहण करती है लेकिन वह एक बार ही
करती है और फिर प्रतिबिंब को पकड़ लेती है। कैमरे के पीछे छिपी फोटो प्लेट भी प्रतिबिंबित
करती है, लेकिन एक
ही बार। मन बिलकुल फोटो प्लेट के समान है वह प्रतिबिंब ग्रहण करता है और उस प्रतिबिंब को पकड़
लेता है। फिर वह मृत सूचनाओं को ढोता रहता है और फिर सदा-सदा के लिए उन्हीं जानकारियों
को ढोता रहता है।
एक दर्पण
प्रतिबिंबित करता है और फिर खाली हो जाता है फिर वह प्रतिबिंब ग्रहण करने
के लिए तैयार हो जाता है। दर्पण प्रतिबिंब ग्रहण करने के लिए सदा स्वच्छ है, क्योंकि उसकी कोई पकड़ नहीं है। दर्पण का कोई मत नहीं
है। मन के पास धारणाएं ही धारणाएं हैं विचार ही विचार हैं और इन धारणाओं की
मोटी दीवाल से गुजर कर तुम कभी भी सत्य तक नहीं पहुंच पाओगे।
सत्य है।
यह कोई सिद्धांत नहीं है यह वास्तविकता है-इसको अनुभव करना होगा। तुम इसके विषय में सोच-विचार नहीं कर सकते, तुम इसका दार्शनिक चिंतन नहीं कर सकते।
जितना अधिक तुम दार्शनिक चिंतन करोगे उतना ही चूक जाओगे। पापियों को भले
ही कभी झलकें मिल जाएं लेकिन दर्शनशास्त्र के विद्वानों को कभी नहीं मिलतीं।
सोसान कहता है?:
सोसान कहता है?:
सत्य के
लिए खोज मत करो,
केवल धारणाओं
को पकडना छोड़ दो।
द्वैत की
स्थिति में मत रहो;
ऐसे पथों
से सावधानीपूर्वक बचो।
यदि ' यह और वह : ' उचित और अनुचित ' इसका थोड़ा सा निशान भी रहे,
तो मन का
सार- तत्व उलझन में खो जाएगा।
कठिन है
तुम जानकारियों को छोड़ने की बात तो समझ सकते हो, लेकिन साधारण जानकारियों से गहरा है अच्छे और बुरे का तुम्हारा
विवेक। तुम सोच सकते हो, ' ठीक है, मैं अब न तो ईसाई हूं न हिंदू हूं।’ लेकिन नैतिकता अच्छा और बुरा? क्या तुम सोचते हो कि नैतिकता ईसाई और हिंदू नहीं है?
नैतिकता
मानवीय है; एक नास्तिक
भी नैतिक बना रहता है वह किसी धर्म से नहीं जुड़ा होता, लेकिन वह भी अच्छे और बुरे की बात सोचता है- और यह
बहुत गंभीर समस्याओं
में से एक है जिसका सत्य के खोजी को समाधान करना है। एक प्रामाणिक खोजी को
अच्छे और बुरे की सभी धारणाओं को छोड़ना पड़ता है।
मैंने सुना
है कुछ लोग एक छोटी सी नौका में यात्रा कर रहे थे। अचानक समुद्र में तूफान उठा
और ऐसा लगा कि नाव अभी डूबी कि अभी डूबी। सभी लोग घुटनों के बल बैठ गए
और प्रार्थना करने लगे।
नौका में
एक सुविख्यात संत और एक कुख्यात पापी भी था। पापी भी अपने घुटनों के बल बैठ
गया और बोला : हे मेरे प्रभु हमें बचा लो!
संत उसके
पास आया और बोला : इतनी ऊंची आवाज में नहीं। अगर परमात्मा को तुम्हारे बारे में पता चल गया कि तुम भी यहां हो
तो फिर हममें से कोई भी नहीं बचाया जाएगा। फिर हम सभी डुबा दिए जाएंगे। इसलिए इतने जोर
से नहीं!
लेकिन क्या
एक संत-संत हो सकता है जो किसी में पापी को देख पाता हो? क्या संत वास्तव में प्रामाणिक रूप से संत हो सकता है
अगर वह दूसरे को पापी समझता हो? वह महान नैतिकवादी हो सकता है लेकिन वह अब भी अच्छाई
को पकड़े है और दूसरे के प्रति
निंदा का भाव रखता है।
एक धार्मिक
व्यक्ति के मन में निंदा नहीं होती वह बस स्वीकार कर लेता है।
धार्मिक
व्यक्ति इतना विनम्र होता है कि वह कैसे कह सकता है ' मैं संत हूं और तुम पापी
हो?' धार्मिक व्यक्ति अच्छे और बुरे का वर्गीकरण करना सहज रूप से छोड़ देता है।
हो?' धार्मिक व्यक्ति अच्छे और बुरे का वर्गीकरण करना सहज रूप से छोड़ देता है।
सोसान कहता
है:
द्वैत की
स्थिति में मत रहो;
ऐसे पथों
से सावधानीपूर्वक बचो।
यदि ' यह और वह : ' उचित और अनुचित ' इसका थोड़ा सा निशान भी रहे,
तो मन का
सार- तत्व उलझन में खो जाएगा।
और सोचो
तुम इसे अनुभव से भी जानते हो.. अगर तुम अच्छा बनने के विषय मैं बहुत सोचते हो, तो तुम क्या करोगे? बुरा तो वहां रहेगा ही तुम उसको दबा दोगे। ऊपर से
तुम परिष्कृत दिखाई दोगे, लेकिन भीतर
गहरे में अशांति होगी। बाहर से तुम संत होओगे भीतर गहरे में पापी छिपा होगा।
और यही
पापी के साथ होता है ऊपर सतह पर वह पापी होता है लेकिन भीतर गहरे में उसकी भी संतत्व की गहरी इच्छा होती है।
वह भी सोचता है ' यह बुरा
है मैं इसे छोड़ दूंगा।’ वह भी यही दिखाने का प्रयत्न करता है कि वह पापी
नहीं है।
दोनों ही
खंडित बने रहते हैं। अंतर विभाजन का नहीं है अंतर तो केवल इतना है कि ऊपर
सतह पर क्या है और भीतर क्या छिपा है।
एक संत
पाप के विषय में सोचता रहता है वह उन सब बुराइयों के निरंतर सपने देखता है
जिनका उसने दमन किया है। यह एक अदभुत घटना है कि अगर तुम संतों के सपनों को
देखो? तुम सदा
पाओगे कि वे पापियों जैसे हैं और यदि तुम पापियों के सपनों को देखो तुम पाओगे कि वे सदा संतों जैसे हैं।
पापी सदा
संत होने के सपने देखते हैं और संत सदा पापी होने के सपने देखते हैं, क्योंकि दबाया हुआ ही सपने में आता है, अचेतन ही अपने आप को सपनों में प्रकट करता है- लेकिन विभाजन
बना रहता है, और अगर
तुम विभाजित हो, तो तुम
स्रोत तक नहीं जा सकते। यह
ऐसे है एक वृक्ष है हजारों शाखाओं वाला बड़ा वृक्ष। शाखाएं बंटी हुई हैं। अगर तुम
शाखाओं में ही अटक गए तो जड़ों तक कैसे पहुंचोगे? जितना तुम नीचे उतरते हो उतनी शाखाएं कम होती जाती हैं, अनेकता मिटती जाती है और तुम एक अविभाजित तने तक
पहुंच जाते हो-सभी शाखाएं उसमें हैं और स्वयं वह अविभाजित है। सभी कुछ उसमें से
निकलता है एक में से अनेक निकलते हैं, लेकिन एक-एक ही रहता है। और तुम्हें
उस एक तक पहुंचना है। और वही मूल है, वही स्रोत है।
यद्यपि
सभी द्वैत एक से ही आते हैं इस एक से भी आसक्त मत 'सभी द्वैत एक से ही आते हैं, इस एक से भी आसक्त मत हो जाओ।’ इसे एक सिद्धांत मत बना लेना और इससे भी आसक्त मत हो जाना
और यदि कोई ' नहीं ' कहे तो उसके साथ झगड़ा करना शुरू मत करना। भारत में ऐसा ही
हुआ है।
अद्वैतवादियों
का एक संप्रदाय है शंकर और उसका संप्रदाय। वे निरंतर इस बात के लिए तर्क देते हैं और लड़ते हैं और प्रमाणित करते
हैं और दार्शनिक चिंतन करते हैं कि केवल एक का ही अस्तित्व है अद्वैत का। यदि कोई कहता
है दो का अस्तित्व है तो वे विवाद करने के लिए तैयार हैं। द्वैतवादी कहे चला
जाता है, ' एक का अस्तित्व
कैसे हो सकता है? एक का अस्तित्व नहीं हो सकता क्योंकि एक के अस्तित्व
के लिए दूसरे का होना आवश्यक
है।’
क्या तुम
एक अंक से गणित खड़ा कर सकते हो? दस अंकों की आवश्यकता नहीं लेकिन दो तो होने ही चाहिए। आइंस्टीन ने इस
पर काम किया और उसने गणित में केवल दो अंकों का प्रयोग करने का प्रयत्न किया, एक और दो एक दो, फिर दस आ जाता है, ग्यारह बारह फिर बीस आ जाता है। इसी तरह यह आगे बढ़ता
है। इससे काम चल जाएगा; नौ या दस अंकों की आवश्यकता नहीं है- लेकिन तुम केवल
एक से काम नहीं चला
सकते।
द्वैतवादी
कहते है, एक के साथ
अस्तित्व असंभव है। एक नदी को भी प्रवाहित होने के लिए दो किनारे चाहिए। एक बच्चे को जन्म देने के
लिए भी पुरुष और स्त्री का होना आवश्यक है जीवन को बहने के लिए जन्म और मृत्यु के
तौर पर दो किनारे चाहिए। एक तो नितांत एकाकी हो जाएगा- एक से जीवन कैसे निकल
सकता है? वे कहे
चले जाते हैं दो। और
वे लोग जो कहते हैं एक अद्वैत, वे द्वैतवादियों से निरंतर विवाद करते रहते हैं। सोसान कहता
है अगर तुम वास्तव में यह समझ गए हो कि सब-कुछ एक से ही निकलता है तब भी इसको ही मत पकड़े रहो, क्योंकि पकड़ का अर्थ है कि तुम किसी के पक्ष में
हो और किसी के विपक्ष में। अगर तुम कहते हो मैं अद्वैतवादी हूं तो तुमने
अर्थवत्ता को खो दिया - क्योंकि अगर एक ही है तो तुम द्वैतवादी या अद्वैतवादी कैसे हो सकते हो? तुम्हारा अद्वैतवाद से क्या अभिप्राय है? यदि द्वैत है ही नहीं तो अद्वैतवाद से तुम्हारा क्या तात्पर्य है? चुप रह जाओ!
अर्थवत्ता को खो दिया - क्योंकि अगर एक ही है तो तुम द्वैतवादी या अद्वैतवादी कैसे हो सकते हो? तुम्हारा अद्वैतवाद से क्या अभिप्राय है? यदि द्वैत है ही नहीं तो अद्वैतवाद से तुम्हारा क्या तात्पर्य है? चुप रह जाओ!
एक सच्चा
अद्वैतवादी आग्रह नहीं कर सकता। वह नहीं कह सकता ' मैं इसमें विश्वास करता हूं, ' क्योंकि विश्वास में विपरीत अंतर्निहित है। यदि मैं
कहता हूं, ' मैं इसमें विश्वास करता हूं तो उसमें यह भी अंतर्निहित
है कि मैं उसमें विश्वास नहीं करता। तब दो हो गए।
सोसान कहता
है- वह वास्तव में अद्वैतवादी है- वह कहता है
यद्यपि
सभी द्वैत एक से ही आते है,
इस एक से भी आसक्त मत हो जाओ?
जब ध्यान की रहा पर मन विचलित नहीं होता,
जब ध्यान की रहा पर मन विचलित नहीं होता,
तब संसार
में कुछ भी चोट नहीं पहुंचाता;
और जब किसी का भी चोट पहुंचाना समाप्त हो जाता है
तो मन का पुराना रंग- ढंग समाप्त हो जाता है।
तो मन का पुराना रंग- ढंग समाप्त हो जाता है।
यह बहुत
सुंदर है, इसे याद
रखने का प्रयत्न करना।
जब ध्यान
की राह पर मन विचलित नहीं होता,
तब संसार
में कुछ भी चोट नहीं पहुंचाता;
और जब किसी का भी चोट पहुंचाना समाप्त हो जाता है:
तो मन का पुराना रंग- ढंग समाप्त हो जाता है।
तो मन का पुराना रंग- ढंग समाप्त हो जाता है।
कोई तुम्हारा
अपमान करता है। यदि तुम वास्तव में अविचलित बने रहते हो, तो तुम्हें अपमानित नहीं किया जा सकता; वह कोशिश कर सकता है, लेकिन तुम्हें अपमानित नहीं किया जा सकता। वह चाहे अपमानित करने के लिए
सब-कुछ करे लेकिन तुम अपमान
को लोगे ही नहीं। और जब तक तुम उसे लेते ही नहीं वह असफल है।
ऐसा हुआ.
एक मनोचिकित्सक अपने मित्र के साथ सुबह की सैर के लिए जा रहा था। एक आदमी जो उसी मनोचिकित्सक का रोगी था जरा
सनकी था भागता हुआ आया और
उसने मनोचिकित्सक की पीठ पर जोर से धक्का मारा। मनोचिकित्सक लड़खड़ाया और जमीन पर गिर पड़ा। वह आदमी तो भाग गया।
मनोचिकित्सक ने अपने को
सम्हाला और फिर सैर करना शुरू कर दिया।
मित्र बहुत
हैरान हुआ। उसने कहा : तुम कुछ नहीं करोगे? कुछ तो करना चाहिए यह आवश्यक है! यह आदमी पागल है।
मनोचिकित्सक
ने कहा यह उसकी समस्या है।
वह ठीक
है क्योंकि यह चोट मारना उसकी समस्या है मेरी नहीं। मैं क्यों परेशान होऊं वह
ठीक है क्योंकि यदि कोई क्रोधित है तो यह उसकी समस्या है; यदि वह अपमान कर रहा है तो यह उसकी समस्या है; यदि वह गालियां दे रहा है तो यह उसकी समस्या
है। यदि तुम अविचलित रहे तो तुम अविचलित हो। लेकिन तुम तुरंत परेशान हो जाते हो-
उसका अर्थ है कि उस आदमी का क्रोध और गाली तो मात्र बहाना है। तुम पहले ही
भीतर उबल रहे थे, तुम अपने
रास्ते में आने वाले किसी बहाने की बस प्रतीक्षा ही कर रहे थे।
सोसान कहता
है ' जब मन विचलित
नहीं होता ' - और जब तुम
मूल-स्रोत में पहुंच
जाते हो विचलित नहीं होते- ' ध्यान की राह पर तब संसार में कुछ भी चोट नहीं पहुंचाता; और जब और जब किसी का भी चोट पहुंचाना समाप्त हो जाता
है तो मन का पुराना
रंग-ढंग समाप्त हो जाता है।’ और मनोवृत्ति के साथ गुणवत्ता बदल जाती है। यदि कोई तुम्हारा
अपमान करता है, वह अपमान
जैसा लगता है क्योंकि तुम उससे अपमानित
हो जाते
हो। मार तुम अपमानित नहीं होते, तो वह अपमान जैसा लगेगा ही नहीं। अगर। तुम अपमानित
ही नहीं होते, तो वह अपमान
जैसा लगेगा ही कैसे?
कोई क्रोधित है- तुम्हें वह क्रोध जैसा प्रतीत होता
है क्योंकि तुम विचलित हो जाते हो। यदि तुम विचलित न होओ तो वह तुम्हें क्रोध जैसा
महसूस नहीं हो सकता। गुण बदल जाता है क्योंकि तुम्हारी व्याख्या बदल जाती है, क्योंकि तुम अलग हो! कोई तुमसे घृणा आज इतना ही। करता है-
तुम्हें वह घृणा जैसी प्रतीत होती है, क्योंकि तुम विचलित हो गए हो। यदि तुम विचलित
नहीं हुए और कोई तुमसे घृणा करता है, तो क्या तुम उसे घृणा कहोगे? तुम उसे घृणा कैसे कह सकते हो? पुराना नाम काम नहीं आएगा; पुराना मन ही नहीं है।
हो सकता
है तुम करुणा भी अनुभव करो, तुम दया
अनुभव करो। हो सकता है तुम
महसूस करो, ' इस व्यक्ति
को क्या हो गया है? वह कितना
कष्ट पा रहा है, और अनावश्यक
रूप से और उसका कोई लाभ नहीं है।’ हो सकता है तुम उसे इससे बाहर निकलने
में सहायता भी करो, क्योंकि
जब कोई क्रोध करता है, वह अपने
ही शरीर को विषाक्त
कर रहा है, वह अपने
ही प्राणों को विषाक्त कर रहा है- वह बीमार है- तुम इससे बाहर निकलने में उसकी सहायता भी करोगे। यदि किसी
को कैंसर का रोग है, तुम उसके साथ झगड़ना
शुरू नहीं कर देते। तुम उसकी मदद करते हो, उसकी सेवा करते हो, तुम उसे अस्पताल ले जाते हो।
एक बुद्धपुरुष
के लिए- एक सोसान जैसे व्यक्ति के लिए- जब तुम क्रोधित हो, तुम्हारे मन में कैंसर है, तुम करुणा के पात्र हो, तुम्हें बहुत सहायता की आवश्यकता है। और
यदि संसार थोड़ा और प्रबुद्ध हो जाता है तो जब भी कोई क्रोधित हो तो पूरा परिवार
और मित्र उसकी अस्पताल में चिकित्सा कराएंगे। उसे अस्पताल में चिकित्सा की जरूरत है।
उसके साथ लड़ना और उस पर क्रोध करना मूर्खता है। यह नितांत मूर्खतापूर्ण और निरर्थक
है क्योंकि वह तो पहले ही रोगी है, और तुम सब उसके विरुद्ध हो- तुम कैसे उसकी मदद
करोगे?
शारीरिक
रोगों के लिए हमारे मन में करुणा है, मानसिक रोगों के लिए हमारे मन में कोई दया
नहीं- क्योंकि यदि कोई शारीरिक रूप से बीमार है, हमें उससे ठेस नहीं पहुंचती। यदि कोई मानसिक रूप से बीमार है तो हम सोचते
हैं कि वह हमारे कारण मानसिक
रूप से बीमार है। क्योंकि तुम भी रोगी हो, इसलिए ऐसा सोचते हो।
एक बार
जब तुम विचलित होना छोड़ देते हो, सब-कुछ बदल जाता है, क्योंकि तुम्हारी मनोवृत्ति बदल गई है, तुममें अंतर आ गया है, सारे संसार में अंतर आ गया है:
....'तो मन का पुराना रंग-ढंग समाप्त हो जाता है।’
....'तो मन का पुराना रंग-ढंग समाप्त हो जाता है।’
जब
कोई पक्षपातपूर्ण विचार नहीं उठते,
तो पुराना मन समाप्त हो जाता है।
तो पुराना मन समाप्त हो जाता है।
पक्षपात-यह
अच्छा है, वह बुरा
है; यह मुझे
पसंद है, वह मुझे
पसंद नहीं-यह पक्षपात
तुम्हारे मन का आधार है। अगर पक्षपात मिट जाता है तो मन अतल खाई में गिर जाता है। तुम अपने स्रोत में पहुंच जाते
हो। और उसी स्रोत में सारे अर्थ, सारे आनंद सारे आशीष हैं।
आज इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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