हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्
तीसरा प्रवचन-(ध्यानः अंतस अनुभूति)
प्रश्नः मैं थोड़ी साधना करती हूं, खास कर उसके बारे में मुझे पूछना है।
साधना करेगी फिर तो पूछ ही न सकेगी। साधना इतनी और उतनी नहीं होती। मात्रा होती नहीं। यह हमारी बड़ी भ्रांति है। क्योंकि हम चीजों की दुनिया से परिचित हैं, इसलिए हमेशा क्वांटिटी के हिसाब से सोचते हैं। चीजों की दुनिया से परिचित होने के कारण यह भ्रांति होती है, क्योंकि चीजों में तो क्वांटिटी है और भीतर सिर्फ क्वालिटी है, क्वांटिटी नहीं है! भाव की दुनिया में कोई मात्रा नहीं है। इसलिए हम ऐसा नहीं कह सकते कि हम किसी को कम प्रेम करते हैं। या तो करते हैं या नहीं करते हैं। कम और ज्यादा प्रेम नहीं हो सकता। हो ही नहीं सकता। क्योंकि वहां नापने का उपाय ही नहीं है। या तो हम प्रेम करते हैं या हम नहीं करते हैं। कम प्रेम धोखे की बात है। ऐसे ही या तो हम साधना में जाते हैं या नहीं जाते हैं। कम साधना धोखे की बात है। लेकिन चूंकि हम वस्तुओं की दुनिया में ही जीते हैं और हमारा सारा चिंतन वहां से बनता है, तो वहां मात्राएं हैं। और उन्हीं मात्राओं को हम अध्यात्म में भी ले आते हैं, तब बड़ी भूल हो जाती है, तब बड़ी भूल हो जाती है।
अब यह, इसी तरह हम सीढ़ियां ले आते हैं अध्यात्म की दुनिया में। वहां सिर्फ छलांग है, वहां कोई सीढ़ियां नहीं हैं। लेकिन अगर सीढ़ियां न हों तो गुरु और शिष्य का क्या हो?
गुरु वह है जो आखिरी सीढ़ी पर खड़ा है, शिष्य वह है जो पहली सीढ़ी पर खड़ा है। अध्यात्म की दुनिया में इसलिए शिष्य और गुरु नहीं हो सकते। बिल्कुल नहीं हो सकते। वह सब हमारी वस्तुओं की दुनिया से ली गई उधार बातें हैं। जहां मजदूर है और मालिक है, जहां शिष्य है और गुरु है, कोई सिखाने वाला है, कोई सीखने वाला है। अध्यात्म की दुनिया में न कोई सिखाने वाला है, न कोई सीखने वाला है। सीखने की एक छलांग है। ए जंप इनटु लर्निंग। प्रोसेस नहीं है लर्निंग वहां; इसलिए क्रम नहीं है, ग्रेड नहीं है।
गुरु वह है जो आखिरी सीढ़ी पर खड़ा है, शिष्य वह है जो पहली सीढ़ी पर खड़ा है। अध्यात्म की दुनिया में इसलिए शिष्य और गुरु नहीं हो सकते। बिल्कुल नहीं हो सकते। वह सब हमारी वस्तुओं की दुनिया से ली गई उधार बातें हैं। जहां मजदूर है और मालिक है, जहां शिष्य है और गुरु है, कोई सिखाने वाला है, कोई सीखने वाला है। अध्यात्म की दुनिया में न कोई सिखाने वाला है, न कोई सीखने वाला है। सीखने की एक छलांग है। ए जंप इनटु लर्निंग। प्रोसेस नहीं है लर्निंग वहां; इसलिए क्रम नहीं है, ग्रेड नहीं है।
लेकिन शोषण का क्या होगा? अगर ग्रेड न हो, तो शोषण करना बहुत मुश्किल है। इसलिए हम ग्रेड बनाते हैं। हम कहते हैं..यह अभी नंबर एक की सीढ़ी पर है, यह नंबर दो की सीढ़ी पर है, यह नंबर तीन, मैं नंबर पांच की सीढ़ी पर हूं।
मैं गया, महीपाल जी, एक बहुत मजेदार मामला हुआ। एक संन्यासी हैं। एक बड़ा आश्रम है उनका और हजारों उनके शिष्य हैं। वे एक बड़े तख्त पर बैठे हैं। उनके बगल में एक छोटा तख्त रखा हुआ है। उस पर एक दूसरे संन्यासी बैठे हुए हैं। और बाकी संन्यासी नीचे बैठे हुए हैं। तो मैं गया तो उन्होंने कहा कि आप जानते हैं, ये कौन बैठे हुए हैं?
मैंने कहा, मैं नहीं जानता।
उन्होंने कहा कि ये चीफ जस्टिस थे हाईकोर्ट के। अब संन्यासी हो गए। लेकिन बड़े विनम्र हैं, कभी मेरे साथ तख्त पर नहीं बैठते। हमेशा छोटे तख्त पर नीचे बैठते हैं।
मैंने कहा, ये तो विनम्र हैं, लेकिन आप कौन हैं? क्योंकि आप हमेशा इनके साथ बड़े तख्त पर बैठते हैं। अगर ये विनम्र हैं तो आप कौन हैं? और मैंने कहा, ये भी छोटे तख्त पर बैठते हैं। इनसे भी नीचे लोग बैठे हुए हैं। ये भी नीचे उनके साथ नहीं बैठते हैं।
मैंने कहा, ये आपके मरने की राह देख रहे हैं। जब आप यह तख्त खाली करोगे, ये ऊपर बैठ जाएंगे। हायरेरकी चलेगी। चीफ डिसाइपल हैं ये आपके, जब आप मरेंगे तो ये गुरु हो जाएंगे। और ये नीचे जो बैठे हैं, इनमें जो सबसे ज्यादा काएिपटीटिव होगा, एंबीशस होगा, वह इस तख्त पर कब्जा कर लेगा। फिर यह गुरु उसके लिए कहेगा कि यह बहुत विनम्र है। विनम्र वह इसीलिए कह रहा है कि वह मेरे अहंकार की तृप्ति करवा रहा है, तो विनम्र है। अगर वह भी उचक कर इसी तख्त पर बैठ जाए, तो फिर विनम्र नहीं रह जाएगा, क्योंकि मेरे अहंकार को चोट पहुंचनी शुरू हो गई।
और फिर मैंने कहा कि आप यह क्यों बताते हैं कि यह आदमी हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस था? संन्यासी का मतलब ही है कि जो यह था, अब नहीं है। यह कोई भी रहा हो, चमार रहा हो, हाईकोर्ट का जस्टिस रहा हो, न रहा हो, इससे कोई वास्ता नहीं है, यह छलांग लगा गया वहां से। अब यह बताने की क्या जरूरत है? यह भी हम इसलिए बताते हैं कि यह कोई साधारण संन्यासी नहीं है..यानी यह मत समझना कि यह कोई चमार था, कि कोई सड़क साफ करता था..यह हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस था! तब तो फिर यह कहीं छोड़ कर गया नहीं है, सब वही का वही वापस है।
सारी दुनिया में अध्यात्म को जो नुकसान पहुंचा है, वह ग्रेडेशन से पहुंचा है। क्योंकि तब दुनिया में जो सीढ़ियां थीं, पद थे, पदवियां थीं, वे सब वहां पहुंच गईं। नाम बदल गए, बाकी वे सब वहां पहुंच गईं, वहां नये नाम से वे खड़ी हो गईं। यहां नेता था, अनुयायी था, तो वहां गुरु और शिष्य हो गया। यहां मालिक था, मजदूर था, तो वहां सिखाने वाला और सीखने वाला हो गया। लेकिन जहां भी वर्ग है, वहां शोषण है। वर्ग अर्थात शोषण। किसी भी भांति का वर्ग होगा, तो शोषण होगा। और जहां शोषण नहीं है वहां वर्ग को बनाने का उपाय नहीं है। उसे बनाएंगे कैसे?
तो मेरी अपनी समझ यह है कि शायद जमीन से और तरह के वर्ग मिटना तो बहुत असंभव है, कम से कम अध्यात्म का वर्ग तो नहीं होना चाहिए। यानी वह एकमात्र पासिबिलिटी है, जहां हम वर्गविहीनता लाएं। लेकिन वहां बहुत सख्त वर्ग है, जितना कि धन की दुनिया में भी सख्त वर्ग नहीं है। वहां बहुत सख्त वर्ग है।
हमारी एंबीशन, हमारी ईगो, हमारा अहंकार कितने तरह के रूप लेता है, इसको कहना बहुत कठिन है। और अहंकार जब भी कोई रूप लेता है तो उसके सोचने का ढंग सदा ही प्रोसेस में होता है, क्योंकि अहंकार छलांग नहीं लगा सकता, छलांग में वह मर जाता है। वह एक-एक कदम बढ़ता है। और एक-एक कदम वह इसीलिए बढ़ता है कि जब वह एक कदम को मजबूत कर लेता है, तब पीछे का कदम छोड़ता है।
छलांग का मतलब यह है कि अगला कदम अनिश्चित है..पड़े न पड़े, गड्ढा हो, एबिस हो। छलांग का मतलब यह है कि अगला कदम निश्चित नहीं किया, और कूद गए हैं। बढ़ने का मतलब यह है कि अगला कदम ठीक से निश्चित कर लिया, पैर अच्छी तरह जमा लिया, तब पिछला कदम उठाया। यानी जब हम भविष्य को सुनिश्चित कर लेते हैं तब वर्तमान को छोड़ते हैं। यह तो क्रम से सोचने का ढंग है। छलांग से सोचने का ढंग यह है कि हम वर्तमान को तो छोड़ ही देते हैं और भविष्य को अनिश्चित रहने देते हैं। इतना अभय हो, तो ही अध्यात्म में गति है। उस भय के कारण और इसलिए एक-एक कदम निश्चित हो सकता है ज्यादा से ज्यादा, इसलिए आगे की सीढ़ियां जब हम बिल्कुल पक्की मजबूत बना लेते हैं, तब हम उस पर चढ़ जाते हैं, पीछे की सीढ़ी छोड़ते हैं। यह छोड़ना नहीं है, यह सिर्फ बढ़ना है। इस सीढ़ी में पिछली सीढ़ी इंप्लाइड है।
एक आदमी के पास दस हजार रुपये हैं, वह दस हजार छोड़ता है, पचास हजार पा लेता है। दस हजार वह छोड़ता नहीं है। यह पचास हजार में चालीस हजार$दस हजार जुड़े हुए हैं। वह सिर्फ चालीस हजार पाता है, दस हजार छोड़ता नहीं है। पिछली सीढ़ी हमेशा अगली सीढ़ी में समा लेता है।
तो अहंकार जो है वह ऐसा चलता है जैसे सांप चलता है। आगे जब जाता है तो अपने पूरे सारे शरीर को सिकोड़ कर आगे ले आता है। तो अहंकार इसलिए कभी कुछ नहीं छोड़ता, अपने सारे पास्ट को सदा सिकोड़ कर आगे खींचता रहता है। इसलिए अहंकार बेसिकली कभी क्रांति से नहीं गुजरता, वह वही का वही रहता है, सिर्फ मॉडीफाइड होता है। नई-नई सीढ़ियों पर नये-नये रंग लेता चला जाता है। और हर नई सीढ़ी पर अकड़ नई उसे उपलब्ध हो जाती है, वह आनंद से भर जाता है।
अध्यात्म की भी ऐसी अकड़ है। लेकिन ऐसा अध्यात्म अध्यात्म ही नहीं हो सकता। मेरी दृष्टि में, अध्यात्म सदा ही एक छलांग है, ए जंप..जंप इनटु दि अननोन। और अननोन के हम ग्रेडेशंस नहीं कर सकते, नहीं तो वह नोन हो जाएगा। अननोन का हम नक्शा नहीं बना सकते, नहीं तो वह नोन हो जाएगा। अननोन में हम यह भी नहीं कह सकते कि कुछ मिलेगा कि खोएगा। अगर इतना भी पक्का हो जाए, तो फिर वह अननोन नहीं रह जाएगा। तो नोन से अननोन में, ज्ञात से अज्ञात में जो छलांग है, वह हमारा यह चित्त जो क्वांटिटी, ग्रेडेशंस, ग्रेजुअलनेस, सीढ़ियां, क्रम, इस भाषा में सोचता है..कम और ज्यादा..वह कभी नहीं लगा पाता। उससे बहुत सावधान रहने की जरूरत है।
इसलिए जब तक हम नहीं हैं तब तक यह जानना उचित है कि साधक नहीं हैं। कम साधक जानना खतरनाक है। नहीं हैं...
मैं आपको प्रेम नहीं करता, तो यह जानना बहुत ही ठीक है कि मैं प्रेम नहीं करता। कम से कम यह सच तो है। और न प्रेम करने की भी अपनी पीड़ा है, जो मुझे पकड़ेगी। जो मुझे काटेगी दिन-रात, कांटे की तरह चुभेगी कि मैं प्रेम नहीं करता। मैंने प्रेम किया ही नहीं। यह इतना घना होता जाएगा कि मुझे प्रेम की छलांग लेनी पड़ेगी एक दिन। यह इतनी चुभन गहरी हो जाएगी कि जिस जमीन पर मैं खड़ा हूं, वह आग हो जाएगी। मुझे उससे छलांग लगानी पड़ेगी, क्योंकि वहां खड़ा रहना असंभव हो जाएगा।
लेकिन हमारा कनिंग है मन। वह कहता है, नहीं, ऐसा नहीं है कि मैं प्रेम नहीं करता; थोड़ा करता हूं। थोड़ा और प्रयास करूंगा, थोड़ा और ज्यादा करूंगा। इस भांति जमीन कभी इतनी गर्म नहीं हो पाती..थोड़े की वजह से..कि मुझे ऐसा लगे कि छलांग लगाऊं। मैं कहता हूं, थोड़ा तो करता ही हूं, थोड़ा और बढ़ा लूंगा, थोड़ा और बढ़ा लूंगा। इसलिए नहीं करने की पीड़ा कभी भी बहुत स्पष्ट नहीं हो पाती।
अब एक आदमी माला फेर रहा है। तो वह कहता है, थोड़ी साधना करते हैं। इस थोड़ी साधना करने में वह सदा से अपने को साधना से बचा लेगा। क्योंकि वह कहेगा, ऐसा थोड़े ही है कि हम नहीं कर रहे हैं। थोड़ा हम कर रहे हैं। एक आदमी मंत्र जाप कर रहा है। वह कहता है, थोड़ा हम कर रहे हैं, थोड़ा-थोड़ा कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि हम खाली बैठे हैं, कि हम बेकार बैठे हैं। काम जारी है। ऐसे वह अपने मन को समझा रहा है कि कुछ चल रहा है, कुछ चल रहा है, कुछ चल रहा है।
ऐसे काम नहीं होगा। यह धोखा है, यह डिसेप्शन है बहुत गहरे में।
प्रश्नः जब ऐसा होगा, छलांग लगेगी, तब स्मृति तो बिल्कुल लुप्त हो जाएगी, दूर हो जाएगी। परंतु वर्ड्स तो याद रहने ही चाहिए, टेक्निकल वर्ड्स, टेक्निकल एजुकेशन, इस प्रोसेस में याद रहना चाहिए।
दोनों बातें ठीक हैं। असल बात यह है कि मेमोरी, जिसे हम स्मृति कहते हैं न, स्मृति के मिटाने का सवाल नहीं है। स्मृति से हमारा जो आइडेंटिफिकेशन है, उसे तोड़ने का सवाल है। मैं स्मृति ही नहीं हूं, यह जानने का सवाल है। यानी जो मैंने याद कर लिया, जान लिया, पहचान लिया, पढ़ लिया, सुन लिया, समझ लिया, वही मैं नहीं हूं। मैं उससे बहुत पृथक हूं। और यह तो मेरा एक्युमुलेशन है। जैसे मैंने धन इकट्ठा किया है, ऐसे मैंने ज्ञान भी इकट्ठा किया है। वह तिजोरी में बंद है, यह स्मृति में बंद है। यह भी एक तिजोरी है। लेकिन मैं तिजोरी ही नहीं हूं। धनपति भी इस भूल में पड़ जाता है, वह तिजोरी हो जाता है। और ज्ञानी भी इस भूल में पड़ जाता है, वह भी तिजोरी हो जाता है। उसे लगता है, यही मैं हूं। मेरा जानना ही मैं हूं।
नहीं, मेरा जानना ही मैं नहीं हूं। जानना मेरे अस्तित्व की एक प्रक्रिया है। मैं बहुत ज्यादा हूं जानने से। और जो मैं जानता हूं उससे बहुत ज्यादा जानने की मेरी अनंत संभावना है। तो स्मृति से तुएहारी दूरी भर बढ़ेगी, स्मृति मिट नहीं जाएगी। इसलिए तुएहारी टेक्निकल नालेज को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला जंप में, बल्कि तुएहारी टेक्निकल नालेज ज्यादा स्पष्ट हो जाएगी। क्योंकि जितने तुम अपनी स्मृति से दूर हो, उतनी क्लैरिटी है। जितना स्मृति के पास हो, उतनी क्लैरिटी कम है, धुंधली हो जाती है। और जब तुम स्मृति से आइडेंटिफाइड हो जाते हो, तब तो तुम बहुत दिक्कत में पड़ जाते हो, बहुत दिक्कत में पड़ जाते हो। स्मृति तो एक मैकेनिकल डिवाइस है, वह टेप-रेकार्डर की तरह है। तुम टेप-रेकार्डर नहीं हो।
लेकिन कोई आदमी टेप-रेकार्डर को पास रखे-रखे समझ ले कि मैं टेप-रेकार्डर हो गया, तो वह मुश्किल में पड़ जाएगा। कल टेप-रेकार्डर टूट जाए, तो वह समझेगा कि मैं टूट गया; कल टेप-रेकार्डर बंद हो जाए, तो वह समझेगा कि मैं बंद हो गया। और कल टेप-रेकार्डर बंद न हो, बोले ही चला जाए, तो वह कहेगा, मैं क्या कर सकता हूं, मैं तो यही हूं। तो वह बहुत बुरी तरह का बंधन है।
न, टेप-रेकार्डर है, स्मृति भी टेप-रेकार्डर है, जो बिल्कुल प्राकृतिक ढंग का है। और आज नहीं कल हम उसके साथ टेप-रेकार्डर जैसा काम कर सकेंगे। करना शुरू कर दिया है, माइंड वॉश भी हो सकता है। इसमें कोई कठिनाई नहीं रह गई है।
तो यह जो स्मृति है, इससे तुम भिन्न हो। यह छलांग लगाते वक्त मिट नहीं जाएगी, सिर्फ छलांग में तुएहारा फासला बढ़ेगा। तुम साफ देख सकोगे, यंत्र क्या है और चेतना क्या है। तो कांशसनेस और मेमोरी अलग तुएहें साफ दिखाई पड़ने लगेगी। और तब तुएहारी कांशसनेस में एक वर्जिनिटी आएगी, एक कुंआरापन आएगा, जो कि स्मृति के द्वारा करप्ट नहीं किया गया है। असल में स्मृति जो है, बहुत करप्ट करती है।
इसको समझ लेना उचित है। हमारी जो स्मृति है वह हमारे साथ व्यभिचार है। तुम कल मुझे मिले थे और कल तुमने मुझे गाली दी थी। आज जब तुम सुबह मुझे दिखते हो, मैं एकदम करप्ट हो जाता हूं। वह मेरी स्मृति कहती है कि यह वह आदमी आ रहा है जिसने गाली दी थी। अब मैं तुएहें देख ही नहीं पाता, वह कल का आदमी ही देखता रहता हूं कि अब यह वही आदमी आ रहा है जिसने मुझे गाली दी थी। अब मैं तैयार हो रहा हूं कि तुम गाली दोगे। मैं जवाब तैयार कर रहा हूं। कल जो जवाब मैं नहीं दे पाया था, क्योंकि तुमने अचानक गाली दी थी, आज बिल्कुल मैं तैयार रहूंगा कि तुम बोलो, मैं तुएहें जवाब दूं। और जब तुम मुझे गाली देने के लिए तैयार पाओगे तो बहुत संभावना है कि मैं तुममें से गाली भी पैदा करवा लूं, क्योंकि मैं सिचुएशन पूरी तैयार कर रहा हूं। और जब तुम में से गाली पैदा हो जाए, तो मैं कहूंगा कि बिल्कुल ठीक, मैं पहले से तैयार था, वह ठीक ही किया।
तो स्मृति ने करप्ट किया। वह अतीत से बांध दिया उसने। जैसे कल की धूल तुएहारे घर में पड़ी हो और आज सुबह सफाई न हो पाई हो, ऐसा हो गया। और यह धूल अनंत इकट्ठी हो जाती है, इसलिए तुम कभी अनकरप्टेड, वर्जिन नहीं होते कि तुम सीधे कुंआरे...कुंआरे की धारणा यही है..कुंआरे की धारणा यह है कि कुंआरेपन से ज्यादा पवित्र कुछ भी नहीं है।
लेकिन कुंआरेपन का जो हमने मतलब ले लिया वह बहुत अजीब ले लिया। उससे कोई वास्ता नहीं है। कुंआरेपन का मतलब यह है कि जो कल ने करप्ट नहीं किया है जिसे। जिसका अतीत जिसके भविष्य को, वर्तमान को करप्ट नहीं करता है। जिसका अतीत बीच में नहीं आता, जो रोज ताजा खड़ा हो जाता है। अतीत एक कोने पर स्मृति में होता है, लेकिन उसके ऊपर नहीं छाया होता। और वह रोज नये को देखने में सक्षम है।
तो आज तुम आ रहे हो तो मैं तुएहीं को देखूंगा, उसको नहीं जिसने कल मुझे गाली दी थी। क्योंकि वह अब कहां है? गंगा का बहुत पानी बह गया। अब तुम पता नहीं क्षमा मांगने आ रहे होओ और मैं सोच रहा हूं कि तुम वही आदमी हो जो गाली दे गया था। पता नहीं अब चैबीस घंटे में तुम क्या हो गए हो! क्योंकि चैबीस घंटे में अपना ही भरोसा नहीं कि क्या हो जाएंगे, दूसरे का क्या भरोसा!
तो स्मृति जो है, वह करप्टिंग एलिमेंट है। अगर तुमने उससे अपने को आइडेंटिफाइ किया, तुम मरे। बस आखिर में तुम पागल हो जाओगे। अगर उसके करप्शन में पूरे पड़ गए तो पागल हो जाओगे। अगर उससे तुम पूरे बाहर हो गए और स्मृति तुएहारी सिर्फ एक मैकेनिकल डिवाइस रही जो तुएहें काम देती है कि मकान कहां है, दुकान कहां है, जो पढ़ा है वह कहां है, वह सिर्फ एक मैकेनिकल डिवाइस है, जिसका तुम उपयोग कर लेते हो...
जैसे आज नहीं कल, हमने छोटे कंप्यूटर बना ही लिए हैं, वह हम कंप्यूटर जेब में डाल लेंगे। आदमी की स्मृति को इतना परेशान करने की जरूरत नहीं रहेगी। जरूरत नहीं है कि तुम दस फोन नंबर याद रखो। तुम अपने कंप्यूटर में, जैसे डायरी में तुम फीड कर देते हो कि ये मित्रों के फोन नंबर हैं, अपने कंप्यूटर में फीड कर दोगे कि मेरे हजार मित्रों के ये फोन नंबर हैं। और फिर तुम पूछते हो कि राम का फोन नंबर क्या है? कंप्यूटर तुमसे कह देता है कि इतना है। तो तुएहें अपनी स्मृति में रखने की जरूरत नहीं रह जाएगी, तुम अपना कंप्यूटर साथ रखोगे और वह तुएहारा काम कर देगा।
अभी भी वह भी बहुत इनर-मैकेनिजम कंप्यूटर का ही है, उसको भी हमें फीड करना पड़ता है। इसलिए हमको कहना पड़ता है..राम का फोन नंबर यह है, राम का फोन नंबर यह है। दस दफे कह लेते हैं, वह फीड हो जाता है, उसकी रेखा बन जाती है।
लेकिन यह तुम नहीं हो। तुम सदा इसके पार हो। तुम वह हो जिसने यह किया, तुम वह हो जो याद करेगा, तुम वह हो जो भूल सकता है। वह कांशसनेस अलग धारा है।
तो जब छलांग लगेगी, उसमें यह चेतना तुएहारी अलग साफ हो जाएगी। और तब तुम वर्जिन हो जाओगे। तब तुम वर्जिन हो जाओगे।
प्रश्नः सपोज इन ए सिचुएशन आई हैव लॉस्ट माई मेमोरी कंप्लीटली। विल इट बी पॉसिबल फॉर मी...
अगर तुम जो कह रहे हो, वह ठीक कह रहे हो, तो तुमने कुछ नहीं खोया हुआ है। समझे न? अब एक आदमी कह रहा है कि मैंने अपनी स्मृति पूरी खो दी। वह पक्का सबूत दे रहा है कि उसने कुछ नहीं खोया हुआ है। उसको सब मालूम है कि क्या-क्या खो दिया है। तो फिर कहां, कुछ भी नहीं खोया है। अगर एक आदमी की स्मृति खो जाए, तो बताने वाला कौन आएगा कहने कि भई, मेरी स्मृति खो गई है। समझे न तुम?
प्रश्नः एक चीज और बताइए! एक मित्र हैं, उन्होंने कहा कि मैं परमेश्वर-परमात्मा की धारणा छोड़ दूं और उसकी लगन छोड़ दूं। उसके साथ तुएहारी स्मृति पर फर्क पड़ेगा। तुम जो पोस्ट एंड टेलिग्राफ में इंजीनियर हो, वह नहीं कर पाओगे। वह हो भी नहीं पाता है...
मैं समझा तुएहारी बात। परमात्मा को थोड़े दिन के लिए छोड़ो। छोड़ना इसलिए कि जिस परमात्मा को हम पकड़ और छोड़ सकते हैं वह परमात्मा नहीं हो सकता। समझे न? वह हमारी स्मृति ही है..जो हमने किताबों में पढ़ी है, सुनी है..वह परमात्मा को हम पकड़े हुए हैं। वह झंझट डालेगा। वह भी करप्ट करेगा तुमको। समझे न? उसको छोड़ो। परमात्मा मैं उसी पवित्रता को कहता हूं जो उस इनोसेंस से आती है जो स्मृति के द्वारा चेतना को शुद्ध रखने का, मुक्त रखने का आधार है।
परमात्मा का मतलब यह है कि पवित्रतम! परमात्मा का कोई व्यक्ति से मतलब नहीं है। परमात्मा मतलब पवित्रतम। ठीक से समझो..परमात्मा का मतलब यह है कि पवित्रतम। परमात्मा पवित्र है, ऐसा नहीं; जो पवित्र है वह परमात्मा है, ऐसा। समझे न? तो वह जो प्योरिटी है, वह स्मृति तुएहारी रखने की जरूरत नहीं है, वही तो दिक्कत है। उसको छोड़ो। उसको याद रखने की जरूरत नहीं है।
और अध्यात्म और गैर-अध्यात्म और यह अलग और वह अलग, यह भी छोड़ो। इससे कोई लेना-देना नहीं है। आनंद से जीओ, शांति से जीओ और अतीत तुएहारे भविष्य को नष्ट न कर सके, इसके प्रति सचेत रहो। समझे न? फिर पोस्ट-टेलिग्राफ में और परमात्मा में बहुत फर्क नहीं है। समझे न? तो तुएहारा जो पोस्ट एंड टेलिग्राफ का जो इंजीनियरिंग है, उसमें और परमात्मा में कोई फर्क नहीं है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )
न, न, न। यह तो हम आग्रह ही न करें कि क्या-क्या हो। जो जैसा है, उसे स्वीकार करके हमें शांत रहना चाहिए।
प्रश्नः एक सवाल है।
हां, कहिए।
प्रश्नः ध्यान की अवस्था में जो आवाज सुनाई देती है या खुशबू आती है या प्रकाश दिखाई देता है, तो बाधा नहीं डालतीं ये सब बातें?
उसमें बाधा ला सकती है और साधक भी बन सकती है। यह आपके एटिट्यूड पर निर्भर है कि आप इसको कैसे लेते हैं। असल में इस जगत में बाधक और साधक दो चीजें नहीं हैं। एक रास्ते पर एक पत्थर पड़ा है। वह बाधक भी हो सकता है और सीढ़ी भी बन सकता है। वह पार जाने से रोक भी सकता है और पार जाने के लिए सहारा भी बन सकता है। तो यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण नहीं है कि क्या है बाधा और क्या है साधक। बड़ा सवाल यह है कि कैसे आप उसे लेते हैं।
अब जैसे आपको भीतर एक आनंदपूर्ण सुगंध आनी शुरू हुई। यह सिर्फ एक तथ्य है कि आपने बाहर की सुगंधें जानी थीं, आपने भीतर की भी एक सुगंध जान ली। वह भी बाहर के ही अनंत-अनंत जन्मों का संचित इसेंस है, वह भी। वह भी भीतर नहीं है। आपने भीतर प्रकाश जाना। वह भी बाहर के प्रकाश के अनंत-अनंत अनुभवों का संचित कोश है। जो भीतर बिल्कुल एटामिक फोर्स की तरह इकट्ठा हो गया है। जब वह प्रकट होगा तो सूरज फीका मालूम पड़ेगा। अगर आपने भीतर संगीत सुना, तो वह भी अनंत-अनंत संगीत, अनंत-अनंत ध्वनियों का इकट्ठा सारभूत परफ्यूम है वह भी। वह भीतर प्रकट होगी।
इतना तो तय हुआ कि यह जब प्रकट होती है, तब आप बाहर से उस जगह गए जहां बाहर के अनुभव संचित होते हैं। वह भीतर है जगह। तो आप इनवर्ड गए, यह तो सबूत है इस बात का..कि जब भीतर सुगंध आए, प्रकाश आए और भीतर और तरह के अनुभव आएं, तो इस बात का सबूत है कि आप भीतर गए। आपने स्थूल के जगत से सूक्ष्म में प्रवेश किया। फ्रॉम दि ग्रॉस टु दि सटल। लेकिन अभी अननोन में नहीं गए आप। क्योंकि अननोन को तो रिकग्नाइज ही नहीं कर सकते आप। आप कह रहे हैं कि यह सुगंध है। तो यह नोन की ही दुनिया है; जो सुगंध आप जानते थे, उससे इसका तालमेल है; रिकग्नीशन संभव हो सका है। आप कहते हैं, यह सुगंध है। आप कहते हैं, यह प्रकाश है। तो जो प्रकाश आप जानते रहे थे बाहर, उस प्रकाश से इसका तालमेल है। नहीं तो आप इसको प्रकाश कैसे कहेंगे? तो यह अननोन नहीं है। है तो यह नोन ही। लेकिन जिसे बाहर जाना था, उसे अब आपने भीतर जाना है। जैसे हमने चांद को देखा था आकाश में, अब हमने झील की छाया में देखा चांद को। बस इतना ही फर्क है। भीतर आपके जो बाहर से छाया पड़ी है, रिफ्लेक्शन हुआ है, वहां आपने पकड़ा इसको। तो डायमेंशन तो बदला, लेकिन स्थूल सूक्ष्म हुआ।
लेकिन सूक्ष्म भी स्थूल का ही रूप है। बहुत सूक्ष्म रूप है, लेकिन स्थूल का ही रूप है। इसलिए अगर बहुत ठीक से समझें, तो भीतर भी बाहर का ही मॉडीफिकेशन है। जिसको हम बाहर कहते हैं...वह दरवाजे के जो बाहर है वह बाहर है और दरवाजे के जो भीतर है वह भीतर है। इसमें ये कहां अलग होते हैं? किस जगह बाहर अलग होता है, भीतर अलग होता है? बाहर भीतर घुस आता है, भीतर बाहर निकल जाता है। तो सब मिले-जुले हैं। वही श्वास भीतर जाती है, तो आप कहते हैं, भीतर जा रही है; फिर वही श्वास बाहर जाती है, तो आप कहते हैं, बाहर जा रही है। वह तो वही श्वास है। उसके आने-जाने को, आधे को भीतर कह देते हैं, आधे को बाहर कह देते हैं।
बाहर और भीतर एक ही चीज के हिस्से हैं। सूक्ष्म और स्थूल भी एक ही चीज के हिस्से हैं। और यह सब ज्ञात ही है। लेकिन बाहर के ज्ञात से छलांग लगाना मुश्किल है, भीतर के ज्ञात से छलांग लगाना अज्ञात में आसान है। बस इसी अर्थों में वह सूक्ष्म है।
तो बाधा बन जाएगी अगर आप इसमें रसलीन हो गए और कहने लगे, पा लिया। तो बाधा बन जाएगी। अभी कुछ भी तो नहीं पाया, परफ्यूम ही पाई न! करोड़ों-करोड़ों गुनी अच्छी परफ्यूम पाई, जो बाजार में मिल सकती है, लेकिन है परफ्यूम ही न! और आज नहीं कल वैज्ञानिक उसको भी बना लेगा। ऐसी कोई कठिनाई तो नहीं, परफ्यूम ही पाई न!
आपने संगीत सुना भीतर; कुछ वीणा बजती सुनी, जैसी आपने कभी नहीं सुनी; कोई रविशंकर नहीं बजाता, ऐसी सुनी। लेकिन कोई रविशंकर कभी बजा लेगा। जो सुनी जा सकती है, वह कभी न कभी बजाई भी जा सकेगी। क्योंकि सुनना और बजाना एक ही प्रक्रिया के दो हिस्से हैं।
तो जो प्रकाश आपने देखा है, वह कभी बाहर भी देखा जा सकेगा, कभी विज्ञान इंतजाम कर लेगा, कि अब हम आपको भीतरी प्रकाश भी दिखाए देते हैं। एल.एसड़ी. और मैस्कलीन से वही सब भीतरी प्रकाश और ध्वनियां दिखाई पड़ रही हैं। वह वैज्ञानिक इंतजाम है।इसको आध्यात्मिक उपलब्धि समझ लेने की भूल में पड़े, तो बाधा हो जाएगी। अगर समझा कि मिल गया अध्यात्म, हमको तो सुगंध आने लगी, नाद सुनाई पड़ने लगा, प्रकाश दिखाई पड़ने लगा, मिल गया अब सब। तो चूक गए आप। यह फिर जो पत्थर सीढ़ी बनता, वह अब दीवाल बन गया। अब आप अटक गए। अब आप बुरी तरह अटके। क्योंकि स्थूल से तो आपके छुटकारे की आसानी थी, क्योंकि उसमें धोखे में पड़ना बहुत मुश्किल था कि यह अध्यात्म है, लेकिन इसमें धोखे में पड़ना आसान है।
अच्छा, उसमें कलेक्टिव मामला था। उसमें और लोग भी थे जो कहते कि
नहीं, कैसा
अध्यात्म, यह
तो मकान है। कैसा अध्यात्म, यह तो सितार की आवाज है। कैसा अध्यात्म,
यह तो बिजली का प्रकाश है।
कैसा अध्यात्म, यह
तो फूल की सुगंध है। दूसरे लोग भी कहते। अब आप बिल्कुल अकेले रह गए। अब दूसरा कोई
नहीं रहा। इसलिए अब अपने पर भरोसा कर लेना बहुत आसान है,
खुद को धोखा देना बहुत आसान
है। क्योंकि क्रिटिक कोई नहीं है अब वहां। अब आप अकेले ही हैं। इस ध्वनि को आप ही
सुनते हैं, कोई
दूसरा सुनता नहीं। इस प्रकाश को आप ही देखते हैं, कोई दूसरा देखता नहीं। तो अपने आपको
अब हैल्यूसिनेट कर लेना बहुत आसान है। अब आप कह सकते हैं,
मिल गया। मिल गया कहा तो
नुकसान हो जाएगा। जब तक मिल गया कहने की वृत्ति आए, तब तक खतरा है।
नहीं, अभी और छलांग लेनी पड़ेगी। अभी आप स्थूल से सूक्ष्म में आए,
बाहर से भीतर आए,
लेकिन अभी अज्ञात में नहीं
चले गए हैं। जिस दिन अज्ञात आएगा, उसको रिकग्नाइज नहीं कर सकेंगे आप। क्योंकि अज्ञात को
रिकग्नाइज कैसे करिएगा? आप न कह सकेंगे कि यह सुगंध है,
न कह सकेंगे प्रकाश है,
न कह सकेंगे परमात्मा,
न कह सकेंगे आत्मा,
न कह सकेंगे मोक्ष,
न कह सकेंगे निर्वाण,
कुछ न कह सकेंगे,
बस इतना ही कह सकेंगे कि
नहीं कह सकता हूं। उपाय नहीं है, पहचान नहीं पाता। आया है कुछ,
छुआ है कुछ,
लेकिन अब शब्द देने का भी
उपाय नहीं है। इतना भी नहीं कह सकता कि मैंने पा लिया,
क्योंकि मैं भी वहां नहीं
टिकता हूं। तब तो अज्ञात में छलांग होगी, वह अतींद्रिय होगी। क्योंकि हमारा सब ज्ञात इंद्रियों का
अनुभव है। वहां कुछ भी न रह जाएगा..न कोई वीणा बजेगी,
न कोई सुगंध आएगी,
न कोई प्रकाश रह जाएगा।
वहां कुछ भी न रह जाएगा आब्जेक्ट की तरह..कि यह हो रहा है।
और जहां आब्जेक्ट नहीं रह जाता, वहां सब्जेक्ट भी खो जाता है,
क्योंकि उसके बचने के लिए
उपाय नहीं है। जब तक कोई चीज हमें दिखाई पड़ती है, तो मैं भी रहता हूं कि मुझे दिखाई
पड़ रही है। सुगंध है, तो मैं मौजूद हूं; सुगंध है, मुझे आ रही है। प्रकाश है, मुझे दिखाई पड़ रहा है। जब तक
आब्जेक्ट है कोई भी, तब
तक मैं भी हूं। जब आब्जेक्टलेस स्थिति होती है, तो मैं कहां टिकूंगा! सहारा कहां
रहेगा कि मैं कहूं कि मैं भी हूं! क्योंकि ऐसा मैं कहां टिकेगा जिसको सुगंध नहीं
आती, प्रकाश
नहीं दिखाई पड़ता, जिसे
कुछ दर्शन नहीं होता, अनुभव नहीं होता, कुछ नहीं होता। इसलिए ‘आध्यात्मिक अनुभव’
शब्द बिल्कुल ही गलत है। जब
तक अनुभव है तब तक अध्यात्म नहीं है और जब अध्यात्म आता है तब अनुभव नहीं है,
क्योंकि अनुभव हमेशा
आब्जेक्टिव है, वह
सब्जेक्ट-आब्जेक्ट की रिलेशनशिप है। इसलिए वहां वह यह भी नहीं कह सकेगा कि अनुभव
हुआ है।
उपनिषद कहते हैं कि जो कहे कि मैंने जान लिया,
जानना कि उसने नहीं जाना।
यह गवाही हो जाएगी कि उसने अभी नहीं जाना।
प्रश्नः
साधना करने के पहले किताबों में हमने पढ़ लिया कि साधक को ऐसा-ऐसा अनुभव हो रहा है,
ऐसा होने वाला है,
हो सकता है,
तो मैं...साधना करने की
तैयारी में हूं और मैं कोशिश करूं कि मेरे को...कहां दिखे..तो मुझे दिखाई पड़ता
है..व्हाइट कलर, ग्रीन
कलर, ब्लू
कलर, ऐसा
इसकी धारणा करने बैठ जाऊं शुरू में, निर्विचार की स्थिति आने के पहले ही,
तो ये सब जो कल्पनाएं हमको
सिखाई जाती हैं, वे
बाधा नहीं डालतीं ध्यान में आने के लिए?
बाधा भी डाल सकती हैं, साधक भी हो सकती हैं। असल में ऐसी कोई बाधा नहीं हो सकती,
जो साधक न बन सके। ऐसी कोई
बाधा नहीं हो सकती। और ऐसा कोई साधन नहीं हो सकता, जो बाधा न बन सके। एटिट्यूड की बात
है। चीज की बात नहीं है। वह बाधक नहीं बनेगी, अगर आप जानते हैं कि सुना है,
पढ़ा है,
लिखा है,
इसलिए हो रहा है,
तब तो बाधक नहीं बनती। हम
प्रोजेक्ट कर रहे हैं इसलिए हो रहा है, तब तो बाधक नहीं बनती। और अगर आपने कहा कि नहीं,
सुना है,
लिखा है,
पढ़ा है,
वह नहीं हो रहा है;
यह तो अनुभव ही हो रहा है;
तब फिर बाधक बन सकती है। वह
गहरे में एटिट्यूड की बात है।
तो सदा इसमें सजग होने की जरूरत है कि जो हो रहा है वह मेरे सुने,
लिखे,
पढ़े,
जाने हुए का संचित रूप तो
नहीं है? वह
उतना ख्याल में बना रहे, तो एक दिन हो जाएगा वह जो सुना,
लिखा,
पढ़ा हुआ नहीं है। अभी तो
सभी सुना, लिखा,
पढ़ा हुआ है..सभी। अभी तो
कोई उपाय भी नहीं है। जब तक अनुभव न हो उसका, तब तक सभी सुना, पढ़ा, लिखा है।
पर ऐसी कोई चीज नहीं है..यही कठिनाई है..ऐसी कोई चीज नहीं है,
जो दोनों एक साथ न हो सके।
और तब अंततः चीज नहीं है महत्वपूर्ण, हमारा दृष्टिकोण महत्वपूर्ण है। तो मैं यह कहता हूं कि हर
चीज को साधन बनाओ। हर चीज को साधन बनाओ। और हर चीज को बाधा समझ लो,
तो कठिनाई में पड़ जाएंगे
आप।
वह भी उपाय है, हर चीज को बाधा ही समझ लो तो भी छलांग हो जाए। प्रत्येक
चीज बाधा समझ में आ जाए कि सब चीज बाधा है; तो सब चीजें छोड़ दो। वह छूटता नहीं। निगेटिव मेथड तो वही
है कि सब बाधा है, यह
भी बाधा, यह
भी बाधा, यह
भी बाधा, नेति-नेति,
यह भी नहीं,
यह भी नहीं,
यह भी नहीं। वह छूटता नहीं।
क्योंकि हम कहते हैं कि यह सीखा हुआ, पढ़ा हुआ, सुना हुआ, छूटे कैसे?
तो फिर दूसरा रास्ता यह है कि प्रत्येक को साधन बना लो..कि हम इस
पर भी पैर रखेंगे, इस
पर भी पैर रखेंगे, इस
पर भी पैर रखेंगे; लेकिन
कहीं रुकेंगे नहीं, छलांग
सबसे लगा जाएंगे। और दोनों उपाय हो सकते हैं। इसलिए दुनिया में दो ही साधना पथ
हैंः एक पाजिटिव, एक
निगेटिव। और तो कुछ भी नहीं है, दो ही साधना पथ हैं। एक जो प्रत्येक चीज को साधन बना लेगा
और एक जो प्रत्येक चीज को बाधा समझ लेगा। दोनों से काम हो जाएगा,
क्योंकि दोनों टोटल हो
जाएंगे। अगर प्रत्येक चीज बाधा है तो भी आप टोटल हो गए। मामला खत्म हो गया। अगर प्रत्येक
चीज साधन है तो भी टोटल हो गए। या तो निगेटिविटी में टोटल हो जाएं कि कोई साधन ही
नहीं है, तो
भी छलांग लग जाएगी। और या पाजिटिविटी में टोटल हो जाएं कि सब चीज साधन है। समझ रहे
हैं न?
अब जैसे तंत्र है, वह पाजिटिव है। वह कहता है, सब चीज साधन है..गांजा भी, अफीम भी, स्त्री भी, भोग भी..सब चीज साधन है। वह कहता है, बाधा कुछ है ही नहीं। इसलिए तंत्र यह नहीं कहेगा कि यह बुरा है। वह कहता है, बुरा कुछ है ही नहीं। जो भी है सब साधन है। तंत्र को पचाना भी बहुत मुश्किल है; क्योंकि हम कहेंगे, कुछ तो बुरा है, कुछ अच्छा है। इसलिए हम टोटल नहीं हो पाते। वह तांत्रिक भी टोटल हो जाता है; वह कहता है, सब साधन है। वह गांजा भी पीता है तो कहता है कि जय भोले। तो वह गांजा जो है, गांजे पर खड़े होकर वह भोले में छलांग लगा जाता है। वह कहता है, जय भोले।
अब गांजा और भोले का कोई लेना-देना नहीं। गांजा और भगवान के स्मरण का क्या संबंध है? लेकिन वह कहता है कि तेरा ही है यह भी, हम इस पर भी राजी हैं। वह कहता है, हम इस पर भी राजी हैं। तो वह सब स्वीकार कर लेता है, अस्वीकार ही नहीं करता। और हर चीज से कूदता चला जाता है। वह कहता है, कुछ बाधा ही नहीं है, तो हम किस चीज से डरें!
तंत्र को डराया नहीं जा सकता। उसे डराने का उपाय नहीं है। आप जिससे डराओगे, वह उसी को पी जाएगा। इसलिए शंकर उसके केंद्र पर आ गए। वे जहर भी पी जाएंगे। वह भी साधन है। शंकर जैसा पाजिटिव व्यक्तित्व नहीं हुआ जगत में, क्योंकि वह किसी चीज में बाधा ही नहीं है कुछ।
अब जैसे तंत्र है, वह पाजिटिव है। वह कहता है, सब चीज साधन है..गांजा भी, अफीम भी, स्त्री भी, भोग भी..सब चीज साधन है। वह कहता है, बाधा कुछ है ही नहीं। इसलिए तंत्र यह नहीं कहेगा कि यह बुरा है। वह कहता है, बुरा कुछ है ही नहीं। जो भी है सब साधन है। तंत्र को पचाना भी बहुत मुश्किल है; क्योंकि हम कहेंगे, कुछ तो बुरा है, कुछ अच्छा है। इसलिए हम टोटल नहीं हो पाते। वह तांत्रिक भी टोटल हो जाता है; वह कहता है, सब साधन है। वह गांजा भी पीता है तो कहता है कि जय भोले। तो वह गांजा जो है, गांजे पर खड़े होकर वह भोले में छलांग लगा जाता है। वह कहता है, जय भोले।
अब गांजा और भोले का कोई लेना-देना नहीं। गांजा और भगवान के स्मरण का क्या संबंध है? लेकिन वह कहता है कि तेरा ही है यह भी, हम इस पर भी राजी हैं। वह कहता है, हम इस पर भी राजी हैं। तो वह सब स्वीकार कर लेता है, अस्वीकार ही नहीं करता। और हर चीज से कूदता चला जाता है। वह कहता है, कुछ बाधा ही नहीं है, तो हम किस चीज से डरें!
तंत्र को डराया नहीं जा सकता। उसे डराने का उपाय नहीं है। आप जिससे डराओगे, वह उसी को पी जाएगा। इसलिए शंकर उसके केंद्र पर आ गए। वे जहर भी पी जाएंगे। वह भी साधन है। शंकर जैसा पाजिटिव व्यक्तित्व नहीं हुआ जगत में, क्योंकि वह किसी चीज में बाधा ही नहीं है कुछ।
दूसरे निगेटिव मेथड्स
हैं। जैसे बुद्ध का शून्य है या कृष्णमूर्ति की बात है। वह निगेटिव मेथड है। वे
कहते हैं, सब बाधा है, सब छोड़ दो। कोई चीज साधन नहीं है। साधन
है ही नहीं। इसलिए तुम साधन में उतरना ही मत। साधन पर जाना ही मत। सीढ़ी पर पैर ही
मत रखना। पैर ही क्यों रखते हो जब छलांग लगानी है? जब छलांग ही लगानी है, सीढ़ी से उतर ही जाना है, तो चढ़ते किसलिए हो? चढ़ो ही मत। तुम किसी सीढ़ी पर कभी जाओ ही
मत। किसी विधि, किसी
मेथड को कभी पकड़ो ही मत। तो छलांग लगी ही हुई है। जब तुम पकड़ोगे ही नहीं, सीढ़ी पर पैर ही न रखोगे, कहीं चढ़ोगे ही नहीं, तो कहां जाओगे? तो तुम शून्य में चले जाओगे।
ये दो ही हैं। और इन दोनों में बड़ा संघर्ष रहा है। वह संघर्ष नासमझी से भरा हुआ है। इन दोनों में भारी संघर्ष है। ये दोनों एक-दूसरे के दुश्मन हैं, ये दोनों एक-दूसरे के भारी दुश्मन हैं!
मेरी तकलीफ यह है कि मुझे दोनों ठीक हैं। इसलिए मेरी बात आपको कई दफे दिक्कत की हो जाती है। इसलिए दिक्कत की हो जाती है कि मुझे दोनों ठीक हैं। आपको ऐसा लगता है कि कभी मैं ऐसा कह देता हूं कि यह रही विधि; और कभी मैं कह देता हूं कि कोई विधि नहीं है। तो आपको कठिनाई हो जाती है कि यह मामला क्या है? क्योंकि अगर विधि नहीं है तो फिर हम...
और मैं दोनों ही बात करता रहूंगा। क्योंकि मेरी समझ यह है कि आने वाले भविष्य में दोनों ही बातें...क्योंकि इन दोनों बातों के विरोधी होने ने मनुष्य को बहुत नुकसान पहुंचाया है। बहुत नुकसान पहुंचाया है। क्योंकि कुछ भी नहीं कहा जा सकता कि कौन आदमी किस मार्ग से चला जाएगा। कुछ भी नहीं कहा जा सकता। इसलिए आग्रह खतरनाक हो सकता है। और ये दोनों पंथ, जब पंथ बने, तो आग्रहपूर्ण हो गए, बहुत आग्रहपूर्ण हो गए।
अब जैसे कृष्णमूर्ति हैं। अनाग्रही नहीं हैं; आग्रह भारी है। क्योंकि पाजिटिव को बरदाश्त ही न कर सकेंगे। यह मान ही न सकेंगे कि साधन भी हो सकता है। हो ही नहीं सकता। निगेटिव के लिए आग्रह अति है।
अब जैसे भक्त हैं..भक्त हैं, मीरा है, वह मान ही न सकेगी कि ऐसा भी हो सकता है कि साधन न हो, वह मान ही न सकेगी। वह कहेगी, सभी साधन हैं। असाधन तो हो ही नहीं सकता। नो-मेथड तो हो ही नहीं सकता।
और मेरी तकलीफ यह है कि मुझे दोनों ही ठीक हैं। लेकिन अगर मैं दोनों को एक साथ आपसे ठीक कहूं तो आप कनफ्यूज भी हो जाएंगे। फिर तो आप बिल्कुल पागल हो जाएंगे। इसलिए मुझे, कभी एक की मैं बात करता हूं। सोचता हूं, जिसको निगेटिव पकड़ जाएगा, वह निगेटिव से चला जाए। कभी पाजिटिव की बात करता हूं। सोचता हूं, कभी किसी को पाजिटिव पकड़ जाएगा, तो वह पाजिटिव से चला जाए। इसलिए मुझसे ज्यादा इनकंसिस्टेंट आदमी खोजना बहुत मुश्किल है। कंसिस्टेंट मुझे होना हो तो बिल्कुल हो सकता हूं। उसमें कोई कठिनाई नहीं है। एक को पकड़ लूं तो कंसिस्टेंट हो जाऊं। लेकिन नहीं हो पाऊंगा। वह मैं दोनों की ही बात करता रहूंगा।
और फिर यह भी पक्का नहीं है कि आपके लिए किस क्षण में कौन सी चीज ठीक पड़ जाए, यह भी पक्का नहीं है। ऐसा नहीं है कि एक आदमी को सदा ही निगेटिव ठीक पड़ता है। हो सकता है कल उसको निगेटिव ठीक पड़ता हो और आज न पड़े, क्योंकि निगेटिव की असफलता हो सकता है उसके चित्त को पाजिटिव की तरफ ले आए। पाजिटिव की असफलता निगेटिव की तरफ ले जाए। यह कुछ भी नहीं कहा जा सकता। इसलिए आग्रहपूर्ण मंतव्य खतरनाक है। पर आग्रह से बचो तो इनकंसिस्टेंसी अनिवार्य हो जाती है। असंगत वक्तव्य हो जाएंगे। इसलिए मेरे प्रति निरंतर लोग मुझे चिट्ठियां लिखते हैं कि आपने पहले यह कह दिया था, आप फलां किताब में यह कह दिए, उस किताब में आपने यह कह दिया, इस शिविर में आपने यह कहा, उस शिविर में आपने वह कहा।
वे नहीं समझ पा रहे हैं कि उन्हें जो ठीक लगे, उससे वे चल जाएं; मैं तो सब कहता रहूंगा। यह एक अर्थ में नया प्रयोग है..एक अर्थ में। और मैं यह मानता हूं कि असंगत होने से बड़ी और कोई हिएमत नहीं है। क्योंकि बहुत झंझट का काम है न! संगत होना बहुत सुविधापूर्ण है। एक पक्की राह है मेरी, पक्का हिसाब है। उतना कह देता हूं, बात खत्म हो गई। दूसरा गलत है। उसको मैं काट ही देता हूं, उसकी तरफ फिर कोई सवाल ही नहीं उठता। लेकिन मेरे लिए वह दूसरा, अगर मैं गलत भी कहता हूं तो सिर्फ इसीलिए कह रहा हूं कि यह रास्ता आपकी समझ में आ जाए। लेकिन जब दूसरे को मैं ठीक कहूंगा तो इस रास्ते को इतना ही गलत कह दूंगा।
असल में, मेरे लिए गलत और सही नहीं है। दो रास्ते हैं और दो तरह के लोग हैं। और हर आदमी में भी दोनों तरह के पहलू हैं। और जटिलता बहुत ज्यादा है। इसलिए पुरुष जो है..पुरुष चित्त; पुरुष नहीं, पुरुष चित्त..उसके लिए पाजिटिव रास्ता आसान पड़ जाता है। एकदम आसान पड़ जाता है। पुरुष चित्त, क्योंकि वहां एग्रेशन है, आक्रमण है। कुछ जीतने को चाहिए, कुछ पाने को चाहिए, कुछ पकड़ने को चाहिए। स्त्री चित्त जो है, वह निगेटिविटी है, वह रिसेप्टिविटी है..कोई आए। वह आक्रमण नहीं है, प्रतीक्षा है। तो जिस सदी में पुरुष का बहुत प्रभाव होता है, जैसे पिछली सारी सदियां, जिसमें स्त्री का कोई प्रभाव नहीं था, पुरुष का प्रभाव था, वे सब साधन की सदियां थीं। आने वाले दिनों में स्त्री धीरे-धीरे प्रभावी हुई है और पश्चिम में जहां कि स्त्री बहुत प्रभावी हो गई है, कृष्णमूर्ति जैसे विचार का प्रभाव पड़ सकता है। क्योंकि निगेटिविटी बढ़ी है। मगर यह इतना डोलता हुआ मामला है, रोज डोलता रहता है। जो ठीक लग जाए आपको, दो में से कोई एक निर्णय प्रत्येक व्यक्ति को अपने भीतर ले लेना चाहिए। अगर उसे लगता हो कि सब चीज बाधा मालूम पड़ती है, तो यह निर्णय भी बहुत अच्छा है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )
प्रयोग से ही जान सकोगी। बुद्धि भागीदार होगी प्रयोग में भी, लेकिन अकेली बुद्धि से न जान सकोगी। क्योंकि तुएहें कैसे पता चलेगा कि क्या तुएहारे लिए है? अकेली बुद्धि से पता नहीं चलेगा, क्योंकि अनुभव करने की क्षमता नहीं है बुद्धि में। अनुभव की क्षमता तो टोटल पर्सनैलिटी में है। अनुभव पर बुद्धि विचार कर सकती है। अगर अनुभव हाथ में न हो तो बुद्धि कुछ भी नहीं कर पाती।
तो इसलिए प्रयोग करो, देखो, प्रयोग के अनुभव जो आएं उन्हें बुद्धि के हाथ में दे दो और उससे कहो कि सोचो। और अगर ऐसा लगता है कि गति होती है साधन से, तो चली जाओ साधन में, फिर पूरी चली जाओ। ऐसा लगता है कि नहीं होती है गति, तो असाधन में चली जाओ। और यह मेरी इच्छा है कि जो लोग गहरे में जाएं किसी भी इस विधि में से, उसको मैं दूसरी विधि में भी बाद में ले जाना चाहूंगा, ताकि वह आग्रहपूर्ण न रह जाए।
यह पुराना बहुत अतीत का दुखद अनुभव हुआ है कि जो जिस विधि से गया, फिर उसने कभी लौट कर उससे विपरीत विधि का प्रयोग नहीं किया। करना बहुत कीमती है, क्योंकि तब आपमें आग्रह रह ही नहीं जाएगा। क्योंकि आप कहेंगे, फिर आप कह सकेंगे कि सब रास्ते पहुंचा देते हैं। और यह भी कह सकेंगे कि पहुंचने के लिए कोई रास्ता नहीं है। ये दोनों बातें कह सकेंगे।
आज इतना ही।
ये दो ही हैं। और इन दोनों में बड़ा संघर्ष रहा है। वह संघर्ष नासमझी से भरा हुआ है। इन दोनों में भारी संघर्ष है। ये दोनों एक-दूसरे के दुश्मन हैं, ये दोनों एक-दूसरे के भारी दुश्मन हैं!
मेरी तकलीफ यह है कि मुझे दोनों ठीक हैं। इसलिए मेरी बात आपको कई दफे दिक्कत की हो जाती है। इसलिए दिक्कत की हो जाती है कि मुझे दोनों ठीक हैं। आपको ऐसा लगता है कि कभी मैं ऐसा कह देता हूं कि यह रही विधि; और कभी मैं कह देता हूं कि कोई विधि नहीं है। तो आपको कठिनाई हो जाती है कि यह मामला क्या है? क्योंकि अगर विधि नहीं है तो फिर हम...
और मैं दोनों ही बात करता रहूंगा। क्योंकि मेरी समझ यह है कि आने वाले भविष्य में दोनों ही बातें...क्योंकि इन दोनों बातों के विरोधी होने ने मनुष्य को बहुत नुकसान पहुंचाया है। बहुत नुकसान पहुंचाया है। क्योंकि कुछ भी नहीं कहा जा सकता कि कौन आदमी किस मार्ग से चला जाएगा। कुछ भी नहीं कहा जा सकता। इसलिए आग्रह खतरनाक हो सकता है। और ये दोनों पंथ, जब पंथ बने, तो आग्रहपूर्ण हो गए, बहुत आग्रहपूर्ण हो गए।
अब जैसे कृष्णमूर्ति हैं। अनाग्रही नहीं हैं; आग्रह भारी है। क्योंकि पाजिटिव को बरदाश्त ही न कर सकेंगे। यह मान ही न सकेंगे कि साधन भी हो सकता है। हो ही नहीं सकता। निगेटिव के लिए आग्रह अति है।
अब जैसे भक्त हैं..भक्त हैं, मीरा है, वह मान ही न सकेगी कि ऐसा भी हो सकता है कि साधन न हो, वह मान ही न सकेगी। वह कहेगी, सभी साधन हैं। असाधन तो हो ही नहीं सकता। नो-मेथड तो हो ही नहीं सकता।
और मेरी तकलीफ यह है कि मुझे दोनों ही ठीक हैं। लेकिन अगर मैं दोनों को एक साथ आपसे ठीक कहूं तो आप कनफ्यूज भी हो जाएंगे। फिर तो आप बिल्कुल पागल हो जाएंगे। इसलिए मुझे, कभी एक की मैं बात करता हूं। सोचता हूं, जिसको निगेटिव पकड़ जाएगा, वह निगेटिव से चला जाए। कभी पाजिटिव की बात करता हूं। सोचता हूं, कभी किसी को पाजिटिव पकड़ जाएगा, तो वह पाजिटिव से चला जाए। इसलिए मुझसे ज्यादा इनकंसिस्टेंट आदमी खोजना बहुत मुश्किल है। कंसिस्टेंट मुझे होना हो तो बिल्कुल हो सकता हूं। उसमें कोई कठिनाई नहीं है। एक को पकड़ लूं तो कंसिस्टेंट हो जाऊं। लेकिन नहीं हो पाऊंगा। वह मैं दोनों की ही बात करता रहूंगा।
और फिर यह भी पक्का नहीं है कि आपके लिए किस क्षण में कौन सी चीज ठीक पड़ जाए, यह भी पक्का नहीं है। ऐसा नहीं है कि एक आदमी को सदा ही निगेटिव ठीक पड़ता है। हो सकता है कल उसको निगेटिव ठीक पड़ता हो और आज न पड़े, क्योंकि निगेटिव की असफलता हो सकता है उसके चित्त को पाजिटिव की तरफ ले आए। पाजिटिव की असफलता निगेटिव की तरफ ले जाए। यह कुछ भी नहीं कहा जा सकता। इसलिए आग्रहपूर्ण मंतव्य खतरनाक है। पर आग्रह से बचो तो इनकंसिस्टेंसी अनिवार्य हो जाती है। असंगत वक्तव्य हो जाएंगे। इसलिए मेरे प्रति निरंतर लोग मुझे चिट्ठियां लिखते हैं कि आपने पहले यह कह दिया था, आप फलां किताब में यह कह दिए, उस किताब में आपने यह कह दिया, इस शिविर में आपने यह कहा, उस शिविर में आपने वह कहा।
वे नहीं समझ पा रहे हैं कि उन्हें जो ठीक लगे, उससे वे चल जाएं; मैं तो सब कहता रहूंगा। यह एक अर्थ में नया प्रयोग है..एक अर्थ में। और मैं यह मानता हूं कि असंगत होने से बड़ी और कोई हिएमत नहीं है। क्योंकि बहुत झंझट का काम है न! संगत होना बहुत सुविधापूर्ण है। एक पक्की राह है मेरी, पक्का हिसाब है। उतना कह देता हूं, बात खत्म हो गई। दूसरा गलत है। उसको मैं काट ही देता हूं, उसकी तरफ फिर कोई सवाल ही नहीं उठता। लेकिन मेरे लिए वह दूसरा, अगर मैं गलत भी कहता हूं तो सिर्फ इसीलिए कह रहा हूं कि यह रास्ता आपकी समझ में आ जाए। लेकिन जब दूसरे को मैं ठीक कहूंगा तो इस रास्ते को इतना ही गलत कह दूंगा।
असल में, मेरे लिए गलत और सही नहीं है। दो रास्ते हैं और दो तरह के लोग हैं। और हर आदमी में भी दोनों तरह के पहलू हैं। और जटिलता बहुत ज्यादा है। इसलिए पुरुष जो है..पुरुष चित्त; पुरुष नहीं, पुरुष चित्त..उसके लिए पाजिटिव रास्ता आसान पड़ जाता है। एकदम आसान पड़ जाता है। पुरुष चित्त, क्योंकि वहां एग्रेशन है, आक्रमण है। कुछ जीतने को चाहिए, कुछ पाने को चाहिए, कुछ पकड़ने को चाहिए। स्त्री चित्त जो है, वह निगेटिविटी है, वह रिसेप्टिविटी है..कोई आए। वह आक्रमण नहीं है, प्रतीक्षा है। तो जिस सदी में पुरुष का बहुत प्रभाव होता है, जैसे पिछली सारी सदियां, जिसमें स्त्री का कोई प्रभाव नहीं था, पुरुष का प्रभाव था, वे सब साधन की सदियां थीं। आने वाले दिनों में स्त्री धीरे-धीरे प्रभावी हुई है और पश्चिम में जहां कि स्त्री बहुत प्रभावी हो गई है, कृष्णमूर्ति जैसे विचार का प्रभाव पड़ सकता है। क्योंकि निगेटिविटी बढ़ी है। मगर यह इतना डोलता हुआ मामला है, रोज डोलता रहता है। जो ठीक लग जाए आपको, दो में से कोई एक निर्णय प्रत्येक व्यक्ति को अपने भीतर ले लेना चाहिए। अगर उसे लगता हो कि सब चीज बाधा मालूम पड़ती है, तो यह निर्णय भी बहुत अच्छा है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )
प्रयोग से ही जान सकोगी। बुद्धि भागीदार होगी प्रयोग में भी, लेकिन अकेली बुद्धि से न जान सकोगी। क्योंकि तुएहें कैसे पता चलेगा कि क्या तुएहारे लिए है? अकेली बुद्धि से पता नहीं चलेगा, क्योंकि अनुभव करने की क्षमता नहीं है बुद्धि में। अनुभव की क्षमता तो टोटल पर्सनैलिटी में है। अनुभव पर बुद्धि विचार कर सकती है। अगर अनुभव हाथ में न हो तो बुद्धि कुछ भी नहीं कर पाती।
तो इसलिए प्रयोग करो, देखो, प्रयोग के अनुभव जो आएं उन्हें बुद्धि के हाथ में दे दो और उससे कहो कि सोचो। और अगर ऐसा लगता है कि गति होती है साधन से, तो चली जाओ साधन में, फिर पूरी चली जाओ। ऐसा लगता है कि नहीं होती है गति, तो असाधन में चली जाओ। और यह मेरी इच्छा है कि जो लोग गहरे में जाएं किसी भी इस विधि में से, उसको मैं दूसरी विधि में भी बाद में ले जाना चाहूंगा, ताकि वह आग्रहपूर्ण न रह जाए।
यह पुराना बहुत अतीत का दुखद अनुभव हुआ है कि जो जिस विधि से गया, फिर उसने कभी लौट कर उससे विपरीत विधि का प्रयोग नहीं किया। करना बहुत कीमती है, क्योंकि तब आपमें आग्रह रह ही नहीं जाएगा। क्योंकि आप कहेंगे, फिर आप कह सकेंगे कि सब रास्ते पहुंचा देते हैं। और यह भी कह सकेंगे कि पहुंचने के लिए कोई रास्ता नहीं है। ये दोनों बातें कह सकेंगे।
आज इतना ही।
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