मार्ग
परिपूर्ण है--प्रवचन--दूसरा
Hsin
Hsin Ming (शुन्य की किताब)--ओशो
(ओशो
की अंग्रेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद)
सूत्र:
तब
मन की सारभूत शांति अकारण ही विचलित हो जाती है।
महापथ
है विराट आकाश की भांति
जहां
न कुछ कम है न ही कुछ अधिक।
सच
तो यह है कि स्वीकार या अस्वीकार करने के अपने चुनाव के कारण,
हम
चीजों के वास्तविक स्वभाव को नहीं देखते।
न
तो बाहरी वस्तुओं की उलझनों में जीओ?
न
ही आंतरिक शून्यता की अनुभूति में।
कृत्य
की कामना मत करो और यह जान कर कि सब--
कुछ
एकात्म है शांत हो जाओ
और
ऐसे भ्रांतिपूर्ण विचार स्वत? ही विदा हो जाएंगे।
जब तुम अक्रिया को पाने के
लिए कर्म को रोकने का प्रयास करते हो
तो तुम्हारा वही प्रयास तुम्हें क्रिया से भर देता है।
जब तक तुम अतियों में जीते
हो, तब तक तुम कभी एकात्मकता
को नहीं जान पाओगे।
जो
मध्य में नहीं जीते वे क्रिया और अक्रिया, स्वीकार और
इनकार
दोनों में असफल हो जाते हैं।
इससे
पहले कि हम सोसान के सूत्रों में प्रवेश करें कुछ बातें समझ लें।
पश्चिम
में अभी कुछ ही वर्ष पहले एक फ्रांसीसी सम्मोहनविद इमाइल कुए हुआ। उसने मानव--मन के
एक मूलभूत नियम पर फिर से अनुसंधान क्रिया। उसने उसे 'ली ऑफ रिवर्स
इफेक्ट'--विपरीत परिणाम का नियम कहा। वह ताओ और झेन विचारधारा
के सबसे पुराने सूत्रों में से एक है। सोसान इसी नियम के बारे में बात कर रहा है। इस
नियम को समझने की कोशिश करें फिर उसके वचनों को समझना आसान होगा।
उदाहरण
के लिए, अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही है तो तुम क्या करोगे? तुम
नींद लाने की चेष्टा करोगे-- तुम कोशिशें करोगे, तुम यह करोगे
वह करोगे, लेकिन तुम जो कुछ भी करोगे उसका प्रभाव उलटा होगा जिसे
तुम लाना चाहते हो वह नहीं आएगा। उससे विपरीत होगा क्योंकि कोई भी क्रिया कोई भी चेष्टा
नींद के विरुद्ध है।
नींद
एक विश्राम है। तुम इसे ला नहीं सकते, तुम इसको लाने के लिए कुछ नहीं कर सकते।
तुम इसके साथ जबरदस्ती नहीं कर सकते तुम इसके लिए संकल्प नहीं कर सकते--यह तुम्हारी
संकल्प--शक्ति का हिस्सा नहीं है। यह अचेतन में जाना है और तुम्हारा संकल्प चेतना का
केवल एक अंश है।
जब
तुम अचेतन में गति करते हो,
गहराई में जाते हो तो वह अंश जो चेतन है, वह अंश
जो संकल्प है वह सतह पर ही रह जाता है। तुम अपनी सतह को गहराई में नहीं ले जा सकते,
तुम अपनी परिधि को केंद्र में नहीं ले जा सकते। इसलिए जब तुम नींद के
लिए प्रयत्न करते हो तो वह उसके लिए स्व--विनाशक सिद्ध होता है। तुम कुछ ऐसा कर रहे
हो जो बिलकुल उसके विपरीत है-- तुम और अधिक जाग जाओगे। नींद में प्रवेश करने का एक
मात्र उपाय है कुछ भी न करना। अगर वह नहीं आ रही है, नहीं आ रही
है! प्रतीक्षा करो....कुछ भी मत करो! नहीं तो तुम उसे और दूर भगा दोगे और एक दूरी निर्मित
हो जाएगी। तकिए पर सिर रख कर केवल प्रतीक्षा करो-- प्रकाश बुझा दो आंखें बंद कर लो
शांत हो जाओ और प्रतीक्षा करो। जब भी वह आती है आती है। तुम इसे अपने संकल्प के किसी
कृत्य द्वारा नहीं ला सकते-- संकल्प अचेतन के विरुद्ध है।
और
ऐसा जीवन की कई चीजों में घटता है ठीक विपरीत सामने आ जाता है। अगर तुम शांत होना चाहते
हो, तो तुम क्या करोगे? क्योंकि शांति भी नींद के समान है।
तुम इसको घटने के लिए बाध्य नहीं कर सकते। तुम इसे घटित होने दे सकते हो, यह निर्बाध होने देना है, लेकिन इसको करने का कोई उपाय
नहीं है। अगर तुम शांत होना चाहते हो, तो क्या करोगे?
अगर तुम कुछ करोगे, तो तुम पहले से भी अधिक अशांत
हो जाओगे।
अगर
तुम शांत होना चाहते हो तो क्या करोगे? क्योंकि शांत होने का अर्थ है निफ्रियता।
तुम सिर्फ बहो तुम बस विश्रांत हो जाओ! और जब मैं कहता हूं बस विश्रांत हो जाउरों तो
मेरा मतलब सहजता से है। विश्रांति के लिए किसी विधि का प्रयोग नहीं करना है क्योंकि
विधि का अर्थ है कि तुम फिर कुछ कर रहे हो।
एक
पुस्तक है जिसका शीर्षक है 'यू मस्ट रिलैक्स!' तुम्हें
विश्राम करना ही चाहिए! और 'मस्ट' विश्राम
के बिलकुल विरुद्ध है 'करना ही चाहिए' को
बीच में नहीं लाना चाहिए अन्यथा तुम और तनावपूर्ण हो जाओगे।
यह
नियम इमाइल कुए ने खोजा और उसने कहा, 'चीजों को घटित होने दो उनको जबरदस्ती
मत लाओ।' कुछ चीजें हैं जिनके साथ जबरदस्ती की जा सकती है-- वह
सभी कुछ जो चेतन मन से संबंधित है उनके साथ जबरदस्ती की जा सकती है। लेकिन कुछ चीजें
हैं जिनके साथ जबरदस्ती नहीं की जा सकती। वह सभी कुछ जो अचेतन से तुम्हारी गहराई से
संबंध रखता है, उसके साथ जबरदस्ती नहीं की जा सकती।
ऐसा
बहुत बार होता है तुम कोई नाम या चेहरा याद करने का प्रयास कर रहे हो और वह याद नहीं
आ रहा है, लेकिन तुम्हें प्रतीत होता है कि वह तुम्हारी जीभ की नोक पर रखा है। यह प्रतीति
इतनी गहन है कि तुम्हें लगता है कि वह याद आने ही वाला है, और
तुम उसे लाने का प्रयत्न करते हो। और जितनी तुम चेष्टा करते हो उतना ही वह नहीं आता।
तुम संशयग्रस्त हो जाते हो कि यह अनुभूति सच्ची है या नहीं। लेकिन तुम्हें लगता है
तुम्हारे पूरे प्राण कहते हैं कि यह रहा बस जीभ की नोक पर ही रखा है। अगर यह जीभ पर
रखा है तो आ क्यों नहीं रहा? यह नहीं आएगा। जो चाहे वह करो लेकिन
फिर भी वह नहीं आएगा।
फिर
तुम खीझ जाते हो,
निराश हो जाते हो फिर तुम सब छोड़ देते हो। तुम बगीचे में चले जाते हो
वहां काम करना शुरू कर देते हो; या समाचार--पत्र पढ़ना शुरू कर
देते हो या रेडियो चला लेते हो और संगीत सुनना शुरू कर देते हो, और अचानक याद आ जाता है। क्या हुआ?
उसका
संबंध अचेतन से था वह तुम्हारे भीतर गहरे में था। और जितना तुमने याद करने का प्रयास
क्रिया उतनी तुम्हारी चेतना संकीर्ण हो गई। और जितनी तुमने चेष्टा की, अचेतन उतना
ही विचलित हो जाता है। वह अराजक हो गया, सब--कुछ अस्त--व्यस्त
हो गया। वह जुबान पर रखा था, लेकिन तुम उसे बाहर लाने के लिए
बहुत सक्रिय थे.. तुम अपनी संकल्प--शक्ति का प्रयोग कर रहे थे और संकल्प तुम्हारी गहराइयों
से कुछ भी निकाल कर नहीं ला सकता। केवल समर्पण ला सकता है जब तुम केवल होने देते हो।
इसलिए जब तुम पार्क में बगीचे में गए, समाचार--पत्र पढ़ने लगे,
जमीन में गड़ा खोदने लगे संगीत सुनना शुरू कर दिया जैसे ही तुम पूरे प्रोजेक्ट
को भूल गए…अचानक वह याद आ गया। यही है विपरीत परिणाम का नियम। याद रहे संकल्प का अचेतन
के साथ कोई उपयोग नहीं है केवल उपयोग ही नहीं है बल्कि खतरनाक भी है हानिप्रद भी है।
लाओत्सु
नागर बोधिधर्म सोसान--ये इस विपरीत परिणाम के नियम के गुरु हैं। और यही अंतर है योग
और झेन में। योग हर प्रयास करता है और झेन कोई प्रयत्न नहीं करता और झेन योग से अधिक
ठीक है। लेकिन योग अच्छा लगता है क्योंकि जहां तक तुम्हारा संबंध है 'करना'
सरल है-- कितना भी मुश्किल हो--लेकिन 'करना'
सरल है।
न
करना कठिन है। अगर कोई कहता है 'कुछ भी मत करो तुम्हारी समझ में नहीं--आता। तुम फिर
पूछते हो, 'क्या करना है?' अगर कोई कहता
है,' कुछ भी न करो,' वह तुम्हारे लिए सबसे
कठिन बात है। अगर तुम समझ सको तो ऐसा होना नहीं चाहिए।
न
करने के लिए किसी योग्यता की आवश्यकता नहीं है। करने के लिए योग्यता कीजरूरत हो सकती
है, करने के लिए अभ्यास की जरूरत हो सकती है। न करने के लिए किसी अभ्यास की जरूरत
नहीं। इसीलिए झेन कहता है कि संबोधि एक क्षण में घटित हो सकती है--क्योंकि यह प्रश्न
ही नहीं उठता कि इसे कैसे लाया जाए प्रश्न तो यह है कि इसे कैसे होने दिया जाए। वह
बिलकुल नींद के समान है तुम तनाव छोड़ दो और वह वहां है तुम अपने को ढीला छोड़ दो और
वह प्रकट हो जाती है। वह बाहर प्रकट होने के लिए तुम्हारे भीतर संघर्ष कर रही है। तुम
उसे आने नहीं दे रहे है, क्योंकि सतह पर तुम्हारे पास बहुत से
क्रियाकलाप हैं।
क्या
तुमने कभी गौर क्रिया लगभग नब्बे प्रतिशत बच्चे रात को जन्म लेते हैं दिन में नहीं।
क्यों? आधा--आधा होना चाहिए। वे ज्यादातर रात क्यों चुनते हैं? नब्बे प्रतिशत! क्योंकि मां अचेतन अवस्था में होती है, विश्राम की अवस्था में होती है लेट--गो की अवस्था में होती है। वह निद्रा में
होती है और बच्चा सरलता से बाहर आ सकता है।
अगर
वह होश में है तो वह कोशिश करेगी और विपरीत परिणाम का नियम वहां प्रभावी होगा। जब मां
जाग रही है वह हर संभव प्रयत्न करेगी ताकि पीड़ा से मुक्त हो सके और मामला निबट जाए
और बच्चे का जन्म हो जाए। और हर कोशिश एक बाधा है, वह रुकावट डाल रही है। जितनी
वह कोशिश करती है उतना ही रास्ता संकुचित होता जाता है और बच्चा बाहर नहीं आ पाता।
आदिवासी
समाजों में बच्चे को जन्म देते समय मां को कोई पीड़ा नहीं होती जरा भी पीड़ा नहीं होती।
और यह चमत्कार है। जब पहली बार पाश्चात्य चिकित्सा विज्ञान को पता चला कि अब भी ऐसे
आदिवासी समाज हैं जहां मां को कोई पीड़ा नहीं होती--वे विश्वास ही न कर सके। यह कैसे
संभव है?
तब
बहुत से प्रयोग किए गए,
कई अनुसंधान की योजनाएं बनाई गईं, और पता चला कि
इसका कारण उनकी अनभिज्ञता है। वे वन्य पशुओं की भांति हैं कोई लड़ाई नहीं कोई संघर्ष
नहीं, कोई जोर--जबरदस्ती नहीं। वे कुछ संकल्प नहीं करते वे सिर्फ
बहते हैं। वे आदिवासी हैं, उनके पास कोई बहुत चेतन मन नहीं है।
जितनी ज्यादा विकसित सभ्यता होगी उतना ही तुम्हारा मन चेतन होता है। जितने सभ्य उतना
ही तुम्हारा संकल्प प्रशिक्षित होता है और तुम्हारा अचेतन और नीचे और--और गहरे चला
जाता है और वहां एक अंतराल बन जाता है।
अगर
कुछ करना है वह भले ही कितना कठिन हो तुम उसे करने का उपाय खोज लेते हो कि उसे कैसे
क्रिया जाए। तुम कोई विधि सीख लेते हो फिर विशेषज्ञ लोग हैं, तुम्हें प्रशिक्षित
क्रिया जा सकता है। लेकिन झेन में किसी को प्रशिक्षित नहीं क्रिया जा सकता। परमात्मा
में कोई कुशल लोग कोई विशेषज्ञ नहीं होते हो ही नहीं सकते क्योंकि यह किसी विधि के
जानने का प्रश्न नहीं है यह तो अपने होने में विश्राम करना है, कुछ करना नहीं है। केवल तब जब तुम वहां नहीं होओगे एक महानतम घटना घटेगी। अगर
तुम कुछ कर रहे हो तो तुम निश्चित रूप से वहां होओगे।
नींद
तब आती है जब तुम वहां नहीं होते। संबोधि भी इसी नियम का पालन करती है--वह आती है जब
तुम वहां नहीं होते। लेकिन जब तुम कर रहे हो तो उसी समय तुम अनुपस्थित कैसे हो सकते
हो? अगर तुम कुछ कर रहे हो तो तुम वहां होओगे। कृत्य अहंकार को पुष्ट करता है।
जब तुम कुछ नहीं कर रहे, तो अहंकार को भोजन नहीं मिल सकता। वह
विलीन हो जाता है मिट जाता है, वह वहां नहीं है। और जब वहां अहंकार
नहीं होता, प्रकाश अवतरित होता है।
इसलिए
जो भी तुम संकल्पपूर्वक कर रहे हो, वह बाधा बन जाएगा। यहां मेरी ध्यान
विधियों को करो लेकिन संकल्पपूर्वक नहीं जबरदस्ती नहीं। उन्हें होने दो। उनमें बहो,
अपने को बीच में न लाओ। उनमें डूब जाओ लेकिन संकल्पपूर्वक नहीं। कुछ
चालाकी मत करो, क्योंकि जब तुम चालाकी करते हो तुम विभाजित हो
जाते हो तुम दो हो जाते हो वह जो चालाकी करने वाला है और वह जिसके साथ चालाकी की जा
रही है। एक बार तुम दो हो गए तो तुरंत स्वर्ग और नरक निर्मित हो जाते हैं और फिर तुम्हारे
और सत्य के बीच बहुत बड़ा अंतर हो जाता है। चालाकी मत करो चीजों को होने दो।
तुम
कुंडलिनी ध्यान कर रहे हो,
कंपन को होने दो। इसे करो नहीं! शांत खड़े हो जाओ इसे आता हुआ महसूस करो
जब तुम्हारा शरीर जरा सा कंपन करने लगे उसे सहयोग दो लेकिन करो नहीं। इसका रस लो आनंदित
अनुभव करो इसे होने दो, इसे ग्रहण करो, इसका स्वागत करो परंतु इसकी कामना मत करो।
अगर
तुम बलपूर्वक चेष्टा करते हो तो यह एक व्यायाम हो जाएगा, एक शारीरिक
भौतिक व्यायाम। तब कंपन तो होगा, लेकिन ऊपरी सतह पर। यह तुम्हारे
भीतर तक नहीं पहुंचेगा। तुम भीतर ठोस, पत्थर की भांति,
चट्टान की भांति ही बने रहोगे। तुम चालाकी करने वाले कर्ता बने रहोगे
और केवल शरीर अनुसरण करेगा। सवाल शरीर का नहीं है, सवाल तुम हो।
जब
मैं कहता हूं कंपन करो तो मेरा मतलब है कि तुम्हारा ठोसपन, तुम्हारा चट्टान
जैसा अस्तित्व मूल तक कंपित हो उठे! ताकि वह द्रवीभूत हो जाए, तरल हो जाए पिघल जाए, बहने लगे। जब चट्टान जैसा अस्तित्व
तरल हो जाता है, तो तुम्हारा शरीर उसका अनुगमन करता है। तब वहां
कंपन करने वाला कोई नहीं होता केवल कंपन होता है तब उसे करने वाला कोई नहीं होता तब
वह सिर्फ घटित होता है। तब कर्ता नहीं है।
इसका
आनंद लो किंतु इसका संकल्प मत करो। और स्मरण रहे जब तुम कुछ करने का संकल्प करते हो, तो तुम उसका
आनंद नहीं उठा सकते। वे विपरीत हैं, विरोधी हैं, उनका कभी मिलन नहीं होता। जब किसी बात का संकल्प करते हो? तो उसका आनंद नहीं ले सकते अगर तुम उसका आनंद लेते हो तो उसका संकल्प नहीं
कर सकते।
उदाहरण
के लिए तुम काम-- भोग का इरादा बना सकते हो। तुम इसे पुस्तकों में दिए नियमों के अनुसार
कर सकते हो लेकिन तुम्हें इससे सुख प्राप्त नहीं होगा। अगर तुम इसका आनंद लेते हो, तो सभी नियम--पुस्तकों
को फेंक देना पड़ेगा सभी किसे और मास्टर्स और जनसे सबको फेंक देना पड़ेगा। तुम्हें वह
सब बिलकुल भुला देना होगा जो कुछ तुमने काम--भोग के बारे में सीखा है। शुरू--शुरू में
तुम्हें कुछ समझ नहीं आएगा, कोई मार्ग--निर्देश नहीं हैं क्योंकि
कोई मानचित्र नहीं, कैसे प्रारंभ करें?
बस
प्रतीक्षा करो,
और अपनी अंतर--ऊर्जा को गति करने दो, और जहां वह
ले जाए, अनुसरण करो। हो सकता थोड़ा समय लगे, लेकिन जब काम उत्पन्न होता है, वह तुम्हें घेर लेता है।
अब तुम वहां नहीं होते। काम होता है वहां, काम-- भोग करने वाला
नहीं होता। काम--भोग ऊर्जा की एक घटना की भांति घटित होता है, लेकिन उसमें अहंकार नहीं होता। तब यह असाधारण रूप से होता है, तब यह मुक्ति बन जाता है। तब काम आनंद बन जाता है और अब तुम कुछ ऐसा जानते
हो जो उन्होंने जाना है जिन्होंने भगवत्ता को पाया है। अब तुम उसके एक अंश,
सागर की एक बूंद को जानते हो। तुम एक किरण को जानते हो और तब तुम्हें
स्वाद का पता चलता है।
ध्यान, ईश्वर,
संबोधि निर्वाण ये सभी काम के माध्यम से आते हैं क्योंकि काम के माध्यम
से ही एक झलक मिली थी। और जब झलक वहां विद्यमान थी कुछ साहसी आत्माएं उस झलक के स्रोत
की खोज में निकल पड़ी। परमात्मा को प्रेम के माध्यम से ही खोजा गया है। इसीलिए जीसस
निरंतर कहते हैं... जब भी किसी ने पूछा ईश्वर क्या है, वे कहते
हैं ईश्वर प्रेम है क्योंकि पहली झलक प्रेम के द्वारा ही मिलती है।
लेकिन
प्रक्रिया वही है,
तुम काम--भोग का संकल्प नहीं कर सकते। अगर तुम संकल्प करोगे तो सारा
सौंदर्य खो जाता है सब यांत्रिक हो जाता है। तुम सब विधिवत करते हो लेकिन कुछ नहीं
होता। कोई आनंद नहीं यह कुछ ऐसा है कि बस इसे करना है और निबटा देना है। वह कभी तुम्हारे
केंद्र तक नहीं पहुंचता, वह कभी तुम्हारे आधारों को नहीं झकझोरता,
वह कभी तुम्हारा आंतरिक नृत्य नहीं बन पाता। वह तुम्हारे प्राणों की
धड़कन नहीं वह केवल परिधि पर क्रिया गया एक कृत्य है।
स्मरण
रहे, न तो प्रेम का संकल्प क्रिया जा सकता है और न ध्यान का।
सब
ज्ञान फेंक दो क्योंकि ज्ञान की तभी आवश्यकता पड़ती है जब तुम्हें कुछ करना होता है।
जब तुम्हें कुछ करना ही नहीं तब किस ज्ञान की जरूरत पड़ती है? तुम्हें किसी
ज्ञान की आवश्यकता नहीं। तुम्हें सिर्फ अनुभूति होनी चाहिए, ढंग
आना चाहिए--कैसे छोड़ना है कैसे न हुआ जाए। और जब मैं कहता हूं कैसे? तो मेरा मतलब तकनीक से नहीं है। जब मैं कहता हूं कैसे? तो मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि तुम्हें तकनीक आनी चाहिए। तुम्हें केवल उसकी
खोज करना है।
मैं
तुम्हें दो बातों का सुझाव दूंगा, जो सहायक सिद्ध होगी। एक है नींद यह खोजने की कोशिश
करो कि नींद कैसे आती है तुम कैसे सो जाते हो। हो सकता है तुम्हारे पास कोई विधि हो
लेकिन वह विधि नींद निर्मित नहीं कर रही, इससे सहायता मिलती है।
प्रत्येक व्यक्ति के पास विधि है। छोटे बच्चों की अपनी तरकीबें होती हैं, कोई विशेष मुद्रा होती है। प्रत्येक बच्चे का अपना ढंग होता है हो सकता है
वह अपना अगूंठा मुंह में डाल ले। इससे नींद नहीं आती, लेकिन इससे
बच्चे को मदद मिलती है--उसने अपनी तरकीब निकाल ली है। अगर तुम उस बच्चे का अनुकरण करो,
तो तुम्हें नींद नहीं आएगी।
और
यही बात ध्यान की सभी विधियों के साथ है--प्रत्येक व्यक्ति अपनी विधि खोज लेता है।
इससे सहायता मिलती है क्योंकि इससे एक वातावरण निर्मित होता है। तुम प्रकाश बुझा देते
हो कमरे में कोई खास अगरबत्ती जला लेते हो, विशेष प्रकार का तक्रिया ले लेते हो--विशिष्ट
मोटाई का, और गुदगुदा। तुम एक विशेष प्रकार का कालीन लेते हो
किसी विशेष आसन में बैठते हो, इस सबसे सहयोग मिलता है,
लेकिन यह उसका कारण नहीं है। अगर कोई अन्य इसका अनुसरण करता है तो हो
सकता है कि यह बाधा बन जाए। प्रत्येक को अपनी विधि खोजनी पड़ती है।
विधि
तुम्हें आराम में होने और प्रतीक्षा करने में सहायता करने के लिए है। और जब तुम आराम
में हो और प्रतीक्षा कर रहे होते हो वह घटित हो जाती है। नींद की भांति ही परमात्मा
तुम्हारे पास आता है,
परमात्मा की भांति प्रेम तुम्हारे पास आता है। तुम संकल्प नहीं कर सकते
तुम उसे बलपूर्वक नहीं ला सकते।
और
तुम्हारा पूरा जीवन एक समस्या बन गया है, क्योंकि तुमने बहुत सीख लिया है कि
चीजों को कैसे करें। तुम यांत्रिक चीजों को करने में बहुत कुशल हो गए हो क्योंकि उन्हें
क्रिया जा सकता है, लेकिन तुम मानवीय चीजों को करने में बिलकुल
अकुशल हो गए हो क्योंकि वे सीखी नहीं जा सकती, उनको करने का कोई
तकनीकी ढंग नहीं है; तुम उनके लिए कुशल विशेषज्ञ नहीं हो सकते।
जब
भी कुछ यांत्रिक करना हो,
तो उसके लिए प्रशिक्षण संभव है लेकिन चेतना को प्रशिक्षित नहीं क्रिया
जा सकता। और तुम कभी इस गुरु और कभी उस गुरु के पास कोई विधि कोई मंत्र पाने के लिए
जाते हो ताकि तुम बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाओ। ऐसा कोई मंत्र नहीं है जो तुम्हें संबुद्ध
बना सके।
यह
है मंत्र सोसान कहता है कि तुम्हें और अधिक समझदार होना पड़ेगा--कम संकल्प, ज्यादा समर्पण
कम प्रयास और ज्यादा अप्रयास चेतन का कृत्य कम अचेतन में तैरना अधिक।
अब
सूत्र को समझने की कोशिश करें
जब
चीजों का गहन अर्थ समझा नहीं जाता,
तब
मन की सारभूत शांति अकारण ही विचलित हो जाती है।
अगर
तुम समझ जाते हो तो शांति होगी। अगर तुम नहीं समझते तो अशांति, तनाव और पीड़ा
होगी। जब भी कोई व्यक्ति व्यथित होता है? तो यही स्पष्ट होता
है कि उसे उस बात का, उन चीजों का गहन अर्थ समझ नहीं आया।
और
तुम दूसरों को दोषी ठहराते रहते हो कि उनके कारण तुम दुखी हो। यहां कोई भी दूसरों के
कारण व्यथित नहीं है। तुम अपनी नासमझी या अपनी गलतफहमी के कारण दुखी हो।
उदाहरण
के लिए, कोई मेरे पास आया--एक पति, एक पांच बच्चों का बाप--और
उसने कहा कि वह बहुत दुखी है क्योंकि उसकी पत्नी हमेशा झगड़ती रहती है उसे अपने अधिकार
में रखने का प्रयत्न करती है, और बच्चे उसकी बात नहीं सुनते...'मां का बहुत प्रभाव है और बच्चे उसी की बात सुनते हैं मेरी बात नहीं मानते।
मैं उनके लिए कुछ भी नहीं हूं और मैं बहुत दुखी हूं। मेरे लिए कुछ करें। कृपा करें
अपने आशीष से उसे थोड़ा और समझदार बना दें।'
मैंने
कहा 'वह तो असंभव है। मेरी कृपा से या किसी की कृपा से किसी दूसरे को अधिक समझदार
नहीं बनाया जा सकता। तुम बन सकते हो। और जब तुम दूसरे की समझ की बात करते हो,
तुम सारी बात से ही चूक गए। पत्नी मालकियत करती हुई क्यों प्रतीत होती
है? वह मालकियत करती हुई लगती है, क्योंकि
तुम भी मालकियत के लिए संघर्ष कर रहे हो। अगर तुम मालकियत के लिए संघर्ष नहीं कर रहे,
तो पत्नी भी वैसा करती प्रतीत न होगी। यह संघर्ष है, क्योंकि तुम भी उसी लक्ष्य के पीछे भाग रहे हो। अगर बच्चे भी मां का अनुसरण
करें तो उसमें गलत क्या है? क्योंकि तुम चाहते हो कि बच्चे तुम्हारा
अनुसरण करें--इसीलिए संघर्ष है।'
समझने
की कोशिश करो! प्रत्येक व्यक्ति मालकियत की कोशिश कर रहा है। अहंकार का यही स्वभाव
है दूसरे पर मालकियत करने की हर कोशिश करना। दूसरा चाहे पति हो पत्नी हो या बच्चे हों
या मित्र हों,
इससे कोई अंतर नहीं पड़ता--लेकिन वे मालकियत करने और मालकियत करने के
रास्ते और उपाय खोजते हैं।
और
अगर प्रत्येक व्यक्ति मालकियत की कोशिश कर रहा है और तुम भी कर रहे हो, तो संघर्ष
होगा। संघर्ष इसलिए नहीं है कि दूसरे मालकियत की चेष्टा कर रहे हैं, संघर्ष इसलिए है क्योंकि तुम यह समझने का प्रयत्न नहीं कर रहे कि अहंकार किस
तरह कार्य करता है।
तुम
इससे बाहर निकल आओ! दूसरों को बदला नहीं जा सकता, और अगर तुम दूसरों को बदलने
का प्रयास करोगे तो अपने जीवन को व्यर्थ गंवा दोगे। वह उनकी समस्या है। वे अपनी नासमझी
के कारण दुख उठाएंगे तुम क्यों दुख उठाओ? तुम केवल इतना समझ लो
कि हर कोई मालकियत की कोशिश में है।’मैं इससे बाहर आ जाता हूं
मैं मालकियत के लिए प्रयत्न नहीं करूंगा'… तुम्हारा संघर्ष समाप्त
हो जाता है। और फिर एक अति सुंदर बात घटती है।
अगर
तुम मालकियत करने की कोशिश नहीं करते तो पत्नी को लगता है कि वह मूर्ख है और धीरे--धीरे
वह अपनी नजरों में बेवकूफ हो जाती है--क्योंकि तब लड़ाई के लिए दूसरा नहीं है। जब तुम
लड़ते हो तुम दूसरे के अहंकार को शक्ति देते हो और यही एक दुष्चक्र है।
जब
तुम लड़ते नहीं तब दूसरे को लगता है कि वह अकेला, खालीपन में लड़ रहा है हवा से
लड़ रहा है या किसी भूत--प्रेत से लड़ रहा है लेकिन किसी दूसरे से नहीं लड़ रहा है। और
तब तुम दूसरे को देखने और समझने का अवसर देते हो। तब पत्नी तुम पर उत्तरदायित्व नहीं
थोप सकती उसे स्वयं ही उत्तरदायित्व वहन करना पड़ता है।
यही
समस्या सबके साथ है क्योंकि मानव प्रकृति इसी प्रकार अपना काम करती है थोड़ा कम या ज्यादा
हो सकता है अंतर केवल मात्रा का है। अगर तुम समझने की कोशिश करते हो तो तुम बाहर हो
जाते हो। ऐसा नहीं है कि तुम समाज से बाहर हो जाते हो ऐसा नहीं है कि तुम हिप्पी बन
जाते हो और जाकर वैकल्पिक समाज बना लेते हो यह बात नहीं है। मानसिक रूप से तुम अब अहंकार
मालकियत आक्रमकता हिंसा,
क्रोध की यात्रा पर नहीं हो। तुम इसमें सम्मिलित नहीं हो। तब एक दूरी
एक अनासक्ति निर्मित हो जाती है। अब तुम चीजों को देख सकते हो और हंस सकते हो,
आदमी कितना मूर्ख है! और तुम हंस सकते हो... तुम हमेशा से कितने हास्यास्पद
रहे हो!
रिझाई
के संबंध में कहा जाता है कि वह जब प्रात: उठता, तो इतने जोर से हंसता कि सारा
मठ--जिसमें पांच सौ संन्यासी रहते थे--वे उसे सुनते थे। रात जब सोने जाता, तो पुन: वह जोर से हंसता।
बहुत
लोगों ने पूछा कि वह ऐसा क्यों करता है लेकिन वह सिर्फ हंस देता और उत्तर नहीं देता।
जब वह मर रहा था किसी ने पूछा : एक बात हमें बताओ कि जीवन भर तुम प्रतिदिन सुबह--शाम
हंसते क्यों थे?
किसी को मालूम नहीं और जब भी हमने पूछा तुम फिर हंस देते। यही एक मात्र
रहस्य है। कृपया देह त्याग से पहले इसे प्रकट करने की कृपा करें।
रिंझाई
ने कहा? मैं संसार की पड़ता के कारण हंसता था। सुबह मैं हंसता था क्योंकि मैं फिर उस
दुनिया में प्रविष्ट हो गया हूं और आस--पास सभी मूढ़ हैं। और रात को हंसता था कि एक
और दिन इतना अच्छा बीत गया।
तुम
हंसोगे तुम व्यथित नहीं होओगे। चारों तरफ सब--कुछ इतना हास्यास्पद है लेकिन तुम्हें
दिखाई नहीं पड़ता क्योंकि तुम इसका एक हिस्सा हो। तुम इससे इतना जुड़े हो कि देख नहीं
पाते। हास्यास्पदता को तब तक जाना नहीं जा सकता जब तक उससे एक दूरी, एक अनासक्ति
न बन जाए।
सोसान
कहता है :
जब
चीजों का गहन अर्थ समझा नहीं जाता,
तब
मन की सारभूत शांति अकारण ही विचलित हो जाती है।
और
तुम्हें कुछ प्राप्त नहीं होता, तुम कहीं पहुंचते नहीं तुम बस विचलित हो जाते हो।
तुम कहां पहुंचे हो? तुम्हें चिंता, तनाव
और अशांति से क्या उपलब्ध हुआ है? तुम क्या हो? तुम कहां जा रहे हो? कुछ भी प्राप्त नहीं होता। अगर कुछ
मिलता होता.. ऐसा प्रतीत हो सकता है कि अशांत रहने के कारण तुम्हें कुछ मिल रहा है।
तुम्हें कुछ भी नहीं मिल रहा। इसके विपरीत तुम खो रहे हो। तुम उन मूल्यवान घड़ियों को
जो आनंदपूर्ण हो सकती हैं उस मूल्यवान समय, ऊर्जा जीवन को,
जिसमें तुम खिल सकते थे गंवा रहे हो। और तुम खिल नहीं सकते।
लेकिन
तुम हमेशा सोचते हो--यही मूढ़तापूर्ण दृष्टिकोण है--तुम हमेशा सोचते हो, 'सारा संसार
ही गलत है, और अगर मैं सबको बदल पाऊं, तो
ही मैं प्रसन्न हो सकता हूं।' तुम कभी प्रसन्न नहीं हो पाओगे
तुम प्रसन्न हो ही नहीं सकते-- यही अप्रसन्नता का आधार है। एक बार जब तुम्हें यह बात
समझ में आ जाती है कि सारे संसार को बदलना तुम्हारा काम नहीं है, जो एकमात्र काम तुम कर सकते हो वह है स्वयं को बदलना।
एक
सूफी रहस्यदर्शी बायजीद ने अपनी आत्म--कथा में लिखा है जब मैं युवा था मैंने सोचा और
मैंने ईश्वर से कहा,
और मेरी सभी प्रार्थनाओं का यही आधार था, 'मुझे
शक्ति दो ताकि मैं सारे संसार को बदल सकूं।' मुझे हर कोई गलत
दिखाई देता था। मैं क्रांतिकारी था और धरती के चेहरे को बदल देना चाहता था।
जब
मैं थोड़ा और परिपक्व हुआ मैंने प्रार्थना करनी शुरू की 'यह बहुत अधिक
प्रतीत होता है। जीवन मेरे हाथों से फिसलता जा रहा है -- मेरा लगभग आधा जीवन बीत चुका
है और मैं एक भी व्यक्ति को नहीं बदल पाया और सारी दुनिया तो बहुत अधिक है। इसलिए मैंने
परमात्मा से कहा 'मेरा परिवार ही पर्याप्त है। मुझे अपने परिवार
को बदलने दो।'
'और जब मैं बूढ़ा हो गया' बायजीद कहता है 'मैंने पाया कि परिवार भी बहुत बड़ी बात है, और मैं कौन
होता हूं उन्हें बदलने वाला' तब मुझे स्पष्ट अनुभव हुआ कि अगर
मैं स्वयं को बदल सकूं तो पर्याप्त होगा बहुत होगा। मैंने परमात्मा से प्रार्थना की
'अब मैं ठीक जगह पहुंच गया हूं। कम से कम मुझे यह कर लेने दो,
मैं स्वयं को बदलना चाहता हूं।'
परमात्मा
ने उत्तर दिया 'अब कुछ समय नहीं बचा। तुमने शुरू में यह मांगा होता
तब संभावना थी।’
प्रत्येक
व्यक्ति अंत में यही मांगता है। जो प्रारंभ में मांग लेता है वह चीजों के स्वभाव को
समझ गया है। वह समझता है कि स्वयं को बदलना भी सरल नहीं है। तुम अपने भीतर एक पूरा
जगत हो; तुम अपने भीतर पूरा जगत लिए हुए हो। जो भी अस्तित्व में है, वह तुम्हारे भीतर विद्यमान है। तुम संपूर्ण ब्रह्मांड हो, कोई छोटी--मोटी चीज नहीं हो-- अगर यह परिवर्तन घटित हो जाए तो तुमने उपलब्ध
कर लिया। नहीं तो
जब
चीजों का गहन अर्थ समझा नहीं जाता,
तब
मन की सारभूत शांति अकारण ही विचलित हो जाती है।
महापथ
पूर्ण है विराट आकाश की भांति
जहां
न कुछ कम है न ही कुछ अधिक।
सच
तो यह है कि स्वीकार या अस्वीकार करने के अपने चुनाव के कारण,
हम
चीजों के वास्तविक स्वभाव को नहीं देखते।
'महापथ पूर्ण है विराट आकाश की भांति जहां न कुछ कम है, न ही कुछ ज्यादा।’ सभी कुछ वैसा ही है जैसा उसे होना
चाहिए; केवल तुम्हें ही उसमें व्यवस्थित होना है केवल तुम ही
अव्यवस्थित हो। सभी कुछ वैसा ही है जैसा उसे होना चाहिए...कुछ भी कम नहीं है और कुछ
भी अधिक नहीं है।
क्या
तुम सोच सकते हो कि इससे बेहतर जगत हो सकता है अगर तुम बुद्धिमान हो तो ऐसा नहीं सोच
सकते। अगर तुम मूर्ख हो तो तुम ऐसा सोच सकते हो। जैसा यह है, इससे बेहतर
कुछ नहीं हो सकता। केवल यही समस्या है कि तुम इसमें समायोजित नहीं हो। इसमें समायोजित
हो जाओ और ' महापथ परिपूर्ण है विराट आकाश की भांति जहां न कुछ
कम है, न ही कुछ अधिक।’ सभी कुछ संतुलित
है। केवल तुम ही समस्या हो; संसार समस्या जरा भी नहीं है।
एक
राजनैतिक चित्त और एक धार्मिक चित्त में यही अंतर है। और तुम सब राजनैतिक चित्त वाले
हो। राजनैतिक चित्त सोचता है, 'मैं बिलकुल ठीक हूं बाकी सब गलत है।’ इसलिए वह संसार को बदलना शुरू कर देता है--जैसे कि लेनिन, गांधी हिटलर माओ।
एक
राजनैतिक चित्त सोचता है सब--कुछ गलत है। अगर सभी कुछ ठीक हो जाए तो सुंदर होगा।
एक
धार्मिक चित्त सोचता है,
केवल मैं ही व्यवस्थित नहीं हूं अन्यथा हर चीज उतनी सही है जितनी वह
हो सकती है
विराट
आकाश के समान मार्ग परिपूर्ण है..'न कुछ कम है न ही कुछ ज्यादा।’
सभी कुछ वैसा ही है जैसा कि उसे होना चाहिए पूर्णत: संतुलित। केवल तुम
ही डांवाडोल हो। केवल तुम्हें ही ज्ञात नहीं कि कहां जाना है केवल तुम ही विभाजित हो।
जरा सोचो अगर मनुष्य धरती से लुप्त हो जाए, तो संसार बिलकुल ठीक
बिलकुल सुंदर होगा—वहां कोई समस्या नहीं होगी।
समस्याएं
मनुष्य के साथ आती हैं क्योंकि चीजों को देखने का मनुष्य का ढंग गलत हो सकता है-- क्योंकि
मनुष्य के पास चेतना है और वह चेतना समस्याएं खड़ी कर देती है। क्योंकि तुम सचेतन हो
सकते हो तुम चीजों को विभाजित कर सकते हो। क्योंकि तुम चेतन हो सकते हो, तुम कह सकते
हो 'यह उचित है और वह अनुचित है,' क्योंकि
तुम सचेतन हो सकते हो और कह सकते हो, 'यह कुरूप है और वह सुंदर
है।’ यह चेतना पर्याप्त नहीं है। अगर यह और विकसित हो जाती है
अगर यह एक वर्तुल बन जाती है, पूर्ण चैतन्य हो जाती है तब फिर
सब व्यवस्थित हो जाता है।
नीत्शे
ने कहा है और उसके पास प्रकट करने के लिए बहुत सी अंतर्दृष्टियां हैं उसने कहा है कि
मनुष्य एक सेतु है,
वह प्राणी नहीं है। वह सेतु है पार जाने के लिए। तुम पुल पर घर नहीं
बसा सकते। यही जीसस कहते हैं ' इससे गुजर जाओ, इस पर घर मत बनाओ, यह केवल सेतु है।’ नीत्शे का वचन है ' मनुष्य केवल दो शाश्वतताओं,
प्रकृति की शाश्वतता और परमात्मा की शाश्वतता के बीच सेतु है।’
प्रकृति
में सब ठीक है परमात्मा में सब ठीक है। मनुष्य एक सेतु है वह ठीक मध्य में है आधा प्रकृति
आधा परमात्मा-- यही कठिनाई है। विभाजित अतीत प्रकृति से संबंधित है; भविष्य परमात्मा
से संबंधित है। तनावग्रस्त एक रस्सी की भांति जो दो शाश्वतताओं में खिंचा हुआ है कभी
प्रकृति की ओर खिंच जाता है कभी परमात्मा की ओर। कभी इस ओर कभी उस ओर निरंतर डांवाडोल
अस्थिर।
कहीं
भी ठहर जाओ कोई भी स्थिति ठीक होगी। नांगर फिर से प्रकृति में व्यवस्थित हो जाने के
पक्ष में है। अगर तुम प्रकृति में स्थित हो जाते हो तुम देव--तुल्य हो जाते हो, तुम देवता
हो जाते हो। बुद्ध आगे बढ़ने और परमात्मा हो जाने के पक्ष में हैं और तब तुम व्यवस्थित
हो जाते हो। या तो पीछे लौट जाओ या आखिरी सीमा तक पहुंच जाओ लेकिन सेतु पर ही मत रुक
जाना।
और
यही बात समझने जैसी है--यह एक महत्वपूर्ण बुनियादी बातों में से एक है-- कि पीछे लौटो
या आगे बढ़ो तुम एक ही मंजिल पर पहुंचते हो। प्रश्न आगे या पीछे का नहीं है प्रश्न पुल
पर ही टिके न रहने का है।
लाओत्सु, च्यांगत्सु,
वे सभी प्रकृति में ताओ में लौट जाने के लिए कहते हैं। शंकर बुद्ध जीसस
सभी आगे बढ़ने की, पुल को पार कर भगवत्ता तक पहुंचने की बात करते
हैं। यह बात विरोधाभासी प्रतीत होती है लेकिन है नहीं-- क्योंकि दोनों किनारे एक समान
हैं क्योंकि यह सेतु एक वर्तुल है।
चाहे
तुम पीछे जाओ चाहे आगे जो भी चुनो तुम एक ही लक्ष्य पर, एक ही विश्राम
बिंदु पर पहुंचते हो। अगर तुम्हें लगता है कि होने देना तुम्हारे लिए संभव नहीं,
तब पतंजलि का अनुसरण करो-- प्रयास संकल्प संघर्ष अनुसंधान-- तब तुम आगे
बढ़ोगे। अगर तुम्हें लगता है कि तुम विपरीत प्रभाव के नियम को समझ सकते हो न केवल समझ
सकते हो, बल्कि इसे अपने भीतर घटित भी होने दे सकते हो,
तब सोसान, नांगर का अनुसरण करो पीछे लौट चलो। लेकिन
वहीं मत रुके रहना, जहां तुम हो सेतु पर तुम बंटे रहोगे। तुम
वहां विश्रामपूर्ण नहीं हो सकते, तुम वहां अपना घर नहीं बना सकते।
सेतु घर बनाने की जगह नहीं है। वह लक्ष्य नहीं है, वह केवल गुजर
जाने के लिए है।
नीत्शे
कहता है? मनुष्य अतिक्रमण करने के लिए है मनुष्य एक अस्तित्ववान प्राणी नहीं है। पशुओं
का अस्तित्व है परमात्मा का अस्तित्व है, आदमी के पास अभी अस्तित्व
नहीं है। वह केवल संक्रमण की अवस्था में है। वह गुजर जाने की अवस्था है, एक पूर्णता से दूसरी पूर्णता में जाने का मार्ग है। इसके बीच वह विभाजित है।
सोसान
कहता है पीछे लौट जाओ,
और अगर तुम मुझसे पूछो, तो मैं कहूंगा,
पतंजलि से सोसान अधिक सरल है। अंत में वही होगा। बहुत प्रयास तुम्हें
अप्रयास में ले जाएगा, अप्रयास भी तुम्हें निष्क्रियता में ले
जाएगा--क्योंकि प्रयास कभी लक्ष्य नहीं हो सकता, प्रयास साधन
हो सकता है। तुम सदा--सदा के लिए प्रयत्न करते हुए नहीं रह सकते। तुम निष्कियता की
स्थिति तक पहुंचने के लिए ही प्रयास करते हो।
पतंजलि
के साथ प्रयास ही मार्ग है और अप्रयास गंतव्य है प्रयास साधन है अप्रयास साध्य है।
सोसान के साथ अप्रयास ही साधन है अप्रयास ही साध्य है। सोसान के साथ पहला कदम ही अंतिम
कदम है; सोसान के साथ साधन और साध्य में कोई अंतर नहीं है। लेकिन पतंजलि के साथ है--
तुम्हें कई कदम उठाने पड़ते हैं।
इसलिए
पतंजलि के साथ बुद्धत्व धीरे-- धीरे घटित होगा। सोसान के साथ बुद्धत्व तात्कालिक होगा, इसी क्षण यह
अचानक घटित हो सकता है। अगर तुम सोसान को समझ सको, तो उससे सुंदर
कुछ और नहीं है। लेकिन अगर तुम नहीं समझ सकते तो पतंजलि ही एक मात्र उपाय है।
महापथ
पूर्ण है विराट आकाश की भांति
जहां
न कुछ कम है न ही कुछ अधिक।
सच
तो यह है कि स्वीकार या अस्वीकार करने के अपने चुनाव के कारण
हम
चीजों के वास्तविक स्वभाव को नहीं देखते।
क्योंकि
हम स्वीकार करते हैं या अस्वीकार करते हैं इसीलिए हम वास्तविक स्वभाव को देख नहीं पाते।
फिर तुम अपने मतों,
विचारों, पूर्वाग्रहों को बीच में ले आते हो और
तुम सब चीजों को रंग चढ़ा देते हो। अन्यथा सब--कुछ पूर्ण है। तुम्हें सिर्फ देखना है।
शुद्ध। धारणाओं से रहित दृष्टि, अस्वीकार से रहित दृष्टि। स्वीकार
भाव... एक शुद्ध दृष्टि जैसे कि तुम्हारी आंखों के पीछे कोई मन न हो, जैसे कि तुम्हारी आंखें मात्र दर्पण हों वे नहीं कहती सुंदर कुरूप। दर्पण सिर्फ
उसे प्रतिबिंबित करता है जो उसके समक्ष आ जाता है-- उसका अपना कोई निर्णय नहीं है।
अगर
तुम्हारी आंखों के पीछे मन न हो, तो वे केवल प्रतिबिंबित करती हैं। वे केवल देखती
हैं। वे नहीं कहती ' यह अच्छा है और वह बुरा है ' वे निंदा नहीं करती वे प्रशंसा नहीं करती। तब सब उतना स्पष्ट होता है जितना
हो सकता है, कुछ भी करने की जरूरत नहीं। यह स्पष्टता,
यह मतों और पूर्वाग्रहों से मुक्त आंखें और तुम संबुद्ध हो गए। सुलझाने
के लिए तब कोई समस्या नहीं है। तब जीवन कोई पहेली नहीं रहता। यह जीने के लिए,
मजा लेने के लिए एक रहस्य है। नाचने के लिए एक नृत्य है। फिर इसके साथ
तुम्हारा कोई द्वंद नहीं है, फिर तुम यहां कुछ भी नहीं कर रहे।
तुम बस हर्षित हो रहे हो, तब तुम आनंदमग्न हो।
स्वर्ग
का यही अर्थ है जहां तुम से कुछ भी करने की अपेक्षा नहीं की जाती जहां तुम आनंद को
अर्जित करने का प्रयत्न नहीं करते-- जहां आनंद स्वाभाविक है जहां वह तुम पर बरसता है।
वह यहीं और अभी घटित हो सकता है। वह सोसान को घटित हुआ है, वह मुझे घटित
हुआ है वह तुम्हें घटित हो सकता है। अगर वह एक को घट सकता है वह सबको घट सकता है।
न
तो बाहरी वस्तुओं की उलझनों में जीओ
न
ही आंतरिक शून्यता की अनुभूति में।
कृत्य
की कामना मत करो और यह जान कर कि सब—
कुछ
एकात्म है?
शांत हो जाओ
और
ऐसे भ्रांतिपूर्ण विचार स्वत: ही विदा हो जाएंगे।
बाहर
को भीतर से विभाजित मत करो। सोसान कहता है, ' मत कहो, मेरी
रुचि बाह्य में है।’ इस संसार में दो तरह के लोग हैं और दोनों
ही दुखी होंगे। कार्ल गुस्ताव जुंग मानव--जाति को दो भागों में बांटता है। एक को वह
बहिर्मुखी कहता है और दूसरे को अंतर्मुखी। बहिर्मुखी व्यक्ति ' बाह्य ' में रुचि रखते हैं। वे क्रियाशील व्यक्ति हैं
सांसारिक हैं-- धन पद प्रतिष्ठा सत्ता के पीछे भागने वाले लोग हैं। वे राजनीतिज्ञ बन
जाते हैं वे समाज--सुधारक बन जाते हैं, वे महान नेता बन जाते
हैं बहुत बड़े उद्योगपति हो जाते हैं। उनकी रुचि वस्तुओं में बाह्य जगत में है उनकी
अपने आप में कोई रुचि नहीं है।
दूसरे
हैं अंतर्मुखी। वे अधिक सक्रिय लोग नहीं हैं। अगर उन्हें कुछ करना ही पड़े तो कर लेंगे, वरना करने
में उनका कोई रुझान नहीं है। वे आंखें बंद किए पड़े रहना पसंद करेंगे। वे कवि रहस्यदर्शी,
ध्यानी, चिंतक बन जाते हैं। उनकी संसार में कोई
रुचि नहीं वे केवल स्वयं में रुचि रखते हैं। वे अपनी आंखें बंद कर लेते हैं और अपनी
ऊर्जाओं को अंतर्मुखी कर लेते हैं। लेकिन सोसान कहता है दोनों ही गलत हैं क्योंकि वे
विभाजित हैं। वह व्यक्ति जो बहिर्मुखी है हमेशा अनुभव करेगा कि भीतर कुछ कमी है। भले
ही वह बहुत शक्तिशाली हो जाए, भीतर गहरे में यही अनुभव करता है
कि वह असहाय है दुर्बल है। बाहर वह कितना ही धन इकट्ठा कर ले भीतर वह निर्धन अनुभव
करेगा।
संसार में वह एक सफल व्यक्ति हो सकता है अगर तुम पता करो तो भीतर गहरे
में वह जानता है कि वह एक असफल व्यक्ति है। वह असंतुलित है उसने बाह्य पर बहुत अधिक
ध्यान दिया है। वह एक अति पर चला गया और जब अति होती है तो एक असंतुलन हो जाता है।
और
वह व्यक्ति जो एक कवि एक चिंतक एक रहस्यदर्शी बना रहा, जो सदा अपने
में ही लीन रहा वह हमेशा एक कमी को अनुभव करेगा, क्योंकि बाहरी
दुनिया में वह धनी नहीं है। और बाहरी दुनिया भी सुंदर है। वहां फूल हैं और तारे हैं
और वहां सूर्योदय है और नदियां बहती हैं और जलप्रपात गाते हैं। वह निर्धन है क्योंकि
वह अनावश्यक रूप से पूरी सृष्टि को इनकार करता रहा है। वह अपनी स्वयं की गुफा में ही
जीता रहा है। जब कि वह बाहर आ सकता था और कई रहस्यों को लाखों रहस्यों
को जान सकता था। वह अपने में ही बंद रहा, बंद व्यक्ति
बना रहा कारावास में रहा। ये दो अतियां हैं।
अतियों
से बचो। बाहर और भीतर में भेद मत करो, और जुंग द्वारा बताए गए बहिर्मुखी या
अंतर्मुखी व्यक्ति मत बनो।
सोसान
कहता है एक प्रवाह एक संतुलन हो जाओ। बाहर और भीतर दाईं और बाईं टांग की भांति हैं।
एक को क्यों चुनना?
अगर तुम एक को चुनते हो तो सब गति बंद हो जाएगी। वे दो आंखों के समान
हैं अगर तुम एक को चुनते हो तो देख तो पाओगे, परंतु तुम्हारी
दृष्टि अब तीन आयामी नहीं रहती, गहराई खो गई है। तुम्हारे दो
कान हैं तुम एक का इस्तेमाल कर सकते हो, तुम इस विचार से ग्रस्त
हो सकते हो कि तुम बाएं कान के प्रकार वाले हो या दाएं कान के प्रकार वाले हो लेकिन
तब तुम चूक जाते हो। तब तुम आधी दुनिया के प्रति बंद हो जाते हो।
अंतर
और बाह्य दो आंखें दो कान दो टांगें हैं-- चुनाव क्यों क्रिया जाए? क्यों न चुनाव--रहित
होकर दोनों का उपयोग क्रिया जाए? और विभाजन क्यों क्रिया जाए?
क्योंकि तुम एक हो। बाईं टांग और दाई टांग केवल दो दिखाई देती हैं। दोनों
के भीतर तुम बहते हों--वही ऊर्जा वही अस्तित्व। तुम अपनी दोनों आंखों से देखते हो।
अंतर और बाह्य का उपयोग क्यों न करें और उनमें एक संतुलन बना लें? अतियों में गति क्यों करना?
स्मरण
रहे केवल व्यक्ति ही अतियों में नहीं गए हैं समाज भी अतियों में चले गए हैं। पूरब अंतर्मुखी
बना रहा इसीलिए निर्धन है। इसका उत्तरदायी कौन है? लाखों लोग रोज मर रहे हैं। और
जो जिंदा हैं वे भी जीवित नहीं हैं, मूरख से अधमरे हैं। कौन इसके
लिए जिम्मेवार है? -- अंतर्मुखी लोग हैं संत--महात्मा कवि जिन्होंने
अंतर की बहुत चर्चा की और बाह्य की निंदा की। जिन्होंने कहा, ' बाह्य हमारे लिए नहीं है जिन्होंने कहा, ' बाह्य गलत
है;' जिन्होंने कहा ' बाह्य जगत निंदनीय
है। अंतस में वास करो।’ उन्होंने बाह्य की तुलना में आंतरिक को
ऊंचा उठा दिया और संतुलन खो गया।
पूरब
ने अंतर्मुखी निर्मित किए लेकिन बाह्य सौंदर्य खो गया। तुम सारे पूरब में गंदगी देख
सकते हो। मैं जानता हूं कि एक पाश्चात्य व्यक्ति के लिए भारत आना और इसकी गंदगी में
जीना कितना कठिन है। यह गंदा है। कौन जिम्मेवार है? इतनी गंदगी क्यों है?
इतनी बीमारी क्यों है? इतनी अस्वस्थता,
इतनी भुखमरी क्यों है? क्योंकि बाह्य की उपेक्षा
की गई।
हमारी
अभिरुचि अंतस को पवित्र करने में थी इसलिए बाह्य गंदगी की चिंता क्यों की जाए? इसे रहने दिया
जाए। यह पदार्थ है, इसके विषय में चिंता की आवश्यकता नहीं है।
हम तो आंतरिक शुद्धता में रुचि रखते हैं। शरीर की चिंता क्यों करें? दूसरों की चिंता क्यों करें?
परिणाम
यह है कि पूरब एक प्रकार का असंतुलन है और पश्चिम दूसरे प्रकार का
वे बहिर्मुखी हैं। उन्होंने इतनी धन--दौलत पैदा कर ली है, जितनी पहले कभी न थी इतनी बाह्य स्वच्छता, इतने बढ़िया
कपड़े-- सम्राटों को भी ईर्ष्या हो सकती है-- बेहतर भोजन, बेहतर
स्वच्छ परिस्थितियां, सुंदर वातावरण, सब--कुछ--
लेकिन बहिर्मुखी। और अंतर अस्तित्व निर्धन है अंतर अस्तित्व रिक्त है।
इसलिए
पूरब पश्चिम को अंतःकरण की शिक्षा देता रहता है पूरब के गुरु पश्चिम को सिखाते चले
जाते हैं कि ध्यान कैसे करें और पाश्चात्य गुरु पूरब को सिखाते चले जाते हैं कि किस
तरह बेहतर इंजीनियर,
बेहतर इलेक्ट्रिशियन, बेहतर नगरनियोजक बनें,
कैसे अधिक धन--संपत्ति पैदा करें किस प्रकार टेक्वालीजी में विकास करें
किस तरह जीवन स्तर को ऊंचा करें। इसलिए अगर तुम्हें चिकित्सा विज्ञान सीखना है,
तो पश्चिम जाना पड़ेगा अगर ध्यान सीखना है तो पूरब आना पड़ेगा।
लेकिन
दोनों ही अतियां हैं और दोनों ही खतरनाक हैं। अतियां सदा हानिकर होती हैं। खतरा यह
है कि चक्र घूम सकता है पूरब भौतिकवादी बन सकता है और पश्चिम आध्यात्मिक हो सकता है।
इस बात की बहुत संभावना है यह होने ही वाला है क्योंकि अब पूरब साम्यवादी हो रहा है--
जो कि भौतिकवाद की अति है-- और पश्चिम अत्यधिक आध्यात्मिक हो रहा है। खतरा है हो सकता
है चक्र घूम जाए,
क्योंकि तुम बाह्य जगत से ऊब गए हो तुम अंतर्मुखी होना चाहते हो तुम्हें
अंतर्यात्रा की आवश्यकता है।
हो
सकता है तुम अंतर्यात्रा पर निकल जाओ। हिप्पियों को देखो, वे पश्चिम
का भविष्य हैं। वे टेस्नालॉजी के विरुद्ध हैं। उसी प्रकार की अंतर्मुखी किस्म के जिसने
पूरब का सर्वनाश कर दिया है। जो पूरब के लिए अनर्थकारी सिद्ध हुई। वे टेक्वालीजी के
विरुद्ध हैं, वे बाहरी स्वच्छता के विरुद्ध हैं। हिप्पियों से
अधिक गंदे लोग तुम्हें कहीं नहीं मिल सकते वे स्नान नहीं करेंगे वे कपड़े नहीं बदलेंगे।
वे कहते हैं ये बाहरी वस्तुएं हैं—वे अंतर्यात्रा पर हैं। वे ध्यान में रुचि रखते हैं
लेकिन स्वच्छता उन्हें पसंद नहीं। नहीं यह वही मुड़ता है वही अति वही विरोध। यह बात
ठीक लगती है क्योंकि जब तुम एक अति पर जी लेते हो तो मन कहता है ' अब दूसरी ओर चलो क्योंकि इससे कोई संतुष्टि नहीं हुई। यह अति विफल हो गई इसलिए
विपरीत की ओर बढ़ो।’ लेकिन स्मरण रहे एक अति से दूसरी अति पर जाना
आसान है लेकिन अतियां कभी परितुष्टि नहीं देती। पूरब को देखो अंतरिक अति भी संतोषजनक
सिद्ध नहीं हुई, यह भी विफल हो गई। यह बाहर और भीतर का सवाल नहीं
है, यह संतुलन बनाने का सवाल है। संतुलन सफल होता है असंतुलन
असफल हो जाता है।
और
बाहर और भीतर दो नहीं हैं। बाहर कहां समाप्त होता है और भीतर कहां प्रारंभ होता है? क्या तुम बता
सकते हो क्या तुम सीमा--रेखा तय कर सकते हो? क्या तुम कह सकते
हो ' यहां बाहर समाप्त होता है और भीतर शुरू होता है?'
कहां? वे विभाजित नहीं हैं। वे मन के विभाजन हैं।
भीतर और बाहर एक हैं बाहरी सिर्फ भीतर का विस्तृत रूप है भीतर सिर्फ अंदर आता हुआ बाहर
है वे एक हैं-- एक ही अस्तित्व के. दो हाथ, दो पांव दो आंखें।
क्या
बाह्य परमात्मा के बाहर है?
ऐसा हो नहीं सकता क्योंकि कुछ भी परमात्मा के लिए बाहर नहीं हो सकता
कुछ भी उसके बाहर नहीं हो सकता है। पूर्ण में बाह्य को और पूर्ण में अंतर को सम्मिलित
होना चाहिए। पूर्ण के लिए कुछ बाह्य और भीतर जैसा कुछ भी नहीं है। यही सोसान कहता है।
वह कहता है
न
तो बाहरी वस्तुओं की उलझनों में जीओ
न
ही आंतरिक शून्यता की अनयति में।
कृत्य
की कामना मत करो और यह जान कर कि सब—
कुछ
एकात्म है?
शांत हो जाओ
और
ऐसे भ्रांतिपूर्ण विचार स्वत: ही विदा हो जाएंगे।
लोग
मेरे पास आते हैं-- और मन इतना चालाक है-- वे मेरे पास आते हैं और कहते हैं, हम संन्यास
तो लेना चाहते हैं लेकिन हम भीतरी संन्यास चाहते हैं बाहरी नहीं। हम कपड़े नहीं बदलेंगे।
और वे कहते हैं बाहरी क्यों? इसे सिर्फ भीतरी होने दें। वे नहीं
जानते कि वे क्या कह रहे हैं। भीतर कहां से आरंभ होता है?
जब
तुम भोजन खाते हो तब तुम कभी नहीं कहते इसे आंतरिक होने दो। जब तुम्हें प्यास लगती
है और तुम पानी पीते हो तुम कभी नहीं कहते इसे आंतरिक होने दो। प्यास आंतरिक है तो
बाह्य जल क्यों?
लेकिन कहां पानी खत्म होता है और कहां प्यास शुरू होती है? --
क्योंकि जब तुम पानी पीते हो प्यास मिट जाती है तो इसका यह अर्थ हुआ
कि कहीं मिलन होता है। कहीं बाह्य पानी अंतरिक प्यास से मिलता है नहीं तो यह कैसे मिट
जाती है?
तुम्हें
भूख लगती है और तुम भोजन लेते हो। भोजन बाहरी है, भूख भीतरी है, भीतरी भूख के लिए बाहरी भोजन क्यों खाएं? क्यों मूर्ख
बनें? कुछ भीतरी लो। लेकिन कोई भीतरी भोजन नहीं है। भूख भीतरी
है। भोजन बाहरी है लेकिन भोजन कहीं तो भीतर पहुंचता है। वह क्षेत्र बदल लेता है वह
तुम्हारा रक्त बन जाता है वह तुम्हारी हड्डियां बन जाता है। यह वह पदार्थ बन जाता है
जिससे तुम्हारा मन बना है वह तुम्हारी विचार-- प्रक्रिया बन जाता है।
भोजन
तुम्हारा विचार बन जाता। और अगर भोजन तुम्हारा विचार बन जाता है तो स्मरण रहे भोजन
तुम्हारा अ--विचार भी बन जाएगा। भोजन तुम्हारा मन बन जाता है भोजन तुम्हारा ध्यान बन
जाता है। क्या बिना मन के तुम ध्यान कर सकते हो? बिना मन के तुम कैसे अ--मन हो
जाओगे? बिना विचारणा के कैसे तुम विचार को गिरा सकोगे?
मन अति सूक्ष्म भोजन है अ--मन सूक्ष्मतम भोजन है-- लेकिन कोई विभाजन
नहीं है।
तो
जब तुम संन्यास लेना चाहते हो तब रंग भी सीमा का अतिक्रमण करता है। यह बाहर से शुरू
होता है और धीरे-- धीरे भीतर गहरे में प्रवेश करता है। वह तुम्हारे पूरे प्राणों को
रंग देता है कपड़े भी तुम्हारी आत्मा को स्पर्श करते हैं। ऐसा होना ही चाहिए, क्योंकि बाहर
और भीतर दो नहीं हैं वे एक हैं। एक सीधा सा कृत्य-- यह बाहरी दिखता है लेकिन भीतर तक
जाता है, और वह वहीं से आता है। स्मरण रखो खेल मत खेलो और अस्तित्व
को विभाजित मत करो। यह अविभाजित है।
जब
तुम किसी व्यक्ति को प्रेम करते हो तो उसके शरीर का आलिंगन करना चाहते हो। तुम नहीं
कहोगे ' मैं तुम्हें प्रेम करता हूं लेकिन मैं तुम्हें तरिक प्रेम करता हूं।’
यहां एक मोटी लड़की थी बहुत ही मोटी उसने मुझसे कहा ' मेरा एक ही प्रेमी है और वह भी कहता है, मैं केवल तुम्हारी
आत्मा को प्रेम करता हूं तुम्हारे शरीर को नहीं।’
उसको
बहुत चोट पहुंची उसे बहुत बुरा लगा, क्योंकि जब तुम किसी से कहो,
' मैं केवल तुम्हारी आत्मा से प्रेम करता हूं तुम्हारे शरीर को नहीं,
' इसका क्या अर्थ हुआ? जब तुम किसी से प्रेम करते
हो, तुम पूरे व्यक्ति से प्रेम करते हो तुम विभाजन नहीं कर सकते।
यह चालाकी है धोखा है। वह लड़का वास्तव में उस लड़की से प्रेम ही नहीं करता, वह एक खेल खेल रहा है। वह कहना चाहता है, ' मैं तुमसे
प्रेम नहीं करता, ' लेकिन वह ऐसा कह नहीं सकता।
अगर
तुम संन्यास नहीं लेना चाहते मत लो। लेकिन खेल मत खेलो चालाक मत बनो होशियार बनने की
कोशिश मत करो। मत कहो '
यह बाहरी है और मुझे कुछ आंतरिक चाहिए।’
अस्तित्व
में बाह्य आंतरिक से मिलता है, आंतरिक बाह्य से मिलता है; वे एक ही अस्तित्व के दो पंख हैं। और कोई पक्षी एक पंख से उड़ नहीं सकता,
और कोई प्राणी एक पंख से विकसित नहीं हो सकता--तुम्हें दोनों चाहिए।
परमात्मा की इस जगत को जितनी आवश्यकता है उतनी ही आवश्यकता परमात्मा को इस जगत की है।
परमात्मा के बिना जगत का अस्तित्व नहीं हो सकता। जगत के बिना परमात्मा का अस्तित्व
भी नहीं हो सकता।
एक
रबाई मुझे बहुत प्रिय है,
उसका नाम बालसेम है, एक यहूदी रहस्यदर्शी,
कुछ संबुद्ध यहूदियों में एक। वह अपनी प्रत्येक प्रार्थना में कहता था
' स्मरण रखो, जितनी मुझे तुम्हारी आवश्यकता
है उतनी ही तुम्हें मेरी आवश्यकता है। बालसेम के बिना तुम कहां होओगे?' वह परमात्मा से कहता था ' मुझे तुम्हारी जरूरत है तुम्हें
मेरी जरूरत है। बिना बालसेम के तुम कहां होओगे? कौन प्रार्थना
करेगा?'
इसे
स्मरण रखो, वह कुछ जानता है वह सही है। आंतरिक को बाह्य चाहिए, क्योंकि
बाह्य और कुछ नहीं सिर्फ आंतरिक का विस्तृत रूप है बाह्य को आंतरिक की जरूरत है क्योंकि
आंतरिक और कुछ नहीं परिधि का केंद्र है।
क्या
बिना परिधि के केंद्र हो सकता है? क्या बिना केंद्र के परिधि हो सकती है। यह असंभव
है। परिधि के बिना केंद्र कैसे हो सकता है? अगर तुम्हारा केंद्र
है अगर तुम उसे केंद्र कहते हो तो तत्क्षण परिधि का समावेश हो जाता है। बिना केंद्र
के तुम्हारे पास परिधि कैसे हो सकती है। वह भले ही दिखाई न दे लेकिन वह है अन्यथा परिधि
नहीं हो सकती। फिर अगर तुम उचित ढंग से गहराई से देखते हो तो परिधि और कुछ नहीं,
केंद्र का ही विस्तार है और केंद्र और कुछ नहीं बीज में परिधि है सघन
संकेंद्रित, सारभूत रूप में परिधि है।
न
तो बाहरी वस्तुओं की उलझनों में जीओ
न
ही आंतरिक शून्यता की अनुभूति में।
कृत्य
की कामना मत करो और यह जान कर कि सब—
कुछ
एकात्म है शांत हो जाओ
और
ऐसे भ्रांतिपूर्ण विचार स्वत: ही विदा हो जाएंगे।
जब
तुम अक्रिया को पाने के लिए कर्म को रोकने का प्रयास करते हो
तो
तुम्हारा वही प्रयास तुम्हें क्रिया से भर देता है।
यही है विपरीत परिणाम
का नियम।
जब तुम अक्रिया को पाने के
लिए कर्म को रोकने का प्रयास करते हो
तो तुम्हारा वही प्रयास तुम्हें क्रिया से भर देता है।
जब
तक तुम अतियों में जीते हो,
तब
तक तुम कभी एकात्मकता को नहीं जान पाओगे।
जो
मध्य में नहीं जीते,
वे क्रिया और अक्रिया, स्वीकार और
इनकार
दोनों में असफल हो जाते हैं।
निष्क्रिय
होने की चेष्टा मत करो क्योंकि चेष्टा क्रिया से जुड़ी है। कोई भी निष्क्रिय होने की
चेष्टा नहीं कर सकता। तब क्या करें? पूर्ण रूप से सक्रिय हो रहो और तब निष्क्रियता
आती है। वह छाया की भांति पीछे चली आती है उसे आना ही पड़ता है। पूर्ण रूप से विचार
करो और तब निर्विचार आता है। तुम विचारों को छोड़ नहीं सकते। जो अधूरा है उसे छोड़ा नहीं
जा सकता केवल पूरे को छोड़ा जा सकता है। वस्तुत: जो पूरा हो जाता है, वह स्वयं ही स्वत: गिर जाता है।
सक्रिय
रहो। सक्रियता स्वयं ऐसी स्थिति निर्मित कर लेती है जिसमें निष्क्रियता घटित होती है।
अगर तुम दिन भर सक्रिय रहे हो, तुम जो कुछ भी कर रहे थे उसमें समग्रता से सक्रिय
रहे हो बगीचे में गड़ा खोदना, या फैक्ट्री या दुकान में काम करना,
या स्कूल में पढ़ाना जो भी कर रहे हो समग्रता से करो और जब शाम होती है
और सूर्यास्त हो जाता है तुम पर निष्क्रियता उतरने लगेगी। यह निष्कियता सुंदर है वह
सक्रियता के समान ही सुंदर है। चुनाव के लिए कुछ नहीं है। दोनों सुंदर हैं दोनों की
आवश्यकता है।
निष्किय
होने का प्रयास मत करो। तुम निष्किय होने का प्रयास कैसे कर सकते हो? तुम बुद्ध
की भांति बैठ सकते हो लेकिन वह निष्कियता ऊपर--ऊपर ही होगी। तुम्हारे भीतर गहरे में
हलचल ही होगी; तुम भीतर उबल रहे होओगे ज्वालामुखी की तरह तुम
किसी भी क्षण फूट सकते हो। तुम शरीर को जबरदस्ती शांत बिठा सकते हो – अपने होने के
साथ कैसे बलप्रयोग करोगे? तुम्हारा होना सतत जारी रहता है। इसीलिए
तुम विचार करना बंद नहीं कर सकते। लोग झाझेन में वर्षों बीस--पच्चीस वर्ष मन को शांत
करने के लिए छह--छह घंटे लगातार बैठते हैं और मन काम करता रहता है करता रहता है करता
रहता है।
इसीलिए
मेरा जोर सक्रिय ध्यान विधियों पर है। वह संतुलन है। पहले, पूरी तरह सक्रिय
हो जाओ ताकि निष्कियता अपने आप उसके पीछे आ सके। जब तुम सक्रिय हो जाते हो और सारी
ऊर्जा गतिमान हो जाती है तब तुम विश्राम करना चाहोगे। अगर तुम सक्रिय ही नहीं हुए? विश्राम कैसे अनुसरण करेगा?
तर्क
बिलकुल भिन्न बात कहेगा। तर्क कहेगा, दिन भर विश्राम का अभ्यास करो,
ताकि रात को अच्छी तरह विश्राम कर सको।
मुल्ला
नसरुद्दीन अपने डॉक्टर के पास गया। खांसते हुए उसने प्रवेश क्रिया। डॉक्टर ने कहा अभी
भी खांसी आ रही है?
लेकिन पहले से ठीक लगती है।
नसरुद्दीन
ने कहा ऐसा होगा ही क्योंकि मैं रात भर इसका अभ्यास करता रहा। अगर तुम सारा दिन विश्राम
का अभ्यास करते हो तो रात को नींद की आशा मत करो। विश्राम का अभ्यास और अधिक विश्राम
नहीं लाएगा; विश्राम का अभ्यास क्रियाशीलता लाएगा। तुम बिस्तर पर लेटे--लेटे सोचोगे इधर--उधर
करवटें लोगे। तुम सारी रात कसरत करते रहोगे। अगर तुम शरीर के साथ जबरदस्ती करते हो,
तो मन को उसका स्थान लेना पड़ेगा। तब मन दुखस्वप्नों में चला जाएगा।
नहीं
बुद्धिमान व्यक्ति संतुलन बनाता है और वह जानता है कि जीवन स्वयं संतुलन बनाता है।
अगर तुम एक को करते हो--लेकिन समग्रता से -- ताकि कुछ न बचे पूरी ऊर्जा ने सक्रियता
का आनंद लिया है-- फिर विश्राम स्वत: आता है तब विश्राम अनुगमन करता है। और जब तुम
विश्राम का मजा लेते हो तब सक्रियता आ जाती है क्योंकि जब तुम विश्राम करते हो, तुमको ऊर्जा
प्राप्त होती है तुम फिर से नये हो जाते हो। तब सारा शरीर ऊर्जा से भर जाता है ऊर्जा
की बाढ़ सी आ जाती है। अब तुम्हें फिर इसे बांटना पड़ता है और कर्म में इसे प्रयुक्त
करना पड़ता है। फिर तुम भर दिए जाओगे।
यह
बिलकुल बादलों की भांति है उन्हें बरसना ही पड़ता है वे फिर भर जाएंगे-- सागर है उन्हें
भरने के लिए। उन्हें बरसना ही होगा वे फिर भर जाएंगे। नदी को सागर में अपने आपको उड़ेलना
ही पड़ेगा वह फिर भर जाएगी। जितना वह उंडेलेगी उतना ही वह भर जाएगी।
सोसान
कहता है पूर्ण रूप से सक्रिय हो जाओ, तभी तुम पूरी तरह निष्किय हो पाओगे।
तब दोनों अतियां मिलती हैं और एक सूक्ष्म संतुलन उपलब्ध होता है। वह सूक्ष्म संतुलन
सम्बकत्व है वह सूक्ष्म संतुलन शांति है। वह सूक्ष्म संतुलन श्रेष्ठतम संभव शांति है--शिखर
पराकाष्ठा चरमोत्कर्ष क्योंकि जब दो चीजों में संतुलन होता है-- बाह्य और अंतस सक्रियता
और निष्कियता--सहसा तुम दोनों का अतिक्रमण कर जाते हो। जब वे दोनों संतुलित हो जाते
हैं तुम न यह होते हो न वह। अचानक तुम तीसरी ही शक्ति हो जाते हो-- एक दर्शक एक साक्षी।
लेकिन तुम इसके लिए प्रयास नहीं कर सकते।
जब तुम अक्रिया को पाने के
लिए कर्म को रोकने का प्रयास करते हो,
तो तुम्हारा वही प्रयास तुम्हें क्रिया से भर देता है।
जब
तक तुम अतियों में जीते हो, तब तक तुम कभी एकात्मकता
को
नहीं जान पाओगे।
अतियों
का अतिक्रमण करो। सांसारिक व्यक्ति मत बनो और तथाकथित आध्यात्मिक व्यक्ति भी मत बनो।
आस्तिक मत बनो,
नास्तिक भी मत बनो। बाह्य की संपत्ति के लिए पागल मत होओ और तरिक शांति
से ग्रसित मत होओ। संतुलन--संतुलन ही आदर्श वाक्य होना चाहिए।
जो
मध्य में नहीं जीते,
वे क्रिया और अक्रिया,
स्वीकार
और इनकार दोनों में असफल हो जाते हैं।
और
यही परिणाम है जो अतियों का चुनाव करते हैं, वे दोनों में असफल हो जाते हैं,
क्योंकि अगर तुम सक्रिय, सक्रिय और सक्रिय ही होते
जाओ और निष्कियता को नहीं आने देते फिर तुम ऊर्जा कहां से प्राप्त करोगे? तुम खोखले, नपुंसक शक्तिहीन, निर्बल
हो जाओगे।
संसार
में तथाकथित सफल व्यक्तियों के साथ यही होता है राजनेता, राष्ट्रपति
प्रधानमंत्री, जब तक वे सफल होते हैं, वे
अपना सब--कुछ गंवा चुके होते हैं। वे अब नहीं बचते। सफलता होती है लेकिन इस सौदे में
उन्होंने स्वयं को बेच डाला है, वे बचे ही नहीं। और वही उनके
साथ होता है जिन्होंने अंतस को चुना है, अंतर्मुखी लोग जब तक
वे भीतर पहुंचते हैं, उन्हें चारों तरफ केवल अशांति ही मिलती
है।
अगर
तुम एक अति को चुनते हो तुम दोनों में विफल हो जाओगे। अगर तुम चुनाव नहीं करते तुम
दोनों में सफल हो जाओगे। संतुलन सफल होता है अतियां असफल हो जाती हैं। इस संतुलन को
बुद्ध ने दि मिडिल पाथ मझिम निकाय कहा है कनफ्युशियस ने दि गोल्डन मीन मध्यम मार्ग
कहा है।
बस
मध्य में हो जाओ। यही श्रेष्ठतम कला और कौशल है-- केवल मध्य में हो जाना चुनाव न करना, न बाएं जाना,
न दाएं जाना। न वामपंथी बनो और न दक्षिणपंथी-- बिलकुल ठीक मध्य में हो
जाओ।
अगर
तुम ठीक मध्य में हो,
तो तुम संसार से पार हो गए। तब तुम पुरुष नहीं रहे, स्त्री नहीं रहे। यही जीसस कहते हैं। फिर तुम भौतिकवादी भी नहीं रहे आध्यात्मिक
भी नहीं रहे। फिर तुम जीवित भी नहीं हो, फिर तुम मरोगे भी नहीं।
न
यह, न वह-- पुल पार कर लिया गया है। तुम मंजिल पर पहुंच गए। और मंजिल कहीं भविष्य
में नहीं है, वह यहीं दो अतियों के मध्य में है। न प्रेम करो
न घृणा। सदा स्मरण रखो जब भी दो अतियां सामने हों चुनाव मत करो। केवल दोनों के बीच
संतुलन पाने की चेष्टा करो। प्रारंभ में, पुरानी आदत के कारण
यह कठिन होगा।
ऐसा
हुआ मुल्ला नसरुद्दीन बीमार हो गया और उसे अस्पताल में भरती करवा दिया गया। कुछ ही
मिनटों के बाद किसी ने द्वार पर दस्तक दी। और एक फुर्तीली सी ठिगनी महिला ने प्रवेश
क्रिया।
उसने
कहा मैं तुम्हारी डॉक्टर हूं। कपड़े उतारो मैं तुम्हारा परीक्षण करने आई हूं। मुल्ला
ने पूछा आपका मतलब सारे कपड़ों से है?
डॉक्टर
ने कहा हां मेरा यही मतलब है।
उसने
कपड़े उतारे। डॉक्टर ने उसका परीक्षण क्रिया। फिर उसने कहा अब तुम बिस्तर पर जाकर लेट
सकते हो। तुमको कुछ पूछना है?
मुल्ला
नसरुद्दीन बोला केवल एक प्रश्न, आपने द्वार खटखटाने का कष्ट क्यों क्रिया?
उस
महिला ने कहा बस पुरानी आदत।
तुम्हारी
चेष्टाओं में भी पुरानी आदतें बनी रहती हैं। आदतों का अनुगमन करना सरल है, क्योंकि तुम्हें
सजग होने की आवश्यकता नहीं-- वे अपने आप काम करती रहती हैं। सजगता कठिन है क्योंकि
वह कभी तुम्हारी आदत नहीं रही।
तुम
आसानी से चुनाव करते हो तुम सरलता से निंदा करते हो प्रशंसा करते हो, अस्वीकार करते
हो, स्वीकार करते हो। तुम कहते हो ' यह
अच्छा है वह बुरा है सरलतापूर्वक क्योंकि लाखों जन्मों से यह तुम्हारी आदत बन गई है।
तुम सदा चुनाव करते आ रहे हो। यह बस रोबोट जैसी बात है।
जैसे
ही तुम बिना किसी होश के कुछ देखते हो तुमने निश्चय और निर्णय कर लिया है। एक फूल है
तुम उसे देखते हो और कहते हो ' सुंदर ' या ' असुंदर।’ तुरंत निर्णय हो जाता है। धारणा होने के साथ
ही निर्णय आ जाता है। तब तुम कभी मध्य में स्थित नहीं रह पाओगे।
एक
व्यक्ति च्यांगत्सु के पास गया और उसने नगर के एक व्यक्ति के बारे में कहा वह पापी
है वह बहुत बुरा आदमी है चोर है और उसकी बहुत तरह से निंदा की।
स्वांग? ने सुना और
कहा लेकिन वह बांसुरी बहुत अच्छी बजाता है।
फिर
एक दूसरा आदमी आया और पहला आदमी वहीं बैठा था और दूसरे ने कहा नगर का यह व्यक्ति वास्तव
में बहुत अच्छा बांसुरीवादक है।
नागर
ने कहा लेकिन वह चोर है।
दोनों
वहां मौजूद थे उन्होंने पूछा आपका तात्पर्य क्या है?
नागर
ने कहा संतुलन बना रहा हूं। और मैं कौन हूं निर्णय लेने वाला? वह चोर है
वह अच्छा बांसुरीवादक है। मेरे लिए कोई अस्वीकार नहीं है, कोई
स्वीकार नहीं है। मेरे लिए कोई चुनाव नहीं। वह जो है है। मैं कौन होता हूं निर्णय करने
वाला, इस अति और उस अति का चुनाव करने वाला। मेरे लिए न वह अच्छा
है, न बुरा है, वह स्वयं है। और यह उसका
मामला है। मैं कौन हूं यहां कुछ कहने वाला? तुम दोनों में संतुलन
बनाने के लिए मुझे कुछ कहना पड़ा।
अचुनाव
कठिन है, लेकिन प्रयत्न करो और सभी में प्रयत्न करो--जब तुम्हारे मन में घृणा का भाव
हो तो मध्य की ओर जाने की कोशिश करो। जब प्रेम का भाव हो तो मध्य में आने की कोशिश
करो। जो कुछ भी तुम अनुभव करो मध्य में आने का प्रयास करो। और तुम चकित होओगे कि दो
.अतियों के बीच में एक बिंदु है जहां दोनों का अस्तित्व मिट जाता है-- जब तुम न तो
घृणा अनुभव करते हो, न प्रेम अनुभव करते हो। बुद्ध ने इसे उपेक्षा,
असंबंधित होना कहा है। असंबंधित होना उचित शब्द नहीं है।
उपेक्षा
का अर्थ है वह मध्य--बिंदु जहां तुम न यह हो और न वह हो। तुम यह नहीं कह सकते, ' मैं प्रेम
करता हूं; ' तुम नहीं कह सकते, ' मैं घृणा
करता हूं।’ तुम कुछ नहीं कह सकते, तुम सिर्फ
मध्य में हो। तुम्हारा तादात्म्य टूट गया है। एक अतिक्रमण घटित हो जाता है,
और यह अतिक्रमण ही पुष्पित हो जाता है। यही वह परिपक्वता है जो उपलब्ध
करनी है, यही लक्ष्य है।
आज
इतना ही।
तो तुम्हारा वही प्रयास तुम्हें क्रिया से भर देता है।
को नहीं जान पाओगे।
तब संभावना थी।’
संसार में वह एक सफल व्यक्ति हो सकता है अगर तुम पता करो तो भीतर गहरे में वह जानता है कि वह एक असफल व्यक्ति है। वह असंतुलित है उसने बाह्य पर बहुत अधिक ध्यान दिया है। वह एक अति पर चला गया और जब अति होती है तो एक असंतुलन हो जाता है।
को जान सकता था। वह अपने में ही बंद रहा, बंद व्यक्ति बना रहा कारावास में रहा। ये दो अतियां हैं।
वे बहिर्मुखी हैं। उन्होंने इतनी धन--दौलत पैदा कर ली है, जितनी पहले कभी न थी इतनी बाह्य स्वच्छता, इतने बढ़िया कपड़े-- सम्राटों को भी ईर्ष्या हो सकती है-- बेहतर भोजन, बेहतर स्वच्छ परिस्थितियां, सुंदर वातावरण, सब--कुछ-- लेकिन बहिर्मुखी। और अंतर अस्तित्व निर्धन है अंतर अस्तित्व रिक्त है।
तो तुम्हारा वही प्रयास तुम्हें क्रिया से भर देता है।
तो तुम्हारा वही प्रयास तुम्हें क्रिया से भर देता है।
thank you guruji
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