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सोमवार, 11 मई 2020

शूून्य की किताब–(Hsin Hsin Ming)-प्रवचन-05

मूलस्त्रोत की और लोटना-(प्रवचन-पांचवां)


Hsin Hsin Ming (शुन्य की किताब)--ओशो
(ओशो की अंग्रेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद) 
सूत्र:
जब विचार के विषय विलीन हो जाते है
विचार करने वाला भी विलीन हो जाता है;
जैसे मन विलीन हो जाता है विषय भी विलीन हो जाते है।
वस्तुएं विषय बनती है क्योंकि भीतर विषयी मौजूद है;
वस्तुओं के कारण ही मन ऐसा है।
इन दोनों की सापेक्षता को,
और मौलिक सत्य शून्यता की एकात्मकता को समझो।
इस शून्यता में इन दोनों की अलग पहचान खो जाती है
और प्रत्येक अपने आप में संपूर्ण संसार को समाए रहता है
अगर तुम परिष्कृत और अपरिष्कृत में भेद नहीं करते,
तो तुम पूर्वाग्रहों और धारणाओं का मोह नहीं करोगे।

संसार है तुम्हारे कारण-तुम ही इसका सृजन करते हो तुम ही इसके सष्टा हो। प्रत्येक प्राणी अपने चारों ओर एक संसार का निर्माण कर लेता है, वह उसके मन पर निर्भर है। मन भले ही माया हो लेकिन यह रचनात्मक है- यह स्वप्नों का सृजन करता है। और यह तुम पर निर्भर है कि तुम नरक का निर्माण करते हो या स्वर्ग का।

अगर तुम इस संसार को त्याग देते हो तो भी तुम इसे त्याग नहीं सकोगे। तुम जहां भी जाओगे तुम फिर से वैसा ही संसार निर्मित कर लोगे क्योंकि संसार निरंतर तुम्हारे भीतर से ऐसे निकल रहा है जैसे पेड़ से पत्ते निकलते हैं।
तुम सब एक समान संसार में नहीं रहते-तुम रह भी नहीं सकते क्योंकि तुम्हारे मन एक समान नहीं हैं। हो सकता है तुम्हारे बिलकुल निकट ही कोई स्वर्ग में रह रहा हो और तुम नरक में रह रहे हो--और तुम्हें लगता हो कि तुम एक जैसे संसार में रहते हो? तुम कैसे एक जैसे संसार में रह सकते हो जबकि मन भिन्न हैं?
इसलिए समझ लेने जैसी पहली बात यह है कि तुम तब तक संसार का त्याग नहीं कर सकते, जब तक यह मन नहीं मिट जाता। वे परस्पर संबंधित हैं, वे एक-दूसरे पर आश्रित हैं, वे एक दुप्लक निर्मित करते हैं। अगर मन है.. और मन हमेशा एक विशिष्ट मन होता है। जब मन एक विशिष्ट मन नहीं रहता, तब वह आत्मा हो जाता है, मन नहीं रहता वह चेतना हो गया। मन सदा एक विशिष्ट मन है। और वह अपने चारों ओर विशेष विशिष्ट सुवास लिए रहता है- वही तुम्हारा संसार है।
मन संसार का सृजन करता है और फिर यह संसार मन का सृजन करता है, और मन को वैसा ही बने रहने में सहायता देता है। यही दुष्चक्र है। लेकिन स्रोत मन में ही है संसार तो केवल सह-उत्पाद है। मन महत्वपूर्ण है संसार केवल उसकी छाया है। तुम छाया को नष्ट नहीं कर सकते, लेकिन सभी उसे नष्ट करने की चेष्टा करते हैं।
अगर यह पत्नी तुम्हारे लिए ठीक नहीं है, तो तुम सोचते हो दूसरी पत्नी उचित रहेगी। तुम संसार को बदलने का प्रयास कर रहे हो और तुम वैसे ही हो। तुम अगली पत्नी को भी पहले वाली पत्नी की हू-ब-हू अनुकृति बना दोगे। तुम फिर उसे निर्मित कर लोगे क्योंकि पत्नी तो बस एक पर्दा है।
और तुम हैरान होओगे जिन लोगों ने बहुत बार विवाह किए हैं, उनका अनुभव सच में ही अदभुत है। जिस व्यक्ति ने दस बार विवाह किया है उसे इस तथ्य का बोध हुआ कि यह कैसे होता है? - इतनी बड़ी दुनिया में मुझे हमेशा वैसी ही स्त्री कैसे मिल जाती है? संयोग से भी यह बात असंभव प्रतीत होती है! वही बार बार!
समस्या स्त्री नहीं है, समस्या मन है। मन फिर उसी प्रकार की स्त्री के प्रति आकर्षित हो जाता है फिर वही संबंध बनाता है, फिर उसे वही परेशानी और वही नरक मिलते हैं।
और तुम जो भी करते हो उन सभी में वही होता है। तुम सोचते हो कि महल में तुम सुखपूर्वक रहोगे? तुम गलत सोचते हो। कौन महल में रहने वाला है? तुम ही वहां रहोगे। अगर तुम अपनी झोपड़ी में सुखी नहीं हो तो तुम अपने महल में भी सुखी नहीं रह पाओगे। महल में कौन रहेगा? महल तुम्हारे बाहर नहीं होते।
अगर तुम झोपड़ी में प्रसन्नतापूर्वक रह सकते हो तो तुम महल में भी खुश रह सकते हो क्योंकि तुम ही अपने चारों ओर संसार निर्मित करते हो। अन्यथा जैसे झोपड़ी तुम्हें कष्ट देती है, वैसे ही महल कष्ट देगा- झोपड़ी से भी अधिक- क्योंकि वह उससे बड़ा है। यह नरक हो जाएगा वैसा ही- अधिक सुसज्जित लेकिन सुसज्जित नरक स्वर्ग नहीं हो जाता। और अगर तुम्हें बलपूर्वक स्वर्ग में फेंक दिया जाए तो तुम वहां से निकलने का मार्ग ढूंढने की चेष्टा करोगे, या फिर तुम वहां अपना नरक बना लोगे।
मैंने एक आदमी के बारे में सुना है एक बहुत बड़ा व्यापारी वस्त्रों का निर्माता। उसकी मृत्यु हो गई। किसी तकनीकी भूल के कारण वह स्वर्ग पहुंच गया। वहां उसकी भेंट अपने पुराने साझीदार के साथ हो गई। उसका पुराना साझीदार उसी तरह उदास था जैसे वह धरती पर था। इसलिए उस व्यापारी ने पूछा इसका क्या अर्थ है? तुम स्वर्ग में हो और इतने अप्रसन्न हो?
साझीदार ने कहा 'यह ठीक है लेकिन व्यक्तिगत रूप से मुझे मियामी अधिक पसंद है।और कुछ ही दिनों में दूसरा भी इसी नतीजे पर पहुंचा। वे फिर से भागीदार बन गए और वे वस्त्र बनाने के लिए व्यावसायिक कंपनी शुरू करना चाहते थे।
तुम जहां भी जाओगे, यही होने वाला है, क्योंकि तुम ही संसार हो। तुम अपने चारों ओर संसार बना लेते हो, फिर संसार उसी मन की सहायता करता है जिसने इसे बनाया था। बेटा बाप की सहायता करता है, बेटा मां की सहायता करता है, तुम्हारी छाया विषय-वस्तु की सहायता करती है-तब मन और भी बलवान हो जाता है, तब फिर तुम उसी ढर्रे पर उसी तरह का जगत निर्मित कर लेते हो। रूपांतरण कहां से आरंभ करें? कैसे बदलें?
अगर तुम देखो तो पहली नजर यही कहेगी कि दुनिया को बदल डालो क्योंकि वही चारों ओर स्पष्ट दिखाई देती है। इसे बदल दो! कई जन्मों से तुम यही तो कर रहे हो निरंतर दुनिया को बदल रहे हो इसको बदल रहे हो उसको बदल रहे हो, घर बदल रहे हो शरीर, पत्नियां, पति, मित्र बदल रहे हो, लेकिन इस तथ्य को कभी नहीं देखते कि तुम वही हो, इसलिए तुम संसार को कैसे बदल सकते हो?
इसी कारण पूरे संसार में त्याग की एक भ्रामक परंपरा ने जन्म लिया। घर से पलायन करो और किसी मठ में चले जाओ। बाजार से निकल भागो और हिमालय चले जाओ। संसार से भाग जाओ! तुम आसानी से हिमालय जा सकते हो लेकिन तुम अपने आप से कैसे भागोगे? तुम वहां भी वैसा ही संसार निर्मित कर लोगे- ठीक वैसा! भले ही वह संसार का लघु रूप हो भले ही वह इतना विशाल न हो लेकिन तुम वही करोगे। तुम वही हो- तुम और कुछ कर भी कैसे सकते हो?
गहन अंतर्दृष्टि यह प्रकट करती है. मन को बदलो, फिर जगत बदल जाता है। फिर तुम कहीं भी होओ एक भिन्न जगत प्रकट होता है। तुम गहराई में जाते हो और तब तुम्हें समझ में आता है कि अगर तुम वास्तव में अपने चारों ओर के जगत के बिना होना चाहते हो... क्योंकि संसार भले ही कितना सुंदर हो देर- अबेर यह ऊबाने वाला हो जाएगा, तुम इससे तंग आ जाओगे। भले ही यह स्वर्ग ही क्यों न हो तुम नरक की कामना करने लगोगे; क्योंकि मन को परिवर्तन चाहिए। वह शाश्वत में नहीं जी सकता, वह अपरिवर्तनीय में नहीं जी सकता क्योंकि मन को नई जिज्ञासा, नई संवेदना, नई उत्तेजना चाहिए। मन के लिए समय को रोकना और समयातीत में बने रहना संभव नहीं है।
इसीलिए मन अभी और यहीं नहीं हो सकता, क्योंकि अभी समय का हिस्सा नहीं है। अभी 'कभी परिवर्तित नहीं होता वह शाश्वत है। तुम नहीं कह सकते कि यह अपरिवर्तनशील है, कि यह स्थायी नहीं है कि यह शाश्वत है। यह बस जैसा है वैसा है। वहां कुछ घटित नहीं होता। यह खालीपन है।
बुद्ध ने उसे शून्यता परम शून्य कहा है। वहां कुछ घटित नहीं होता, न कोई आता है न कोई जाता है। वहां कोई नहीं है क्योंकि अगर वहां कोई हो तो कुछ न कुछ घटित होगा।
मन शाश्वत ' अभी ' में जीवित नहीं रह सकता। मन को परिवर्तन चाहिए। वह आशा किए चला जाता है और आशा के विरुद्ध आशा किए जाता है। सारी स्थिति निराशाजनक है लेकिन मन है कि आशा किए चला जाता है।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन कई वर्षों तक बेरोजगार रहा, क्योंकि वह एक अभिनेता बनना चाहता था और उसमें योग्यता न थी। लेकिन वह नित्य धार्मिक ढंग से एजेंट के पास जाता। वह बड़ी आशा से उसका द्वार खटखटाता दफ्तर में प्रवेश करता और पूछता, ' क्या कुछ हुआ? क्या किसी ने मुझे बुक किया?'
और वह एजेंट हमेशा वही कहता मैं कुछ नहीं कर सकता, कुछ भी संभव नहीं है।
दिन बीत गए, सप्ताह बीत गए फिर वर्ष बीत गए। और द्वार पर दस्तक देना मुल्ला का नित्यकर्म बन गया। जो भी मौसम हो जैसी भी जलवायु हो, अच्छी हो या बुरी लेकिन एजेंट के लिए एक बात निश्चित थी- कि मुल्ला आएगा। और वह बड़ी आशा से पूछेगा, और वह फिर वही बात कहेगा, नसरुद्दीन, मैं कुछ नहीं कर सकता। कुछ भी संभव नहीं है।
फिर एक दिन दस्तक अलग सी थी, उदास सी। और जब मुल्ला भीतर आया एजेंट भी हैरान हुआ वह इतना उदास क्यों है?
मुल्ला ने कहा सुनो, मैं दो सप्ताह के लिए छुट्टी पर जा रहा हूं मुझे कहीं बुक मत करना।
मन इस प्रकार काम करता है-आशा करता रहता है, वर्षों नहीं, जन्म-जन्मांतरों तक। तुम उसी जिज्ञासा से उसी इच्छा से दरवाजे पर दस्तक देते रहते हो और उत्तर हमेशा नहीं होता है। नहीं के सिवाय तुमने मन के द्वारा क्या उपलब्ध किया है?
हां उस रास्ते से कभी नहीं आती आ भी नहीं सकती। मन एक व्यर्थ प्रयास है। रेगिस्तान की भांति है, वहां कुछ उत्पन्न नहीं होता। लेकिन वह आशा किए जाता है। रेगिस्तान भी सपने देखता है, सुंदर उपवनों के, बहती नदियों के झरनों के जलप्रपातों के। रेगिस्तान भी सपने देखता है... और यह मन का सपना है।
सचेत रहने की आवश्यकता है, अब और समय नष्ट करने की जरूरत नहीं- एजेंट के द्वार पर दस्तक देने की जरूरत नहीं है। तुमने मन के साथ बहुत जी लिया है। उसके द्वारा तुम्हें कुछ भी उपलब्ध नहीं हुआ। क्या अब सजग और सचेत होने का सही समय नहीं आ गया?
निस्संदेह, तुमने बहुत से दुख, और बहुत से नरक संताप, हताशा एकत्रित कर लिए हैं- अगर तुम उन्हें उपलब्धियां मानते हो, फिर तो यह ठीक है। और जब भी तुम मन के साथ चलते हो तो कुछ न कुछ गलत हो जाता है, क्योंकि मन गलत का कल-पुरजा है। तुम देखते हो कुछ गलत हो जाता है।
मुल्ला नसरुद्दीन के बेटे को स्कूल में दाखिल कराया गया। अध्यापिका भूगोल पढ़ा रही थी। वह धरती के आकार के विषय में सभी कुछ समझा रही थी। और फिर उसने मुल्ला नसरुद्दीन के बेटे से पूछा. धरती का क्या आकार है?
वह चुप बैठा रहा, उत्तर के लिए उसे उकसाते हुए उसने पूछा : क्या वह चपटी है?
बेटे ने उत्तर दिया नहीं।
उसे थोड़ी आशा हुई और उसने कहा तब क्या वह गोलाकार है गोल है?
नसरुद्दीन के बेटे ने कहा नहीं।
वह हैरान हुई। उसने कहा केवल दो ही संभावनाएं हैं-या तो वह चपटी है या गोल है और तुम दोनों को इनकार करते हो। फिर तुम्हारा क्या विचार है?
बेटे ने कहा. मेरे पिता ने कहा है कि वह टेढ़ी-मेढ़ी है।
मन के लिए सब टेढ़ा है; इसलिए नहीं कि सभी कुछ टेढ़ा है - जिस ढंग से मन देखता है जो कुछ भी मन के माध्यम से देखा जाता है वह टेढ़ा हो जाता है। जैसे तुम एक सीधी चीज एक सीधी लकड़ी पानी में डालते हो तो तुम देखते हो कि पानी के माध्यम ने अचानक कुछ कर दिया है; वह अब सीधी नहीं रही। तुम उसे पानी से बाहर निकालते हो, तो वह फिर से सीधी हो जाती है। उसे फिर पानी में डालो और तुम जानते हो कि पानी में भी लकड़ी सीधी ही रहती है, लेकिन तुम्हारी आंखें अब भी कहती हैं कि वह सीधी नहीं है। तुम सैकड़ों बार इसे पानी से बाहर निकाल सकते हो इसे पानी में डाल सकते हो। भले ही तुम भलीभांति जानते हो कि लकड़ी सीधी ही रहती है तो भी माध्यम तुम्हें गलत सूचना देगा कि वह सीधी नहीं है।
तुमने अनेक बार यह जाना है कि मन ही दुख का कारण है लेकिन फिर भी तुम उसका शिकार हो जाते हो। मन दुख उत्पन्न करता है वह कुछ और उत्पन्न नहीं कर सकता, क्योंकि वह सच का सामना नहीं कर सकता। वह केवल सपने देख सकता है- मन की यही सामर्थ्य है। वह केवल सपने देख सकता है। और सपने कभी पूरे नहीं होते क्योंकि जब भी उन्हें वास्तविकता का सामना करना पड़ता है वे चूर-चूर हो जाते हैं।
तुम शीशे के घर में रहते हो तुम सच का सामना नहीं कर सकते। जब भी सच सामने आता है तुम्हारा घर चकनाचूर हो जाता है और कई घर जिनमें तुम रहे हो, वे चूर- चूर हो गए हैं। तुम उनके खंडहर अपने मन में लिए हो और जो उसका परिणाम था- पीड़ा उस पीड़ा ने तुम्हें रूखा और कटु बना दिया है।
किसी को भी चख कर देखो और तुम उसमें कडुवाहट ही पाओगे। और यही अनुभव तुम्हारे बारे में दूसरों का भी है प्रत्येक का स्वाद कड़वा है। जरा निकट आओ और सब कडुवा हो जाता है दूर रहो सब सुहावना लगता है। निकट आओ सब कडुवा हो जाता है- क्योंकि जब तुम निकट आते हो मन एक-दूसरे के भीतर प्रवेश करते हैं और सभी कुछ आड़ा-तिरछा हो जाता है, फिर कुछ भी सीधा नहीं रहता।
यह बोध तुम्हारे अनुभव से आना चाहिए मेरे या सोसान के सिद्धांतों से नहीं। न तो सोसान तुम्हारी सहायता कर सकता है न मैं। यह तुम्हारी अपनी अनुभव की हुई घटना होनी चाहिए। अनुभव बन जाने पर, यह सच हो जाता है- फिर कई चीजें बदलनी शुरू हो जाती हैं तब तुम मन को छोड़ देते हो।
जब मन गिर जाता है तो सारे संसार विलीन हो जाते हैं। जब मन मिट जाता है वस्तुएं विलीन हो जाती हैं, तब वे वस्तुएं नहीं रह जाती। तब तुम यह नहीं जानते कि तुम कहां पर समाप्त होते हो और वस्तुएं कहां से शुरू होती हैं। तब कोई सीमाएं नहीं रहतीं- सीमाएं मिट जाती हैं।
आरंभ में तुम्हें ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे कि सब-कुछ धुंधला हो गया है, लेकिन बाद में तुम इस नई घटना में स्थिर हो जाते हो, जो कि अ-मन की है। फिर वहां सितारे हैं लेकिन वे तुम्हारे ही अंश हैं, अब वे वस्तुएं नहीं हैं। फूल हैं पेड़ हैं लेकिन वे तुम में खिलते हैं, अब वे बाहर नहीं खिलते। तब तुम पूर्णता के साथ जीते हो।
अवरोध टूट गया है- तुम्हारा मन ही अवरोध था। तब पहली बार पता चलता है कि वहां कोई संसार नहीं है, क्योंकि संसार का अर्थ है वस्तुओं का समग्र जोड़। पहली बार वहां ब्रह्मांड होता है ब्रह्मांड का अर्थ है एक। इस शब्द ' यूनि ' को याद रखो इस संसार को तुम यूनिवर्स कहते हो? यह गलत है। इसे यूनिवर्स मत कहो, तुम्हारे लिए यह मल्टीवर्स- एक नहीं अनेक संसार हैं। अभी यूनिवर्स नहीं हुआ है।
लेकिन जब मन विदा हो जाता है, संसार मिट जाते हैं। फिर कोई वस्तुएं नहीं हैं। सीमाएं विलीन होकर एक-दूसरे में मिल जाती हैं। वृक्ष चट्टान बन जाता है चट्टान सूर्य हो जाती है सूर्य तारा बन जाता है तारा स्त्री बन जाता है जिसे तुम प्रेम करते हो और सभी कुछ एक-दूसरे में घुल मिल रहा है। और वहां तुम अलग नहीं हो। तुम प्रत्येक में हो, प्रत्येक हृदय की धड़कन हो। तब यह एक ब्रह्मांड है।
मन विदा हो जाता है वस्तुएं मिट जाती हैं- सपनों का स्रोत विलीन हो जाता है। तुम क्या करते रहे हो? तुम एक सुंदर सपने को पाने की निष्फल चेष्टा करते रहे हो निसंदेह बिना किसी लाभ के। लेकिन मन का पूरा प्रयास एक सुंदर सपना पाना है। ऐसा मत सोचो कि मन तुम्हें एक सुंदर सपना दे सकता है- सपना तो सपना है। भले ही वह बहुत अच्छा हो लेकिन वह संतोषजनक नहीं होगा वह तुम्हें गहन संतुष्टि नहीं दे सकता। सपना तो सपना ही है!
अगर तुम्हें प्यास लगी है तो सपने का पानी नहीं असली पानी चाहिए। अगर तुम्हें भूख लगी है तो सपने की रोटी नहीं तुम्हें असली रोटी की आवश्यकता है। कुछ क्षणों के लिए भले ही तुम स्वयं को धोखा दे लो, लेकिन कितने लंबे समय तक?
हर रात को ऐसा घटता है तुम भूखे हो, मन एक स्वप्न निर्मित करता है- तुम खा रहे हो तुम स्वादिष्ट व्यंजन खा रहे हो। कुछ मिनटों के लिए तो यह ठीक है कुछ घंटों के लिए भी ठीक है लेकिन कितने समय तक? क्या तुम सदा-सदा के लिए इस स्वप्न में रह सकते हो?
इससे नींद को सहायता मिलती है तुम्हारी नींद टूटती नहीं। अन्यथा भूख के कारण नींद टूट जाएगी तुम्हें उठना पड़ेगा अपने फ्रिज के पास जाना पड़ेगा। इससे सहायता मिलती है तुम सोए रह सकते हो महसूस करते हुए कि तुम भोजन खा रहे हो, कहीं जाने की आवश्यकता नहीं। लेकिन सुबह तुम्हें पता लगेगा कि तुम्हारे मन ने तुम्हें धोखा दिया। तुम्हारा सारा जीवन स्वप्नवत है और तुम सपने वाली वस्तुओं को वास्तविक वस्तुओं का स्थान दे रहे हो। इसलिए प्रति दिन सब-कुछ चकनाचूर हो जाता है प्रतिदिन वास्तविकता से तुम धक रह जाते हो क्योंकि वास्तविकता तुम्हें यहां और वहां भारी चोट मारती रहती है। तुम इससे बचाव नहीं कर सकते! सपना एक बड़ी नाजुक बात है। क्योंकि वास्तविकता चोट मारती रहती है और सब तोड़ कर भीतर प्रविष्ट होती रहती है।
और यह अच्छी बात है यह तुम्हारे हित के लिए है; कि वास्तविकता तुम्हारे स्वप्नों को तोड़ देती है उन्हें टुकड़ों में चूर-चूर कर देती है। लेकिन तुम फिर से उन टुकड़ों को एकत्रित करने लगते हो और दूसरे सपनों को पैदा करने लगते हो। छोड़ दो इसको! तुमने बहुत कर लिया है। कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ। अब और नहीं!
एक बार जब तुम समझ जाते हो कि स्वप्न देखना छोड़ देना पड़ेगा, तब वस्तुओं का संसार मिट जाता है। संसार तो होगा लेकिन वस्तुओं का नहीं। तब प्रत्येक वस्तु सजीव हो जाती है सब-कुछ स्वयंभू हो जाता है।
उन धार्मिक व्यक्तियों का यही अभिप्राय है जो कहते हैं कि सब परमात्मा है। वे क्या कह रहे हैं? परमात्मा तो केवल एक प्रतीक है। वह स्वर्ग में बैठा कोई व्यक्ति नहीं है, जो नियंत्रित कर रहा है प्रबंध कर रहा है सब नियंत्रित कर रहा है और सारी तकनीक जुटा रहा है। परमात्मा तो केवल एक प्रतीक है- एक प्रतीक कि जगत में वस्तुएं, वस्तुओं जैसी नहीं हैं वे व्यक्ति हैं। भीतर गहरे में आत्मसत्ता है। सभी वस्तुएं सजीव हैं और स्पंदित हैं। और यह स्पंदन कोई खंडित प्रक्रिया नहीं है यह स्पंदन अखंड स्पंदन है।
निस्संदेह तुम हृदय की धड़कन को हृदय के पास, हृदय पर ही अनुभव करते हो। लेकिन क्या तुम सोचते हो कि वह केवल हृदय में ही होती है? तब तुम गलत हो- पूरा शरीर धड़कता है। हृदय केवल इंगित करता है कि पूरा शरीर स्पंदित हो रहा है। इसीलिए जब हृदय रुक जाता है शरीर मृत हो जाता है। ऐसा नहीं था कि वास्तव में हृदय धड़क रहा था पूरा शरीर हृदय के माध्यम से धड़क रहा था हृदय तो केवल सूचक था।
तुम स्पंदित हो रहे हो लेकिन पूर्ण तुम्हारे माध्यम से स्पंदित हो रहा है। तुम केवल एक सूचक हो एक हृदय हो। ब्रह्मांड तुम्हारे माध्यम से धड़कता है और स्पंदित होता है। तुम नहीं हो ब्रह्मांड ही है।
और ब्रह्मांड वस्तुओं का जोड़ नहीं है, वह स्वयंभू है। उसका अस्तित्व व्यक्ति की भांति है। वह सजीव चेतन है। वह यांत्रिक प्रबंध नहीं है, वह सुव्यवस्थित एकात्मकता है।
अब सोसान के इन शब्दों को समझने का प्रयत्न करें :

जब विचार के विषय विलीन हो जाते हैं
विचार करने वाला भी विलीन हो जाता है;
जैसे मन विलीन हो जाता है विषय भी विलीन हो जाते हैं।
वस्तुएं विषय बनती हैं क्योकि भीतर विषयी है;
वस्तुओं के कारण ही मन ऐसा है।

वस्तुएं तुम्हारे कारण ही तुम्हारे चारों ओर हैं। तुम उन्हें आकर्षित करते हो। अगर तुम अपने चारों ओर नरक अनुभव करते हो तो तुम्हीं ने उसे आकर्षित किया है। उस पर क्रोध मत करो और उससे लड़ना मत शुरू करो यह व्यर्थ है। तुमने आकर्षित किया था, तुमने आमंत्रित किया था- तुम ने ही ऐसा किया है! और अब तुम्हारी कामनाएं पूरी हो गई हैं जो भी तुम्हें चाहिए था वह तुम्हारे आस-पास है। और फिर तुम संघर्ष करना आरंभ कर देते हो और क्रोधित हो जाते हो। तुम सफल हो गए हो!
सदा स्मरण रखो कि जो भी तुम्हारे आस-पास घट रहा है उसकी जड़ें तुम्हारे मन में हैं। मन ही सदा कारण है। वह प्रक्षेपक है, और बाहर तो केवल परदे हैं- तुम स्वयं को प्रक्षेपित करते हो। अगर तुम्हें ऐसा लगता है कि यह कुरूप है तब मन को बदलो। अगर तुम्हें लगता है कि मन से जो भी आता है वह नारकीय है और दुखस्वप्न की तरह है, तब मन को मिटा दो। मन के साथ कुछ करो परदे के साथ नहीं उसे ही मत रंगते और बदलते रहो। मन के साथ कुछ करो।
लेकिन एक समस्या है क्योंकि तुम समझते हो कि तुम मन हो। इसलिए तुम उसे कैसे छोड़ सकते हो? इसलिए तुम्हें लगता है कि तुम सब-कुछ छोड़ सकते हो, बदल सकते हो, फिर से रंग सकते हो, फिर से सुसज्जित कर सकते हो पुनर्व्यवस्थित कर सकते हो, लेकिन तुम स्वयं को कैसे छोड़ सकते हो। यही सारे कष्ट का मूल है।
तुम मन नहीं हो, तुम मनातीत हो। तुमने तादात्म्य बना लिया है, यह सच है लेकिन तुम मन नहीं हो।
और यही ध्यान का उद्देश्य है तुम्हें छोटी-छोटी झलकें देना कि तुम मन नहीं हो। भले ही कुछ क्षणों के लिए मन रुक जाता है.. फिर भी तुम होते हो। इसके विपरीत तुम और अधिक होते हो, होने से भर शु। जब मन रुक जाता है तो ऐसा होता है जैसे कि एक नाली जिसके माध्यम से निरंतर तुम बाहर की ओर बह रहे थे बंद हो गई। अचानक ऊर्जा का अतिरेक हो जाता है। लगता है तुम और भरे हुए हो।
अगर एक क्षण के लिए भी तुम इस बात के प्रति सचेत हो जाते हो कि मन वहां नहीं है लेकिन ' मैं हूं ' तो तुम सत्य की गहराई तक पहुंच गए। तब मन को त्यागना सरल होगा। तुम मन नहीं हो अन्यथा तुम स्वयं को कैसे गिरा सकते हो? पहले तादात्म्य को तोड़ना होगा तब मन को त्याग। जा सकता है।
गुरजिएफ की सारी विधि यही है कि कैसे तादात्म्य को तोड़ा जाए। अगली बार जब कोई इच्छा जगे तो उसे देखना। अपने भीतर कहना, ' ठीक है मैं देखुंगा। कि मन कहां जा रहा है।और तुम्हें एक दूरी का अनुभव होगा तुम उसे देख रहे हो। यह देखने वाला दर्शक कौन है? और इच्छा बढ़ती है और स्वप्नों को पैदा करती है।
हो सकता है कभी तुम भूल जाओ कभी तुम इच्छा के साथ एक हो जाओ। फिर स्वयं को पूरी तरह से खींच लो इच्छा को फिर से देखो? इच्छा अपने आप बढ़ रही है। यह ऐसा है जैसे कि एक बादल भीतर प्रविष्ट हो गया हो, एक विचार तुम्हारे अस्तित्व के आकाश में छा गया हो। बस उसे देखो, गौर से देखो। और स्मरण रखो कि यदि तुम एक पल के अंश के लिए भी उस तादात्म्य को तोड़ सके- इच्छा वहां है और तुम यहां हो और बीच में दूरी है- अचानक वहां प्रकाश होता है। तुम प्रकाशित हो गए हो।
अब तुम जानते हो कि मन अपने आप काम करता है वह एक यंत्र है। तुम उसे छोड़ सकते हो तुम उसका उपयोग करो या न करो यह तुम पर निर्भर है तुम उसके स्वामी हो। अब तुम गुलाम को यंत्र को यथास्थान रख सकते हो। अब वह स्वामी नहीं रहा। तब उसे छोड़ना संभव है। जब तुम उससे अलग हो केवल तभी उसको छोड़ना संभव है।
ध्यान साक्षीभाव मौन बैठे रहना और मन को देखना बहुत सहायक सिद्ध होंगे। बिना जबरदस्ती किए सिर्फ बैठे रहना और देखते रहना है। बिना कुछ ज्यादा किए केवल इस प्रकार देखते रहना जैसे कोई आकाश में उड़ते पक्षियों को देखता है। सिर्फ धरती पर लेटे रहना और देखते रहना कुछ भी नहीं करना तटस्थ। वे कहां जा रहे हैं इससे तुम्हारा कुछ लेना-देना नहीं है वे अपने आप जा रहे हैं।
स्मरण रहे, विचार बिलकुल पक्षियों की भांति हैं वे अपने आप चल रहे हैं। और कभी-कभी ऐसा होता है कि जो लोग तुम्हारे आस-पास हैं, उनके विचार तुम्हारे आकाश में प्रविष्ट हो जाते हैं और तुम्हारे विचार उनके आकाश में प्रवेश कर जाते हैं। इसीलिए कभी-कभी तुम अनुभव करते हो कि किसी व्यक्ति की संगति में तुम अचानक उदास हो जाते हो, किसी दूसरे व्यक्ति की संगति में तुम्हारे भीतर अचानक ऊर्जा की और हर्षोल्लास की लहर उमड़ आती है। किसी की ओर मात्र देखने से निकट होने से मनोदशा बदल जाती है।
ऐसा जगहों के साथ भी घटता है। तुम किसी घर में जाते हो और अचानक तुम्हें उदासी पकड़ जाती है। तुम किसी दूसरे घर में जाते हो और तुम अचानक एक हलकापन महसूस करते हो, मानो तुम्हें पंख लग गए हों तुम उड़ सकते हो, तुम निर्भार हो। तुम भीड़ में जाते हो और स्वयं को खो देते हो कुछ बदल जाता है। तुम किसी दूसरी भीड़ में जाते हो फिर कुछ बदल जाता है।
सत्संग का यही आधार है? सदगुरु के साथ होना, जो निर्विचार है। केवल उसकी संगति में कभी उसका निर्विचार उसका अ-मन तुम्हारा द्वार खटखटा देगा कुछ ही क्षणों में.. यह चालाकी से नहीं किया जा सकता है तुम्हें प्रतीक्षा करनी होगी तुम्हें केवल प्रार्थना करनी होगी प्रतीक्षा करनी होगी और बस देखना होगा। इसे जबरदस्ती लाया नहीं जा सकता क्योंकि यह कोई विचार नहीं है। विचार एक चीज है वह तुम पर फेंकी जा सकती है। निर्विचार कोई वस्तु नहीं है इसे फेंका नहीं जा सकता।
विचार की अपनी स्वयं की गति और आगे बढ़ने की प्रवृत्ति है। जब भी तुम किसी ऐसे व्यक्ति के समीप होते हो जो बहुत से विचारों से भरा है वह तुम्हें भी अपने विचारों से भर देगा। केवल उसके निकट होने पर ही वह अपना मन तुम में उंडेलता रहेगा- चाहे वह बोले या न बोले वह जरूरी नहीं है। विचार उसके सिर से चिनगारियों की भांति लगातार चारों ओर गिर रहे हैं- तुम उन्हें ग्रहण कर लेते हो।
और कभी-कभी तुम सजग भी हो जाते हो कि यह तुम्हारा विचार नहीं है। लेकिन जब वह तुम्हारे पास आता है तो तुम उससे भर जाते हो बल्कि तादात्म्य भी बना लेते हो। यह तुम्हारा क्रोध नहीं है कोई और व्यक्ति क्रोधित था और तुम्हें अपने भीतर कुछ महसूस होने लगा। कोई व्यक्ति घृणा से भरा था और उस घृणा ने तुम्हें प्रभावित कर दिया। सभी कुछ संक्रामक होता है, और इस संसार में मन सबसे बड़ी संक्रामक बीमारी है। कोई रोग इससे मुकाबला नहीं कर सकता, सब तरफ यह लोगों को संक्रमित करता रहता है।
अगर तुम देख सको तो तुम किसी व्यक्ति के सिर से गिर रही चिनगारियों को देख सकते हो। वे भिन्न रंगों की होती हैं। इसीलिए रहस्यदर्शी आभामंडल देख पाए, क्योंकि अगर कोई उदास व्यक्ति आता है, तो वह उदास आभामंडल लेकर आता है। अगर तुम्हारी दृष्टि स्पष्ट है तो तुम उसे देख सकते हो। जब कोई प्रसन्न व्यक्ति तुम्हारे पास आता है तो तुम देख सकते हो। यद्यपि तुमने उसे आते नहीं देखा हो- वह पीछे की ओर से आ रहा है तुमने उसे देखा तक नहीं- लेकिन अचानक तुम महसूस करते हो कि तुम्हारे आस-पास कुछ प्रसन्नता घटित हो रही है।
विचार तुम्हारे अपने नहीं हैं, वे तुम नहीं हो। जब तुम मरते हो तुम्हारे विचार चारों ओर बिखर जाते हैं। ऐसा हुआ है और अगली बार जब तुम किसी मर रहे आदमी के पास जाओ उसे गौर से देखना वह अपने में एक अनुभव है। जब कोई आदमी मर रहा हो तो सिर्फ उसके पास बैठ जाना और देखना कि तुम्हारे मन पर क्या होता है। तुम चकित होओगे जो विचार पहले कभी वहां न थे जिन विचारों के तुम आदी नहीं थे जिन विचारों को तुमने कभी जाना नहीं था अचानक तुम्हारे मन में उठते हैं-विस्फोटित होते हैं! आदमी मर रहा है और वह अपने विचारों को चारों ओर ऐसे फेंक रहा है जैसे एक मरता हुआ वृक्ष अपने बीजों को फेंकता है। वह संत्रस्त है, मरने से पहले वृक्ष को अपने बीज फेंक देने चाहिए ताकि दूसरे पेड़ उग सकें।
अगर तुम सजग व्यक्ति नहीं हो तो मरणासन्न व्यक्ति के पास कभी मत जाना, क्योंकि तब मृतक तुम्हें प्रभावित कर देगा। मूलभूत रूप से जब तक तुम सजग नहीं हो जाते तुम्हें उस व्यक्ति के पास कभी नहीं जाना चाहिए जहां जाकर तुम्हें उदासी महसूस हो। अगर तुम सजग हो तब कोई चिंता की बात नहीं है। फिर विषाद आता है और गुजर जाता है तुम उसके साथ तादात्म्य स्थापित नहीं करते। क्या तुमने कभी ऐसा अनुभव किया है?.. तुम चर्च में जाते हो लोग प्रार्थना कर रहे हैं तुरंत तुम्हें एक अलग सी अनुभूति होती है। इतनी प्रार्थना, भले ही वह सच्ची न हो, केवल रविवारीय प्रार्थना हो फिर भी वे कर तो रहे हैं कुछ क्षणों के लिए ही सही पर खिड़कियां तो खुलती हैं- वे क्षण
अलग से होते हैं। एक आग तुम्हें पकड़ जाती है तुम अपने भीतर अचानक एक परिवर्तन अनुभव करते हो।
सजग रहो! और देखो कि किस तरह विचार तुम्हारे मन में प्रवेश करते हैं; कैसे उनसे तुम तादात्म्य स्थापित कर लेते हो और उनके साथ एक हो जाते हो। और वे इतनी तेजी से चल रहे हैं उनकी गति बहुत तेज है क्योंकि विचार से बढ़ कर और किसी की गति इतनी तेज नहीं है। विचार से बढ़ कर तेज गतिमान और कोई चीज बनाना संभव नहीं है। इसे कहीं भी पहुंचने में कुछ समय नहीं लगता। यह एक अनंतता से दूसरी पर छलांग लगा लेता है- उसके लिए स्थान का कोई अस्तित्व नहीं है।
विचार वहां हैं तीव्र गति से चल रहे हैं। तीव्र गति के कारण तुम दो विचारों को पृथक रूप से नहीं देख सकते। बैठ जाओ अपनी आंखें बंद कर लो शरीर की सभी प्रक्रियाओं की गति धीमी कर लो। श्वास गति धीमी हो जाती है, हृदय की धड़कन मंद हो जाती है रक्तचाप मंद हो जाता है। तुम सब-कुछ धीमा कर लो तुम विश्रांत हो जाओ क्योंकि अगर सब धीमा हो जाता है तो विचार को भी धीमा हो जाना पड़ता है क्योंकि यह सुसंगठित संपूर्णता है। जब सब मंद हो जाता है विचार को भी मंद होना पड़ता है।
इसी कारण गहरी नींद में विचार थम जाता है क्योंकि सब इतना मंद है और विचार इतना द्रुतगामी है कि उसमें रुकावट आ जाती है- प्रक्रिया जारी नहीं रह सकती। आदमी इतना मंद है विचार इतना तीव्रगामी है, वे साथ-साथ नहीं चल सकते। विचार विलीन हो जाता है। गहरी नींद में कुछ घंटों के लिए रात को अधिक से अधिक दो घंटों के लिए विचार रुक जाते हैं क्योंकि तुम पूरी तरह से विश्राम में होते हो।
शिथिल हो जाओ, और सिर्फ देखो जैसे ही विचार प्रक्रिया धीमी होती है तुम्हें अंतराल दिखाई देने लगेंगे। दो विचारों के बीच में एक अंतराल है- अंतराल में चेतना है। दो बादलों के बीच एक अंतराल है- उस अंतराल में नीला आकाश है।
विचार-प्रक्रिया को धीमा करो और अंतरालों को देखो बादलों की अपेक्षा अंतरालों पर अधिक ध्यान दो। ध्यान का केंद्र बदलो देखने की दिशा बदलो दूसरी दिशा से देखो। आकृति की ओर मत देखो पृष्ठभूमि को देखो।
अगर मैं दीवाल के आकार का बड़ा ब्लैक बोर्ड यहां रखूं और उस पर सफेद खड़िया से एक बिंदु अंकित कर दूं और तुम से छू कि तुम्हें क्या दिखाई देता हैं तो निन्यानबे प्रतिशत यही संभावना है कि तुम्हें ब्लैक बोर्ड नहीं दिखाई देगा तुम्हें सफेद बिंदु ही दिखाई देगा- क्योंकि हम आकृति को ही देखते हैं पृष्ठभूमि को नहीं।
इतना बड़ा ब्लैक बोर्ड लेकिन अगर मैं तुमसे पूछूं, ' तुम्हें वहां क्या दिखाई देता है?' तुम कहोगे, ' मुझे एक सफेद धब्बा दिखाई देता है।इतना बड़ा ब्लैक बोर्ड दिखाई नहीं पड़ता, केवल एक छोटा सा सफेद धब्बा जो लगभग अदृश्य है, दिखाई देता है। क्यों? क्योंकि यह मन का निर्धारित ढांचा है आकृति की ओर दृष्टि का जाना पृष्ठभूमि की ओर नहीं; बादल पर दृष्टि का जाना आकाश पर नहीं र विचार पर दृष्टि का जाना, चेतना पर नहीं।
इस दृष्टिकोण को बदलना आवश्यक है। पृष्ठभूमि पर अधिक ध्यान दो और आकृति पर कम। तुम वास्तविकता के अधिक निकट होओगे। ध्यान में ऐसा लगातार किया जाना चाहिए। पुरानी आदत के अनुसार मन आकृति की ओर ही देखेगा। तुम बस वहां से फिर दृष्टि को हटा लो... पृष्ठभूमि की ओर देखो।
तुम यहां हो मैं यहां हूं। हम एक-दूसरे की ओर दो ढंगों से देख सकते हैं। मैं पृष्ठभूमि को देख सकता हूं पृष्ठभूमि में पेड़ हैं पौधे हैं हरियाली है आकाश है- विस्तृत जगत तुम्हारी पृष्ठभूमि है। या मैं तुम्हें देख सकता हूं तुम आकृति हो। लेकिन मन सदा आकृति को देखता है।
इसीलिए ऐसा होता है यदि तुम सोसान जीसस या बुद्ध जैसे व्यक्ति के पास जाते हो तो तुम्हें लगता है कि वे तुम्हारी ओर नहीं देख रहे हैं। तुम केवल आकृति हो और वे पृष्ठभूमि को देख रहे हैं। उनकी देखने की दिशा भिन्न है। तुम्हें ऐसा महसूस हो सकता है कि उनकी आंखें भाव-शून्य हैं क्योंकि वे तुम्हारी ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं। तुम सिर्फ एक बादल हो।
बुद्ध जैसे लोग जब वे देखते हैं तुम वहां होते हो लेकिन पृष्ठभूमि पर केवल एक छोटे से अंश के रूप में। और पृष्ठभूमि विशाल है और तुम बस एक बिंदु हो। लेकिन तुम चाहोगे कि कोई तुम्हें देखे एक छोटे से बिंदु को जैसे कि तुम ब्रह्मांड हो जैसे कि तुम्हें छोड़ कर और किसी का अस्तित्व ही नहीं है।
तुम्हें बुद्धपुरुष का प्रेम ठंडा प्रतीत होगा। तुम्हें उष्मा से भरपूर प्रेम चाहिए वे आंखें चाहिए जो तुम्हें ही देखें और सब भूल जाएं. किसी बुद्ध के लिए ऐसा संभव नहीं है। तुम्हारा अपना स्थान है लेकिन फिर भी तुम एक छोटा सा बिंदु हो। कितने भी सुंदर होओ, तुम उस असीम पृष्ठभूमि का एक अंश हो- तुम पर पूरा ध्यान नहीं दिया जा सकता।
इसीलिए किसी बुद्धपुरुष के निकट तुम्हारे अहंकार को बहुत चोट पहुंचती है, क्योंकि अहंकार समग्र अवधान चाहता है, ' मुझे देखो मैं ही जगत का केंद्र हूं।लेकिन तुम जगत के केंद्र नहीं हो। वास्तव में जगत का कोई केंद्र नहीं है। यदि वह सीमित वर्तुल है तब तो केंद्र संभव है- और वह तो असीम वर्तुल है।
केंद्र की बात सोचना असंगत है। जगत में कोई केंद्र नहीं है। संसार बिना किसी केंद्र के अस्तित्व में है। और यह बात सुंदर है। इसीलिए हर कोई सोच सकता है ' मैं केंद्र हूं।अगर कोई केंद्र है तो यह बात असंभव हो जाती है।
इसीलिए मुसलमान और ईसाई और यहूदी हिंदुओं के इस दावे को नहीं मानते ' मैं ब्रह्म हूं अहं ब्रह्मास्मि।वे कहते हैं ' यह परंपरा के विरुद्ध है। तुम क्या कह रहे हो? केवल ईश्वर ही केंद्र है; और कोई केंद्र नहीं है।लेकिन हिंदू बड़ी सहजता से दावा करते हैं कि अहं ब्रह्मास्मि क्योंकि उनका कहना है कि कोई केंद्र नहीं है, या फिर सभी केंद्र हैं।
लेकिन जब तुम चाहते हो कि सारा ध्यान तुम पर दिया जाए तो यह मन है मन की पुरानी आदत है पृष्ठभूमि को न देखना, केवल आकृति को देखना।
ध्यान में तुम्हें आकृति से पृष्ठभूमि पर सितारों से आकाश पर अवधान को परिवर्तित करना होगा। जितनी अधिक यह बदलाहट हो सकेगी उतना ही तुम अनुभव करोगे कि तुम मन नहीं हो जितना अधिक ऐसा अनुभव कर सकोगे उतनी आसानी से इसे छोड़ सकोगे।
वह ऐसा ही है जैसे अपने वस्त्र को छोड़ना हो। तुमने उसे इतना तंग बना लिया है कि त्वचा ही प्रतीत होने लगे हैं- वे हैं नहीं। यह वस्त्र की भांति है, तुम उसे आसानी से छोड़ सकते हो। लेकिन यह समझना पड़ेगा कि व्यक्ति पृष्ठभूमि है आकृति नहीं। और जब यह मन मिट जाता है, सोसान कहता है, तब वस्तुगत जगत विलीन हो जाता है।
उसका क्या अभिप्राय है? क्या उसका अभिप्राय यह है कि यदि तुम गहरे ध्यान में हो यदि तुम अ-मन की मंजिल पर पहुंच गए हो तब क्या ये पेड़ विलीन हो जाएंगे, मिट जाएंगे? तब यह घर यहां नहीं रहेगा? तब तुम यहां नहीं बैठे होओगे? यदि मैं उपलब्ध हो गया हूं तो क्या यह कुर्सी जिस पर मैं बैठा हूं तिरोहित हो जाएगी?
नहीं वस्तुएं वस्तुओं के रूप में विलीन हो जाएंगी; यह कुर्सी नहीं, वह वृक्ष नहीं--वे ऐसे ही रहेंगे अब वे सीमित नहीं रहे। अब उनकी कोई सीमाएं नहीं रहीं। तब यह कुर्सी सूर्य से और आकाश से मिल रही है तब आकृति और पृष्ठभूमि दोनों एक हो गए हैं। कोई आकृति पृष्ठभूमि से पृथक नहीं है उनकी पहचाने खो गई हैं। और वे अब वस्तुएं नहीं हैं क्योंकि अब तुम वहां विषयी की भांति नहीं हो।
कृष्णमूर्ति एक बहुत सुंदर बात हमेशा कहते रहते हैं. कि गहरे ध्यान में दृष्टा, दृश्य हो जाता है। यह सत्य है लेकिन तुम्हें लगेगा कि यह असंगत है। अगर तुम एक फूल को देख रहे हो तो क्या कृष्णमूर्ति का यह अभिप्राय यह है कि तुम फूल बन जाते हो? फिर तुम घर वापस कैसे लौटोगे? और हो सकता है कि तुम्हें कोई तोड़ ले और तुम मुश्किल में पड़ जाओगे।
'द्रष्टा दृश्य हो जाता है' - क्या इसका अभिप्राय है कि तुम फूल बन जाओगे? नहीं लेकिन फिर भी एक अर्थ में ' हा।तुम इस अर्थ में फूल नहीं हो जाते कि तुम्हें तोड़ा जा सकता है और कोई तुम्हें घर ले जाए और अब तुम मनुष्य नहीं रहे। नहीं, इस प्रकार से नहीं। लेकिन जब मन नहीं होता तब तुम्हें फूल से अलग करने वाली सीमा नहीं होती, फूल के लिए कोई सीमा नहीं होती जो फूल को तुमसे अलग कर दे। तुम दोनों एक सत्तावान सरोवर बन गए हो दोनों एक-दूसरे में विलीन होकर मिल रहे हो। तुम तुम बने रहते हो, फूल फूल बना रहता है कोई भूल से तुम्हें तोड़ नहीं सकता, लेकिन एक विलय हो रहा है।
यह तुम्हारे जीवन में भी घटता है कभी-कभी केवल कुछ क्षणों के लिए जब तुम किसी व्यक्ति को प्रेम करते हो। वह भी बहुत कम क्योंकि मनुष्य का मन उसे कभी नहीं छोड़ता प्रेम में भी। वह अपनी ही स्वयं की मूर्खता का सृजन करता रहता है, अपने स्वयं के संसार की रचना करता रहता है, और प्रेमी को भी कभी इतनी निकटता की अनुमति नहीं दी जाती कि वह पृष्ठभूमि तक पहुंच जाए। आकृति यानी अहंकार सदा बीच में खड़ा रहता है। लेकिन कभी-कभार ऐसा घटित हो जाता है।
निस्संदेह वह तुम्हारे बावजूद घटता होगा। वह इतना प्राकृतिक है कि यद्यपि तुमने सारे इंतजाम कर लिए हों फिर भी कभी-कभी वास्तविकता तुमसे टकरा जाती है। तुम्हारे सारे इंतजामों के बावजूद, सभी स्वप्नों के बावजूद कभी-कभी वह तुम्हारे भीतर प्रवेश कर जाती है कभी-कभी तुम सावधान नहीं होते। कभी-कभी तुम भूल जाते हो या किसी बात में इतने व्यस्त होते हो कि एक खिडकी खुलती है और खिड़की की ओर तुम्हारा ध्यान नहीं जाता और वास्तविकता प्रवेश कर जाती है।
प्रेम की किन्हीं घड़ियों में ऐसा घट जाता है, जब द्रष्टा दृश्य बन जाता है। यह एक सुंदर ध्यान है। अगर तुम किसी व्यक्ति को प्रेम करते हो उसके साथ बैठ जाओ और एक-दूसरे की आंखों में देखो- कुछ सोचना नहीं यह मत सोचना कि वह कौन है, विचार-प्रक्रिया को मत चलने देना केवल एक-दूसरे की आंखों में देखते रहना है।
हो सकता है तुम्हें कुछ झलकें मिल जाएं जब द्रष्टा दृश्य हो जाएगा, जब तुम खो जाओगे और तुम्हें यह भी मालूम न होगा कि तुम कौन हो- तुम प्रेमी हो गए हो या प्रेमी तुम हो गया है। आंखें एक दूसरे में प्रवेश करने का सुंदर द्वार हैं।
और मैं यह क्यों कहता हूं कि प्रेम में ऐसा संभव है? क्योंकि केवल प्रेम में तुम अपना बचाव नहीं करते। तुम विश्रांति में होते हो, तुम्हें दूसरे का भय नहीं होता, तुम ग्रहणशील हो सकते हो तुम ऐसा करने में समर्थ हो अन्यथा तुम सदा सतर्क रहते हो क्योंकि तुम्हें पता नहीं कि दूसरा क्या कर देगा तुम्हें पता नहीं कि कहीं दूसरा तुम्हें चोट पहुंचा दे। और अगर तुमने बचाव नहीं किया तो चोट काफी गहरी हो सकती है।
प्रेम में तुम एक-दूसरे की आंखों में झांक सकते हो। जब आकृति और पृष्ठभूमि एक-दूसरे में विलीन हो जाती हैं तब कुछ झलकें मिल सकती हैं। तुम्हारी आधार शिला हिल जाती है। अचानक तुम्हें झलक मिलेगी तुम नहीं हो फिर भी तुम हो। कहीं भीतर गहरे में मिलन हो रहा है।
एक सच्चे ध्यानी का संसार के साथ कुछ ऐसा ही घटित होता है- ऐसा नहीं है कि वह एक वृक्ष हो जाता है लेकिन फिर भी वह एक वृक्ष बन जाता है। जब वह वृक्ष के साथ होता है सीमाएं मिट जाती हैं। जब वह इस सीमा- धरती के साथ लयबद्ध हो जाता है तब वह सीमाओं के बाहर हो जाता है।
सोसान का अभिप्राय यही है। जब मन मिट जाता है) वस्तुएं विलीन हो जाती हैं। जब वस्तुएं विलीन हो जाती हैं तुम मिट जाते हो अहंकार मिट जाता है। वे एक-दूसरे
से जुड़े हैं।

इन दोनों की सापेक्षता को,
और मौलिक सत्य शून्यता की एकात्मकता को समझो।

'इन दोनों की सापेक्षता को और मौलिक सत्य शून्यता की एकात्मकता को समझो।तुम अपने आस-पास की वस्तुओं के कारण अस्तित्व में हो। तुम्हारी सीमा तुम्हारे चारों ओर की दूसरी वस्तुओं की सीमाओं के कारण है। जब उनकी सीमाएं खो जाती हैं तुम्हारी सीमा भी खो जाती है- तुम एक-दूसरे से संबंधित हो तुम एक साथ हो।
तुम्हारा मन और बाहर की तुम्हारी वस्तुएं दोनों जुड़े हैं उनमें एक सेतु है। अगर एक किनारा मिट जाता है तो सेतु गिर जाता है। और सेतु के साथ दूसरा किनारा भी मिट जाता है क्योंकि एक किनारे का अस्तित्व दूसरे किनारे के बिना नहीं हो सकता। सापेक्षता का यही अर्थ है।
और तब एक एकता है- शून्यता की एकता। तुम शून्य हो और फूल भी शून्य है, क्योंकि फूल की कोई सीमा नहीं फिर केंद्र भी कैसे हो सकता है? बुद्ध की गहनतम उपलब्धियों में से एक यह है केवल बौद्धों ने ही यह दावा बड़े सुंदर ढंग से किया है। वे कहते हैं, आत्मा नहीं है स्व नहीं है।
और इसे बहुत अधिक गलत समझा गया, क्योंकि हिंदुओं का कहना है कि उनका सारा धर्म आत्मा पर स्व पर, परमात्मा पर आधारित है और बुद्ध कहते हैं ' जब सीमा ही नहीं है तो आत्मा का अस्तित्व कैसे हो सकता है?' जब सीमा ही नहीं है और मन बिलकुल शांत हो गया है, ' मैं ' कैसे बच सकता है? क्योंकि ' मैं ' ही शोर है। जब पूर्ण है तो तुम कैसे कह सकते हो ' मैं हूं।जब आकृति और पृष्ठभूमि एक हो गए हैं तुम कैसे कह सकते हो ' मैं हूं।
यही बुद्ध की शून्यता है : ' अनता।यह सुंदर शब्द है- अनंता अहंता का न होना। तुम नहीं रहे और फिर भी तुम हो। वास्तव में पहली बार तुम हो, समष्टि के रूप में लेकिन एक व्यक्ति के रूप में परिभाषित, सीमांकित बंधे हुए नहीं। तुम पूर्ण की भांति हो लेकिन तुम एक व्यक्ति के रूप में अंकित एक परिभाषित पृथकता नहीं हो। तुम अब एक द्वीप नहीं हो तुम शून्यता का एक अपार विस्तार हो।
और ऐसा ही एक फूल के साथ है और ऐसा ही वृक्ष के साथ है और ऐसा ही पशु- पक्षी के साथ है; और ऐसा ही चट्टान तारों और सूर्य के साथ है। जब तुम्हारा स्व मिट जाता है और स्व सब जगह से विलीन हो जाता है क्योंकि वह तुम्हारा स्व ही प्रतिबिंबित हो रहा था वह तुम्हारा स्व ही जगत द्वारा प्रतिध्वनित हो रहा था वह तुम्हारा ही पागलपन प्रतिबिंबित हो रहा था। अब वह वहां नहीं है।
सोसान कह रहा है कि जब शून्यता है तब एकात्मकता है। अगर तुम हो तो एकात्मकता कैसे हो सकती है? तुम्हारी पृथक सत्ता ही अनेकता निर्मित करती है।
मुसलमान कहते हैं कि वे हिंदुओं से प्रेम करते हैं वे भाई- भाई हैं ईसाई कहते हैं कि वे यहूदियों से प्रेम करते हैं वे भाई- भाई हैं। प्रत्येक व्यक्ति भाई है लेकिन तुम भाई कैसे हो सकते हो जब कि तुम ईसाई हो? तुम भाई कैसे हो सकते हो जब कि तुम हिंदू हो? तुम्हारा अलग होना, तुम्हारी सीमा अपने में शत्रुता लिए हुए है। अधिक से अधिक तुम एक-दूसरे को सहन कर सकते हो लेकिन तुम दूसरे के साथ एक नहीं हो सकते। और केवल ' भाई ' कहने से काम नहीं चलता क्योंकि जितनी भयानक लड़ाई भाइयों में हो सकती है उतनी और किसी में नहीं हो सकती।
अपने को हिंदू कहने का अर्थ है कि मैं अपने आप को समग्र से पृथक कर रहा हूं। यह कहना कि मैं शक्तिशाली हूं मैं स्वयं को संसार से पृथक कर रहा हूं। यह कह कर कि मैं असाधारण हू मैं स्वयं को संसार से पृथक कर रहा हूं। यही तो च्यांगत्सु कहता है बस साधारण हो जाओ। उसका अर्थ है कि किसी भी भांति पृथक मत होओ स्वयं के विषय में एकदम स्पष्ट निश्चय मत करो। तरल सीमाओं जो सदा द्रवित होकर मिलन के लिए तत्पर हैं- के साथ जीओ।

इन दोनों की सापेक्षता को,
और मौलिक सत्य शून्यता की एकात्मकता को समझो।
इस शून्यता में इन दोनों की अलग पहचान खो जाती है;
और प्रत्येक अपने आप में संपूर्ण जगत को समाए रहता है।

उनमें भेद नहीं किया जा सकता उन्हें एक-दूसरे से पृथक नहीं माना जा सकता- - वे ' पृथक ' हैं लेकिन यह पृथकता बिलकुल भिन्न है। तुम भेद कर सकते हो परंतु यह भेद अहंकार का नहीं है।
वह सागर में लहर की भांति है तुम भेद कर सकते हो लहर लहर है सागर नहीं है- लेकिन फिर भी वह सागर ही है। लहर का अस्तित्व सागर के बिना नहीं हो सकता। सागर उसमें लहरा रहा है सागर उसमें धड़क रहा है। वह आकार के रूप में भिन्न है और फिर भी अस्तित्व के रूप में भिन्न नहीं है। तुम अलग बने रहते हो और फिर भी अलग नहीं हो। यह मूलभूत विरोधाभास है जिसे आदमी तब अनुभव करता है जब उसे ' अनता ' का अनुभव होता है।

....और प्रत्येक अपने आप में संपूर्ण संसार को समाए रहता है।

पृथक नहीं तुम कुछ गंवाते नहीं तुम्हें पूर्ण उपलब्ध हो जाता है। और तुम्हें हमेशा खो जाने का भय है। तुम हमेशा सोचते हो ' अगर मैं स्वयं को खो दूंगा तब मैं नहीं बचूंगा। मुझे क्या मिलने वाला है?' तुम खो देते हो और फिर तुम पूर्ण को उपलब्ध हो जाते हो। और तुम अपने दुख अपनी चिंता अपनी पीड़ा के सिवाय और कुछ नहीं खोते हो। तुम्हारे पास खोने के लिए है ही क्या? तुम्हारे पास खोने के लिए कुछ नहीं है- केवल तुम्हारे दुख तुम्हारे बंधन हैं।

....और प्रत्येक अपने आप में संपूर्ण संसार को समाए रहता है।

जब तुम खो जाते हो तुम संपूर्ण संसार हो जाते हो सब तुम्हारा है। तुम अपने ही कारण भिखारी हो तुम सम्राट हो सकते हो। मन भिक्षापात्र है।
मैंने एक सूफी कहानी सुनी है। यह सूफियों की सबसे पुरानी शिक्षाओं में से एक है। एक भिखारी एक सम्राट के महल में आया। सम्राट अपने बगीचे में था। इसलिए उसने भिखारी की आवाज सुन ली। द्वारपाल उसे कुछ देने ही वाला था कि भिखारी ने कहा मेरी एक शर्त है। मैं हमेशा मालिक के हाथ से लेता हूं नौकरों के हाथ से नहीं।
सम्राट ने सुना। वह सैर कर रहा था इसलिए वह भिखारी को देखने बाहर आया क्योंकि भिखारियों की कोई शर्तें नहीं होतीं। अगर तुम भिखारी हो तो तुम्हारी शर्तें कैसे हो सकती हैं? लगता है कोई अनूठा ही भिखारी है। इसलिए वह देखने के लिए आया- और वह भिखारी सच में ही अनूठा था। सम्राट ने पहले कभी ऐसा सम्राट जैसा व्यक्ति नहीं देखा था; वह उसके सामने कुछ नहीं था। उस व्यक्ति के चारों ओर एक आभामंडल था, एक शालीनता थी। उसके वस्त्र चिथड़े-चिथड़े हो गए थे वह लगभग नग्न था, लेकिन भिक्षापात्र बहुत, बहुत बहुमूल्य था।
सम्राट ने कहा. शर्त रखने का क्या कारण है?
भिखारी ने कहा क्योंकि नौकर स्वयं भिखारी है और मैं किसी से अभद्र व्यवहार नहीं कर सकता। केवल मालिक ही दे सकता है। नौकर कैसे देने में समर्थ है? इसलिए अगर आप देने को तैयार हैं तो आप दें और मैं स्वीकार कर लूंगा। लेकिन इसके लिए भी मेरी एक शर्त है और वह है मेरा भिक्षापात्र पूरा भरना चाहिए।
एक छोटा सा भिक्षापात्र! सम्राट हंसने लगा उसने कहा तुम पागल मालूम होते हो। क्या तुम सोचते हो कि मैं तुम्हारा भिक्षापात्र भर नहीं सकता? और तब उसने अपने मंत्रियों से बहुमूल्य हीरे-जवाहरात लाकर उस भिक्षापात्र को भर देने का आदेश दिया।
लेकिन वे मुश्किल में पड़ गए, क्योंकि जितना वे भिक्षापात्र को भरते रत्न उसमें गिरते आवाज तक न होती, वे गायब हो जाते। और भिक्षापात्र खाली का खाली रहा।
तब सम्राट भी चकराया! उसका सारा अहंकार दांव पर लगा था। वह एक महान सम्राट जिसने सारी पृथ्वी पर राज्य किया था एक भिक्षापात्र नहीं भर पा रहा था! उसने आदेश दिया सब-कुछ ले आओ लेकिन यह भिक्षापात्र भर जाना चाहिए।
उसके सारे खजाने... कुछ ही दिनों में उसके सारे खजाने खाली हो गए, लेकिन भिक्षापात्र खाली का खाली ही रहा। अब शेष कुछ भी नहीं बचा था। सम्राट भिखारी हो गया था, सब-कुछ खो गया था। सम्राट भिखारी के चरणों पर गिर पड़ा और बोला अब मैं भी एक भिखारी हूं और मैं एक ही चीज मांगता हूं। मुझे इस भिक्षापात्र का रहस्य बताओ यह जादुई प्रतीत होता है!
भिखारी ने कहा कुछ भी नहीं यह आदमी के मन से बना है, इसमें कुछ जादू नहीं है।
प्रत्येक मनुष्य का मन बस एक भिक्षापात्र है तुम उसे भरते रहते हो वह खाली का खाली रहता है। तुम सारा संसार एक नहीं कई संसार डाल देते हो और वे बिना कोई आवाज किए विलीन हो जाते हैं। तुम देते रहते हो और वह मांगता रहता है।
प्रेम दो और भिक्षापात्र वहां है तुम्हारा प्रेम विलीन हो गया। तुम अपना सारा जीवन दे दो और भिक्षापात्र वहां शिकायत भरी नजरों से तुम्हें देख रहा है, 'तुमने कुछ भी नहीं दिया मैं अब भी खाली हूं।और तुम एक ही प्रमाण दे सकते हो अगर भिक्षापात्र भरा है- और वह कभी नहीं भरता। निस्संदेह तर्क स्पष्ट है तुमने दिया ही नहीं।
तुमने बहुत चीजें उपलब्ध की हैं- वे सब भिक्षापात्र में खो गई हैं। मन स्वयं की हत्या की प्रक्रिया है। जब तक मन नहीं मिट जाता, तुम भिखारी ही बने रहोगे। जो कुछ भी प्राप्त करोगे वह व्यर्थ होगा तुम खाली ही बने रहोगे।
और अगर तुम मन को मिटा दो तब तुम पहली बार रिक्तता के द्वारा भर जाते हो।
अब तुम नहीं बचे लेकिन तुम पूर्ण हो गए हो। अगर तुम हो तो तुम एक भिखारी ही रहोगे। और अगर तुम नहीं हो तुम सम्राट हो जाते हो।
इसी कारण भारत में हमने भिक्षुकों को ' स्वामी ' कहा है। स्वामी का अर्थ है एक मालिक एक सम्राट। संन्यासियों के लिए इससे अच्छा और कोई शब्द नहीं है। जब मैं सोच रहा था कि नये संन्यासियों को मैं क्या नाम दूं मैं इससे अच्छा शब्द सोच नहीं पाया। स्वामी सबसे अच्छा प्रतीत होता है। इसका अर्थ है कि जिसने स्वयं को बिलकुल छोड़ दिया है, कि वह अब बचा ही नहीं; वह समस्त जगत हो गया है सबका स्वामी हो गया है। नहीं तो सम्राट भी भिखारी ही रह जाते हैं, वे कामना करते रहते हैं मांगते रहते हैं और दुखी होते रहते हैं।

अगर तुम परिष्कृत और अपरिष्कृत में भेद नहीं करते,
तो तुम पूर्वाग्रहों और धारणाओं का मोह नहीं करोगे।

अगर तुम घटिया और बढ़िया, अच्छा और बुरा सुंदर और कुरूप यह और वह- अगर तुम इनमें भेदभाव नहीं करते, तुम पूर्ण को जैसा है वैसा ही स्वीकार कर लेते हो। तुम अपना मन बीच में नहीं लाते तुम निर्णय करने वाले नहीं बनते, तुम मात्र यही कहते हो ' यह ऐसा ही है।
कांटा है तुम कहते हो ' यह ऐसा ही है गुलाब है तुम कहते हो ' यह ऐसा ही है एक संत है तुम कहते हो ' यह ऐसा ही है एक पापी है तुम कहते हो ' यह ऐसा ही है।और पूर्ण ही जानता है और कोई नहीं जानता कि पापी की सत्ता क्यों है? जरूर कुछ कारण होगा, लेकिन वह रहस्य पूर्ण अस्तित्व के लिए है तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है।
पूर्ण ही संतों और पापियों को, गुलाबों और कांटों को जन्म देता है- केवल पूर्ण ही जानता है कि क्यों। तुम सिर्फ पूर्ण में समा जाओ और कोई भेद न करो। तुम्हें भी ज्ञात हो जाएगा कि क्यों लेकिन यह तभी होगा जब तुम पूर्ण हो जाओगे।
जब तुम स्वयं रहस्य हो जाते हो, रहस्य खुल जाता है। तुम-तुम बने रह कर उसे सुलझा नहीं सकते। अगर तुम-तुम बने रहे तो एक महान दार्शनिक बन जाओगे। तुम्हारे पास बहुत से उत्तर होंगे, लेकिन उत्तर नहीं होगा; तुम्हारे पास बहुत से सिद्धांत होंगे, लेकिन सत्य नहीं होगा। लेकिन अगर तुम स्वयं रहस्य बन गए तो तुम्हें ज्ञात हो जाएगा। लेकिन वह ज्ञान इतना सूक्ष्म है कि शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। वह ज्ञान इतना विरोधाभासी है कि सभी भाषाओं को चुनौती देता है। वह ज्ञान इतना परस्पर विरोधी है क्योंकि विपरीत सीमाएं खो देते हैं, वे एक हो जाते हैं- कोई शब्द उसे व्यक्त नहीं कर सकता।
आकृति का अर्थ है शब्द, और पृष्ठभूमि का अर्थ है मौन। उस ज्ञान में आकृति और पृष्ठभूमि एक हो गए हैं, मौन और शब्द एक हो गए हैं। तुम उसे कैसे कह सकते हो? लेकिन फिर भी उसे कहना तो पड़ेगा ही, क्योंकि उसके लिए बहुत लोग प्यासे हैं। हो सकता है इसके विषय में सुनने मात्र से किसी का हृदय उस यात्रा पर चल दे। इसीलिए सोसान वे बातें कह रहा है।
सोसान जानता है कि उन्हें कहा नहीं जा सकता, क्योंकि जब भी तुम उसे कहते हो, भेद करना ही पड़ता है। जब भी तुम्हें कुछ कहना हो तो तुम्हें शब्द चुनना ही पड़ता है, तुम इसे उससे अधिक पसंद करते हो और मन प्रवेश कर जाता है।
लेकिन सोसान से बेहतर और किसी ने प्रयत्न नहीं किया। वह अतुलनीय है। तुम ऐसा व्यक्ति नहीं खोज सकते जिसने मौन को शब्दों में इतने सुंदर ढंग से उड़ेल दिया हो। बुद्ध को भी ईर्ष्या होगी। यह सोसान वास्तव में सदगुरु है- मौन का सदगुरु और शब्दों का सदगुरु। उसने इस जगत को कुछ दिया है जो इस जगत का नहीं है। उसने शब्दों से अपने अनुभव के गहन मौन में प्रवेश किया है।
उसके शब्दों को सुनो- केवल सुनो ही नहीं, आत्मसात करो। उन्हें अपने हृदय में घुल जाने दो। उन्हें स्मरण मत करना। उन्हें अपने रक्त की धारा में बहने दो और अपना रक्त मांस-मज्जा हड्डी बन जाने दो। आत्मसात कर लो, उन्हें खाओ, पचाओ और भूल जाओ। और उनमें रूपांतरण की अदभुत शक्ति है।

आज इतना ही।





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