हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्
दूसरा प्रवचन—(ध्यानः एक वैज्ञानिक दृष्टि)
मेरे प्रिय आत्मन्!सुना है मैंने, एक खतरनाक तूफान में कोई नाव उलट गई थी। एक व्यक्ति उस नाव में बच गया और एक निर्जन द्वीप पर जा लगा। दिन, दो दिन, चार दिन, सप्ताह, दो सप्ताह उसने प्रतीक्षा की कि जिस बड़ी दुनिया का वह निवासी था वहां से कोई उसे बचाने आ जाएगा। फिर महीने भी बीत गए और वर्ष भी बीतने लगा। फिर किसी को आते न देख कर वह धीरे-धीरे प्रतीक्षा करना भी भूल गया।
पांच वर्षों के बाद कोई जहाज वहां से गुजरा। उस एकांत निर्जन द्वीप पर उस आदमी को निकालने के लिए जहाज ने लोगों को उतारा। और जब उन लोगों ने उस खो गए आदमी को वापस चलने को कहा, तो वह विचार में पड़ गया। उन लोगों ने कहा, क्या विचार कर रहे हैं! चलना है या नहीं? तो उस आदमी ने कहा, अगर तुएहारे साथ जहाज पर कुछ अखबार हों, जो तुएहारी दुनिया की खबर लाए हों, तो मैं पिछले दिनों के कुछ अखबार देख लेना चाहता हूं।
अखबार देख कर उसने कहा, तुम अपनी दुनिया सएहालो और अपने अखबार भी। और मैं जाने से इनकार करता हूं।
बहुत हैरान हुए वे लोग। उनकी हैरानी स्वाभाविक थी। पर वह आदमी कहने लगा, इन पांच वर्षों में मैंने जिस शांति, जिस मौन और जिस आनंद को अनुभव किया है, वह मैंने पूरे जीवन के पचास वर्षों में भी तुम्हारी उस बड़ी दुनिया में कभी अनुभव नहीं किया था। और सौभाग्य और परमात्मा की अनुकंपा कि उस दिन तूफान में नाव उलट गई और मैं इस द्वीप पर आ लगा। यदि मैं कभी इस द्वीप पर न लगा होता, तो शायद मुझे पता भी न चलता कि मैं किस बड़े पागलखाने में पचास वर्षों से जी रहा था।
हम उस बड़े पागलखाने के हिस्से हैं! उसमें ही पैदा होते हैं, उसमें ही बड़े होते हैं, उसमें ही जीते हैं। और इसलिए कभी पता भी नहीं चल पाता कि जीवन में जो भी पाने योग्य है, वह सभी हमारे हाथ से चूक गया है। और जिसे हम सुख कहते हैं और जिसे हम शांति कहते हैं, उसका न तो सुख से कोई संबंध है और न शांति से कोई संबंध है। और जिसे हम जीवन कहते हैं, शायद वह मौत से किसी भी हालत में बेहतर नहीं है।
लेकिन परिचय कठिन है। चारों ओर एक शोरगुल की दुनिया है, चारों ओर शब्दों का, शोरगुल का उपद्रवग्रस्त वातावरण है। उस सारे वातावरण में हम वे रास्ते ही भूल जाते हैं, जो भीतर मौन और शांति में ले जा सकते हैं।
इस देश में..और इस देश के बाहर भी..कुछ लोगों ने अपने भीतर भी एकांत द्वीप की खोज कर ली है। न तो यह संभव है कि सभी की नावें डूब जाएं, न यह संभव है कि इतने तूफान उठें, और न ही यह संभव है कि इतने निर्जन द्वीप मिल जाएं जहां सारे लोग शांति और मौन को अनुभव कर सकें। लेकिन फिर भी यह संभव है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर ही उस निर्जन द्वीप को खोज ले।
ध्यान अपने ही भीतर उस निर्जन द्वीप की खोज का मार्ग है।
यह भी समझ लेने जैसा है कि दुनिया के सारे धर्मों में बहुत विवाद है। सिर्फ एक बात के संबंध में विवाद नहीं है। और वह बात ध्यान है। मुसलमान कुछ और सोचते, हिंदू कुछ और, ईसाई कुछ और, पारसी कुछ और, जैन-बौद्ध कुछ और। उनके सिद्धांत सबके बहुत भिन्न-भिन्न हैं। लेकिन एक बात के संबंध में इस पृथ्वी पर कोई भी भेद नहीं है। और वह यह कि जीवन के आनंद का मार्ग ध्यान से होकर जाता है। और परमात्मा तक अगर कोई भी कभी पहुंचा है तो ध्यान की सीढ़ी के अतिरिक्त और किसी सीढ़ी से नहीं। वह चाहे जीसस, और फिर चाहे बुद्ध, और चाहे मोहएमद, और चाहे महावीर..कोई भी, जिसने जीवन की परम धन्यता को अनुभव किया है, उसने अपने ही भीतर गहरे में डूब कर उस निर्जन द्वीप की खोज कर ली है।
इस ध्यान के विज्ञान के संबंध में दो-तीन बातें आपसे कहना चाहूंगा। पहली बात तो यह कि साधारणतः जब हम बोलते हैं, तभी हमें पता चलता है कि हमारे भीतर कौन से विचार चलते थे। ध्यान का विज्ञान इस स्थिति को..जब हम बोलते हैं तभी हमें पता चलता है कि हमारे भीतर क्या था..अत्यंत ऊपरी अवस्था मानता है। अगर एक आदमी न बोले तो हम पहचान भी न पाएं कि वह कौन है, क्या है।
सुकरात ने किसी आदमी से मिलते वक्त कहा कि तुम बोलो कुछ, तो मैं पहचान लूं कि तुम कौन हो। तुम न बोलो कुछ, तो पहचान बहुत मुश्किल है।
इसीलिए तो हम जानवरों को अलग-अलग नहीं पहचान पाते, क्योंकि वे बोलते नहीं हैं। और मौन में सारी शक्लें एक जैसी हो जाती हैं। शब्द हमारे बाहर प्रकट होता है, तभी हमें पता चलता है..हमारे भीतर क्या था।
ध्यान का विज्ञान कहता है, यह अवस्था सबसे ऊपरी अवस्था है चित्त की, सरफेस है, ऊपर की पर्त है। हम नहीं बोले होते हैं तब भी पहले उसके विचार भीतर चलता है। अन्यथा हम बोलेंगे कैसे? अगर मैं कहता हूं..‘ओम’, तो इसके पहले कि मैंने कहा, उसके पहले मेरे भीतर ओंठों के पार और मेरे हृदय के किसी कोने में ‘ओम’ का निर्माण हो जाता है।
ध्यान कहता है, वह दूसरी पर्त है व्यक्तित्व की गहराई की। साधारणतः आदमी ऊपर की पर्त पर ही जीता है। उसे दूसरी पर्त का भी पता नहीं होता। उसके बोलने की दुनिया के नीचे भी एक सोचने का जगत है, उसका भी उसे कुछ पता नहीं होता।
काश, हमें हमारे सोचने के जगत का पता चल जाए तो हम बहुत हैरान हो जाएं। जितना हम सोचते हैं, उसका बहुत थोड़ा सा हिस्सा वाणी में प्रकट होता है। ठीक ऐसे ही जैसे एक बर्फ के टुकड़े को हम पानी में डाल दें तो एक हिस्सा ऊपर हो और नौ हिस्सा नीचे डूब जाए। हमारा भी नौ हिस्सा जीवन का, विचार का तल नीचे डूबा रहता है। एक हिस्सा ऊपर दिखाई पड़ता है। इसीलिए अक्सर ऐसा हो जाता है कि आप क्रोध कर चुकते हैं, तब आप कहते हैं कि यह कैसे संभव हुआ कि मैंने क्रोध किया!
एक आदमी हत्या कर देता है, फिर कहता है, पछताता है कि यह कैसे संभव हुआ कि मैंने हत्या की! इंस्पाइट ऑफ मी! वह कहता है, मेरे बावजूद यह हो गया! मैंने तो कभी ऐसा करना ही नहीं चाहा था।
उसे पता नहीं कि हत्या आकस्मिक नहीं है; पहले भीतर निर्मित होती है। लेकिन वह तल गहरा है और उस तल से हमारा कोई संबंध नहीं रह गया।
ध्यान कहता है, पहले तल का नाम बैखरी है, दूसरे तल का नाम मध्यमा है। और उसके नीचे भी एक तल है जिसे ध्यान का विज्ञान पश्यंति कहता है। इसके पहले कि भीतर, ओंठों के पार, हृदय के कोने में शब्द निर्मित हो, उससे भी पहले शब्द का निर्माण होता है। लेकिन उस तीसरे तल का तो हमें साधारणतः कोई भी पता नहीं होता। उससे हमारा कोई संबंध नहीं होता। दूसरे तक हम कभी-कभी झांक पाते हैं, तीसरे तक हम कभी नहीं झांक पाते।
ध्यान का विज्ञान कहता है कि पहला तल बोलने का है; दूसरा तल सोचने का है; तीसरा तल दर्शन का है। पश्यंति का अर्थ हैः देखना। जहां शब्द देखे जाते हैं। मोहएमद कहते हैं कि मैंने कुरान देखी; सुनी नहीं। वेद के ऋषि कहते हैं..हमने ज्ञान देखा; सुना नहीं। मूसा कहते हैं..मेरे सामने टेन कमांडमेंट्स प्रकट हुए, दिखाई पड़े; सुने नहीं। यह तीसरे तल की बात है, जहां विचार दिखाई पड़ते हैं, सुनाई नहीं।
तीसरा तल भी ध्यान के हिसाब से मन का आखिरी तल नहीं है। चौथा एक तल है, जिसे ध्यान का विज्ञान ‘परा’ कहता है। वहां विचार दिखाई भी नहीं पड़ते, सुनाई भी नहीं पड़ते। और जब कोई व्यक्ति देखने और सुनने से नीचे उतर जाता है, तब उस चैथे तल का पता चलता है। और उस चैथे तल के पार जो जगत है, वह ध्यान का जगत है। ये चार हमारी पर्तें हैं, इन चार दीवालों के भीतर हमारी आत्मा है। हम बाहर के परकोटे की दीवाल के बाहर ही जीते हैं। पूरे जीवन शब्दों की पर्त के साथ जीते हैं और स्मरण में नहीं आता कि खजाने बाहर नहीं हैं, बाहर सिर्फ रास्तों की धूल है। और आनंद बाहर नहीं है। बाहर आनंद की धुन भी सुनाई पड़ जाए तो बहुत। जीवन का सब कुछ भीतर है..जड़ों में, गहरे अंधेरे में दबा हुआ। ध्यान वहां तक पहुंचने का मार्ग है।
पृथ्वी पर बहुत से रास्तों से उस पांचवीं स्थिति में पहुंचने की कोशिश की जाती रही है। और जो व्यक्ति इन चार स्थितियों को पार करके पांचवीं गहराई में नहीं डूब पाता, उस व्यक्ति को जीवन तो मिला, लेकिन जीवन को जानने की उसने कोई कोशिश नहीं की। उस व्यक्ति को खजाने तो मिले, लेकिन खजानों से वह अपरिचित रहा और रास्तों पर भीख मांगने में समय बिताया। उस व्यक्ति के पास वीणा तो थी जिससे संगीत पैदा हो सकता, लेकिन उसने उसे कभी छुआ नहीं। उसकी अंगुलियों का कभी कोई स्पर्श उसकी वीणा तक नहीं पहुंचा।
हम जिसे सुख कहते हैं, धर्म उसे सुख नहीं कहता। है भी नहीं। हम भी भलीभांति जानते हैं। हमारा सुख करीब-करीब ऐसा है, मुझे एक छोटी सी कहानी याद आती है।
एक आदमी अपने मित्रों के पास बैठा है..बहुत बेचैन, बहुत परेशान। और ऐसा मालूम पड़ता है उसके भीतर कोई बहुत कष्ट, कोई भीतर वह बहुत पीड़ा को दबाए हुए है। अंततः एक मित्र उससे पूछता है, इतने परेशान हैं! बात क्या है? सिर में दर्द है? पेट में दर्द है?
उस आदमी ने कहा, नहीं, न सिर में दर्द है, न पेट में दर्द है। मेरे जूते बहुत काट रहे हैं। बहुत तंग हैं जूते।
उस मित्र ने कहा, तो जूतों को निकाल दें। और अगर इतने तंग जूते हैं कि इतना परेशान कर रहे हैं, तो थोड़े ठीक जूते खरीद लें।
उस आदमी ने कहा, नहीं, यह न हो सकेगा। मैं वैसे ही बहुत मुसीबत में हूं। पत्नी मेरी बीमार है। लड़की ने, न चाहता था जिस व्यक्ति से, उससे शादी कर ली। लड़का शराबी है, जुआरी है। और मेरी हालत दिवाले के करीब है। नहीं, मैं वैसे ही बहुत दुख में हूं।
उन मित्रों ने कहा, आप पागल हैं, वैसे ही बहुत दुख में हैं तो इस जूते को तो बदल ही लें।
उस आदमी ने कहा, इस जूते के साथ ही मेरा एकमात्र सुख रह गया है।
तब तो वे बहुत चकित हुए। उन्होंने कहा, यह सुख किस प्रकार का है!
उस आदमी ने कहा, मैं इतनी मुसीबतों में हूं। दिन भर यह जूता मुझे काटता है, सांझ जब मैं इस जूते को उतारता हूं तो मुझे बड़ी राहत मिलती है। एक ही सुख मेरे पास बचा है, वह यह कि सांझ जब घर जाकर मैं इस जूते को उतारता हूं तो बड़ी रिलीफ, बड़ी राहत मिलती है। बस एक ही सुख मेरे पास है। और तो दुख ही दुख हैं। इस जूते को मैं नहीं बदल सकता हूं।
जिसे हम सुख कहते हैं, वह तंग जूते से ज्यादा सुख नहीं है, रिलीफ से ज्यादा सुख नहीं है। जिसे हम सुख कहते हैं, वह थोड़ी सी देर के लिए किसी तनाव से मुक्ति है; नकारात्मक है, निगेटिव है।
एक आदमी थोड़ी देर के लिए शराब पी लेता है और सोचता है कि सुख में है। एक आदमी थोड़ी देर के लिए सेक्स में उतर जाता है और सोचता है कि सुख में है। एक आदमी थोड़ी देर के लिए संगीत सुन लेता है और सोचता है कि सुख में है। एक आदमी बैठ कर गपशप कर लेता है, हंसी-मजाक कर लेता है, हंस लेता है और सोचता है कि सुख में है। ये सारे सुख तंग जूते को सांझ उतारने से भिन्न नहीं हैं। इनका सुख से कोई भी संबंध नहीं है।
सुख एक पाजिटिव, एक विधायक स्थिति है, नकारात्मक नहीं। सुख छींक जैसी चीज नहीं है कि आपको छींक आ जाती है और पीछे थोड़ी राहत मिलती है, क्योंकि छींक परेशान कर रही थी। वह एक नकारात्मक चीज नहीं है कि एक बोझ मन से उतर जाता है और पीछे अच्छा लगता है। सुख एक विधायक अनुभव है।
लेकिन बिना ध्यान के वैसा विधायक सुख किसी को अनुभव नहीं होता है। और जैसे-जैसे आदमी सभ्य और शिक्षित हुआ है, वैसे-वैसे ध्यान से दूर हुआ है। सारी शिक्षा, सारी सभ्यता आदमी को, दूसरों से कैसे संबंधित हों, यह तो सिखा देती है, लेकिन अपने से कैसे संबंधित हों, यह नहीं सिखाती।
समाज को कोई प्रयोजन भी नहीं है कि आप अपने से संबंधित हों। समाज चाहता है आप दूसरों से संबंधित हों, ठीक से, कुशलता से, बात पूरी हो जाती है। आप कुशलता से काम करें, बात पूरी हो जाती है। समाज आपको एक फंक्शन से ज्यादा नहीं मानता। अच्छे दुकानदार हों, अच्छे नौकर हों, अच्छे पति हों, अच्छी मां हों, अच्छी पत्नी हों, बात समाप्त हो गई। आप से समाज को कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए समाज की सारी शिक्षा उपयोगिता की है, यूटिलिटी की है। समाज सारी शिक्षा ऐसी देता है, जिससे कुछ पैदा हो।
आनंद से कुछ भी पैदा होता नहीं दिखाई पड़ता। आनंद कोई कमोडिटी नहीं है, जो बाजार में बिक सके। आनंद कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसे रुपये में भंजाया जा सके। आनंद कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसे बैंक बैलेंस में जमा किया जा सके। आनंद कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसका कोई भी मूल्य, जिसकी कोई भी बाजार में कीमत हो सके। इसलिए समाज को आनंद से कोई प्रयोजन नहीं है। और कठिनाई यही है कि आनंद भर एक ऐसी चीज है, जो व्यक्ति के लिए मूल्यवान है, बाकी कुछ भी मूल्यवान नहीं है। लेकिन जैसे-जैसे आदमी सभ्य होता है, यूटिलिटेरियन होता है..सब चीजों की उपयोगिता होनी चाहिए।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, ध्यान से क्या मिलेगा? शायद वे सोचते होंगे..रुपये मिलें, मकान मिले, कोई पद मिले।
ध्यान से न पद मिलेगा, न रुपये मिलेंगे, न मकान मिलेगा। ध्यान कोई उपयोगिता नहीं है। लेकिन जो आदमी सिर्फ उपयोगी चीजों की तलाश में घूम रहा है, वह आदमी सिर्फ मौत की तलाश में घूम रहा है। जीवन की भी कोई उपयोगिता नहीं है। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, वह परपजलेस है। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, उसकी बाजार में कोई कीमत नहीं है।
प्रेम की कोई कीमत है बाजार में? कोई कीमत नहीं है। आनंद की कोई कीमत है? कोई कीमत नहीं है। प्रार्थना की कोई कीमत है? कोई कीमत नहीं है। ध्यान की, परमात्मा की, इनकी कोई भी कीमत नहीं है। लेकिन जिस जिंदगी में अनुपयोगी, नॉन-यूटिलिटेरियन मार्ग नहीं होता, उस जिंदगी में सितारों की चमक भी खो जाती है। उस जिंदगी में फूलों की सुगंध भी खो जाती है। उस जिंदगी में पक्षियों के गीत भी खो जाते हैं। उस जिंदगी में नदियों की दौड़ती हुई गति भी खो जाती है। उस जिंदगी में कुछ भी नहीं बचता, सिर्फ बाजार बचता है। उस जिंदगी में काम के सिवाय कुछ भी नहीं बचता। उस जिंदगी में तनाव और परेशानी और चिंताओं के सिवाय कुछ भी नहीं बचता।
और जिंदगी चिंताओं का एक जोड़ नहीं है। लेकिन हमारी जिंदगी चिंताओं का एक जोड़ है। ध्यान हमारी जिंदगी में उस डायमेंशन, उस आयाम की खोज है, जहां हम बिना प्रयोजन के सिर्फ होने मात्र में, जस्ट टु बी, होने मात्र में आनंदित होते हैं। और जब भी हमारे जीवन में कहीं से भी सुख की कोई किरण उतरती है, तो वे वे ही क्षण होते हैं जब हम खाली, बिना काम के..समुद्र के तट पर या किसी पर्वत की ओट में या रात आकाश के तारों के नीचे या सुबह उगते सूरज के साथ या आकाश में उड़ते हुए पक्षियों के पीछे या खिले हुए फूलों के पास..कभी जब हम बिना काम, बिल्कुल बेकाम, बिल्कुल व्यर्थ, बाजार में जिसकी कोई कीमत न होगी, ऐसे किसी क्षण में होते हैं, तभी हमारे जीवन में सुख की थोड़ी सी ध्वनि उतरती है।
लेकिन यह आकस्मिक, एक्सिडेंटल होती है।
ध्यान व्यवस्थित रूप से इस किरण की खोज है। यह कभी होती है। यह ट्यूनिंग, कभी हम विश्व के और हमारे बीच संगीत का सुर बंध जाता है..कभी। ठीक वैसे ही जैसे कोई बच्चा सितार को छेड़ दे और कोई राग पैदा हो जाए आकस्मिक। ध्यान व्यवस्थित रूप से जीवन में उस द्वार को बड़ा करने का नाम है, जहां से आनंद की किरण उतरनी शुरू होती है, जहां से हम पदार्थ से छूटते हैं और परमात्मा से जुड़ते हैं।
मेरे देखे, ध्यान से ज्यादा बिना कीमत की कोई चीज नहीं है। और ध्यान से ज्यादा बहुमूल्य भी कोई चीज नहीं है। और आश्चर्य की बात यह है कि यह जो ध्यान, प्रार्थना..या हम कोई और नाम दें..यह इतनी कठिन बात नहीं है, जितना लोग सोचते हैं। कठिनाई अपरिचय की, कठिनाई न जानने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। जैसे हमारे घर के किनारे पर ही कोई फूल खिला हो और हमने खिड़की न खोली हो; जैसे बाहर सूरज खड़ा हो और हमारे द्वार बंद हों; जैसे खजाना सामने पड़ा हो और हम आंख बंद किए बैठे हों..ऐसी कठिनाई है। अपने ही हाथ से अपरिचय के कारण कुछ हम खोए हुए बैठे हैं, जो हमारा किसी भी क्षण हो सकता है। ध्यान प्रत्येक व्यक्ति की क्षमता है। क्षमता ही नहीं, प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार भी है। परमात्मा जिस दिन व्यक्ति को पैदा करता है, ध्यान के साथ ही पैदा करता है।
बच्चों में बूढ़ों से ज्यादा ध्यान होता है। इसलिए बच्चों की जिंदगी में बूढ़ों से ज्यादा आनंद की पुलक होती है। इसलिए बच्चों की आंखों में कुछ अलौकिक! बच्चे बोलते भी हैं तो जैसे मौन भीतर से बोलता है। बूढ़े बोलते भी हैं तो मौन से बचने के लिए। दो आदमी पास बैठते हैं, तो इसलिए जल्दी से बात शुरू कर देते हैं कि कहीं मौन न घेर ले, कहीं चुप्पी बीच में न आ जाए। अन्यथा कठिनाई होगी, फिर उस मौन को तोड़ना कठिन पड़ेगा। अगर पति पत्नी से थोड़ी देर न बोले तो खतरा है, पत्नी न बोले तो खतरा है। मौन थोड़ी देर आ जाए तो डर है, क्योंकि बीच में फिर मौन को तोड़ना बहुत मुश्किल हो जाएगा, उसे पिघलाना मुश्किल होगा। हम उसे आने ही नहीं देते। हम बोल-बोल कर मौन से बचते रहते हैं।
बच्चे अगर बोलते हैं तो उनसे मौन बोलता है। बूढ़े अगर बोलते हैं तो सिर्फ मौन से एक एस्केप, एक पलायन है। लेकिन हम बच्चों को जल्दी बूढ़े बनाने की कोशिश में लग जाते हैं। जब तक वे बच्चे रहते हैं, तब तक भरोसे के योग्य नहीं रहते। जब तक वे बच्चे रहते हैं, तब तक हमारी काम की दुनिया के हिस्से नहीं रहते। हम शीघ्र ही, उन्हें जो परमात्मा से मिला है, उसे तोड़ने-मोड़ने और अपने रास्तों में लगाने में तत्पर हो जाते हैं। इसके पहले कि बच्चा जान पाए कि क्या उसके पास था, हम उसे करीब-करीब उससे अपरिचित कर देते हैं; और उससे परिचित कर देते हैं, जिससे वह जिंदगी भर परिचित रहेगा और अपनी मूल संपदा से अपरिचित रह जाएगा।
ध्यान हमारा स्वभाव है। उसे हम जन्म के साथ लेकर पैदा होते हैं। और इसलिए बाद में ध्यान से परिचित होना कठिन नहीं है। क्योंकि कुछ जो हमारा है, जिसे हम केवल भूल गए हैं, विस्मरण किया है, उसे हम पुनः याद कर लेते हैं। स्मरण से ज्यादा नहीं है ध्यान..एक रिमेंबरिंग। कुछ था हमारे पास, जिसे हम भूल गए हैं, और पुनः याद कर लेते हैं। इसलिए कठिन नहीं है। और प्रत्येक व्यक्ति ध्यान में प्रविष्ट हो सकता है।
ध्यान-मंदिर से एक ऐसे स्थान का प्रयोजन है, जहां किसी भी धर्म का और किसी भी मार्ग का और किसी भी तरह से सोचने वाला व्यक्ति वैज्ञानिक रूप से, साइंटिफिक विधि से ध्यान से परिचित हो सके और ध्यान में प्रवेश कर सके। इतना ही नहीं, ध्यान के मार्ग पर जो बाधाएं हैं, उनसे परिचित हो सके, वैज्ञानिक ढंग से।
और ध्यान रहे, मैं जोर देकर कह रहा हूं..वैज्ञानिक ढंग से! क्योंकि मंदिरों की कोई कमी नहीं है, मस्जिदों की कोई कमी नहीं है, गुरुद्वारे बहुत हैं। लेकिन गुरुद्वारों की, मस्जिदों की, मंदिरों की भाषा और आज के आदमी के बीच कोई संबंध नहीं रह गया है। ऐसा नहीं कि मंदिर जो बोलते हैं वह गलत बोलते हैं। और ऐसा भी नहीं कि मस्जिद में जो कहा जाता है वह गलत है। और ऐसा भी नहीं कि गुरुद्वारा जो संदेश लिए बैठा है वह गलत है। वे संदेश सब ठीक हैं, लेकिन भाषा उनकी इतनी पुरानी पड़ गई है कि उससे आज के आदमी का कोई संबंध नहीं है। आज कोई संबंध हो भी नहीं सकता। आज के आदमी की सारी शिक्षण की व्यवस्था वैज्ञानिक है। और मंदिर और मस्जिद और गुरुद्वारे के सोचने के सारे ढंग पूर्व-वैज्ञानिक हैं, प्रि-साइंटिफिक हैं। उनसे आज के आदमी का कहीं भी कोई तालमेल नहीं हो पाता।
ध्यान-केंद्र से या ध्यान-मंदिर से मेरा प्रयोजन हैः वैज्ञानिक विधियों से, वैज्ञानिक व्यवस्था से आधुनिक आदमी के मन को ध्यान से न केवल बौद्धिक रूप से परिचित कराया जा सके, बल्कि प्रयोगात्मक, एक्सपेरिमेंटली भी उसे प्रवेश दिया जा सके। और बौद्धिक रूप से ध्यान से परिचित होना बहुत कठिन है, प्रयोगात्मक रूप से परिचित होना बहुत सरल है। कुछ चीजें हैं जिन्हें हम करके ही जान सकते हैं; जिन्हें हम जान कर कभी नहीं कर सकते। असल में उन्हें हम जान ही नहीं सकते, जब तक कि हम कर न लें। एक वैज्ञानिक व्यवस्था, जिससे प्रत्येक व्यक्ति आज की आधुनिकतम व्याख्या, भाषा, प्रतीकों में समझ पा सके। न केवल समझ पा सके, बल्कि कर भी सके, और ध्यान से परिचित भी हो सके।
इसमें दो-तीन बातें ख्याल में ले लेने जैसी हैं। कई बार बहुत छोटी सी चीजें हमारे ख्याल में नहीं होती हैं।
डा. पल्र्स एक अमेरिकन मनोवैज्ञानिक है। उसने एक बहुत छोटी सी बात पर जिंदगी भर प्रयोग किया। एक बहुत छोटी बात, जिसका हमें ख्याल भी नहीं हो सकता। उसका कहना है कि जो आदमी भोजन ठीक से चबा कर नहीं करता, उस आदमी की जिंदगी में हिंसा ज्यादा होगी, वह ज्यादा वायलेंट होगा। जो आदमी भोजन ठीक से चबा कर करता है, उसकी जिंदगी में हिंसा कम हो जाएगी।
यह बहुत अजीब सी बात मालूम पड़ती है। चबाने से और हिंसा का क्या संबंध हो सकता है! लेकिन पल्र्स की तीस साल की खोज यही है कि सभी जानवरों की हिंसा उनके दांतों से बंधी होती है। सभी जानवर दांत से हिंसा करते हैं, जब भी हिंसा करते हैं तो दांत से ही करते हैं। आदमी भी, उसकी हिंसा भी उसके दांतों में केंद्रित है। लेकिन आदमी ने जो भोजन विकसित किए हैं, उनमें उतनी हिंसा नहीं हो पाती। इसलिए उसके दांत की हिंसा उसके पूरे शरीर में फैल जाती है।
अब पल्र्स ने पिछले दस वर्षों में, अनेक लोग जो वायलेंट थे, पागल थे, जो हिंसा बिना किए रह नहीं सकते थे, उनको सिर्फ भोजन ठीक से चबाने का प्रयोग करवाया। और पाया कि तीन महीने के प्रयोग में, जो आदमी बिना चीजों को तोड़े-फोड़े नहीं रह सकता था, जो आदमी किसी न किसी को मारे बिना नहीं रह सकता था, उस आदमी की हिंसा तिरोहित हो गई। फिर उसने दांतों और हिंसा और मनुष्य के व्यक्तित्व को पूरा का पूरा वैज्ञानिक आधारों पर खोजबीन की और उसकी बात बहुत दूर तक सच साबित हुई है।
आप प्रयोग करके देखें तो ख्याल में आएगा। एक पंद्रह दिन भोजन को इतना चबाएं कि जब तक वह लिक्विड न हो जाए, तब तक उसको भीतर न ले जाएं। और चैबीस घंटे आप स्मरण करें कि आपकी हिंसा में रोज फर्क पड़ता है या नहीं पड़ता है। और आप इक्कीस दिन के प्रयोग के बाद दंग हो जाएंगे कि आपके क्रोध में फर्क हो गया है। और क्रोध के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ा। करना पड़ा कहीं कुछ और। और अगर आप सीधे क्रोध के लिए कुछ करेंगे तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। क्रोध दब जाएगा एक तरफ से, दूसरी तरफ से निकलना शुरू हो जाएगा।
आपको क्रोध आ जाए जोर से, तो अपनी टेबल के नीचे दोनों हाथ बांध कर नाखूनों को अपनी ही गद्दी में जोर से गड़ा लें..तीन बार, और मुट्ठी खोलें और छोड़ें और फिर क्रोध करके देखें। तो आप बहुत हैरान हो जाएंगे, तीन बार मुट्ठी को खोलने और बंद करने में वह ताकत खो गई जिससे आप क्रोध कर सकते थे।
असल में नाखून और दांत हिंसा के केंद्र हैं। सारे जानवर नाखून और दांतों से हिंसा कर रहे हैं। और चूंकि आदमी के पास दांत कमजोर थे और नाखून कमजोर थे, इसलिए उसने हथियार बनाए जिनसे उसने दांतों और नाखूनों का काम लिया है। अगर हम आदमी के सारे हथियारों को देखें तो हम पाएंगे, या तो वे दांत का विस्तार हैं या नाखून का।
ध्यान-केंद्र पर मैं इस तरह की सारी की सारी वैज्ञानिक व्यवस्था करना चाहता हूं, जहां आपकी हिंसा, आपका क्रोध, आपकी चिंता, आपका तनाव, आपकी अनिद्रा, इनसोमेनिया, आपके चित्त पर आने वाले सारे विकार क्यों पैदा होते हैं, कैसे पैदा होते हैं, तो आपको पैदा करके भी बताया जा सके और कैसे विदा होते हैं, वह आपसे ही विदा करके भी बताया जा सके। यह नकारात्मक हिस्सा होगा ध्यान का कि आप में जो व्यर्थ का कचरा इकट्ठा है, वह कैसे अलग हो सके। और फिर विधायक रूप से ये मैंने चार सीढ़ियां कहीं..बैखरी, मध्यमा, पश्यंति, परा..इन चार सीढ़ियों में आपको भीतर कैसे उतारा जा सके, आप इनमें भीतर कैसे उतर जाएं। एक बार बाहर का कचरा फिंक जाए तो भीतर उतर जाना बड़ी ही सरल बात है। बहुत कठिन नहीं है। शायद इस जिंदगी में हम बहुत सी फिजूल की बातें सीखने में जितना समय नष्ट करते हैं, उससे बहुत कम समय में ध्यान की गति शुरू हो जाती है।
पीटर लिंक ने कहीं लिखा है कि एक आदमी नरक जाने के लिए जितनी मेहनत उठाता है, उससे बहुत कम मेहनत में स्वर्ग पहुंच सकता है।
हम क्रोध के लिए जितना श्रम करते हैं, उससे बहुत कम श्रम में हम ध्यान में उतर सकते हैं। हम दूसरे के साथ लड़ कर जितना श्रम करते हैं, उतना अगर अपने को बदलने के लिए करें, तो हम कभी के परमात्मा की प्रतिमा को अपने भीतर खोजने में सफल हो जाएं। हम बाहर के रास्तों पर जितना दौड़ते हैं, अगर उससे सौवां हिस्सा भी हम भीतर के रास्ते पर जाएं, तो हम अपने पास पहुंच जाएं। और जो आदमी अपने पास नहीं पहुंचता, वह बाहर कितना ही दा.ैड़े, वह कहीं भी नहीं पहुंचेगा। जो अपने तक ही नहीं पहुंच पाया, वह कहीं और नहीं पहुंच सकता है। और जिसे अपने भीतर कोई शांति का संगीत नहीं मिला, उसे बाहर, वह जगत के कोने-कोने में घूम आए, नरक के अतिरिक्त कुछ भी मिलने वाला नहीं है। हम अपना नरक या अपना स्वर्ग अपने साथ लेकर चलते हैं।
इस ध्यान-मंदिर को एक वैज्ञानिक व्यवस्था; सांप्रदायिक जरा भी नहीं, किसी धर्म से बंधा हुआ जरा भी नहीं; और सब धर्मों के लिए खुला हुआ...। और प्रत्येक धर्म ने भी जो ध्यान के अलग-अलग प्रयोग खोजे हैं, उनकी भी क्या वैज्ञानिकता है, उस पर भी प्रयोग करने का उस केंद्र में ख्याल है।
कोई एक सौ बारह विधियां हैं सारे जगत में ध्यान की। और प्रत्येक विधि अदभुत है। और एक सौ बारह विधियों से आदमी परमात्मा तक पहुंच सकता है। उसमें एक-दूसरे से बिल्कुल विपरीत विधियां भी हैं। इसलिए एक विधि को मानने वाला दूसरी विधि को बिल्कुल गलत कहता है। लेकिन वे एक सौ बारह विधियां, सभी, व्यक्ति को ध्यान और शांति और आनंद और सत्य तक ले जाने का मार्ग बन जाती हैं।
इस ध्यान-केंद्र पर पूरी एक सौ बारह विधियों का प्रयोग करने का ख्याल है। और तब पहली बार पृथ्वी पर उस तरह का प्रयोग होगा, जिसमें आज तक पृथ्वी पर सारे ध्यान की प्रक्रियाओं को एक साथ, एक जगह...। हम एक भी व्यक्ति को वहां खोना न चाहेंगे। वह किसी भी मार्ग से जा सके, उस मार्ग पर ही उसे सुझाव दिए जा सकेंगे।
अब अजीब-अजीब विधियां हैं, जिनका आपने कभी सुना भी नहीं होगा नाम। एक-दो विधि मैं आपसे कहना चाहूं।
तिब्बत में एक बहुत छोटी सी विधि है..बैलेंसिंग, संतुलन उस विधि का नाम है। कभी घर में खड़े हो जाएं सुबह स्नान करके, दोनों पैर फैला लें और ख्याल करें कि आपके बाएं पैर पर ज्यादा जोर पड़ रहा है कि दाएं पैर पर ज्यादा जोर पड़ रहा है। अगर बाएं पर पड़ रहा है तो फिर आहिस्ते से जोर को दाएं पर ले जाएं। दो क्षण दाएं पर जोर को रखें, फिर बाएं पर ले जाएं। एक पंद्रह दिन, सिर्फ शरीर का भार बाएं पर है कि दाएं पर, इसको बदलते रहें। और फिर यह तिब्बती प्रयोग कहता है कि फिर इस बात का प्रयोग करें कि दोनों पर भार न रह जाए, आप दोनों पैर के बीच में रह जाएं। और एक तीन सप्ताह का प्रयोग और जब आप बिल्कुल बीच में होंगे..भार न बाएं पर होगा न दाएं पर..जब आप बिल्कुल बीच में होंगे, तब आप ध्यान में प्रवेश कर जाएंगे। ठीक उसी क्षण में आप ध्यान में चले जाएंगे।
ऊपर से देखने पर लगेगा कि इतनी सी आसान बात! करेंगे तो आसान भी मालूम पड़ेगी और कठिन भी मालूम पड़ेगी। बहुत सरल मालूम पड़ती है। दो पंक्तियों में कही जा सकती है। लेकिन लाखों लोगों ने इस छोटे से प्रयोग के द्वारा परम आनंद को उपलब्ध किया है। जैसे ही आप बैलेंस होते हैं..न बाएं पर रह जाते, न दाएं पर रह जाते, जैसे ही दोनों के बीच में रह जाते हैं, वैसे ही आप पाते हैं कि वह बैलेंसिंग, वह संतुलन आपकी कांशसनेस का, चेतना का भी बैलेंसिंग हो गया। चेतना भी बैलेंस्ड हो गई, चेतना भी संतुलित हो गई। तत्काल तीर की तरह भीतर गति हो जाती है।
ऐसी एक सौ बारह विधियां हैं सारे जगत में। इन सारी एक सौ बारह विधियों पर विस्तृत वैज्ञानिक व्यवस्था इस ध्यान-केंद्र में देना चाहता हूं। और न केवल आपको समझाया जा सके, बल्कि आपको करवाया जा सके। अगर एक विधि से न हो सके तो दूसरी विधि से करवाया जा सके। लेकिन हम आपको उस मंदिर से निराश न लौटने दें। क्योंकि एक सौ बारह ये चरम विधियां हैं, इससे ज्यादा हो नहीं सकतीं। अगर एक विधि काम नहीं करती, दूसरी करेगी; दूसरी नहीं करती, तीसरी करेगी। और आपकी विधि तत्काल खोज ली जा सकती है कि कौन सी विधि आप पर काम करेगी। आप पर कौन सी विधि काम करेगी, इसकी खोजने की साइंस भी, इसके खोजने का भी विज्ञान है।
और यदि हम इस समय देश के बड़े-बड़े नगरों में..और देश के बाहर भी..ध्यान के ऐसे विज्ञान-मंदिर निर्मित कर सकें, तो मनुष्य-जाति के लिए, जो आज सर्वाधिक पीड़ा और संताप से गुजर रही है और जिसे कोई मार्ग नहीं दिखाई पड़ता...क्योंकि जो-जो हमने सोचा था कि इससे सब ठीक हो जाएगा, उससे कुछ भी ठीक नहीं हुआ। सोचा था कि लोगों के पास भोजन ठीक होगा तो सब ठीक हो जाएगा। आज दुनिया में आधी दुनिया के पास भोजन बिल्कुल ठीक है। सोचा था लोगों के पास कपड़े होंगे, मकान होंगे, अच्छे रास्ते होंगे, दवा होगी, चिकित्सा होगी, बीमारियां कम होंगी। आज आधी दुनिया के पास सब है। एक बड़ी अदभुत घटना घटी है कि जिनके पास आज सब है, वे ही सर्वाधिक अशांत, बेचैन और परेशान हो गए। गरीब मुल्क एक अर्थ में सौभाग्यशाली हैं। भूखे मरते हुए मुल्क एक अर्थ में सौभाग्यशाली हैं। क्योंकि अभी भी उनकी आशा जीवित है। उन्हें ख्याल है कि समाजवाद आएगा, धन बढ़ेगा, धन बंटेगा, सब ठीक हो जाएगा। यह आशा भी उन मुल्कों की टूट गई, जहां यह सब ठीक हो गया है। अब वे बड़ी निराशा में, गहन निराशा में खड़े हो गए हैं। इतनी होपलेसनेस, इतनी आशारहितता कभी भी मनुष्य के इतिहास में पैदा नहीं हुई थी।
आज अमेरिका जितना आशाहीन है, उतना पृथ्वी पर कोई भी नहीं। और आज अमेरिका मनुष्य के इतिहास में पृथ्वी का सर्वाधिक संपन्न, सर्वाधिक सुखी..हमारे अर्थों में..सब कुछ जिसके पास है, और फिर भी अचानक अनुभव हो रहा है कि कुछ भी पास नहीं है। इतनी आशाहीन स्थिति का कारण एक है।
हमने सोचा था जिन बातों से मिलेगा सब, वे सब डिसइल्यूजनमेंट, वे सब भ्रम टूट गए। और अब हमें वापस लौट कर सुनना पड़ेगा बुद्ध को, कृष्ण को, क्राइस्ट को, मोहएमद को। क्योंकि उन्होंने बहुत-बहुत बार बहुत पहले यह कहा था कि सब भी मिल जाए मनुष्य को, लेकिन अगर स्वयं का अनुभव न मिले, तो कुछ भी मिलता नहीं है। लेकिन हमें उनकी बात ख्याल में नहीं आ सकी। नहीं आ सकती थी। क्योंकि बात बड़ी काल्पनिक मालूम पड़ती थी, बहुत यूटोपियन मालूम पड़ती थी। और जो लोग कहते थे..धन मिल जाए, मकान मिल जाए, उनकी बात बड़ी प्रैक्टिकल और व्यावहारिक मालूम पड़ती थी। इतिहास का मजाक कि जो लोग बहुत प्रैक्टिकल थे, वे बहुत यूटोपियन सिद्ध हुए; और जो लोग बहुत यूटोपियन थे, आज पृथ्वी पर वे ही सबसे ज्यादा प्रैक्टिकल सिद्ध होने के करीब हैं।
लेकिन धर्म अब पुराने रास्तों से नहीं लौटाया जा सकता। अब धर्म नये ही रास्तों से प्रवेश करेगा। उसके नये रास्ते वैज्ञानिक और तकनीकी होंगे। अब जैसे एक आदमी हिमालय जाता था। आज भी हम सोचते हैं..एक आदमी हिमालय जाए तो ध्यान में जा सकता है। लेकिन कभी हमने सोचा नहीं कि हिमालय किसलिए जाता था? जितना ताप कम हो जाए वातावरण में, उतना भीतर प्रवेश आसान हो जाता है। लेकिन कितने लोग हिमालय जा सकते हैं?
लेकिन बंबई में एक एयरकंडीशंड मेडिटेशन हॉल हो सकता है। कोई हिमालय जाने की जरूरत नहीं है। क्योंकि हिमालय पर जो ठंडक मिल सकती है, वह बंबई में भी उपलब्ध हो सकती है अब। अब हिमालय पर जाने की व्यर्थ की दौड़-धूप है। अब तो ठीक बंबई के बीच बाजार में भी उतनी ही शीतलता उपलब्ध हो सकती है, जितनी एक योगी को हिमालय की चोटी पर उपलब्ध होती थी। उसके आस-पास भी बर्फ फैलाया जा सकता है..अगर बर्फ से ही कुछ लाभ होना है तो बर्फ फैलाया जा सकता है। अगर ऊंचाई से कुछ लाभ होता है, जमीन के ग्रेविटेशन के कम होने से कुछ लाभ होता है, तो बंबई में भी ग्रेविटेशन कम किया जा सकता है। अगर मौन से लाभ हो सकता है, तो बंबई में भी साउंडप्रूफ इंतजाम किए जा सकते हैं।
और अधिकतम लोगों के लिए हिमालय की चोटी संभव नहीं। और अगर अधिक लोग पहुंच जाएं तो हिमालय की बर्फ भी पिघल जाएगी। अधिक लोग वहां नहीं पहुंचे हैं, तभी तक वह उपयोगी है। अधिक लोग वहां पहुंच जाएं तो वहां भी इतना ही उत्ताप पहुंच जाएगा, इतनी ही गर्मी पहुंच जाएगी। एवरेस्ट पर जिस दिन जाने का रास्ता सीधा होगा, उस दिन हम बस्तियां वहां भी बसा लेंगे।
आने वाले भविष्य में, मनुष्य जहां है, वहीं सारी टेक्नोलॉजी और साइंस का उपयोग किया जा सकता है। और वहीं सारी व्यवस्था की जा सकती है, जो कि एक योगी को बड़ी तकलीफें उठा कर व्यवस्था करनी पड़ती थी। वह विज्ञान के द्वारा संभव हो गई। एक सामान्य आदमी के लिए भी सुलभ हो सकती है।
विज्ञान और टेक्नोलॉजी का पूरा प्रयोग करके ही इस मंदिर को, ध्यान के मंदिर को निर्मित करना है। यह ध्यान का मंदिर मंदिर सिर्फ इसी अर्थों में होगा कि वह ध्यान का है, अन्यथा वह एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला होगी। इस वैज्ञानिक प्रयोगशाला में मनुष्य ने जो-जो खोज की है आदमी के संबंध में, उसका पूरा उपयोग किया जाना चाहिए।
एक आदमी ध्यान करने आता है, लेकिन उसका ब्लडप्रेशर बढ़ा हुआ है। इस आदमी को ध्यान में ले जाना आसान नहीं है। इस आदमी को ध्यान में ले जाना कठिन है। इसके रक्तचाप की जो अधिकता है, वह इसके ध्यान में बाधा बनेगी। पुराने आदमी के पास रक्तचाप को नापने का कोई माध्यम नहीं था। लेकिन आज के ध्यान-मंदिर में रक्तचाप नापने का माध्यम हो सकता है। रक्तचाप को कम करने की व्यवस्था हो सकती है। और फिर ध्यान में ले जाने की सुविधा बनाई जा सकती है। हां, एक बार आदमी ध्यान में चला जाए तो रक्तचाप में जाना मुश्किल हो जाएगा। लेकिन रक्तचाप में डूबे हुए आदमी को ध्यान में जाना मुश्किल हो जाता है।
सारी दुनिया के योगियों ने अल्प-आहार पर जोर दिया है, कम खाने पर जोर दिया है। उपवास पर, अल्प-आहार पर, कम भोजन पर, सएयक-आहार पर सारी दुनिया के योगियों ने जोर दिया है। फिर भी उनके पास, अल्प-आहार क्या है, इसकी ठीक-ठीक जांच की कोई व्यवस्था नहीं थी, सिवाय अनुमान के। न उन्हें कैलोरी.ज का कुछ पता था, न उन्हें भोजन के तत्वों का कुछ पता था। इसलिए कई बार ऐसा हुआ कि अल्प-आहार के नाम पर जो चला, उससे नुकसान ही पहुंचा।
आज हमारे पास बहुत वैज्ञानिक व्यवस्था है कि एक आदमी को कितनी कैलोरी भोजन की जरूरत है। और हम यह तय कर सकते हैं कि उसकी कितनी कैलोरी कम हो जाए तो उसे ध्यान में आसानी हो जाएगी और कितनी कैलोरी ज्यादा हो जाए तो कठिनाई हो जाएगी।
अगर ज्यादा भोजन है तो ध्यान में कठिनाई हो जाएगी, क्योंकि ज्यादा भोजन ज्यादा नींद मांगता है। उसे पचाने के लिए उतनी ज्यादा नींद चाहिए। कम भोजन कम नींद मांगता है। और जितनी भीतर निद्रा कम पैदा होती हो उतना ध्यान का जागरण पैदा हो सकता है। ध्यान तो जागरण है। एक आदमी ध्यान करने बैठता है और ज्यादा भोजन करके बैठ जाता है तो फिर कठिनाई होगी।
लेकिन ज्यादा भोजन से मतलब सिर्फ पेट में ज्यादा चीजें चली जाएं, इससे नहीं है। क्योंकि हो सकता है एक आदमी ने बहुत शाक-सब्जी खा लिया हो, पेट पर तो वजन ज्यादा हो, लेकिन भोजन ज्यादा न हुआ हो। और एक आदमी ने थोड़ी सी ही मिठाई खाई हो, पेट पर तो वजन कम हो, लेकिन भोजन ज्यादा हो गया हो। और आमतौर से साधु-संन्यासी मिठाई खाते रहे, दूध पीते रहे, रबड़ी लेते रहे, इस बात का बिना ख्याल किए...लेकिन उसका कोई उपाय नहीं था, उसका कोई साफ ख्याल नहीं था। आज हमारे पास उपाय है।
एक आदमी कितना सोए, इस पर निर्भर करेगा कि उसकी ध्यान की गति कैसी हो सकेगी। दोनों बातें संबंधित हैं। अगर ध्यान ठीक हो जाए तो नींद ठीक हो जाएगी। लेकिन ध्यान को ठीक करना उतना आसान नहीं, जितना नींद को ठीक कर लेना आसान है। पहले नींद ठीक कर ली जाए तो ध्यान में गति बहुत आसान हो जाएगी।
अब लोगों के पास नींद ही नहीं है। वे रात भर सोए नहीं, सुबह ध्यान करने बैठ गए हैं! जो आदमी रात भर सोया नहीं है वह ध्यान में सिर्फ सोएगा। इसलिए मंदिरों में पूजा करते हुए, साधु को सुनते हुए लोग अगर सो जाते हैं तो बहुत हैरानी नहीं है। मैंने तो सुना है, कुछ डाक्टर सलाह देते हैं कि धर्मसभा में चले जाना चाहिए, अगर नींद न आती हो।
मैंने सुना है, एक बहुत बड़ा पादरी अपने एक मित्र को बार-बार कहता था कि तुम कभी मेरा व्याख्यान सुनने आओ। नहीं माना तो एक दिन वह मित्र सुनने गया। पादरी अच्छे से अच्छा जो बोल सकता था, बोला। बाहर जब दोनों निकलने लगे तो उसने अपने मित्र से पूछा कि कैसा लगा? तो उसने कहा, बहुत ही ताजगी देने वाला, रिफ्रेशिंग। पादरी के हृदय की धड़कन खुशी से बढ़ गई। उसने कहा, कौन सी बात तुएहें इतनी ताजगी देने वाली लगी? उसने कहा कि जब मेरी नींद खुली तो मन बड़ा ताजा था। इतनी तो मुझे, घर भी नींद आती है, तब भी इतनी ताजगी नहीं मिलती। मैं जरूर आया करूंगा। तुएहारा भाषण बहुत रिफ्रेशिंग था।
क्यों? आखिर मंदिर में, धर्मकथा में आदमी को नींद आ जाती है, बात क्या है?
बोर्डम, ऊब पैदा हो जाए, नींद आ जाती है। कोई चीज उबाने लगे, नींद आ जाती है। और नींद की कमी हो तो जल्दी ही कोई चीज उबाने लगती है।
जिनको नींद नहीं आती, वे मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं, हमें नींद नहीं आती। ध्यान से शायद नींद आ जाए!
उन्हें पता नहीं, ध्यान से नींद जरूर ठीक हो जाएगी, लेकिन नींद का ठीक होना ध्यान में जाने के पहले बहुत जरूरी है। अन्यथा ध्यान में जाना मुश्किल हो जाएगा, कठिन हो जाएगा। कठिन इसलिए हो जाएगा कि चित्त को पहली जरूरत नींद की है। और जैसे ही विश्राम मिला, चित्त सो जाएगा। और ध्यान में जरूरत है विश्राम में भी जागे हुए होने की..रिलैक्स्ड एंड अवेयर। एक तरफ सब विश्राम हो और एक तरफ सब जागा हुआ हो, तभी कोई ध्यान में प्रवेश कर सकता है। और नींद का नियम यह है कि यहां हम विश्राम में हुए बाहर कि भीतर नींद आ गई। रिलैक्स हुए कि नींद आ गई। तो ध्यान में अक्सर लोग सो जाएंगे।
अब यह सारी व्यवस्था आज की जा सकती है। नींद नापी जा सकती है। उनके सपने नापे जा सकते हैं कि कितने सपने आपको आ रहे हैं। आपको भी पता नहीं होता, कितने सपने आ रहे हैं, कैसे सपने आ रहे हैं।
कल ही एक साधिका मेरे पास थी। ध्यान करना है उसे। मैंने उसके सपनों के बाबत पूछा। उसने कहा कि सपनों से क्या मतलब आपको! मुझे ध्यान करना है। मैंने उससे कहा कि मुझे पूछना बहुत जरूरी है, क्योंकि सपने ही मुझे बताएंगे कि तुएहें सच में ध्यान करना है या कुछ और करना है। उसने कहा, सपने में तो मुझे सिवाय कामवासना के और हिंसा के, हत्या के, आग लगा देने के..इस तरह के ही सपने आते हैं। तो मैंने कहा कि वही तुएहारा चित्त करना चाहता है। अभी ध्यान मुश्किल पड़ेगा। पहले तो तुएहारे सपनों को शुद्ध करना पड़ेगा।
जिस व्यक्ति को स्वयं को शुद्ध करना है, वह अगर अपने सपनों को भी शुद्ध न कर पाए तो स्वयं को शुद्ध नहीं कर पाएगा। सपने जैसी साधारण चीज भी अशुद्ध हो तो स्वयं का शुद्ध होना बहुत मुश्किल है। जिसके सपने भी अभी सात्विक न हो पाए हों, उसका सत्व सात्विक हो जाए, यह बहुत मुश्किल है। जिसके सपने अभी शांत न हो पाए हों, उसकी सत्ता शांत हो जाए, यह अभी बहुत मुश्किल है।
लेकिन आज से पहले सपने की जांचने की कोई सुविधा न थी। इस ध्यान-केंद्र में सपने के जांचने की पूरी व्यवस्था करना चाहता हूं। अब तो इंतजाम है। जैसे आपका कार्डियोग्राम लिया जाता है, वैसे ही आपके रात नींद के सपने का ग्राफ बन जाता है कि आपने कितनी देर सपने देखे, किस तरह के सपने देखे। वायलेंट थे, नॉन-वायलेंट थे, सेक्सुअल थे, नहीं थे सेक्सुअल, क्या था, सपने किस तरह के थे, इसकी काफी जानकारी ग्राफ दे देता है और कितना सपना देखा रात भर। क्योंकि यह जान कर आप हैरान होंगे कि सपनों के संबंध में जितनी जानकारी बढ़ी है, उतना यह प्रतीत हुआ है कि चित्त के भीतर भी वेव्ज हैं, तरंगें हैं। जब सपना चलता है तो तरंगें और तरह की होती हैं, जब सपना बंद होता है तो और तरह की होती हैं। और बड़े आश्चर्य की बात है कि गहरी नींद में जो तरंगों की स्थिति होती है, वही स्थिति ध्यान की तरंगों में भी होती है। ध्यान में जब कोई व्यक्ति होता है तो उसके मस्तिष्क की तरंगें वैसी ही होती हैं, जैसी तरंगें गहरी निद्रा में होती हैं। और जब कोई व्यक्ति सपने में होता है तो तरंगें वैसी ही होती हैं, जैसे जब कोई व्यक्ति चिंता में होता है। चिंता और सपनों का जोड़ है; गहरी निद्रा और ध्यान का जोड़ है।
यह सारी वैज्ञानिक व्यवस्था इस ध्यान-मंदिर में करने का ख्याल है। और प्रत्येक व्यक्ति को वैज्ञानिक रूप से सहायता पहुंचाई जा सके, यह दृष्टि। और मेरे देखे, आज मनुष्य को ध्यान की जितनी जरूरत है, उतनी किसी और चीज की जरूरत नहीं है; क्योंकि आज मनुष्य जितना अशांत है, उतना मनुष्य अशांत कभी भी नहीं था।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं। सोचना, विचारना; मान लेने की कोई भी जरूरत नहीं है। और यह ध्यान-मंदिर विश्वास करने वालों के लिए नहीं होगा, प्रयोग करने वालों के लिए होगा। विश्वास करने वाले वैसे भी अब कहीं नहीं हैं, सिर्फ कहते हुए दिखाई पड़ते हैं लोग, कहीं कोई विश्वास करने वाला आदमी अब नहीं है! हर आदमी के रथ पर शल्य बैठा हुआ है।
एक छोटी सी कहानी और अपनी बात मैं पूरी कर दूं।
कर्ण ने अपने महायुद्ध में महाभारत के, जिस आदमी को सारथी चुना, वही उसकी हार का कारण बना। उसने जिस आदमी को सारथी चुना उसका नाम था शल्य। शल्य का अर्थ होता है..संदेह, शंका, संशय। और कर्ण का अर्थ आप जानते ही हैं। कर्ण का अर्थ होता है..कान। सब शंकाएं कान से प्रवेश करती हैं। शल्य को कर्ण ने सारथी चुन लिया और अर्जुन ने कृष्ण को सारथी चुना। सारे युद्ध के लिए निर्णायक, डिसीसिव यही बात हो गई। क्योंकि वह जो शल्य जो था, उसका नाम ही शल्य इसीलिए था कि वह बड़ा शंकालु आदमी था। कर्ण बहुत शक्तिशाली आदमी था। जो लोग जानते हैं, महाभारत जिनके सामने हुआ, उन सबका ख्याल था कि कर्ण से अर्जुन जीत न सकेगा। कर्ण महाशक्तिशाली था। कर्ण के पीछे सूर्य की शक्ति थी। अर्जुन जीत न पाएगा। लेकिन अंततः युद्ध में हुआ ऐसा कि अर्जुन जीता और कर्ण हारा। और तब जो जानते हैं वे कहते हैं, वह गलत सारथी को चुनने की वजह से कर्ण हारा। क्योंकि वह जो शल्य था, वह पूरे वक्त कर्ण को कहता रहा, अरे तू क्या जीतेगा अर्जुन से! वह पूरे वक्त उससे यही कहता रहा। वह अपना धनुष-बाण खींच रहा है और वह शल्य, उसका सारथी कह रहा है, क्यों मेहनत कर रहा है, तू क्या जीतेगा अर्जुन से! तेरी जीत बहुत मुश्किल है। एक यह था सारथी। और एक कृष्ण था सारथी अर्जुन के पास कि अर्जुन छोड़ कर गांडीव बैठ गया और कृष्ण ने पूरी गीता कही कि वह आदमी लड़े। क्योंकि कृष्ण ने कहा कि जो होना है वह पहले से निश्चित है। तुझे कुछ करना ही नहीं है; तू सिर्फ निमित्त है। यह जो शल्य मिल गया कर्ण को, यह जो शंका मिल गई उसके मन को, वह उसे डुबाने वाली हो गई।
आज तो हर आदमी का सारथी शल्य है। कोई पहचानता हो, न पहचानता हो, संदेह आज हर आदमी के साथ खड़ा है। इसलिए जो विश्वास, संदेह के अभाव में प्रचारित किए गए थे, वे अब काम के नहीं हैं। अब तो पहले शल्य की हत्या करनी पड़े, तब कहीं व्यक्ति के भीतर की चेतना पर कोई परिणाम लाया जा सकता है। और इस शल्य की हत्या बिना विज्ञान के नहीं हो सकती। इसलिए मैं इस ध्यान-केंद्र में आपके शल्य की हत्या विज्ञान के द्वारा करना चाहता हूं।
विश्वास के द्वारा अब नहीं होगा। मेरे यह कहने से कि आप मान लें, आप मानेंगे नहीं। मानने का अब कोई उपाय नहीं रहा। वह वक्त गया, वह समय बीत गया, जब लोग मान लेते थे। अब वह समय कभी भी नहीं लौट सकता। वह मनुष्य-जाति का बचपन सदा के लिए खो गया। अब आदमी प्रौढ़ है। और इस प्रौढ़ आदमी के पास जो संदेह है, उस संदेह को अगर हम वैज्ञानिक प्रयोग से नष्ट न कर सकें, तो मनुष्य की जिंदगी में हम कोई भी क्रांति लाने में सफल नहीं हो सकते हैं।
इसलिए इस ध्यान-मंदिर को मैं एक वैज्ञानिक मंदिर कहता हूं, जहां हम ध्यान को, धर्म को वैज्ञानिक मार्ग से मनुष्य तक पहुंचाने का प्रयास कर सकते हैं।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं।
मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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