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रविवार, 10 मई 2020

हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्-(प्रवचन-01)

हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्-ओशो

पहला प्रवचन-मेडिसिन और मेडिटेशन

मेरे प्रिय आत्मन्!
मनुष्य एक बीमारी है। बीमारियां तो मनुष्य पर आती हैं, लेकिन मनुष्य खुद भी एक बीमारी है। मैन इ.ज ए डिस-ई.ज। यही उसकी तकलीफ है, यही उसकी खूबी भी। यही उसका सौभाग्य है, यही उसका दुर्भाग्य भी। जिस अर्थों में मनुष्य एक परेशानी, एक चिंता, एक तनाव, एक बीमारी, एक रोग है, उस अर्थों में पृथ्वी पर कोई दूसरा पशु नहीं है। वही रोग मनुष्य को सारा विकास दिया है। क्योंकि रोग का मतलब यह है कि हम जहां हैं, वहीं राजी नहीं हो सकते। हम जो हैं, वही होने से राजी नहीं हो सकते। वह रोग ही मनुष्य की गति बना, रेस्टलेसनेस बना। लेकिन वही उसका दुर्भाग्य भी है, क्योंकि वह बेचैन है, परेशान है, अशांत है, दुखी है, पीड़ित है।

मनुष्य को छोड़ कर और कोई पशु पागल होने में समर्थ नहीं है। जब तक कि मनुष्य किसी पशु को पागल न करना चाहे, तब तक कोई पशु अपने से पागल नहीं होता, न्यूरोटिक नहीं होता। जंगल में पशु पागल नहीं होते, सर्कस में पागल हो जाते हैं। जंगल में पशु विक्षिप्त नहीं होते, अजायबघर में, ‘जू’ में विक्षिप्त हो जाते हैं! कोई पशु आत्महत्या नहीं करता, स्युसाइड नहीं करता, सिर्फ आदमी अकेला आत्महत्या कर सकता है।
यह जो मनुष्य नाम का रोग है, इस रोग को सोचने, समझने, हल करने के दो उपाय किए गए हैं। एक मेडिसिन है उपाय..औषधि। और दूसरा ध्यान है उपाय..मेडिटेशन। ये दोनों एक ही रोग का इलाज हैं।
इसे थोड़ा ऐसा समझना अच्छा होगा कि औषधिशास्त्र, मेडिसिन मनुष्य के रोग को एटामिक, आणविक दृष्टि से देखता है। औषधिशास्त्र मनुष्य के एक-एक रोग को अलग-अलग व्यवहार करता है। औषधिशास्त्र एक-एक रोग को आणविक मानता है। ध्यान मनुष्य को ‘ऐ.ज ए होल’ बीमार मानता है, एक-एक रोग को नहीं। ध्यान मनुष्य के व्यक्तित्व को बीमार मानता है। औषधिशास्त्र मनुष्य के ऊपर बीमारियां आती हैं, विजातीय हैं, फॉरेन हैं, ऐसा मानता है।
लेकिन धीरे-धीरे यह दूरी कम हुई है और धीरे-धीरे मेडिसिन ने भी कहना शुरू किया है..डोंट ट्रीट दि डि.जी.ज, ट्रीट दि पेशेंट। मत करो इलाज बीमारी का; बीमार का इलाज करो। यह बड़ी कीमती बात है। क्योंकि इसका मतलब यह है कि बीमारी भी बीमार के जीने का एक ढंग है, ए वे ऑफ लाइफ। हर आदमी एक सा बीमार नहीं हो सकता। बीमारियां भी हमारी इंडिविजुअलिटी रखती हैं, व्यक्तित्व रखती हैं। ऐसा नहीं है कि मैं क्षय रोग से, टी.बी. से बीमार पडूं और आप भी पड़ें, तो हम दोनों एक ही तरह के बीमार होंगे। हमारी टी.बी. भी दो तरह की होंगी, क्योंकि हम दो व्यक्ति हैं। और हो सकता है कि जो इलाज मेरी टी.बी. को ठीक कर सके वह आपकी टी.बी. को ठीक न कर सके। इसलिए बहुत गहरे में बीमारी नहीं है, बहुत गहरे में बीमार है।
औषधिशास्त्र, मेडिसिन..आदमी की ऊपर से बीमारियों को पकड़ता है। मेडिटेशन, ध्यान का शास्त्र..आदमी को गहराई से पकड़ता है। इसे ऐसा कह सकते हैं कि औषधि मनुष्य को ऊपर से स्वस्थ करने की चेष्टा करती है। ध्यान मनुष्य को भीतर से स्वस्थ करने की चेष्टा करता है। न तो ध्यान पूर्ण हो सकता है औषधिशास्त्र के बिना और न औषधिशास्त्र पूर्ण हो सकता है ध्यान के बिना। असल में आदमी चूंकि दोनों है..भाषा ठीक नहीं है यह कहना कि आदमी दोनों है, क्योंकि इसमें कुछ बुनियादी भूल हो जाती है।
मनुष्य हजारों वर्षों से इस तरह सोचता रहा है कि आदमी का शरीर अलग है और आदमी की आत्मा अलग है। इस चिंतन के दो खतरनाक परिणाम हुए। एक परिणाम तो यह हुआ कि कुछ लोगों ने आत्मा को ही मनुष्य मान लिया, शरीर की उपेक्षा कर दी। जिन कौमों ने ऐसा किया उन्होंने ध्यान का तो विकास किया, लेकिन औषधि का विकास नहीं किया। वे औषधि का विज्ञान न बना सके। शरीर की उपेक्षा कर दी गई। ठीक इसके विपरीत कुछ कौमों ने आदमी को शरीर ही मान लिया और उसकी आत्मा को इनकार कर दिया। उन्होंने मेडिसिन और औषधि का तो बहुत विकास किया, लेकिन ध्यान के संबंध में उनकी कोई गति न हो पाई। जब कि आदमी दोनों है एक साथ। कह रहा हूं कि भाषा में थोड़ी भूल हो रही है, जब हम कहते हैं..दोनों है एक साथ, तो ऐसा भ्रम पैदा होता है कि दो चीजें हैं जुड़ी हुई।
नहीं, असल में आदमी का शरीर और आदमी की आत्मा एक ही चीज के दो छोर हैं। अगर ठीक से कहें तो हम यह नहीं कह सकते कि बॉडी$सोल, ऐसा आदमी है। ऐसा नहीं है। आदमी साइकोसोमेटिक है, या सोमेटोसाइकिक है। आदमी मनस-शरीर है, या शरीर-मनस है।
मेरी दृष्टि में, आत्मा का जो हिस्सा हमारी इंद्रियों की पकड़ में आ जाता है उसका नाम शरीर है और आत्मा का जो हिस्सा हमारी इंद्रियों की पकड़ के बाहर रह जाता है उसका नाम आत्मा है। अदृश्य शरीर का नाम आत्मा है, दृश्य आत्मा का नाम शरीर है। ये दो चीजें नहीं हैं, ये दो अस्तित्व नहीं हैं, ये एक ही अस्तित्व की दो विभिन्न तरंग-अवस्थाएं हैं।
असल में दो, द्वैत, डुआलिटी की धारणा ने मनुष्य-जाति को बड़ी हानि पहुंचाई। सदा हम दो की भाषा में सोचते रहे और मुसीबत हुई। पहले हम सोचते थेः मैटर और एनर्जी। अब हम ऐसा नहीं सोचते। अब हम यह नहीं कहते कि पदार्थ अलग और शक्ति अलग। अब हम कहते हैं, मैटर इ.ज एनर्जी। अब हम कहते हैं, पदार्थ ही शक्ति है। सच तो यह है कि यह पुरानी भाषा हमें दिक्कत दे रही है। पदार्थ ही शक्ति है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। कुछ है, एक्स, जो एक छोर पर पदार्थ दिखाई पड़ता है और दूसरे छोर पर एनर्जी, शक्ति दिखाई पड़ता है। ये दो नहीं हैं। ये एक ही ऊर्जा, एक ही अस्तित्व के दो छोर हैं।
ठीक वैसे ही आदमी का शरीर और उसकी आत्मा एक ही अस्तित्व के दो छोर हैं। बीमारी दोनों छोरों में किसी भी छोर से शुरू हो सकती है। शरीर के छोर से शुरू हो सकती है और आत्मा के छोर तक पहुंच सकती है। असल में जो भी शरीर पर घटित होता है, उसके वाइब्रेशंस, उसकी तरंगें आत्मा तक सुनी जाती हैं।
इसलिए कई बार यह होता है कि शरीर से बीमारी ठीक हो जाती है और आदमी फिर भी बीमार बना रह जाता है। शरीर से बीमारी विदा हो जाती है और डाक्टर कहता है कि कोई बीमारी नहीं है और आदमी फिर भी बीमार रह जाता है और बीमार मानने को राजी नहीं होता कि मैं बीमार नहीं हूं। चिकित्सक के जांच के सारे उपाय कह देते हैं कि अब सब ठीक है, लेकिन बीमार कहे चला जाता है कि सब ठीक नहीं है। इस तरह के बीमारों से डाक्टर बहुत परेशान रहते हैं, क्योंकि उनके पास जो भी जांच के साधन हैं वे कह देते हैं कि कोई बीमारी नहीं है।
लेकिन कोई बीमारी न होने का मतलब स्वस्थ होना नहीं है। स्वास्थ्य की अपनी पाजिटिविटी है। कोई बीमारी का न होना सिर्फ निगेटिव है। हम कह सकते हैं कि कोई कांटा नहीं है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि फूल है। कांटा नहीं है, इससे सिर्फ इतना ही पता चलता है कि कांटा नहीं है। लेकिन फूल का होना कुछ बात और है।
लेकिन चिकित्सा-शास्त्र अब तक, स्वास्थ्य क्या है, इस दिशा में कुछ भी काम नहीं कर पाया है। उसका सारा काम इस दिशा में है कि बीमारी क्या है। तो अगर चिकित्सा-शास्त्र से हम पूछें..बीमारी क्या है? तो वह परिभाषा करता है, डेफिनीशन करता है। उससे पूछें कि स्वास्थ्य क्या है? तो वह धोखा देता है। वह कहता है, जब कोई बीमारी नहीं होती तो जो शेष रह जाता है वह स्वास्थ्य है। यह धोखा हुआ, यह परिभाषा नहीं हुई। क्योंकि बीमारी से स्वास्थ्य की परिभाषा कैसे की जा सकती है? यह तो वैसे ही हुआ जैसे कांटों से कोई फूल की परिभाषा करे। यह तो वैसे ही हुआ जैसे कोई मृत्यु से जीवन की परिभाषा करे। यह तो वैसे ही हुआ जैसे कोई अंधेरे से प्रकाश की परिभाषा करे। यह तो वैसे ही हुआ जैसे कोई स्त्री से पुरुष की परिभाषा करे या पुरुष से स्त्री की परिभाषा करे।
नहीं, चिकित्सा-शास्त्र अब तक नहीं कह पाया..व्हाट इ.ज हेल्थ? स्वास्थ्य क्या है? वह इतना ही कह सकता है..व्हाट इ.ज डि.जी.ज? बीमारी क्या है? स्वभावतः, उसका कारण है। उसका कारण यही है कि चिकित्सा-शास्त्र बाहर से पकड़ता है। बाहर से बीमारी ही पकड़ में आती है। वह जो भीतर है मनुष्य का आंतरिक अस्तित्व, वह जो इनरमोस्ट बीइंग, वह जो भीतरी आत्मा, स्वास्थ्य सदा वहीं से पकड़ा जा सकता है।
इसलिए हिंदी का ‘स्वास्थ्य’ शब्द बहुत अदभुत है। अंग्रेजी का ‘हेल्थ’ शब्द ‘स्वास्थ्य’ का पर्यायवाची नहीं है। हेल्थ तो हीलिंग से बना है, उसमें बीमारी जुड़ी है। हेल्थ का तो मतलब है हील्ड..जो बीमारी से छूट गया। स्वास्थ्य का मतलब यह नहीं है कि जो बीमारी से छूट गया। स्वास्थ्य का मतलब है जो स्वयं में स्थित हो गया..दैट वन हू हैज रीच्ड टु हिमसेल्फ, वह जो अपने भीतर गहरे से गहरे में पहुंच गया। स्वस्थ का मतलब है, स्वयं में जो खड़ा हो गया। इसलिए स्वास्थ्य का मतलब हेल्थ नहीं है।
असल में दुनिया की किसी भाषा में स्वास्थ्य के मुकाबले कोई शब्द नहीं है। दुनिया की सभी भाषाओं में जो शब्द हैं वे डि.जी.ज या नो-डि.जी.ज के पर्यायवाची हैं। स्वास्थ्य की धारणा ही हमारे मन में बीमार न होने की है। लेकिन बीमार न होना जरूरी तो है स्वस्थ होने के लिए, पर्याप्त नहीं है; इट इ.ज नेसेसरी बट नॉट इनफ..कुछ और भी चाहिए।
वह दूसरे छोर पर वह जो हमारे भीतर हमारा अस्तित्व है, वहां से कुछ हो सकता है। बीमारी बाहर से शुरू हो, तो भी भीतर तक उसकी प्रतिध्वनियां पहुंच जाती हैं। अगर मैं शांत झील में एक पत्थर फेंक दूं, तो जहां पत्थर गिरता है, चोट वहीं पड़ती है, लेकिन तरंगें दूर झील के तटों तक पहुंच जाती हैं, जहां पत्थर कभी नहीं पड़ा।
ठीक जब हमारे शरीर पर कोई घटना घटती है, तो तरंगें आत्मा तक पहुंच जाती हैं। और अगर चिकित्सा-शास्त्र सिर्फ शरीर का इलाज कर रहा है, तो उन तरंगों का क्या होगा जो दूर तट पर पहुंच गईं? अगर हमने पत्थर फेंका है झील में और हम उसी जगह पर केंद्रित हैं जहां पत्थर गिरा और पानी में गड्ढा बना, तो उन तरंगों का क्या होगा जो कि पत्थर से मुक्त हो गईं, जिनका अपना अस्तित्व शुरू हो गया?
जब एक आदमी बीमार पड़ता है तो शरीर की चिकित्सा के बाद भी बीमारी से पैदा हुई तरंगें उसकी आत्मा तक प्रवेश कर जाती हैं। इसलिए अक्सर बीमारी लौटने की जिद्द करती है। बीमारी की लौटने की जिद्द उन तरंगों से पैदा होती है जो उसकी आत्मा के अस्तित्व तक गूंज जाती हैं और जिनका चिकित्सा-शास्त्र के पास अब तक कोई उपाय नहीं है। इसलिए चिकित्सा-शास्त्र बिना ध्यान के सदा ही अधूरा रहेगा। हम बीमारी ठीक कर देंगे, बीमार को ठीक न कर पाएंगे। वैसे डाक्टर के हित में है यह कि बीमार ठीक न हो। बीमारी भर ठीक होती रहे, बीमार लौटता रहे!
दूसरा जो छोर है, वहां से भी बीमारी पैदा हो सकती है। सच तो यह है कि मैंने कहा कि वहां बीमारी है ही, जैसा मनुष्य है। जैसा मनुष्य है, वहां एक टेंशन है ही भीतर। जैसा मैंने कहा कि कोई पशु इस तरह डिस-ईज्ड नहीं है, इस तरह रेस्टलेस नहीं है, इस तरह बेचैन और तनाव में नहीं है। उसका कारण है..कि किसी पशु के मस्तिष्क में बिकमिंग का, होने का कोई ख्याल नहीं है। कुत्ता कुत्ता है। उसे होना नहीं है। आदमी को आदमी होना है, है नहीं। इसलिए हम किसी कुत्ते से यह नहीं कह सकते कि तुम थोड़े कम कुत्ते हो। सब कुत्ते बराबर कुत्ते होते हैं। लेकिन किसी आदमी से संगत रूप से कह सकते हैं कि आप थोड़े कम आदमी हैं।
आदमी पूरा पैदा नहीं होता। आदमी का जन्म अधूरा है। सब जानवर पूरे पैदा होते हैं। आदमी अधूरा पैदा होता है। कुछ काम है जो उसे करना पड़ेगा, तब वह पूरा हो सकता है। वह जो पूरा न होने की स्थिति है, वह उसकी डि.जी.ज है। इसलिए वह चैबीस घंटे परेशान है।
ऐसा नहीं है, आमतौर से हम सोचते हैं कि एक गरीब आदमी परेशान है, क्योंकि गरीबी है। लेकिन हमें पता नहीं है कि अमीर होते ही से परेशानी का तल बदलता है, परेशानी नहीं बदलती। सच तो यह है कि गरीब इतना परेशान कभी होता ही नहीं जितना अमीर परेशान हो जाता है। क्योंकि गरीब को एक तो जस्टीफिकेशन होता है परेशानी का..कि मैं गरीब हूं। अमीर को वह जस्टीफिकेशन भी नहीं रह जाता। अब वह कारण भी नहीं बता सकता कि मैं परेशान क्यों हूं? और जब परेशानी अकारण होती है, तब परेशानी भयंकर हो जाती है। कारण से राहत मिलती है, कंसोलेशन मिलता है, क्योंकि कारण से यह भरोसा होता है कि कल कारण को अलग भी कर सकेंगे। लेकिन जब कोई बीमारी अकारण खड़ी हो जाती है तब कठिनाई शुरू हो जाती है।
इसलिए गरीब मुल्कों ने बहुत दुख सहे हैं; जिस दिन वे अमीर होंगे उस दिन उनको पता चलेगा कि अमीर मुल्कों के अपने दुख हैं। हालांकि मैं पसंद करूंगा, गरीब के दुख की बजाय अमीर का दुख ही चुनने योग्य है। जब दुख ही चुनना हो तो अमीर का ही चुनना चाहिए। लेकिन तीव्रता बेचैनी की बढ़ जाएगी।
इसलिए आज अमेरिका जितना बेचैन और परेशान है, उतना आज पृथ्वी पर कोई भी नहीं है। हालांकि जितनी सुविधा अमेरिका के पास है, उतनी कभी किसी समाज के पास नहीं थी। असल में अमेरिका में पहली दफे डिसइल्यूजनमेंट हुआ, पहली दफे भ्रम टूट गए। सोचते थे कि कारण के कारण हम परेशान हैं। अमेरिका को पहली दफा पता चलना शुरू हुआ है कि कारण नहीं है। परेशानी कारण की वजह से नहीं है, आदमी परेशानी है। वह नई परेशानी खोज लेता है। वह जो उसके भीतर एक अस्तित्व है, वह चैबीस घंटे मांग कर रहा है उसकी जो नहीं है। जो है, वह रोज बेकार हो जाता है। जो मिल जाता है, वह बेकार हो जाता है। जो नहीं है, वह आकर्षित करता है। वह जो नहीं है, उसको पाने की निरंतर चेष्टा है।
नीत्शे ने कहीं कहा है कि आदमी एक सेतु है, स्ट्रेच्ड बिट्वीन टू इंपासिबिलिटीज। दो असंभावनाओं के बीच में फैला हुआ पुल है। निरंतर असंभव के लिए आतुर, पूरे होने के लिए आतुर।
इस पूरे होने की आतुरता से सारे धर्म पैदा हुए। और यह जानना उपयोगी होगा कि एक दिन धर्मगुरु और चिकित्सक पृथ्वी पर एक ही आदमी था। धर्मगुरु ही चिकित्सक था, पुरोहित ही चिकित्सक था। वह जो प्रीस्ट था, वही डाक्टर था। और आश्चर्य न होगा कि कल फिर स्थिति वही हो जाए। थोड़ा सा फर्क होगा। अब जो चिकित्सक होगा वही पुरोहित हो सकता है! अमेरिका में वह घटना घटनी शुरू हो गई है, क्योंकि पहली दफा यह बात अमेरिका में साफ हो गई है कि सवाल सिर्फ शरीर का नहीं है। बल्कि यह भी साफ होना शुरू हो गया है कि अगर शरीर बिल्कुल स्वस्थ हुआ तो मुसीबतें बहुत बढ़ जाएंगी, क्योंकि पहली दफे भीतर के छोर पर जो रोग हैं, उनका बोध शुरू हो जाएगा।
हमारे बोध के भी तो कारण होते हैं। अगर मेरे पैर में कांटा गड़ा होता है तो मुझे पैर का पता चलता है। जब तक कांटा पैर में न हो, पैर का पता नहीं चलता। और जब पैर में कांटा होता है तो मेरी पूरी आत्मा एरोड हो जाती है, तीर बन जाती है पैर की तरफ। वह सिर्फ पैर को ही देखती है, कुछ और नहीं देखती..स्वाभाविक। लेकिन पैर से कांटा निकल जाए, फिर भी आत्मा कुछ तो देखेगी। भूख कम हो जाए, कपड़े ठीक मिल जाएं, मकान व्यवस्थित हो जाए, जो पत्नी चाहिए वह मिल जाए..हालांकि इससे बड़ा दुख नहीं है दुनिया में। जिनको चाही गई पत्नी मिल जाए, उनके दुख का कोई अंत नहीं है; क्योंकि चाही गई पत्नी न मिले तो कम से कम आशा में एक सुख रहता है; वह भी खो जाता है।
मैंने सुना है एक पागलखाने के संबंध में। एक आदमी गया है एक पागलखाने को देखने। सुप्रिनटेंडेंट उसे घुमा रहा है। और एक कठघरे में उसने पूछा कि इस आदमी को क्या हो गया है? उस सुप्रिनटेंडेंट ने..वह एक पागल है, अपने सींकचों में बंद, एक तस्वीर को लिए हुए, उसे हृदय से लगा रहा है, कुछ गीत गा रहा है..तो उस सुप्रिनटेंडेंट ने कहा कि इस आदमी को जिस स्त्री से प्रेम था, वह इसे मिल नहीं पाई, यह पागल हो गया है। फिर दूसरे कठघरे में एक दूसरा आदमी सींकचे तोड़ने की कोशिश कर रहा है, छाती पीट रहा है, बाल नोच रहा है। पूछा कि इस आदमी को क्या हो गया है? तो उस सुप्रिनटेंडेंट ने कहा कि इसको वही स्त्री मिल गई, जो उसको नहीं मिल पाई! यह इसलिए पागल हो गया है।
लेकिन जिसको नहीं मिल पाई वह आनंद में था तस्वीर के साथ, इतना फर्क था। जिसको मिल गई वह छाती पीट रहा था और सींकचों से सिर फोड़ रहा था, वह आनंद में नहीं था। धन्यभागी हैं वे प्रेमी, जिनको उनकी प्रेयसियां नहीं मिल पातीं!
असल में जो हमें नहीं मिल पाता उसके लिए हम सदा ही आशा बांध कर जी पाते हैं। मिलते ही आशा टूट जाती है और हम खाली हो जाते हैं। जिस दिन चिकित्सक शरीर से आदमी को छुटकारा दिला देगा, उस दिन चिकित्सक को दूसरा काम पूरा करना ही पड़ेगा। जिस दिन हम आदमी को बीमारी से मुक्त करा देंगे, उस दिन हम आदमी को पहली दफे आध्यात्मिक बीमारी को पैदा करने की सिचुएशन, स्थिति देंगे। वह पहली दफे भीतर परेशान होगा और पूछना शुरू करेगा कि अब सब ठीक हो गया, लेकिन कुछ भी ठीक नहीं है!
यह बहुत आश्चर्य की बात नहीं है कि हिंदुस्तान के चैबीस तीर्थंकर राजाओं के बेटे हैं; बुद्ध राजा के बेटे हैं; राम, कृष्ण, ये सब शाही परिवारों से आए हैं। इनकी बेचैनी शरीर के तल से समाप्त हो गई है। इनकी बेचैनी भीतर के तल से शुरू हो गई है।
मेडिसिन आदमी को ऊपर से उसके शरीर की व्यवस्था और बीमारी से मुक्त करने की चेष्टा है।
लेकिन ध्यान रहे, आदमी सब बीमारियों से मुक्त होकर भी आदमी होने की बीमारी से मुक्त नहीं होता। वह जो आदमी होने की बीमारी है, वह असंभव की चाह है। वह जो आदमी होने की बीमारी है, वह किसी भी चीज से तृप्त न होना है। वह जो आदमी होने की बीमारी है, वह सदा जो मिल जाए उसे व्यर्थ कर देना है और जो नहीं मिला उसकी सार्थकता में लग जाना है।
वह आदमी होने की बीमारी का इलाज ध्यान है। बीमारियों का इलाज चिकित्सक के पास है, चिकित्सा के पास है, लेकिन बीमारी..वह जो आदमी जिसका नाम है..उस बीमारी का इलाज ध्यान के पास है। और उस दिन चिकित्सा-शास्त्र पूरा हो सकेगा, जिस दिन हम आदमी के भीतरी छोर को भी समझ लें और उसके साथ भी काम शुरू कर दें। क्योंकि मेरी अपनी समझ ऐसी है कि भीतरी छोर पर वह जो बीमार आदमी बैठा हुआ है, वह हजारों तरह की बीमारियां बाहर के छोर पर भी पैदा करता है।
जैसा मैंने कहा..शरीर पर बीमारी पैदा हो, तो उसके वाइब्रेशंस, उसकी तरंगें अंतरात्मा तक पहुंच जाती हैं। अगर अंतरात्मा बीमार हो, तो उसकी तरंगें भी शरीर के छोर तक आती हैं। इसीलिए तो दुनिया में हजारों तरह की चिकित्साएं चलती हैं; हजारों तरह की पैथीज हैं दुनिया में। यह हो नहीं सकता। यह होना नहीं चाहिए। अगर पैथोलॉजी एक साइंस है, तो हजारों तरह की नहीं हो सकतीं। लेकिन हजारों तरह की हो सकती हैं, क्योंकि आदमी की बीमारियां हजारों तरह की हैं। कुछ बीमारियों को एलोपैथी फायदा पहुंचा ही नहीं सकती। जो बीमारियां भीतर से बाहर की तरफ आती हैं, उनके लिए एलोपैथी एकदम बेमानी हो जाती है। जो बीमारियां बाहर से भीतर की तरफ जाती हैं, उनके लिए एलोपैथी बड़ी सार्थक हो जाती है। जो बीमारियां भीतर से बाहर की तरफ आती हैं, वे बीमारियां शारीरिक होती ही नहीं, शरीर पर केवल प्रकट होती हैं। उनके होने का तल सदा ही साइकिक या और गहरे में स्प्रिचुअल होता है; या तो मानसिक होता है या आध्यात्मिक होता है।
अब जिस आदमी को मानसिक बीमारी है, उसका अर्थ यह हुआ कि उसको शारीरिक चिकित्सा कोई फायदा नहीं पहुंचा सकेगी। शायद नुकसान पहुंचाए। क्योंकि चिकित्सा कुछ करेगी उस आदमी के साथ। और उसका कुछ करना अगर फायदा नहीं पहुंचाता तो नुकसान पहुंचाएगा। सिर्फ वे ही चिकित्साएं नुकसान नहीं पहुंचातीं जो फायदा भी नहीं पहुंचा सकती हैं। जैसे होमियोपैथी कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकती, क्योंकि फायदे का भी कोई डर नहीं है। लेकिन होमियोपैथी से फायदा होता है। पहुंचा नहीं सकती, इसका यह मतलब नहीं कि होमियोपैथी से फायदा नहीं होता है। फायदा होता है। फायदा होना दूसरी घटना है, फायदा पहुंचाना बिल्कुल दूसरी घटना है। ये दो चीजें हैं अलग-अलग। फायदा होता है।
फायदा इसलिए होता है कि वह आदमी अगर बीमारी को मनस के तल से पैदा कर रहा है, तो उस बीमारी के लिए फाल्स मेडिसिन की जरूरत है, उसे झूठी औषधि की जरूरत है। उसे सिर्फ भरोसा दिलाने की जरूरत है कि वह ठीक है। वह बीमार नहीं है, सिर्फ बीमार होने के ख्याल में है। उसे भरोसा भर आ जाए। वह राख से भी आ सकता है किसी साधु की, वह गंगा के जल से भी आ सकता है। और अभी तो बहुत प्रयोग चलते हैं, जिसको आप औषधि-आभास, प्लेसिबो कहें, उसके बहुत प्रयोग चलते हैं। अगर दस मरीज एक ही तरह की बीमारी के मरीज हैं, उनमें तीन को एलोपैथी की चिकित्सा दी जाए, तीन को होमियोपैथी की दी जाए, तीन को नेचरोपैथी की दी जाए, बड़े मजे की बात यह है कि सब पैथियां बराबर ठीक करती हैं और बराबर मारती हैं। अनुपात में कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता। तब थोड़ा सोचने जैसा मामला हो जाता है कि बात क्या है?
मेरी दृष्टि में, एलोपैथी अकेली वैज्ञानिक चिकित्सा है। लेकिन चूंकि आदमी अवैज्ञानिक है, इसलिए वैज्ञानिक चिकित्सा अकेला काम नहीं कर सकती है। एलोपैथी अकेली विज्ञान के ढंग से आदमी के शरीर के साथ व्यवहार करती है। लेकिन आदमी चूंकि भीतर से काल्पनिक भी है, प्रोजेक्टिव भी है, प्रक्षेप भी करता है, इसलिए एलोपैथी पूरा काम नहीं कर पाती। सच तो यह है कि जिस मरीज पर एलोपैथी काम नहीं कर पाती, वह मरीज अवैज्ञानिक ढंग से बीमार है।
अवैज्ञानिक ढंग से बीमार होने का मतलब क्या है? यह शब्द बड़ा अजीब सा लगेगा! क्योंकि वैज्ञानिक ढंग की चिकित्सा हो सकती है, अवैज्ञानिक ढंग की चिकित्सा हो सकती है। मैं आपसे कह रहा हूं कि वैज्ञानिक ढंग से बीमार होना भी होता है, अवैज्ञानिक ढंग से भी बीमार होना होता है। अन-साइंटिफिक वे.ज ऑफ बीइंग इल हैं। असल में जो बीमारी चित्त के तल से शुरू होती है और शरीर पर आती है, वह वैज्ञानिक रूप से हल नहीं हो सकती।
अब एक स्त्री को मैं जानता हूं, युवती को, जिसकी आंखें अंधी हो गईं। लेकिन जो अंधापन था वह साइकोलाजिकल ब्लाइंडनेस थी। उसकी आंखें सच में ही अंधी नहीं हो गई थीं। आंख के जानकारों ने कहा कि आंखें बिल्कुल ठीक हैं; लड़की धोखा दे रही है। लेकिन लड़की बिल्कुल धोखा नहीं दे रही थी। क्योंकि आप उसको आग की तरफ छोड़ दें, तो वह आग की तरफ भी चली जाती थी। वह दीवाल से भी टकराती थी और सिर भी फोड़ लेती थी। वह लड़की धोखा नहीं दे रही थी, आंखें उसकी सच में ही अंधी हो गई थीं। लेकिन चिकित्सक की पकड़ के बाहर थी बीमारी।
मेरे पास उसे लाए थे। तो मैं उसको समझने की कोशिश किया। पता चला कि किसी से उसका प्रेम है और घरवाले लोगों ने उसके प्रेमी से उसका मिलना-जुलना बंद कर दिया। जब मैं निरंतर उससे थोड़े दो-चार दिन बात किया, तो उसने कहा कि मुझे तो सिवाय उसके किसी को देखने की इच्छा ही नहीं है। यह संकल्प कि सिवाय उसके अब देखना ही नहीं है किसी को, इतनी तीव्रता से अगर मन में उठे कि अब उसके सिवाय देखने का कोई अर्थ ही न रहा, तो आंखें साइकोलाजिकली ब्लाइंड हो जाएंगी, आंखें अंधी हो जाएंगी, आंखें देखना बंद कर देंगी। यह आंख की एनाटॉमी को देख कर नहीं समझा जा सकेगा; क्योंकि आंख की एनाटॉमी बिल्कुल ही ठीक होगी, आंख का यंत्र बिल्कुल ही ठीक होगा। सिर्फ पीछे से जो ध्यान देने वाला था आंख के, वह सरक गया, उसने हटा लिया अपना हाथ।
यह हम रोज अनुभव करते हैं, लेकिन हमारे ख्याल में नहीं है कि हमारे शरीर का यंत्र तभी तक काम करता है जब तक हम पीछे मौजूद होते हैं।
अब एक युवक खेल रहा है..हाकी के मैदान पर या फुटबाल के मैदान पर। उसके पैर को चोट लग गई है, खून बह रहा है। उसे कोई पता नहीं है। सबको दिखाई पड़ रहा है देखने वालों को, उसको भर दिखाई नहीं पड़ रहा है। फिर खेल बंद हो गया आधा घंटे बाद। वह पैर पकड़ कर बैठ गया है और चिल्ला रहा है कि मुझे चोट कब लग गई? बहुत दर्द है!
यह आधा घंटा हो गया चोट लगे! हुआ क्या? इसके पैर में चोट लगी; इसके पैर का यंत्र बिल्कुल ठीक है, क्योंकि आधा घंटे बाद उसने खबर दी। आधा घंटे पहले खबर क्यों न मिल सकी? इसकी अटेंशन वहां मौजूद नहीं थी; इसकी अटेंशन हट गई थी। इसका ध्यान वहां नहीं था; इसका ध्यान खेल में था। और ध्यान इतना था खेल में कि पैर पर होने लायक कोई ध्यान की मात्रा न बची थी जो पैर में दौड़ जाए। पैर खबर देता रहा होगा। पैर के स्नायुओं ने झटके दिए होंगे। पैर ने खटखटाए होंगे अपने तार। पैर ने अपने एक्सचेंज पर पूरी खबर भेजी होगी। लेकिन वह जो एक्सचेंज पर आदमी था, वह सोया हुआ था, वह गहरी नींद में था, या वह कहीं और मौजूद था। वह एब्सेंट था। वह उपस्थित नहीं था। आधा घंटे बाद जब वह आया वापस, तब पता चल सका कि पैर में चोट है।
मैंने उसके घर के लोगों को कहा कि आप एक काम करें। मैं समझता हूं कि जिसे देखने के लिए उसने सोचा था कि उसकी आंखें हैं, अगर उसे आपने नहीं देखने दिया, तो उसने पार्शियल स्युसाइड कर ली है, आंखों की आत्महत्या कर ली है। और कुछ नहीं हो गया है, आंशिक आत्महत्या में गुजर गई है वह लड़की। आप उसके प्रेमी को मिलने दें।
उन्होंने कहा, इससे आंख का क्या संबंध है?
मैंने कहा, एक कोशिश करके देखें।
और जैसे ही उसको खबर की गई कि उसके प्रेमी से मिलने की उसे आज्ञा है। और उसे खबर की गई कि पांच बजे उसका प्रेमी मिलने आएगा। वह दरवाजे के बाहर आकर खड़ी हो गई। उसकी आंख ठीक है!
नहीं, यह धोखा नहीं है, डिसेप्शन नहीं है। और अब तो हिप्नोसिस ने इतने प्रयोग किए हैं कि हम समझ सकते हैं कि धोखे का कोई उपाय नहीं है। अगर ठीक से सएमोहित व्यक्ति के हाथ में, गहरे सएमोहन में गए व्यक्ति के हाथ में..यह मैं अपने किए हुए प्रयोग की बात आपसे कर रहा हूं..अगर साधारण कंकड़ उठा कर रख दिया जाए और कहा जाए कि अंगारा है, तो वह ठीक वैसा ही व्यवहार करेगा जैसा अंगारे के साथ करता है..फेंकेगा, चिल्लाएगा, चीखेगा कि मैं जल गया! यहां तक ठीक है, लेकिन हाथ पर फफोला भी आ जाएगा, तब दिक्कत शुरू होती है। अगर हाथ पर, मन में इस ख्याल से कि अंगारा रख दिया है, फफोला आ सकता है, तो फिर इस फफोले का इलाज आपको शरीर से शुरू करना खतरनाक है। इस फफोले का इलाज मन की तरफ से शुरू करना पड़ेगा।
आदमी का एक ही छोर हमारे ख्याल में है और इसलिए धीरे-धीरे हमने शरीर की बीमारियां तो कम कर ली हैं और मन की बीमारियां बढ़ती चली गई हैं। अब तो, जो बहुत वैज्ञानिक भाषा में सोचते हैं, वे भी इस बात के लिए राजी हैं कि कम से कम फिफ्टी-फिफ्टी का अनुपात हो गया है..पचास प्रतिशत बीमारियां मानसिक हैं। हिंदुस्तान में नहीं, क्योंकि मानसिक बीमारी के लिए मन का होना भी जरूरी है। हिंदुस्तान में अभी भी पंचानबे प्रतिशत बीमारियां शारीरिक हैं। लेकिन अमेरिका में अनुपात बढ़ता जा रहा है।
मानसिक बीमारी का मतलब यह है कि उसका जन्म होता है भीतर और वह फैलती है बाहर की तरफ। मानसिक बीमारी आउट-गोइंग है और शारीरिक बीमारी इन-गोइंग है। अगर मानसिक बीमारी का आपने शारीरिक इलाज किया तो मानसिक बीमारी दूसरा रास्ता तत्काल खोजेगी। इसलिए मानसिक बीमारी के सिर्फ हम झरने बंद कर सकते हैं..एक जगह से, दूसरी जगह से, तीसरी जगह से। वे चैथी जगह से निकलेंगे, पांचवीं जगह से निकलेंगे। और जहां भी कमजोर हिस्सा होगा व्यक्तित्व का, वहां से निकलना शुरू हो जाएगा। इसलिए चिकित्सक कई दफे बीमारी ठीक करने में सहयोगी नहीं होता, एक बीमारी को हजार बीमारियां बना देने में सहयोगी हो जाता है। जो एक धारा से निकल सकती है बात, वह अनेक धाराओं में बह कर निकलने लगती है, क्योंकि जगह-जगह हम रुकावट लगा देते हैं।
ध्यान मेरे लिए दूसरे छोर की चिकित्सा है। स्वभावतः, औषधि निर्भर करेगी पदार्थ पर, ध्यान निर्भर करेगा चेतना पर। ध्यान की कोई गोली नहीं हो सकती। हालांकि कोशिश चलती है। एल.एसड़ी. है, मैस्कलीन है, मारिजुआना है। हजार उपाय चलते हैं। हजार उपाय चलते हैं कि ध्यान की भी हम कोई गोली बना लें। लेकिन ध्यान की कोई गोली हो नहीं सकती। असल में ध्यान की गोली बनाने की कोशिश वही पुरानी जिद्द है कि हम इलाज बाहर से ही करेंगे। सब इलाज हम बाहर से ही करेंगे। अगर भीतर चित्त भी रुग्ण होगा तो भी इलाज हम बाहर से ही करेंगे; इलाज भीतर से नहीं करेंगे।
लेकिन मैस्कलीन हो, एल.एसड़ी. हो, और-और तरह के ड्रग्स हों, जो धोखा दे सकते हैं स्वास्थ्य का, आंतरिक स्वास्थ्य का, लेकिन वे आंतरिक स्वास्थ्य बना नहीं सकते। कोई रासायनिक ढंग से हम मनुष्य के अंतिम छोर पर नहीं पहुंच सकते हैं। जितने हम भीतर जाते हैं, उतनी ही रासायनिक गतिविधि क्षीण होती चली जाती है। जितने हम भीतर जाते हैं मनुष्य के, उतना ही पौदगलिक, फिजिकल, मैटीरियल एप्रोच कम अर्थ की रह जाती है। नॉन-मैटीरियल एप्रोच, कहना चाहिए कि एक साइकिक, मानसिक पहुंच।
लेकिन अभी तक नहीं हो पाया कुछ प्रिज्युडिसिस के कारण, कुछ पक्षपातों के कारण। और बड़े मजे की बात है कि डाक्टर, दुनिया के दो-तीन मोस्ट आर्थाडॉक्स प्रोफेशंस में से एक है। जो लोग दुनिया में बहुत आर्थाडॉक्स हैं, उनमें प्रोफेसर्स और डाक्टर्स अग्रणीय हैं। ये जल्दी पुरानी धारणाएं नहीं छोड़ते।
इसके कारण भी हैं। शायद स्वाभाविक कारण हैं। बड़ा स्वाभाविक कारण तो यह है कि डाक्टर्स और प्रोफेसर्स अगर जल्दी पुरानी धारणाएं छोड़ें, बहुत फ्लेक्सिबल हों, तो प्रोफेसर्स बच्चों को सिखाने में मुश्किल में पड़ जाएंगे। चीजें फिक्स्ड होनी चाहिए, तो वे ठीक से सिखा पाते हैं। तय होनी चाहिए, अनिश्चित नहीं होनी चाहिए; तरल नहीं होनी चाहिए, लिक्विड नहीं होनी चाहिए, ठोस होनी चाहिए; तो उनको सिखाते वक्त कांफिडेंस होता है। और प्रोफेसर्स को जितनी कांफिडेंस की जरूरत होती है उतनी चोर और डाकुओं को भी नहीं होती! उसे आत्मविश्वास होना चाहिए कि वह जो कह रहा है वह बिल्कुल एब्सोल्यूटली ठीक है। और जिसको भी ऐसी प्रोफेशनल जरूरत है कि वह बिल्कुल पूर्णरूप से ठीक है, वह आर्थाडॉक्स हो जाता है।
शिक्षक आर्थाडॉक्स हो जाते हैं। उससे भारी नुकसान पहुंचता है। क्योंकि शिक्षा सबसे कम आर्थाडॉक्स होनी चाहिए। नहीं तो विकास में बाधा डालेगी। इसलिए दुनिया में कोई शिक्षक आमतौर से आविष्कारक नहीं होते। सारी यूनिवर्सिटीज में इतने प्रोफेसर्स हैं, लेकिन आविष्कार यूनिवर्सिटी के बाहर लोग करते हैं, भीतर नहीं करते! नोबल प्राइज पाने वाले सत्तर प्रतिशत से ऊपर लोग यूनिवर्सिटीज के बाहर के लोग हैं।
दूसरा धंधा जो बहुत ही आर्थाडॉक्स है वह डाक्टर का है। उसका भी प्रोफेशनल कारण है कि उसे बहुत जल्दी निर्णय लेने पड़ते हैं। मरीज अभी मर रहा है! अगर बहुत सोच-विचार करे, तो सोच-विचार तो हो जाएगा, लेकिन मरीज नहीं बचेगा। अगर वह बहुत अन-आर्थाडॉक्स हो और बहुत नये-नये प्रयोग करता हो, तो खतरा है। उसे तत्काल...तत्काल उत्तर जिसे खोजने हैं, वह हमेशा पुराने ज्ञान पर निर्भर होता है, नये ज्ञान की झंझट में नहीं पड़ता। तत्काल उत्तर, जिसे रेडीमेड उत्तर चाहिए चैबीस घंटे, उसे हमेशा पुराने ज्ञान पर निर्भर होना पड़ता है।
इसलिए मेडिकल साइंस मेडिकल रिसर्च से करीब-करीब तीस साल पीछे चलती है। मेडिकल प्रोफेशन मेडिकल रिसर्च से कम से कम तीस साल पीछे चलता है। और इसलिए बहुत से मरीजों को बेकार मरना पड़ता है और परेशान होना पड़ता है। क्योंकि सच में जो अब नहीं होना चाहिए, वह होता चला जाता है।
पर वह प्रोफेशनल दिक्कत है। और इसलिए चिकित्सक की कुछ मान्यताएं जड़बद्ध हैं बहुत गहरे में। उनमें एक मान्यता उसकी औषधि पर भरोसा है आदमी से ज्यादा। रासायनिक तत्वों पर भरोसा है, केमिकल्स पर ज्यादा भरोसा है बजाय चेतना के। कांशसनेस से ज्यादा केमिस्ट्री महत्वपूर्ण है उसे। इसका बड़ा घातक परिणाम हो रहा है। क्योंकि जब तक केमिस्ट्री महत्वपूर्ण है, तब तक कांशसनेस पर प्रयोग नहीं किए जा सकते।
इधर कुछ दो-चार प्रयोग की बात मैं करना चाहूंगा, जिनसे ख्याल आ सके।
अब जैसे, मां से बच्चा पैदा हो, तो पेनलेस चाइल्ड बर्थ पुरानी समस्या है। पुरानी समस्या है कि मां से बच्चा बिना दर्द के कैसे पैदा हो जाए?
हालांकि धर्मगुरु इसके खिलाफ हैं कि बिना दर्द के बच्चा पैदा हो। असल में धर्मगुरु इसके ही खिलाफ हैं कि दुनिया बिना दर्द की हो जाए। क्योंकि दुनिया जिस दिन बिना दर्द की होगी, धर्मगुरु एकदम आउट ऑफ प्रोफेशन हो जाएगा, उसका कोई मतलब नहीं रह जाएगा। दर्द है, दुख है, पीड़ा है, तो पुकार है। शायद भगवान भी एक दिन निग्लेक्टेड हो जाए, अगर दुनिया में दुख न हो। शायद ही कोई जाकर प्रार्थना करे; क्योंकि हम दुख में ही उसका स्मरण करते हैं। तो धर्मगुरु निरंतर खिलाफत में है। वह कहता है, मां को जो दर्द होता है बच्चे की प्रसव-पीड़ा में, वह नेचरल है, वह होना ही चाहिए, वह भगवान की व्यवस्था है।
यह बात झूठी है। कोई भगवान की व्यवस्था बच्चे के जन्म के समय दर्द की नहीं है। चिकित्सक विश्वास करता है कि बेहोशी की दवाएं दे दी जाएं, कोई केमिकल व्यवस्था की जाए, एनस्थेसिया हो, जिससे कि हम पेनलेस बर्थ...
ऐसे चिकित्सक के जो उपाय हैं, वे शरीर से शुरू होते हैं, कि हम शरीर को ऐसी हालत में ला दें कि पता न चले कि दर्द हो रहा है। स्वभावतः स्त्रियां खुद भी इसी का प्रयोग कर रही हैं हजारों साल से। इसलिए दुनिया में पचहत्तर प्रतिशत के करीब बच्चों को रात में पैदा होना पड़ता है; दिन में मुश्किल है पैदा होना। क्योंकि दिन में स्त्री बहुत सचेतन होती है; रात में नींद में सो जाती है, रिलैक्स हो जाती है। इसलिए सत्तर-पचहत्तर परसेंट बच्चों को सूरज की रोशनी में पैदा होने का मौका नहीं मिलता, उनको अंधेरे में ही पैदा होना पड़ता है। स्त्री नींद में होती है तो थोड़ी रिलैक्स हो जाती है, तो बच्चे को जन्म लेने में आसानी पड़ती है। मां बच्चे को जन्म के साथ ही बाधा देनी शुरू कर देती है, बाद में तो बहुत बाधाएं देती है, लेकिन जन्म के पहले क्षण से ही बाधाएं देनी शुरू कर देती है।
अब एक उपाय तो यह है कि हम कोई केमिकल प्रयोग करें और शरीर को ऐसा शिथिल कर दें जैसा वह नींद में हो जाता है। यह उपाय काम में लाया जा रहा है। इसके अपने खतरे हैं। सबसे बड़ा खतरा तो यह है कि हम आदमी की चेतना पर भरोसा जरा भी नहीं करते। और धीरे-धीरे जब आदमी की चेतना पर भरोसा कम किया जाता है तो आदमी की चेतना खोती चली जाती है।
लोजिम नाम के एक चिकित्सक ने आदमी की चेतना पर भरोसा किया और हजारों स्त्रियों को दुख और दर्द से रहित बच्चे पैदा करवाने की व्यवस्था की है। वह कांशस कोआपरेशन का मेथड है..कि जब बच्चा पैदा हो तो मां मेडिटेटिवली, ध्यानपूर्ण ढंग से बच्चे को जन्म देने में सहयोगी बने। वह राजी हो जाए, लड़े न, रेसिस्ट न करे। जो दर्द है वह बच्चे के पैदा होने से नहीं होता, वह मां की लड़ाई से पैदा होता है। वह पूरे वक्त जन्म देने के यंत्र को सिकोड़ रही है। वह डर रही है कि दर्द होगा; भयभीत है कि बच्चा पैदा न हो जाए। यह फियर सेंटर्ड रेसिस्टेंस उसको बच्चे को पैदा होने से रोक रहा है और बच्चा पैदा होना चाह रहा है। उन दोनों के बीच लड़ाई चल रही है..मां और बेटे के बीच लड़ाई है! उस लड़ाई में दर्द है। दर्द स्वाभाविक नहीं है, सिर्फ संघर्ष है, रेसिस्टेंस है।
इस रेसिस्टेंस को दो तरह से हम हल कर सकते हैं। एक कि शरीर की तरफ से हम मां को बेहोश कर दें। लेकिन ध्यान रहे, जो मां बेहोशी में अपने बच्चे को जन्म देगी वह पूरे अर्थों में मां कभी भी न हो पाएगी। क्योंकि उसका कारण है। बच्चा जब पैदा होता है तो बच्चा ही पैदा नहीं होता, उसके साथ मां भी पैदा होती है। बच्चे का पैदा होना दोहरा जन्म है। एक तरफ बच्चा पैदा होता है, दूसरी तरफ एक साधारण स्त्री मां हो जाती है, जो उसके पहले वह नहीं थी। अगर बेहोशी में बच्चा पैदा हुआ तो मां और उसके बच्चे के बीच के बुनियादी संबंध को हमने विकृत किया। मां पैदा नहीं हो पाएगी, नर्स रह जाएगी पीछे।
इसलिए मैं राजी नहीं हूं कि केमिकल ढंग से, शारीरिक ढंग से मां की बेहोशी में बच्चे को जन्म दिया जाए। मां पूरी कांशस होनी चाहिए अपने बच्चे के जन्म के क्षण में, क्योंकि उसी कांशसनेस में मां का भी जन्म होगा।
अगर यह दूसरी बात सही मालूम पड़े, तो इसका मतलब यह हुआ कि मां की चेतना की ट्रेनिंग होनी चाहिए बच्चे के जन्म के वक्त। मां को सिखाना चाहिए कि जन्म के क्षण को वह ध्यानपूर्ण ढंग से ले ले। ध्यान का अर्थ मां के लिए दो होंगे। एक तो वह रेसिस्ट न करे, विरोध न करे। जो हो रहा है, उसके होने में सहयोगी हो। जैसे नदी बह रही है, जहां गड्ढा मिल जाता है वहीं बह जाती है। जैसे हवाएं बह रही हैं। जैसे वृक्ष से सूखे पत्ते गिर रहे हैं। कहीं कुछ खबर नहीं होती, वृक्ष से सूखा पत्ता नीचे गिर जाता है। ऐसे मां पूरी तरह, जो घटना घट रही है, उसमें सहयोगी हो..टोटल कोआपरेशन, पूर्ण सहयोग।
अगर मां अपने बच्चे को जन्म देते वक्त पूर्णतया सहयोगी हो जाए, कोई विरोध न करे, कोई भय न करे और जन्म की जो घटना घट रही है उसमें पूरी ध्यानपूर्ण होकर रसलीन हो जाए, तो पेनलेस बर्थ हो जाएगा, दर्द उससे विदा हो जाएगा। और यह मैं वैज्ञानिक आधारों पर कह रहा हूं; हजारों प्रयोग किए गए हैं, उस आधार पर कह रहा हूं। वह दर्द-मुक्त हो जाएगा।
और ध्यान रहे, इसके बड़े व्यापक परिणाम होंगे। पहला तो जिससे हमें दर्द मिले पहले ही क्षण में, उसके प्रति हमारे दुर्भाव बनने शुरू हो जाते हैं। जिससे हमारा संघर्ष हो पहले ही क्षण में, उससे हमारी दुश्मनी की यात्रा शुरू हो जाती है। उससे हमारी मैत्री के संबंध में बाधा पड़ जाती है। जिससे हमारी पहले ही कांफ्लिक्ट शुरू हो गई हो, उसके साथ कोआपरेशन बांधना बहुत मुश्किल हो जाएगा, ऊपरी हो जाएगा।
लेकिन जिस क्षण हम सहयोग से और सचेतन रूप से बच्चे को जन्म दे पाएं...। तो यह बड़े मजे की बात है। अब तक हमने प्रसव-पीड़ा शब्द सुना है, प्रसव-आनंद नहीं, क्योंकि हुआ नहीं। लेकिन अगर पूर्ण सहयोग हो तो प्रसव-आनंद भी शुरू हो जाएगा। तो मैं सिर्फ पेनलेस बर्थ के पक्ष में नहीं हूं, ब्लिसफुल बर्थ के पक्ष में हूं।
अगर हम चिकित्सा का उपयोग करें तो ज्यादा से ज्यादा, एट दि मोस्ट, पेनलेस बर्थ हो सकता है, लेकिन ब्लिसफुल बर्थ नहीं हो सकता। लेकिन अगर चेतना की तरफ से हम शुरू करें, तो एक आनंदपूर्ण जन्म हो सकता है। और हम पहली ही घड़ी से मां और बेटे के बीच एक अंतर्संबंध..सचेतन...।
यह मैंने सिर्फ एक उदाहरण के लिए बात कही कि भीतर से भी कुछ किया जा सकता है। जब भी हम बीमार हैं, तब हम सिर्फ बाहर से लड़ रहे हैं। भीतर से वह आदमी सच में बीमारी से लड़ने को राजी है या नहीं, इसकी भी हमें कोई चिंता नहीं है। हो सकता है यह बीमारी निमंत्रित हो। निमंत्रित बीमारियां बड़ी संख्या में हैं। असल में बहुत कम बीमारियां हैं जो आती हैं, बहुत अधिक बीमारियां हैं जो बुलाई जाती हैं। लेकिन हमने निमंत्रण बहुत पहले दिया होता है, आती बहुत देर से हैं, इसलिए हम संबंध नहीं जोड़ पाते।
हजारों साल तक हजारों कौमें दुनिया में ऐसी थीं, जिनको यह ख्याल नहीं था कि काम-संभोग से बच्चे के पैदा होने का कोई भी संबंध है। क्योंकि नौ महीने का फासला था; कार्य-कारण को, कॉ.ज और इफेक्ट को इतने दूर रखना मुश्किल था। तो काम-संभोग से बच्चे के पैदा होने का ख्याल बहुत कम कौमों को था। फिर सभी काम-संभोग बच्चे के पैदा होने में फलित नहीं होते, इसलिए भी कोई वजह नहीं थी सोचने की। यह तो बहुत बाद में ख्याल आया कि वह जो नौ महीने पहले घटना घटी है, वह नौ महीने बाद फलित हो रही है। उसके लिए कॉ.ज-इफेक्ट का संबंध जोड़ा जा सका।
हम भी अपनी बीमारियों को कभी बुलाते हैं, कभी वे आती हैं। इसमें फर्क पड़ जाता है। इसलिए हम जोड़ नहीं पाते।
अब एक आदमी के संबंध में मैंने सुना है कि वह बैंक्रप्ट होने की हालत में है। उसकी हालत दिवाला निकल जाने की है। वह बाजार जाने से डरता है; दुकान जाने से डरता है; रास्ते पर निकलने से डरता है। अचानक एक दिन सुबह अपने बाथरूम से निकल रहा है और गिर पड़ा और पैरालाइज्ड हो गया। अब उसकी सब चिकित्सा चल रही है। उसको लकवा लग गया है, उसकी चिकित्सा चल रही है। लेकिन हम यह सोच ही नहीं पा रहे हैं कि यह आदमी पैरालाइज्ड होना चाहता था। इसने कांशसली ऐसा सोचा या नहीं, यह सवाल नहीं है। इसने ऐसी धारणा बनाई या नहीं, यह सवाल नहीं है..कि लकवा मुझे लग जाए। शायद ऐसी कभी धारणा नहीं बनाई। लेकिन कहीं चित्त में गहरे में, अनकांशस में, यह चाहता था कि बाजार न जाना पड़े, दुकान न जाना पड़े, रास्ते पर न निकलना पड़े। एक!
दूसरा यह यह भी चाहता था कि किसी तरह इस पर आक्रमण बंद हो और सहानुभूति शुरू हो। ये इसकी गहरी चाहें थीं। अब इसका शरीर इसको सहयोग देगा। शरीर सदा हमारे मन के पीछे छाया की तरह चल रहा है। वह सहयोग देगा। मन इंतजाम कर देगा।
असल में मन के इंतजाम का हमें पता नहीं है। अगर आप दिन भर उपवास करें तो आप रात भोजन करेंगे। मन रात में इंतजाम कर देगा सपने में। वह कहेगा, दिन भर भूखे रहे, बहुत परेशान हुए, चलो राजा के घर निमंत्रण करवा देते हैं। तो रात आप भोजन कर लेंगे। मन इंतजाम कर देगा। वह कहेगा, जो शरीर से नहीं हो पाया, वह मन से किए देते हैं। रात सपने हम अधिकतम ऐसे ही देख रहे हैं, जो सब्स्टीट्यूट्स हैं। जो हम दिन में नहीं कर पाए, वह हम रात कर रहे हैं। मन इंतजाम कर रहा है।
अगर रात में आपको जोर से ख्याल उठा है कि पेशाब कर आऊं, तो मन घंटी बजा रहा है, वह कुछ इंतजाम करेगा। वह आपको बाथरूम भेज देगा सपने में, और आपको वह जो ब्लैडर पर जोर पड़ना शुरू हुआ है, ख्याल में आ जाएगा कि ठीक है, बाथरूम हो आए हैं, सब ठीक हो गया। नींद न टूटे, इसलिए मन इंतजाम कर देगा। मन चैबीस घंटे आपकी जानी-अनजानी इच्छाओं के लिए इंतजाम कर रहा है।
अब यह आदमी लकवा खाकर गिर गया। अब हम इसका इलाज करने में लगे हुए हैं। हमारी सब दवाइयां..इसे नुकसान पहुंचाने की पूरी संभावना है। क्योंकि इसको लकवा है ही नहीं, यह निमंत्रित बीमारी है। अगर हम लकवा किसी तरह ठीक भी कर दें, तो यह दूसरी बीमारी पैदा करेगा, यह तीसरी बीमारी पैदा करेगा, यह चैथी बीमारी पैदा करेगा। असल में जब तक यह बाजार जाने की हिएमत नहीं जुटा पाता है, तब तक इसकी बीमारियां पैदा होती चली जाएंगी। और बीमार होते ही यह पाएगा कि सारी स्थिति बदल गई। अब यह कह सकता है कि बैंक्रप्ट होने के लिए जस्टीफिकेशन है। मैं क्या कर सकता हूं, लकवा लग गया है! अब यह कह सकता है किसी कर्जदार को कि भई कैसे चुका सकता हूं, देखते हैं मेरी हालत! सच तो यह है कि जब लेने वाला इसके सामने आएगा तो खुद ही शर्म अनुभव करेगा कि इससे कैसे मांगे। इसकी पत्नी इसकी ज्यादा सेवा करेगी, बेटे ज्यादा पैर दबाएंगे, मित्र देखने आने लगेंगे, इसकी खाट के पास लोग बैठेंगे।
असल में जब तक कोई बीमार न पड़े, हम कभी उसे प्रेम करते ही नहीं! तो जिसको भी प्रेम पाने की इच्छा हो, उसको बीमार पड़ना पड़ता है। स्त्रियां अक्सर बीमार पड़ी रहती हैं, उसका कुल कारण इतना है कि बीमारी उनके लिए प्रेम पाने का रास्ता हो गई है। वे जानती हैं कि पति को रोकने का और कोई उपाय नहीं है। पत्नी नहीं रोक पाती, बीमारी रोक पाती है। तो एक दफे पता चल जाए और इसका ख्याल मन में बैठ जाए तो जब भी सहानुभूति चाहिए, हम बीमार रहने लगेंगे। असल में बीमार के साथ सहानुभूति बताना बहुत खतरनाक है। बीमार का इलाज करना ठीक है, सहानुभूति बताना खतरनाक है। क्योंकि सहानुभूति से आप उसकी बीमारी में रस पैदा कर रहे हैं, जो कि खतरा सिद्ध हो सकता है।
अब यह आदमी लकवा खाकर गिर पड़ा है, अब इसका कोई इलाज इसे ठीक नहीं कर सकता, दूसरी बीमारियां बदल लेगा बस। क्योंकि लकवा इसकी बीमारी नहीं है, लकवा इसका भाव है। पक्षाघात मानसिक है। ऐसे लकवा वाले लोगों के संबंध में घटनाएं हैं..कि उनके घर में आग लग गई। वे दो साल से लकवे में पड़े थे, उठ नहीं सकते थे। घर में आग लगी, सारे लोग घर के बाहर पहुंच गए, तब घर के लोगों को पता चला कि अरे उनका क्या होगा? लेकिन देखा कि वे चले आ रहे हैं! वे भागे चले आ रहे हैं, जो कि उठ नहीं सकते थे! और जब घर के लोगों ने कहा कि आप और चल रहे हैं? तो उस आदमी ने कहा, मैं! मैं चल कैसे सकता हूं! वह वापस गिर गया।
इसको क्या हुआ? नहीं, ऐसा नहीं कि यह धोखा दे रहा है। यह धोखा नहीं दे रहा है। बीमारी माइंड-ओरिएंटेड है, बॉडी-ओरिएंटेड नहीं है। बस इतना ही फर्क है।
इसलिए जब भी कोई चिकित्सक किसी मरीज को कहता है कि तुएहारी मानसिक बीमारी है, तो मरीज को अच्छा नहीं लगता। क्योंकि मानसिक बीमारी में ऐसा भाव झलकता है कि तुम नाहक ही बीमारी दिखला रहे हो। यह बात गलत है। कोई आदमी नाहक बीमारी नहीं दिखला रहा है। बीमारी के कारण हैं। और बीमारी के मानसिक कारण उतने ही महत्वपूर्ण हैं, जितने महत्वपूर्ण शारीरिक कारण हैं, बल्कि शायद ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।
इसलिए किसी मरीज को भूल कर भी यह कहना कि तुएहें मानसिक बीमारी है, तुम मेंटली इल हो, चिकित्सक का दुव्र्यवहार है। इससे वह बीमार ठीक नहीं होगा, इससे सिर्फ चिकित्सक के खिलाफ होगा। क्योंकि अब तक हम मानसिक बीमारी के संबंध में सदभाव पैदा नहीं कर पाए। अगर मेरे पैर में चोट है तो सब सहानुभूति दिखाएंगे। लेकिन मेरे मन में चोट है तो लोग कहते हैं कि यह तो मानसिक बीमारी है। जैसे कि मैंने कोई गलती की है। पैर में चोट होती तो सहानुभूति भी मिलती, लेकिन मानसिक बीमारी जैसे मेरी कोई भूल है!
नहीं, भूल नहीं है। मानसिक बीमारी का अपना तल है। लेकिन चिकित्सक उसको स्वीकार नहीं करता है। नहीं करता है इसलिए कि उसके पास सिर्फ शारीरिक चिकित्सा का उपाय है, और कोई कारण नहीं है। उसके बियांड पड़ रही है जो बीमारी, उसको वह इनकार करता है। वह कहता है, यह बीमारी नहीं है। असल में उसे कहना चाहिए कि यह मेरे हाथ के भीतर नहीं है। तुम और तरह का चिकित्सक खोजो या मुझे और तरह का चिकित्सक बनना पड़ेगा।
इस आदमी को और तरह का इलाज चाहिए। इस आदमी को भीतर से बाहर की तरफ आने वाला इलाज चाहिए। और हो सकता है, बहुत छोटी सी बात इसके भीतर की जिंदगी को बदल दे।
ध्यान मेरे लिए भीतर से बाहर की तरफ आने वाली चिकित्सा है।
बुद्ध ने तो...बुद्ध से किसी ने जाकर कहा है एक दिन कि आप कौन हैं? दार्शनिक हैं, विचारक हैं, संत हैं, योगी हैं..कौन हैं?
बुद्ध ने कहा, मैं सिर्फ एक वैद्य हूं। मैं एक चिकित्सक हूं। जस्ट ए फिजीशियन।
बुद्ध का उत्तर बहुत अदभुत है। मैं सिर्फ एक चिकित्सक हूं..भीतर की बीमारियों के संबंध में कुछ मुझे पता है, वह मैं तुमसे कहता हूं।
जिस दिन हमें यह ख्याल आ जाए कि भीतर की बीमारी के संबंध में कुछ करना ही पड़ेगा, अन्यथा बाहर की बीमारी को न तो हम मिटा सकते हैं पूरी तरह, न समाप्त कर सकते हैं, उसी दिन हम पाएंगे कि रिलीजन और साइंस करीब आने शुरू हो गए, उसी दिन हम पाएंगे कि चिकित्सा और ध्यान करीब आने शुरू हो गए। और मेरी अपनी समझ यह है, इस सेतु को बनाने में चिकित्सा जितना बड़ा काम कर सकती है, उतना दूसरी कोई साइंस नहीं करेगी।
केमिस्ट्री को रिलीजन के पास आने की अभी कोई वजह नहीं है। फिजिक्स को भी रिलीजन के पास आने की अभी कोई वजह नहीं है। गणित को भी रिलीजन के करीब आने की कोई वजह नहीं है। अभी गणित बिना धर्म के रह सकता है। मैं सोचता हूं सदा रह सकेगा; क्योंकि गणित कभी भी ऐसी स्थिति में पहुंचे जहां उसको धर्म की जरूरत पड़ जाए, ऐसा मुझे दिखाई नहीं पड़ता। यानी ऐसा कोई क्षण आ जाए जहां गणित को ऐसा लगे कि बिना धर्म के गणित विकसित नहीं होगा, ऐसा मैं कंसीव नहीं कर पाता। कभी नहीं आएगा। गणित अपने खेल को जारी रख सकता है अनंत तक। क्योंकि गणित एक खेल है; गणित जिंदगी नहीं है।
लेकिन चिकित्सक खेल में नहीं है, जिंदगी के साथ है। चिकित्सक ही शायद पहला ब्रिज बनेगा रिलीजन और साइंस के बीच। बन रहा है, विकसित समझदार मुल्कों में बनना शुरू हो गया है। क्योंकि चिकित्सक को आदमी के साथ व्यवहार करना है। और आदमी को, जैसा कि कार्ल गुस्ताव जुंग ने मरने के पहले कहा कि मैं एक चिकित्सक की हैसियत से यह कह सकता हूं कि चालीस साल की उम्र के बाद जितने मरीज मेरे पास आए, बुनियादी रूप से उनकी बीमारी धर्म का अभाव थी। बहुत हैरानी की बात है! बुनियादी रूप से उनकी बीमारी में धर्म का अभाव था। अगर उनको किसी तरह का धर्म दिया जा सके तो वे स्वस्थ हो जाएं।
यह कुछ समझने जैसा है। जैसे ही व्यक्ति की जिंदगी ढलनी शुरू होती है...पैंतीस साल तक उम्र चढ़ती है, पैंतीस साल के बाद उम्र ढलनी शुरू हो जाती है। पैंतीस साल पीक मोमेंट है। तो हो सकता है पैंतीस साल तक ध्यान की कोई जरूरत मालूम न पड़े, क्योंकि आदमी बॉडी-ओरिएंटेड है, अभी चढ़ रहा है शरीर। अभी हो सकता है सब बीमारियां शरीर की हों। लेकिन पैंतीस साल के बाद बीमारियां नया रुख लेंगी, क्योंकि अब जिंदगी मौत की तरफ चलनी शुरू होगी। और जब जिंदगी बढ़ती है तो बाहर की तरफ फैलती है और जब आदमी मरता है तो भीतर की तरफ सिकुड़ता है। बुढ़ापा भीतर की तरफ सिकुड़ जाना है।
सच तो यह है कि शायद बूढ़े आदमी की सारी बीमारियों के बहुत गहरे में मृत्यु होती है। आमतौर से लोग कहते हैं कि फलां आदमी बीमारी के कारण मर गया। मैं मानता हूं, इससे ज्यादा उचित होगा कहना कि फलाना आदमी मरने के कारण बीमार हो गया। असल में मरने की संभावना हजार तरह की बीमारियों के लिए वल्नरेबिलिटी पैदा कर देती है। जैसे ही मुझे लगता है कि मैं मर जाऊंगा, मेरे सब द्वार खुल जाते हैं बीमारियों के लिए, मैं उनको पकड़ने लगता हूं। अगर एक आदमी को पक्का हो जाए कि वह कल मर जाएगा, तो बिल्कुल स्वस्थ आदमी बीमार पड़ जाएगा। सब तरह ठीक था, सब तरह की रिपोर्ट ठीक थी, एक्सरे ठीक था, उसका ब्लड-काउंट ठीक था, सब ठीक था, उसकी हृदय की गति ठीक थी, स्टेथस्कोप सब ठीक कहता था। लेकिन उसे अगर पक्का बता दिया जाए कि तुम चैबीस घंटे बाद मर जाने वाले हो, आप अचानक पाएंगे उसने हजारों बीमारियां पकड़नी शुरू कर दीं। चैबीस घंटे में इतनी बीमारी पकड़ लेगा, जितनी चैबीस जिंदगी में पकड़ना मुश्किल था।
क्या हो गया इस आदमी को?
वह ओपन हो गया बीमारी के लिए, अब उसने रेसिस्टेंस छोड़ दिया। जब मरना ही है, तो उसके भीतर जो चेतना की दीवाल, वह जो चेतना का विरोध था बीमारी के प्रति, वह शिथिल हो गया। अब वह मरने के लिए राजी हो गया, अब बीमारी आनी शुरू हो गई।
इसलिए रिटायर्ड आदमी जल्दी मर जाते हैं। रिटायर्ड आदमी को रिटायर्ड होने के पहले ठीक से समझ लेना चाहिए कि पांच-छह साल का उम्र का फर्क पड़ता है। जो आदमी सत्तर साल में मरता, वह पैंसठ में मरेगा। जो अस्सी में मरता, वह पचहत्तर में मर जाएगा। और बाकी वक्त रिटायरमेंट के जो दस-पंद्रह वर्ष गुजारेगा, वह मरने की तैयारी में। वह और कोई काम नहीं करेगा। क्योंकि जैसे ही एक दफा उसे लगा कि मैं जिंदगी के लिए बेकार हो गया, अब मेरा कोई काम न रहा। सड़क पर कोई नमस्कार नहीं करता। क्योंकि जब तक वह सेक्रेटेरिएट में था, बात और थी। अब कोई नमस्कार नहीं करता, कोई देखता नहीं। क्योंकि अब नमस्कार भी लोग दूसरों को करेंगे। सब चीज की इकोनॉमी है। सेक्रेटेरिएट में दूसरे लोग पहुंच गए, उनको नमस्कार करें कि अब आपको भी नमस्कार बजाते रहें, तो बहुत मुश्किल हो जाएगा। तो लोग आपको भूल जाएंगे। अब उस आदमी को अचानक लगता है कि वह बेकार हो गया, अपरूटेड हो गया, किसी को उसकी कोई जरूरत नहीं है। घर में बच्चे अपनी पत्नियों के साथ चित्र देखने जाने लगे हैं, परिचित धीरे-धीरे मरघट जाने लगे हैं। पुराने जिनके काम थे, अब उनके लिए वह बेकाम हो गया है। अचानक वल्नरेबिलिटी पैदा हो गई, अब वह मौत के लिए चारों तरफ से खुल गया।
मनुष्य की चेतना भीतर से कब स्वस्थ होती है?
एकः उसे भीतर की चेतना का अहसास शुरू हो जाए, भीतर की चेतना की फीलिंग शुरू हो जाए।
हमें आमतौर से भीतर की कोई फीलिंग नहीं होती। हमारी सब फीलिंग शरीर की होती है..हाथ की होती है, पैर की होती है, सिर की होती है, हृदय की होती है। उसकी नहीं होती जो मैं हूं। हमारा सारा बोध, हमारी सारी अवेयरनेस घर की होती है, घर में रहने वाले मालिक की नहीं होती। यह बड़ी खतरनाक स्थिति है। क्योंकि कल अगर मकान गिरने लगेगा, तो मैं समझूंगा..मैं गिर रहा हूं। वही मेरी बीमारी बनेगी।
नहीं, अगर मैं यह भी जान लूं कि मैं मकान से अलग हूं, मकान के भीतर हूं, मकान गिर भी जाएगा, फिर भी मैं हो सकता हूं; तो बहुत फर्क पड़ेगा, बहुत बुनियादी फर्क पड़ जाएगा। तब मृत्यु का भय क्षीण हो जाएगा।
ध्यान के अतिरिक्त मृत्यु का भय कभी भी नहीं कटता।
तो ध्यान का पहला अर्थ हैः अवेयरनेस ऑफ वनसेल्फ।
हम सदा, जब भी होश में हैं, तो हमारा होश जो है वह अवेयरनेस अबाउट, किसी चीज के बाबत है सदा। वह कभी अपने बाबत नहीं है। इसीलिए तो हम अकेले बैठें तो हमको नींद आनी शुरू हो जाती है, क्योंकि वहां क्या करें? अखबार पढ़ें, रेडियो खोलें, तो थोड़ा जागना सा मालूम पड़ता है। अगर एक आदमी को हम बिल्कुल अकेले में छोड़ दें, अंधेरा कर दें कमरे में...। अंधेरे में इसीलिए नींद आ जाती है आपको, क्योंकि कुछ दिखाई नहीं पड़ता, तो कांशसनेस की कोई जरूरत नहीं रह जाती। कुछ चीज दिखाई पड़ती नहीं, तो अब क्या करें, सिवाय सोने के कोई उपाय नहीं मालूम पड़ता। अकेले पड़ जाएं, अंधेरा हो, कोई बात करने को न हो, कुछ सोचने को न हो, तो बस आप गए नींद में। और कोई उपाय नहीं है।
ध्यान रहे, नींद और ध्यान एक अर्थ में समान हैं, एक अर्थ में भिन्न। नींद का मतलब हैः आप अकेले हैं; लेकिन सो गए हैं। ध्यान का मतलब हैः आप अकेले हैं; लेकिन जागे हुए हैं। बस इतना ही फर्क है। अगर आप अपने अकेलेपन में और अपने भीतर जाग सकते हैं अपने प्रति...
एक आदमी बुद्ध के सामने बैठा है एक दिन और अपने पैर का अंगूठा हिला रहा है। बुद्ध ने कहा कि अंगूठा क्यों हिलाते हो?
उस आदमी ने कहा, छोड़िए! ऐसे ही हिलता था, मुझे कुछ पता न था।
बुद्ध ने कहा, तुएहारा अंगूठा हिले और तुएहें पता न हो! अंगूठा किसका है यह? तुएहारा ही है?
उसने कहा, मेरा ही है। लेकिन आप भी कहां की बातें कर रहे हैं! आप जो बात करते थे, जारी रखिए।
बुद्ध ने कहा, वह मैं नहीं करूंगा अब, क्योंकि जिस आदमी से मैं बात कर रहा हूं, वह बेहोश है। पता नहीं तुम मेरा सुन भी रहे हो कि नहीं...
उसने कहा कि आप भी कैसी बातें कर रहे हैं! अंगूठा हिल रहा है...
बुद्ध ने कहा, तो अपने अंगूठे के हिलने का आगे से होश रखो। तो उससे दोहरा होश...जो होश में है अंगूठे के प्रति, उसका होश भी पैदा हो जाएगा।
अवेयरनेस इ.ज आलवेज डबल एरोड। अगर हम उसका प्रयोग करें तो उसका एक तीर तो बाहर की तरफ रह जाएगा और दूसरा तीर भीतर की तरफ हो जाएगा।
तो ध्यान का पहला अर्थ है कि हम अपने शरीर और स्वयं के प्रति जागना शुरू करें। यह जागरण अगर बढ़ सके तो आपका मृत्यु-भय क्षीण हो जाता है। और जो चिकित्सा-शास्त्र मनुष्य को मृत्यु के भय से मुक्त नहीं कर सकता, वह चिकित्सा-शास्त्र मनुष्य नाम की बीमारी को कभी भी स्वस्थ नहीं कर सकता। हां, चिकित्सा-शास्त्र कोशिश करता है। वह कोशिश करता है उम्र लंबी करके। उम्र लंबी करने से सिर्फ मृत्यु की प्रतीक्षा लंबी होती है, और कोई फर्क नहीं पड़ता। और लंबी प्रतीक्षा से छोटी प्रतीक्षा अच्छी है। उम्र लंबी करने से सिर्फ मौत और भी दुखदायी होती चली जाती है।
क्या आपको अंदाज है कि जिन मुल्कों में चिकित्सा-शास्त्र ने लोगों की उम्र ज्यादा बढ़ा दी है, वहां एक नया आंदोलन चल रहा है, वह है अथनासिया का। वह यह है कि बूढ़े कह रहे हैं कि हमें मरने का अधिकार होना चाहिए कांस्टिट्यूशन में। क्योंकि आप हमको लटकाए चले जा रहे हैं और हमको अब जिंदा रहना बहुत कठिन हो गया है। आप तो लटका सकते हैं। एक आदमी को आक्सीजन का सिलेंडर रख कर न मालूम कितनी देर तक लटका सकते हैं और उसको जिंदा रख सकते हैं। लेकिन उसकी जिंदगी मरने से बदतर हो जाएगी।
अब न मालूम कितने लोग यूरोप और अमेरिका के अस्पतालों में उलटे-सीधे शीर्षासन की हालत में आक्सीजन के सिलेंडरों से बंधे हुए पड़े हैं! उनको मरने का हक नहीं है! वे मरने के हक की मांग कर रहे हैं। मैं मानता हूं कि आने वाले, इस सदी के पूरे होते-होते दुनिया के सभी सुशिक्षित राष्ट्रों के कांस्टिट्यूशन में जन्मसिद्ध अधिकारों में मरने का अधिकार जुड़ जाएगा। क्योंकि चिकित्सक को यह हक नहीं हो सकता कि वह किसी आदमी को उसकी इच्छा के विपरीत जिंदा रखे। अब तक तो हक यह नहीं था कि उसकी इच्छा के विपरीत मारे। लेकिन अभी तक जिंदा रखने का उपाय नहीं था। अब है।
आदमी की उम्र बढ़ाने से मृत्यु का भय कम नहीं होगा। आदमी को स्वस्थ कर देने से जिंदगी ज्यादा सुखी हो जाएगी, लेकिन ज्यादा अभय नहीं होगी। अभय तो सिर्फ एक ही स्थिति में, फियरलेसनेस एक ही स्थिति में आती है कि मुझे भीतर पता चल जाए कि कुछ है जो मरता ही नहीं। उसके बिना कभी नहीं हो सकता।
तो ध्यान उस अमरत्व का बोध है। वह जो मेरे भीतर है, वह कभी नहीं मरता है। और वह जो मेरे बाहर है, वह मरता ही है। इसलिए जो बाहर है, उसकी चिकित्सा करो कि वह जितने दिन जीए, सुख से जीए। और वह जो भीतर है, उसका स्मरण करो कि मृत्यु भी द्वार पर खड़ी हो जाए तो भय न कंपा दे।
भीतर ध्यान, बाहर चिकित्सा, चिकित्सा-शास्त्र को परिपूर्ण शास्त्र बना सकते हैं। तो मेडिसिन और मेडिटेशन को मैं एक ही शास्त्र के दो छोर मानता हूं, जिनके बीच अभी कड़ियां नहीं जुड़ पाई हैं। लेकिन धीरे-धीरे-धीरे-धीरे करीब बात आ रही है। आज तो अमेरिका के सभी विकसित अस्पतालों में एक हिप्नोटिस्ट का होना जरूरी हो गया है। लेकिन हिप्नोसिस मेडिटेशन नहीं है। पर यह अच्छा कदम है। यह इस बात की स्वीकृति है कि आदमी की चेतना के साथ सीधा कुछ करने की जरूरत है, सिर्फ शरीर के साथ करना पर्याप्त नहीं है। आज हिप्नोटिस्ट आएगा, मैं मानता हूं कल अस्पताल में मंदिर भी आएगा। वह पीछे आएगा, थोड़ा वक्त लगेगा। हिप्नोटिस्ट के बाद एक डिपार्टमेंट योगी का भी हर अस्पताल में आ ही जाएगा। आ ही जाना चाहिए। तब हम पूरे व्यक्ति को ट्रीट कर पाएंगे। शरीर की चिकित्सक फिक्र कर ले। उसके चित्त की साइकोलॉजिस्ट, साइकियाट्रिस्ट फिक्र कर ले। उसकी आत्मा की फिक्र योग कर ले। जिस दिन अस्पताल इस तरह पूरे मनुष्य के व्यक्तित्व को ए.ेज ए होल, ए.ेज ए टोटेलिटी स्वीकार करके चिकित्सा करेगा, मैं मानता हूं वह मनुष्य के जीवन में बड़े मंगल का क्षण होगा। ऐसा मंगल का क्षण करीब आए, इस दिशा में आपसे सोचने की प्रार्थना करता हूं।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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