कुल पेज दृश्य

रविवार, 17 मई 2020

हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्-(प्रवचन-05)

हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्

पांचवां प्रवचन-(ध्यान और रेचन)

प्रश्नः कई लोगों के मन में ऐसा ख्याल है कि तीन दिनों के शिविर से क्या हो सकता है। इंसान के जीवन में इतनी आसानी से कैथार्सिस वगैरह हो जाती है और इसकी कोई आवश्यकता वगैरह है कि ध्यान खुद ही अपने आप ही आ सकता है? इसके बारे में कृपया बताएं।
ध्यान आ सकता है, स्वयं से भी आ सकता है, लेकिन पृथक्करण से नहीं आएगा। बड़ा सवाल यह नहीं है कि हम अपने मन को एनालाइज कर दें, क्योंकि यह पृथक्करण विश्लेषण करते वक्त कहीं हमारा मन ही तो नहीं है। और यह सारा पृथक्करण हमारे ही मन को दो खंडों में तोड़ देता है। तो न तो पृथक्करण से संभव है कि मन एक हो जाए, न ही चिंतन-मनन से संभव है कि एक हो जाए। क्योंकि ये सारी क्रियाएं जिस मन से चलने वाली हैं, उसी मन को बदलना है।

एक ही व्यवस्था से हो सकता है कि न तो हम पृथक्करण करें, न हम चिंतन-मनन करें, वरन मन के प्रति हम धीरे-धीरे जागरूक होते जाएं।
जागरूक होने का अर्थ यह है कि हम कोई निर्णय नहीं लेते कि क्या भला है, क्या बुरा है।
हमें कोई पक्ष-विपक्ष में, मन का ही हिस्सा बचाना है या अलग रखना है, ऐसी भी कोई धारणा नहीं है। जैसा भी मन है, बिना किसी भाव के, बिना किसी पूर्व-धारणा के हम इस मन के प्रति जागते चलें। अगर जागरण में थोड़ा सा भी पक्षपात हुआ मन में, तो मन खंड-खंड हो जाएगा। तब दो हिस्से हम तोड़ लेंगे, अच्छे और बुरे का हिस्सा हम अलग कर लेंगे। और जैसे ही मन टूट रहा है कि ध्यान असंभव है। ध्यान का अर्थ ही है कि मन की समग्र अवस्था मिल जाए, टोटल अवस्था मिल जाए। तो अगर हम बिना किसी पूर्व-धारणा के, निर्णय के, अच्छे-बुरे के ख्याल के, शुभ-अशुभ के, जैसा भी हो, इसके प्रति मेरे होने के दो ढंग हो सकते हैं। जैसा भी मैं हूं, इसके प्रति मैं सोया हुआ हो सकता हूं और जैसा भी हूं, उसके प्रति जागा हुआ भी हो सकता हूं। निर्णायक नहीं, कोई जजमेंट नहीं। जो भी मैं कल तक करता रहा हूं वह मैं सोते-सोते करता रहा हूं।
आप पर क्रोध किया है तो बिल्कुल सोए हुए किया है। ऐसे ही हुआ कि जब हो चुका है तो मुझे पता चला है कि क्रोध हो गया। जब हो रहा था, तब पता ही नहीं चला। पृथक्करण वाला आदमी कहेगा--क्रोध बुरा है, इसे मन से अलग कर लें। चिंतन-मनन वाला आदमी कहेगा कि क्रोध बुरा है। उसका वही पक्ष होगा। जागरण, अप्रमाद की जो व्यवस्था है, अवेयरनेस की जो व्यवस्था है, वह इतना कहेगी--क्रोध हुआ है। और मैं दुखी क्रोध की वजह से नहीं हूं, दुखी मैं इस वजह से हूं कि मेरे सोते से हुआ है। तो मेरी लड़ाई क्रोध से नहीं है, मेरी लड़ाई इस सोएपन से है।
अगर हम अपने सोएपन से लड़ते चले जाएं, धीरे-धीरे हमारी प्रत्येक क्रिया हमारे होश में होने लगे, तो बड़े मजे की बात है कि कुछ क्रियाएं होश में हो ही नहीं सकतीं। जैसे क्रोध नहीं हो सकता, जैसे घृणा नहीं हो सकती, हिंसा नहीं हो सकती। तो मैं, मैं तो कहता ही ऐसा हूं कि जो जागरूक अवस्था में हो सके, वही होना है, वही शुभ है। और जिसके होने के लिए निद्रा अनिवार्य हो, वही पाप है, वही अशुभ है। यानी सोया हुआ होना जिसके लिए अनिवार्य भूमिका बने, जिसके बिना हो ही न सके, वही पाप है।
तो स्वयं ध्यान फलित हो सकता है, व्यवस्था जागने की करनी पड़ेगी। साधारणतः यह संभव नहीं हो पाती। क्योंकि हमारा वह जो सोया हुआ चित्त है वह इसका स्मरण नहीं रख पाता कि हम जागे रहें। वह इस बात के प्रति भी सो जाता है। कभी-कभी ख्याल आता है कि निर्णय किया था कि जागते रहेंगे, लेकिन यह निर्णय भी तो हमने जागे हुए नहीं किया है। यह निर्णय भी तो हमारी नींद का ही निर्णय है। इसलिए यह बात तो बिल्कुल ठीक लगती है, लेकिन हो नहीं पाती है। हो सकती है, वह सिर्फ संभावना है। और कभी लाख, दो लाख आदमी में एक-दो आदमी को हो भी जाती है। साधारणतः यह बात लगेगी बिल्कुल उचित, लेकिन हो नहीं पाएगी।
न होने में दो-तीन कारण हैं--एक कारण तो यह होगा कि हमारा जो निर्णय है जागे होने का वह भी सोए हुए आदमी का निर्णय है। हम इसे भी तो चैबीस घंटे याद नहीं रखने वाले हैं। यह भी तो हमें भूल जाएगा पांच क्षण के बाद। अब यह हमने निर्णय ले लिया है, निर्णय लेकर हम चुके भी नहीं हैं और घटना आ जाएगी और हम भूल जाएंगे कि हमने निर्णय लिया है।
एक तो कठिनाई यह है कि सोए हुए मन से लड़ना है, लेकिन सोया हुआ मन ही तो निर्णय लेगा। दूसरी कठिनाई यह है कि हमारे मन का जो अर्जित संस्कार है, वह जो कंडीशनिंग है, वह बाधा डालेगी। यानी वह ऐसे ही है जैसे हम एक बीमार आदमी से कहें कि तुम स्वस्थ हो जाओ। राजी वह भी होगा। बीमार भी स्वस्थ होना ही चाहता है। वह भी कहेगा, बिल्कुल सहमत हैं आपसे। बात बिल्कुल ठीक है। लेकिन ये जो बीमारी के कीटाणु भरे पड़े हैं, यह जो बुखार चढ़ा हुआ है, इसका क्या करना है? स्वस्थ तो मुझे भी होना है।
जब भी हम किसी आदमी से बात कर रहे हैं तो वह आदमी खाली नहीं है, वह आदमी भरा हुआ है। इस जन्म के संस्कार हैं, और अगर हम और गहरे देखें तो और जन्मों के संस्कार हैं। वे सब भरे हुए हैं। वह बोझ उसके सिर पर है। यह जो बोझ है, यह बाधा डालेगा। क्योंकि कल तक जो मैंने किया है, अनंत बार जिसे किया है, उसकी गहरी पकड़ और उसके सांचे बन गए हैं। उसके ग्रूव्ज हैं। मुझे पता ही नहीं चलता है और वही हो जाता है। क्योंकि स्वभावतः मन का नियम है कि जहां लीस्ट रेसिस्टेंस है, मन वही करेगा। जीवन का यही नियम है। अगर मुझे यहां से दरवाजे तक पहुंचना है तो मैं सबसे कम दूरी चुनूंगा। स्वभावतः, सीधी से सीधी रेखा चुनूंगा। सीधी रेखा का मतलब यह है कि दो बिंदुओं के बीच में निकटतम जो दूरी है, कम से कम जो दूरी है। उसको हम पागल कहेंगे जो पच्चीस चक्कर लगा कर उस जगह पहुंचे। और निकटतम और सरलतम वही है जो मैंने किया है।
क्रोध मैंने किया है करोड़ों बार। अक्रोध मैंने कभी किया नहीं। तो करोड़ों बार किए गए क्रोध की अपनी नहर बनी है। इधर उठी नहीं शक्ति कि उधर बही नहीं।
वह नहर बिल्कुल तैयार है, वह प्रतीक्षा कर रही है। दूसरी कोई नहर नहीं है। तो आल्टरनेटिव बहुत कम है। संभावना यही है कि जब क्रोध की स्थिति उत्पन्न हो, तब आप फिर क्रोध कर जाएं। हालांकि फिर पछताएंगे, यह पछताने का भी ग्रूव है। यह हर बार क्रोध के बगल की चैनल है, जो कि हर बार आपने क्रोध किया है और हर बार आप पछताए भी हैं। तो क्रोध का भी एक रास्ता बना हुआ है, फिर क्रोध के बाद पछताने का भी रास्ता बना हुआ है। वह इसी की छाया है। इसमें आप कोई नया काम नहीं कर रहे हैं। पहले भी क्रोध किया था, पहले भी पछताए थे। अब फिर क्रोध किया है, फिर पछताए। उसी के पास कसम खाने का रास्ता भी बना हुआ है और वे सब बने हुए रास्ते हैं। पहले भी कसम खा चुका कि क्रोध न करूंगा, अब फिर कसम खा लेंगे कि क्रोध न करूंगा। लेकिन एक बात बिल्कुल ख्याल में न आएगी कि वही हो रहा है, जो हो चुका है बहुत बार। और जितनी बार दोहरता जाएगा उतना मजबूत होता चला जा रहा है एक्ट।
तीसरी बात, जो कुछ भी हमने किया है उसे भी कभी पूरा नहीं किया है। क्रोध भी हमने कभी पूरा नहीं किया। घृणा भी हमने कभी पूरी नहीं की। दुश्मन भी हम कभी पूरे नहीं हुए। किसी को मार डालना जरूर चाहा है, मार ही नहीं डाला। खुद भी आत्महत्या करनी चाही, लेकिन की नहीं है। तो जो भी हमने करना चाहा है, उसका एक हिस्सा हमने दबाया भी है। वह हमारा सप्रेशन का बोझ है। वह प्रतीक्षा कर रहा है हर वक्त। वह हमेशा बल देता है उसी को करने को जो आपने रोक लिया है। तो इधर नहर खुदी है, इधर पीछे से फोर्सेस इकट्ठी हैं, बड़ी शक्तियां इकट्ठी हैं जो कहती हैं कि बस करो क्रोध, क्योंकि वहां भरा हुआ बोझ, वह निकलना चाहता है। ये तीन चीजें आपके, सब निर्णय आपके तोड़ देंगी। यहां निकास मिल पाएगा।
इन तीनों से निपटने के लिए जो मैं ध्यान कह रहा हूं, वह है कैथार्सिस। इसलिए कैथार्सिस उसमें मेरा पहला हिस्सा है। कैथार्सिस में दो बातें हैं। एक तो जो मुझमें भरा है, पुराना दबाया हुआ है, उसको मुक्त करना है, उसका रेचन करना है। अब यह जो पुराना दबाया हुआ है, अगर किसी के ऊपर इसका रेचन किया जाए, तो फिर उपद्रव शुरू हो जाएंगे। अगर मेरे भीतर दबाए हुए क्रोध की एक मात्रा है, वह अगर मैं आप पर निकालूं तो आप बैठे तो नहीं रहेंगे। आप भी जवाब देंगे। आप भी मेरे जैसे आदमी हैं। आप भी लकड़ी लेकर खड़े हो जाएंगे। तो मैं जितना निकालूंगा, उतना फिर उससे दुगना आप पैदा करवा देंगे। फिर उसे दबाना पड़ेगा, क्योंकि सिलसिला कहीं तो तोड़ना पड़ेगा। फिर दबा लूंगा। तो किसी पर निकालने से तो रेचन कभी नहीं हो सकता है। किसी पर तो हम निकालते ही रहे हैं और रेचन नहीं हुआ है।
इसलिए कैथार्सिस इन वैक्यूम है, कैथार्सिस अनडायरेक्टेड है। इसकी जरूरत है कि मैं निकालूंगा क्रोध, लेकिन किसी पर नहीं, हवा में निकालूंगा, खालीपन में निकालूंगा, जिसमें कि लौटती प्रतिक्रिया न हो उसकी। तो जो लौटती प्रतिक्रिया अगर न हो तो मैं नया अर्जन न करूं। और एक दूसरी घटना घटेगी, अगर हवा में मेरा क्रोध निकल जाए, जो कि साधारणतः आपको पागलपन मालूम पड़ेगा, इसलिए मास मेडिटेशन पर मेरा जोर है शुरू में। अकेले में आप बिल्कुल पागल मालूम पड़ेंगे। अकेले में आपको लगेगा--मैं यह क्या कर रहा हूं? और बड़े मजे की बात है कि अगर दो सौ लोग वही कर रहे हैं, तो फिर आप पागल नहीं मालूम पड़ेंगे; क्योंकि आपको लग रहा है कि मैं ही नहीं कर रहा हूं, ये एक सौ निन्यानबे लोग और कर रहे हैं। असल में हमारे पागल और न पागल होने का जो निर्णय है, वह भी समूह से दिया हुआ निर्णय ही है। किसी मुल्क में अगर मिल कर दो आदमी नाक रगड़कर नमस्कार करते हैं, तो वह पागलपन नहीं है, क्योंकि पूरा मुल्क करता है। आज बंबई में जाकर किसी को नमस्कार नाक रगड़ कर करें तो पागल हैं। वह भी आदमी चैंकेगा, आस-पास के लोग भी चैंक जाएंगे। लेकिन फर्क क्या है? फर्क सिर्फ इतना है कि हम यहां अकेले पड़ गए हैं और वहां पूरी भीड़ वही कर रही है। अफ्रीकन औरत है, वह सिर घुटा कर सुंदर हो जाती है, क्योंकि बाकी सारी औरतें भी सिर घुटाकर सुंदर होती हैं। हिंदुस्तान में कोई औरत सिर घुटाने को राजी नहीं होगी। वे कहेंगी, मुझे कोई कुरूप बनाना है! मुझे कोई भूत-प्रेत बनाना है! अफ्रीकन औरत क्यों कर पा रही है? बाकी सारी भीड़ वही कर रही है। असल में हमारे पागल और गैर-पागल होने का पता ही हमें सिर्फ इसलिए चलता है कि हम अकेले तो नहीं पड़ गए।
तो इसलिए मेरा जोर है कि यह जो कैथार्सिस है, आप अकेले में उसे नहीं कर पाएंगे। कर सकें तो अच्छा है, मुझे कोई एतराज नहीं है कि अकेले में कोई कर सके। लेकिन कर नहीं पाएगा अकेले में। उसे खुद ही लगेगा कि मैं घूंसा किसको मार रहा हूं! क्योंकि हमारी सदा की आदत जो है, वह किसी को घूंसा मारने की है। हवा में घूंसा मारने से हम पागल मालूम पड़ेंगे कि यह क्या पागलपन कर रहे हैं! हवा में घूंसा हमने सिर्फ पागलों को मारते देखा है। हवा में चिल्लाते सिर्फ पागलों को देखा है। नहीं कोई मौजूद है, बोलते सिर्फ पागलों को देखा है। हम तो सब समझदार कोई हो तो बोलते हैं, कोई हो तो घूंसा मारते हैं, कोई हो तो क्षमा मांगते हैं, कोई हो तो चिल्लाते हैं, कोई कारण हो तो हम बोलते हैं, कोई कारण हो तो हम हंसते हैं। अकारण तो हम कुछ भी नहीं करते। अगर ठीक से समझें, तो अकारण करने वाले आदमी को हम पागल कहते हैं। इसलिए एक आदमी बैठा है यहां, अचानक यहां हंसने लगे खिलखिला कर, तो हम कहेंगे पागल है, क्योंकि हमने कोई बात भी न की थी, अभी तो कोई चर्चा न थी। चर्चा हो, खूंटी हो टांगने को, तो फिर हंसे, तो हम कहेंगे चलेगा।
तो इसलिए कैथार्सिस जो है, वह मेरी दृष्टि में मास ही शुरू की जा सकती है। इतने हिएमत के बहुत कम लोग हैं कि वे अकेले में कैथार्सिस कर सकें। और अकेले में किसी न किसी तरह का रेसिस्टेंस बना ही रहेगा। अकेले में तो, क्योंकि अकेले ही आप और आपको पूरे वक्त यह ख्याल बना ही रहेगा कि जो मैं कर रहा हूं, यह क्या कर रहा हूं? कोई पागलपन तो नहीं कर रहा हूं!
लेकिन दो हजार आदमी कर रहे हैं, दस हजार आदमी कर रहे हैं, इसलिए मेरा इरादा ही यह है कि इसको जितने बड़े व्यापक पैमाने पर किया जाए, दस हजार आदमी करेंगे, आप और भी ज्यादा आसान अनुभव करेंगे। तब आपको पागल होने का डर न रहा। दस हजार आदमी पागल नहीं हैं। और आप वह सब चेहरे देख रहे हैं जो पागल नहीं हैं। आपको अपने चेहरे पर शक हो सकता है। सब आदमियों को शक होता है अपने पर कि वे कभी पागल हो सकते हैं। क्योंकि भीतर जो वे चलते देखते हैं, वह है भी पागल होने के निकट। वहां सदा ही कहना चाहिए वॉलकैनो पर ही हम बैठे हुए हैं। लेकिन जब आप देखते हैं कि मजिस्ट्रेट गांव का भी कर रहा है और वकील भी कर रहा है और डाक्टर भी कर रहा है और प्रोफेसर भी कर रहा है और वृद्ध भी कर रहा है, जवान भी कर रहा है, यह आपके ख्याल से तत्काल बात उतर जाती है कि कोई पागलपन हो रहा है। यह उतर जाना बहुत जरूरी है, नहीं तो कैथार्सिस न हो पाएगी। इसलिए कैथार्सिस मास ही हो सकती है।
अभी पश्चिम में ग्रुप थैरेपी पर बहुत जोर बढ़ा है। मैं मानता हूं कि वह जोर उचित है। एक आदमी को अकेले में उसके मस्तिष्क को ठीक करना कठिन पाने लगे हैं वे भी। लेकिन एक ग्रुप में उसे ठीक करना ज्यादा आसान हो जाता है। क्योंकि ग्रुप में वह एट ई.ज हो जाता है। तो यह थोड़ा ख्याल में ले लेने जैसा है कि एक आदमी अकेले में स्वस्थ है, साधारणतः जिसको हम नार्मल आदमी कहते हैं, उसे भी अकेले में हम दो-चार साल एक कमरे में डाल दें, तो वह पागल हो जाएगा। यह वही आदमी है, अकेला क्या करेगा। अकेला इसको पागल नहीं बना सकता अकेलापन, लेकिन यह पागल क्यों हुआ जा रहा है? असल में यह वे ही काम इस अकेलेपन में करना शुरू करेगा, जो इसने किसी के साथ किए थे। लेकिन तब वजह थी इसके पास, अब बेवजह हो जाएगा मामला। तब यह क्रोधित हुआ था, इसने कहा था कि क्रोध का कारण है, क्योंकि लड़के ने गलती की है।
अब भी क्रोध आएगा, क्योंकि क्रोध बाहर से बंधी हुई चीज नहीं है, वह हमारी भीतरी अवस्थाओं से है। अब भी क्रोध आएगा। अब कोई लड़का नहीं है, कोई पत्नी नहीं है, दीवालें हैं, अब किसको क्रोध करेगा? कुछ दिन रोकेगा, दबाएगा, फिर वश के बाहर हो जाएगा। फिर यह दीवाल को गालियां देने लगेगा। दीवालों को जिस दिन इसने गाली दी, यह भी जानेगा, मैं पागल हो गया हूं, बाहर के लोग भी जान रहे हैं कि यह आदमी पागल हो गया है, क्योंकि अब यह अकारण काम कर रहा है।
कैथार्सिस का मतलब है, जो हमने सदा आब्जेक्ट के साथ किया है, कॉ.जल था, अब उसे हम अनकॉ.जल कर रहे हैं, अनडायरेक्टेड। तो इसके लिए बड़ा ग्रुप हो, तो आसान हो जाएगा, एक।
दूसरी बात कि अगर यह हमने अकारण किया, तो जो क्रोध सदा कारण से चलता था, वह बंधी हुई नहर से बहता था। बंधी हुई नहर सदा डायरेक्शन में होती है। अब यह अकारण है, ओवरफ्लो होगा। अनडायरेक्टेड होने की वजह से इसकी कोई चैनेलाइजेशन नहीं होगी। क्योंकि आप पर अगर मुझे क्रोध करना था, तो आपके और मेरे बीच एक रास्ता बनता है क्रोध का। लेकिन हमें किसी पर क्रोध नहीं करना है, इसलिए डायमेंशनलेस होगा। और कैथार्सिस जो है वह डायमेंशनलेस ही हो सकती है। अगर इसमें डायमेंशन है तो फिर कैथार्सिस नहीं हो सकती। यह ओवरफ्लो होगा। यह पूर की तरह होगा, बाढ़ की तरह होगा, जो किनारे तोड़ देगा। किनारे टूट जाने जरूरी हैं तभी आप पूरे खाली हो सकते हैं, एक। क्योंकि इतना क्रोध है जन्मों-जन्मों का, इतनी वासना है, इतना काम है, वह सब है इकट्ठा। वह पूरा कर देना चाहिए।
दूसरा, जब यह बांध तोड़ कर बहता है तो फिर इसके कोई रास्ते नहीं बनते। जब यह बह जाता है तो जगह खाली छूट जाती है, इसके पीछे जगह खाली हो पाती है और बंधे रास्ते नहीं रह जाते हैं। और एक दफे आपने क्रोध को अगर अकारण बहते देखा, एक बार भी अनुभव कर लिया अकारण तो अब आप कारण न खोजेंगे कभी क्रोध के लिए। और एक बार आपने उसको सारे रास्ते तोड़कर बहते देख लिया, तो वह जो पुराने बंधे हुए रास्ते थे, वे नष्ट हो गए, वे टूट गए। पुराने घाट टूट गए, पुराना पश्चात्ताप टूट गया, प्रायश्चित्त टूट गया, वह गया सब।
यह मन खाली हो जाए आदत से और दमन से--दोनों से खाली हो जाए, तो फिर जिसको मैं जागरूकता कह रहा हूं, वह सरल बहना हो जाएगा।
अब लोगों को लगता है सदा ऐसा कि तीन दिनों में कैसे हो जाएगा? समय के बाबत भी हमारी बड़ी अजीब धारणाएं हैं। असल में हमें यह ख्याल नहीं है कि कोई भी टेक्नीक कम विकसित हो, तो ज्यादा समय लेती है। बैलगाड़ी में चलता था जो आदमी उसकी कल्पना में नहीं हो सकता था कि घंटे भर में दिल्ली पहुंच जाएगा वह। घंटे भर में दिल्ली पहुंचने की कोई आंतरिक कठिनाई नहीं है। बैलगाड़ी के टेक्नीक की तकलीफ है उसके दिमाग में। उसका जो टाइम स्केल है वह बैलगाड़ी का है। वह अनुभव से कह रहा है कि यह हो ही नहीं सकता है कि घंटे भर में दिल्ली आप पहुंच जाएंगे। और यह तो हो ही नहीं सकता कि चांद पर आप पहुंच जाएंगे। क्योंकि बैलगाड़ी को चांद पर ले कैसे जाइएगा? आज से सौ साल पहले सिर्फ बच्चों की कहानियां थीं--कहानियां लिख सकते थे चांद पर पहुंचने की। कोई बुद्धिमान आदमी, कोई प्रौढ़ आदमी यह बात नहीं करता कि यह क्या बचकानी बातें कर रहे हो? क्योंकि हमारे पास जो साधन थे यात्रा के, उनसे कोई संबंध ही नहीं जुड़ता था।
ठीक वैसे ही ध्यान की जो स्थिति है वह करीब-करीब वहीं ठहर गई है, जहां बैलगाड़ी ठहरी थी। यानी जिस वक्त बैलगाड़ी हमारा आम वाहन थी और घोड़ा हमारा तेज से तेज वाहन था, उस जमाने में ध्यान ने जो टेक्नीक विकसित किए थे, वे वहीं ठहर गए। उनमें कोई विकास नहीं हुआ। बैलगाड़ी तो हवाई जहाज बन गई, लेकिन ध्यान वहीं ठहरा हुआ है! अब भी जब हम ध्यान को खोजने जाते हैं तो हम स्वभावतः महावीर में खोजेंगे, पतंजलि में खोजेंगे। लेकिन हमको पता नहीं, पतंजलि बैलगाड़ी में चलता था और पतंजलि का टाइम स्केल है, वह बैलगाड़ी का टाइम स्केल है। और अगर बैलगाड़ी की दुनिया में विकसित की गई ध्यान की पद्धतियों की चर्चा आप जेट की दुनिया में करेंगे तो आप अपने हाथ से ध्यान को हरवाने जा रहे हैं। तो उस जमाने में बिल्कुल सहज थी यह बात कि ध्यान एक जन्म में उपलब्ध नहीं होता, तीन दिन तो बहुत थोड़े हैं, एक जन्म भी छोटा था। ध्यान एक जन्म में उपलब्ध होता नहीं, जन्मों-जन्मों की बात है।
जिस समय की गति पर हम जी रहे थे, वहां यह बात मौजूं थी। लगता था कि ठीक है, ऐसा ही होगा। और कोई उपाय भी नहीं था इसको समझने का। जिन्होंने पाया था वे भी कहते थे कि जन्मों-जन्मों की यात्रा है। वे भी गलत न कहते थे, अनुभव से ही कहते थे। लेकिन इसमें कारण कोई ध्यान की, कोई इनटेंसिव टेक्नीक है। समय से कोई लेना-देना नहीं है ध्यान को। न गति से समय को कुछ लेना-देना है। समय और गति के बीच में टेक्नीक निर्धारित होता है कि क्या होगा। अगर हम आयुर्वेद की दवा आपको देते हैं तो उसका समय होगा। वह असल में बैलगाड़ी के वक्त में विकसित हुई थी। एलोपैथी का इंजेक्शन भी उतना समय नहीं लेगा। वह बैलगाड़ी के जमाने का विकास नहीं है।
मेरी अपनी समझ यह है कि इस जगत में जब भी एक स्तर पर गति बढ़ती है तो सारे स्तर की गतियों को बढ़ना चाहिए, अन्यथा वह असंगत हो जाती हैं व्यवस्थाएं। अब जैसे कि पश्चिम में फ्रायड ने जो मनोविश्लेषण विकसित किया था, पचास-साठ साल पहले, वह हारने लगा, क्योंकि उसका टाइम स्केल बहुत लंबा है। अगर फ्रायडियन एनालिसिस करवानी है तो तीन साल भी लग सकते हैं, दस साल भी लग सकते हैं। तो तीन साल तो लगने ही वाले हैं। तो गरीब आदमी तो करवा ही नहीं सकता। और दो-तीन साल जो अफोर्ड कर सके, निरंतर हर सप्ताह कम से कम तीन सिटिंग दे सकते हैं और खर्चीला है। तो फ्रायड अब चल नहीं सकता आगे। क्योंकि उसका जो ढंग है, बिल्कुल बैलगाड़ी वाला है। तीन साल में अगर एक मानसिक आदमी की थोड़ी सी तकलीफ है उसको तीन साल लगें इलाज में, तो बीमारी तो एक तरफ रही, इलाज बड़ी बीमारी हो गई। यह इलाज नहीं लागू किया जा सकता। कितने लोगों के पास इतना समय है, कितने लोगों के पास इतना पैसा है, जो तीन साल छोटी-मोटी मानसिक बीमारी के लिए व्यवस्था दें! यह नहीं चल सकता है।
तो निरंतर इधर पिछले पंद्रह वर्षों में मनसशास्त्री को तीव्र गतियां खोजनी पड़ी हैं कि कैसे जल्दी हो सके। जो आदमी एक-एक मिनट बचा रहा है, जो एक-एक मिनट बचाने के लिए जीवन दांव पर लगाए हुए है, उस आदमी से आप कह रहे हैं कि तीन साल तुम्हारा मानसिक विश्लेषण करने में लगाएंगे, तो वह कहेगा कि वह अगले जन्म में मिलेगा।
लेकिन तीन साल फिर भी समझ में आ रहा है। हम इस मुल्क में ध्यान के लिए जो भाषा बोलते हैं, वह जन्मों की बोलते हैं!
मेरा अपना मानना है कि यह कोई सवाल नहीं है। यह सिर्फ टेक्नीक अविकसित है। जिस टेक्नीक की मैं बात कर रहा हूं, इसको अगर चैबीस घंटे किया जाए तीन दिन, तो तीन दिन बहुत हैं। चैबीस घंटे अगर इसको तीन दिन किया जाए, तो तीन दिन थोड़े नहीं हैं, थोड़े जरूरत से ज्यादा हैं और आपको भारी पड़ सकते हैं। क्योंकि कैथार्सिस है एक तो यह। यह कैथार्सिस साधारण घटना नहीं है। अगर इसे बहुत लंबे अर्से पर निकाला जाए। अगर इसमें हम तीन दिन की जगह तीन साल लगाएं, तो इतना थोड़ी-थोड़ी मात्रा आपसे निकलेगी कि उतनी मात्रा आप रोज पैदा कर लेंगे। इसको लंबाया नहीं जा सकता।
समझ लें कि इस घर को हम इतने झाड़ें, इतने आहिस्ते झाड़ें कि झाड़ने में चैबीस घंटे लग जाएं, तो जब दूसरे दिन हम झाड़ कर चुकें, तब तक पाएं कि कचरा घर में आ गया। इसलिए चैबीस घंटे में कचरा तो आने वाला है। तो इस घर को अगर झाड़ने में चैबीस घंटे लगें तो झाड़ना बिल्कुल बेकार है। झाड़ना ही नहीं चाहिए, बिल्कुल अर्थ ही नहीं है, क्योंकि जब तक आप झाड़ पाएंगे, तब तक कचरा वापस जगह आ गया होगा। और यह घर कभी भी स्वच्छ हालत में दिखाई नहीं पड़ सकता। तो कैथार्सिस का तो कोई भी प्रयोग इनटेंस होना चाहिए, पहली बात। यानी इसके पहले कि नया कचरा इकट्ठा हो, आपमें खालीपन चाहिए, नहीं तो दिखाई नहीं पड़ेगा। अगर हम बहुत धीमी मात्रा के डोज दें, होएयोपैथी के डोज हों, तो नहीं चलेगा। क्योंकि वह इतने आहिस्ता चलने वाला काम है और आपकी बीमारियां इतनी हैं कि जितना हम निकाल पाएंगे, उससे ज्यादा तो आप कल इकट्ठा करके हाजिर हो जाएंगे। उतने धीमे कैथार्सिस नहीं हो सकती।
दूसरी बात, बहुत तेज भी नहीं की जा सकती। क्योंकि आपकी बीमारियां ही आपका व्यक्तित्व हैं। अगर उनको एकदम से निकाल दिया जाए तो आप एकदम ही घबड़ा सकते हैं। तो ये तीन दिन से कम में भी हो सकता है। मेरे हिसाब में तो यह चैबीस घंटे में भी हो सकता है, आठ घंटे में भी हो सकता है। लेकिन आठ घंटे में इतनी तीव्र प्रतिक्रिया होगी और गैप इतना बड़ा होगा कि आप फिर अपने को पहचान नहीं सकेंगे कि आठ घंटे पहले जो आप थे, वही आप हैं। आपकी जो पर्सनल आइडेंटिटी है, उसके टूट जाने का डर है। तो सफाई इतनी देरी में भी नहीं होनी चाहिए कि कचरा इकट्ठा हो जाए, इतनी तेज भी नहीं होनी चाहिए कि मकान ही साफ हो जाए। इतनी तेज भी हो सकती है। गुल-रोगन लगाकर सफाई की तो फिर गया मामला। फिर आप जब साफ मकान देखने आएंगे तो पाएंगे, मकान साफ, वहां कुछ बचा ही नहीं है। कचरा ही नहीं है, मकान भी गया।
तो हर आदमी की अपनी आइडेंटिटी है। आपका अपना एक व्यक्तित्व है। बीमार, स्वस्थ, जैसा भी है, आपका अपना व्यक्तित्व है। उस व्यक्तित्व को इतना धीमे भी नहीं साफ करना है कि वह अपने को वापस स्थापित करता चला जाए। इतनी तेजी से भी नहीं साफ कर देना है कि आठ घंटे के बाद पूछें कि मैं कौन हूं। तो हालत खतरनाक हो जाएगी।
तो इधर मैंने जान कर तीन दिन तय किए हैं--बहुत सोच कर, बहुत प्रयोग करके तीन दिन तय किए हैं। जल्दी इनको सात दिन भी करना चाहता हूं। लेकिन तब भी डर लगता है, क्योंकि सात दिन में आप इतनी गहराई में चले जाएंगे कि आप लौटना न चाहेंगे। तीन दिन में मैं आपको इतनी गहराई तक भर ले जाता हूं, जहां से आप कुछ अनुभव भी करें और अपनी पूरी पुरानी व्यवस्था में वापस भी लौट सकें। इस प्रयोग को लंबा किया जा सकता है, इसी इंटेंसिटी पर सात दिन, पंद्रह दिन, इक्कीस दिन। इक्कीस दिन के बाद आप लौटने से इनकार कर देंगे। आपको तो कोई नुकसान नहीं होने वाला है। मेरा कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है। लेकिन धर्म ने जो नुकसान सदा से पहुंचाया है संसार को, वह शुरू हो जाएगा।
हमारे ख्याल में नहीं है कि धर्म एक बुनियादी नुकसान पहुंचाता रहा है कि जिन लोगों को भी उसने गहराई दी, वे संन्यासी हो जाएंगे, वे भाग जाएंगे। मैं इस पक्ष में नहीं हूं कि भगोड़ा कोई भी हो। मैं इस पक्ष में हूं कि आपकी जिंदगी में जो हुआ है, वह आप जहां हैं, वहीं घटित हो। और मैं मानता हूं कि उसके ज्यादा परिणाम होंगे, क्योंकि आप आस-पास जुड़े हुए हैं इस जगत से। वह जगत भी आपसे रूपांतरित होगा। और मैं मानता हूं कि जब तक बीमार थे, तब तक पत्नी का साथ दिया और जब स्वस्थ हुए तो भाग गए! तब तो बीमार आदमी ही बेहतर था। मैं तो मानता हूं, यह भी कर्तव्य का हिस्सा हुआ। बल्कि अब यह प्रेम का अनिवार्य हिस्सा होना चाहिए कि जिस दिन मैं शांत हो जाऊं, मेरी पत्नी को तो मुझे शांत करने की चिंता करनी चाहिए। क्योंकि बीमारियां मैंने उस पर निकालीं, क्रोध उस पर निकाला, घृणा उससे की, लड़ा उससे, प्रेम उसे कभी दिया नहीं। अब दे सकता हूं, अब मैं भाग रहा हूं!
तो मैं किसी को उसकी जीवन-व्यवस्था से तोड़ने के पक्ष में नहीं हूं। इसलिए समय को लंबा भी नहीं कर सकता। और इस समय के लंबे होने से धर्म के प्रति एक भय व्याप्त हो गया। लोग डरते हैं। पति उत्सुक होता, पत्नी डरती है; पत्नी उत्सुक होती है, पति डरता है; बेटा उत्सुक होता है, बाप डरता है। यह बड़े मजे की बात है कि अगर एक बाप के सामने विकल्प हो कि लड़का गुंडा हो जाए कि संन्यासी, तो बाप गुंडा होना पसंद करेगा। क्योंकि कम से कम घर में तो रहेगा। और गुंडे के लौट आने की संभावना है, संन्यासी के लौट आने की कोई संभावना नहीं है। यह बड़े मजे की बात है कि बुद्ध के बाप कोई प्रसन्न नहीं हैं। यानी बुद्ध अगर चोर भी हो गए होते, तो बाप इतने परेशान न होते, जितने बुद्ध के संन्यासी हो जाने से परेशान हुए। स्वाभाविक भी है।
तो मैं तोड़ने के पक्ष में नहीं हूं, इसलिए इस पीरियड को लंबा भी करने में मैं निरंतर विचार करता हूं, लेकिन लंबा करने की कुछ कठिनाई है। इसको इससे छोटा भी नहीं किया जा सकता। तीन दिन मैंने कुछ सोच कर तय किए हैं। मनुष्य के मन के कुछ गहरे में यह है। जैसे कि आप नये मकान में आएं तो आपको तीन दिन तो शायद उसमें नींद ही न आ सके--नये मकान में। और तीन सप्ताह तक तो वह मकान आपको नया लगेगा, तीन सप्ताह के बाद नहीं लगेगा। तीन सप्ताह मन को किसी भी नई चीज के लिए राजी होने में लग जाते हैं। और तीन दिन से राजी होने को शुरू होता है। और तीन सप्ताह में पूरा हो जाता है।
इसलिए आदमी मरता है तो हम तीसरा दिन मनाते हैं। अब एक नया एडजस्टमेंट है। एक आदमी कम हो गया है, तीन दिन में हम राजी हो पाएंगे। फिर हम तेरहवां दिन मनाते हैं, फिर हम कुछ और राजी हो गए होंगे। फिर हम राजी होते जाएंगे। वह हमने टाइम स्केल कुछ सोच कर ही, बहुत से अनुभवों से तय किए हैं। दिन दो दिन के फर्क हो सकते हैं, लेकिन तीन दिन का मेरा अपना ख्याल ऐसा है कि तीन दिन छोटे से छोटा यूनिट है काम करने के लिए। और यह प्रक्रिया इतनी तेज है कि अगर आप ऑनेस्टली तीन दिन इस पूरी प्रक्रिया को करें तो फर्क होने शुरू हो जाएंगे।
अगर आप खाली हो जाते हैं अपने पुराने बोझ से और पुरानी आदतों की धाराएं टूट जाती हैं, तो फिर आपको ध्यान में गति दी जा सकती है। और इसलिए प्रत्येक प्रयोग के बाद दस मिनट का जो गैप है, वह गति देने का गैप है। तीस मिनट आप कुछ खाली कर रहे हैं, कुछ तोड़ रहे हैं, कुछ ओवरफ्लो होने दे रहे हैं और दस मिनट सिर्फ प्रतीक्षा कर रहे हैं। उस दस मिनट में आप में ध्यान आना शुरू होगा। जिस दिन उस दस मिनट में ध्यान आना शुरू हो जाए, उस दिन वह जो दस मिनट में उतरेगा, वह धीरे-धीरे चैबीस घंटे आपके साथ रहने लगेगा; क्योंकि वह इतना आनंदपूर्ण है।
इसलिए इधर मेरा यह भी अनुभव है कि हमने अशांति का दुख तो जान लिया, शांति का सुख नहीं जाना, इसलिए हमारे पास बहुत विकल्प नहीं है, चुनाव नहीं है। हम निरंतर कहते हैं कि क्रोध बुरा है, लेकिन अक्रोध हमने जाना ही नहीं। तो हम चुनाव कैसे करें? हम निरंतर कहते हैं कि यह सब संसार बेकार है, लेकिन हमने कोई मुक्ति का तो किसी तरह का रस जाना नहीं। हम जिस चीज की निंदा कर रहे हैं उसी को भर जानते हैं और जिसकी हम आकांक्षा कर रहे हैं वह बिल्कुल अपरिचित स्वाद है। और जो अपरिचित स्वाद है वह चुना नहीं जा सकता, उसका स्वाद मिलना चाहिए। एक दफे भी मिल जाए...
अब एक आदमी ने अंधेरा ही अंधेरा जाना है। अब वह बहुत दफे कहता है, अंधेरा छोड़ना चाहता हूं, प्रकाश पाना चाहता हूं। लेकिन जब वह यह बोलता है कि मैं अंधेरा छोड़ना चाहता हूं और प्रकाश पाना चाहता हूं, तो अंधेरा छोड़ना चाहता हूं, यह कहते वक्त तो उसका अनुभव होता है और जब कहता है प्रकाश पाना चाहता हूं, तब सब धुंधला हो जाता है। तब इतना ही होता है, अंधेरा नहीं होता है, लेकिन प्रकाश की कोई रेखा नहीं बनती। और मैं मानता हूं कि अब यह नहीं छोड़ सकता है। क्योंकि हम छोड़ तभी सकते हैं, जब उससे विपरीत हमें मिलना शुरू हो जाए, अन्यथा छोड़ना मुश्किल है। क्योंकि हम यह भी खो दें, जो है, और वह भी न मिले, जो नहीं है, जो हमें पता ही नहीं है, तो आदमी इतनी हिएमत नहीं जुटा पाता। कभी कोई लाख, दो लाख में एक आदमी जुटाता है। उसको हम अपवाद माने हुए हैं, वह नियम के बाहर है। उसके लिए कोई व्यवस्था की जरूरत नहीं पड़ती। और वैसा आदमी कई दफे भूल भरी बातें दूसरों से कहता है। वह कहता है, तुएहें भी व्यवस्था की कोई जरूरत नहीं है। वह यह ठीक कहता है, बाकी वह बेमानी है बात।
यह साधारण जन जो है हमारा, जो औसत आदमी है, यह कुछ पा ले तो कुछ छोड़ने को राजी हो सकता है। तो इधर मैं इसको तीस मिनट में खाली करवाता हूं और दस मिनट में मौका देता हूं कि वह जगह खाली हो गई, उसमें कुछ भर आए। जैसे प्रकृति वैक्यूम को बरदाश्त नहीं करती, वैसा चित्त भी नहीं करता। अगर आप गलत से खाली हों तो ठीक भरना शुरू हो जाता है। एक दफे खाली होना जरूरी है।
तो इसलिए दो हिस्से हैं उसमें--एक तो कैथार्सिस का है, जो खाली होने का है; और दूसरा हिस्सा ध्यान का है, जो कुछ किसी चीज के उतरने का है, किसी चीज के भरने का है। उसमें आपको कुछ भी करना नहीं है। यह अनुभव अगर आपको धीरे-धीरे दस मिनट में उतरने लगे, तो यह अनुभव आपके साथ चैबीस घंटे रहने लगेगा और यह अनुभव आपको नई बीमारियां इकट्ठी करने से रोकेगा, नये दमन करने से रोकेगा, नई गलतियां करने से रोकेगा, फिर से पुराने रास्तों पर नया-नया जाने से रोकेगा। यह अनुभव है, यानी अब आपको निर्णय लेना पड़ेगा कि मैं क्रोध न करूंगा। अब आप जानते हैं, अक्रोध का आनंद। अब आप क्रोध नहीं करेंगे।
और यह जो कैथार्सिस का प्रयोग है, वह तीन महीने का है। अगर कोई ठीक से करेगा तो ज्यादा से ज्यादा तीन महीना चलेगा, फिर धीरे-धीरे शिथिल होता जाएगा। तीन सप्ताह में भी शिथिल होने लगेगा। फिर धीरे-धीरे वह खत्म हो जाएगा। आप नाचना चाहेंगे तो न नाच सकेंगे तीन महीने के बाद, चिल्लाना चाहेंगे तो न चिल्ला सकेंगे, रोना चाहेंगे तो न रो सकेंगे। क्योंकि वह होना चाहिए न भीतर! आप एकदम खाली और रिक्त हो गए होंगे। रोना निकलेगा ही नहीं, तो आप रोएंगे कैसे? हंसना निकलेगा नहीं, आप हंसेंगे कैसे? तो वह जो कैथार्सिस है, वह एक अर्थ में मापदंड का काम करेगी, वह रोज-रोज कम होती चली जाएगी। जितनी तीव्रता से करेंगे, उतनी शीघ्रता से कम होती चली जाएगी।
अगर उसको रोका तो उतना वक्त लेगी लंबा। और लंबा वक्त खतरनाक है, क्योंकि इस बीच आप और इकट्ठा कर लेंगे। इसलिए तीन दिन में इनटेंसिवली, मैं इसको और लगाने को कहता हूं कि तीन बैठक में आप इसको पूरे वक्त निकाल लें। यह निकल जाए तो यह अनिवार्य हिस्सा नहीं है, यह तो खत्म हो जाएगा अपने आप। यह तो सब बीमारी को फेंक देना है बाहर। फिर आप नई बीमारी इकट्ठी नहीं करेंगे। और इसके लिए कोई जरूरत न रह जाएगी। एक दूसरा हिस्सा इसके पीछे आना शुरू होगा। अभी कैथार्सिस ध्यान के पहले है। तीस मिनट की कैथार्सिस है, दस मिनट का ध्यान है। जैसे-जैसे कैथार्सिस खत्म होगी, वैसे-वैसे दस मिनट के बाद कुछ होना शुरू हो सकता है।
फिर नाचना आ सकता है, लेकिन वह नाचना बहुत और होगा। अभी यह नाचना कैथार्सिस है। अभी यह नाचने में कुछ निकल रहा है। उस नाचने में कुछ हां-ना हो रहा है। फिर गीत निकल सकता है, फिर खंजड़ी बज सकती है, फिर कोई नाच कर गा सकता है सड़क पर। लेकिन वह और बात है। फिर वह कैथार्सिस नहीं है। फिर जो आपको मिल गया है, उसके आनंद का अतिरेक है, वह हर्षोन्माद है, वह इक्सटैसी है, वह पीछे आएगा। यह पहला हिस्सा जब खत्म होगा, तब दूसरा हिस्सा शुरू होगा। वह इसके पीछे की बात है। इसलिए उसकी साधारणतः बात नहीं करता, क्योंकि अभी वह मिड-स्टेप हो सकता है। अभी हमारे ख्याल में पड़ना मुश्किल हो जाए कि क्या क्या है। इसलिए यह निकल जाए एकबारगी तो वह अपने से धीरे-धीरे उसकी धारा टूटेगी। अभी इसके करने से हलकापन लगेगा, फिर उसके करने से बहुत हलका हो जाएगा।
वह क्रिएटिव एक्ट है। रोग के बाहर हो गए हैं आप, अब एक स्वास्थ्य ऊपर आएगा। अब उस स्वास्थ्य की अपनी धाराएं होंगी बहने की। इतना ही काफी नहीं है कि आपमें से क्रोध न बहे, किसी दिन अक्रोध भी बहना चाहिए। इतना काफी नहीं है कि आपसे घृणा न निकले, किसी दिन प्रेम भी निकलना चाहिए। घृणा न निकले, यह जरूरी है, पर्याप्त नहीं। प्रेम निकले, तभी आप पर्याप्त पर पहुंच गए हैं। वह दूसरे हिस्से में घटना घटनी शुरू होगी।
और इसलिए मैं समूह पर जोर देता हूं। असल में अकेले में जाने का डर भी वही है, समूह का डर भी है। वही सहयोग भी है, वही हमारा डर भी है।
बहुत लोग आते हैं, वे मुझसे कहेंगे, अकेले में हम कर लें तो क्या हर्ज है?
कोई हर्ज नहीं है। तुम अकेले में करना चाह रहे हो। तो तुम जिस वजह से अकेले में करना चाह रहे हो, वही वजह तो रुकावट भी है। तुम डरते हो, कोई देख न ले। जीओगे अकेले में फिर? ध्यान तो अकेले में कर लोगे। जीना तो पड़ेगा समूह में।
वह जो संन्यासी बहकता था, उसका कारण था। ध्यान किया उसने अकेले में और जीना तो पड़ता है समूह में। जिसको अकेले में ध्यान करना थिर हो जाएगा वह समूह से भागने लगेगा। जिंदगी तो समूह में है, जीएंगे हम कैसे अकेले में? जीएंगे तो सबके साथ और ध्यान करेंगे अकेले में। नहीं, इनका तालमेल नहीं होता। जब जीवन ही सब के साथ है तो ध्यान भी सब के साथ हो, तो उसमें सहजता होगी। और जो मैं कुछ हूं, अच्छा हो कि लोग जान लें। अगर मेरी पत्नी मुझे देख लेती है ध्यान के पहले चिल्लाते और गालियां बकते और घूंसे तानते, तो कल अगर मैं गुस्से में भर कर घूंसा भी तानूं तो हो सकता है वह हंस पाए। क्योंकि अब जरूरी नहीं है मानना कि मैं उसके ऊपर घूंसा तान रहा हूं। अब यह अनिवार्य नहीं रहा, क्योंकि इसने हवा में घूंसे तानते हुए मुझे देखा है। अगर मैं अपनी पत्नी को रोते-चीखते ध्यान में देखता हूं, कल वह अचानक छोटी सी बात पर रोने-चीखने लगे, तो मुझे यह मानने की जरूरत नहीं है कि वह मुझ पर डायरेक्टेड है, मैं सिर्फ बहाना ही हूं। अब मैं जानता हूं, यह तो बिना इसके हो सकता है। इसलिए समूह में मेरा जोर है।
फिर दूसरी बात यह है कि दुनिया इतना विराट प्रश्न है आज कि इस एक आदमी को बदल कर हम ऐसा ही कर रहे हैं जैसे चएमच भर रंग से समुद्र का पानी रंग रहे हों। उससे कुछ होने वाला नहीं है। रंगने वाला थकेगा, चएमच टूट जाएंगे, पानी जैसा है, वैसा ही रहेगा। अब तो मास स्केल पर चूंकि बीमारी है, विराट उसका रूप है, विराट ही संघर्ष करना होगा। इससे काम नहीं चलेगा कि गांव में एक आदमी ध्यान कर ले मंदिर में बैठ कर। पूरे गांव को डुबाना पड़ेगा।
इधर मेरी योजना है कि एक-दो-तीन वर्ष में हजार, दो हजार युवक-युवतियों का संन्यास हो, जो पीरियाडिकल हो। उसमें मेरी दृष्टि है कि जिसको जब लौटना हो उस वक्त लौट जाए। यह संन्यास तो आजीवन नहीं है, आजीवन हो तो प्रोफेशन हो जाता है। यह मौज है। आपको छह महीने की छुट्टी मिली, आप छह महीने के लिए मौज से संन्यासी हो जाएं। फिर घर लौट जाएं, फिर घर में रहें। तो धीरे-धीरे हजारों लोग संन्यासी होकर घर में पहुंच जाएंगे। ये एक-एक घर को बदलने वाले सिद्ध होंगे। और ये कभी भी महीने, दो महीने के लिए वापस संन्यासी हो सकते हैं।
यानी संन्यास को मैं--कोई जिंदगी से अलग चीज नहीं है, बल्कि जिंदगी का फैला हुआ हाथ है--वह शक्ल देना चाहता हूं। तो ये हजार, दो हजार लोग सदा ही संन्यासी रहेंगे। इसमें लोग बदलते रहेंगे, मगर ये दो हजार बने रहेंगे। इन दो हजार को लेकर मेरा ठीक, जिसको कहना चाहिए कि एक मॉरल अटैक, एक गांव पर कर देने का है। दो हजार आदमी पूरे गांव पर सात दिन के लिए ठहर जाएं। पूरे गांव को हम सात दिन ध्यान में डुबाने की कोशिश करें। इससे कम पैमाने पर काम नहीं होगा। और यह टेक्नीक ऐसा है कि इसमें सत्तर प्रतिशत व्यक्तियों के प्रवेश की संभावना है। हंड्रेड प्रतिशत हो सकती है, पर वे तीस प्रतिशत कमजोर पड़ जाते हैं, नहीं जा पाते हैं, नहीं कोआपरेट कर पाते हैं, हजार तरह की बातें सोच कर उठ जाते हैं। लेकिन सत्तर प्रतिशत तो अनिवार्य रूप से इसमें प्रवेश हो जाते हैं। अगर हम एक गांव को, दस हजार का गांव हो और उसमें सौ लोगों को भी हम ध्यान में प्रवेश करवा सकें, तो हम उस गांव की जिंदगी बदलने में समर्थ हो जाएंगे। क्योंकि अभी भी किसी गांव में हजार गुंडे नहीं हैं। यानी अभी भी बुराई जो है, कोई इतनी बड़ी नहीं हो गई है। लेकिन कठिनाई सिर्फ यह है कि बुराई के समूह हैं और भलाई के समूह नहीं हैं।
तो इस कारण से जितना बड़ा हो सके और जितना व्यापक हम कर सकें, और जितने कम समय में हो सके--क्योंकि एक गांव को अगर हम चार महीने करवाने में लग जाएं तो हम पूरे गांव को नहीं डुबा सकते। तो इसलिए टेक्नीक को रोज गतिमान करते जाना है। अब आपने ख्याल किया होगा, सुबह का जो टेक्नीक है, उससे रात का टेक्नीक और तीव्र है। हम पूरे गांव को रात इकट्ठा कर सकते हैं, जब कोई काम पर नहीं है, सब फुर्सत में होते हैं। पूरे गांव को इकट्ठा कर सकते हैं। पूरे गांव को डुबा सकते हैं। सुबह को उनको कुछ करना भी है, श्वास भी लेनी है कुछ और भी करना है, रात को वह भी करना नहीं है।
कोई एक सौ आठ विधियां हैं ध्यान की। और उनमें से प्रत्येक विधि को स्टडी किया जा सकता है। उसमें थोड़ा सा जोड़ करना पड़े।
अब जैसे इसमें मैं पहले दस मिनट श्वास के लिए जोड़ता हूं। श्वास का ख्याल सदा से है। लेकिन सदा से ख्याल था रिदमिक ब्रीदिंग का। रिदमिक ब्रीदिंग से अगर यह प्रयोग किया जाए तो वर्षों लगेंगे। मेरा जो प्रयोग है, वह नॉन-रिदमिक ब्रीदिंग का है। उसमें रिदम को नहीं लाना है। क्योंकि रिदम के साथ आप एडजस्ट हो जाएंगे। नॉन-रिदम में प्रश्न है ताकि आप न एडजस्ट हो पाएं। खलबली तत्काल मिट जाए, उसको प्रतीक्षा न करनी पड़े।
तो इसलिए वह दस मिनट के लिए मैं, बस सिर्फ लोहार की धौंकनी की तरह छोड़ कर, जिसमें कोई व्यवस्था नहीं है, ताकि दस मिनट में आप केआटिक हो जाएं। और आप केआटिक हो जाएं, अराजक हो जाएं, तो फिर हम दूसरे चरण में कैथार्सिस कर सकते हैं, नहीं तो नहीं कर सकते हैं।
मजा यह है कि भस्त्रिका कभी रही, लेकिन उसके दूसरे प्रयोग हैं, उसका कभी भी ध्यान के लिए प्रयोग नहीं है। उसके प्रयोग दूसरे हैं। प्राणायाम के जो प्रयोग थे, वे सब लयबद्धता के प्रयोग थे, इसलिए उनकी चोट तीव्र नहीं हो सकती थी। अगर तीव्र चोट करनी है तो बिल्कुल अराजक होना चाहिए। उसकी अराजकता ही उसकी स्पीड है।
अब दूसरा जो चरण है, यह दूसरा चरण रोकने के उपाय किए हैं योग ने। इसलिए आसन की व्यवस्था की है। आसन की जो व्यवस्था है वह कैथार्सिस को मद्धिम गति से करने की व्यवस्था है। तो शरीर पर प्रकट न हो, भीतर से निकले। तो शरीर को पहले आसनों का वर्षों तक अभ्यास कराया जाएगा। जैसे सिद्धासन है या पद्मासन है, ये इस बात के अभ्यास हैं कि भीतर चित्त में कुछ भी हो, शरीर थिर रहे। भीतर बहुत कुछ होगा, कैथार्सिस भीतर से भी हो जाएगी। यानी मैं आपको घूंसा मारूं, घूंसा उठा कर, यह जरूरी नहीं है। हाथ बिना उठाए भी घूंसा मारा जा सकता है।
तो योग ने यह व्यवस्था की थी कि पूरा पहले आसन सिखाएंगे वर्षों तक, ताकि आपके शरीर पर प्रकट न हों, नहीं तो लोग पागल कहेंगे। लेकिन तब पहले वर्षों आसन सिखाया। न तो कोई वर्षों आसन सीखने को आज तैयार है। न ही मैं मानता हूं कि इतना समय खराब करने की जरूरत है। फिर यह भय क्या कि बाहर निकल जाएगा! इस भय को तोड़ दें। हम कहेंगे कि निकलना उचित है यह। और भय टूट गया, और तो कुछ मामला नहीं है यह। हम डरते हैं कि ऐसा न हो जाए कि मैं भला आदमी और अचानक चिल्लाने लगूं, रोने लगूं। हमारी मान्यता है। अब यह प्रयोग जहां-जहां हुआ है, एक-दो दफे, तीन दफे प्रयोग होता है, गांव भर को पता चल जाता है। कोई ऐसी बात नहीं है। उसके लिए वर्षों खराब करवाने के मैं पक्ष में नहीं हूं। तो मैं तो उलटे प्रयोग के पक्ष में हूं कि जो शरीर करना चाहे उसको और सहयोग देकर पूर्णता से करो, ताकि छह महीने में निकलता हो, वह तीन दिन में निकल जाए।
और एक मजे की बात है कि योग में कभी-कभी ऐसी घटनाएं घटती हैं। वे किन्हीं गुफाओं में, किन्हीं पहाड़ियों पर इनको ले जाएंगे और वहां इनके लिए उपाय बनाएंगे, नहीं तो होने वाला नहीं है। अब क्यों ऐसा होने दें? जिंदगी में ही इसको स्वीकार कर लो।
दूसरी मजे की बात है कि यह प्रक्रिया अपने आप घटती है। अगर न बताया जाए तो घबड़ाने वाली है। और जब घटती है तो आदमी रोकने की कोशिश करता है। रोक लें तो रुक जाएगी। लेकिन वह जो रुक जाना है, वह उसकी कैथार्सिस न होने देगा। तो इधर मैं इसको पूरी की पूरी गति देना चाहता हूं और इसके लिए पूरी स्वीकृति देना चाहता हूं। और ऐसे ग्रुप गांव-गांव में पैदा करना चाहता हूं, जिनके भीतर यह एक स्वीकृति है। यह स्वीकृत है। यह स्वीकृत होने से निकलने में इसको बड़ी आसानी होगी। इसका प्रवाह चाहे जो करे।
तो इसलिए वे जो लोग कहते हैं कि अकेले में क्यों न ध्यान कर लें--अक्सर तो वे लोग हैं, उनसे पूछिए कि आपने किया? अकेले में कौन रोकता था आपको करने को? अकेले तो आप हैं ही, आपको कौन रोका है कब करने से? आपने किया?
आदमी का मन बहुत ही चालाक है। जब उसे एक विधि करने को कहो तो वह कहेगा, अगर वैसा कर लें तो कोई हर्ज है? और वैसा उसने कभी किया नहीं! और वह सिर्फ बहाना मिल गया था कि वह न करे। और कौन उससे कहने कब गया था? वह कहेगा, वैसा कर लें? आप अगर वैसा करने को कहेंगे तो वह कहेगा कि वैसा करना है! और कोई रास्ता नहीं है।
असल में न करने से बचने की बड़ी इच्छाएं हैं। मेरे पास लोग आते हैं। जब मैं उनसे कहता था कि तुएहें यह करना पड़ेगा, तब वे कहते थे, आप कुछ कर दें, हमसे क्या हो सकता है! हमसे हो सकता होता तो हम कर लेते। आप कुछ कर दें। मैं कहता था, नहीं, तुएहें ही करना पड़ेगा। और वे कहते हैं, बड़ी कृपा होगी। परमात्मा ही करे तो हो जाए, हमसे नहीं हो सकता। अब जब मैं उनसे करवा रहा हूं तो वे मेरे पास आते हैं कि अगर हम अकेले में करें, हम ही कर लें--तो आपकी क्या जरूरत है! तब मुझे बड़ी हैरानी होती है। बड़ी हैरानी होती है कि यह वही आदमी है! नहीं करना है तो जानो कि नहीं करना है, क्योंकि कौन तुमसे कहने जा रहा है? लेकिन नहीं, यह भी नहीं जानना है। हम तरकीबें निकाल कर देंगे। और जोखिम तो इतनी बड़ी है भीतर प्रवेश की कि हमें छोटी-मोटी जोखिम करवा कर परीक्षा लेनी ही चाहिए, ले लेनी ही चाहिए, नहीं तो बड़ी जोखिम कैसे उठाएगा। यहां तो पर्तें टूटेंगी बहुत तरह की, बहुत घटनाएं घटेंगी। अगर वह रोने-चिल्लाने से डर गया है तो मैं मानता हूं कि उसका भीतर न जाना ही अच्छा है, क्योंकि भीतर तो और बहुत कुछ घटेगा। बहुत मवाद है, वह टूटेगी, फूटेगी, बहेगी। भीतर तो बहुत सा कोढ़ है, वह सब दिखाई पड़ेगा। वह उसे तो कैसे जान पाएगा! इसलिए अगर वह इससे डर गया है तो ठीक ही है।
तो मैं मानता हूं कि जिसने इतनी हिएमत की, वह थोड़ा हिएमतवर है। और थोड़ी हिएमत करेगा, कदम-कदम भीतर ले जाया जा सकता है। और मैं क्या करता हूं? कोई भी क्या करेगा? कर तो आप ही रहे हैं। ज्यादा से ज्यादा यह सिचुएशन पैदा की जा सके। और आप बिना सिचुएशन के नहीं कर सकेंगे, यह साफ है। अन्यथा कौन रोकता है? आप मजे से करें। जिसको भी करना है, वह मजे से करे। उसे कौन रोकने कब गया है? लेकिन मैं इधर इसलिए सिचुएशन पैदा करना चाहता हूं... लेकिन हमारा मन है। हमारा मन ऐसा है कि कहीं कुछ होने लगे, तो भी डर लगता है कि कहीं हो ही न जाए।
एक महिला इधर आई थी अभी एक कैंप में। तो पहले दिन उसने प्रयोग किया और बहुत अच्छा परिणाम हुआ। पहले भी तीन कैंपों में वह आई है। तो मुझे आकर पैर पकड़ कर रोकर उसने कहा कि आपने पहले ही क्यों न करवाया? हमारा इतना समय बेकार गया। बड़े आनंद, बड़े भाव से उसने कहा, पहले आपने क्यों नहीं प्रयोग करवाया? और तीसरे दिन वह भाग गई बीच में से और दोपहर मुझसे कह गई कि मैं घबड़ा गई। वह तो आपका पहले ही वाला प्रयोग अच्छा था, इसमें तो तमाम रोना, चिल्लाना और चीखना--मैं तो पागल हो गई हूं।
यही महिला अभी एक दो दिन पहले मुझसे कहती है कि आपने यह पहले क्यों न करवाया। और तीसरे दिन कहती है कि नहीं, वह ठीक था, शांत होकर बैठने वाला प्रयोग बहुत अच्छा था। और भाग गई बीच से। अब यह क्या करे? आदमी का मन बहुत अजीब है। वह बचाव खोज रहा है। नहीं होगा तो वह आकर कहेगा कि हो नहीं रहा है। होगा तो वह आकर कहेगा कि कहीं हो तो नहीं जाएगा! दोनों बातें कहेगा! और बहुत कभी-कभी हंसने जैसा मालूम होता है। हैरान करने वाले लोग हैं।

प्रश्नः मेरे सामने एक दूसरा सवाल आया। कई विचारक लोग भी थे, कई लोग भी थे--आपकी जो प्रवृत्ति है, उनके प्रति थोड़ा सदभाव भी था--इनके पास धारणाएं हैं कि इंसान दो ढंग से काम करता है, सब्जेक्टिव और आब्जेक्टिव। तो आपकी जो प्रवृत्तियां हैं और चाहते हैं और आपके पास इतना समय भी नहीं है और हमारे पास भी इतना समय नहीं है। हम बड़ी आसानी से और बड़े पैमाने पर काम करना चाहते हैं। अगर वैसा ही कुछ करना है तो आपकी जो शक्तियां हैं और भावनाएं हैं वे कंस्ट्रक्टिव ढंग से चैनेलाइज हो जाएं, तब बड़ी आसानी से काम चल सकता है। लेकिन कभी आपकी बातों में इतना औरों के प्रति कुछ खंडनात्मक रुख होता है--गांधी या महावीर कोई भी आपसे छूटता नहीं है--कितने लोगों को लगता है और मुझे भी लगता है। तो इससे यह होता है कि जो लोग सदभाव की दृष्टि से देखते हैं, उनके दिमाग में भी तो एक हलचल मचती है। तो क्या यह अच्छा नहीं होगा कि आप कंस्ट्रक्टिव दृष्टि से आपको जो कुछ कहना हो वह कहें--औरों ने क्या किया और क्या कहा, वह बात छोड़ कर कहें तो क्या आसान नहीं होगा?

नहीं, इसलिए कि मर ही जाएगा; आसान तो नहीं होगा, काम भी मर जाएगा। क्योंकि यह दलील नई नहीं है। महावीर के पास भी लोगों ने आकर यही कहा कि आप कृपा करके अगर उपनिषदों और वेदों के खिलाफ न बोलें तो लोगों का सदभाव रहेगा। बुद्ध के पास भी लोगों ने आकर यही कहा कि आप अगर महावीर के खिलाफ न बोलें तो लोगों का सदभाव रहेगा। और शंकर को भी लोगों ने यही आकर कहा कि अगर आप बुद्ध के खिलाफ न बोलें तो आसानी पड़ेगी, जिनका बुद्ध के प्रति सदभाव है, वे कभी आपको साथ न देंगे। जीसस को भी यही कहने वाले लोग थे। तो थोड़ा सोचने जैसा मामला है कि ये सारे के सारे लोगों को यह समझ में बात नहीं आई! समझाने वाले लोग थे, आज हम उनका नाम भी नहीं बता सकते। कारण क्या है? न किसी को ख्याल में आता, न शंकर को ख्याल में आता, न जीसस को और न महावीर को। मुझे भी ख्याल में नहीं आता। उसका कारण क्या है?
पहली तो बात यह है कि हम जिसको व्यक्ति के भीतर आमूल परिवर्तन की व्यवस्था देखते हैं, वे मूलतः डिस्ट्रक्टिव होते हैं। वे मूलतः डिस्ट्रक्टिव होते हैं, जो सृजनात्मकता आती है, वह पीछे आया हुआ फल है। उसके प्रारंभिक चरण तो सब विनाश के हैं। आप जो हैं, अगर मैं कंस्ट्रक्टिव कुछ बात करूं तो इसमें भी एक जोड़ होगा, आप जो हैं और इसलिए आपको आसान पड़ेगा। सदभाव बनाना भी आसान होगा, क्योंकि आपको मैं अंगीकार करता हूं, जैसे आप हैं। ज्यादा से ज्यादा मैं यह कहता हूं कि कमीज के ऊपर आप बंडी और पहनें, इससे आप और सुंदर हो जाएंगे। इसके लिए आप राजी हो जाते हैं, क्योंकि आपको बदलने को तो मैं कुछ कहता नहीं, कुछ छोड़ने को कहता नहीं, कुछ तोड़ने को कहता नहीं, आपको मैं पूरा स्वीकार करता हूं और कुछ एडीशन करता हूं आपमें। इसको आप कंस्ट्रक्शन कहते हैं!
साधारणतः इसको हम कंस्ट्रक्शन कहते हैं कि आप जैसे हैं, उसको हम स्वीकार कर लें। निश्चित ही मुझे काम में सुविधा होगी, मैं आपको बंडी पहना दूं अगर। लेकिन आपको बंडी पहनाने से मुझे प्रयोजन ही नहीं है। मैं आपको बदलना चाहता हूं। आपको सुधारना, संवारना नहीं चाहता। आप सुधरे-संवरे होकर भी यही रहेंगे, जो आप हैं। हो सकता है और खतरनाक हो जाएं, क्योंकि अभी शायद कभी-कभी आपको अपना शरीर भी दिखाई पड़ जाता हो, बंडी पहनकर वह भी दिखाई न पड़े, कोट पहन कर और भी दिखाई पड़ना बंद हो जाएगा।
तो मौलिक रूप से तो मैं आपको मिटाना चाहता हूं और उस मिटाने में बड़ी लंबी यात्रा है। और अभी तो आपके विचार पर चोट करूंगा, कल आपके भाव पर चोट करूंगा, परसों आपके पूरे अस्तित्व पर चोट करूंगा। तो अगर विचार से ही भाग खड़े हुए तो मैं समझता हूं, अपना कोई संबंध नहीं है, क्योंकि और गहरी चोट कैसे आप सहेंगे?
गांधी आपके लिए विचार से ज्यादा नहीं हैं, वे आपकी विचारधारा हैं। मोहएमद आपकी विचारधारा हैं या महावीर आपकी विचारधारा हैं। अगर विचार का इतना मोह है--सिर्फ विचार का, तो आप अपने अस्तित्व को बदलने वाले आदमी नहीं हैं।
तो मेरे लिए तो उपयोगी है वह कि मैं देख लेता हूं कि आदमी बदलने वाला आदमी है कि सिर्फ जोड़ने वाला आदमी है। तो मैं तो आपके विचार पर चोट करके, आपकी बिल्कुल परिधि पर चोट कर रहा हूं। अगर वहीं से आप भाग खड़े होते हैं और मेरा आपसे संबंध टूट जाता है, तो मैं समझता हूं कि अच्छा हुआ इस झंझट में नहीं पड़ा, क्योंकि यह काम होने वाला नहीं था आपसे। चोट तो मुझे और गहरी करनी पड़ेगी। आपके भाव पर भी चोट करूंगा, कल आपके अस्तित्व पर भी चोट करूंगा। जिनको भी इतनी गहरी चोट करनी है, जो भी ट्रांसफार्मेशन के लिए उत्सुक हैं, वे कंस्ट्रक्टिव नहीं हो सकते हैं। और जो कंस्ट्रक्टिव हैं, उनसे कभी ट्रांसफार्मेशन किसी का हुआ नहीं है। वह चाहे गांधी हों, चाहे विनोबा--इन दोनों को मैं कंस्ट्रक्टिव आदमी नहीं कहता हूं। इनसे किसी का कोई ट्रांसफार्मेशन नहीं हुआ।
तो अगर मुझे भी नेतृत्व भर करना हो, तो वह जो मित्र सलाह देते हैं, उचित सलाह देते हैं। अगर मुझको भी एक महात्मा बनकर बैठ जाना हो, तो वह बहुत सरल मामला है। उससे ज्यादा सरल कोई काम नहीं है। तब मैं आप जैसे हैं, उसको स्वीकार करता हूं, और सजा देता हूं थोड़ा। आपके अहंकार को और फुसलाता हूं, और सजा देता हूं, तो आपको परसुएड कर देता हूं। लेकिन तब बस मैं नेता होता, और कुछ नहीं होता, मैं महात्मा होता। इससे ज्यादा आप पर मैं कुछ नहीं कर पाता। क्योंकि आपको तो मैं पहले ही स्वीकार करके चल पड़ा कि आपके साथ तो करने का कुछ उपाय नहीं है।
तो मेरे जैसे व्यक्तियों को तो अनिवार्य रूप से इस उपद्रव से गुजरना पड़ता है। वह उपद्रव नया नहीं है, वह पुराना है। और मजा यह है कि महावीर ने जिन लोगों के खिलाफ कहा, महावीर जैसे आदमी को फिर महावीर के खिलाफ बोलना पड़ा, क्योंकि तब तक महावीर का भी अनुगामी वहीं खड़ा हो गया होता है, जहां उपनिषद का अनुगामी महावीर के वक्त खड़ा था। यह झगड़ा महावीर से नहीं है। महावीर का जो झगड़ा था, वही यह झगड़ा है। दिखता है कि महावीर से है, क्योंकि महावीर को उपनिषद के अनुयायी के साथ लड़ना पड़ा था, क्योंकि उपनिषद स्टेटस-को हो गया था। अब मुझे महावीर से लड़ना पड़े, क्योंकि महावीर स्टेटस-को हैं। इसमें महावीर की भी सहानुभूति मेरे ही साथ होगी तब, होगी ही, क्योंकि मैं काम वही कर रहा हूं। और ऐसा नहीं कि यह काम कोई खत्म हो जाने वाला है। कल मेरे जैसे को मुझसे लड़ना पड़ेगा, इसमें कोई उपाय नहीं है--यानी कल मेरे जैसे व्यक्ति को मुझसे इसी भांति लड़ना पड़ेगा। पर मेरी उसके साथ सहानुभूति होगी। किसी न किसी को लड़ना ही पड़ेगा, लड़ना ही चाहिए। क्योंकि तब तक मैं सेटल्ड हो जाऊंगा, कुछ लोगों के मन में बैठ जाऊंगा। जिनके मन में मैं बैठ जाऊंगा, उनको अनसेटल्ड करना पड़ेगा।
तो मेरी दृष्टि में, वह जो मित्र कहते हैं, बड़ी गणित की, चालाकी की, होशियारी की बात कहते हैं। ठीक कहते हैं। नेतृत्व के लिए वही जरूरी है। लेकिन मुझे उसमें उत्सुकता ही नहीं है। मुझे उत्सुकता आपमें है। और आपके लिए कुछ हो सके तो उसमें उत्सुकता है। और उसके लिए वह जो सर्जरी है, वह बहुत जरूरी चीज है। और विचार उसमें सबसे कमजोर हिस्सा है, जिस पर पहले चोट की जानी चाहिए। अगर उस पर ही चोट करने से आप तिलमिला जाते हैं तो फिर भीतर तो और चोटें करनी बहुत मुश्किल हैं, क्योंकि और गहरा अहंकार भीतर है, वह और गहरा होता चला जाता है। इधर मेरे लिए तो परीक्षा का उपाय बन गया है। यानी मैं तो मानता हूं कि मेरे खंडन वगैरह को सुन कर भी कोई मेरे पास आ रहा है, तो मैं सोचता हूं कि उस आदमी के साथ कुछ मेहनत की जा सकती है। मैं उसको कहता नहीं कि वह मुझे माने, मेरे खंडन को माने, इसको भी नहीं कहता। लेकिन फिर भी मेरे पास आ रहा है, और मेरे डिस्ट्रक्टिव ढंग से भाग ही नहीं गया है, तो मैं समझता हूं कि यह आदमी डिस्ट्रक्शन के लिए तैयार हो सकता है। इसके भीतर कुछ तोड़ा जा सकता है। यह आदमी थोड़ी देर टिक सकता है। अन्यथा हम सबकी मान्यताएं ऐसी हैं।
एक बड़ी कठिनाई है, बड़े मजे से मान्यताएं बनाए हुए हैं। और एक आदमी पर मान्यता नहीं है कोई। कोई गांधी का भक्त है, कोई माक्र्स का भक्त है। बंगाल में कोई माक्र्स का भक्त है, कोई गांधी का दुश्मन है। कोई महावीर का भक्त है, कोई मोहएमद का। लेकिन इन सबका माइंड एक है। मेरी लड़ाई उस माइंड से है। वह इनको थोड़े दिन में समझ में आने लगेगा। क्योंकि जब मैं गांधी से लड़ता हूं तो माक्र्सिस्ट मेरे पास आ जाता है, वह कहता है, आप बिल्कुल सच बात कहते हैं। साल भर बाद वह एकदम भाग खड़ा होता है, जब मैं माक्र्स के खिलाफ बोलता हूं तब वह भाग जाता है। क्योंकि तब वह आदमी कुछ गड़बड़ हो गया है, पहले ठीक था।
तो पांच-दस वर्ष लगेंगे कि लोग समझेंगे कि मुझे न माक्र्स से लेना है, न गांधी से। इररिलेवेंट हैं ये। आपके माइंड से मुझे लड़ना है। तो गांधी के भक्त से लड़ना है तो मैं गांधी के खिलाफ बोलूंगा, माक्र्स के भक्त से लड़ना है तो माक्र्स के खिलाफ बोलूंगा। और कई बार इन दोनों में बड़ा कंट्राडिक्शन दिखाई पड़ेगा। दिखाई पड़ेगा ही। क्योंकि माक्र्स के खिलाफ लड़ना है तो और ढंग से लड़ना पड़ेगा। इन दोनों बातों में कहीं भी इनकंसिस्टेंसी दिखाई पड़ेगी। क्योंकि अगर मुझे गांधी के खिलाफ लड़ना हो तो मैं कंसिस्टेंट हो सकता हूं। मुझे तो एक तरह के माइंड से लड़ना है। वह माइंड जो माक्र्स को पकड़ लेता है, गांधी को पकड़ लेता है, बुद्ध को पकड़ लेता है, उस माइंड से लड़ना है। उस माइंड से लड़ने के लिए मुझे नाहक इन बेचारों से भी लड़ना पड़ रहा है। इनसे मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। लेकिन यह लड़ाई करनी पड़ेगी।
और अगर सिर्फ महात्मा बनकर रह जाना हो, तो बहुत सरल है। उससे ज्यादा सरल काम तो है ही नहीं। और हमारी समझ में उससे ज्यादा सरल काम तो है ही नहीं। इसलिए इधर जो यह सलाह मित्र देते हैं, इन्हीं मित्रों की सलाह, इसी तरह के सोचने वाले लोग हजारों हैं, उनसे कुछ हो ही नहीं पाता।

प्रश्नः विचारों के साथ अगर झगड़ना ही है तो व्यक्ति निरपेक्ष विचारों के साथ झगड़ा करे, तो अच्छा नहीं होगा? क्योंकि कभी-कभी होता है कि इंसान को कभी हमारे अनजानपन से अन्याय हो भी सकता है।

सवाल यह है--एक तो यह कि यह जो सोचने का ढंग है कि व्यक्ति को अलग करें, विचार को अलग करें, यह सही नहीं है। गांधी के सब विचार अलग कर लें तो गांधी में बचता क्या है? कुछ भी नहीं बचता है। एक मोहनदास नाम का आदमी कीमत रखता है? उसे कुछ लेना-देना है? यह आदमी जो कुछ भी है, यह इकट्ठा जोड़ है। और गांधी के व्यक्तित्व को वह अलग कर ले तो विचारों में क्या बचता है? वैसे तो किताबों में बहुत विचार रखे हुए हैं, एक मुर्दा किताब रह जाती है। व्यक्ति और विचार, ऐसी कोई दो चीजें नहीं हैं। व्यक्ति ही विचार है, विचार ही व्यक्ति है। बस, अस्तित्व में तो इकट्ठे हैं, इसलिए हम एक से नहीं लड़ सकते। हालांकि वह भी चालाकी की जाती है कि नहीं, गांधी के व्यक्तित्व से तो हमें कोई मतलब नहीं है, मेरा तो इस विचार से विरोध है--पूरे विचार से नहीं, इस विचार से विरोध है। ये सब आत्मरक्षा के उपाय हैं।
दूसरी बात, कि सब अपनी परिस्थिति की उपज हैं। लेकिन वही परिस्थिति रावण भी पैदा करती है, वही परिस्थिति राम भी पैदा करती है। आज परिस्थिति तो दुनिया में एक है, लेकिन तीन अरब आदमी हैं। माना कि हम परिस्थिति की उपज होते हैं, लेकिन एकदम परिस्थिति की ही उपज नहीं होते, हम भी होते हैं; जो परिस्थिति को उपजाता रहता है वह भी होता है हमारे बीच। परिस्थिति भी हमारा चुनाव होगी, परिस्थिति को भी हम बदलते हैं, परिस्थिति को बदलने में हम अपने को भी बदलते हैं और निर्धारित होते हैं। इसलिए कोई व्यक्ति निपट परिस्थिति की उपज नहीं है।
तीसरी बात, जब महावीर के विरोध में कुछ कह रहा हूं या बुद्ध के या किसी के, तो असली सवाल महावीर या बुद्ध से नहीं है। अगर दुनिया में अनुयायी न रह जाएं तो वह बुद्ध, महावीर की बात ही बंद कर दें। जिस दिन दुनिया अच्छी होगी और अनुयायी नहीं होंगे, जिस दिन दुनिया समझदार होगी और अनुयायी नहीं होंगे; महावीर को लोग पढ़ेंगे, समझेंगे; बुद्ध को पढ़ेंगे, समझेंगे; लेकिन कोई किसी का अंधा अनुयायी न होगा, उस दिन मेरे जैसे आदमियों को बड़ी सुविधा हो जाएगी। हमें महावीर और बुद्ध की बात नहीं कहनी पड़ेगी, उनको बीच में लाने का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। उनसे आज भी कोई प्रयोजन नहीं है। आज भी प्रयोजन आपसे है--गांधीवादी से है, बुद्धवादी से है। यह जो वादी का चित्त है, यह वादी का चित्त कहता है कि आपको जो कहना हो वह आप कहो, हमारे वाद को मत छेड़ो, हमारे गुरु को मत छेड़ो। हमने उसको गुरु समझ रखा है।
गुरु तो मर चुका, उसको हमारे छेड़ने की कोई जरूरत नहीं। हम तो गुरु मारने जा नहीं रहे, वह हमारे बिना ही मर गया। हम इसे छेड़ने जा रहे हैं। लेकिन अगर इसका गुरु न छेड़ा जाए तो इसका आदमी नहीं छिड़ता। यह अपने दरवाजे पर गुरु को खड़ा किए हुए है। यह अपने दरवाजे पर झंडा लगाए हुए है गुरु का। यह कहता है, इस झंडे को नमस्कार! और यह इसका सुरक्षा कवच है। यह झंडा उतारना पड़ेगा, यह लड़ाई लड़नी पड़ेगी।
मेरी अपनी जो दृष्टि है, वह यह है कि व्यक्ति का आमूल जो रूपांतरण है, उस आमूल रूपांतरण में उसकी विचार की प्रक्रिया से, उसके वाद के ढंग से, उसकी आइडियोलॉजी से, उसकी पकड़ से, वह जो क्लिंगिंग है उसकी, उसको तोड़ना पड़े। अगर हम किसी तरह अपरूट नहीं कर पाते हैं उसकी जड़ों से, तो हम उसे नई जड़ों पर नहीं ले जा सकते। उसका कोई उपाय नहीं है। और इसलिए मेरी बात समझने में हमेशा देर लगने वाली है। देर लगेगी स्वभावतः।

प्रश्नः एक छोटा सा प्रश्न हैः कहां पर उसका जजमेंट कैसे निकालना कि अगर आप कुछ कहते हैं तो मैं कुछ कहूं कि किसी ने भी कहा, तो एक ओर कह सकते हैं कि गांधीवादी, या तो विनोबावादी या समाजवादी, यह आत्मरक्षा का प्रबंध है। तो कोई आपके लिए भी ऐसा कह सकता है कि वह ओशो जी की आत्मश्लाघा है, प्रशंसा है!

मैं कहता नहीं कि हम जजमेंट लगाएं या हम अलग करें या उस चिंता में पड़ें। इसीलिए मैं कहता हूं कि अगर मैं किसी दिन किसी के पास पूछने जाऊं कि मुझे शांति चाहिए, मुझे आनंद चाहिए, मुझे सत्य चाहिए, तब यह सवाल उठता है। वह जो महावीरवादी है, अगर उसकी आत्मरक्षा का उपाय नहीं है और महावीर से उसने कुछ पा लिया है, तब उसकी खोज बंद हो जानी चाहिए। लेकिन मैं मानता हूं, वह है महावीरवादी, आया है मेरे पास। मैं उसके पास नहीं गया। यानी अगर मैं आत्मश्लाघा में जी रहा हूं तो यह मेरा सवाल है, इसमें किसी को क्या लेना-देना है। वह महावीरवादी आया मेरे पास...
अभी एक जैन मुनि मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं कि मैं आचार्य तुलसी का दीक्षित साधु हूं, ध्यान सिखाइए। मैं उनको कहता हूं, आचार्य तुलसी से क्या सीखा? दीक्षा किसलिए दी? और दीक्षा दे दी और ध्यान भी नहीं आया तो दीक्षित हुए कैसे?
अब यह बड़े मजे की बात है। सीधी तो बात यह है कि अगर महावीर से कुछ मिल गया है तो मेरे पास आने का कोई अर्थ नहीं है, बात खत्म हो गई। अगर गांधी से मिल गया है तो मजा करो, इसमें कुछ लेना-देना नहीं है। लेकिन मिला नहीं है, खोज जारी है। लेकिन फिर कहते हो, गांधी को पकड़े रहूंगा। नहीं, मैं गांधी को छुड़वाऊंगा। क्योंकि जिससे नहीं मिला है, कृपा करके उसको छोड़ो। मिल गया तो मैं नहीं कहता।
इसलिए मेरा जो निरंतर ख्याल है, वह इतना ही है कि नहीं मिलता जहां से, वहां भी हम पकड़े रहना चाहते हैं। फिर मुझसे भी यही चाहते हैं कि मैं भी उसमें थोड़ा एडीशन बन जाऊं। यानी मजेदार है मामला न! ये मुझसे भी कुछ सीख कर जाएं, समझ कर जाएं। वह भी गांधीवाद में एडीशन होने वाला है।
इसलिए अगर यह मेरी आत्मश्लाघा है--हो सकती है--तो यह मेरा नरक बनेगी। और हमें सोच लेना चाहिए कि हम क्या बना रहे हैं उसको। और यह इतनी निपट वैयक्तिक है बात कि इसके लिए निर्णय का कोई उपाय भी नहीं है। इसलिए हो सकता है, मैं सिर्फ अपने को, सबको धोखा दे रहा हूं। लेकिन तब इसका दुख और पीड़ा मेरी है, इसका दुख और पीड़ा किसी की भी नहीं है। यानी इससे कुछ खो रहा हूं, जो मुझे गांधी के पकड़ने से मिल सकता था। तो मैं उसे खोने को तैयार हूं, उसमें कठिनाई नहीं है। मुझे महावीर को पकड़ने से जो शांति मिल सकती थी, वह मुझे लेने की इच्छा नहीं है। और अगर मैं अशांत हूं तो यह ज्यादा दिन आत्मश्लाघा चल नहीं सकती। क्योंकि अगर आप भी अपनी अशांति से परेशान होंगे, मैं नहीं होऊंगा? आप अपने दुख से पीड़ित होंगे, मैं अपने दुख से पीड़ित नहीं हूं? आप तो अपना नरक मिटाने की कोशिश में लगे हैं, मैं अपना नरक बनाता रहूंगा? कितनी देर तक यह चलेगा? यह कैसे चल सकता है? यह असंभव है।
तो निरंतर सवाल उठता ही है--जो लोग भी सोचते हैं--उठेगा ही। और मेरा मानना यह है कि इसके निर्णय की हमें जरूरत ही नहीं है। यह तो हमारे अपने सोचने की बात है। मैं जो पकड़े हुए हूं, उससे अगर मुझे कुछ मिलता हो तो बात खत्म हो गई। अगर नहीं मिल रहा है तो मैं कहता हूं कि कृपा कर इसे छोड़ो, इसके पहले कि कुछ और तुम्हारी जिंदगी में उतर सके, तुम इसे छोड़ो। क्योंकि लड़ाई ही कष्टपूर्ण बनती है। और जब मैं देखता हूं कि आप छोड़ने को भी तैयार नहीं हैं तो मैं मानता हूं कि नये को पाने की सामथ्र्य आपकी नहीं हो सकती है। इसलिए मैं उधर से हिसाब ही छोड़ देता हूं। उचित यह है कि मैं एक जगह कुआं खोदने गया हूं, उसमें मैं कुदाली मार कर देख रहा हूं कि अगर पत्थर ही है सामने और कुदाली पत्थर पर ही पड़ती है, तो बेहतर है कि मैं उस जगह को छोड़ दूं, इतनी मेहनत क्यों करूं? अन्यथा जो आप कह रहे हैं, अगर उस तरह किया जाए, तो मुझे अकारण फिजूल लोगों पर मेहनत करनी पड़ेगी। ये वे लोग होंगे जो बदलना नहीं चाहते और जिनको मैं बदलने की कोशिश करता हूं।
अभी तो यह मुझे धीरे-धीरे साफ होता चला जाता है कि इस भांति सहज ही वे ही लोग मेरे पास आ पाते हैं, जिनकी बदलने की आतुरता है, जिनमें बदलने का साहस है और जो कुछ भी छोड़ने को तैयार हैं। क्योंकि जो कुछ विचार ही छोड़ने को तैयार नहीं हैं, वे कुछ और छोड़ पाएंगे, यह बहुत मुश्किल मामला है। क्योंकि विचार से ज्यादा बेकार चीज कुछ और है नहीं, यानी सिर्फ शब्द ही शब्द हैं। उसको भी छोड़ने में जो आदमी घबड़ा रहा है, वह कुछ और सब्स्टेंस छोड़ पाएगा किसी दिन, इसकी आशा बांधनी बहुत मुश्किल है।
तो मेरे लिए वह परीक्षा का उपाय भी बन गया। यानी मैं तो मानता यह हूं कि उसमें छंट जाते हैं लोग। वे ही लोग बच जाते हैं, जिनके साथ मेहनत करनी ठीक है। और मैं सब तरह से उनको छांटता ही रहता हूं, क्योंकि अकारण हर आदमी पर मेहनत करने की मेरी उत्सुकता नहीं है। क्योंकि आखिर मेरी सीमाएं हैं--सबकी सीमाएं हैं। सारी दुनिया को मैं बदल नहीं सकता। सारी दुनिया को बदलने का ख्याल भी नहीं करना चाहिए। जितनी मेरी शक्ति है वह अधिकतम उपयोग में आ जाए, यह मेरा ख्याल है।
इस मामले को--यह एक अर्थ में सनातन है बहुत। और यह हममें उठ रहा है और सदा उठेगा। क्योंकि आसान मेरे लिए भी वही है। लाख आदमी सुन सकते हैं। अगर मैं उनके अहंकारों की किसी तरह से तृप्ति कर रहा हूं--या तृप्ति नहीं कर रहा हूं, सिर्फ चोट ही नहीं पहुंचा रहा हूं, इतनी ही तृप्ति कर रहा हूं--तो मुझे लाखों लोग सुन सकेंगे। लेकिन मैं लाखों लोगों को सुना कर भी क्या करूंगा? मैं दस आदमियों को सुनाना पसंद करूंगा, जो कि बदलने के लिए तैयार हैं। ये लाख आदमी सुन कर ताली बजा कर चले जाएंगे, इससे क्या होने वाला है। वह रोज चल रहा है। इधर मेरी अपनी समझ यह है, जैसे गांधी जी ने पूरा प्रयोग किया है वही करूं, जो यह सलाह मुझे मित्र देते हैं--गांधी जी ने पूरी जिंदगी वही किया और ‘अल्ला ईश्वर तेरे नाम' को भी इकट्ठा कर लिया और ‘गीता-कुरान' को भी इकट्ठा कर लिया। मुसलमान को भी बदल दें, हिंदू को भी बदल दें, ईसाई को भी बदल दें--सबको तृप्ति भी दे दें कि तुम्हारी किताब में भी वही है, तुम्हारी किताब में भी वही है; किसी के खिलाफ न बोले, सबके पक्ष में बोले--यह पूरी जिंदगी प्रयोग किया। मैं नहीं मानता हूं कि दस-बीस आदमी की जिंदगी भी बदल पाए। खुद की भी बदल पाए, यह भी मैं नहीं मानता हूं। क्योंकि मेरा ख्याल यह है कि अगर वे खुद को भी बदल पाते तो यह बात बहुत साफ हो जाती कि जो गोरखधंधा वे कर रहे हैं, यह संभव नहीं है।
ये महावीर और बुद्ध और क्राइस्ट नासमझी नहीं किए हैं। ठीक जो हो सकता था वही किए हैं। नहीं तो बुद्ध भी कह सकते थे कि महावीर भी वही कहते हैं, उपनिषद भी वही कहते हैं, गीता भी वही कहती है, सभी वही कहते हैं, जो मैं कहता हूं। इसमें हर्ज क्या था कहना? यह बराबर कहा जा सकता था। लेकिन मैं मानता हूं कि बुद्ध को शायद लाख, दो लाख लोग, दस लाख लोग उनको सुन लेते थे, लेकिन आपको नाम भी ख्याल में नहीं आता बुद्ध का। लेकिन कुछ लोगों को उन्होंने बदला और बदले हुए लोग ही काम के हैं। हर आदमी काम पड़ता नहीं। उसे कुछ मतलब भी नहीं।
तो मेरी उत्सुकता किसी तरह के नेतृत्व में नहीं है और किसी तरह के परसुएशन में नहीं है। सीधी-साफ ऑनेस्ट बात होनी चाहिए। मुझे जो लगता है कि आप गलत हैं, तो मैं पूरी चोट से कहूंगा। और मैं मानता हूं कि जब अगर आप किसी तरह की आत्म-रक्षा के उपाय में नहीं गए तो आप समझ पाएंगे। अगर लगे हैं तो जल्दी आपसे मेरा छुटकारा होगा, ज्यादा समय आप मेरा जाया नहीं करेंगे।
अभी यह देखें न क्या हुआ! मुझे जो गांधीवादी वर्षों से सुनता था, अब मैं मानता हूं, उसने मुझे कभी नहीं सुना। क्योंकि मुझे वह वर्षों से सुनता था, कैंपों में आता था, ध्यान के लिए बैठता था। मैं गांधी के खिलाफ बोला तो वह भाग गया। अब मैं सोचता हूं वह जो कई वर्ष मैंने उसके साथ मेहनत की, वह बेकार गई। मुझे गांधी के खिलाफ पहले ही बोल देना था। मेरे अपने तोड़ने के ढंग हैं, इसलिए मैं मानता हूं कि मेरा समय व्यर्थ गया। क्योंकि वह आदमी तो भाग गया। और वर्षों ध्यान करके और वर्षों मुझे सुन करके भी वह इतनी हिएमत न जुटा पाया कि इतनी आलोचना सह लेता, तो वह बेकार समय जाया हुआ। मैं और वर्षों उसको सुना सकता था, गांधी के खिलाफ भर नहीं बोलता तो। वह भी समय जाया होने वाला था।
इधर मेरी अपनी यह समझ है, मेरा मानना ऐसा है कि जो आदमी बदलने की तैयारी पर खड़ा है, वह आदमी सब तरह की चोट झेलने की तैयारी पर भी खड़ा होता है।

प्रश्नः जिनको आप मानते हैं कि गांधी की बात की तो वे लोग चले गए, वैसा भी है--शायद कभी-कभी ऐसा होता है कि कोई चोट ऐसी लगती है, ठीक से अगर लग गई तो मैं चल सकता हूं। लेकिन अगर यह मुझे लग गई तो मुझे पांच-दस मिनट कुछ ठहरना पड़ेगा। तो ऐसा नहीं कि मैं छोड़ गया!

वे अगर लौट भी आएंगे तो मैं मानता हूं कि वे पहले से ज्यादा अच्छी हालत में होंगे, क्योंकि जब वे लौटेंगे तो वे इस बात को जान कर ही लौटेंगे कि मैं उन्हें चोट पहुंचा सकता हूं। अब मेरे बाबत वे साफ लौटेंगे तो भी हितकर होगा। वे दूसरे आदमी होकर लौटेंगे। अगर वे लौटते भी हैं--कुछ लौटे भी हैं बहुत से--तो अब वे एक बात साफ करके लौट रहे हैं कि मैं किसी तरह से उनको परसुएड करने में उत्सुक नहीं हूं। और मैं मानता हूं, अंत में यह बल मिलेगा। अगर मैं आपको किसी तरह परसुएड नहीं कर रहा और किसी तरह आपमें इस तरह की उत्सुकता नहीं ले रहा कि किसी भी हालत में आपसे राजी हो जाऊं, तो मैं मानता हूं, मेरे और आपके बीच ज्यादा सिंसिअर संबंध पैदा होंगे। क्योंकि एक तरह का धोखा ही है वह। अगर मैं गांधी के खिलाफ में हूं और नहीं बोल रहा, तो भी धोखा ही दे रहा हूं। अगर एक आदमी मेरे पास आता है और मैं कुरान के खिलाफ हूं और यह देखकर कि चूंकि वे मुसलमान हैं, इसलिए कुरान के खिलाफ नहीं बोलता, तो भी मैं धोखा दे रहा हूं। और उसके संबंध में कभी ऑनेस्ट नहीं हो सकता। मैं जो हूं, वह साफ है।
तो अब तो धीरे-धीरे ऐसी स्थिति बना लूंगा दो साल में कि मैं जैसा हूं वैसा साफ हूं; बुरा-भला, जैसा। आप आते हैं तो सब जानकर आते हैं, इसलिए आपके लौटने का उपाय कम हो जाएगा। अभी पीछे दिक्कत थी। लौट जाने का डर सदा बना रहता था। वह कठिनाई उसकी है। अगर वह मिटा लेता हूं बिल्कुल तो उसमें सीधा-साफ मामला हो जाएगा। आप जान कर आते हैं कि मैं ऐसा आदमी हूं। मेरे साथ दो घंटे अगर बैठना है तो यह सब संभावना है। तो मैं मानता हूं कि हम कुछ काम कर पाएंगे और संबंध हार्दिक हो पाता है। और नहीं तो नहीं हो पाता है। और छोटे-छोटे लोगों से नहीं, बड़े से बड़े लोगों के साथ ऐसी हालत है।
एक बड़े संत अपने आश्रम में रोज मेरी किताबों का पाठ करते थे वर्षों से और बैठकर सारे शास्त्रों को समझाते थे। गांधी पर बीच में बोला तो वे सब किताबें वहां से हटा देते थे। किताबें वही हैं। उनमें कोई फर्क नहीं कर दिया है। मजा, मैं गांधी के विपरीत बोला, तो इसलिए सारा गड़बड़ हो गया। अब वह मामला है कि अच्छा ही हुआ कि वह नाहक ही मेहनत कर रहे थे तो वे मेरी किताब नहीं समझ पाएंगे, वह भूल-चूक की बात चल रही थी।
तो कठिनाई तो है ही इसमें, लंबा भी वक्त लेती है यह बात। लेकिन थोड़ा सा भी जो काम हो पाएगा, वह होगा। लगेगा कि काम नहीं हो पाएगा। फैलाव बहुत दिखेगा, कुछ हो नहीं पाएगा। उससे कुछ निकलेगा भी नहीं।

प्रश्नः व्यक्ति के ढंग से अगर देखा जाए तो आखिर में उद्देश्य क्या है? और समष्टि की दृष्टि से देखा जाए तो इनका मकसद क्या है? आप अल्टीमेटली कहां जाना चाहते हैं?

दोनों दृष्टि से एक ही बात है। व्यक्ति की दृष्टि से भी, समाज की दृष्टि से भी। व्यक्ति के हित में संभावना है आनंद पाने की। वह प्रकट नहीं हो पाएगी, नहीं हो पा रही है। कभी इक्के-दुक्के आदमी में प्रकट हुई है। बड़े व्यापक पैमाने पर वह प्रकट नहीं हुई है। और उसकी जो आनंद की संभावना प्रकट न हो तो वह जिस समाज को निर्मित करता है, वह भी दुख का ही समाज होता है। इसलिए मेरे लिए तो एक ही है दोनों के पीछे कि व्यक्ति अधिकतम आनंद को कैसे उपलब्ध हो। जिस रास्ते से मुझे लगता है कि आनंद है, जिस रास्ते से मुझे आनंद मिलता है, वह मैं आपसे कह देना चाहता हूं। अपेक्षा बिल्कुल नहीं है उसमें कि आप उसको मानें ही। मेरा कर्तव्य पूरा हो जाता है। मुझे अगर दिखाई पड़ रहा है कि जिस जगह मैं खड़ा हूं वहां रोशनी दिखाई पड़ती है। और अगर आप दो इंच हट जाएं अपनी जगह से तो इतनी रोशनी के मालिक हो सकते हैं। तो मैं दो इंच आपको हटाने की कोशिश कर रहा हूं। इसमें भी आप पर मेरी दया नहीं है। इसमें भी आनंद बंटने से मुझे आनंद मिलेगा, उतनी ही बात है। आप पर कोई करुणा नहीं, आपसे कुछ लेना-देना नहीं। इधर मेरा अनुभव ऐसा है कि आनंद मिले, तब तो आनंद मिलता ही है, जब हम उस आनंद को बांटें तो वह करोड़ गुना हो जाता है। तो मैं अपने आनंद को करोड़ गुना कर रहा हूं। जितने ज्यादा लोगों को वह मिल सकेगा, उतना ज्यादा मुझे मिल जाएगा। और अल्टीमेट का कोई ख्याल नहीं है। 'अभी' पर मेरी सदा नजर है। यानी मेरा मानना है, अभी मिल सकता है, जरा से अंतर की जरूरत है; जहां आप खड़े हैं, वहां से शायद थोड़ा ही रुख बदलने की बात है और वह आपको मिल सकता है।
तो जितने लोग मेरे निकट आएंगे उनको मैं वह कहता चला जाऊंगा। अगर वे राजी होंगे तो उनको घुमा कर खड़ा करने के लिए तैयार हूं। मैं उनको घुमा कर उस तरफ रुख कर दूं, जहां रोशनी मुझे मालूम पड़ती है, जिस तरफ उन्होंने आदतवश ही कभी देखा नहीं है। इससे मुझे आनंद मिल रहा है। इससे आपको मिलेगा, नहीं मिलेगा, ऐसा मुझे पक्का नहीं है। मैं आपको घुमा भी पाऊंगा, यह भी जरूरी नहीं है। लेकिन मैंने आपको घुमाने की कोशिश की, उससे भी आनंदित हूं। और व्यक्ति बदले तो मेरे लिए समाज भी बदलता है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें