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शुक्रवार, 30 अगस्त 2024

अहंकार के सात द्वार-(मनसा मोहनी)

अहंकार के सात द्वार-(मनसा मोहनी)


कुछ दिन पहले हम सात द्वारों के बारे में बात कर रहे थे – कि हम अहंकार को कैसे पोषित करते है। अहंकार कैसे बनता है, अहंकार का भ्रम कैसे मजबूत होता है। इसके बारे में कुछ बातें गहराई से जानना हम सब के लिए मददगार होगा। जिस प्रकार हमारे शरीर में सात चक्र है, तो प्रत्येक चक्र का एक सूर है एक ताल है, लय है। इसी प्रकार हर चक्र का एक रंग है। ठीक इसी प्रकार हर चक्र को एक अहंकार भी है। ये सून कर आप को थोड़ा अजीब जरूर लगेगा।

तो अब एक-एक द्वार से हम अहंकार को समझने की कोशिश करते है। अहंकार से डरना नहीं चाहिए। लेकिन जिस तरह से एक तलवार आप की रक्षा कर सकती है। वह आपकी गर्दन भी काट सकती है। हर उर्जा के दो रूप होते है। इस गहरे से समझना होगा।

अहंकार के ये सात द्वार एक दूसरे से बहुत स्पष्ट और पृथक नहीं हैं; ये एक दूसरे को ओवरलैप करते हैं। और ऐसा व्यक्ति खोजना बहुत दुर्लभ है जो अपने अहंकार को सातों द्वारों से उपलब्ध कर ले। अगर कोई व्यक्ति अपने अहंकार के सातों द्वारों से प्राप्त कर ले, तो वह पूर्ण अहंकार हो गया। और केवल पूर्ण अहंकार ही मिटने की क्षमता रखता है, अपूर्ण अहंकार नहीं। जब फल पक जाता है तो गिर जाता है; जब फल कच्चा होता है तो चिपकता है। अगर तुम अभी भी अहंकार से चिपके हो, तो याद रखो, फल पका नहीं है; इसलिए चिपकते हो। अगर फल पक गया है, तो वह जमीन पर गिर जाता है और मिट जाता है। अहंकार के साथ भी यही स्थिति है।

01- अहंकार का पहला द्वार - (हमारा शारीरिक स्व है)

बच्चा धीरे-धीरे सीखना शुरू करता है: बच्चे को यह सीखने में करीब पंद्रह महीने लगते हैं कि वह अलग है, कि उसके अंदर कुछ है और बाहर कुछ है। वह सीखता है कि उसका शरीर अन्य शरीरों से अलग है। लेकिन कुछ लोग अपने पूरे जीवन भर उसी द्वार पर खड़े अटक कर रह जाते है। वह उस बहुत ही छोटे खंडित अहंकार से चिपके अपना जीवन जीते रहते हैं। ये वे लोग हैं जिन्हें भौतिकवादी, कम्युनिस्ट, मार्क्सवादी के रूप में जाना जाता है। जो लोग मानते हैं कि शरीर ही सब कुछ है - कि आपके अंदर शरीर के अलावा और कुछ नहीं है, कि शरीर ही आपका संपूर्ण अस्तित्व है, कि शरीर से अलग, शरीर के ऊपर कुछ नहीं है, शरीर मिटा तो सब मिट गया। परंतु सत्य इसके बिलकुल विपरीत है। वे समझते है हमारे अंदर कोई चेतना नहीं है, कि चेतना तो हमारे शरीर में घटने वाली एक रासायनिक घटना मात्र है, कि आप केवल शरीर इस से अलग कुछ भी नहीं हैं और जब शरीर मरता है तो सब कुछ खत्म हो जाता है। सब मर जाता है। और सब कुछ गायब हो जाता है... धूल में धूल...विलय हो जाती है,  आप में कोई दिव्यता नहीं है - वे मनुष्य को केवल पदार्थ ही समझते है। और सोचते है सब पदार्थ में बदल जाता हैं।

ये वे लोग हैं जो अपने पहले दरवाजे से चिपके रहते हैं; उनकी मानसिक आयु केवल पंद्रह महीने के लगभग रह जाती है। बहुत ही अल्पविकसित और आदिम अहंकार भौतिकवादी बना रहता है। ये लोग दो चीजों से चिपके रहते हैं: सेक्स और भोजन। लेकिन याद रखें, जब मैं भौतिकवादी, साम्यवादी, मार्क्सवादी कहता हूं, तो मेरा मतलब यह नहीं है कि यह सूची पूरी हो गई है। कोई व्यक्ति अध्यात्मवादी भी दिख सकता है, वह हो सकता है और फिर भी पदार्थ से ही चिपका रह सकता है। पहले से चिपका रह सकता है..

2- अहंकार का दूसरे द्वार – (आत्मा-की पहचान)

दूसरे द्वार पर बच्चे को अपने बारे में एक विचार विकसित होने लगता है। आईने में देखने पर उसे अपना वही चेहरा दिखाई देता है। हर सुबह बिस्तर से उठकर वह बाथरूम की ओर भागता है, देखता है और कहता है, "हाँ, यह मैं ही हूँ। नींद ने कुछ भी बाधित नहीं किया है।" एक निरंतरता के कारण उसे एक सतत आत्मा का विचार होने लगता है।

वे लोग जो इस द्वार से बहुत अधिक जुड़ जाते हैं, इस द्वार से चिपक जाते हैं, वे तथाकथित अध्यात्मवादी हैं जो सोचते हैं कि वे स्वर्ग, जन्नत, मोक्ष में जा रहे हैं, लेकिन वे होते कहीं नहीं वे वहाँ ही होते है इस समाज में। जब आप स्वर्ग के बारे में सोचते हैं, तो आप निश्चित रूप से अपने बारे में सोचते हैं कि जैसे आप यहाँ हैं, वैसे ही आप वहाँ भी होंगे। हो सकता है कि शरीर वहाँ न हो, लेकिन आपकी आंतरिक निरंतरता बनी रहेगी। यह बेतुकी बात है! एक गलत धारणा बहुत से धर्म में प्रचलित है।, जिसके कारण वह आंखों पर पट्टी बाँध कर चल रहे होते है। की वह मुक्ति हो गये, लेकिन वह परम मुक्ति नहीं है यह तभी होती है जब स्वयं विलीन हो जाता है और सारी पहचान विलीन हो जाती है। आप एक शून्य बन जाते हैं...

3- अहंकार का तीसरा द्वार – (आत्म-सम्मान)

बच्चा काम करना सीखता है और उन्हें करने में आनंद लेता है। कुछ लोग यहीं पर फंस कर रह जाते हैं - वे तकनीशियन बन जाते हैं, दिखने में वे कलाकार बन जाते हैं, अभिनेता बन जाते हैं, वे राजनेता बन जाते हैं, वे शोमैन बन जाते हैं। मूल विषय कर्ता है; वे दुनिया को दिखाना चाहते हैं कि वे कुछ कर सकते हैं। अगर दुनिया उन्हें कुछ रचनात्मकता की अनुमति देती है, तो अच्छा है। अगर यह उन्हें रचनात्मकता की अनुमति नहीं देती है, तो वे विनाशकारी बन जाते हैं। उनका कर्ता का भाव उनकी उर्जा प्रज्वलित है की वह बिना कार्य के रह नहीं सकते। अगर उन्हें रोका-टोका जाये तो विध्वंसकारी भी हो सकते है। वे हिटलर, चंगेजखान, नादिरशाह, तैमूरलंग....भी बन जाते है।

4- अहंकार का चौथा द्वार – (आत्म-विस्तार)

'मेरा' शब्द का विस्तार जीवन पर गहराने लग जाता है, वहां मुख्य शब्द न रह की एक जीवन शैली बल जाता है। कई रूप प्रकारों में जैसे धन संचय करके, शक्ति संचय करके, कैसे बड़ा और बड़ा और बड़ा बनकर, इस सब में व्यक्ति को अपना विस्तार महसूस करने लग जाता है, वह नित ऐसे कार्य करता है जिससे उसके होने की प्रबलता अधिक से अधिक हो: वह सोचता है मेरा देश मेरी भक्ति महान है। वह कहता है, "यह मेरा देश है, और यह दुनिया का सबसे महान देश है।" आप भारतीय देशभक्त से पूछ सकते हैं: वह हर गली-मोहल्ले से चिल्लाता रहता है कि यह पुण्य भूमि है - यह पुण्य की भूमि है, दुनिया की सबसे पवित्र भूमि है।

एक बार एक तथाकथित संत, एक हिंदू भिक्षु, अपने जीवन की एक कहानी कहता है और उन्होंने कहा, "क्या आप विश्वास नहीं करते कि यह एकमात्र देश है जहां इतने सारे बुद्ध पैदा हुए, इतने सारे अवतार, इतने सारे तीर्थंकर - राम, कृष्ण और अन्य। क्यों? - क्योंकि यह सबसे पुण्य भूमि है।"

सच अगर हमारा देश पुण्य भूमि होता तो क्या इतने सारे डाक्टर आते। शायद हम एक खास तल पर पहुंच कर थिर हो गए है। रूक गये मानसिक रूप से बीमार हो गए है इस लिए भगवान हमें जगाने के लिए आते है।

5- अहंकार का पांचवां द्वार- (नैतिकता का प्रवेश):

आप नैतिकतावादी बन जाते हैं; आप बहुत अच्छा महसूस करने लगते हैं, 'तुमसे अधिक पवित्र'। या, निराशा में, प्रतिरोध में, संघर्ष में, आप अनैतिक बन जाते हैं और आप पूरी दुनिया से लड़ना शुरू कर देते हैं, पूरी दुनिया को दिखाने के लिए।

यह पाँचवाँ द्वार है, आत्म-छवि। पापी और संत वहाँ फँसे हुए हैं। स्वर्ग और नर्क उन लोगों के विचार हैं जो वहाँ फँसे हुए हैं। लाखों लोग फँसे हुए हैं। वे लगातार नर्क से डरते हैं और स्वर्ग के लिए लगातार लालची रहते हैं। वे चाहते हैं कि ईश्वर उन्हें थपथपाए, और वे चाहते हैं कि ईश्वर उनसे कहे, "तुम अच्छे हो, मेरे बेटे। मैं तुमसे खुश हूँ।" वे अपने जीवन का बलिदान करते रहते हैं, बस जीवन और मृत्यु से परे कहीं किसी कल्पना द्वारा थपथपाए जाने के लिए। वे दिखावे के लिए खुद को हज़ारों यातनाएँ देते रहते हैं, जिसे वह साधना का एक अंग समझते है। इस से हजारों लोगों से वे भिन्न हो जाते है। और उनका अहंकार एक तपस्वी रूप ले लेता है। बस इसलिए कि ईश्वर कह सके, "हाँ, तुमने मेरे लिए खुद का बलिदान कर दिया।"

6- अहंकार का छठा द्वार- (कारण के रूप में स्वयं)

यह शिक्षा, अनुभव, पढ़ने, सीखने, सुनने के माध्यम से आता है: आप विचारों को इकट्ठा करना शुरू करते हैं, फिर आप विचारों से सिस्टम, सुसंगत समग्रता, दर्शन बनाना शुरू करते हैं। यहीं पर दार्शनिक, वैज्ञानिक, विचारक, बुद्धिजीवी, तर्कवादी जुड़े हुए हैं। लेकिन यह अधिक से अधिक परिष्कृत होता जा रहा है: पहले से, छठा बहुत परिष्कृत है।

7- अहंकार का सातवां द्वार- (कलाकार, रहस्यवादी, स्वप्नदर्शी, स्वप्नदर्शी)

जीवन का यह द्वारा अति संवेदनशील और महत्वपूर्ण है ये द्वार अति संकरा होता चला जाता है। यहां वे सभी कलाकार, रहस्यवादी, बुद्धिजीवी, स्वप्नदर्शी यहीं पर आसक्त होते हैं। वे हमेशा दुनिया में एक स्वप्नलोक बनाने की कोशिश कर रहे हैं। स्वप्नलोक शब्द बहुत सुंदर है: इसका अर्थ है वह जो कभी नहीं आता। यह हमेशा आ रहा है लेकिन कभी नहीं आता; यह हमेशा वहाँ है लेकिन कभी यहाँ नहीं है। लेकिन कुछ चंद्र-दर्शी हैं जो दूर, सुदूर की तलाश में रहते हैं, और वे हमेशा कल्पना में घूमते रहते हैं। महान कवि, कल्पनाशील लोग - उनका पूरा अहंकार बनने में शामिल है। कोई है जो भगवान बनना चाहता है; वह एक रहस्यवादी है।

स्मरण रहे, अहंकार के सातवें द्वार पर 'हो जाना' मुख्य शब्द है, और सातवां अहंकार ही मनुष्य का अंतिम अहंकार है। वह शुद्ध रूप में, सबसे परिपक्व अहंकार वहां आता है। इसीलिए तुम अनुभव करोगे, तुम एक कवि को देखोगे - उसके पास कुछ भी न हो, वह एक भिखारी हो सकता है, लेकिन उसकी आंखों में, उसकी नाक पर, तुम महान अहंकार को देखोगे। रहस्यदर्शी ने सारा संसार त्याग दिया हो सकता है और वह हिमालय के पिंजरे में, हिमालय की गुफा में बैठा हो सकता है। तुम वहां जाओ और उसे देखो: वह वहां नग्न बैठा हो सकता है - लेकिन कितना सूक्ष्म अहंकार, कितना परिष्कृत अहंकार। वह तुम्हारे पैर भी छू सकता है, लेकिन वह दर्शा रहा है, "देखो मैं कितना विनम्र हूं!"

ओशो

ह्रदय-सूत्र

 

 


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